"हां । सिक्कों के कारोबार को सिर्फ बिलथरे समझता । वो ही जानता है कि कौन-सा सिक्का कीमती है और इसलिए चुराने के काबिल है । चुराने के काबिल कीमती माल को वो ही प्यायन्ट आउट कर सकता है । "


"हूं।"


"और तुम वाल्ट खोल सकते हो । ये वो काम है जिसे दूसरा कोई नहीं कर सकता। लिहाजा अहमतरीन काम या तुम्हारा है या बिलथरे का है । बाकियों से कोई फर्क नहीं पड़ता । भले ही जैसे बलसारा भाग गया, वैसे भागचन्द भी भाग जाए।"


"तो ये वजह है तुम्हारे यहां लौट आने के पीछे ?"


"हां । वाल्ट और कोई नहीं खोल सकता।”


"तुम क्यों आयी ? बिलथरे क्यों न आया ?”


"क्योंकि वो मूर्ख है। क्योंकि वो बात बिगाड़ना ही जानता है, संवारना नहीं । संवारना जानता होता तो तुम्हें जाने ही क्यों देता ? बलसारा को ही क्यों जाने देता ?"


“इसलिए उसने यहां तुम्हें भेजा । "


“मैं अपनी मर्जी से यहां आई हूं । उसे तो खबर भी नहीं है मेरे यहां आने की । "


"तुम क्यों आयी हो ?"


"ताकि बिगड़ी बात संवर सके । ताकि ये प्रोजैक्ट ड्रॉप न हो जाए।"


"ड्रॉप हो जाएगा तो क्या होगा ?'


"तो मेरा बहुत नुकसान होगा। मुझे" - उसके स्वर में भर्राहट आ गई - "पैसे की सख्त जरूरत है ।"


"किसको नहीं है ! मुझे भी है। तभी तो पूना आया


"फिर भागे क्यों जा रहे हो ?"


"वजह बता चुका हूं।"


"वो वजह काफी नहीं । रिस्क हर काम में होता है । कभी किसी तरह का तो कभी किसी तरह का । यहां जो रिस्क तुम्हें दिखाई देता है, उससे पार पाया जा सकता है।"


"बिलथरे से क्या रिश्ता है तुम्हारा ?"


"तुम्हें इस बात से क्या लेना-देना है ?"


"क्या रिश्ता है ? "


"वो मेरे पति के जीजा का भाई है ।"


"तुम्हारा पति ! तुम शादीशुदा हो ?” 


"थी।"

"थी क्या मतलब ? तलाक हो गया ?”

" विधवा हो गई। पति रेलवे में ड्राईवर था । एक्सीडेंट में मारा गया । जब से मेरा पति मरा है, दिलीप मेरे पीछे पड़ा है | इन्कार नहीं सुनता। पीछा नहीं छोड़ता । मददगार बनना चाहता है। मुहाफिज बनना चाहता है । जबरन । मुझे पैसे की सख्त जरूरत है । वो उसे भी पूरी करने को तैयार है ।”


"वो तुम्हारी जरूरत पूरी करेगा, बदले में तुम उसकी जरूरत पूरी करोगी ?"


" मैंने तो ऐसा कुछ नहीं कहा, वो ऐसा समझता है तो मैं क्या कर सकती हं ? "


"हां । तुम क्या कर सकती हो ?"


"उसने मदद ऑफर की तो मैंने बता दिया कि मैं क्या मदद चाहती थी ! वो चाहता तो कान लपेट सकता था ।”


" यानी कि जो चीज वो चाहता है वो तुम उसे बेच रही हो ।"


उसने उत्तर न दिया । उसने बेचैनी से पहलू बदला ।


"पैसे की तुम्हारी जरूरत का कोई ओर छोर है ?" 


"है।" - वो बोली ।


"होता तो नहीं औरतों के मामले में कितना चाहिए ?"


"पच्चीस लाख ।”


"ये तो बहुत बड़ी रकम है । " 

वो खामोश रही ।


"बहुत ज्यादा कीमत लगाई तुमने अपनी ।"


उसने तमककर जीतसिंह की तरफ देखा ।


"लेकिन अदा करने वाला मौजूद है" - जीतसिंह लापरवाही से बोला - "तो क्या वान्दा है ? क्यों चाहिए इतनी बड़ी रकम तुम्हें ?"


"तुम्हें क्यों चाहिए ?"


"तुम्हें क्या पता मुझे कितनी बड़ी रकम चाहिए ?"


"जितनी बड़ी भी रकम चाहिए, क्यों चाहिए ?"


"यानी कि ये कह रही हो कि मैं अपने काम से काम रखूं ?"


"हां"


"लेकिन मेरा इरादा तो अपने काम से काम न रखने का है जोकि मैं पीछे जाहिर कर आया हूं।"


"ये इरादा पीछे जाहिर कर आए हो तभी तो मैं यहां आई हूं।”


"क्यों आई हो ? मेरी न को हां में तब्दील कराने ?”


"हां ।”


"उठ के खड़ी हो ।”


चेहरे पर असमंजस के भाव लिए वो झिझकती-सी कुर्सी से उठी ।


“कपड़े उतार ।"


"क्या !"


"बहरी है ?"


"तो ये तुम्हारी कीमत है ?"


"हां"


"मैं इतनी बड़ी कीमत नहीं चुका सकती । "


"तो क्या करोगी ?"


"मैं कोई सस्ता सौदा तलाश करूंगी ।"


"वो तो पहले ही किए बैठी हो । दिलीप बिलथरे है न सस्ता सौदा !”


वो खामोश रही ।


"जिस शख्स पर एतबार न हो, जो शख्स पसन्द न हो, उसके साथ इतना बड़ा कदम नहीं उठाना चाहिए।"


" अपनी बात कर रहे हो ?"


"नहीं । बिलथरे की ।"


"तुम्हें कैसे मालूम है मुझे उस पर एतबार नहीं या वो मुझे पसन्द नहीं ?”


" तुम्हारा यहां आना ही इस बात का सबूत है । ऐसा न होता तो तुम यहां न आई होती । तुम यहां इसलिए आई हो, क्योंकि खेल बिगड़ जाने का अन्देशा बिलथरे से कहीं ज्यादा तुम्हें है ।"


उसने सहमति में सिर हिलाया ।


कुछ क्षण खामोशी रही ।


“तुम्हारा हुक्म मानकर" - वो बोली- "मैंने कपड़े उतार दिए होते तो तुम क्या करते ?"


“तुम्हारे पहलू में रात गुजारता और सुबह तुम्हें सोती छोड़कर अपनी राह लगता ।"


 “फिर तो मैं होशियार हुई जो मैंने तुम्हारा हुक्म न माना ।”


"हां । होशियार और समझदार भी । बैठो।"


वो वापस कुर्सी पर बैठ गई ।


"अब ठीक से, तफसील से बताओ कि क्या किस्सा है?"


"ये नेपोलियन हाल है ।" - सुकन्या ने उसे पहली मंजिल पर स्थित होटल का भव्य, विशाल, उस घड़ी खाली हाल दिखाया - "प्रदर्शनी वाले दिन यहां आठ कतारों में सौ से ऊपर टेबल लगी होंगी ।"


"कैसे मालूम ?" - जीतसिंह ने पूछा ।


"डायमंड डीलर्स की कनवेंशन यहां का सालाना फीचर है । तब भी आठ कतारों में सौ से ऊपर टेबलें यहां लगाई जाती हैं । जो कायन डीलर आने वाले हैं, वो भी सौ से ऊपर होंगे । इसलिए स्वाभाविक है कि टेबलों का पहले जैसा ही इन्तजाम होगा ।"


"हूं।"


वाल्ट है।" "वो दायीं तरफ जो बन्द दरवाजा है, उसके पीछे


"होटल में वाल्ट ?"


"डायमंड डीलरों की खास फरमाइश पर बना है । हीरे-जवाहरात सिक्कों से कई गुना ज्यादा कीमती होते हैं, इसलिए उनकी हिफाजत के लिए एक बड़ी फीस की एवज में होटल वालों ने वाल्ट बनवाया था, जिसमें तमाम के तमाम डीलरों का तमाम का तमाम माल रखा जा सकता है ।"


"तमाम माल ? चाहे वो हीरे हों चाहे सिक्के ?"


"हां"


"हीरे कम जगह घेरते हैं । "


" फिर भी तमाम माल । वाल्ट बहुत बड़ा बताया जाता है।“


"बन्द कैसे होता है ? इलेक्ट्रोनिक लाकिंग सिस्टम से या चाबी से ? "


"चाबी से।"


"फिर क्या बात है !"


"लेकिन एक से नहीं, तीन जुदा चाबियों से जो तीन जुदा लोगों के पास होती हैं ।"


"जुदा लोग कौन ?”


"एक होटल का पार्टनर, दूसरा होटल का मैनेजर और तीसरा सिक्योरिटी चीफ ।"


"चाबियां हथियाई नहीं जा सकतीं ?"


"शायद हथियाई जा सकती हों । सोचने की बात है । अभी तक तो किसी ने इस बाबत सोचा नहीं । बिलथरे का एतबार तो इसी बात पर है कि कोई वाल्ट बस्टर बिना चाबियों के रात को वाल्ट खोल लेगा ।”


वे हाल से बाहर निकले ।


"ये सिक्योरिटी ऑफिस है।" - सुकन्या ने हाल के बाहर के एक बन्द दरवाजे की ओर संकेत किया ।


जीतसिंह ने देखा कि सिक्योरिटी ऑफिस से नीचे लॉबी का काफी सारा हिस्सा, होटल का प्रवेश द्वार, आगे की मारकी और उससे आगे की सड़क का नजारा किया जा सकता था ।


"मेला शुरू कब होगा ?" - जीतसिंह ने पूछा ।


“अगले से अगले शुक्रवार । यानी कि इस महीने की बारह तारीख से ।"


"कब तक चलेगा ?"


"तीन दिन । इतवार शाम को खत्म होगा ।"


"बीच की हर रात डीलरों का माल वाल्ट में बन्द ?"


"हां"


"ऊपर से सिक्योरिटी का पहरा ?"


"हां" 


“कितने गार्डों का ?”


“कहा नहीं जा सकता। बकौल बिलथरे, डायमंड कनवेंशन में तो बारह गार्ड होते थे, सिक्के हीरों जितने कीमती नहीं होते, इसलिए गार्ड कम हो सकते हैं । गार्ड कितने होंगे, ये प्रदर्शनी के पहले दिन सामने आ जाएगा।"


“गार्ड हथियारबन्द होते हैं ?"


"ये भी कोई कहने की बात है !"


"हीरे तो ढेरों एक पोटली में आ जाते हैं । सिक्कों का क्या सिलसिला होता है ? "


"सिक्कों के लिए एक स्पेशल ट्रे होती है जो डिस्प्ले रैक कहलाती है । वो पन्द्रह गुणा अट्ठारह साइज की एक इंच गहरी मखमल मढ़ी ट्रे होती है जिसमें तीन-तीन वर्ग इंच के तीस खाने होते हैं। हर खाने में एक सिक्का रखा जाता है । ट्रे का ढक्कन शीशे का होता है, लेकिन वो बुलेटप्रूफ होता है |"


"गोली से भी नहीं टूट सकता ?"


"हां । और हर ट्रे का बिल्ट-इन लॉक होता है और वो भी इतना मजबूत और पेचीदा होता है कि आसानी से तो नहीं खुल सकता ।"


"ऐसे डिस्प्ले रैक लाए, ले जाए कैसे जाते हैं ?"


"उनके लिए विशेष सूटकेस होते हैं। एक सूटकेस में पांच रैक रखे जा सकते हैं । बिलथरे कहता है कि तकरीबन डीलर ऐसे दो सूटकेस लेकर आते हैं लेकिन बाज बड़े डीलर तीन, चार या पांच सूटकेस भी लाते देखे गए हैं।"


"हर कोई दो सूटकेस भी लाये तो वो दो सौ से ऊपर हो गए !"


"हां । और सिक्कों वाली ट्रे, वो डिस्प्ले रैक, हजार से ऊपर हो गए ।”


"यानी कि वाल्ट खोलने के बाद हजार ताले भी खोलने होंगे ?"


"नहीं । ये हो सकने वाला काम नहीं । मेरा मतलब है हो सकने वाला तो है, लेकिन प्रैक्टिकल काम नहीं । ऐसा एक ताला खोलने में कोई शख्स एक मिनट भी लगाए तो ये सोलह सत्तरह घण्टे का प्रोजेक्ट बनता है, जबकि हमारे पास तो रात के गिने-चुने घण्टे होंगे।”


"फिर कैसे बात बनेगी ?"


"सूटकेस ही चुराने होंगे।"


"सिक्कों से भरे एक डिस्प्ले रैक का क्या भार होगा?"


"ठीक से तो बिलथरे ही बता सकता है लेकिन चार-पांच किलो से क्या कम होगा ! आखिर सिक्कों का भार होगा, अनब्रेकेबल ग्लास का भार होगा, केस का भार होगा ["


"यानी कि सूटकेस पच्चीस किलो के आसपास का और ऐसे दो सौ से ऊपर सूटकेस ।"


"हमें सब के सब रैक नहीं चुराने होंगे। वही चुराने होंगे जिनमें कि कीमती सिक्के होंगे।"


"ऐसे रैक आधे भी हों तो पच्चीस किलो के आसपास के सौ सूटकेस । ढाई हजार किलो भार कौन ढोएगा ?"


सुकन्या को जवाब न सूझा ।


"यहां देखने को कुछ और है ?"


सुकन्या ने इनकार में सिर हिलाया ।


"तो कमरे में चलते हैं । "


लिफ्ट पर सवार होकर वे दूसरी मंजिल पर पहुंचे ।


'अब तुम्हारी समझ में आ गया होगा" - कमरे में पहुंच कर जीतसिंह बोला - "कि वाल्ट खोलना ही अहम काम नहीं। उसके बाद भी काम का एक पहाड़ खड़ा है । हमने ढाई हजार किलो वजन होटल से बाहर ढोना होगा । वो भी चुपचाप । बिना किसी की जानकारी में आए । "


"ये तो बड़ा विकट काम है । "


"हां"


"लेकिन इसे अंजाम देने का कोई तो तरीका होगा ? आखिर हर मुश्किल का कोई हल होता है ।"


"बताओ कोई हल ?”


"मैं कैसे बताऊं ? तुम बताओ । एक्सपर्ट तो तुम हो


"किस काम का ? ताले खोलने का । न कि कुलीगिरी का।"


"मजाक मत करो । "


"एक हल हो सकता है ।"


"क्या ?"


"हमारी पहुंच सीधे वाल्ट में हो सके तो हमें वक्त का तोड़ा नहीं होगा ।"


"सीधे वाल्ट में हो सके क्या मतलब ? वाल्ट का रास्ता तो नेपोलियन हाल से होकर ही है और नेपोलियन हाल का रास्ता सिक्योरिटी ऑफिस के पहलू से होकर है ।"


"हम पके आम की तरह सीधे वाल्ट में जाकर टपक सकते हैं ।"


"कैसे ?”


"जिस कमरे में हम बैठे हैं, इसकी पोजीशन का ख्याल करो । ये वाल्ट के ऐन ऊपर है। यहां फर्श में एक झरोखा निकल आए तो सोचो मैं उसमें से नीचे कहां जाकर टपकूंगा ।"


"वाल्ट में । ओह ! ओह !" - उसने प्रशंसात्मक भाव से जीतसिंह की तरफ देखा और चैन की सांस लेती हुई बोली "मैं तो नाउम्मीद हो गई थी । "


जीतसिंह खामोश रहा ।


"तो ये काम हो सकता है ।" - वो बोली ।


“अभी ख्वाब मत देखो। अभी बहुत कुछ जानना-समझना बाकी है । बहुत-सी बातें ऐसी हैं जिन पर रोशनी बिलथरे ही डाल सकता है, क्योंकि वो खुद कायन डीलर है और ऐसे मेलों का उसे तजुर्बा है। उससे मिलने के बाद ही सही तसवीर सामने आएगी ।"


" तो मैं उसे फोन करू ?"


" उसके यहां फोन है ?"


"हां ।"


"ठीक है, करो । बोलो मैं सुबह उससे मिलूंगा। तुम सुबह मुझे उससे मिलवाने लेकर चलोगी।"


"सुबह !" - सुकन्या की भवें उठीं ।


"तुम्हारी मर्जी है ।"


"मैं इन्कार करू तो कहानी खत्म ?"


“अब नहीं । तब सिर्फ ये फर्क होगा कि तुम अब चली जाओगी, लेकिन सुबह तुम्हें फिर मुझे लेने आना पड़ेगा ।”


" यानी कि एक फेरा एक्सट्रा ! पचास किलोमीटर की एक्सट्रा ड्राइविंग !"


"हां" 


“नामंजूर ।” 


"बढ़िया ।"


"इस पलंग पर दो जनों के लिए जगह होगी ?"


"होगी।"


"फिर क्या वान्दा है ?"


"तुम बोलो ।"


"कोई वान्दा नहीं, मिस्टर बद्रीनाथ | "


"बढ़िया | "


मंगलवार : दो दिसम्बर


सुबह दस बजे जीतसिंह और सुकन्या पूर्ववत् एम्बैसेडर कार में सवार थे और कार बिलथरे के घर की ओर उड़ी जा रही थी ।


पैसेंजर सीट पर बैठा जीतसिंह खामोशी से सिगरेट के कश लगा रहा था ।


"तुम पशु हो । "


जीतसिंह ने हकबकाकर सिर उठाया और कार चलाती सुकन्या की तरफ देखा ।


"क्या ?" - वो बोला "क्या कहा ?”


"तुम पशु हो । "


“अच्छा !"


" और सैडिस्ट भी।"


"वो क्या ? पशु तो मेरी समझ में आया, लेकिन ये.. .ये... क्या बोली ? "


"सैडिस्ट ।"


"हां, सैडिस्ट | सैडिस्ट क्या होता है ?" -


"सैडिस्ट उस शख्स को कहते हैं जो दूसरे को सताकर, यातना देकर सुख पाता है । "


"हूं।"


“रात को जैसे तुम मेरे साथ पेश आए, वैसे कोई सैडिस्ट ही किसी के साथ पेश आ सकता है । हे भगवान ! कैसे तुमने मुझे रौंदा, नोचा, खसोटा, भंभोड़ा । लगता था मेरे पर कोई सूअर सवार था जो खुर मारने के अलावा कुछ नहीं कर सकता था । एकबारगी तो मुझे लगा था कि तुम्हारी दरिन्दगी की शिकार मैं मर ही जाने वाली थी । शैतान सवार था तुम पर । लगता था किसी का बदला मेरे से उतार रहे थे ।”


जीतसिंह खामोश रहा ।


"क्यों पेश आए मेरे से तुम ऐसे ? क्या वजह थी तुम्हारी उस.... उस हैवानियत की ?"


"कोई और बात करो।"


"लेकिन मैं पूछती हूं क्यों तुम...


"कोई और बात नहीं कर सकती हो तो खामोश बैठो|"


"लेकिन...."


“कहना मानो । चुप बैठो।”


वो खामोश हो गई ।


बाकी का रास्ता वो दोबारा न बोली ।


कार अपनी मंजिल पर पहुंची ।


दिलीप बिलथरे उन्हें मकान के पिछवाड़े में मिला । भागचन्द नवलानी तब भी वहां मौजूद था और वो दोनों वहां बैठे चाय पी रहे थे ।


बिलथरे ने शिकायतभरी निगाहों से सुकन्या की तरफ देखा ।


सुकन्या ने उससे निगाह न मिलाई ।


बिलथरे ने बरामदे में दो कुर्सियां और बिछाई और फिर उनके लिए भी चाय का प्रबन्ध किया।


"क्या खबर है ?" - आखिरकार वो बोला ।


 “अच्छी खबर है ।" - सुकन्या बोली- “ये हमारे साथ है।"


"गुड ।"


"ये तो वाकई चोखी खबर है।" - नवलानी बोला “अब देख लेना, झूलेलाल हमें कामयाबी का मुंह भी दिखाएगा ।"


"बात क्या हुई ?" - बिलथरे बोला ।


सुकन्या ने सविस्तार तमाम किस्सा दोहराया ।


“फर्श में छेद करना" - बिलथरे संदिग्ध भाव से बोला "मुमकिन होगा ?"


"होगा ।" - जीतसिंह बोला- "जब अभी अगले हफ्ते तक का टाइम है तो क्यों नहीं होगा ? इतने दिनों में क्या नहीं हो सकता !"


"कैसे होगा ?”


"कमरे के फर्श पर मोटा कालीन बिछा हुआ है जिसे रोज हटाया जा सकता है और वापस अपनी जगह पर पहुंचाया जा सकता है । एहतियात सिर्फ फर्श को खोदने में बरतनी है । वो काम यूं किया जाना जरूरी है कि फर्श पर्त दर पर्त अपनी जगह से हटे, ताकि नीचे वाल्ट वाले कमरे में कोई मलबा जाकर न गिरे । मलबा क्या, वहां कोई छोटी-मोटी कंकड़ भी गिरना गलत होगा । ये काम सावधानी से किया जाएगा तो सब ठीक होगा। मेले की तारीख तक फर्श इतना खोदना होगा कि नीचे वाल्ट की तरफ छत का वो हिस्सा महज देखने को ही सलामत रह जाए। फिर जिस दिन हमने वाल्ट में उतरना होगा, उस दिन उस हिस्से को भी हटाकर छत में छेद कर लेने में पांच मिनट भी मुश्किल से लगेंगे ।”


 “फर्श खोदने से जो मलबा निकलेगा वो कहां जाएगा?"


"होटल से बाहर जाएगा और कहां जाएगा ! उसे हमें चुपचाप थोड़ा-थोड़ा करके होटल से बाहर ले जाना होगा जो कि मामूली काम है ।”


"ओह !"


"हमारे हक में ये बात भी है कि हमारे पास टाइम का कोई तोड़ा नहीं ।"


"तुम वाल्ट खोल लोगे ?"


"तुम मुझे वाल्ट का मुआयना करने का मौका हासिल करा सकते हो ?"


"नहीं।”


"ये पता लगा सकते हो कि वो किस कम्पनी के किस मेक का है ?"


"नहीं।"


"फिर मैं क्या, कोई माई का लाल ये दावा नहीं कर सकता कि वो वक्त रहते वाल्ट खोल लेगा।"


"फिर क्या बात बनी !"


“साई" - नवलानी बोला - "ये वक्त का भी तो हवाला दे रहा है । इसने ये नहीं कहा कि ये वाल्ट नहीं खोल लेगा । इसने कहा कि शायद इस काम में ज्यादा वक्त लग जाए । क्यों साई? यही बोला न ?”


"हां ।" - जीतसिंह बोला ।


" यानी कि वाल्ट को खोल तो तू लेगा ही ।" "हां।" - जीतसिंह पूरे विश्वास के साथ बोला ।


"फिर भी ये टाइम ज्यास्ती लगने वाली बात... "उसका भी हल हो सकता है।" - सुकन्या बोली।


"क्या ?"


“अगर हम वाल्ट की चाबियों की डुप्लिकेट चाबियां बनवा सकें तो क्या काम आसान नहीं हो जाएगा ?"



"डुप्लिकेट चाबियां हासिल करना क्या हंसी खेल होगा ?" - बिलथरे बोला ।


"साई" - नवलानी बोला- "हंसी खेल होगा या नहीं होगा, वो बाद की बात है। पहले मुझे ये बताओ कि क्या डुप्लिकेट चाबियों से वाल्ट खुल जाएगा ?"


जवाब के लिए सबकी निगाहें जीतसिंह की तरफ उठीं


“अमूमन हाई क्लास वाल्ट के तालों को डुप्लिकेट चाबियां नहीं लगती, लेकिन उन चाबियों को लगने लायक बनाना कदरन आसान काम होगा।"


" यानी कि ” बिलथरे बोला - "अगर डुप्लिकेट चाबियां वाल्ट में नहीं लगेंगी तो उनमें जो कमीबेशी होगी उसे तुम हाथ-के-हाथ दूर कर लोगे और चाबियों को ऐसा बना लोगे कि वो वाल्ट में लग जाएं ?"


"हां । इसी तरीके से कीमती वक्त जाया होने से बच सकता है । हमने रात-रात में ढाई हजार किलो वजन वहां से निकालना है । इस लिहाज से वाल्ट जितनी जल्दी खुलेगा उतना ही ज्यादा वक्त हमारे पास वजन ढोने के लिए होगा।"


"पुटड़ा ठीक बोलता है ।" - नवलानी प्रभावित स्वर में बोला - "हमें चाबियां या उनके डुप्लिकेट हासिल करने की कोशिश करनी होगी ।"


"हम ये तो जानते ही हैं" - सुकन्या बोली- "कि वो तीन चाबियां किन तीन साहबान के पास होती हैं । "


"हूं।" - बिलथरे ने विचारपूर्ण भाव से हुंकार भरी ।


"लेकिन हम ये नहीं जानते कि वो साहबान अपनी-अपनी चाबी कहां रखते हैं । "


“एक चाबी के बारे में मैं जानता हूं।" - बिलथरे बोला "होटल का मद्रासी मैनेजर शिवारामन उसे अपने गले में लटकाकर रखता है । वो इस बात को छुपाता भी नहीं । सारे होटल को मालूम है कि उसके गले में मुरूगन के लॉकेट के साथ जो चाबी लटकी होती है, वो वाल्ट की तीन चाबियों में से एक है ।"


"बाकी दो जने-होटल का सीनियर पार्टनर निर्मल कोठारी और सिक्योरिटी चीफ मनोहर दामले भी अपनी अपनी चाबी अपने पास ही रखते होंगे। पास नहीं भी रखते होंगे तो ये मालूम करने की कोशिश की जा सकती है कि कहां रखते हैं ।"


"ये कोशिश" - जीतसिंह बोला- "आप लोग ही कर सकते हैं ।"


"हम करेंगे।" - बिलथरे बोला ।


"कैसे ?”


"हम उनके पीछे लगेंगे।"


“हम कौन ?”


"मैं और नवलानी ।"


"दो जने तीन आदमियों के पीछे कैसे लग पाओगे ?"


"बलसारा दगा न दे गया होता तो हम तीन ही होते ।"


" मैंने ये नहीं पूछा क्या होता ? मैंने पूछा है क्या होगा?”


"मैं.... मैं एक और आदमी का इन्तजाम करूंगा । तब तक हम दोनों कोठारी और दामले के पीछे लगेंगे।"


"बढ़िया ।"


"लेकिन साई" - नवलानी व्यग्र भाव से बोला - "चाबियों के मामले में हम कोई कामयाबी न हासिल कर पाए तो तुम तो अपनी कोशिश करोगे ही न ?”


"हां ।" - जीतसिंह बोला- "जी जान से । क्योंकि पैसे की जितनी जरूरत तुम्हें है, उससे कहीं ज्यादा मुझे है । "


"झूलेलाल ! फिर भी कल भागा जा रहा था ।”


जीतसिंह खामोश रहा ।


"फर्ज करो वाल्ट खुल गया ।" - सुकन्या बोली “छत में छेद भी हो गया । वाल्ट से निकालकर हम अपना माल छेद से बाहर भी ले आए, लेकिन इतने से तो माल हमारा नहीं हो गया ? रहा तो वो होटल में ही । " -


"तुम लोगों को मेरी जरूरत वाल्ट खोलने के लिए थी ।" - जीतसिंह बोला - "वाल्ट खुल जाने के बाद तुम लोग क्या करते, तुमने भी तो कुछ सोच के रखा होगा ?"


"वो अभी हमने" - बिलथरे कठिन स्वर में बोला - "मिल-बैठ के सोचना था।"


जीतसिंह के चेहरे पर गहन वितृष्णा के भाव आए ।


*****

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