तभी दिलीप बिलथरे वापस लौटा । अब वो शोल्डर होलस्टर नहीं पहने था, ये स्थापित करने को वो कितना व्यग्र था, उसका सबूत ये था कि वो कोट भी उतार आया था |

“किस्सा क्या है ?” - जीतसिंह ने फिर सवाल किया। 

बिलथरे सुकन्या के करीब एक कुर्सी पर बैठ गया और बोला - “सिन्धी भाई बताता है ।”

“शहर में एक कायन कनवेंशन होने वाली है” - नवलानी बोला - “जिसमें अपना बिलथरे भी हिस्सा लेने वाला है । सौ से ज्यादा देशी-विदेशी कायन डीलर उस सम्मेलन में शरीक होंगे । सम्मेलन एक लोकल होटल में तीन दिन चलेगा । उन तीन दिनों में हमने वहां मौजूद कीमती सिक्कों पर हाथ साफ करना है । बिलथरे क्योंकि खुद कायन डीलर है, इसलिए ये ही बता सकेगा कि कौन-से सिक्के कीमती हैं और हथियाने के काबिल हैं । इसके अलावा इस अभियान में जो खर्चा होगा, वो ये करेगा । इस वजह से हासिल माल में इसका हिस्सा आधा होगा ।”

"सिक्कों से रोकड़ा कैसे खड़ा होगा ?” - बलसारा बोला |

"हो जाएगा ।” - बिलथरे लापरवाही से बोला |

"कब खड़ा होगा ?”

"टाइम लगेगा, लेकिन हो जाएगा ।”

“कितना रोकडा खडा होगा ?”

“कहना मुहाल है । ये हिस्सा लेने वाले डीलरों पर निर्भर करता है ।”

“फिर भी कोई अन्दाजा तो बोलो ।”

“डीलरों की सम्मेलन से गैरहाजिरी कम से कम रही तो स्कोर दस करोड़ तक जा सकता है ।”

“ये तो फेस वैल्यू हुई । हमारे पल्ले क्या पड़ेगा ?”

“हमने तमाम के तमाम सिक्के नहीं चुराने । हमने सिर्फ कीमती सिक्कों पर हाथ डालना होगा और कौन से सिक्के कीमती हैं, ये सिर्फ मैं बता सकूंगा । जो सिक्के हम उठाएंगे, उनकी फेस वैल्यू पांच-छ: करोड़ हो सकती है ।”

“हमें क्या मिलेगा ?”

“तीन, पौने तीन करोड़ ।”

“जोकि तुम हमें दोगे ।”

"मैं कहां से दूंगा !” - बिलथरे हंसा - “मेरे पास इतना पैसा होता तो मैं इस डकैती में शरीक होने की पेशकश करता! दोस्तो, मैं बहुत मामूली कायन डीलर हूं, इसलिए रुपए पैसे के मामले में मेरी हैसियत भी मामूली है । आइन्दा जिन्दगी में मेरी मामूली हैसियत किसी और तरीके से गैरमामूली नहीं बन सकती, किसी और तरीके से मेरी तकदीर पलटा नहीं खा  सकती, इसलिए मैं आप लोगों के साथ जिन्दगी का इतना बड़ा जुआ खेलने जा रहा हूं ।”

"वो ठीक है । मुझे भी जुआ खेलना मजूर है, इसीलिए मैं सूरत से चलकर यहां आया हूं । बिलथरे, मेरा सवाल हासिल की बाबत है, इसलिए साफ बोलो वो कितना होगा और कब होगा ?”

“कितना तो मैंने बताया ही है । तीन करोड़ में से आधा हिस्सा मेरा, बाकी आप लोगों का बराबर- बराबर ।”

“कब होगा ?”

“धीरे धीरे होगा ।”

“धीरे धीरे होगा, क्या मतलब ?”

"ये कोई आम चोरी का माल नहीं । ये खास चोरी का माल है जिसकी खास ही डिमांड है, इसलिए इसे खड़े पैर कैश नहीं किया जा सकता । सिक्के हमें धीरे- धीरे थोड़े-थोड़े करके खपाने होंगे । तभी तो हमें उनके वाजिब दाम मिल सकेंगे ।”

“यानी कि पौधा लगाकर उसके सिरहाने बैठना होगा और इन्तजार करना होगा कि कब वो पेड़ बने और फल दे| "

"इतना टाइम नहीं लगेगा ।”

"लेकिन लगेगा ।”

"तो क्या हुआ ?”

"तो ये हुआ कि मैं न हुआ ।”

"क्या मतलब ?"'

“बिलथरे, क्रेडिट पर डकैती डालना मेरा फील्ड नहीं। "

“लेकिन यार, ये...”

“सॉरी ।” - बलसारा एकाएक उठ खडा हुआ - “सॉरी फ्रेंड्स, काउन्ट मी आउट ।”

“क्या बात करना है, साई ?” - नवलानी जल्दी से बोला - “अरे, ये बड़ी सालिड पेशकश है । देख लेना, बिलथरे सब फिट कर देगा ।”

"तुम्हें कैसे मालूम है ?” - बलसारा बोला - “ऐसे दस-बीस काम पहले कर चुका है बिलथरे ?”

“वो तो नहीं, लेकिन...”

“अभी तजुर्बा करेगा । अभी तजुर्बा करेगा तो इसका पास-फेल निकलेगा ।”

“जब ये खुद कायन डीलर है तो...”

“कायन डीलर है । चोरी के माल का ग्राहक खुद नहीं है । इसके डीलर होने से क्या होता है ?”

“होता है ।” - बिलथरे आवेशपूर्ण स्वर में बोला - "चोरी के सिक्कों का मैं ही ग्राहक तलाश कर सकता हूं ।”

"गुड ! कर चुके हो ?”

"कर तो नहीं चुका, लेकिन...”

“सॉरी । मैं बाहर ।”

अरे, मेरी बात तो सुनो ।”

“और बैठे हैं तुम्हारी बात सुनने को । समझ लो कि एक श्रोता घट गया ।”

“दो ।” - जीतसिंह उठता हुआ बोला |

"क....क्या !” - बिलथरे के मुंह से निकला |

"वापस कैसे जाओगे ?” - जीतसिंह बोला |

“टैक्सी करूंगा ।” - बलसारा बोला |

“बढ़िया । मुझे लिफ्ट दे देना ।”

“यू आर वैलकम ।”

“शुक्रिया ।”

पीछे हकबकाए बिलथरे, बौखलाए नवलानी और खामोश सुकन्या को छोड़कर जीतसिंह बलसारा के साथ हो लिया|

*****

टैक्सी वापस शहर की ओर भाग रही थी । तंग सड़क को पैदल पार करके वे मेन रोड पर पहुंचे थे तो उन्हें टैक्सी मिली थी |

“कभी नाम नहीं सुना तुम्हारा ।” - एकाएक बलसारा बोला |

“इत्तफाक की बात है ।” - जीतसिंह लापरवाही से बोला ।

“बिलथरे तुम्हें एक्सपर्ट तिजोरीतोड़ बता रहा था |

इस काम के एक्सपर्ट इस धन्धे में बहुत थोड़े हैं । इस लिहाज से मैंने तुम्हारा नाम सुना होना चाहिए था ।”

"मैं अभी नया हूं इस कारोबार में ।”

“कहीं नाम भी तो नया नहीं ?”

"क्या मतलब ?”

“मुम्बई में शायद किसी और नाम से जाने जाते हो | असली नाम से ।”

"मेरा असली नकली एक ही नाम है । बद्रीनाथ ।”

“हूं । तुम्हारा क्या ख्याल है ? उधर से नककी करके मैंने गलत किया ?”

"ठीक किया । ठीक न किया होता तो मैं कया तुम्हारे साथ होता ? अभी भी पीछे बैठा उन्हीं की बातें न सुन रहा होता?”

"ठीक | वैसे कुछ बात बनती तो मुझे खुशी होती ।”

" मुझे भी "

"मुझे पैसे का तोड़ा है आजकल । जल्‍दी ही कोई दांव न लगा तो दिक्कत हो जाएगी ।”

“इधर भी ऐसा ही है ।”

“तुम्हारी निगाह में कोई और दांव नहीं ?”

"नहीं ।”

“हो तो मुझे बताना ।”

“कैसे ? तुम तो सूरत में पाए जाते हो?”

"मैं हर जगह पाया जाता हूं ।” - उसने जेब से एक कागज का पुर्जा और एक बालपैन निकालकर कागज पर कुछ अक्षर घसीटे और उसे जीतसिंह को थमाता हुआ बोला - "ये मुम्बई का एक नम्बर है । लगा के बख्तावर को पूछना |

बख्तावर के पास मेरे लिए जो सन्देशा छोड़ोगे, मुझे मिल जायेगा ।”

“बख्तावर। "

"हां |"

“औरत है या आदमी ?”

वो हंसा और फिर बोला - “क्या फर्क पड़ता है ? मेरा मतलब है, अभी क्या फर्क पड़ता है ? कभी फोन करोगे तो खुद ही जान जाओगे ।”

“अब कहां जाओगे ? सूरत ?”

“नहीं । मुम्बई । बस अड्डे से नाइट सर्विस वाली बस पकडूँगा । अभी” - उसने कलाई घड़ी पर निगाह डाली - “टाइम है ।”

"हूं |"

“तुम्हारा क्या प्रोग्राम है ?”

"जाऊंगा तो मैं भी मुम्बई ही, लेकिन कल । होटल का किराया चुकता है न !”

“कभी नौबत आई तो मेरे साथ काम करना पसन्द करोगे ?”

"ये भी कोई पूछने की बात है ! ऐसा न होता तो पूछता कि कहां पाए जाते हो !”

“ओह, हां । हां । तुम्हारे से कान्टैक्ट का क्‍या तरीका है?”

"एडुआर्डो को जानते हो ?”

"वो गोवानी ? बिग डैडी ? वालपोई वाला ?”

"हां ।”

“जानता हूं । अच्छा आदमी था । एक्टिव भी । लेकिन बूढ़ा हो गया । अब काम नहीं करना चाहता । न काम

करने के बहाने तलाशता है ।”

“मेरे लायक कोई काम हो तो मेरे लिए एडआर्डो को फोन लगाना | वो मुझे बोलेगा ।”

“पणजी से मुम्बई ?”

“क्या वान्दा है ? मुम्बई से सूरत सन्देशा पहुंच सकता है तो पणजी से मुम्बई में क्या वादा है ?”

“कोई वान्दा नहीं ।”

जीतसिंह को उसके होटल के सामने उतारकर टाटा बाई-बाई करके बलसारा टैक्सी पर रुख्सत हो गया |

जीतसिंह अपने कमरे में पहुंचा ।

पहले उसने तभी एडुआर्डो को फोन लगाने का ख्याल किया, लेकिन फिर उसने वो प्रोग्राम अगली सुबह के लिए मुल्तवी कर दिया |

ग्यारह बजे वो बिस्तर के हवाले हुआ और तकिए से सिर लगते ही सो गया |

दरवाजे पर निरन्तर पड़ती दस्तक ने उसे सोते से जगाया |

उसने टेबल लैम्प ऑन करके घड़ी पर निगाह डाली तो पाया कि अभी बारह ही बजे थे । वो बिस्तर से निकला और उसने जाकर दरवाजा खोला |

सामने सुकन्या खड़ी थी |

“तुम !” - वो सकपकाया सा बोला - “अब क्या है ?"

“सो गए थे क्या ?” - वो इठलाकर बोली |

"आधी रात को सोया ही जाता है ।”

"फिर तो मुझे अफसोस है कि मैंने तुम्हें सोते से जगाया ।”

“बिलथरे के भेजे आई हो तो बेकार आई हो । जिस बात को नक्की बोल दिया, बोल दिया ।”

“मैं उसके भेजे नहीं आई ।”

"तो "

"मुझे भीतर तो आने दो ।”

“कोई जरूरत नहीं । घर जाओ अपने ।”

“चली जाऊंगी । जल्‍दी क्या है ?”

"मुझे जल्दी है । मैंने सुबह-सवेरे मुम्बई की गाड़ी पकड़नी है, इसलिए...”

“तुम गलत समझ रहे हो ।”

“क्या गलत समझ रहा हू ?”

"सब कुछ । पहले तो ये ही कि तुम समझते हो कि स्कीम के पीछे बिलथरे है । तुम समझते हो कि जो होना है उसकी अक्ल और काबिलियत से होना है ।”

“ऐसा नहीं है ?”

“नहीं है । उसमें कहां रखी है अक्ल, कहां रखी है काबिलियत ?”

“वो सिलसिला फिर भी किसी काम का नहीं ।”

"लेकिन काम का हो सकता है । उसमें कोई नुक्स हैं तो उन्हें दूर किया जा सकता है । उस स्कीम को पालिश करके काम का बनाया जा सकता है ।”

“ऐसा कौन करेगा ?”

“तुम । मैं ।”

" तुम !"

“सुन लेने में क्या हर्ज है ? सुनकर गौर कर लेने में क्या हर्ज है ?”

जीतसिंह हिचकिचाया |

“मैं बहुत कम वक्त लूगी । बड़ी हद पांच मिनट ।”

“आओ ।”

वो भीतर दाखिल हुई तो जीतसिंह ने उसके पीछे दरवाजा बन्द कर दिया । उसने एक खाली कुर्सी की तरफ इशारा किया और स्वयं पलंग पर बैठ गया |

वो कुर्सी पर ढेर हुई और बोली - “अंधेरा है ।”

“कोई वान्दा नहीं ।” - जीतसिंह शुष्क स्वर में बोला -

“मुझे अंधेरे में भी बराबर सुनाई देता है । अंधेरे में तुम्हारी जुबान अटकती हो तो बात और है ।”

“ऐसी कोई बात नहीं ।”

“बढ़िया ।”

“तुम इतना रूखा क्यों बोलते हो ?”

“तुम क्यों सुनती हो ? एतराज है तो उठ के चलती बनों ।”

उसने एक आह-सी भरी और बोली - “रूखा बोलने की शिकायत की तो और रूखा बोल के दिखा दिया ।"

वो खामोश रहा और उसके दोबारा बोलने की प्रतीक्षा करता रहा । वो तल्काल न बोली तो वो एक सिगरेट सुलगाने में मशगूल हो गया |

“मुझे सिगरेट के धुएं से एलर्जी है ।” - वो बोली ।

जीतसिंह ने सिगरेट का एक गहरा कश लगाया और ऐन उसके मुंह पर धुआं छोड़ा |

वो हौले से खांसी और फिर अपने मुंह के आगे हवा में हाथ मारने लगी |

“पांच मिनट ।” - जीतसिंह ने उसे याद दिलाया |

“उस कायन कनवेेंशन में अभी दो हफ्ते हैं ।” - वो जल्दी से बोली - “और वो इसी होटल में होने वाली है । यहां पहली मंजिल पर एक बहुत बड़ा हाल है जोकि नेपोलियन हाल के नाम से जाना जाता है ।”

"ये बता के तुमने मुझे और भी विश्वास दिला दिया है कि बिलथरे बिल्कुल ही अनाड़ी और अक्ल का अन्धा है ।”

" क्यों ?"

“और उसने भागचन्द नवलानी को भी अपने ही जैसा बना लिया मालूम होता है ।”

“क्यों भला ?”

“पहली बात तो यही है कि जिस शहर में ऐसी वारदात करने का इरादा हो, चोरों की बारात का ठिकाना वो ही शहर नहीं होना चाहिए । दुसरे, जिस होटल में वारदात होनी हो एक बाराती को उसी होटल में नहीं ठहरा हुआ होना चाहिए । तीसरे, ऐसे काम में हाथ डालना मूर्खता होती है जिसके हासिल का बंटवारा फौरन मुमकिन न हो ।”

“तीसरी बात मेरी समझ में नहीं आई ।”

“लूट का माल किसके कब्जे में होगा ? बिलथरे के | उस खास माल की कोई समझ कौन रखता है ? बिलथरे | उसको ठिकाने लगाकर रोकड़ा कौन खडा कर सकता है ? बिलथरे । वो बेइमान हो जाए, मुझे मेरा हिस्सा न दे तो क्या मैं वसूली के लिए उसके साथ कोर्ट-कचहरी करूंगा ?”

“बेईमान आदमी को मौत के घाट उतारा जा सकता है|”

" यू मुझे मेरा हिस्सा मिलने की गारण्टी हो जाएगी ?”

“मेरा मतलब है कि बिलथरे की धोखा या बेईमानी करने की मजाल नहीं हो सकती । वो तुमसे खौफ खाता है| "

जीतसिंह हसा |

“वो नवलानी से भी खौफ खाता है । सबसे खौफ खाता है । आदतन डरपोक है । खूब जानता है कि अगर उसने बेईमानी की तो उसकी जान पर आ बनेगी ।”

जीतसिंह खामोश रहा |

“वो चूहा है जो शेर से नहीं भिड़ सकता ।”

“शेर कौन ?”

"तुम ।”

जीतसिंह फिर हंसा |

“तुम सब । उसके मुकाबले क्या तुम, क्या नवलानी, क्या बलसारा, सब जबर हैं ।”

“बलसारा तो गया । अब उसका जिक्र क्यों ?”

“गया तो कोई आफत नहीं आ गई । उसकी जगह कोई और ले लेगा । असल काम तो तुम्हारा है या बिलथरे का है|" 

"ऐसा ?"

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