लिफ्ट का दरवाजा खुला तो दोनों ने बाहर कदम रखा


बाहर सिक्योरिटी गार्ड मौजूद थे। सबकी रिवॉल्वरें लिफ्ट की दिशा में तनी हुई थी ।


“खबरदार !" - जीतसिंह चिल्लाया- "किसी ने मुझे रोकने की कोशिश की तो मैं इसे गोली मार दूंगा ।"


गार्ड सकपकाए ।


जीतसिंह आगे बढ़ा । उसने अपनी आंखों की कोरों से देखा कि ऊपर नेपोलियन हाल के सामने रेलिंग पर भी सशस्त्र गार्ड मौजूद थे जिन्होंने कि अपनी रिवॉल्वरें नीचे जीतसिंह की तरफ तानी हुई थीं ।


“खबरदार ! खबरदार !"


रिसैप्शनिस्ट ने, डोरमैन ने, कई गार्डों ने बन्धक युवती को पहचाना । वो बेचारी वही थी जो आधी रात के बाद तक परेशानहाल लॉबी में एक सोफे पर बैठी रही थी ।


जीतसिंह आतंक की प्रतिमूर्ति बना कदम कदम आगे बढाता रहा ।


काम गोलियों की आवाज ने उतना नहीं बिगाड़ा था, जितना कि सुकन्या के चीखने ने बिगाड़ा था। गोलियों की आवाज की गम्भीरता को सुनने वाले समझते-समझते समझते, लेकिन सुकन्या की चीखों ने तो सबके कान खड़े कर दिये थे ।


गार्डों को खबरदार करता वो सुकन्या के कान में फुफकारता उसे भी सावधान करता जा रहा था ।


सुकन्या जैसे मदहोशी की हालत में उसके साथ घिसटती चली जा रही थी ।


दोनों लॉबी के प्रवेशद्वार पर पहुंचे ।


“खबरदार !" - जीतसिंह चिल्लाया- "किसी ने पीछे आने की कोशिश की तो मैं इसका भेजा उड़ा दूंगा।"


जवाब में कोई कुछ न बोला ।


खड़े रहे । लॉबी में मौजूद गार्ड अपनी अपनी जगहों पर थमके


किसी की मंशा उसके पीछे आने की नहीं मालूम हो रही थी, फिर भी उन्हें चेताने के लिए जीतसिंह ने हवा में एक फायर किया ।


प्रत्याशित प्रभाव प्रकट हुआ ।


जीतसिंह सुकन्या को दबोचे यूं उलटे पांव चलता हुआ वहां से बाहर निकलने लगा कि सुकन्या का रुख हमेशा हथियारबंद गार्डों की तरफ रहता और वो उसके पीछे रहता ।


सड़क पर पहुंचकर जीतसिंह बगल की इमारत की तरफ लपका।


एम्बुलैंस के करीब पहुंचकर उसने पाया कि उसका पिछला दरवाजा मजबूती से बंद था और आगे ड्राइविंग सीट पर बलसारा मौजूद था जो कि इंजन को स्टार्ट करने की कोशिश कर रहा था ।


जीतसिंह लपककर एम्बुलेंस के करीब पहुंचा ।


इंजन को गियर लगने की आवाज हुई ।


जीतसिंह ने पैसेंजर साइड का दरवाजा खोला, सुकन्या को अपने आगे भीतर धकेला और फिर खुद भी उसमें सवार हो गया ।


बलसारा ने वो नजारा देखा तो अपने कोट की जेब की तरफ हाथ बढाया ।


जीतसिंह ने अपनी रिवॉल्वर की नाल से उसका कान ठकठकाया ।


बलसारा ठण्डा पड़ गया। उसने अपना हाथ वापस खींच लिया ।


"अक्ल कर ।" - जीतसिंह बोला- "निकल चल ।"


“कहां चलूं ?" - वो फंसे स्वर में बोला ।


"कहीं भी चल । यहां से हिल । "


एम्बुलैंस सड़क पर सरकी ।


"तेज ।”


एम्बुलैंस तेज हुई ।


“अभी किसी को एम्बुलैंस का ख्याल नहीं आया है, लेकिन आ सकता है। पुलिस आ गई, इलाके की नाकाबन्दी हो गई तो फिर एम्बुलैंस भी नहीं निकल पाएगी समझा ?"


बलसारा का सिर सहमति में हिला ।


एम्बुलेंस की रफ्तार और तेज हुई ।


सब गुड़गोबर हो गया था । जो काम इत्मीनान से स्वाभाविक ढंग से होना था, वो अब पता नहीं कैसे होने वाला था ? होने वाला था भी या नहीं। कहां उन्होंने आराम से बिलथरे के घर पहुंचना था, आराम से माल को एम्बुलेंस से उतारना था और एम्बुलेंस को किसी दूर दराज जगह लावारिस छोड़ आना था । अब भगदड़ तो मची ही हुई थी, जान के लाले पड़े हुए थे। किसी को एम्बुलेंस का ख्याल अभी भी आ सकता था, नतीजतन उनको किसी भी क्षण रोड ब्लाक का सामना करना पड़ सकता था ।


जीता ! - वो मन ही मन खुद को कोसता हुआ बोला जीता ! लानत ! -


अब उसका दिल यही गवाही दे रहा था कि ज्यादा देर तक सड़क पर बने रहना खतरनाक था ।


तभी उसे आगे बाएं सड़क पर एक चमकता हुआ नियोन लाइन दिखाई दिया जिस पर लिखा था: पार्किंग ट्वेंटी कोर आवर्स ।


"पार्किंग में चल ।" - वो बोला ।


बलसारा ने सहमति में सिर हिलाया और फिर जैसे सफाई देता हुआ बोला- "बिलथरे रिवॉल्वर निकालने लगा था । बचाव के लिए गोली चलाई । "


"नवलानी क्या निकालने लगा था ?" - जीतसिंह व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला ।


"पता नहीं । लेकिन जब एक जना हथियारबन्द हो सकता था तो दूसरा भी हो सकता था । तुम भी तो हो । सावधान तो रहना पड़ता है न ?”


"कार्लो और मिर्ची का क्या किया ?"


"वो कौन हैं ?"


"कार्लो इस गाड़ी का ड्राइवर था। दूसरा माल ढो रहा था।" 


"गाड़ी को काबू में करने के लिए ड्राइवर को काबू करना जरूरी था । दूसरा आदमी ऊपर से आ गया था ।”


"चार आदमी मार गिराए ।"


"मर्जी नहीं थी । हालात ऐसे बन गए ।"


"दो बच गए। अफसोस हो रहा होगा।"


"सब कुछ खामोशी से होना था । ये चीखने लगी थी । मैं क्या करता ? मारता या मरता । "


"हां । तू क्या करता ?"


"तुमने मेरे साथ क्विट किया था । मुझे नहीं पता था तुम फिर शामिल हो गए थे । आज ही पता लगा । बल्कि अभी पता लगा । तब जबकि पीछे हटना मुमकिन नहीं रहा था।"


"लौट कैसे आया ? या गया ही नहीं था ?”


तभी एम्बुलैंस पार्किंग के दहाने पर पहुंच गई। वो तीन मंजिलों में बनी बड़ी आधुनिक पार्किंग थी ।


बलसारा ने एम्बुलैंस पार्किंग की राहदारी पर डाली और आगे ले जाकर रोकी ।


“एम्बुलैंस को ऊपर की मंजिल पर ले जाकर खड़ा कर" - जीतसिंह बोला - " और खाली हाथ वापस लौट ।"


"ये ?" - उसने सुकन्या की तरफ इशारा किया ।


" इसी में रहेगी ।"


“ओह !”


"यहां से निकासी का ये एक ही रास्ता है। अकेले के भाग निकलने के लिए शायद कोई दूसरा रास्ता हो, एम्बुलैंस भगाएगा तो इधर से ही गुजरेगा । तब क्या होगा ? समझता है या समझाऊं ? "


“समझता दूं बाप, समझता हूं। और हौसला रख, सब ठीक हो जाएगा ।”


"देखेंगे ।"


जीतसिंह एम्बुलैंस से बाहर निकला और उसके पिछवाड़े में पहुंचा । उसने देखा राहदारी के दहाने पर बने अपने केबिन से निकलकर पार्किंग अटेंडेंट उधर ही बढ़ा चला आ रहा था ।


जीतसिंह उसे रास्ते में मिला ।


"केबिन पर गाड़ी को रोकना था ।" - अटेंडेंट भुनभुनाया - "टोकन लेना था ।"


जीतसिंह ने उसे रिवॉल्वर दिखाई ।


वो तत्काल ठण्डा पड़ गया ।


"मुलाजिम है, बाप ।" - वो दबे स्वर में बोला - “अपना क्या है ? बस, पेट पालता है।"


तब तक बलसारा एम्बुलैंस आगे बढ़ा ले गया था।


"केबिन में चल ।" - जीतसिंह बोला ।


"बाप, पीठ में गोली..."


“हौसला रख । कुछ नहीं होता । चल ।”


दोनों आगे पीछे चलते हुए केबिन में पहुंचे । केबिन जीतसिंह की अपेक्षा से काफी बड़ा निकला ।


"हमने थोड़ी देर यहां ठहरना है ।" - जीतसिंह बोला ।


"क्या वान्दा है ?"


"पुलिस वान्दा है ।"


"पुलिस ?"


“इधर आ सकती है। हमारी बाबत पूछताछ करने । इधर कोई नहीं आया | क्या ?"


"इधर कोई नहीं आया।"


"पुलिस आने पर तू शेर हो सकता है। उलटा सीधा बोल सकता है । तब पहली गोली तेरे भेजे में | क्या ?"


"मैं कुछ नहीं बोलूंगा। मैं खामोश रहूंगा ।"


"तू डरा हुआ है । यूं तेरी खामोशी भी बहुत कुछ बोल सकती है । " 


"डरा तो मैं हुआ ही हूं बाप | "


"बढिया है । कोई वान्दा नहीं है। मैं तेरे को डरा ही मांगता है । पण मालूम नहीं होने देना नहीं मांगता कि तू डरा हुआ है । क्या ?"


" मैं... मैं ठीक हो जाएगा।"


"बढिया । नाम बोल | "


"र... राजे ।"


“राजे, तू कुछ बताए या न बताए, पुलिस को अगर हमारी यहां मौजूदगी की खबर लग गई तो तू नहीं बचने का । तू पक्का इधरीच खलास । क्या ?"


"मेरे किए कुछ नहीं होगा, बाप ।”


"बढिया । अब जा के अपनी जगह पर बैठ | "


राजे केबिन की विंडो पर जा बैठा ।


जीतसिंह पार्किंग की पहली मंजिल पर पहुंचा।


उसे ढलुवां रास्ते के करीब बलसारा दिखाई दिया।


खाली हाथ ।


जीतसिंह ने उसे आवाज लगाई ।


उसने अपने दोनों हाथ हवा में उठाकर उसे आश्वासन दिया कि वो खाली हाथ था । फिर वैसे ही चलता हुआ वो उसके करीब पहुंचा।


"कमाल है!" - जीतसिंह बोला "कोशिश भी न की -


"मैं अकेला खेल खेलने वाला खिलाड़ी नहीं ।"


"क्या मतलब हुआ इसका ?"


"फर्ज करो माल सिर्फ तुम्हारे काबू में है। क्या करोगे इसका ?" 


"क्या करूंगा ?"


"कुछ नहीं कर पाओगे । जो करना था बिलथरे ने करना था जोकि मर गया । माल की कीमत ग्राहक से होती है । तुम ग्राहक नहीं तलाश कर सकते ।"


"तुम कर सकते हो ?"


"बराबर कर सकता हूं । तभी तो बोला ।”


“जब चले गए थे तो गए ही रहते। सांड जैसा काम क्यों किया ? सींग मारते क्यों घुस आए ?"


“बाप, तुमने मेरे सामने, मेरे साथ क्विट किया था । कसम गणपति की, मुझे नहीं मालूम था कि तुम अभी भी शामिल थे। पीछे सब अनाड़ी थे । बिलथरे कोई नवें आदमी पकड़ता तो वो भी उन जैसे अनाड़ी ही होते । वो कामयाब तो नहीं हो सकते थे, लेकिन हो जाते तो उन पर हाथ डालना आसान होता ।"


"अकेले ?"


"अकेले नहीं । बोला न मैं अकेला खेल खेलने वाला खिलाड़ी नहीं ।”


"तो ?"


“नवलानी कदरन काम का आदमी था, वो मेरा साथ दे सकता था । वक्त आने पर वो मेरी तरफ हो सकता था।"


"कामयाबी की तो तुम्हें कोई उम्मीद ही नहीं थी । तभी तो शुरू से पल्ला झाड़ के खिसके थे।"


"उम्मीद तो सच में नहीं थी वरना क्या क्विट किया होता ? फिर भी सोचा वाच करके रखने में क्या हर्ज था ?"


"हूं।"


"बाप, दरअसल मैं तुम्हें नहीं जानता था । मैंने तुम्हें बहुत कम करके आंका था । तुम्हारी बाबत बेहतर जानता होता तो पहले ही क्विट न करता ।"


"अफसोस करके दिखा रहा है ?"


"अब काहे का अफसोस ? अब तो सब कुछ अच्छा अच्छा हो गया । ऊपर वाले ने चाहा तो आगे भी जो होगा, अच्छा ही होगा।"


"हूं।" 


"अब ?"


"नीचे जा । अटेंडेंट पर निगाह रख । उसका नाम राजे है । मैंने उसे फिट कर दिया है लेकिन फिर भी निगाह रख । "


"और तू ?"


"मैं इधर एम्बुलैंस पर निगाह रखता हूं।"


"लड़की अभी भी हवाओं के हिंडोले पर सवार है । "


"उसकी तू फिक्र न कर ।"


"सौदा पक्का है न ?"


"सौदा ?"


"समझ ले कि माल अभी भी तेरा और उसको ठिकाने लगा कर रोकड़ा खड़ा करने का इन्तजाम मेरा । समझ ले कि तू मेरी पीठ खुजाये और मैं तेरी पीठ खुजाऊंगा ।”


"समझ लिया।"


" यानी कि सौदा पक्का ! मुंह से बोल । साफ बोल ।”


"हां । बोला । सौदा पक्का ।"


"बढिया ।" - वो संतोषपूर्ण स्वर में बोला - "बढिया"


फिर वो नीचे को बढ चला ।


जीतसिंह एम्बुलैंस के करीब पहुंचा ।


सुकन्या उसे एम्बुलेंस से बाहर उसके पहलू से लगी खड़ी मिली । 


वो तब भी साफ-साफ सदमे की हालत में लग रही थी


"क्या है ?" - जीतसिंह उसे बांह पकड़कर झिंझोड़ता कर्कश स्वर में बोला ।


"घर जाऊंगी।" - वो बुदबुदाई ।


"वहां भी चलेंगे । पहले होश में आ । नखरे झाड़ना बन्द कर ।" 


"बिलथरे ! क्या पता जिन्दा हो !"


"होगा तो पता चल जाएगा। अभी गाड़ी में बैठ | " 


"मैं घर..."


"वहां भी चलेंगे । बोला तो । अभी भीतर बैठ | "


वो वापस एम्बुलैंस में जा बैठी।


बलसारा ने एम्बुलैंस को ऊपरली मंजिल पर ऐसे स्थान पर खड़ा किया था कि वो उस मंजिल पर दाखिल होने के लिए प्रयुक्त होने वाली ढलान से नहीं दिखाई दे सकती थी । वो फ्लोर वाहनों से तीन चौथाई भरा हुआ था और अधिकतर वाहन कारें थी ।


उन्हीं में से एक कार अपने काबू में करने का इरादा जीतसिंह का था ।


बाहर से एकाएक फ्लाइंग स्कवाड के सायरन की आवाज आई ।


जीतसिंह लपककर पार्किंग के फ्रंट पर पहुंचा जहां कि फर्श से चार फुट ऊंची शीशे की बन्द खिड़कियां थीं । उसने बाहर झांका तो उसे एक पुलिस की जीप सड़क पर दिखाई दी, लेकिन वो पार्किंग के आगे रुकने की जगह सायरन बजाती होटल की तरफ दौड़ चली ।


कुछ क्षण बाद किसी और सड़क से आती किसी और सायरन की आवाज उस तक पहुंची ।


प्रत्यक्ष था कि वॉल्ट पर पड़े डाके की खबर आम हो चुकी थी और अब पुलिस की पूरी कोशिश डकैतों को शहर से निकल भागने से रोकने की थी ।


विघ्नकारी बलसारा न टपका होता तो अब तक वो सब सकुशल शहर से बाहर बिलथरे के घर पर पहुंचे हुए होते आखिरकार वो खिड़की के पास से हटा और फिर कारों की तरफ आकर्षित हुआ । उसने एक काले शीशों वाली सुमो का ताला बड़ी सहूलियत से खोल लिया। उसने डैशबोर्ड तोड़कर उसकी इग्नीशन की तारें नंगी की और फिर उन्हें शार्ट सर्कट करके इंजन चालू किया। कार को दूसरे गियर में चलाता वो उसे एम्बुलैंस के करीब लाया और उसमें से बाहर निकला ।


सुकन्या को उसने एम्बुलैंस की अगली सीट पर गठरी-सी बनी बैठी और हौले हौले सुबकते पाया ।


जीतसिंह ने उसे कन्धे से पकड़कर झिंझोड़ा ।


सुकन्या ने सिर उठाया और डबडबाई आंखों से उसकी तरफ देखा । अब वो सदमे से उबर चुकी मालूम होती थी लेकिन अब उसके चेहरे पर अजीब सी उदासी और हताशा छाई हुई थी ।


“ऐसे कैसे बीतेगी ?" - जीतसिंह कर्कश स्वर में बोला


"वो मर गया होगा ?" - सुकन्या फुसफुसाई ।


"अकेले बिलथरे की पड़ी है। भूल गई कि तीन जने और भी थे जो उसके साथ पीछे रह गए हैं ?"


“मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि ये सब कुछ होगा|"


"तुम्हीं लोगों के छांटे आदमी ने किया । जो पहले तो काम को नक्की बोल के चला गया, फिर प्रेत की तरह वापस लौट आया ।"


"सब मेरी वजह से हुआ।"


"तुम्हारी वजह से खामखाह ?"


"मैंने ही बिलथरे को उकसाया था। मेरे उकसाने पर ही उसने आगे सब कुछ किया था । मेरी वजह से उसकी जान गई।”


"लेकिन तुम्हारी बच गई । तुम्हें पसन्द आता कि तुम भी वहां पीछे मरी पड़ी होती ?"


"वो तो पसन्द नहीं आता लेकिन..."


"फिर लेकिन ?”


"मैंने झूठ बोला ।" - वो दबे स्वर में बोली ।


“क्या ?" - जीतसिंह सकपकाया - "क्या बोला ?" " मैंने झूठ बोला । बिलथरे से भी और तुम्हारे से भी


"किस बाबत ?"


"अपनी माली जरूरत की बाबत । मैंने झूठ बोला था कि मुझे पच्चीस लाख रुपये की जरूरत थी ।”


"तुम्हें कर्जा चुकाने के लिए वो रकम नहीं चाहिए थी?"


"चाहिए ही नहीं थी । यूं ही मुंह फाड़ दिया था।"


"क्या ?"


"क्योंकि मैं विधवा थी। क्योंकि मेरा पति मुझे कंगाल छोड़कर मरा था । क्योंकि बाकी जिन्दगी काटने का मुझे कोई जरिया नहीं दिखाई दे रहा था । "


“ओह !”


"मैं अपनी इतनी बड़ी जरूरत पेश न करती तो बिलथरे इतना बड़ा कदम उठाने की न सोचता । मैंने उसे मौत के मुंह में धकेला ।”


"गुनहगार महसूस कर रही हो ?"


"हां"


"गुनाह की सजा पाना चाहती हो ?”


"क्या !"


"गिरफ्तार होना चाहती हो ? जेल जाना चाहती हो


"नहीं ।”


जीतसिंह ने चैन की सांस ली । उसका जवाब हां में होता तो अपने बचाव के लिए उसे वहीं उसका खून कर देना पड़ता ।


"मैं घर जाना चाहती हूं।"


" फिर वही रट शुरू कर दी ? तुम अभी घर नहीं जा सकती हो ।”


"क्या ?"


"क्योंकि बिलथरे की शिनाख्त हो चुकी होगी। वो लोकल कायन डीलर था, उस नुमायश में शरीक था, उसे बहुत लोग जानते पहचानते होंगे । उसे सिक्योरिटी वाले ही पहचानते होंगे जिन्होंने कि उसे नुमायश में दाखिला दिया था और वॉल्ट में अपना माल जमा कराने पर टोकन जारी किया था । फिर कोई न कोई ये तसदीक करने वाला भी निकल आएगा कि तुम्हारे उससे ताल्लुकात थे। उससे आगे कोई ये कहने वाला निकल आएगा कि तुम उसी होटल में ठहरी हुई थीं जिसमें कि डकैती पड़ी थी और आधी रात के बाद कितनी ही देर लॉबी में बैठी रही थीं। नतीजा जानती हो क्या होगा ?"


"ओह ! यानी कि मैं वापस जा ही नहीं सकती ?"


"हां"


"तो कहां जाऊंगी ?"


"सोचो।"


"तुम्हारे साथ ।”


"मेरे साथ कहां ?"


"कहीं भी ।"


“कब तक के लिए ?”


"तभी तक के लिए जब तक कि तुम मेरे से बोर न हो जाओ । जाहिर है ।"


"गनीमत है कि अब समझदारी की बातें कर रही हो


वो खामोश रही ।


"अब काबू में रहोगी या फिर पहले की तरह आपे से बाहर होकर दिखाओगी ?"


"वो सब यूं एकाएक हुआ था कि यही हैरानी है कि सदमे से मर न गई । अब ... अब मैं संभल गई हूं । "


"एकाएक फिर कुछ हो जाएगा तो फिर यही तमाशा करोगी ?” 


"नहीं । अब नहीं ।” 


"बढिया ।"


कुछ क्षण खामोशी रही ।


"ठीक है।" - फिर जीतसिंह बोला- "फिलहाल तुम मेरे साथ ।” 


"शुक्रिया ।"


"कुछ अरसा बलसारा भी हमारे साथ | "


"वो भी ?"


"मुझे उस पर एतबार नहीं । लेकिन मौजूदा हालात में उससे पीछा छुड़ाना न आसान है न मुनासिब । तुम्हारा साथ इसलिए भी कारगर साबित हो सकता है कि वो छुप के, पीठ पीछे वार न कर सके । "


“मैं ऐसा नहीं होने दूंगी।"


"बढिया । अब बाहर निकलो और मेरी मदद करो । "


"किस काम में ?"


" सूमो की सीटें उखाड़ने में और उनकी जगह एम्बुलेंस में रखे सूटकेस भरने में । "


तत्काल वो एम्बुलैंस से बाहर निकली ।


पैसे में ऐसा ही जादू होता था ।


मुर्दे में जान डाल देने वाला ।


वो तो महज पश्चात्ताप की पकड़ में थी ।


वो सीटें उखाड़ चुके थे और आधे सूटकेस सूमो में ट्रांसफर कर चुके थे कि बाहर से फिर पुलिस के सायरन की आवाज आई ।


जीतसिंह लपककर सामने पहले वाले स्थान पर पहुंचा जहां से कि नीचे झांका जा सकता था ।


एक पुलिस जीप पार्किंग के प्रवेशद्वार पर अटेंडेंट के केबिन के सामने आकर रुकी थी ।


जीतसिंह के देखते देखते राजे केबिन से बाहर निकला और जीप के करीब पहुंचा ।


कुछ देर पुलिस और अटेंडेंट में वार्तालाप चला ।


उस दौरान दर्जनों बार राजे का सिर इन्कार में हिला ।


वो सांस रोके नीचे का नजारा करता रहा ।


पुलिस का पार्किंग की तलाशी की जिद करना उनका खेल फिर बिगाड़ सकता था । फिर पैदल तो शायद वो वहां से निकलने में कामयाब हो जाते, लेकिन माल के साथ सुमो में लद चुके आधे माल के साथ भी वहां से बाहर कदम रखने की कोशिश करना आ बैल मुझे मार जैसा काम होता । -


आखिरकार पुलिस की जीप फिर स्टार्ट हुई और बैक होती हुई सड़क पर पहुंची । फिर तत्काल वो सड़क पर दौड़ चली और जीतसिंह की दृष्टि से ओझल हो गई ।


उसकी जान में जान आई ।


 अटेंडेंट राजे ने निश्चय ही बहुत उम्दा रोल अदा किया था।


वो वापस लौटा ।


सुकन्या ने त्रस्त भाव से उसकी तरफ देखा ।


"गए ।" - जीतसिंह ने बताया- "बिना भीतर की तलाशी लेने की कोशिश किए । " 


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