वहां डाका पड़ रहा था।"
"नहीं जान पाएंगे।" - बिलथरे जिद भरे स्वर में बोला - "वो माल को नहीं समझते होंगे। वो माल की कीमत को नहीं समझते होंगे । उनकी हैसियत वहां ऐसे अभिनेताओं जैसी होगी जिन्हें ड्रामे की खबर नहीं होती, उसमें महज अपने किरदार की खबर होती है ।"
"खैर । फिर ?"
“फिर पिछवाड़े के रास्ते से हम माल को धीरे-धीरे वहां से खिसका सकते हैं । "
"कई फेरों में ?"
"जाहिर है, कई फेरों में । "
"होटल में कोई सवाल करता कि डिस्प्ले रैक्स से भरे सूटकेस इतनी रात गए कहां ले जाए जा रहे थे तो क्या जवाब देते ? कोई सवाल करने से बेहतर ये काम करता कि पुलिस को फोन कर देता कि जो माल सौ से ज्यादा व्यापारियों का था, उसे चन्द लोग खिसकाए ले जा रहे थे ओर सिक्योरिटी वाले उन्हें रोक नहीं रहे थे तो क्या होता ?”
बिलथरे बगलें झांकने लगा ।
"नयन बलसारा समझदार आदमी था जो यहां नहीं टिका था ।"
"तुम सुझाओ कोई तरकीब !" - बिलथरे बोला ।
"मेरा काम वाल्ट खोलना है, तरकीबें सुझाना नहीं ।"
"फिर भी ?"
"क्या फिर भी ?"
सुकन्या ने हौले से जीतसिंह के कन्धे पर हाथ रखा और याचनापूर्ण निगाहों से उसकी तरफ देखा ।
जीतसिंह फिर न बोला । उद्विग्न भाव से वो सिगरेट सुलगाने लगा ।
“ये सोचेगा कोई तरकीब ।" - सुकन्या आश्वासनपूर्ण स्वर में बोली - “सोचेगा और सुझाएगा। अभी बहुत वक्त है ”
"पुटड़ी ठीक कहती है ।" - नवलानी व्यग्रता से बोला “साई, हम भी सोचेंगे। दिमाग पर जोर देंगे।"
"चाबियों की बाबत भी छानबीन करेंगे ।" - बिलथरे यूं उत्साहपूर्ण स्वर में बोला जैसे जीतसिंह को खुश करने की कोशिश कर रहा हो ।
"उन रैकों की शिनाख्त कैसे होगी ?" - जीतसिंह बोला - "जो तुम्हारे हिसाब से हमारे काम के होंगे ?"
"मैं दिन में उन पर निशान लगा दूंगा ।" - बिलथरे पूर्ववत् उत्माह से बोला - "ऐसे निशान लगा दूंगा जो हमारे सिवाय किसी को दिखाई नहीं देंगे। उस कनवेंशन में मैं भी शामिल हूं अपने माल की नुमाइश के लिए मेरी भी टेबल होगी, इसलिए ये काम मेरे लिए मुश्किल नहीं होगा ।"
"रैक यूं ही वाल्ट में रख दिए जाते हैं या सूटकेसों में भरकर ?"
" सूटकेसों में भरकर । ताकि अगले रोज हर कोई सूटकेसों के जरिये अपना माल पहचान सके । लेकिन सूटकेसों के ताले मामूली होते हैं जोकि चुटकियों में खोले जा सकते हैं । हम अपने मतलब के सिक्कों के रैक छांटेंगे, उन्हें सूटकेसों में भरेंगे और सूटकेसों को वहां से निकालेंगे।"
"कितने होंगे ऐसे सूटकेस ?"
"सौ तो हो ही जाएंगे।"
" यानी कि ढाई हजार किलो वजन का मेरा अन्दाजा गलत नहीं था !”
बिलथरे खामोश रहा ।
"सूटकेस घटाने होंगे। ज्यादा कीमती माल छांटना होगा, ताकि सूटकेस घटें । "
" जैसे हमने बहुत कम कीमत का माल रिजैक्ट करना है, वैसे ही हम बहुत ज्यादा कीमत के माल पर भी हाथ नहीं डाल सकते ।”
"क्या ?"
"बहुत दुर्लभ सिक्के ही बहुत ज्यादा कीमती होते हैं । उनका ट्रेड में बहुत प्रचार हुआ होता है, इसलिए उनको बेचने में दिक्कत होती है। जेनुइन ग्राहक खरीद से पहले सवाल करता है कि बेचने वाले के पास सिक्के कहां से आए ?" से
"मैं वो सब नहीं समझता । तुम फिर भी ऐसी कोशिश पर जोर रखना जिससे कि वजन घटे ।"
"ठीक है ।"
जीतसिंह खामोश हो गया ।
"साई" - नवलानी आशापूर्ण स्वर में बोला- "सोच के निकालेगा न कोई तरकीब ?"
“हां ।” - जीतसिंह एकाएक उठ खड़ा हुआ- “मैं वापस होटल जाता हूं । ये मेरे साथ जा रही है । "
"ये किसलिए ?" - तत्काल बिलथरे बोला ।
जीतसिंह ने जवाब न दिया। उसने सुकन्या की तरफ देखा । सुकन्या ने सहमति में सिर हिलाया और फिर आंखों-आंखों में बिलथरे को कुछ समझाया ।
तत्काल बिलथरे ठंडा पड़ गया ।
वे वापस कनाट रोड पहुंचे ।
सड़क के पार होटल के सामने खड़े होकर जीतसिंह ने नए सिरे से उसका और उसके आसपास की इमारतों का मुआयना किया ।
दायीं ओर की छ: मंजिली इमारत क्योंकि होटल की इमारत से भी ऊंची थी और क्योंकि नेपोलियन हाल या वाल्टरूम की कोई दीवार उसकी किसी दीवार से जुड़ी हुई नहीं थी, इसलिए उसने तत्काल उसकी तरफ से तवज्जो हटा ली ।
उस इमारत से उसका कोई मतलब हल होने वाला नहीं था । उसने बायीं ओर की नयी बनी दोमंजिली इमारत की तरफ तवज्जो दी तो कई बातों ने उसका ध्यानाकर्षण किया ।
मसलन : दो मंजिल से ऊपर होटल के जितने भी कमरे इमारत के उस पहलू में थे उनके साथ उधर को निकली बालकनियां थीं ।
खुद उसका दूसरी मंजिल का कमरा इमारत के उसी पहलू में पड़ता था, लेकिन उसे याद नहीं था कि उसके कमरे के साथ जुड़ी कोई बालकनी भी थी ।
उसने सुकन्या का ध्यान उस स्थिति की तरफ आकर्षित किया ।
"पहले दूसरी मंजिल के इधर के कमरों की भी बालकनियां होंगी" - सुकन्या बोली- "लेकिन बायीं इमारत की छत दो मंजिल तक पहुंच जाने पर तोड़ दी गई होंगी ।"
" लिहाजा ये इमारत और ऊंची उठेगी तो बाकी बालकनियां भी टूटती जाएंगी ?"
“जाहिर है ।"
"फिर तो होटल वाले बहुत अहमक हुए जिन्होंने पहले न सोचा कि दूसरे के प्लाट में बालकनियां नहीं चल सकती थीं । "
"सोचा तो होगा । इतनी मामूली बात किसी को न सूझी हो, ये नहीं हो सकता । कोई वजह जरूर होगी पहले इधर बालकनियां निकालने की ।"
वजह तब सामने आई जब वो अपने कमरे में पहुंचे और उन्होंने वहां रूम सर्विस के वेटर को तलब किया । जीतसिंह ने पहले उससे कॉफी मंगवाई, उसे मोटी टिप दी और फिर बड़ी मासूमियत से बालकनियों की बाबत सवाल किया ।
"पहले वो दूसरा प्लॉट भी होटल का ही था, साहब ।” - वेटर ने बताया- "उधर स्विमिंग पूल बनाया -
“जाना था ताकि होटल की रेटिंग बढ़ पाती । अभी ये थ्री स्टार होटल है, पहले इसको फाइव स्टार डीलक्स बनाने का प्रोजेक्ट था, लेकिन पार्टनरों में मतभेद हो गया था और वो प्रोजैक्ट ड्रॉप कर दिया गया था। तभी बगल का प्लॉट भी बेच दिया गया था । पहले तो बालकनियां ये सोच के बनाई गई थीं कि उन्होंने अपने ही स्विमिंग पूल की तरफ खुलना था । वो प्लॉट बिक गया तो बालकनियों का रुख गैर की प्रापर्टी में हो गया । फिर टूटना ही था उन्होंने । "
" यानी कि बगल की इमारत दो मंजिल से ऊपर उठेगी तो बाकी बालकनियां भी टूटेंगी ?"
"वो तो जाहिर है, साहब । नए मालिक के एतराज पर पहले भी टूट सकती हैं।"
“इस कमरे का पहलू भी तो बगल के प्लॉट की तरफ है । क्या यहां भी पहले बालकनी थी ?"
"हां, साहब । बराबर थी ।"
"कहां थी ?"
वेटर ने आगे बढ़कर उधर की दीवार पर पड़ा भारी पर्दा एक तरफ सरकाया तो पीछे से छ: गुणा चार की एक बन्द पैनल प्रकट हुई ।
"ये पहले दरवाजा था, साहब" - वेटर बोला- "जो कि बाहर बालकनी में खुलता था । बगल की इमारत की छत इस मंजिल तक पहुंच गई तो बालकनी तोड़ दी गई और दरवाजे को सजावटी पैनल बना दिया गया ।"
" यानी है ये दरवाजा ही ?"
“जी हां । सिर्फ इस पर से हैंडल, चिटकनी और डोर क्लोजर उतार दिया गया है और इसे अपनी जगह पर पक्का ठोक दिया गया है, ताकि ये खुल न सके ।”
"अगर खुल सकता तो इसके पार क्या दिखाई देता?"
“बगल की इमारत की छत दिखाई देती, साहब ।”
"होटल वालों को यहां दीवार चुनवानी चाहिए थी । "
“क्या जरूरत थी, साहब ! दीवार तो है ही। सिर्फ दरवाजे वाली जगह पर नहीं है । वहां तब हो जाएगी जबकि बगल की इमारत की और मंजिलें बनेंगी।"
"ओह !"
" यानी कि " - सुकन्या बोली- "बचत की होटल वालों ने अपनी !”
"जी, मेम साहब ।”
"एक बात और बताओ।" - जीतसिंह बोला ।
"बोलो, साहब ।”
" जैसे तुम्हारी वर्दी पर 'ब्लू स्टार' लिखा है, वैसे सिक्योरिटी वालों की वर्दियों पर ब्लू स्टार क्यों नहीं लिखा हुआ ?"
"साहब, सिक्योरिटी वाले होटल के मुलाजिम नहीं हैं “
"अरे ! ये कैसे ?"
"मालिक लोग कहते हैं कि ऐसे बचत होती है । उन्हें सिक्योरिटी वालों का प्रोविडेंट फंड, ग्रेच्यूटी, दवा-दारू का खर्चा वगैरह नहीं भरना पड़ता ।"
"लेकिन कोई तो भरता ही होगा उनके ये खर्चे ?"
"वो कम्पनी भरती है साहब जिसके कि ये मुलाजिम हैं और जो ठेके पर होटल को सिक्योरिटी स्टाफ सप्लाई करती है ।"
"वो कौन-सी कम्पनी हुई ?"
"मैट्रो सिक्योरिटी सर्विसिज नाम है, साहब । मोदी कालोनी में एम्प्लायमेंट एक्सचेंज के पास उनका ऑफिस है । यहां का सारा सिक्योरिटी स्टाफ उन्हीं का सप्लाई किया हुआ है । "
“सिर्फ स्टाफ ? यानी कि सिक्योरिटी चीफ होटल का मुलाजिम है ?"
"नहीं, साहब । दामले साहब भी मैट्रो सिक्योरिटी सर्विसिज से ही हैं । "
- "दामले साहब ! " - सुकन्या बोली- " यानी कि होटल के सिक्योरिटी चीफ ? "
"जी हां ।"
"ये मैट्रो वाले ऐसा सिक्योरिटी स्टाफ पूना में कहीं और भी सप्लाई करते हैं ?"
"जी हां । कई जगह | "
"फिर तो बड़ी कम्पनी हुई ये मैट्रो सिक्योरिटी सर्विसिज !"
"जी हां । कई गोदामों वगैरह पर तो ताले भी मैट्रो वालों के ही लगते हैं और चाबियां भी वो ही रखते हैं । "
“हो सकता है।" - जीतसिंह अर्थपूर्ण भाव से सुकन्या को देखता हुआ बोला- "यहां के वाल्ट की एक चाबी भी तो सिक्योरिटी चीफ के पास रहती है ।"
"आप" - वेटर नेत्र फैलाकर बोला- "वाल्ट की बाबत जानते हैं, साहब ?”
"हां, भई । क्यों नहीं जानेंगे ? हमारे बड़े भाई डायमंड डीलर हैं । अहमदाबाद से यहां डायमंड प्रदर्शनी में हिस्सा लेने हर साल आते हैं। एक बार हम भी साथ आए थे। तभी वाल्ट की खबर लगी ।"
"ओह !"
"दामले साहब भी शिवारामन साहब की तरह वाल्ट की चाबी अपने गले में लटका कर रखते होंगे । क्यों डार्लिंग ?"
“हो सकता है ।” - सुकन्या बोली ।
“नहीं, साहब ।” - अपना ज्ञान बघारने को उत्सुक और मोटी टिप से गर्माया हुआ वेटर तत्काल बड़े उत्साह से बोला - "वो तो अपनी चाबी अपने मैट्रो के ऑफिस में रखते हैं। "
“अच्छा !" - जीतसिंह बोला- "यहां होटल में नहीं रखते ?"
"नहीं, साहब ।”
"दिक्कत नहीं होती होगी ऐसे ?"
"नहीं, साहब । करीब ही तो है मोदी कॉलोनी और उसमे मैट्रो का ऑफिस । जरूरत पड़ने पर वो फोन लगाते हैं और पांच मिनट में चाबी यहां आ जाती है।"
"लेकिन वहां किसलिए ?"
"सुना है वहां की-बोर्ड पर चौबीस घण्टे का पहरा होता है । "
"ओह ! डार्लिंग, शुक्रिया अदा करो इसका इतनी
उम्दा कॉफी सर्व करने का। इसे और भी काम होंगे ।”
"शुक्रिया ! शुक्रिया !" - तत्काल सुकन्या जगमग जगमग मुस्कुराती हुई बोली ।
"यू आर वैल्कम, मैडम ।" - वेटर ने भी बत्तीसी निकाली ।
"वैसे नाम क्या है तुम्हारा ?"
"मेरा नाम हरकुट है, मैडम ।”
"थैंकयू, हरकुट । थैंकयू वैरी मच । यू कैन गो नाओ|"
वेटर चला गया । सुकन्या ने कॉफी बनाकर सर्व की । "तुमने मुझे डार्लिंग कहा ।" - एकाएक वो बोली । "वेटर को सुनाने के लिये ।" - जीतसिंह सहज भाव
से बोला ।
“यानी कि वैसे ऐसे रिश्ते की कोई गुंजायश नहीं ?"
"कैसे रिश्ते की ?"
"वैसे ही रिश्ते की जिसमें कि मर्द औरत को डार्लिंग कहता है ।"
"हां । कोई गुंजायश नहीं । "
"मर्द ही इतना बेमुरव्वत हो सकता है" – सुकन्या आह सी भरती हुई बोली- "कि जिस औरत के साथ हमबिस्तर होता है, जिससे शारीरिक सुख पाता है, उसको किसी प्यारभरे सम्बोधन तक के काबिल नहीं मानता ।"
जीतसिंह खामोश रहा ।
“अब कुछ बोलो भी ।"
“ये कॉफी अच्छी है । काफी मजा दे रही है मुझे । मैं इसकी तारीफ न करू, इसे डार्लिंग कहकर न पुकारू तो ये बदमजा हो जायेगी ?"
"औरत में और कॉफी की प्याली में फर्क होता है ।"
“कहां फर्क होता है ? दोनों गर्म होती हैं, दोनों को मुंह लगाना पड़ता है, दोनों आनंद देती हैं और दोनों की कीमत अदा करनी पड़ती है।"
" ऐसी फिलासफी वाली बातें कहां से सीखे ?"
"तुम्हारी ही किसी बहन से सीखा । "
"खता खाये मालूम होते हो ?"
जीतसिंह खामोश रहा ।
“पढे-लिखे हो ?”
"मामूली । सिर्फ दस जमातें ।"
"लेकिन बातें..."
"वो करो जिनका हमारे मिशन से कोई रिश्ता हो । मेरी करीबी, मेरी सगेवाली बनने की कोशिश न करो ।”
वो सकपकाई, कुछ क्षण खामोश रही और फिर बोली "अब हमें दो चाबियों की लोकेशन की खबर है। "
"हां।" - जीतसिंह बोला - "एक मैनेजर शिवारामन के गले में और दूसरी, सिक्योरिटी चीफ दामले वाली, मैट्रो सिक्योरिटी सर्विसिज के ऑफिस के की-बोर्ड पर । "
“अब तीसरी, होटल के पार्टनर कोठारी वाली, चाबी की लोकेशन की खबर लगे तो उनकी डुप्लीकेट हथियाने की तरफ कोई कदम उठाया जाए ।"
"वो कदम पहले भी उठाया जा सकता है। तीसरी की खबर लगने के इन्तजार में हम दो चाबियों की डुप्लीकेट हासिल करने की कोशिश कर सकते हैं । हम यहां का फर्श भी पर्त दर पर्त खरोंचना शुरू कर सकते हैं । "
"अभी से ?"
" हां । सारे काम जमा करके उन्हें अंजाम देने की सोचेंगे तो वक्त आने तक एक भी काम मुकम्मल नहीं होगा ।"
"ओह !"
"कॉफी खत्म करो, हम नीचे चल रहे हैं।"
"नीचे कहां ?”
जीतसिंह ने जवाब न दिया ।
कॉफी से फारिग होकर वो वहां से निकले और होटल से बाहर सड़क पर पहुंचे ।
तब जीतसिंह का लक्ष्य बगल की दोमंजिली इमारत था।
उन्होंने इमारत में कदम रखा ।
किसी ने उन्हें रोका-टोका नहीं । रोकना-टोकना तो दूर, इमारत के प्रवेशद्वार पर कोई चौकीदार तक नहीं था ।
"कमर्शियल कॉम्पलेक्स है।" - सुकन्या धीरे से बोली "शायद यही वजह है । "
जीतसिंह ने सहमति से सिर हिलाया ।
अगले दस मिनट में उन्होंने ग्राउण्ड और फर्स्ट फ्लोर का हर कोना खुदरा नाप डाला । उन्हें मालूम हुआ कि उस इमारत में बड़े ऑफिस कम थे, छोटे-छोटे, कबूतरखानों जैसे ऑफिस ज्यादा थे । उनमें से कुछ ऑफिस ऐसे थे जो चौबीस घण्टे खुलते थे, जैसे एक डिटेक्टिव एजेंसी का ऑफिस, एक कूरियर सर्विस का ऑफिस, एक चौबीस घण्टे प्राइवेट टैक्सियां मुहैया कराने वाली ट्रैवल एजेंसी का ऑफिस, एक रिकार्डिंग स्टूडियो वगैरह ।
पहली मंजिल से आगे को जाती सीढियां तय करके जब वो उसके दहाने पर पहुंचे तो उन्होंने वहां एक कमजोर-सा ऐसा दरवाजा लगा पाया जोकि पांव की एक नहीं तो दो मजबूत ठोकरों से टूटकर गिर सकता था । उस पर भीतर से एक मामूली सांकल लगी हुई थी, जिसे खोलकर उन्होंने आगे एक छोटे-से कमरे में कदम रखा, जिसकी परली दीवार में एक वैसी ही मामूली सांकल लगा दरवाजा था । उसने उसे भी खोला तो सामने विशाल खुली छत फैली पाई । छत में इमारत की बुनियाद से उठे पिलर चार-चार फुट तक छत से बाहर निकले दिखाई दे रहे थे जो कि इमारत के अभी और ऊपर उठने की तरफ इशारा था ।
उसने छत पर कदम रखा और इमारत के होटल वाले पहलू के करीब पहुंचा। वहां वो ये अन्दाजा लगाने की कोशिश करने लगा कि उधर उस के कमरे की भूतपूर्व बालकनी कहां हो सकती थी !
“ये" - फिर उसने एक स्थान की ओर इशारा किया - "ये है मेरे कमरे की बालकनी का बन्द दरवाजा, जो अब वाल पैनल बन गया है ।"
सुकन्या ने सहमति में सिर हिलाया ।
"दरवाजा न हो तो आराम से होटल से इस इमारत की छत पर कदम रखा जा सकता है ।"
"ठीक ।"
" यानी कि हम फर्श में छेद करने में कामयाब हो जाएं, वॉल्ट खोलने में कामयाब हो जाएं तो वॉल्ट से माल बाहर निकालने का रूट हमारे सामने है ।"
"ये चौबीस घण्टे की हलचल वाली इमारत है।"
" हलचल बन्द करानी होगी। कोई ऐसा इन्तजाम करना होगा कि जिस रात हम वॉल्ट खोलें उस रात यहां उल्लू बोल रहे हों ।"
"ऐसा क्यों कर होगा ?"
"होगा । जैसे बाकी कुछ होगा, वैसे ये भी होगा ।"
" यानी कोई तरकीब है तुम्हारी निगाह में!"
"हो जाएगी। आओ चलें ।"
वो इमारत से निकले और वापस होटल की तरफ बढे ।
तभी होटल से निकलकर एक कोई चालीस साल के कदरन गोरी रंगत के काला सूट पहने सूरत से ही दक्षिण भारतीय लगने वाले एक बड़े स्मार्ट व्यक्ति ने बाहर कदम रखा |
"ये है" - सुकन्या जल्दी से बोली- "होटल का मद्रासी मैनेजर शिवारामन !"
“जो वॉल्ट की एक चाबी अपने गले में पहनता है ?"
"हां"
'आसपास हमारा कोई आदमी दिखाई दे रहा है ? बिलथरे ? या नवलानी ?"
"नहीं । वो कोठारी और दामले की ताक में होंगे । क्योंकि इसके पास की चाबी की तो हमें खबर है । "
"वो किसी और आदमी के इन्तजाम की भी बात कर रहा था।"
"कोई ऐसा आदमी यहां आसपास दिखाई तो नहीं दे रहा जिसकी निगाह मैनेजर पर हो । "
"वो पैदल कहीं जा रहा है । तुम इसके पीछे लगो ।”
"मैं ?"
"क्या हर्ज है ?"
वो एक क्षण हिचकिचाई और फिर बोली- "ठीक है।"
"लौटकर होटल में आना या फोन करना ।"
"ओ के ।”
बिलथरे दूसरी मंजिल के गलियारे में जीतसिंह के कमरे के आगे चहलकदमी कर रहा था ।
चहलकदमी क्या कर रहा था, ड्रम की तरह इधर से उधर लुढक रहा था । उसका चेहरा उस वक्त गुलाबी लगने की जगह पीला लग रहा था । सिर पर जो ढाई बाल थे वो अव्यवस्थित वे और सूरत पर फटकार बरस रही थी ।
जीतसिंह को वहां पहुंचा पाकर वो जबरन मुस्कराया
"यहां क्या कर रहे हो ?" - जीतसिंह कर्कश स्वर में बोला ।
"बताता हूं।" - बिलथरे हांफता सा बोला ।
"कोई अच्छी खबर है तो भी यहां आने की जरूरत नहीं थी ।"
"मैं तुमसे बात करना चाहता हूं।"
"फोन पर की होती । अपने घर पर दोबारा मुलाकात होने का इन्तजार किया होता ?"
"यहां आ गया तो क्या आफत आ गयी ?"
जीतसिंह ने उत्तर न दिया, उसने चाबी लगाकर अपने कमरे का दरवाजा खोला तो बिलथरे उससे पहले भीतर घुस गया । जीतसिंह ने असहाय भाव से गर्दन हिलाई और फिर भीतर दाखिल होकर अपने पीछे दरवाजा बन्द कि या ।
"क्या आफत आ गयी ?" - बिलथरे भुनभुनाया ।
" तुम्हें नहीं मालूम ?"
"नहीं मालूम । तभी तो पूछा ।"
"तुम लोकल कायन डीलर हो जिसे यहां बहुत लोग जानते हो सकते हैं । वारदात के बाद किसी को तुम्हारी आज की आमद का ख्याल आ गया और तब तुमसे सवाल हुआ कि तुम यहां क्या करने आए थे तो क्या जवाब दोगे ? ये कि तुम अपने तिजोरीतोड़ से मिलने आए थे जिसे कि तुमने यहां होटल के इस कमरे में अपने मेहमान के तौर पर ठहराया हुआ था ?"
वो बौखलाया ।
"यहां आने तक मुझे कोई वाकिफकार नहीं मिला था।" - फिर वो बोला ।
जीतसिंह खामोश रहा ।
"तुम मेरी फिक्र न करो।"
"अरे, किसे फिक्र है तुम्हारी !" - जीतसिंह चिढकर बोला - "मेरी बला से तुम जहन्नुम में जाओ। लेकिन अकेले । किसी और को साथ ले जाने का सामान न करो ।”
इस बार खामोश रह जाने की बारी बिलथरे की थी ।
"तुम इस शहर के वासी हो" - जीतसिंह कदरन नम्र स्वर में बोला - "तुम्हें इसीलिए औरों से कहीं ज्यादा सावधानी बरतनी चाहिए, वरना बाद में...”
"बाद में मैं यहां नहीं रहूंगा । हम कामयाब हो गए तो मैं दोबारा इस शहर का मुंह भी नहीं देखूंगा। मैं यहां से बहुत दूर निकल जाऊंगा । रखा क्या है यहां मेरे लिए ?” मैं
"वो तुम जानो ।”
"कुछ नहीं रखा । मेरे पास पैसा होगा तो मेरा कायन डीलर बना रहना भी जरूरी नहीं होगा ।"
"बढिया ।"
"मैं यहां इसलिए आया हूं कि..."
"मुझे मालूम है किसलिए आए हो । "
"मालूम है !"
"हां। बिलथरे, तुम एक बालिग, उम्रदराज, खुदमुख्तार औरत के पल्लू से बंधे नहीं रह सकते । तुम उसे उसकी मनमानी करने से नहीं रोक सकते । खासतौर से तब जबकि उसे तुम्हारी कोई जरूरत नहीं।"
"क... क्या ?"
"तुम्हें उसकी जरूरत है, उसे तुम्हारी नहीं ।"
"ऐसा वो बोली ?"
"हां"
"इतनी घुटघुट के बातें हो चुकीं ?"
"छोड़ो वो बातें । ये बोलो क्या चाहते हो ?”
"मैं चाहता हूं तुम सुकन्या से दूर रहो ।”
"दूर ही हूं।"
"मेरी बात का मतलब समझो ।”
“जो कहना है, साफ कहो ।”
"कल रात वो घर नहीं लौटी । ऐसा पहले कभी हुआ । मुझे ये बात पसन्द नहीं । "
"मैंने पूछी तुमसे तुम्हारी पसन्द नापसन्द ?”
"वो कल रात यहां थी ?"
"उसी से पूछना वो कहां थी !"
"मैं तुमसे पूछ रहा हूं।"
"क्यों ? क्यों ?"
"क्योंकि..."
तभी दरवाजा खुला और सुकन्या ने भीतर कदम रखा
“यहां !" "तुम !" - बिलथरे पर निगाह पड़ते ही वह बोली
"वो क्या है कि... “वो...वो” - बिलथरे बेचैनी से पहलू बदलने लगा ।
"ये मुझे ये बताने आया था " - जीतसिंह बोला - "कि किस्सा खत्म है ।"
"किस्सा खत्म है !" - सुकन्या सकपकाई - "कौन सा किस्सा खत्म है ?"
"वही जिसकी कामयाबी के तुम ख्वाब देख रही हो । ये भी । नवलानी भी । "
" मैंने ऐसा कब कहा ?" - बिलथरे हकबकाया सा बोला ।
“ऐसा ही कहा । साफ लफ्जों में नहीं कहा, लेकिन कहा । जैसा कंट्रोल तुम इस पर चाहते हो, उसके होते कुछ नहीं हो सकता ।"
"मैं समझ गई" - सुकन्या बोली- "दिलीप !"
"हां ।" - बिलथरे बोला ।
"घर जाओ।"
"लेकिन तुम... लेकिन ये.."
"आखिरी बार कह रही हूं । घर जाओ।"
पिटा-सा मुंह लिए, भारी कदमों से चलता बिलथरे वहां से रुख्सत हुआ ।
“आई एम सॉरी!" - सुकन्या बड़ी संजीदगी से बोली
"पहले पूछ तो लो, क्या हुआ ?”
"मुझे मालूम है क्या हुआ ? मैं क्या बिलथरे को जानती नहीं । लेकिन ऐसा फिर नहीं होगा । मेरा वादा ।"
"ठीक है । अब बोलो क्या जाना ?"
"वो एक डाक्टर के पास गया था जिसका क्लीनिक यहां कनाट रोड पर ही सड़क के सिरे पर है।"
"डाक्टर के पास किसलिए? वो तो हट्टा-कट्टा लग रहा था ।"
"वो स्पेशलिस्ट है । खास बीमारियों का डाक्टर है । "
"खास बीमारियां !"
"एस टी डी ।"
"वो जुबान बोलो जो मेरे जैसा अनपढ समझ सके ।”
“एस टी डी । सैक्सुअली ट्रांसमिटिड डिसीजिज । वो उनका स्पेशलिस्ट है । यौन व्याधियों का विशेषज्ञ है वो ।"
"यौन व्याधियां !”
- "गुप्त रोग" - उसके स्वर में संकोच का पुट आ गया. "जो संदिग्ध चरित्र की लड़कियों से या वेश्याओं से ताल्लुकात बनाने से हो जाते हैं । "
"ओह ! ओह ! तो ये पोल है उस मद्रासी ढोल की ?"
"हां"
"गुप्त जगह पर गुप्त रोग का सताया हुआ है ?"
"हां । वो डाक्टर ऐसी बीमारियों का विशेषज्ञ है। मोटी फीस लेता है । अपॉइंटमेंटसे मिलता है। दो हफ्ते से शिवारामन हर तीसरे दिन उसके पास जा रहा है । "
" अभी भी जा ही रहा है ?"
"जाहिर है ।"
कुछ क्षण खामोशी रही ।
"तुम" - फिर जीतसिंह बोला- "पूना से अच्छी तरह
वाकिफ हो ?"
"हां ।" - वो बोली ।
"फिर तो मालूम होगा कि यहां का सरकारी हस्पताल कौनसा है और कहां है !"
“सरकारी हस्पताल तो यहां कई हैं । "
"सबसे करीबी कौन-सा है ?"
"सबसे करीबी तो गांधी हस्पताल है। कैनेडी रोड पर|"
"हमने वहां चलना है।"
"क्या ?"
"वहां की एम्बुलैंस देखने ।”
"एम्बुलैंस !"
"जो कि वारदात हो जाने पर मौकायवारदात पर करीबी हस्पताल से पहुंचती है।"
"मैं समझी नहीं ।”
“चलो ।”
*****
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