1. माटी की गंध

लंबे अंतराल के बाद एकाएक प्रमेश के आने का समाचार मेरे मन को आल्हादित कर देता है ,पर यह सुख अधिक देर नहीं रह पाता है ।कुछ क्षणों में आशंकाएं सिर उठाने लगती हैं। यही प्रश्न रह- रह कर उद्वेलित कर रहा है कि बिना किसी मकसद के मात्र मुझसे मिलने प्रमेश क्यों आ रहा है?

संशय और आशंकाओं से मुक्त होने के प्रयत्न में मैं छत पर पहुंच जाती हूं , शायद प्रकृति के साथ जुड़कर एकाकीपन और संकीर्णताओं से मुक्ति मिल सके। दूर तालाब में चारों ओर के प्रकाश की विभिन्न परछाइयां बहुत ही सुंदर दिखाई पड़ रही है ,पर मुझे  लगता है कि तालाब, नदी, झील, समुद्र, पर्वत, इन सबसे रमणीय स्थल है- मानव मन।प्रकृति से अधिक रहस्यमय भी। मैं लाख प्रयत्न करने पर भी अतीत की स्मृतियों के कपाट बंद नहीं कर पाती हूं । वे तो हठी बालकों की तरह सारे बंधनों को तोड़कर एक साथ विभिन्न दिशाओं में भागने लगते हैं-   ‌‌‍  

छोटा मध्यम वर्गीय परिवार -पिता नगरपालिका कार्यालय में और मां अध्यापिका। दो बच्चे- बड़ी मैं और छोटा प्रमेश। सामान्य रूप से बेटा बेटी में कोई अंतर नहीं किया जाता है, फिर भी मां के मन में प्रमेश के प्रति कुछ अतिरिक्त स्नेह था, जिसकी पूर्ति के लिए अनायास ही मेरी आकांक्षाओं की उपेक्षा हो जाती थी ।मैं बड़ी होने के कर्तव्य-बोध से चालित सदैव ही प्रमेश की हठ व फरमाइशों को पूरा करती रहती।

बचपन से आज तक की ऐसी कितनी ही यादें हैं, जिन पर समय की स्याह- काली परत जम गई है।

जन्मदिन और त्योहारों पर उपहार मेरे लिए भी आते ,पर उन पर अधिकार हो जाता था प्रमेश का। कक्षा में प्रथम आने पर मामाजी ने मुझे जो घड़ी दी थी ,वह भी प्रमेश ने हथियाली थी और उसे देखकर मुझे प्रसन्नता व बड़प्पन का ही एहसास हुआ था। मैं उदारता व सहज प्रेमवश ही यह सब करती रही ।इसमें मां पिताजी का किसी भी प्रकार का दबाव नहीं होता था ।यह हम भाई- बहनों के सहज प्रेम के एक तरफा रास्ते की कहानी है।

प्रमेश पढ़ाई में साधारण ही रहा।  मां ने प्रारंभ से ही यह निर्णय कर लिया था कि उसे डॉक्टर बनाना है। प्रमेश 11वीं में पहुंच गया और मैं बी.ए.प्रथम श्रेणी में करके शासकीय विद्यालय में अध्यापिका बन गई। पिता मेरे विवाह की चिंता में थे और मां प्रमेश के उज्ज्वल भविष्य के सपनों में खोई रहती। पिताजी जहां भी मेरा विवाह प्रस्ताव लेकर जाते अंत में बात लेनदेन पर अटक जाती। मां को प्रमेश की पढ़ाई व उसे क्लीनिक खुलवाने तक की चिंता बराबर बनी रहती थी। इसके लिए उनकी संचित राशि आरक्षित थी। पिताजी की परेशानी को देखकर मैंने स्पष्ट शब्दों में घोषणा कर दी कि मैं दहेज लेने वाले से विवाह नहीं करूंगी ।

प्रमेश को अनुदान देकर मेडिकल कॉलेज में प्रवेश मिल गया। उसकी प्रसन्नता व उत्साह देखते ही बनता था। पिताजी निराश और दुखी रहने लगे । समय तेजी से बीत रहा था।पिछले माह पिताजी सेवानिवृत्तएक दिन अनायास ही पिताजी के सहपाठी मित्र ओ.पी. सक्सेना मिलने आए। बातों ही बातों में उन्होंने कहा कि मेरा बेटा भी इसी शहर में बैंक अधिकारी है ,और मैं उर्मिल के साथ उसका विवाह प्रस्ताव लेकर आया हूं। मेरी बेटी सुजाता भी उर्मिल के स्कूल में ही टीचर है। वह उर्मिल की बड़ी प्रशंसा किया किया करती है।जब मुझे मालूम हुआ कि उर्मिल तुम्हारी बेटी है , तो मुझे यह प्रस्ताव लेकर आने में तनिक भी संकोच नहीं हुआ।

पिताजी इस प्रस्ताव से चकित थे और उनका पुरातन परंपरावादी मन इसे प्रथम दृष्टया तो स्वीकार नहीं कर सका, किंतु सक्सेना साहब के खुले हुए आधुनिक विचारों ने उन्हें प्रभावित अवश्य किया।बाद में संजय से मिलकर एवं मां और मेरी सहमति पाकर उन्होंने भी प्रसन्नचित विवाह की स्वीकृति दे दी ।

घर में हम तीनों ही बड़े उत्साह से विवाह की तैयारी में जुट गए ।प्रमेश को भी सूचना भेज दी गई। वह दिल्ली के चिकित्सा संस्थान में हाउस जॉब कर रहा था। वह तुरंत ही आ पहुंचा। मां पिताजी बड़े ही उत्साह से उसे बता रहे थे -  "संजय बड़े ही सुलझे हुए सुंदर विचारों वाला संस्कारवान लड़का है ।हमारी उर्मिल को भी बहुत पसंद है। तुम्हारी पढ़ाई भी पूरी हो गई है ।अब धूमधाम से विवाह करेंगे ।सारी व्यवस्था तुम्हें ही करना है बेटा" किंतु प्रमेश इन सब बातों से बेखबर अपनी ही दुनिया में खोया सा बैठा रहा ।मां के टोकने पर कि "क्या तुम इस विवाह से प्रसन्न नहीं हो? कुछ बोलते क्यों नहीं?"  प्रमेश हड़बड़ाकर बोला था-" नहीं नहीं ,ऐसी बात नहीं है  मैं तो आप लोगों को यह खुशखबरी देने आया हूं कि अगले माह ही मैं अमेरिका जा रहा हूं वहां मुझे नौकरी भी मिल गई है और आगे की पढ़ाई भी हो सकेगी । अभी मुझे आपसे कुछ रुपयों की आवश्यकता होगी एक वर्ष में मैं रुपए भेजने लगूंगा।"

प्रमेश की बातों से सभी स्तंभित व परेशान थे। मां पिता जी ने उसे अनेक प्रकार से समझाया- "अपने ही देश में अपने ही लोगों के बीच रहकर तुम अपना कार्य करो, इसी में सच्चा सुख है ।तुम्हें वहां पैसा तो खूब मिलेगा पर ऐसा सुख और शांति नहीं मिलेगी । बेटा ,अपनी जमीन से अपनी माटी से कटकर सुख खो जाता है"।

प्रमेश पर इन सब बातों का कोई प्रभाव नहीं था ।वह तो केवल अपने उज्ज्वल भविष्य और वहां मिलने वाले एश ओ आराम की दुहाई दिए जा रहा था।

मैं संज्ञाशून्य सी बैठी सब कुछ सुन रही थी ।प्रमेश याचक बना मेरे सामने खड़ा था-"दीदी कुछ दिनों की तो बात है , फिर तुम्हें कोई कमी नहीं होगी"। मैंने अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रख कर उससे पूछा -"कितने रुपयों की आवश्यकता होगी"? "70000 तो लग ही जाएंगे "  - उसने बड़ी ही सहजता से कहा था।

घर में सभी परेशान मैंने फोन करके संजय को बुलाया और सारी स्थिति उन्हें स्पष्ट बता दी। वे मुझे चिंता न करने को कहते हुए पिताजी के पास पहुंच गये, और अधिक उत्साह के साथ कहने लगे कि "मैंने और उर्मिल ने निश्चय किया है कि हम लोग मंदिर में अत्यन्त सादगी पूर्ण समारोह में विवाह करेंगे और विवाह में खर्च होने वाली राशि आप प्रमेश को दे दें"।

प्रमेश प्रतिवर्ष आने का आश्वासन देकर अमेरिका जा बसा । मां पिताजी बुरी तरह टूट गए थे । मां दुख और एकाकीपन को सहन नहीं कर सकी, और शीघ्र ही मुक्ति पा गई ‌। दो माह बाद पिताजी का भी प्राणांत हो गया। पर प्रमेश अपने घर न आ सका ।मोहित और दीक्षा के जन्म की सूचना भी संजय ने बड़े उत्साह से दी थी। पर हर बार वह  अपनी व्यस्तता लिख भेजता ।अभी आठ वर्ष पूर्व ही की तो बात है - एकाएक वज्रपात हुआ था ।मेरा सब कुछ बिखर गया था। मैं एकदम बेसहारा हो गई थी, पर उस समय भी प्रमेश नहीं आ सका था । फिर एकाएक अभी मिलने क्यों आ रहा है ? इसी सोच -विचार में डूबते-उतराते पिछले चार दिन बीत गए ।

आज प्रमेश आ रहा है ।उत्सुकता और सहज भ्रातृ -प्रेम के आवेग में मन की सारी संकीर्णताएं खो गई हैं , आशंकाएं स्वत: ही समाप्त हो गई हैं । मैं प्रमेश की पसंद का गाजर का हलवा और खीर तथा हरे चने की चटपटी कचोरी तैयार करने में व्यस्त हूं ।बच्चे बड़े उत्साह से अपने अनदेखे मामा जी के स्वागत हेतु तैयार हैं । सारे कार्यों से निवृत्त होकर हम तीनों आधा घंटा पूर्व ही हवाई अड्डा पहुंच जाते हैं ।

निर्धारित समय पर विमान आता है। यात्री सीढ़ियां उतरते हुए भीड़ में भी स्वजनों को पहचान लेने का एहसास दिलाते हुए बड़ी उमंग से हाथ हिला रहे हैं ।अब खिड़की के बाहर निकलने वाला चेहरा जाना पहचाना है । प्रमेश सीढ़ियां उतरते हुए नीला रुमाल हिला रहा है ।कैसा गोल मटोल हो गया है ।मैं बच्चों को बताती हूं -यही तुम्हारे मामा है।

एक घंटे में कस्टम आदि से निवृत होकर प्रमेश  हमारे पास आता

"हाय उर्मिल दी" कहता हुआ ,वह गले से लिपट जाता है, बिल्कुल पहले की ही तरह । बच्चे अपने मामा के चरण स्पर्श करते हैं। वह दोनों को बड़ी भावुकता से चूम लेता है - एक स्नेह का सागर हिलोरे लेने लगता है।

टेक्सी में बैठते ही प्रमेश बोला "दीदी तुम बहुत कमजोर दिखाई दे रही हो? क्या बात है?" उसका यह प्रश्न मेरी नसों को झनझना देता है -सब कुछ जानकर भी कैसा अनजान बन रहा है। जैसे यह जानता ही नहीं कि दीदी पर क्या गुजरी है - मन कसैला होने लगता है  , प्रत्यक्ष में इतना ही कह पाती हूं "बहू को नहीं लाए"?

"दीदी तुम तो जानती ही हो अमेरिका से आना आसान नहीं है और फिर इंडिया में रखा ही क्या है ? बच्चे आश्चर्य से ताके जा रहे थे।

घर पहुंच कर प्रमेश सोफे पर पसरते हुए बोला -"बच्चे तो बिल्कुल तुम पर गए हैं दीदी । दीक्षा तो तुमसे भी सुंदर है। कैसी भोली लगती है!"  मैं बच्चों को मामा जी से बात करने को कह कर ,कॅाफी बनाने चली आती हूं ।

लौट कर देखा तो प्रमेश अपनी दोनों अटैची फैलाकर बच्चों को खिलौने कपड़े क्रीम पाउडर घड़ी कैमरा आदि कई आकर्षक उपहार दे रहा था। बच्चे भी बड़े उत्साह से हर चीज की प्रशंसा करते , बड़े प्रसन्न दिखाई दे रहे थे।

प्रमेश ने मुझे भी साड़ी परफ्यूम और गृहस्थी की अनेक चीजें दी । ऐसा लगने लगा , मानो प्रमेश मेरे अभाव का एहसास कराना चाहता है । कॉफ़ी पीते हुए प्रमेश ने दुखद प्रसंग छेड़ दिया - "जीजाजी को आखिर हुआ क्या था"?

"दफ्तर से लौटते हुए स्कूटर एक्सीडेंट में ब्रेन हेमरेज। दस दिन तक हस्पताल में बेहोश रहे । डॉक्टर के सारे प्रयत्न बेकार हो गए"- कहते हुए मेरी आंखें छलछला आई।"।                          

प्रमेश सहानुभूति भरे स्वर में बोला- "तुम्हें तो बच्चों को अकेले पालने में बड़ी कठिनाई हुई होगी"?

" नहीं, ऐसी कोई परेशानी नहीं ।बच्चे तो मेरा सहारा है । दोनों ही बड़े समझदार हैं। इन्हें कभी कोई कमी महसूस नहीं हुई।"मैंने तुरंत ही कहा।

"फिर भी तुम्हें वेतन कितना मिलता होगा"? रमेश एक के बाद एक कई प्रश्नों की श्रृंखला बनाए जा रहा था।

"हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती है यही समझो"- मैंने सहज बने रहने का प्रयत्न करते हुए कहा। "हां ,वह तो मैं देख ही रहा हूं आराम की वस्तुएं कहां जुटा सकी हो तुम। न नौकर-चाकर, न ऐश- आराम की कोई चीज। बच्चों को भी पब्लिक स्कूल में भेजती होगी"?

"मामा जी आप के पास सब कुछ है क्या?"  दीक्षा की बाल-सुलभ जिज्ञासा जाग उठी।

"हां बेटे अमेरिका में मेरा अपना बहुत शानदार मकान है। एयर कंडीशनर है , कार है , घर में स्विमिंग पूल है , बार है, हर प्रकार का सुख है।"प्रमेश ने बच्चों को आकर्षित करते हुए कहा।

"मामाजी ! जब सब सुख ही सुख है , तो फिर  आप सिगरेट और शराब क्यों पीते हैं" - मोहित अनायास ही बोल पड़ा । प्रमेश और मैं अवाक् रह गए । मुझे भी पहली बार एहसास हुआ कि मोहित बड़ा हो गया है ।प्रमेश हंसते हुए बोला कि "दीदी तुम्हारे बच्चे बड़े ही होशियार हैं ।इन्हें खूब पढ़ाना , पर यहां तो ऊंची पढ़ाई के लिए डोनेशन भी बहुत देना होता है -तुम यह सब कर सकोगी ?ऐसे प्रतिभावान बच्चों को तो विदेश भेजना चाहिए।"

"नहीं ,नहीं प्रमेश मैं यह सब नहीं कर सकूंगी यह मेरे बस में नहीं है"

"पर मेरे बस में तो है " प्रमेश ने मेरी बात काटते हुए कहा।

"तुम्हारा मतलब क्या है"?मैंआशंकित हो उठी।

"मतलब साफ है दीदी मैं मोहित और दीक्षा को अपने साथ ले जाना ....."

एकाएक इस प्रस्ताव से मैं हिल गई । मेरी आशंका सही निकली । इसके पास सब कुछ है , पर संतान का सुख नहीं है । ढलती उम्र में यह कमी गहराई से अनुभव होने लगी होगी । उसकी पूर्ति के लिए अब मेरे बच्चे भी छीन लेना चाहता है  । प्रमेश फिर कहने लगा -  दीदी तुम क्या सोचने लगी हो ?क्या तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं रहा ?आज तक तो मैंने तुमसे कभी किसी चीज के लिए इंकार नहीं सुना।"

" मां, हां कह दो मां!"  मोहित बोला।

मेरा तो धैर्य और विश्वास ही टूटा जा रहा था ।सोलह वर्ष पूर्व प्रमेश को भी ऐसे ही विदेश के आकर्षण ने मां पिताजी और अपने देश की माटी से दूर जाने के लिए विवश बना दिया था और आज मोहित जाने के लिए तैयार है ? उस समय भी प्रमेश ने मुझे छला था।

"मां मामा जी तो हम दोनों को ही ले जाना चाहते हैं " दीक्षा चहक उठी ।मोहित कह रहा है- " मां यहां अकेली रह जाएगी ,इन्हें भी अपने साथ ले चलेंगे "।

"नहीं ,मैं कहीं नहीं जाऊंगी, अपना घर छोड़कर मैंने क्रोध और आवेश से कांपते हुए कहा।

" नहीं मां, तुम्हें चलना होगा मोहित की बात को काटते हुए प्रमेश ने कहा - "दीदी का चलना कठिन है ,वीजा का चक्कर पड़ेगा और फिर वहां इसे नौकरी भी नहीं मिल सकेगी ।"

"आपके जैसा भाई होते हुए मां नौकरी क्यों करेंगी?"

" बेटा तुम नहीं समझते वहां..."प्रमेश की बात को बीच में ही काटते हुए मैंने कहा-

"बस व्यर्थ विवाद न करो, मैं कहीं नहीं जाऊंगी । मोहित और दीक्षा चाहे तो जा सकते हैं ।"मोहित और दीक्षा कहने लगे -"मां ! तुमने कैसे समझ लिया कि हम जा रहे हैं ?हम तो हमारे विदेशी मामाजी को, उनकी उदारता और उनकी अमीरी को परख रहे थे।"

"मामाजी ! आपने भी कैसे समझ लिया कि हम हमारी मां को छोड़कर चले जाएंगे ? "               

"क्या हमें भी अपनी मां औरअपने देश की माटी की गंध से प्यार नहीं है? संसार में हमारे देश से प्यारा और सुंदर कोई देश नहीं है।" 

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