ज़िन्दगी के रंग
पिछले दो दिन से रिमझिम वर्षा हो रही है। मौसम भी बहुत ही खराब और उदास सा -मेरे मन की तरह ही अस्थिर ।कभी बादल ,कभी धूप। ऐसे में अकेलापन और भी कचोटने लगता है ।लाख सोचती हूं कि दुखद प्रसंगों की स्मृतियों को भूल जाऊं, पर संभव नहीं हो पाता है -कई मूर्तियां बनती जाती हैं ।हम अनुभव भी नहीं कर पाते हैं ।पर जब वह टूटने लगती है ,तो उसके अस्तित्व का एहसास होता है और तब.... कॉल बेल की आवाज सहसा चौंका देती है ।उत्सुकता लिए दरवाजा खोलती हूं ,सुषमा को देखकर प्रसन्नता और आश्चर्य से पूछती हूं-"इस समय तुम यहां?"
"अंदर आने को भी नहीं कहोगी क्या?" सुषमा का चिरपरिचित शांत स्वर था।
सुषमा मेरी बालसखी है ।एक नितांत मध्यम वर्गीय पारंपरिक परिवार की लड़की ।आचार विचार, अनुष्ठान ,रूढ़ियों, परंपराओं और गुरुजनों के प्रति श्रद्धा तथा परिवार से अगाध स्नेह रखने वाली ।वह स्वभाव से चुलबुली, शिष्ट और विनम्र है। उसमें न्याय -अन्याय की समझ, मान अपमान का बोध अत्यंत सूक्ष्म एवं सजग है ।बचपन से ही मां के उपदेश -"लड़की की जात है ,सबकी मानना और मर्यादा में रहना सीखो" ,उसकी सभी महत्वकांक्षाओं को मुंह उठाने से पहले ही दबाते रहे ।उसने हमारे कस्बे के हायर सेकेंडरी स्कूल में प्रवेश लेने की कितनी ज़िद की थी, पर पिता की कठोर अनुशासन प्रियता व लड़कियों को सहशिक्षा वाले स्कूल में पढ़ाने से होने वाली समाज निंदा के भय ने उसकी पढ़ाई पर आठवीं के बाद ही पूर्ण विराम लगा दिया था। उसके पिता हमेशा यही कहते थे कि सुषमा की जगह राकेश यदि पढ़ने में ठीक होता तो हमारे भाग्य ही खुल जाते ।मां भी गहरी सांस लेकर दुखी स्वर में पिताजी की बात का समर्थन करते हुए कहती -"इसे ही ईश्वर का अन्याय कहते हैं"। मैंने भी सुषमा के माता-पिता से कितनी अनुनय-विनय की थी कि मेरे साथ उसे भी स्कूल में प्रवेश लेने दे पर उन्होंने राकेश को पढ़ाई के लिए शहर में भेजने के खर्च की बात कह कर मेरा मुंह बंद कर दिया था।
एक साल बाद आठवीं पास करके राकेश शहर में पढ़ाई करने चला गया था ।अच्छे हॉस्टल और स्कूल में दाखिला दिलाया था। उसे घर से चलते समय उसकी मां ने बड़े जतन से इकट्ठी की गई बचत राशि के ₹1000 देते हुए कहा था-" बेटा पैसों की चिंता मत करना पढ़ाई में मन लगाना ।हम तुम्हें तो डॉक्टरी ही पढ़ाएंगे।"
दो वर्ष बाद सुषमा का विवाह जबलपुर के एक शिक्षक परिवार में कर दिया गया ।उसका पति बी .कॉम. में पढ़ रहा था ।सुषमा ने अपने ससुराल में भी पढ़ाई की इच्छा व्यक्त की ।उसने सास को विश्वास दिलाया कि मैं घर का पूरा काम करके पढ़ाई करूंगी ।वे सहर्ष तैयार हो गईं और सुषमा ने प्राइवेट हायर सेकेंडरी की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की थी। आज सुषमा लगभग 10 वर्ष बाद मिली है पर बिल्कुल नहीं बदली, उसकी वहीं चुलबुली, शोख शरारतें मुझे अतीत से खींच लाती हैं।
"किसके ख्यालों ने हमारी नेहा को गले लगने से रोक रखा है " कहते हुए वह मुझे अपने स्नेह -पाश में बांध लेती है ।'अरे मुझे पानी तो लाने दे', कहती हुई मैं जाने का प्रयास करती हूं, पर वह खींचकर बिठा लेती है -"इतने दिनों बाद मिले हैं और तुझे पाने की पड़ी है।"
"अच्छा तो अपनी घर दुनिया की सुना ।तुझे देख कर तो लगता है कि जीजाजी ने खूब माल खिलाया है "कहते हुए मैंने उसकी स्थूलता पर चुटकी ली।
व्यंग्य को नजरअंदाज करते हुए वह बड़े उत्साह से बताती है कि "एम.ए.संस्कृत करके अब सेंट्रल स्कूल में पी.जी.टी हूं ।बेटा किंशुक 8 वर्ष का है और सुहास 6 वर्ष का हो गया है ।दोनों मेरे ही स्कूल में पढ़ते हैं। मृणाल CA करके अच्छी प्रेक्टिस कर रहे हैं। हमारा मकान भी 2 वर्ष पूर्व ही बना है ।ससुर जी रिटायर हो गए हैं ।सास जी बहुत मदद करती हैं, बच्चे कैसे बड़े हो गए,मुझे तो पता ही नहीं चला"।
अपने सास- ससुर की चर्चा करते हुए उसका चेहरा और भी निखर आया था ।मैं उसे टोकते हुए उसके माता- पिता जी और राकेश के विषय में पूछती हूं कि वह एकाएक गंभीर हो जाती है। दुखी स्वर से कहती है ,"राकेश ने तो दो साल फेल होकर जैसे तैसे हायर सेकेंडरी पास की थी। हॉस्टल में बुरी संगति में फंस गया था। पिता जी ने उसे वापस बुला कर एक जनरल स्टोर खुलवा दिया था। उसमें भी उसका मन कम ही लगता था ।उसकी शादी के बाद पत्नी सुधा ने रुचिपूर्वक दुकान चलाई ।अब आर्थिक स्थिति सुधरी है ,दो बेटे हैं कोई कमी नहीं है ,पर वृद्ध होते माता पिता बोझ हो गए हैं। पिताजी पहले ही अपनी जमा पूंजी उसकी पढ़ाई और विवाह में खर्च कर चुके हैं ।मां के पास भी अब कुछ नहीं है। सभी गहने बहू को चढ़ावे में दिए थे तो कभी मांगने का विचार भी नहीं आया। अब वे पूरी तरह उन्हीं पर निर्भर हैं तो व्यवहार एकदम बदल गया है । पिछली बार जब हम दोनों आए थे तो यह सब देखकर दंग रह गए थे ।हमने उन्हें साथ चलने के लिए कहा था पर मां हमारे साथ चलने को तैयार नहीं हुई थी - लड़की के घर रहकर लड़के की प्रतिष्ठा, इज्जत गिराना नहीं चाहती थी ।
अब हालत अधिक बिगड़ गई है- मां बहुत कमजोर हो गई है और सुधा की जीभ अधिक ताकतवर बन गई है। रिश्तेदारों से यह बात मालूम होने पर मम्मी जी ही मुझे लेकर यहां मां -पिता जी को लेने आई हैं ।पापा जी ने भी इस बात पर जोर दिया कि बुढ़ापे में हम चारों मिलकर बच्चों के साथ रहेंगे। मम्मी जी ने मां को बहुत समझाया है कि लड़के लड़की में क्या फर्क है। आपने ही तो हमें सुषमा जैसी बहू बेटी दी है ।तब कहीं जाकर ये लोग कुछ दिनों के लिए चलने को तैयार हुए हैं।"
"सुषमा तुम भाग्यशाली हो,जो तुम्हें इतने उदार विचारों वाले सास-ससुर मिले हैं ।हमारे पुरखों ने सच ही कहा है कि भगवान के यहां देर है ,अंधेर नहीं ।तुम्हें बचपन में जो वात्सल्य और स्नेह, पुत्र मोह के वशीभूत मां -पिताजी नहीं दे सके थे ,वह चौगुना होकर तुम्हें अब मिला है"। ऐसा कहते हुए मेरी आंखे भर आईं ।काश, सास-ससुर का साथ मुझे भी मिला होता।
सुषमा से सास ससुर की तारीफ सुनकर बहुत अच्छा लग रहा था पर साथ में मेरा मन पता नहीं क्यों उन दुखद स्मृतियों में डूबने लगा था -अभी 4 वर्ष पहले की ही तो बात है स्नेहांश की आठवीं की परीक्षा थी और सास ससुर के एक्सीडेंट का समाचार मिला था। मैं बहुत ही दुविधा में थी एक तरफ परीक्षा और दूसरी तरफ सास ससुर को हमारी आवश्यकता। इस कशमकश में पुत्र मोह की ही विजय हुई । मैंने इनसे कह दिया था कि आप ही चले जाइए मैं इसे परीक्षा दिला कर तुरंत ही आ जाऊंगी ।शायद इनके मन में अच्छा नहीं लगा था। विवाह के बाद से ये कभी भी अकेले घर नहीं गए थे। ये सोच रहे थे कि हम स्नेहांश को मौसी के पास छोड़कर साथ में ही घर चलते हैं, पर पता नहीं क्यों मैं परीक्षा के समय बेटे को छोड़ना नहीं चाहती थी ।ये अकेले ही घर गए ।मैं और स्नेहांश परीक्षा के तुरंत बाद घर के लिए रवाना हो गए।
सासू मां की स्थिति बहुत ही नाजुक थी वह स्नेहसिक्त दृष्टि से हम दोनों को देखती रहीं। उनके मुख पर एक सुखद मुस्कान फैल गई। संकेत से ही उन्होंने हमें पास बुलाया और दोनों के सिर पर बहुत ही स्नेह पूर्वक हाथ रखा -उनका वह अगाध स्नेह- स्पर्श आज भी मुझे रोमांचित कर देता है।
मुझे ऐसा लग रहा था कि हमारे आने के बाद से उनके स्वास्थ्य में तेजी से सुधार हो रहा है। मैं नहीं समझ सकी थी कि यह बुझते हुए दीपक की बढ़ती हुई रोशनी थी।अभी चार दिन ही बीते थे। सुबह स्नेहांश अपने पापा के साथ बड़े दुलार से ज्यूस उनके मुंह में दे रहा था और एक हिचकी के साथ.....। बहुत कोशिश की,डाक्टर दौड़े पर हाथ कुछ न रहा।
पिताजी घर छोड़ कर हमारे साथ आ तो गए थे पर उनकी वह मुस्कान खो गई।ये आॅफिस की व्यस्तता के साथ भी बाबूजी को पूरा समय देते थे ।बाबूजी के साथ रोज सुबह घूमने जाना और साथ में नाश्ता करके ,जल्दी आने का कहकर ऑफिस जाना -यह इनका का रूटीन बन गया था। मैं और स्नेहांश भी पूरा ध्यान रखते थे ,बाबूजी को कभी अकेला नहीं छोड़ते थे पर उनके अंतस् में जो सूनापन आ गया था, वह हम नहीं भर सके और बाबूजी भी धीरे-धीरे कमजोर होते हुए 6 माह में हमें छोड़ गए।
मेरे मन में निरंतर एक अपराधबोध बना रहा,मुझे सालता रहा कि मैं भी यदि इनके साथ ही ,परीक्षा के पहले घर चली जाती तो शायद आज हम अकेले न होते।यह सोचते हुए मेरी आंखे भीग गई।
"तुम इतनी उदास क्यों हो? बच्चे और जीजाजी बाहर गए हैं क्या?" सुषमा के स्वर ने मेरी विचार- श्रृंखला को तोड़ दिया ।"हां स्नेहांश का प्रवेश आईआईटी खड़गपुर में हो गया है और ये ऑफिस के कार्य से भोपाल गए हैं।
"अरे वाह, ऐसी खुश खबर ऐसा मुंह बना कर सुना रही है,चल बहुत-बहुत बधाई।अच्छा ,तब तो तुम मेरे साथ बाजार चल सकती हो , मेरे पास समय बहुत कम है और बातें ढेर सारी करनी है,थोड़ी देर और साथ रहेंगे और खरीदी में भी आसानी होगी तुम तो जानती हो कि मैं तो कभी यहां बाजार गई नहीं ।"सुषमा ने स्नेह और आग्रहसे कहा।
"तुम्हारे शहर में सब कुछ तो मिलता है और यहां से सस्ता भी तो वहीं जाकर खरीदी करते रहना" मैंने तुरंत कहा।
"नहीं मुझे पापा जी के लिए धोती कुर्ता तो लेना ही है उन्हें बहुत अच्छा लगेगा यदि यहां से ले जाऊंगी भावनाओं की भी तो अपनी कीमत होती है ,प्लीज चल न। हम वही पुरानी चाट पकौड़ी भी खा लेंगे ।सच ,मुझे भूख भी लग रही है ;पर अब यह मत कहना कि घर पर खाते हैं ।मुझे उसी दुकान की चाट खाना है ।साथ रहेंगे तो मजा और भी दुगना हो जाएगा, प्लीज...।
सुषमा की बात ने मेरा मुंह बंद कर दिया ।सचमुच जिंदगी में स्नेह और पारस्परिकता होने पर जिंदगी के रंग कितने मधुर और मुखर होते हैं और इस का अभाव जिंदगी को बोझ बना देता है, यह सोचते हुए मैं चुपचाप तैयार होने लगी।
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