“गोली चली। राजदान साहब का सिर बीसवीं मंजिल से गिरा तरबूज बन गया और तुम दोनों महानुभावों में से किसी ने आवाज नहीं सुनी। किसी पुलिस इंस्पैक्टर के लिए किसी की गर्दन नापने हेतु अपना बेस काफी होता है।” 


“त-तो फिर तुमने ऐसा क्यों नहीं किया?”


“क्योंकि मैं ‘मैं’ हूं। इंस्पेक्टर टेकचंद ठकरियाल | दुनिया के हर पुलिस वाले से जुदा । अनूठा ! अनोखा और अद्भूत। वह केवल मैं हूं जो यह अनुमान लगा सका कि यह हत्या नहीं आत्महत्या है। ऐरा-गैरा पुलिसिया होता तो हत्या ही समझता इसे और तुम्हें हवालात डालकर अब तक बीवी के पहलू में जाकर सो गया होता। तुम पर शक न करने का मेरे पास सबसे बड़ा कारण ये है कि तुम जानते थे-राजदान साहब को एड्स था। एड्स भी ऐसी स्टेज पर जहां एकाध दिन में इनकी राम-नाम सत्य वैसे ही हो जाने वाली थी और और वैसे भले ही तुम चाहे जो हो मगर इतने बेवकूफ नहीं हो सकते कि उस शख्स के खून से अपने हाथ रंगो जिसके बारे में जानते हो एकाध दिन में खुद हैडमास्टर के दरबार में हाजिरी बजाने वाला है।”


दोनों ने एक साथ राहत की लम्बी सांस ली। सचमुच यह तर्क उन्हें किसी भी जंजाल में नहीं फंसने दे सकता था। उनके फेवर में तो इतनी तगड़ी एलीबाई मौजूद थी कि वे फंस नहीं सकते थे।


“ठकरियाल ने पूछा- “क्या तुम्हें किसी पर शक है ?”


“श-शक।"


“मेरा मतलब क्या तुम ऐसे किसी आदमी को जानते हो जो तुम्हारा बंटाधार करने का ख्वाहिशमंद हो?”


दोनों का जी चाहा तत्काल अपने शिकार का नाम बता दें।


नजरें मिली।


जैसे एक-दूसरे से पूछ रहे हो- 'क्या इस स्टेज पर नाम लेना मुनासिब होगा?’


दोनों के दिमागो ने कहा- “नहीं!”


अपने शिकार का नाम उसी वक्त सामने लाये तो बेहतर होगा जिस वक्त सामने लाने का वे पहले ही निश्चय कर चुके हैं। वैसे भी, उनके कहने मात्र से तो 'वह' फंसने वाला था नहीं। उनके बयान की पुष्टि करने वाले सुबूत भी तो चाहिए थे और वे अभी तक प्लान्ट नहीं हो सके थे।


तभी तो देवांश ने कहा- “नहीं। मैं ऐसे किसी व्यक्ति के बारे में नहीं सोच पा रहा।" -


“आप?” ठकरियाल दिव्या ने मुखातिब हुआ ।


“समझ में नहीं आ रहा। किसी को हमें फंसाकर क्या मिलेगा ?”


“यानी आप दोनों मेरी कोई मदद नहीं कर सकते। अपनी मदद खुद ही करनी होगी मुझे ठीक भी है, जो खुद अपनी मदद नहीं कर सकता उसकी मदद कोई नहीं करता।" बड़बड़ाता सा वह बाथरूम के बंद दरवाजे की तरफ बढ़ा। नजरे कमरे में बिछे कीमती कालीन पर जमी हुई थीं।


“क्या तलाश रहे हो?” देवांश ने पूछा ।


“वह जो भी था, कमरे में आया किधर से था। मुख्य द्वार से या इस रास्ते से जिससे मैं आने वाला था। अगर उसे राजदान साहब ने बुलाया था, जैसा कि गिलास बता रहे हैं तो वह इसी रास्ते से आया होगा। बंद दरवाजे के डंडाले पर उसकी अंगुलियों के निशान होने चाहिए।” कहने के साथ वह झुककर डंडाले को इस तरह देखने लगा जैसे नंगी आंखों से ही अंगुलियों के निशानों को देख लेने की क्षमता रखता हो । कुछ देर तक उसी तरह डंडाले को देखता रहा । फिर सीधा हुआ और उनकी तरफ पलटकर बोला -“जरा देखने क कोशिश करो, कमरे से कुछ गायब तो नहीं है ?”


“जी?”


“हालांकि उम्मीद नहीं है ऐसी मगर फिर भी, चैक तो करना ही पड़ेगा। मगर ध्यान रहे, हाथ नहीं लगाना किसी चीज को। केवल नजरों का इस्तेमाल करो।”


दिव्या और देवांश की नजरें मिलीं। उनके लिए अपने प्लान के दूसरे हिस्से पर अमल करने का वक्त आ पहुंचा था। आंखों ही आंखों में दोनों के बीच सहमति हुई देवांश ने चौंके हुए स्वर में कहा- “अरे, वह पेन्टिग बैड पर कैसे रखी है भाभी?” “हाय राम! मेरे जेवर !” दिव्या के हलक से चीख सी निकल गईं। वह इस तरह बैड की तरफ लपकी जैसे अभी-अभी जख्मी हुए बेटे की तरफ मां लपकी हो ।


कूदकर एक बार फिर था छूना नहीं किसी वस्तु को अदरक की गांठ जैसा शख्स उसके और बैड के बीच में आ अड़ा। वह कह रहा था- “मैंने पहले ही फरमाया इस कमरे की हर वस्तु सोलह साल की कन्या है।”


“ल-लेकिन इंस्पैक्टर ! मेरे जेवर।" दिव्या लाजवाब एक्टिंग कर रही थी - “अगर वह उन्हें ले गया होगा तो बरबाद हो जाऊंगी मैं। तबाह हो जाऊंगी। उनके अलावा और बचा ही क्या है मुझ पर ? जहर खाने तक को एक फूटी कौड़ी नहीं है।” है “चाबी लॉकर के 'की-हॉल' में लगी है भाभी।" देवांश ने अपना पार्ट प्ले किया ।


“हे भगवान! क्या वह सब कुछ ले गया?” दिव्या की मानो जान निकली जा रही थी - “इंस्पैक्टर ! प्लीज - जल्दी चैक करो लॉकर को । मेरा दिल बैठा जा रहा है।"


“समझ में तो आये बात । आखिर किस्सा क्या है?"


देवांश ने लॉकर की तरफ करके कहा- “वह लॉकर जिसके 'की-हाल' में चाबी लगी है, हमेशा उस पेन्टिंग से ढका रहता है जो इस वक्त बैड पर रखी है। लॉकर में भाभी के बचे-कुचे जेवर है। पेन्टिंग का पलंग पर होना, चावी की 'की-हॉल' में मौजूदगी से लगता है उसे खोला गया है ।”


“कुछ नहीं होगा। अब उसमें कुछ नहीं होगा देवांश । वहां तक पहुंचने के बाद उसमें क्यों छोड़ने लगा कोई कुछ? दर-दर के भिखारी बन गये। बरबाद हो....


“मिसेज राजदान!” एकाएक ठकरियाल गुर्रा उठा ।


दिव्या ने कैंची सी चलती जुबान इस तरह रुक गई जैसे किसी नदार वाहन का पावर ब्रेक लग गया हो। आंखें फाड़े ठकरियाल की तरफ देखती रही गई वह लुट-पिट चुकी औरत की गनदार एक्टिंग कर रही थी ।


देवांश अपनी भूमिका अदा करने आगे बढ़ा। दिव्या के कंधे पर हाथ रखकर बोला - "भाभी प्लीज! संभालो खुद को।”


“क-कैसे संभालू?” अगर वह मेरे जेवर ले गया होता तो


“मैंने पहली बार महसूस किया दिव्या जी जितना प्यार राजदान साहब आपसे करत थे, आप उनसे उतना नहीं करती।” “म-मतलब ?”


“इतनी हलकान तो आप राजदान साहब को लाश देखकर भी नहीं हुई थी जितनी इस संभावना से हुई कि लॉकर में जेवर नहीं होंगे। इसका मतलब राजदान साहब से कहीं ज्यादा प्यारे तो आपको जेवर हैं।"


सकपका गई दिव्या ।


उसे लगा-‘एक्टिंग की डोज ओवर हो गई है शायद ।'


बात देवांश ने संभालने की कोशिश की - "तुम हमारी स्थिति ठीक से समझ नहीं पा रहे इंस्पेक्टर । हर चीज का अपना महत्व होता है। लॉकर में जेवर नहीं है तो तो शायद हम पर इतने पैसे भी नहीं होंगे कि ठीक से भैया का अंतिम संस्कार भी कर सके।" 


“फिर भी, यह जाने बगैर कि लॉकर से जेवर गायब है या नहीं, इतना हंगामा मचा देने की वजह मेररी समझदानी में नहीं घुसी।” 


“पेन्टिग का बैड पर होना। ‘की हाल' में चाबी । इस सबके बाद बचता ही क्या है। लॉकर में कुछ होने की संभावना नहीं है। वहां तक पहुंचने के बाद भला कोई नहीं


ठकरियाल ने उसकी बात काटकर पूछा- “तुम में से तो किसी ने नहीं छेड़ा पेन्टिंग को ?”


“ह- हम में से। भला हम क्यों छेड़ने लगे?"


ठकरियाल देखता रह गया। उसकी तरफ । इस बार बोला कुछ नहीं ।


दिव्या ने अपने चेहरे पर ऐसे भाव इकट्ठे कर रखे थे जैसे पति की मौत और पूरी तरह लुट जाने के कारण अपने होशो-हवाश खो चुकी हो। देवांश ने ठकरियाल से कहा- “प्लीज इंस्पैक्टर । ऐसा कुछ मत कहो जिससे भाभी को दुख हो ।'


ठकरियाल ने विचित्र सी मुस्कान के साथ कहा- “यह तो कह सकता हूं- अगर रिवाल्वर गायव करने वाले ने ही यह पेन्टिंग दीवार से उतरकर लॉकर खोला है तो वह, वह भूल कर चुका है जिसकी मुझ जैसे इन्वेस्टिगेटर को दरकार होती है।” “क- क्या मतलब?”


“बाथरूम के दरवाजे के डंडाले पर उसकी अंगुलियों के निशान हों, न हों मगर इन पेन्टिंग, चाबी और लॉकर के अंदर जरूर होंगे जो उसके गले का फंदा बनने जा रहे हैं।"


देवांश का जी चाहा-जोर से ठहाका लगाये । कहे- 'कोशिश करो इंस्पेक्टर ! करो कोशिश । तुम्हारे फरिश्ते तक को एड़ी से चोटी तक का जोर लगाने के बावजूद वहां से वैसा कुछ नहीं मिलेगा जिसकी तुम जैसे इन्वेस्टिगेटस को दरकार होती है। यही पाओगे तुम, उसे खोलने वाले ने ग्लव्स पहन रखे थे।'


परन्तु !


ऐसा कुछ कहा नहीं उसने ।

कह भी नहीं सकता था।

दिव्या ने कहा- “प्लीज इंस्पेक्टर, खोलकर देखो तो सही उसे।

ठकरियाल बगैर कुछ कहे बैड की तरफ मुखातिब हुआ। कुछ देर तक गौर से उस पर बिछी बैडशीट को देखता रहा। विशेष रूप से उस स्थान को जहां लॉकर खोलने के लिए खड़ा होना जरूरी था।

देवांश और दिव्या समझ सकते थे - वह लॉकर खोलने वाले फुट स्टैप्स तलाश कर रहा है। उन्होंने कनखियों से एक-दूसरे की तरफ देखा। होठों के अंदर ही अंदर अपनी सफलता पर मुस्कराये । जो चीज ठकरियाल तलाश कर रहा था उस वे दोनों पहले ही न केवल विचार कर चुके थे बल्कि अपने पैरों के निशानों को साफ भी कर चुके थे। वहां से कुछ नहीं मिलना था ठकरियाल को ।

वही हुआ।

“वह जो भी था, खेला - खाया था ।" कहता हुआ ठकरियाल बैड पर चढ़ गया। जेब से रुमाल निकाला।

उसे हाथ में लपेटकर 'की हाल' में फंसी चाबी घुमाई ।

दराज जैसे लॉकर को बाहर खींचा।

“कुछ है?” दिव्या ने इसलिए चीखकर पूछा क्योंकि जहां वह थी वहां से दराज के अंदर के दृश्य को नहीं देखा जा सकता था। दराज खाली थी। सो, ठकरियाल की गर्दन इस तरह हिली जैसे किसी डॉक्टर ने लाश की नब्ज देखने के बाद हिलाई हो । दिव्या पर मानो बिजली गिर पड़ी। इस कदर रोने, पीटने और कलपने लगी वह कि देवांश को संभालना भारी हो गया। एक बार को तो खूब उसे लगा, दिव्या के जेवर सचमुच चोरी चले गये हैं परन्तु ठकरियाल पर कोई असर नहीं था। वह इस तरह पलंग से उतरा जैसे जानता हो कमरे में कुछ और भी चल रहा है। बाथरूम के दरवाजे की तरफ बढ़ा। नजदीक पहुंचा। रूमाल वाले हाथ से डंडाला खोला। ठिठका और फिर पलटकर देवांश से बोला- “मैं ड्रेसिंग और बाथरूम चैक करने जा रहा हूं। हो सकता है। वहां मेरे अलावा किसी और के निशाने भी मिल जाये। मेरे लौटने तक तुम्हें वहीं खड़े रहना है जहां हो। याद रहे- छेड़ना नहीं किसी चीज को।"

देवांश ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला मगर बगैर कुछ कहे बंद कर लिया। कुछ भी कहने का कोई फायदा नहीं था। जवाब का इंतजार किये बगैर ठकरियाल न केवल बाथरूम में जा चुका था बल्कि दरवाजा बंद भी कर चुका था । केवल दरवाजा ही बंद हुआ होता तो वे न चौंकते परन्तु उस वक्त उनके दिमागो में सैकड़ो सवाल कौंध उठे जब बाथरूम की तरफ से बाकायदा चटकनी चढ़ाये जाने की आवाज आई।

पलटकर दोनों ने एक-दूसरे की तरफ देखा ।

सहमी हुई आंखे पूछ रही थीं-“क्या चक्कर है ये?”

दिव्या की जीभ में खुजली हुई तो फुसफुसाये बगैर न रह सकी- “दरवाजा क्यों बंद कर लिया उसने ?”

देवांश केवल 'मालूम नहीं' वाले अंदाज में कंधे उचकाकर
रह गया। चेहरे पर हवाईया उड़ रही थीं। “बात समझ में नहीं आई।” दिव्या की बेचैनी दूर होने का नाम नहीं ले रही थी - “अगर उसे केवल जांच-पड़ताल करनी है। तो दरवाजा अंदर से बंद करने की क्या तुक हुई?”

“हमें हर बात को इतनी गहराई से नहीं सोचना चाहिए।" देवांश फुसफुसाया- “व्यर्थ ही घबराहट हावी होगी। यह इन्वेस्टिगेशन करने का उसका स्टाईल भी हो सकता है। "

“कैसा स्टाईल हुआ ये?”

“कहा न, बाल की खाल में मत घुसो ।” इस बार थोड़े झुंझलाये हुए स्वर में बोला देवांश-“केवल इतना याद रखो - वह हम पर शक नहीं कर रहा क्योंकि उसकी नॉलिज में हम एड्स के बारे में जानते थे । वजह पुख्ता है - वह आदमी क्यों किसी ऐसे शख्स की हत्या करने लगा जिसके बारे में उसे मालूम है कि-

“तुमने यह नहीं सोचा, जब उसे पॉलिसी के बारे में पता लगेगा तो क्या होगा?”

“क्या होगा ?”

“वह वजह मिल जायेगी उसे जिसकी वजह से हम इसी रात राजदान की हत्या के ख्वाहिशमंद हो सकते हैं।" देवांश को लगा - बात ठीक है।

पॉलिसी को तो देर-सवेर सामने आना ही है । बहरहाल, उन्हीं पांच करोड़ के लिए तो वे इतने पापड़ बेल रहे हैं और पॉलिसी के सामने आने का मतलब है उस 'एलीबाई' का खुद-ब-खुद ध्वस्त हो जाना जो फिलहाल उन्हें ठकरियाल के दायरे से बाहर रखे हुए हैं। उस अवस्था में ठकरियाल पलक झपकते ही समझ जायेगा जो भी हुआ है, पांच करोड़ की खातिर उन्होंने ही किया है। लगा - लक्ष्य हासिल करना उतना आसान नहीं है जितना वह सोच रहा था। ठकरियाल उनके रास्ते में चट्टान बनकर अड़ने वाला है। और यह सच है - देवांश ने जितना सोचा, हलकान होता चला गया। सवाल सैकड़ों थे, जवाब एक का भी नहीं । बोल दिव्या भी कुछ नहीं रही थी शायद वह भी लगभग उन्हीं सवालों में उलझी हुई थी जो खुद उसके दिमाग को मथ रहे थे वरना, हर समय चबड़-चबड़ करती रहने वाली दिव्या ने उसे पुकारा हो । उसने दिव्या की तरफ देखकर 'हुंकारा' भरा | वैसा ही 'हुंकारा' ठीक उसी क्षण दिव्या ने भी भरा था। पता लगा - किसी ने किसी को नहीं पुकारा था। भ्रम हुआ था दोनों को।

इंसान जब अपनी ही सोचों से घिरकर डरने लगता है तो ऐसे ही भ्रम होते हैं।

डरावनी सोचों के कारण दोनों के चेहरो पर खौफ नाच रहा था ।

शायद अपनी ही सोचो से बचने के लिए दिव्या ने धीमे स्वर में पूछा- “क्या सोच रहे हो देव?”

“जो हम कर रहे हैं, क्या वह ठीक है?" देवांश ने दिल की बात कह दी।

“मतलब?”

“अपनी कब्रें तो नहीं खोद रहे हम?"

“देव!” दिव्या की आवाज कांप रही थी- “क्यों डरा रहे हो मुझे? आखिर कहना क्या चाहते हो? साफ-साफ कहो न ।”

“मुझे राजदान के शब्द याद आ रहे हैं।"

“कौन से शब्द ?”

“उसने कहा था-‘सवाल पांच करोड़ का है। मुझे पूरी उम्मीद है - मेरी आत्महत्या को हत्या साबित करने की कोशिश तुम जरूर करोगे ।' 

“हां! कहा तो था ।”

“कितना दुरुस्त कहा था उसने । ठीक वही कर रहे हैं हम।"

“तो?”

“किसी जाल में तो नहीं फंसने जा रहे ?"

“कैसा जाल ?”

“ऐसा लगता है-जैसे वह हमारी नस-नस से वाकिफ था । उसे मालूम था हम कब क्या करेंगे और उसी सब को ध्यान में रखकर उसने कोई जाल बिछाया है। पता नहीं मुझे क्यों लग रहा है जो हम सोच रहे हैं, वह पहले ही सोच चुका था कि हम यही सोचेंगे। यह सब सोचकर मेरा दिल चाहता है, वह न करें जो कर रहे हैं। बेवकूफी होगी यह।” 
“यह न करें तो क्या करें?"

“जो हुआ है, उसे वैसा का वैसा ही - बगैर कुछ छुपाये ठकरियाल को बता दें।” 

“क्या तुम मेरे और अपने संबंधों की बात कर रहे हो?” 

“नहीं।”

“फिर?”

“मैं केवल यहां हुई वारदात की बात कर रहा हूँ। हमें ठकरियाल को बता देना चाहिए, राजदान ने अपनी नर्क जैसी जिन्दगी से आजिज आकर आत्महत्या कर ली है। रिवाल्वर और जेवर किसी और ने नहीं, हमने गायब किये हैं। हम ही हैं वे जो अच्छी भली आत्महत्या को हत्या का रंग देने की कोशिश कर रहे हैं।" 

“पांच करोड़ का क्या होगा ?"

“समझने की कोशिश करो दिव्या- हम उसी लालच में फंस रहे हैं जिसमें राजदान हमें फंसा गया है।" 

“क्या तुमने यह भी सोचा है पांच करोड़ के अभाव में हमारी जिन्दगी किस कदर नर्क बन जायेगी ? 

“भले ही बन जाये, जिन्दगी रहेगी तो सही।" देवांश कहता चला गया- “जबकि जिस रास्ते पर हम निकल आये हैं मुझे लगता है-उसका अंत फांसी के फंदे पर होगा।"