सोमवार : एक दिसम्बर
"मैं बहुत मुश्किल से तुझे तलाश कर पाया।”
जीतसिंह ने निर्विकार भाव से उस शख्स की ओर देखा जो कि उस घड़ी उससे मुखातिब था । उस शख्स का चेहरा लाल-भभूका था, बाल सफेद थे और उन्हीं जैसी फ्रेंचकट दाढ़ी वो रखे था जो उसे बहुत जंचती थी और जिसकी वजह से वो बहुत संभ्रांत और इज्जतदार आदमी लगता था । उम्र में वो जरूर साठ के पेटे में था लेकिन निहायत तन्दुरुस्त था । उसका नाम एडुआर्डो था और वो वो शख्स था, जिसकी योजना पर अमल करके उन लोगों ने गोवा के 'डबल बुल' कैसीनो का वाल्ट लूटा था और उसमें से किन्नरियों के नाम से जानी जाने वाली एक-एक किलो सोने की आठ मूर्तियां निकाली थीं । एड्आर्डों और जीतसिंह के अलावा उस अभियान में कौल, शालू, ऐंजो और धनेकर नामक चार लोग और भी शामिल थे । उनमें से धनेकर कैसीनों का गार्ड था जो कि उनका इनसाइड मैन था, शालू एडुआर्डो की गर्ल फ्रेंड थी, ऐँजो एक लोकल टैक्सी ड्राईवर गोवानी लड़का था जो कि जीतसिंह का दोस्त था और जो उसकी और एडुआर्डो की मुलाकात में निमित्त था, कौल एडुआर्डो का तलाश किया एक कश्मीरी ब्राह्मण था जो कि बदिकस्मती से कैसीनो में ही मर गया था । उन लोगों से जीतसिंह की आखिरी मुलाकात तब हुई थी जबकि वो तीन मूर्तियां उनके हिस्से के तौर पर उनके हवाले करके और पांच मूर्तियां साथ लेकर ऐंजो के साथ पणजी से मुम्बई रवाना हुआ था।
अब वही एडुआईडों, उनका पणजी वाला सरगना, मुम्बई में धारावी में ट्रांजिट कैंप के इलाके में स्थित अजमेर सिंह के ढाबे में उसके सामने बैठा था |
“कैसे तलाश कर पाए ?” - जीतसिंह बोला |
"पिछली बार जब हम जहांगीर ईरानी से मिलने प्रभादेवी गए थे तो पणजी लौटने से पहले तू यहां आया था, जबकि मैं और ऐंजो तेरे साथ थे । इसी बात से मैंने सोचा था कि तू शायद यहां इस ढाबे की जानी-पहचानी सूरत था, लेकिन बद्री” - एडुआर्डो ने तनिक ठिंठककर जीतसिंह को घूरा - “तेरे नाम से तो यहां तुझे कोई नहीं जानता ।”
"मेरा नाम ?”
"बद्रीनाथ । जिस नाम से कि मैं तुझे जानता हूं । लगता है तेरा नाम बद्रीनाथ नहीं ।”
जीतसिंह ने उत्तर न दिया ।
एडुआर्डो ने एक आह-सी भरी और बोला - “इत्तफाक से मुझे यहां परदेसी नाम का वो शख्स दिखाई दे गया था जिससे कि पिछले फेरे में तू यहां मिलने आया था और जो एक्रेजी के इलाके के पास्कल के बार तक टैक्सी पर हमारे साथ गया था | मैंने उसे पहचाना और उससे तेरी बाबत सवाल किया | बद्री, इस नाम से तो वो भी तुझे नहीं जानता था लेकिन वो समझ गया था कि मैं किसे पूछ रहा था । उसने मुझे सूरत से भी पहचान लिया था कि मैं तेरे साथ यहां आया था । बड़ी मुश्किल से मैं उसे यकीन दिला पाया था कि मैं अभी भी तेरा दोस्त था और तेरी ही तलाश में पणजी से यहां आया था ।”
"हूँ। "
“फिर वो मुझे यहां बिठा के गया, दो घंटे बाद जब वो लौटा तो तू उसके साथ था ।”
“वो मुझे चिंचपोकली से बुलाने गया था, जहां कि मेरा घर है ।”
"आई सी । अब कहां गया वो ?”
"यहीं कहीं होगा । हमारी बातचीत में विघ्न न पड़े इसलिए यहां न ठहरा ।”
“सयाना आदमी है । और क्या खबर है ?”
“खबर तो तुम बताओ ।”
"हमारी तरफ से तो ये ही खबर है कि मैं, शालू और धनेकर अपनी-अपनी मूर्तियां बेचकर रोकड़ा खड़ा करने में कामयाब हो गए थे ।”
“क्या मिला 7”
“ढाई लाख । हर किसी को ढठाई-ढाई लाख ।”
“कीमत से आधी रकम मिली 7”
“गनीमत है इतनी भी मिल गई । चोरी का माल जो ठहरा ।”
"हूं "
“वैसे तो दो-दो लाख ही मिले ।”
“क्यों भला ?”
“शालू के कजन कारलों की वजह से, जिसने कि तुम्हारा जोड़ीदार बनना था, लेकिन बाद में जिसका पत्ता कट कर दिया गया था । कैसीनो में जो कुछ हमने किया था, वो उसका गवाह था । खासतौर से मेरे डाक्टर एडुआर्डों एम डी वाले रोल का । उसका मुंह बन्द करने के लिए हम तीनों ने उसे पचास-पचास हजार रुपए दिए थे ।”
"अब कैसे आए ? बाकी हिस्सा वसूलने ?”
“उस वजह से तो नहीं आया । उस वजह से आया होता तो चार हिमायती लेकर आया होता । पहले आया होता| महीने बाद यहां न पहुंचा होता ।”
"वैसे समझा तो यही होगा कि मैं और ऐंजो दगाबाज निकले ! सारा पैसा ले के भाग गए ! पांच मूर्तियों की एवज में जहांगीर ईरानी से मिला साठ लाख रुपया खुद हज्म कर गए !”
"बद्री ! मेरी बात पर यकीन कर लेगा ?”
“हां । कर लूंगा । तुम्हें उस्ताद बोला है इसलिए कर लूंगा ।”
“तो यकीन कर, मैंने ऐसा नहीं सोचा था । शालू ने सोचा था, धनेकर ने सोचा था, मैंने ऐसा नहीं सोचा था ।”
"तुमने क्यों नहीं सोचा था ?”
“क्योंकि मुझे आदमी की उन लोगों से ज्यादा पहचान है | क्योंकि मैंने ये बाल धूप में सफेद नहीं किए । नौजवानी की नातजुर्बकारी और उतावलापन गलत फैसले कराता है | मैं न नौजवान हूं न नातजुर्बेकार ।”
"हूं। "
“बेटा” - एडुआर्डों भर्राए कण्ठ से बोला - “मैंने सेंट फ्रांसिस से दिल से दुआ की थी, बार-बार दुआ की थी कि तेरी हर ख्वाहिश पूरी हो, खासतौर से वो जिसके लिए तुझे दस लाख की जरूरत थी । तेरी सूरत से लगता है कि मेरी दुआ कबूल नहीं हुई ।”
जीतसिंह के चेहरे पर विषाद के बादल घने हो गए |
"क्या हुआ 7”
“क्या करोगे जानकर !” - जीतसिंह धीरे से बोला |
“नहीं बताना चाहता तो न सही, लेकिन ये तो बता कि मूर्तियों के बदले में रोकड़ा खड़ा करने का सीधा सीधा काम क्योंकर गड़बड़ा गया ? तूने और ऐंजो ने जहांगीर ईरानी को पांच मूर्तियां सौंपनी थी और साठ लाख रुपए हासिल कर लेने थे | इसमें भांजी कैसे मारी गई ?”
“धोखा ! धोखा हो गया ।”
“किसने किया ?”
“उस ईरानी के बच्चे ने ही किया । उसे फोन लगाया तो उसने जुहू का एक पता बता दिया जहां कि आधी रात को हमने माल पहुंचाना था और रोकड़ा हासिल करना था | मैं और एंँजो वहां पहुंचे तो घेर लिए गए । खूब गोलियां चलीं |ऐंजो ठौर मारा गया ।”
"अरे ! ऐंजो मारा गया ?”
“हां । अगले रोज माहिम क्रीक के पास उसकी लाश समुद्र में तैरती पाई गई।”
“पेपर में तो ऐसा कुछ नहीं छपा था ।”
“यहां के पेपर में छपा था लेकिन वो एक मामूली खबर थी, आम खबर थी, जिसमें दिलचस्पी लेने वाला कोई नहीं था। यहां समुद्र से किसी मवाली की, किसी गुण्डे-बदमाश की चाकुओं से गुदी या गोलियों से बिंधी लाश बरामद होना रोजमर्रा की घटना जो ठहरी । ऊपर से ऐंजो कोन यहां कौन जानता था ! एक नामालूम आदमी परदेस में मर गया था तो क्या फर्क पडता था !”
“सान्ता मारिया ! लेकिन तू... तू कैसे बच गया ?”
“बस, तकदीर से ही बच गया । लेकिन जान ही बची, माल छिन गया ।”
“माल दोबारा हासिल करने की कोशिश न की ?”
“माल कम्पनी के आदमियों ने छीना था । कम्पनी मालूम ?”
"ओह ! लेकिन उस जहांगीर ईरानी का कम्पनी से क्या लेना-देना था ?”
“जितना मैं समझ सका, वो ये है कि हमारे असली खरीददार गाडगिल ने जो रकम हमारे सामने हमारे लिये बैंक के लॉकर में रखी थी, वो उसने बतौर कर्जा कम्पनी से हासिल की थी । उसने कम्पनी से पचास लाख का कर्जा उठाया था जिसके लिए उसकी कम्पनी में सिफारिश जहांगीर ईरानी ने की थी । गाडगिल दिल का दौरा पड़ने से पणजी में मर गया तो उसकी मौत के साथ कम्पनी का रुपया डूब गया । कम्पनी ने इस नुकसान के लिए ईरानी को जिम्मेदार ठहराया । अपनी खाल बचाने के लिए ईरानी ने मुझे और ऐंजो को कम्पनी को परोस दिया । नतीजतन माल छिन गया, ऐंजो मारा गया और मैं पता नहीं कैसे बच गया ! मुझे तो अभी भी हैरानी होती है कि मैं जिन्दा हूं ।”
"हूँ। "
"मुझे तो बाद में पता चला था कि अनजाने में मैं कम्पनी के बहुत बड़े बॉस से पंगा ले बैठा था । मैं जिस शख्स पर रिवाल्वरतानकर जिन्दा निकलने में कामयाब हुआ था, वो भाई सावन्त था । असल में तो मुझे परदेसी ने ही बताया था कि वो क्या बला था और कम्पनी में उसकी क्या हैसियत थी | मेरे तो प्राण कांप गए थे । तभी से छुपता फिर रहा था | मुम्बई से बाहर कदम रखने की मजाल नहीं हो रही थी, वरना कहीं और, मुम्बई से दर, बहुत दर, भाग जाता । फिर पिछले हफ्ते अखबार में खबर पढ़ी कि भाई सावन्त मारा गया था | उसे सोहल नाम के किसी गैंगस्टर ने उसके मेरिन ड्राइव वाले फ्लेट में शूट कर दिया था । तब कहीं जाकर मेरी जान में जान आई थी और खुले में निकलने का, चिंचपोकली जाकर अपने घर में रहने का, हौसला हुआ था ।”
"बाद में जहांगीर ईरानी की खबर न ली ?”
“ली । मैंने परदेसी को दर्जनों बार ये देखने के लिए प्रभादेवी भेजा कि वो अपने फ्लैट पर था या नहीं । हमेशा वहां ताला लगा मिला । जब से वो वाकया हुआ है, तभी से उसका फ्लैट बन्द है । मुझे तो लगता है कि कम्पनी के हाथों उसका भी काम हो गया हुआ है ।”
"वापस पणजी क्यों न लौटा ?"”
“एक वजह तो बताई ही है । भाई सावन्त के कहर से बचने के लिए मैं तो चूहे की तरह बिल में छुपा बैठा था । मेरा वहीं से बाहर निकलने का हौसला नहीं हो रहा था, मुम्बई से बाहर निकलने का हौसला क्योंकर कर पाता ?”
"ठीक |"
"और फिर लौटता तो क्या करने लौटता ? ये बुरी खबर सुनाने कि ऐंजो मर गया था और मैं माल छिनवा बैठा था ? सुनाने आता भी तो क्या तुम लोगों को यकीन आ जाता?"
"मुझे आ जाता | मैंने अभी बोला ।”
“अकेले तुम्हें यकीन आ जाना काफी होता ? अभी तुमने खुद कहा कि शालू समझती है, धनेकर समझता है कि मैं माल खुद हज्म कर गया ।”
"वो तो है । बद्री, तू लौट आता तो शालू को तो मैं शायद समझा भी लेता, लेकिन धनेकर पर तो मेरा कोई जोर नहीं|"
"लौटना बेमानी था ।”
“हमारा सस्पेंस तो दुर होता कि आखिर तू क्यों नहीं लौटा था !”
जीतसिंह खामोश रहा |
“यानी कि उस ईरानी की धोखाधड़ी ने तेरा काम चौपट किया ?”
जीतसिंह इनकार में सिर हिलाने लगा |
"क्या मतलब ?” - एड्आर्डो बोला |
“दस लाख रुपये की मेरी जरूरत एक करिश्माई तरीके से फिर भी पूरी हुई थी, लेकिन मेरा काम फिर भी नहीं बना था ।”
"क्या?"
“फिर धोखा हो गया था ।”
“अरे |"
'लगता है, ताजिन्दगी धोखा खाना ही मेरी नियति है| हार ही मेरी जिन्दगी का हासिल है । कभी कुछ जीत पाना मेरी किस्मत में लिखा ही नहीं है । खामखाह मेरी मां ने मेरा नाम जीता रखा ।”
“तो तेरा असली नाम जीता है ?”
“हां । जीत सिंह ।”
"दस लाख का क्या किस्सा है ? मुझे बता । प्लीज !”
“चिचपोकली में मेरे घर के पास सुष्मिता नाम की एक लड़की रहती थी । उसकी उससे नौ साल बड़ी बालबच्चेदार, विधवा बहन को कैंसर था । ऐसा जानलेवा कैंसर था जिसका इलाज सिर्फ जर्मनी में मुमकिन था और इस काम के लिए उन्हें दस लाख रुपए की जरूरत थी जबकि दोनों बहनों के पल््ले दस हजार रुपए भी नहीं थे । मैं सुष्मिता को दिल से चाहता था लेकिन अपने आपको उसके काबिल नहीं मानता था । इसलिए कभी उस पर अपनी मुहब्बत का इजहार नहीं करता था । सुष्मिता ने अपनी बहन की दुश्वारी का मेरे से जिक्र किया तो मैं जोश में ये बड़ा बोल बोल बैठा कि मैं.. .मैं उसके लिए दस लाख का इन्तजाम करूंगा । वो बहुत जज्बाती हो गई । बोली, अगर मेरी कोशिशों से उसकी बहन की जिन्दगी बच गई तो वो मेरे पांव धो-धो के पिएगी | मेरे ! एक अनपढ़ टपोरी के । एक निम्न कोटि के व्यक्ति के । एक चोर, उचक्के तिजोरीतोड़ के । उसकी उस एक बात ने मुझे आसमान पर चढ़ा दिया । मेरे पर जैसे कोई जुनून सवार हो गया । मुझे अपनी मुहब्बत का हासिल दिखाई देने लगा | सुष्मिता ने मुझे तीन महीने का टाइम दिया जो कि तब मुझे बहुत काफी लगा । यहां मुम्बई में मैंने अपने देवरे, पपड़ी, ख्वाजा और चुनिया नाम के जोड़ीदारों के साथ एक जौहरी की तिजोरी खोली, लेकिन माल उम्मीद से कम निकला | माल सिर्फ बारह लाख रुपया निकला जो कि चुनिया के कब्जे में था, लेकिन दो रोज बाद वो यही ट्रांजिट कैम्प के इलाके में अपनी खोली में मरा पाया गया और माल गायब हो गया । मेरे साथियों को मेरी दस लाख की जरूरत वाली कहानी की खबर थी, इसलिए उन्होंने समझा कि चुनिया का कत्ल मैंने किया था और माल मैंने पार किया था...”
“लेकिन वो सब तो जाफर रंगीला नाम के उस आदमी ने किया था, जिसे कि तूने हमारे सामने पकड़ा था और उसे... उसकी करतूत की सजा दी थी ।”
“हां । तुम्हारे सामने उसने कहा था कि उसके हाथ सिर्फ दो लाख रुपए लगे थे । जिसमें से तीस हजार को छोड़कर बाकी सब वो उड़ा चुका था । उस्तादजी, तब मुझे उसकी बात पर यकीन नहीं आया था | मैं यही समझा था कि पूरा माल उसके हाथ लगा था, लेकिन वो सिर्फ दो लाख हाथ लगा होना इस उम्मीद में कबूल कर रहा था कि मैं उसकी बात पर विश्वास कर लूंगा और उसका पीछा छोड़ दूगा । मुझे बाद में मालूम हुआ कि वो सच बोल रहा था, तब मालूम हुआ जबकि चुनिया की खोली में से बाकी का दस लाख रुपया मैं टू निकालने में कामयाब हो गया । ऐसा सुष्मिता से मुझे मिली तीन महीने की मोहलत के आखिरी दिन हुआ | मैं बहुत खुश हुआ । वो दस लाख रुपया साथ लेकर बल्लियों उछलता मैं सुष्मिता की तलाश में निकला तो नई ही कहानी सुनने को मिली ।”
"क्या?"
"उसकी कैंसरग्रस्त बहन, डाक्टरों के मुताबिक छः: महीने तक जिसे कुछ नहीं होने वाला था, मर भी चुकी थी और जिस दिन बहन का चौथा हुआ था, उसके तीन दिन बाद खुद उसने पुरसूमल चंगुलानी नाम के एक रईस विधुर से शादी कर ली थी, जिसके उससे ज्यादा उम्र के बच्चे इंग्लैंड में रहते थे ।”
"अरे ! ऐसा उस लड़की ने तुझे दी तीन महीने की मोहलत खत्म होने से पहले ही कर दिया ”
“इसी बात का तो अफसोस है ।”
“तू उससे मिला होता । उससे सवाल किया होता कि उसने ऐसा क्यों किया?”
“किया था । सवाल किया था । जवाब भी मिला था। "
"क्या?"
“बहन के बच्चों की खातिर किया ।”
“तुझे यकीन आ गया ?"
“नहीं । कहती थी उसने कुर्बानी की थी, लेकिन कुर्बानी तो तीन महीने की मियाद खत्म होने के बाद भी हो सकती थी, जिसमें कि तब सिर्फ दस दिन बाकी थे ।”
“यानी कि उसने धोखा दिया ! गरीबमार की !”
“हां । उसने अपनी मर्जी से एक दौलतमन्द, रसूखमन्द सेठ की सेठानी बनना कबूल किया था । किसी के दिल को ठोकर मारना उसके लिए कोई बड़ी बात न निकली। किसी वादे की बन्दिंश उसे अपनी मंजिल पाने से नहीं रोक सकती थी ।”
“मंजिल ! यानी कि दौलत ?”
"हाँ |"
“ये तो अपने आपको बेचना हुआ दौलत की खातिर !"
“दुनिया की निगाह में हुआ, उसकी निगाह में ये कुर्बानी थी, जो उसने अपनी मरहूम बहन के बच्चों के लिये
की थी ।”
“झूठ ! फरेब ! अरे, ठौर मार गिराना चाहिए था ऐसी धोखेबाज और नाशुक्री औरत को ।”
"उस्तादजी, जिससे मुहब्बत हो, उसका बुरा नहीं चाहा जाता ।”
“यानी कि” - एड्आर्डो हैरानी से बोला - “तू अभी भी उससे मुहब्बत करता है?”
"हाँ। "
“किस हासिल की खातिर ?"
“किसी हासिल की खातिर नहीं । मेरी मुहब्बत पहले भी एकतरफा थी, आज भी एकतरफा है ।”
“बद्री...आई मीन जीते...तू मूर्ख है । तू नाहक अपने आपको टार्चर कर रहा है। जो औरत अपनी करतूत से शर्मिन्दा तक नहीं...”
“शर्मिन्दा ही तो देखना चाहता हूं मैं उसे । शर्मिन्दा ही तो करना चाहता हूं मैं उसे ।”
“कैसे ? कैसे करेगा ये काम ?"
"उसके सामने पुरसूमल चंगुलानी की दौलत से ज्यादा बड़ा दौलत का ठेर लगाकर ।”
"तू.. .तू पागल है ।”
"मैं पहला कदम उठा भी चुका हूं ।”
“ओह माई गॉड ! कहीं तू फिर भी तो वो दस लाख रुपया उसे ही नहीं दे आया ?”
“यही किया मैंने ।”
“तू दीवाना है । तेरा अक्ल से, विवेक से कोई रिश्ता नहीं ।"
"मुझे अपने किए का कोई अफसोस नहीं ।”
"अरे, ईडियट, एक औरत की मुहब्बत...”
“ठीक कहा । एक औरत की मुहब्बत । उस एक औरत के अलावा अब मुझे दुनिया जहान की औरतों से नफरत है । मेरा बस चले तो मैं दुनिया के तख्ते से औरत जात का नामोनिशान मिटा दूं ।”
“सिवाय उस एक औरत के ?”
“हां । वो सलामत रहेगी तो देखेगी कि मैंने क्या किया? वो भी मर गई तो फिर क्या फायदा?”
“बेटा, तू किसी जुनून के हवाले है । तू नहीं जानता तू क्या कह रहा है ।"
जीतसिंह हसा । एक खोखली हंसी हंसा |
"तू... तू..."
“छोड़ो वो बदमजा किस्सा । तुमने सुनना चाहा, मैंने सुना दिया । अब बोलो, क्यों थी तुम्हें मेरी तलाश ?”
"अब क्या बोलूं ? तेरे खयालात ने तो बात की बानगी ही बिगाड़ दी ।”
"फिर भी बोलो । आखिर खास मेरी तलाश में गोवा से चलकर आए हो । नहीं बोलोगे तो मैं यही समझूंगा कि असल में तुम यही पता लगाने आए थे कि साठ लाख रुपया कहीं मैं और एऐंजो ही तो नहीं खा गए !”
"अरे, तौबा कर बेटा उस बात से । और नहीं तो मरहूम ऐंजो का ख्याल करके ही तौबा कर । और मेरा यकीन कर, मैंने सपने में भी कभी ये ख्याल नहीं किया था कि तू दगाबाज निकल सकता था ।”
“तो फिर बोली, कैसे आना हुआ ?”
“किसी को एक एक्सपर्ट वाल्ट बस्टर की जरूरत है। "
“कहां ? गोवा में ?”
"नहीं । पूना में । जिक्र मेरे साथ हुआ तो मुझे तेरा ख्याल आया । सोचा, तलाश करके देखूं शायद तू मिल जाये| "
"जो भी वो काम है जिसमें कि कोई वाल्ट खोले जाने की जरूरत है, उसके कर्ता धर्ता तुम नहीं हो ?”
“अरे नहीं, भई । मैं तो शामिल भी नहीं हूं उसमें ।”
“शामिल भी नहीं हो ?”
“मैं सतोषी जीव हूं । ऊपर से अभी मेरे पास ताजे-ताजे कमाए दो लाख रुपए हैं ।”
“तो शालू ? धनेकर ?”
“वो भी नहीं ।”
"क्यों ? क्योंकि वो भी संतोषी जीव हैं ?”
“नहीं, भई । दरअसल ऐसे काम उन दोनों का ही कारोबार नहीं हैं । कैसीनो वाले केस में शालू ने जो कुछ किया था, मेरे कहने पर किया था और धनेकर ने जो कुछ किया था, मूर्तियों के हमारे खरीदार गाडगिल के कहने पर किया था।”
“यानी कि शालू अभी भी मिरामर क्लब में कैब्ने डांसर है और धनेकर अभी भी कैसीनो का सिक्योरिटी गार्ड है ?”
"हाँ |"
“और कार्लों ?”
“उसके मुंह को तो समझ कि हराम का डेढ़ लाख रुपया पाकर लहू लग गया है । रोज मेरे से पूछता है कि आगे मैं कोई चक्कर कब चलाऊंगा ? बहुत उतावला है वो किसी चक्कर में शामिल होने को ।”
“कोई खूबी भी है उसमें ?”
"हां, है । ड्राईवर बड़ा कांटे का है ।”
“फिर क्या बात है ! फिर तो जैसे किसी को मेरे जैसे तिजोरीतोड़ की जरूरत हो सकती है, वैसे ही उस जैसे ड्राईवर की भी जरूरत हो सकती है ।”
"राइट |"
“अब बोलो किसे जरूरत है एक्सपर्ट वाल्ट बस्टर की? क्या किस्सा है ?"”
“तुझे कबूल है काम करना ?”
“माल चोखा हो तो क्यों नहीं कबूल होगा ?”
“माल तो चोखा ही होगा । जब सिलसिला वाल्ट खोलने का है तो भीतर से कोई मूंगफली तो नहीं निकलेगी ।”
“लेकिन सिलसिला है क्या ?”
“वो सब तुझे पूना से मालूम होगा ।”
“मुझे पूना जाना होगा ?”
“हां । और जाकर होटल ब्लू स्टार में ठहरना होगा ।”
“वहां कहां है वो ?”
"कनाट रोड पर । मशहूर जगह है । किसी से भी पूछोगे तो..."
“मुझे मालूम है पूना में कनाट रोड कहां है ।”
"गुड |"
“वहां पहुंचकर मुझे क्या करना होगा ?”
“कुछ नहीं । सिर्फ इन्तजार करना होगा । फिर जो होगा, अपने आप होगा ।”
“कब तक इन्तजार करना होगा ?”
“जाओगे कब ?"”
“आज ही चला जाऊंगा । बल्कि अभी चला जाऊंगा| यहां क्या रखा है ?”
“कल शाम तक वहां मौजूद रहना । कोई सम्पर्क न बने तो वालपोई में मेरे घर पर मुझे ट्रंककाल लगाना ।”
“इतना तो बता दो कि सम्पर्क बनेगा तो किससे बनेगा?"
“नाम दिलीप बिलथरे है । कायन डीलर है ।”
“क्या डीलर है ?”
“कायन डीलर ! पुराने सिक्कों का व्यापारी । जैसे लोग पोस्टेज स्टैम्प के व्यापारी होते हैं या एंटीक के व्यापारी होते हैं ।”
“पुराने सिक्के भी कीमती आइटम होते हैं ?”
“बहुत ! पुराने होने की वजह से कायन कलैक्टर्स के लिए तो कीमती होते ही हैं, ऊपर से सोने-चांदी के होते हैं ।”
"ओह !"
“कोई मालपानी पतले है या नहीं ?”
“है | तीस हजार रुपये जाफर रंगीले से तो तुम्हारे सामने ही झटके थे, दस हजार कैसीनो के मालिक मार्सेलो ने इनाम में दिए थे और बारह हजार पोंडा में कहीं से हाथ लगे थे । इनमें से कोई पचपन हजार रुपये अभी भी मेरे पास हैं| "
“जो कि दस लाख पचपन हजार हो सकते थे ?”
“उस्तादजी, वो किस्सा फिर न छेड़ो ।”
"ठीक है फिर ।” - एडुआर्डो उठता हुआ बोला - “मैं चलता हूं ।”
“आमद का शुक्रिया ।” - जीतसिंह भी उठता हुआ बोला - “जहमत का शुक्रिया । सबसे ज्यादा मेरे बारे में अच्छा-अच्छा सोचने का शुक्रिया ।”
जवाब में एडुआर्डो ने बड़े स्नेहसिक्त भाव से उसकी पीठ थपथपाई |
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