होटल ब्लू स्टार एक विशाल, आधुनिक, पांचमंजिला होटल था । कनाट रोड एक बिजी रोड थी जिस पर और भी कई होटल थे । होटल के दायें पहलू में एक छः: मंजिली और बायें पहलू में एक दोमंजिली इमारत थी । दोनों होटल जैसी ही विशाल थीं और दोनों में विभिन्न कम्पनियों के आफिस थे | बायीं ओर की दोमंजिला इमारत बिल्कुल नयी थी और उसकी तामीर बनते-बनते रुक गई मालूम होती थी और वो ही शायद उसके फिलहाल सिर्फ दो मंजिल तक उठ पाने की वजह थी |
जीतसिंह ने वहां पहुंचकर कमरे की मांग की तो उसे मालूम हुआ कि उसके लिए कमरा पहले से बुक था जो कि होटल की दुसरी मंजिल पर था |
बढ़िया - वो मन ही मन बोला |
कमरे में उसे दो घण्टे इन्तजार करना पड़ा जबकि दरवाजे पर दस्तक पड़ी । उसने उठकर दरवाजा खोला तो सामने एक सुन्दर युवती को खड़ा पाया । वो कटे बालों वाली, छरहरे बदन वाली, कम से कम साढ़े पांच फुट कद वाली संजीदासूरत युवती थी । उम्र में वो तीस के आसपास की मालूम होती थी |
“मिस्टर बद्रीनाथ ?” - वो जबरन मुस्कराती हुई बोली।
“आप गलती से मेरा दरवाजा खटखटा बैठी मालूम होती हैं ।” - जीतसिंह सहज भाव से बोला |
“अगर आप मिस्टर बद्रीनाथ हैं तो नहीं ।”
“बद्रीनाथ बड़ा आम नाम है । शायद आपको कोई और बद्रीनाथ,”
“आप वक्त जाया कर रहे हैं ।”
“क्या चाहती हो ?”
“यहां खड़े-खड़े नहीं बताया जा सकता | बरायमेहरबानी रास्ते से हटिए और मुझे कमरे में आने दीजिए| "
“पहले कोई नाम लो ।”
“नाम ! कैसा नाम ?”
“जो मुझे ये एतबार दिला सके कि मुझे तुम्हें भीतर बुलाना चाहिए ।”
“ओह ! मुझे दिलीप बिलथरे ने भेजा है ।”
“क्या कारोबार है दिलीप बिलथरे का ?”
"कायन डीलर है। "
"ओह "
“अब ठीक है ?”
“हां । अब ठीक है । आओ |”
जीतसिंह एक तरफ हटा तो वो भीतर दाखिल हुई । उसने उसके पीछे दरवाजा बन्द कर दिया |
“इतनी एहतियाती बातें करने की जरूरत थी ?”
“थी ।”- जीतसिंह सहज भाव से बोला |
“जबकि तुम्हें पता था कि कोई तुम्हारे पास पहुंचने वाला था । किसी ने तुम्हारे लिए यहां ये कमरा बुक कराया
था |”
"मैं किसी औरत की आमद की उम्मीद नहीं कर रहा था।”
" क्यों ?"
"क्यों क्या ? बस नहीं कर रहा था ।”
“औरतों से कुछ खुन्नस मालूम होती है तुम्हें ।”
“यही बात है ।”
वो हड़बड़ाई । साफ जाहिर हो रहा था कि उसे ऐसे किसी जवाब की उम्मीद नहीं थी |
“अजीब आदमी हो ।” - फिर वो बोली |
“तुम भीतर हो । दरवाजा बन्द है । अब जो कहना है कहो ।”
वो फिर हड़बड़ाई और फिर कठिन स्वर में बोली - “मैं
तुम्हें मीटिंग के लिए ले जाने आई हूं ।”
“कैसी मीटिंग ?”
"तुम्हें मालूम होना चाहिए कैसी मीटिंग ! वही मीटिंग जिसके लिए तुम यहां आए हो ।”
"हूँ। "
“ऐसे काम योजना से होते हैं और योजना के लिए मीटिंग होती है । अब समझे कुछ ?”
“कहां जाना होगा 7”
“पता चल जाएगा ।”
“कैसे जाएंगे ?”
“मैं गाड़ी लाई हूं ।”
“तुम्हारा काम इतना ही है ? मुझे यहां से मीटिंग वाली जगह पर ले जाना ?”
“फिलहाल ।”
“ठीक है । चलो ।”
जीतसिंह उसके साथ होटल से निकला । वो उसे होटल के कम्पाउन्ड से बाहर सड़क पर खड़ी एक काली एम्बैसेडर के करीब लेकर आई । उसने चाबी लगाकर कार का ड्राइविंग सीट की ओर का दरवाजा खोला और भीतर बैठ गई । फिर उसने हाथ बढ़ाकर परली तरफ का दरवाजा खोला और प्रतीक्षा करने लगी ।
जीतसिंह कार का सामने से घेरा काटकर परली तरफ पहुंचा और उसके पहलू में पैसेंजर सीट पर जा बैठा |
लड़की ने कार का इंजन स्टार्ट करने की कोशिश न की । वो अपलक जीतसिंह को देखने लगी |
जीतसिंह ने लापरवाही से कन्धे उचकाए, अपना सिगरेट का पैकेट निकाला और एक सिगरेट सुलगाने में मशगूल हो गया । इंजन तब भी स्टार्ट न हुआ |
"कोई आकर हरी झंडी दिखाएगा ?” - वो धीरे से बोला |
“बद्तमीज आदमी मालूम होते हो ।” - वो बोली |
जीतसिंह ने लापरवाही से सिगरेट का गहरा कश खींचा |
“या शायद मेरे साथ बदूतमीजी से पेश आ रहे हो ।”
“तुम्हारा काम क्या है ?”
“बता नहीं चुकी मैं ? मैंने तुम्हें मीटिंग वाली जगह पर ले जाना है । यही मेरा काम है ।”
“तो करती क्यों नहीं अपना काम ?"
उसके चेहरे ने रंग बदला, उसने कोई सख्त बात कहने के लिए मुंह खोला और फिर सख्ती से होंठ भींच लिए । फिर बड़े गुस्से के साथ उसने इग्रीशन ऑन किया और एक झटके से गाड़ी आगे दौड़ाई । जल्दी ही कार ने रफ्तार पकड़ ली |
जीतसिंह सीट पर पसरा पड़ा खामोशी से सिंगरेट के कश लगाता रहा |
कार बाम्बे पूना रोड पर हैरिस ब्रिज की ओर दौड़ने लगी |
पांच मिनट बाद एकाएक कार की रफ्तार कम हुई ।
ऊंघते-से जीतसिंह ने सिर उठाकर विण्ड स्क्रीन से पार सड़क पर झांका तो पाया कि आगे वाहनों और पैदल
चलने वालों की भीड़ थी |
"ये भीड़ कैसी है ?” - वो बोला |
“बाजू के मैदान में सर्कस का खेमा गड़ा है । सर्कस का शो खत्म हुआ मालूम होता है ।”
"ओह "
कार और धीमी हो गई |
जीतसिंह ने दायें निगाह दौड़ाई तो उसे एक जगमग तम्बू और उसके आगे वैसा ही जगमग अपोलो सर्कस का विशाल बोर्ड दिखाई दिया । बोर्ड के दायें कितने ही हाथी, शेर, भालुओं के और अपना फन दिखाते सर्कस कलाकारों के बोर्ड लगे हुए थे ।
एक बोर्ड पर अंकित एक दृश्य ने उसका ध्यान विशेष रूप से आकर्षित किया । उसमें लोहे के एक रिंग में से दो किशोर बालक गुजरते दिखाए गए थे । रिंग का व्यास इतना कम था कि उसमें से एक बालक का गुजरना भी करिश्मा था ।
“कमाल है !” - उसके मुंह से निकला |
सड़क पर से निगाह हटाकर लडकी ने प्रश्नसूचक निगाहों से जीतसिंह की तरफ देखा |
तब कार चींटी की चाल से सड़क पर रेंग रही थी | जीतसिंह ने उस बोर्ड की तरफ इशारा किया |
“कंटौर्शनिस्ट ।” - वो बोली - “कंटौर्शनिस्ट कहते हैं ऐसे कलाकारों को । अपने जिस्म को तोड़ने, मोड़ने, सिकोड़ने का बहुत अभ्यास होता है इन्हें । कमर तो यूं इकट्ठी कर लेते हैं कि मुट्ठी में आ जाए । कहीं सिर गुजारने की जगह हो जाए तो उस जगह में से बाकी जिस्म गुजार लेना इनके लिए मामूली बात होती है ।”
“सिर सिकुड़ नहीं सकता न !”
"तभी तो ?”
"सर्कस देखा मालूम होता है तुमने ?”
“हां । कल ही । वो दो छोकरे उस रिंग में घुसे थे । लगता था कि रिंग को काटकर ही उन्हें बाहर निकालना
पड़ेगा लेकिन पांच मिनट में दोनों पार निकल गए थे ।”
"ओह "
"अब बातें करना नहीं दुख रहा ! अब तो नहीं कहा कि मेरा काम कार चलाना है, शहर में तुम्हारी गाइड बनना
नहीं |"
जीतसिंह खामोश रहा |
कुछ क्षण बाद कार भीड़ से बाहर निकल आई और उसने फिर रफ्तार पकड़ ली |
और थोड़ी देर बाद कार हैरिस ब्रिज पार कर गई | फिर आगे बाम्बे पूना रोड पर ही बढ़ते रहने की जगह वो दायें नासिक को जाती उस सड़क पर घूमी जोकि नैशनल हाइवे नम्बर पचास कहलाती थी । कुछ अरसा उस पर दौड़ते रहने के बाद एकाएक उसकी रफ्तार कम हुई और फिर उसने बायें घूमकर एक कदरन तंग सडक पकड़ ली । उस सड़क के दोनों तरफ पेड़ उगे हुए थे और पेड़ों के बीच में बिजली के खम्बे थे जिनमें से किसी-किसी पर बल्ब जलता दिखाई दे रहा था । आखिरकार कार एक एकमंजिले मकान के सामने जाकर रुकी । मकान के सामने बहुत बड़ा कम्पाउण्ड था जिसके बीच में से एक राहदरी मकान तक जाती थी | राहदरी के दोनों तरफ अव्यवस्थित घास उगी दिखाई दे रही थी । मकान की खिड़कियां शीशे की थीं जिनसे भीतर रोशनी होने का आभास तो मिल रहा था, लेकिन भीतर झांकना सम्भव नहीं था, क्योंकि खिड़कियों पर पर्दे खिंचे हुए थे ।
लडकी ने इंजन बन्द किया और कार से बाहर निकली
जीतसिंह ने भी ऐसा ही किया |
लड़की बिना बोले आगे बढ़ी तो जीतसिंह उसके पीछे हो लिया |
उसका अन्दाजा था कि यूं उन्होंने कोई बीस-बाईस किलोमीटर का सफर तय किया था |
लड़की मकान के बरामदे में पहुंची, उसने दरवाजे पर दस्तक दी |
दरवाजा खुला |
चौखट पर एक गोल-मटोल आदमी प्रकट हुआ | उसका रंग अंग्रेजों जैसा गोरा था, चेहरा दाढ़ी-मूंछविहीन था, सिर पर बालों की कमी थी जो उसके गंजेपन की ओर अग्रसर होने का संकेत था । आंखों पर वो निगाह का चश्मा
चढ़ाए था । उसके हाथ गुलगुले थे और उंगलियां मोटी थीं |
न जाने क्यों जीतसिंह को उसे देखकर बेकरी का गुंथा हुआ मैदा याद आने लगा |
जीतसिंह को देखकर वो मुस्कराया और बोला - “हल्लो ! तो तुम बद्रीनाथ हो ?”
जीतसिंह ने सहमति में सिर हिलाया |
“मुझे दिलीप बिलथरे कहते हैं । सुकन्या ने बताया ही होगा ।”
“सुकन्या !” - जीतसिंह की भवें उठीं ।
"भई, जिसके साथ आए हो ।”
“मुझे इसने अपना नाम नहीं बताया था ।”
“बताया होगा, यार ! तुमने ध्यान नहीं दिया होगा | क्यों सुकन्या ?”
लड़की परे देखने लगी |
"बहरहाल ये सुकन्या मोहिले है । आओ |”
वो एक तरफ हटा तो जीतसिंह ने भीतर कदम रखा |
“हम तुम्हारा ही इन्तजार कर रहे थे ।” - बिलथरे पूर्ववत मुस्कराता हुआ बोला |
“हम” - जीतसिंह की भवें फिर उठीं ।
“सब लोग । जिनमें अब तुम भी शामिल हो । आओ, मिलवाता हूं ।”
एक ड्योढ़ी-सी को लांघकर वो जीतसिंह को एक बैठक में ले आया जहां उनके पीछे-पीछे सुकन्या ने भी कदम
रखा |
बैठक में जो पहली शक्ल उसे दिखाई दी, वो भागचन्द नवलानी की थी |
“तुम !” - जीतसिह हैरानी से बोला - “यहां !”
"हलल्लो, साई ।” - नवलानी चहका - “बड़ी जल्दी दोबारा मुलाकात हो गयी ।”
नवलानी एक लम्बा, पतला, अधगजा, अधेड़ सिन्धी था जो तब भी अपना वही अपने से दो साइज बड़ा सूट पहने था जिसमें उसने उसे बेलगाम में विष्णु आगाशे के घर में देखा था । कमीज भी पहले की तरह मुड़े-तुड़े कॉलर वाली थी लेकिन टाई कदरन नयी थी, यानी कि पहले की तरह इस बार उसके गले में टाई की जगह एक मुचड़ी हुई धज्जी नहीं लटक रही थी |
"मुझे उम्मीद नहीं थी” - जीतसिंह बोला - “जिन्दगी में कभी दोबारा तुम्हारे से मुलाकात होने की ।”
“मेरे को भी, साई । लेकिन देख ले दुनिया कितनी छोटी है ।”
जीतसिंह ने देखा, वहां एक आदमी और मौजूद था जोकि खामोशी से बैठा सिंगरेट के कश लगा रहा था । वो बड़े सलीके के कपड़े पहने था और उसकी सूरत संजीदा थी | उम्र में वो पैंतीसेक साल का था |
“किसके यार हो ?” - जीतसिंह नवलानी को घूरता हुआ गम्भीरता से बोला |
"ये क्या सवाल हुआ, साई ! अरे, हम सब एक-दूसरे के यार हैं ।”
“यहां किसकी वजह से हो ?”
“अच्छा, वो ! बिलथरे की वजह से हूं यहां ।”
“पुरानी यारी है ?”
"यही समझ लो ।”
"अपने पिछले, बेलगाम वाले, जोड़ीदार विष्णु आगाशे के अंजाम से वाकिफ हो ?"
"हां, साई ।” - नवलानी दबे स्वर में बोला - “उसके भी और काशीनाथ देवरे के भी, जिसे तू ढूढता था ।”
“भई” - बिलथरे बोला - “ये क्या खुसर- फुसर बातें हो रही हैं ?"
किसी ने जवाब न दिया |
“बहरहाल, मुझे खुशी है कि हमारा नया मेहमान हम में से कम से कम एक शख्स को पहले से जानता है ।”
"साई” - नवलानी बोला - “वाल्ट खोलने के लिए बहुत फिट आदमी ढंढा तूने । अब तो मैं दावे से कह सकता
हूं कि हम जरूर कामयाब होंगे |
"बद्री” - बिलथरे संजीदा सूरत शख्स की ओर इशारा करता हुआ बोला - “ये नयन बलसारा है ।”
जीतसिंह ने उसकी तरफ देखकर सहमति में सिर हिलाया ।
“बलसारा” - बिलथरे बोला - “ये बद्रीनाथ है । मास्टर वाल्ट बस्टर है । बड़ी हाई रिक्मैंडेशन के साथ यहां पहुंचा है| "
”हैल्लो ।” - बलसारा अपने निहायत खूबसूरत, सुडौल दांत चमकाता हुआ बोला |
“बैठो ।”
जीतसिंह उन दोनों से परे एक कुर्सी पर बैठ गया |
उसे भागचन्द नवलानी की वहां मौजूदगी पसन्द नहीं आई थी । पिछली बार आगाशे के साथ कोई बड़ा हाथ मारने की उसकी ख्वाहिश पूरी नहीं हुई थी, क्योंकि आगाशे दगाबाजी पर उतर आया था, उसने धोखाधड़ी का ऐसा जाल फैलाया था जिसमें फंसकर जीतसिंह का काशीनाथ देवरे के हाथों मारा जाना लाजमी था, लेकिन वक्त रहते वो षडयंत्र को भांप गया था और न सिर्फ अपनी जान बचाने में कामयाब रहा था, बल्कि उसने उन दोनों को मार डाला था । पता नहीं उस हकीकत से नवलानी वाकिफ था या नहीं, लेकिन क्योंकि पिछली बार आगाशे वाली स्कीम के किसी सिरे न चढ़ पाने की वजह से उसके हाथ कुछ नहीं लगा था, इसलिए खास इसी वजह से उस पर पहले से कहीं ज्यादा लालच सवार हो सकता था । और मुकम्मल तौर पर लालच के ही हवाले होकर किए गए काम में गलती की, बखेडे की हमेशा ही गुंजाइश होती थी |
मौजूदा टीम उसे कतई पसन्द नहीं आ रही थी । लड़की मीसनी और अहंकार की मारी थी जो पता नहीं
तसवीर में कहां फिट होती थी, मेजबान बिलथरे छक्का मालूम होता था और सूरत से ही अहमक और नादान लगता था । भागचन्द नवलानी झोलझाल और बेएतबारा आदमी था ही, बस इस नयन बलसारा नाम के आदमी की कोई खूबी या खामी सामने आनी बाकी थी |
देखा जायेगा - वो मन ही मन बोला - सुन लेने में क्या हर्ज था कि वो लोग किस फिराक में थे ! सुनकर वो नक्की बोलता तो क्या वो उसे रोक पाते !
"भई, तू क्यों खड़ी है ?” - बिलथरे सुकन्या से बोला- “तू भी तो बैठ ।”
सुकन्या उन सबसे परे टी. वी. के करीब पड़ी एक कुर्सी पर बैठ गई |
जीतसिंह कुछ क्षण खामोश रहा, फिर किसी को बोलता न पाकर बिलथरे से सम्बोधित हुआ - “क्या किस्सा है |"
“किस्सा सुकन्या और भागचन्द को मालूम है ।” - बिलथरे बड़े उत्साहित भाव से बोला - “बलसारा भी अभी
तुम्हारे आगे ही यहां पहुंचा है, इसलिए मैं तुम्हारे और इसके लिए शुरू से बयान करता हूं ।”
“गुड ।” - बलसारा बोला |
“अपना नाम मैंने बताया ही है जो कि दिलीप बिलथरे है । पेशे से मैं कायन डीलर हूं । ये वैसा ही धन्धा है जैसा कि पोस्टेज स्टैम्प्स का होता है । जैसे पुराने, दुर्लभ डाक टिकट, कौड़ियों की फेस वैल्यू वाले डाक टिकट हजारों लाखों की कीमत के होते हैं, वैसे ही पुराने सिक्के, कौड़ियों की फेस वैल्यू वाले पुराने दुर्लभ सिक्के हजारों लाखों की कीमत के होते हैं । जैसे स्टैम्प कलैक्टर को, डाक टिकट जमा करने वाले को फिलेटलिस्ट कहते हैं, वैसे ही कायन कलैक्टर को, पुराने सिक्के जमा करने वाले को न्यूमिसमैटिस्ट कहते हैं ।”
“लिहाजा तुम न्यूमिसगैटिस्ट हो !”
“हां । आसान जुबान में कायन कलैक्टर या कायन डीलर ।”
“हथियारबन्द क्यों हो ?”
बिलथरे चौंका, हकबकाया, उसका हाथ स्वयमेव ही अपने बायें कन्धे की ओर सरक गया, जहां कि कोट के नीचे
शोल्डर होलस्टर छुपा हुआ था |
"आदतन हूं ।” - वो जबरन हंसता हुआ बोला - “ख्याल ही नहीं आया था कि मैं शोल्डर होलस्टर पहने था |
आदत है न ?”
"आदत !''
“सावधानी बरतने की । सिक्के कीमती होते हैं, भाई| कई बार लाखों रुपये के सिक्के मुझे खुद अपनी एम्बैसेडर
कार पर स्टेशन ट॒ स्टेशन ढोने पड़ते हैं । एहतियातन हथियार रखना पड़ता है ।”
“यानी कि यहां एहतियात बरत रहे हो ?”
”अरे, नहीं । यहां रिवाल्वर की क्या जरूरत है ? तुम्हें
एतराज हो तो मैं अभी इसे भीतर रख आता हूं लेकिन...”
“क्या लेकिन...”
“हथियार यहां क्या मुझ अकेले के पास है ?”
"मेरे पास तो नहीं है । बाकियों की बाकी जानें ।”
“साई” - नवलानी बोला - “दोस्तों में कहीं हथियारबन्द हो के मिला जाता है !”
बलसारा ने जीतसिंह की ओर देखा |
जीतसिंह ने यूं दोनों हाथ कन्धों के ऊपर उठा दिए जैसे अपनी तलाशी की पेशकश कर रहा हो |
बलसारा ने इल्जाम लगाती निगाहों से बिलथरे की तरफ देखा |
"सॉरी !” - बिलथरे बोला - “मैं अभी इसे रख के आता हूं । वो तो आदतन... मैं अभी आया ।”
वो लम्बे डग भरता पिछवाड़े के एक बन्द दरवाजे की ओर बढ़ा और उसे खोलकर उसके पीछे गायब हो गया |
"पिस्तौल मालूम पड़ती थी” - पीछे बलसारा बोला |
“रिवाल्वर ।” - सुकन्या भावहीन स्वर में बोली - "बत्तीस कैलीबर की । छोटी नाल वाली ।”
"तुम्हारा क्या रोल है ?” - जीतसिंह बोला |
जवाब में सुकन्या ने एक उपेक्षापूर्ण निगाह जीतसिंह पर डाली और परे देखने लगी |
"मैंने तुमसे एक सवाल पूछा है ।”
"जो पूछना हो” - सुकन्या मुनमुनाई - “दिलीप से पूछना ।”
जीतसिंह खामोश हो गया ।
"इतना तो बोलो” - बलसारा बोला - “कि तुम स्कीम में शामिल हो या नहीं ?”
“मैं यहां बैठी हूं या नहीं ?”
“यानी कि शामिल हो !”
“दिलीप से पूछना । हलफिया बयान वो ही दे पाएगा। "
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