बुधवार : तीन दिसम्बर
अगले रोज सुबह सब फिर बिलथरे के घर में थे । इस बार उनकी मुलाकात इमारत की छोटी-सी बेसमेंट में हुई। वो बेसमेंट इस ढंग से बनी हुई थी कि इमारत की सूरत देखकर ये अन्दाजा लगाना मुश्किल था कि वो इमारत के किस हिस्से में थी । ये तक कहना मुश्किल था कि उसमें कोई बेसमेंट थी । उस तक पहुंचने का रास्ता ऊपर किचन के पहलू में स्थित एक स्टोर में से होकर था और वो काफी सामान इधर-उधर करने पर ही नुमायां होता था । वो बेसमेंट मूलरूप से इमारत में किस प्रयोजन से बनाई गई थी, कहना मुहाल था, लेकिन बिलथरे उसमें अपना सिक्कों का कलैक्शन और पैकिंग का सामान रखता था ।
"मेरा तकरीबन बिजनेस मेल ऑर्डर से है" - उसने खुद ही बताया ।
"कैसे चलता है ?" - नवलानी ने पूछा ।
“वी पी पी से । हर कायन डीलर के पास अपने पास उपलब्ध सिक्कों की कैटेलाग होती है जो वो सारे भारत में बिखरी बेशुमार न्युमिसमैटिक एसोसिएशंस को भेजता रहता है । मैं भी ऐसा ही करता हूं । कभी-कभार अखबार में विज्ञापन भी देता हूं । वैसे कलैक्शन के शौकीनों तक ज्यादा पहुंच प्रदर्शनियों के जरिए ही होती है । "
"यहां वो ट्रे हैं जो डिस्प्ले रैक कहलाती हैं?" जीतसिंह ने पूछा ।
“हां ।" - बिलथरे बोला - “कई हैं ।”
"दिखाओ।"
बिलथरे ने कई रैक पेश किए । उनमें से कई के कई खानों में सिक्के मौजूद थे। जीतसिंह के कहने पर उसने वैसी पांच ट्रे सिक्कों से मुकम्मल भरी और उन्हें एक सूटकेस में बन्द करके दिखाया ।
जीतसिंह ने सूटकेस उठाकर देखा तो महसूस किया कि वजन बीस-बाईस किलो से किसी कदर भी कम नहीं था ।
बिलथरे में उस रोज गौरतलब बात ये थी कि वो पिछले रोज वाले उस देवदासी मूड में नहीं था जिसमें कि वो होटल में पहुंचा था । तब वो पूरी मुस्तैदी से हर काम करके दिखा रहा था । पता नहीं उसे खुद ही अक्ल आ गई थी या उसका वो बदला मूड सुकन्या की किसी झाड़ फटकार या मनुहार का नतीजा था । जरूर उसे तसल्ली हो गई थी कि जीतसिंह कोई मौसमी बीमारी थी जो चन्द दिन अपना असर दिखाकर टल जाने वाली थी । लिहाजा चन्द दिन तो वो जीतसिंह को बर्दाश्त कर ही सकता था ।
"सिक्कों को यूं" - जीतसिंह ने पूछा- "एक-एक करके पैक करना क्यों जरूरी होता है ?"
"क्योंकि इनके आपस में टकराने से, रगड़ लगने से इनकी सरफेस खराब हो जाती है और उस वजह से इनकी वैल्यू घट जाती है। डिस्प्ले रैक में सिक्के सेफ रहते हैं । कीमती सिक्कों को तो इस तरह अलग-अलग खानों में रखना निहायत जरूरी होता है। यूं इन्हें ऊबड़-खाबड़ सड़कों पर भी सुरक्षित रूप से ढोया जा सकता है । "
"ये कहती है कि तकरीबन डीलर दो सूटकेस लेकर आएंगे लेकिन बाज बड़े डीलर तीन चार या पांच सूटकेस भी ला सकते हैं !"
"ज्यादा सूटकेस वो डीलर नहीं लाते जिनके पास कीमती माल ज्यादा होता है, बल्कि वो लाते हैं जिनके पास चलता माल ज्यादा होता है। ऐसी नुमाइश में ज्यादा बिक्री ऐसे माल की ही होती है। इसलिए वो ऐसा माल ज्यादा ढोते हैं । ऐसे डीलरों के कई सूटकेस तो नुमाइश के वक्फे में खुलते तक नहीं । सेल गर्म न हो तो पैक के पैक ही लौट जाते हैं।"
"कोई और बात ?"
"अभी तो नहीं सूझ रही । तुम बोलो । "
"ठीक है । मैं बोलता हूं। जितना मैं बोल चुका हूं उसमें इजाफा ये है कि मैंने होटल से माल निकालने का रूट निर्धारित कर लिया है।'
"झूलेलाल !" - नवलानी बोला - "ये तो बहुत ही गुड न्यूज दी, साई । "
"अपने होटल के कमरे का फर्श अगर हम खोल पाए, उसके जरिये वॉल्ट में उतर सके, चाबियों से या उनके बिना वॉल्ट खोल सके तो माल को फर्श में हुए छेद के रास्ते ऊपर कमरे में पहुंचाया जा सकता है। कमरे में एक वाल पैनल है जो पहले बालकनी का दरवाजा होती थी । वो पैनल जरूरत आने पर बड़ी आसानी से अपनी जगह से हटाई जा सकती है । उस पैनल से आगे बगल की इमारत की छत है जो क्या दिन क्या रात, हर वक्त सुनसान पड़ी रहती है और उसकी सीढ़ियों के रास्ते बड़े आराम से इमारत से निकलकर सड़क पर पहुंचा जा सकता है । "
“यानी कि" - बिलथरे उत्साह से बोला- "यूं होटल की लॉबी से या उसके किसी दूसरे रास्ते से गुजरे बिना माल होटल से बाहर उससे परे सड़क पर होगा ?"
"हां । लेकिन यहां समस्या ये है कि बगल की दोमंजिली इमारत में चौबीस घण्टे आवाजाही रहती है। वहां कुछ ऐसे ऑफिस हैं, जिनका कारोबार चौबीस घण्टे चलता है । ये बात हमें रास नहीं आने वाली । हमारा मतलब तभी हल हो सकता है जबकि रात के वक्त वो इमारत सुनसान पड़ी हो |"
" ऐसा कैसा होगा ?"
" अपने आप नहीं होगा। उसके लिए हमें कुछ करना होगा ।"
"क्या ?"
“आप लोग जानते होंगे कि अगर किसी इमारत में आग लग जाए तो आग बुझाई जा चुकने के बाद भी कुछ अरसे के लिए इमारत को सील कर दिया जाता है ।"
"अच्छा ! मुझे नहीं मालूम था । "
" ऐसा ही होता है, साई ।" - नवलानी बोला - "ऐसा किए जाने की कई वजह होती हैं। एक तो पुलिस ने इसी बात की तफ्तीश करनी होती है कि आग कैसे लगी ! लगी या लगाई गई ! दूसरे, आग के बुझ जाने के बाद भी कुछ अरसा किसी दीवार के भरभराकर गिर जाने का या किसी छत के एकाएक ढह जाने का अन्देशा रहता है। तीसरे, कई बार आग की वजह से इमारत में जिन्दा या मुर्दा लोग फंस जाते हैं जिनके रेस्क्यू का ऑपरेशन इमारत खाली होने पर ही ठीक से किया जा सकता है । "
- "इतनी वजह काफी हैं।" - जीतसिंह बोला - " यानी कि अगर उस इमारत में अगले हफ्ते गुरुवार को या शुक्रवार को आग लग जाए तो तीन-चार दिन के लिए तो वो शर्तिया सील हो जाएगी। यानी कि रात के वक्त वहां उल्लू बोलने लगेंगे।"
"ये तो ठीक है, लेकिन आग लगेगी कैसे ?"
"लगानी पड़ेगी। हमें कोई ऐसा स्पेशलिस्ट तलाश करना होगा जो बिजली की तारों को शार्ट करके या किसी और तरीके से वहां बस इतनी आग भड़का सके, जितनी को कि चन्द ही मिनटों में काबू किया जा सके, जिससे कोई गम्भीर जान या माल का नुकसान न होने पाए लेकिन जो इमारत को सील कर दिए जाने की पर्याप्त वजह हो । ऐसी आग कोई स्पेशलिस्ट ही लगा सकता है कि वो इतनी भी न भड़क जाए कि सारी इमारत ही जलकर राख हो जाए और आसपास की इमारतों के लिए भी खतरा बन जाए और इतनी कमजोर भी न हो कि इमारत में मौजूद लोग ही उस पर चुटकियों में काबू पा जाने में कामयाब हो जाएं।”
"क्या बड़ी बात है !" - सुकन्या बोली- "आखिर हर कमर्शियल इमारत में अग्निशमन यन्त्र पाए जाते हैं।"
"वही बोला । अब वो स्पेशलिस्ट..."
“साई” - नवलानी चहका - "तुम ये समझो कि गंगा घर में बह रही है । "
"क्या मतलब ?"
"अरे, मैं हूं न ऐसा स्पेशलिस्ट ! क्वालीफाइड इलैक्ट्रीशियन | साई, वक्त आने पर तेरे मतलब की, तेरी पसन्द की, ऐन फिट आग भड़काने का जिम्मा मेरा ।"
"ये तो बहुत अच्छी खबर है। यानी कि इस मामले में हमें किसी का मोहताज नहीं बनना पडेगा।"
“क्यों बनना पड़ेगा ? मैं हूं न झूलेलाल की किरपा से !"
"बढिया । अभी तक मुझे सिर्फ तुम्हारा ही स्कीम में कोई पुख्ता इस्तेमाल दिखाई नहीं दे रहा था । अब ये कहा जा सकता है कि तुम हमारी गाड़ी के एक्स्ट्रा पैसेंजर नहीं हो ।”
"ए... एक्स्ट्रा पैसेंजर !"
"हां"
" यानी कि पहले तुम्हारी निगाह में मैं एक्स्ट्रा पैसेंजर था ?"
"हां"
"साई, ये तो जुल्म है कि तू ऐसा सोचता है मेरे बारे में |"
जीतसिंह खामोश रहा ।
“अब तो नहीं सोचता ।" - बिलथरे यूं बोला जैसे बात को हंसी में उड़ाने का ख्वाहिशमंद हो ।
कोई कुछ न बोला ।
कई क्षण वातावरण में बोझिल-सी खामोशी बनी रही ।
"एम्बुलैंस की क्या बात है ?" - फिर बिलथरे उत्सुक भाव से बोला - "सुकन्या कहती है कि... "
वो जानबूझ कर खामोश हो गया और जीतसिंह का मुंह तकने लगा ।
"माल ढोने के लिए कोई तो वाहन हमें चाहिए।" जीतसिंह बोला- "क्योंकि ढेर माल ढोना होगा, इसलिए बड़ा वाहन चाहिए । तुम्हारी एम्बैसडर के सिवाय तो कोई वाहन दिखाई नहीं दे रहा । एम्बैसडर में माल ढोया जा सकता है ?"
"नहीं।"
"जब ये बात जानते हो तो जरूर कोई इन्तजाम सोचा होगा माल ढोने का !”
“अभी तो नहीं सोचा था ।"
"मुझे भी ऐसी ही उम्मीद थी । एम्बुलैंस वो वाहन होगा, अगर हम कामयाब हो गए तो, जिस पर हम माल ढोएंगे। जहां आगजनी जैसी वारदात होकर हटी हो, वहां एम्बुलैंस का दिखाई देना आम बात है । वारदात की रात को कनाट रोड पर कोई एम्बुलैंस खड़ी अजीब नहीं लगेगी । उसकी जगह वहां कोई ट्रक खड़ा होगा तो वो हर किसी की निगाह को खटकेगा । कोई बीट का सिपाही ही उसके बारे में पूछताछ कर सकता है । और कुछ नहीं तो वो उसे वहां से हटाने का हुक्म तो दे ही सकता है । "
"इसलिए एम्बूलेंस ?”
"हां ।"
"गांधी हस्पताल की क्यों ?"
"क्योंकि वो सरकारी है । करीबी है । मुझे पूरा यकीन है कि एम्बुलेंस की जरूरत पड़ने पर पुलिस या फायर ब्रिगेड वाले वहीं से एम्बुलैंस मंगवाएंगे।"
"लेकिन साई" - नवलानी बोला- "अ गर असली एम्बुलेंस पहुंच गई तो...
"असली एम्बुलेंस नहीं पहुंचेगी, क्योंकि वहां कोई घायल नहीं होगा, कोई मरेगा नहीं। इसीलिए जरूरी है कि जो आग वहां लगे, वो एकदम नपी-तुली हो, एकदम फिट हो । वो इतना कोहराम तो मचाए कि इमारत खाली हो जाए, लेकिन नुकसान कोई न करे ।”
"ऐसा ही होगा, साई" - नवलानी पूरे विश्वास के साथ बोला- " ऐसा ही होगा ।"
"हमारी एम्बुलैंस आगजनी से अगले रोज कनाट रोड
पर खड़ी दिखाई देगी, जबकि वहां न कोई फायर ब्रिगेड वाला होगा और न पुलिस वाला ।”
"चोखी बात सोची, साई ।"
“अब हमें एक कैमरे की जरूरत है, जिससे गांधी हस्पताल की असली एम्बुलैंस की चारों साइडों की तसवीर खींची जा सके ।”
"मेरे पास एक पोलेरायड कैमरा है" - बिलथरे बोला - "जो हाथ-के-हाथ तसवीर निकालता है। यानी कि उससे खींची तसवीर को डवैलप या प्रिंट कराने की जरूरत नहीं पड़ती । उससे तो तसवीर खींचने के लिए इधर खटका दबाया और उधर तसवीर बाहर । "
"मुझे नहीं मालूम था कि ऐसे कैमरे भी होते हैं, लेकिन होते हैं तो बहुत खुशी की बात है। ये काम हमारी सहूलियत का है और फायदे का है कि हमें कैमरे से फिल्म निकालकर उसे धुलवाने नहीं ले जाना पड़ेगा । बढिया । तसवीरें खींचेगा कौन ?"
कोई कुछ न बोला ।
जीतसिंह ने सुकन्या की तरफ देखा ।
"ठीक है" - वो बोली ।
"मामूली काम है।"
"बोला न, ठीक है ।"
" उन तसवीरों की बिना पर हमने एक नकली एम्बुलैंस तैयार करनी होगी ।"
"ये तो" - बिलथरे हड़बड़ाया- "बड़ा बखेड़े का काम है। "
" है। इसीलिए हमने इसे पूना में करवाने की कोशिश नहीं करनी । ये काम कल्याण में हो सकता है जहां कि एक पुरानी कारों का डीलर मेरा वाकिफ है । वो भरोसे का आदमी है और ऐसे कामों का एक्सपर्ट है ।"
" यानी कि तुम खुद कल्याण जाकर वहां से हमारे मतलब की एम्बुलैंस बनवा के ला सकते हो ?"
"हां"
"फिर क्या बात है ?"
"फिर पैसे की बात है ।”
“पैसा ?”
“ऐसी सैकेण्ड हैण्ड गाड़ी एक लाख से कम में तो क्या आयेगी ? दस-पांच हजार ऊपर भी लग सकते हैं। सवा लाख मेरे हवाले करो।"
“स... सवा लाख तुम्हारे हवाले करू ?"
"घट बढ़ बाद में देखेंगे।"
"लेकिन..."
"क्या लेकिन ? मुझे पहले ही दिन नहीं बताया गया था कि इस स्कीम पर जो खर्चा होगा वो तुम करोगे । इसी वजह से तो तुम पचास फीसदी के बड़े हिस्से के तलबगार हो । "
"वो तो ठीक है, लेकिन सवा लाख..."
“अभी मांगता है। आगे और भी जरूरत पड़ सकती है।"
" और भी जरूरत पड़ सकती है ?"
“और कामों के लिए । तब मांगेगा । लेकिन एम्बुलैंस के लिए रोकड़ा अभी मांगता है । "
बिलथरे ने जोर से थूक निगली और किसी आसरे की तलाश में सुकन्या की तरफ देखा ।
"इसे ये फिक्र सता रही है" - जीतसिंह सहज भाव से बोला - "कि मैं सवा लाख रुपया लेकर कल्याण रवाना हुआ वापस न लौटा तो क्या होगा ?"
"मैं ऐसा कब बोला ?" - वो बौखलाकर बोला ।
"हर बात बोलना जरूरी नहीं होता। तुम्हारे लिए तो खासतौर से । तुम्हारे मन की हर बात तो तुम्हारे माथे पर लिखी होती है ।"
"लेकिन ऐसी कोई बात नहीं । "
" ऐसी ही बात है । इसलिए मुनासिब यही होगा कि कल्याण तुम मेरे साथ चलो ।”
"मैं ! कल्याण चलूं !”
"हां । ताकि तुम्हें तसल्ली रहे कि मैं तुम्हारा रोकड़ा लेकर भाग नहीं गया ।"
"लेकिन, मेरे भाई, मैं ऐसा कब... '
"दिलीप" - एकाएक सुकन्या तीखे स्वर में बोली "जरा उठ के मेरे साथ चलो । "
"क... कहां ?"
"उठो ।"
बिलथरे उठा और पालतू कुत्ते की तरह दुम हिलाता सुकन्या के पीछे हो लिया ।
पीछे जीतसिंह ने सिगरेट का पैकेट निकाला, उसने एक सिगरेट नवलानी को दिया, एक खुद लिया और दोनों सिगरेट सुलगाए ।
"बहुत शक्की मिजाज आदमी है ये बिलथरे ।” नवलानी ढेर सारा धुआं उगलता हुआ बोला- "ऐसे काम कहीं विश्वास के बिना होते हैं !"
"कभी जेल गए हो ?"
नवलानी हड़बड़ाया, उसने सिर उठाकर जीतसिंह की तरफ देखा ।
"ये क्या सवाल हुआ ?" - वो बोला ।
"गए हो ?"
"एक बार।" - वो धीरे से बोला- "इन्दौर में । तीन साल के लिए । काफी अरसा हो गया । नौजवानी की बात है ।”
"क्या किया था ?"
"वही जो आज भी करता हूं। लेकिन तब पकड़ा गया था । साथी अनाड़ी थे । नातजुर्बेकार थे । सभी पकड़े गए थे । गुनाहबेलज्जत ।"
बात न बनी ।" "बेलगाम में आगाशे के साथ जुड़े तो वहां भी कोई
"हां।" - उस के स्वर में उदासी का पुट आ गया "झूलेलाल की मेहर की छतरी हर किसी के सिर पर तो नहीं होती न! उस ऊपर वाले बड़े साई ने भागचन्द की तकदीर पत्थर की कलम से लिखी है तो भागचन्द क्या करे ?" -
" उम्र क्या हो गई ? पचास से तो ऊपर ही होगी ?"
"ठीक पहचाना, साई ।"
"रिटायर क्यों नहीं हो जाते हो ?"
"किस आसरे ? मेरे पास न रन्न न कन्न । रिटायर होने की वो लोग सोचते हैं, जिनके बच्चों ने बड़े होकर उन्हें सम्भालना होता है ।"
" शादी नहीं की ?”
" की थी लेकिन औलाद होने से पहले ही जेल हो गई । बीवी छोड़ के चली गई । आज तक दोबारा नहीं देखी । पता नहीं जिन्दा है या मर गई ।"
"बिलथरे से कैसे जुड़े ?"
"वेसे ही जैसे आगाशे से जुड़ा था ।"
"कैसे ?”
"इत्तफाक से । तकदीर से। उससे ट्रेन में मुलाकात हुई थी, इससे बार में ।"
"आइडिया किसका था ?"
“आइडिया तो इसी का था । इसी का और सुकन्या का ।"
"तुमसे बेहतर जोड़ीदार न मिला इन्हें ? "
"क्या कहना चाहता है, साई ?"
"अब तो आगजनी के एक्सपर्ट के तौर पर तुम्हारा रोल निकल आया । ये न होता तो क्या करते ? सिर्फ बोझा ढोते?"
वो खामोश रहा ।
"जबकि असल में तुमसे वो भी नहीं होना । "
"साई" - वो घबराकर बोला "कहीं तू मेरा पत्ता साफ करने की तो नहीं सोच रहा ?" -
"मैं कैसे कर सकता हूं तुम्हारा पत्ता साफ ! ऐसा कोई फैसला तो बिलथरे ही कर सकता है। या शायद सुकन्या ।"
"साई, कोई भांजी न मारना । कोई सलाह न देना ऐसी । ये मेरी जिन्दगी का आखिरी दांव है । कामयाब हो गया तो आइन्दा कभी कुछ नहीं करूंगा । चैन से बैठूंगा । तुझे दुआएं दूंगा । इसलिए खुदा के वास्ते कोई भांजी न मारना ”
जीतसिंह खामोश रहा ।
नवलानी नर्वस भाव से सिगरेट के कश लगाता रहा और रह-रहकर यूं जीतसिंह की तरफ देखता रहा, जैसे वो कोई मैजिस्ट्रेट था जो कि उसके खिलाफ फैसला सुना सकता था।
तभी बिलथरे और सुकन्या वापस लौटे ।
"सब सैट हो गया है" - वो बदले स्वर में बोला- "तुम जब चाहोगे, पैसा मिल जाएगा।"
जीतसिंह ने सहमति में सिर हिलाया ।
"तुम्हारे साथ मैं चलूंगी ।" - सुकन्या बोली ।
"तुम चलोगी !" - जीतसिंह बोला - "कहां ?”
"कल्याण ।"
जीतसिंह ने सशंक भाव से बिलथरे की तरफ देखा ।
बिलथरे बडे यत्न से परे देखने लगा ।
"हम एम्बैसडर पर चलेंगे।" - सुकन्या बोली "कल्याण से वापसी में दो वाहनों के लिए दो ड्राइवरों की जरूरत होगी न ?"
"हां ।”
" और ?" - बिलथरे बोला ।
"तुम एक और आदमी का इन्तजाम करने वाले थे ?”
"हां । करूंगा ।"
"अभी किया नहीं ?"
"अभी... वो क्या है कि... टाइम नहीं लगा ।”
"टाइम नहीं लगा ! टाइम नहीं लगा !"
"हां । निर्मल कोठारी की ताक में जो लगा रहा कल सारा दिन । देर रात तक । आज सुबह भी ।"
"क्या जाना ?"
"अभी तो कुछ नहीं जाना ।"
"बढिया ।" "लेकिन कोशिश मैं पूरी कर रहा हूं।"
"कोशिश कर रहे हो या ये दिखावा कर रहे हो कि तुम भी कोई काम कर रहे हो ?"
"क... क्या ! क्या कह रहे हो ?"
"एक और आदमी अब तुम्हें इसलिये सूझ रहा है क्योंकि तीन आदमियों की निगाहबीनी दो आदमी नहीं कर सकते। ऐसी कोई जरूरत पैदा होने से पहले तुम्हें नयन बलसारा की जगह लेने के लिये किसी आदमी के बारे में नहीं सोचना चाहिये था ?”
"सोचना चाहिये था ।" - वो तनिक आवेशपूर्ण स्वर में बोला - "सोचा था।"
"तो ?"
"वो एक दक्ष ड्राइवर था । उसका मेन काम ड्राइव करना था । ड्राइवर की जरूरत हमें अभी बहुत देर में पड़ने वाली थी, इसलिए मैंने सोचा था कि उस काम के लिए अभी हमारे पास बहुत वक्त था ।”
"बढिया । यानी कि जो ड्राइवर है, वो ड्राइव करेगा । तुम्हारा काम कीमती सिक्के पहचानने भर से नक्की हो जाएगा। नवलानी आग लगाकर फारिग हो जाएगा। मैं वॉल्ट खोल के सो रहूंगा । सुकन्या तसवीरें खींच के हाथों में मेहंदी लगा लेगी ।"
"क्या मतलब है तुम्हारा ?"
" तुम्हें नहीं मालूम ?"
"साफ बोलो, यार । प्लीज ! "
"तुम लोगों ने काम का बंटवारा सरकारी मुलाजिमो की तरह किया हुआ है । जैसे चपरासी टाइप नहीं करेगा । टाइपिस्ट कैश नहीं गिनेगा। कैशियर गाड़ी नहीं चलाएगा । ड्राइवर बैंक नहीं जाएगा वगैरह ।”
"पुटड़ा ठीक कह रहा है ।" - नवलानी बोला - “अगर हम एक टीम हैं तो किसी को कोई भी काम करना चाहिए । क्यों, बिलथरे ?"
बिलथरे ने सहमति में सिर हिलाया ।
"पुटड़ा सोलह आने ठीक कह रहा है । कल तुम कोठारी के और मैं दामले के पीछे लगा था, लेकिन मैनेजर शिवारामन के पीछे लगने के लिए न कोई कल था न आज है । बलसारा की जगह लेने वाले शख्स का तुमने फौरन इन्तजाम किया होता तो ये नौबत न आती ।”
बिलथरे ने फिर सहमति में सिर हिलाया ।
" देरी को खता समझकर माफ कर, साई । वो इन्तजाम हम अब कर लेते हैं। क्यों, बिलथरे ?"
बिलथरे ने सहमति में सिर हिलाया ।
"साई, एंजो के बारे में क्या ख्याल है ? वो तेरा जोड़ीदार तो है ही ड्राइवर ।"
"वो अब इस दुनिया में नहीं है । "
“अरे ! क्या हुआ ?"
जीतसिंह ने बताने की कोशिश न की ।
"एडुआडो कालो नाम के एक छोकरे की बात करता था ।" - बिलथरे बोला - "उसे बुला लें ?"
"हां ।" - जीतसिंह बोला- "वो ठीक रहेगा । उसे बुलाना आसान भी होगा । उसके लिए एडुआर्डो को फोन लगा देना ही काफी होगा ।"
"ठीक है, समझ लो हो गया ये काम ।”
“एक आदमी, एक मजबूत, चौकस, दमदार आदमी और होना चाहिए ।”
"वो किसलिए ?"
"माल ढोने के लिए और किसलिए? वो कई फेरे लगाने का काम होगा, जो न ये बूढा सिन्धी भाई कर सकेगा और न थुलथुल तुम । कार्लो का काम ड्राइव करना होगा, इसलिए एम्बुलेंस के साथ उसकी मौजूदगी जरूरी होगी । बाकी बचा मैं, तो मैं सारे सूटकेस नहीं ढो सकता ।”
"हूं।"
"मेरे होटल के कमरे का फर्श उधेड़ना भी दमदार काम है, जिसे अकेला मैं नहीं कर सकता।”
"मैं... मैं ऐसे एक आदमी का इन्तजाम करूंगा।"
"कैसे करोगे ?"
"मैं एडुआर्डो से ही बात करूंगा ।"
" मुम्बई में" - नवलानी बोला- "ख्वाजा करके एक छोकरा है, वो.."
- "मैं जानता हूं उसे" - जीतसिंह बोला - "वो आजकल आर्थर रोड जेल में बन्द है । "
"ओह !"
“एडुआर्डो से ही बात करना ठीक होगा ।"
"मैं करूंगा।" - बिलथरे बोला ।
"बलसारा को ही" - सुकन्या दबे स्वर में बोली"लौट आने के लिए नहीं मनाया जा सकता ?" -
"वो नहीं आने वाला" - जीतसिंह बोला- "मैं उसके " साथ शहर तक गया था । बहुत बातें हुई थीं हम दोनों में । वो नहीं लौटने वाला ।”
"तुम भी तो नहीं लौटने वाले थे ?"
"इसका जवाब बिलथरे के सामने न देकर मैं तुम्हारा लिहाज कर रहा हूं।"
वो हड़बड़ाई । फिर परे देखने लगी ।
"क्या मतलब ?" - बिलथरे तीखे स्वर में बोला ।
"कोई मतलब नहीं" - सुकन्या उससे ज्यादा तीखे स्वर में बोली ।
“कल हमें" - विषय परिवर्तन की नीयत से जीतसिंह बोला - "मैनेजर शिवारामन की बाबत एक खास बात पता लगी है।"
"क्या ?" - नवलानी बोला ।
“ उसे कोई मर्दाना बीमारी है जिसकी वजह से पिछले पन्द्रह दिनों से वो हर तीसरे दिन एक गुप्त रोगों के स्पेशलिस्ट के पास जाता है। उसे ऐसी कोई छूत की बीमारी लगना इस बात का सबूत है कि वो औरतों का रसिया है।”
"औरतों का रसिया ?"
"गैर औरतों का । और कैसे लगेगी वो बीमारी उसे ?"
"तो ?" - बिलथरे बोला ।
"हम इस बात से फायदा उठा सकते हैं।"
"कैसे ?"
"समझो । दूसरे के साथ बफेली करने के लिये खुद भी तो नंगा होना पड़ता है। नंगे आदमी के गले में लटकी चाबी की छाप बना लेने के सौ तरीके हो सकते हैं । "
"बात तो तुम्हारी ठीक है, साई।" - नवलानी बोला - "वो आदमी अगर नौजवान पुटडियों का शौकीन है तो किसी पुटड़ी के लिए उससे यारी लगा लेना और फिर आगे का सिलसिला बना लेना क्या बड़ी बात होगी ? ऐसे कम से कम एक डुप्लीकेट चाबी तो बड़ी आसानी से हमारे हाथ लग जाएगी।"
"लेकिन" - बिलथरे बोला- " ऐसी लड़की कहां से आएगी ?”
जीतसिंह ने सुकन्या की तरफ देखा ।
"नो।" - सुकन्या तड़प कर बोली- "नैवर ।"
“सिर्फ यारी लगानी है । अपना मतलब निकालना है ।"
"मुझे पता है, मतलब निकालने के लिए क्या करना होगा ? तुम्हें कहते शर्म आनी चाहिए।”
"तुम चालाकी से, होशियारी से, समझदारी से काम लोगी तो उस स्थिति को टाला जा सकता होगा ।"
"नो।"
"ये न भूलो कि टीम में तुम भी शामिल हो और एक बड़े हिस्से की तलबगार हो ।"
"जो हिस्सा मुझे बर्बाद कर दे, मैं उसकी तलबगार नहीं ।”
"शिवारामन क्या बर्बाद हो गया है ?"
"नहीं हुआ तो हो जाएगा। मैं आंखों देखी मक्खी नहीं निगल सकती ।”
जीतसिंह खामोश रहा ।
"मुझे अफसोस है कि ये बेहूदा बात एक ऐसे शख्स की जुबान से निकली जो... जो..."
वो खामोश हो गई ।
“क्या ?" - बिलथरे उसे घूरता हुआ बोला ।
"कुछ नहीं।" - वो बोली ।
"तुम कुछ कहने जा रही थीं ।”
“बोला न, कुछ नहीं ।”
"खैर ।" - जीतसिंह लापरवाही से बोला- "बहरहाल, हमें एक ऐसी लड़की तलाश करनी होगी, जिसे आंखों देखी मक्खी निगलने से एतराज न हो । यानी कि तुम्हारा एक खर्चा और बढ़ गया ।"
"खर्चा !" - बिलथरे हड़बड़ाया ।
" उस लड़की की फीस जिसे आंखों देखी मक्खी निगलना कबूल होगा ।"
"कितनी ?"
“क्या पता कितनी ! लड़की मिलेगी तो मालूम पड़ेगा
बिलथरे खामोश हो गया ।
- "साई" - नवलानी चिन्तित भाव से बोला - "पहले तो ऐसी लड़की मिले, फिर वो हमारे काम के लिए राजी हो, फिर वो शिवारामन से यारी करे जिसमें कि हो सकता है कि वो कामयाब ही न हो सके, क्योंकि दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है - फिर वो उससे इतनी इन्टीमेट हो कि हमारा मतलब हल हो सके । इतने लम्बे प्रोग्राम में तो हमारी गाड़ी छूट जाएगी ।'
“ये भी अन्देशा बराबर है।" - जीतसिंह सहमति में सिर हिलाता बोला - "तभी तो मैं बोला कि अगर ये... "
"मैं मुंह नोंच लूंगी।" - सुकन्या बड़े हिंसक भाव से बोली ।
"फिर तो मुझे अपनी स्कीम में कुछ सुधार करना पड़ेगा।"
"स्कीम क्या है तुम्हारी ?" - नवलानी बोला ।
जीतसिंह ने बताया ।
बाकी का दिन जीतसिंह ने होटल मैनेजर शिवारामन की टोह में गुजारा । कभी सुकन्या के साथ, कभी सुकन्या के माध्यम से तो कभी सुकन्या के बिना चुपचाप पूछताछ करने पर जो महत्वपूर्ण जानकारी हाथ लगी, वो ये थी कि प्रत्यक्षत: वो सारा दिन होटल की ड्यूटी में रहता था, लेकिन असल में वो बीच-बीच में कभी भी कहीं भी चला जाता था जैसे कि पिछले रोज उसे डाक्टर के पास जाता देखा गया था । कोई इमरजेंसी न आए खड़ी हुई हो तो वो ठीक सात बजे होटल से छुट्टी करता था और सीधा जिमखाना क्लब पहुंचता था, जहां कि वो बड़ी लगन से, बड़े शौक से दांव लगाकर बिलियर्ड खेलता था । उससे अगला एक घण्टा वो क्लब के बार में गुजारता था, जहां कि अमूमन वो अकेला बैठकर विस्की पीता था । वो हैवी ड्रिंकर था, इसलिए बार में उसकी कम से कम एक घंटे की हाजिरी अवश्यम्भावी होती थी ।
उसी रोज जीतसिंह और सुकन्या ने मोदी कालोनी में स्थित मैट्रो सिक्योरिटी सर्विसिज के ऑफिस का भी चक्कर लगाया । वो ऑफिस एक ऐसी दोमंजिली इमारत की पहली
मंजिल पर स्थापित निकला, जिसकी निचली मंजिल पर यानी कि ग्राउण्ड फ्लोर पर दुकानें थीं। पहली मंजिल पूरी की पूरी मैट्रो वालों के पास थी । एक गार्ड की फर्जी जरूरत जाहिर करके ऊपर पहुंचकर उन्होंने पाया कि ऊपर आगे पीछे दो कमरे थे जिनमें अगला, बड़ा, कमरा ऑफिस था जहां कि टाइपिस्ट, टेलीफोन ऑपरेटर, रिसैप्शनिस्ट, कैशियर, दो जनरल क्लर्क और एक उन सबका सुपरवाइजर बैठता था । उसके पीछे का, कदरन छोटा, कमरा मैनेजर का ऑफिस था और उसी की एक दीवार पर ताला जड़ा की-बोर्ड टंगा हुआ था जिसमें कि और चाबियों के साथ होटल के वॉल्ट की भी एक चाबी की मौजूदगी अपेक्षित थी । उन दोनों कमरों के बाई ओर दोनों से ही आकार में दोगुना बड़ा एक हाल था जो कि गार्डों का वेटिंगरूम और रिक्रिएशन रूम था । वहां एक कलर टीवी लगा हुआ था और कैरम और ताश खेलने का प्रबंध था ।
ऑफिस वाली इमारत की बाई ओर पिछली दीवार के साथ दूसरी इमारतों की दीवारें थी, सामने बाजार की चौड़ी सड़क थी और दाएं एक कदरन चौड़ी गली थी । पहली मंजिल पर सामने सड़क की ओर और दाएं गली में घूमा हुआ एक कोई चार फुट चौड़ा ऊपर से टीन की ढलुवां छत से ढका छज्जा था जिस पर कि नीचे सड़क पर से ऊपर आती सीढ़ियों का दहाना था ।
वो शाम उन्होंने मैट्रो के ऑफिस के गिर्द मंडराते ही गुजारी ।
शाम छ बजे ऑफिस की छुट्टी हुई तो सारा क्लेरिकल स्टाफ वहां से रुख्तत हो गया ।
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