शनिवार : तेरह दिसम्बर
जिन दो सिक्योरिटी गार्डों की वॉल्ट के भीतर ड्यूटी थी, उनमें से एक कोई पचास साल का रिटायर्ड फौजी था और दूसरा एक मैट्रो सिक्योरिटी सर्विसिज में कदरन नया भरती हुआ नौजवान था । रिटायर्ड फौजी का नाम उमाठे था और युवा गार्ड का नाम सोमया था। दोनों में जो एक कामन बात निकली थी, वो ये थी कि दोनों शतरंज के शौकीन थे । लिहाजा रात के साढे बारह बजे वो बड़ी तन्मयता से एक मेज पर शतरंज बिछाए आमने सामने बैठे हुए थे।
वॉल्टरूम का दरवाजा भीतर से बंद था, कॉफी की एक थर्मस और सैंडविचों का एक पैकेट कर्टसी, होटल ब्लू स्टार - उनके पास था, बाजी लगी हुई थी, किसी तरह की वारदात का न कोई अन्देशा था न सम्भावना थी, और क्या चाहिए था । -
सिक्कों की सूरत में करोड़ों का माल वॉल्ट में बन्द बताया जाता था जोकि पूरी तरह से सुरक्षित था ।
"उंह ! करोड़ों का माल !" - वॉल्ट बन्द किए जाते वक्त सोमया ने नाक चढाया था - "साले घिसे हुए पुराने सिक्के ? मुझे तो ऐसा सिक्का सड़क पर पड़ा मिले तो मैं उठाऊं भी न ।”
"अबे, हलकट ।" - तजुर्बेकार उमाठे ने विचार जाहिर किया था - "वो मलिका विक्टोरिया के बादशाह अकबर के वक्त के, बल्कि उससे भी पुराने सिक्के हैं ।”
"उंह ! कोई चीज पुरानी हो तो उसकी कीमत घटती है या बढती है ?"
"बाज चीजों की बढ़ती है। ऊपर से वो सोने चांदी के सिक्के हैं ।"
"लेकिन करोडों के ! बंडल !"
"बेटा, कलैक्शन का शौक रखने वालों के लिए एक कागज का पुर्जा भी कीमती माना जाता है। अभी पिछले हफ्ते मैंने छापे में पढा था कि फ्रांस में एक पुराना डाक टिकट दस लाख रुपये में बिका था ।”
"तौबा ! क्या करेगा खरीदार उसका ? खास माशूक को चिट्ठी लिख के लिफाफे पर लगाएगा ?"
“तू नहीं समझेगा ।"
"सब पागल हैं । सबका भेजा फिरेला है । बेचने वालों का भी और खरीदने वालों का भी । "
"तू पागल है।"
फिर वो शतरंज की बाजी लगाने में न मशगूल हो गए थे ।
उनमें तीसरी बाजी चल रही थी जब कि जैसे एक करिश्मा हो गया था । जैसे जादू के जोर से वॉल्ट के कमरे की छत फटी थी और उसमें से एक नकाबपोश पके फल की तरह उनके सामने टपका था। उन्होंने अपनी अपनी बैल्ट के साथ लगे होलस्टर में रखी रिवॉल्वर की तरफ हाथ सरकाया ही था कि नकाबपोश ने एक रिवॉल्वर उन दोनों की तरफ तान दी थी ।
“खबरदार !" - जीतसिंह बड़े हिंसक भाव से फुंफकारा "हिले तो गोली । आवाज निकाली तो गोली ।”
दोनों हक्के बक्के से कभी नकाबपोश को तो कभी ऊपर फटी छत को देखने लगे ।
फिर पहले नकाबपोश की तरह दो नकाबपोश और निशब्द फटी छत में से नीचे वॉल्ट रूम में टपके ।
वॉल्ट खोलने में जीतसिंह को एक घंटा लग गया ।
सबसे ज्यादा तंग उसे उस दूसरी चाबी ने ही किया जिसकी छाप लेते वक्त मोम का ब्लाक टूट गया था ।
आराम से तो कोई भी डुप्लीकेट चाबी वॉल्ट को नहीं लगी थी लेकिन दूसरी चाबी को तो वॉल्ट में फिरने के काबिल बनाने में उसे पौना घंटा लग गया था ।
दोनों गार्डों के मुंह में कपड़ा ठूंस दिया गया था और मुश्के कल दी गई थीं । अब दोनों कोने में फर्श पर पड़े थे और चमत्कृत से जीतसिंह को वॉल्ट खोलता देख रहे थे, वो वॉल्ट खोलता देख रहे थे जो नहीं खुल सकता था और जिसकी एक-एक चाबी होटल के पार्टनर, मैनेजर और उनके सिक्योरिटी चीफ के कब्जे में थी । लेकिन उस नकाबपोश के पास तीनों चाबियां थीं जिनसे आखिरकार उसने वॉल्ट खोल ही लिया था ।
तत्काल नवलानी और मिर्ची की आंखों में भी कामयाबी की चमक आई ।
फिर आनन फानन भीतर से सूटकेस निकाले जाने लगे, उनके ताले खोले या तोड़े जाने लगे और वो डिस्पले रैक्स छांटे जाने लगे जिन पर कि बिलथरे ने अंधेरे में चमकने वाले फ्लोरेसेंट मार्क लगा दिए हुए थे ।
बिलथरे ऊपर कमरे के फर्श पर उकडूं बैठा छेद में से भीतर झांक रहा था । उसके चेहरे पर उम्मीद की चमक थी और दिल धाड़-धाड़ उसकी पसलियों के साथ टकरा रहा था जिसे कि वो काबू में करने की भरसक कोशिश कर रहा था । उसकी कनपटियों में खून बज रहा था और उसे बार बार अपना मुंह सूखता महसूस हो रहा था ।
शाम को एकाएक जीतसिंह ने उसे कहा था कि उसे भी रात के वक्त वहां मौजूद रहना चाहिए था । एकाएक ये महसूस किया गया था कि भरे हुए सूटकेसों को वॉल्ट से ऊपर छेद में पकड़ाना मुश्किल और थका देने वाला काम था जबकि खाली सूटकेस और एक एक रैक ऊपर पकड़ाना आसान काम था। बाद में जीतसिंह के कमरे में रैक्स को सूटकेस में पैक करने का काम किया जा सकता था और उन्हें आगे बगल की छत पर मौजूद होने वाले मिर्ची को पकड़ाया 1 जा सकता था ।
वैसा ही एक नया आदेश सुकन्या को भी दिया गया था । उसने भी एक खास वक्त तक ही लॉबी में मौजूद रहना था और फिर ऊपर आकर बिलथरे की तरह ही पैकिंग में मदद करनी थी ।
कमरे की भूतपूर्व बालकनी के भूतपूर्व दरवाजे से बनी छ: गुण चार की पैनल उखाड़ी जा चुकी थी जिससे आगे कि आगजनी की वारदात की ताजा ताजा शिकार हुई इमारत की सुनसान, अंधेरी छत दिखाई दे रही थी ।
बिलथरे उस कमरे तक बगल की इमारत के रास्ते पहुंचा था । यूं वो उधर की बरसाती के दोनों दरवाजे भी खोल आया था और ये तसदीक भी कर आया था कि इमारत वाकई सुनसान पड़ी थी ।
चन्द सूटकेस खुल गए तो जीतसिंह ने मिर्ची को संकेत किया । तत्काल मिर्ची छत के छेद के रास्ते ऊपर कमरे में पहुंच गया । उसने ऊपर मौजूद बिलथरे को संकेत किया और फिर आगे बढकर कमरे का दरवाजा खोला । उसने चेहरे पर से नकाब उतारकर जेब में रख ली और बाहर कदम रखा । बिलथरे ने पीछे दरवाजा बंद किया और उसमें और चौखट में एक बारीक झिरी बनाकर उसमें आंख लगाए स्तब्ध खड़ा हो गया ।
मिर्ची रेलिंग पर पहुंचा।
नीचे लॉबी में गोल सोफे पर सुकन्या बैठी थी और बेचैनी से पहलू बदलती रह रहकर उसी दिशा में देख रही थी ।
मिर्ची ने उसे इशारा किया ।
सुकन्या का सिर बहुत हौले से सहमति में हिला । फिर उसने वैसा ही एक पूर्वनिर्धारित इशारा बाहर सड़क पर मौजूद कार्लो को कर दिया ।
मिर्ची वापस कमरे के दरवाजे पर पहुंचा । तत्काल बिलथरे दरवाजे से परे हट गया । मिर्ची भीतर दाखिल हुआ, उसने अपने पीछे दरवाजे को मजबूती से बन्द कर दिया ।
तब तक बिलथरे वापस छेद के दहाने पर पहुंच चुका था ।
मिर्ची भी उसके पास पहुंच गया और उसी की तरह उकडूं बैठ गया ।
फिर नीचे से खाली सूटकेस और छांटे हुए डिस्पले रैक्स ऊपर पकड़ाए जाने लगे। यूं काफी रैक्स और सूटकेस ऊपर पहुंच गए तो बिलथरे उन्हें पैक करने लगा ।
दो सूटकेस पैक होकर तैयार होते ही मिर्ची ने उन्हें उठा लिया और दीवार में बने रास्ते को पार करके परली छत पर उतर गया । दबे पांव, लेकिन रफ्तार से चलते हुए उसने छत पार की और फिर सीढियां उतरने लगा । उसने पाया कि पहली मंजिल से नीचे को जाती सीढियां पानी से भीगी थीं, इसलिए फिसलने से बचने के लिए उन पर विशेष एहतियात से कदम रखना जरूरी था ।
निर्विघ्न वो नीचे पहुंचा । उसने सावधानी से इमारत से बाहर कदम रखा तो पाया कि कार्लो ने एम्बुलैंस ऐन इमारत के प्रवेश द्वार से लगाकर यूं खड़ी कर दी हुई थी कि उसके पिछवाड़े के दोनों खुले पट ऐन मिर्ची के सामने थे। मिर्ची ने दोनों सूटकेस एम्बुलैंस के भीतर उसके दहाने पर रखे और नि:शब्द वापस लौटा।
पीछे कार्लो ने सूटकेस संभाले और उन्हें खड़ा करके एम्बुलैंस की पिछली दीवार के साथ रख दिया । फिर वो और सूटकेस वहां पहुंचने की प्रतीक्षा करने लगा ।
आधे घंटे में मिर्ची ने ऊपर से नीचे के सात फेरे लगाए।
आठवें फेरे में वो सीढियों पर ऊपर को आती सुकन्या से टकरा गया । उसके उन्तत वक्ष का मिर्ची को ऐसा धक्का लगा कि उसकी तबीयत बाग बाग हो गई । उसका जी चाहा कि वो सूटकेसों को फेंक दे और वहीं सुकन्या को दबोच ले । बड़ी मुश्किल से उसने अपनी ख्वाहिश को काबू में किया ।
"क्या ?" - वो बोला ।
"ऊपर मैं भी पैकिंग में मदद करूंगी।" - वो बोली ।
" बद्री बोल के रखा ?"
"हां"
"बढिया । क्या वान्दा है ?"
उसकी बगल से गुजरती सुकन्या सीढियां चढने लगी तो मिर्ची ने अपना कुलीगिरी का काम फिर चालू किया ।
अगले फेरे में उसे कमरे में वापस न घुसना पड़ा । उसे दो सूटकेस छत पर पड़े मिले ।
बढिया ।
यानी कि लड़की सुघड़ थी, मजबूत थी, कोई भी काम कर सकती थी ।
मशीन की तरह माल के वॉल्ट से निकलकर कमरे में, कमरे से निकलकर बगल की छत पर से नीचे एम्बुलैंस में पहुंचने का सिलसिला चलता रहा ।
चार बजे तक मिर्ची तीस फेरे लगा चुका था ।
यानी कि साठ सूटकेस नीचे एम्बुलेंस में पहुंच चुके थे
तीसवां फेरा समाप्त करके जब वो वापसी के लिए सीढियां चढ रहा था तो एकाएक अपने पीछे से उसे हल्की सी सरसराहट सी सुनाई दी । तत्काल वो पीछे देखने के लिए वापस घूमा तो एक मोटा डंडा उसके कान को हवा देता हुआ गुजरा और बड़े वेग से उसके कंधे से टकराया । उसके सारे शरीर में तीव्र पीड़ा की लहर दौड गई। उसके मुंह से एक कराह निकली, उसके घुटने मुड़े और किसी अदृश्य सहारे की तलाश में उसके दोनों हाथ हवा में लहराए । अपने सामने पहले उसे एक काला लाया दिखाई दिया फिर उसे बिजली की तरह फिर खोपड़ी की ओर लपकता डंडा दिखाई दिया ।
उस बार डंडा पूरी शक्ति से उसके माथे से टकराया । उसकी आंखों के सामने अंधेरा छा गया और वो कटे वृक्ष की तरह सीढियों पर ढेर हुआ ।
साठ सूटकेसों से एम्बुलैंस तकरीबन भर गई थी । अब मुश्किल से आठ नौ सूटकेस ही और उसमें समा सकते थे।
यानी कि चार या पांच फेरे और ।
हर किसी के अनुमान के मुताबिक उन्हें चार बजे से कहीं पहले फारिग हो गया होना चाहिए था लेकिन ऐसा तो हो ही नहीं सका था, ऊपर से अभी भी कम से कम आधा घंटा और लगने वाला था ।
अब जबकि समापन करीब आ रहा था तो कार्लो व्याकुल होने लगा था । तब तक कोई विघ्न नहीं आया था लेकिन न जाने क्यों उसके दिल में से आवाज उठ रही थी कि ऐसे कामों में विघ्न आखिरी घड़ी में ही आता था ।
क्या होने वाला था ?
क्या हो सकता था ?
उसे कुछ न सूझा ।
लेकिन उसका मन फिर भी अशान्त ही रहा और किसी अज्ञात आशंका से डोलता रहा ।
कार्लो दक्ष ड्राइवर था और मोटर व्हीकल्स को बखूबी समझता था । इसलिए वो एम्बुलैंस में तब्दील की गई उस सेकंड हैण्ड मैटाडोर से कतई संतुष्ट नहीं था । बिलथरे के घर से कनाट रोड तक उसे चलाकर लाने में उसने उसमें कितने ही नुक्स महसूस किए थे । टायर कमजोर थे, स्टियरिंग में प्ले था, स्प्रिंग जवाब दे गए हुए थे, सीट हिलती थी और इंजन स्टार्ट ठीक लेता था, चलता ठीक था, लेकिन अजीब आवाजें निकालता था ।
उसका दिल बार बार गवाही दे रहा था कि गैट अवे व्हीकल के लिहाज से वो वाहन उतना चौकस नहीं था जितना कि होना चाहिए था।
जीतसिंह ने कहा था कि दौड़ लगाने की नौबत नहीं आने वाली थी लेकिन हासिल गाड़ी को देखते हुए ऐसी कोई नौबत फिर भी आ जाने पर अपनी ड्राइविंग में दक्षता का कोई कौशल वो दिखा पाता, इस बात में अब उसे पूरा पूरा सन्देह था । जब व्हीकल ही कमजोर था तो होशियार ड्राइवर क्या तीर मार के दिखा सकता था !
एम्बुलैंस अब सूटकेसों से इतनी भरी हुई थी कि अब उसके लिए उसके भीतर खड़े होने की जगह नहीं थी । अब वो बाहर खड़ा खड़ा ही वहां पहुंचने वाले आठ नौ और सूटकेसों को भीतर टिका सकता था और उसके दरवाजे बाहर से बन्द कर सकता था ।
एम्बुलैंस के दरवाजे तब भी बन्द थे जिन्हें कि सूटकेस उठाए मिर्ची पर निगाह पड़ते ही उसने खोल देना था ।
तभी उसे अहसास हुआ कि इस बार मिर्ची का फेरा वैसे मशीनी अंदाज से नहीं लग रहा था जैसे कि अब तक के तमाम फेरे लगे थे ।
कहाँ मर गया साला ।
फिर उसे लगा कि वो खामखाह उतावला हो रहा था और उसी वजह से वक्त का गलत अंदाजा लगा रहा था ।
सड़क पर से इक्का-दुक्का वाहन कभी-कभार गुजरता था - एक बार, तीन बजे के करीब एक पुलिस की गश्ती गाड़ी भी उधर से गुजरी थी लेकिन किसी की भी एम्बुलैंस की तरफ कोई विशेष तवज्जो नहीं गई थी । -
जोकि अच्छा था । बहुत अच्छा था । बद्री का आग का और एम्बुलेंस का आइडिया वाकई कड़क था ।
तभी एक साया उसके करीब पहुंचा ।
कार्लो सकपकाया ।
साया लम्बा ओवरकोट पहने था और सिर पर फैल्ट हैट लगाए था जोकि उसके माथे पर आंखों तक झुका हुआ था ।
उसने यही समझा कि सुबह सवेरे कोई भटक गया था जो कि उससे कोई रास्ता पूछने के लिए उसके करीब ठिठका था ।
“क्या मांगता है ?" - फिर अपने आप ही उसके मुंह से निकला ।
"तेरे को मांगता है ।" - हैटवाला धीरे से बोला । साथ ही उसने अपना दायां हाथ तनिक आगे बढाया ।
कार्लो को ये देखकर सांप सूंघ गया कि उस हाथ में एक गए थमी हुई थी । जिसका रुख उसके पेट की ओर था ।
"क... क्या ?" - वो फंसे कंठ से बोला ।
"चल ।”
"कहां ?"
"भीतर ।"
"भीतर कहां ?"
"इमारत के भीतर । "
"क... क्यों ?"
“पहुंचेगा तो मालूम होगा ।"
"पण..."
“इधर ही मरना चाहता है ?"
कार्लो के मुंह से बोल न फूटा । भारी कदमों से वो के दरवाजे के भीतर दाखिल हुआ ।
हैट वाले ने उसके पीछे भीतर कदम रखा ।
कार्लो सीढियों के पास पहुंचा तो उसे उस पर लुढका पड़ा मिर्ची का अचेत शरीर दिखाई दिया ।
अब उसे गारण्टी हो गई कि उसके साथ जो बीतने वाली थी, बहुत बुरी बीतने वाली थी । उसका भी वही अंजाम होने वाला था जोकि उसे मिर्ची का हुआ अपने सामने दिखाई दे रहा था ।
क्या वो अचेत था ?
या मरा पड़ा था ?
तभी उसकी खोपड़ी में रंग बिरंगे सितारे फूटे और फिर आंखों के आगे अंधेरा छा गया ।
बिलथरे खौफजदा था ।
कामयाबी सामने दिखाई दे रही थी, वो फिर भी खौफजदा था । वो महसूस कर रहा था कि वो उसका मुकाम नहीं था । उसे वहां नहीं होना चाहिये था । उसका काम बस कीमती सिक्कों वाले रैक्स की शिनाख्त करना था । वो क्यों अपने साथियों की बातों में आ गया था और उस काम के लिए हामी भर बैठा था जिसे कि वो उस घड़ी कर रहा था ।
हामी भरते समय भी क्योंकि वो निश्चिन्त नहीं था इसलिए जो खास काम उसने अपने साथियों की जानकारी के बिना किया था, वो ये था कि वो अपनी बत्तीस कैलीबर की रिवॉल्वर अपने साथ लाया हुआ था । रिवॉल्वर उसके कोट के नीचे उसके शोल्डर होलस्टर में मौजूद थी और वो उसे काफी आश्वस्त कर रही थी ।
कीमती सिक्कों पर घात लगाने का ख्याल उसे कोई पहली बार नहीं आया था अलबत्ता इतना विस्तृत आयोजन, कि एक पूरी कायन कनवेंशन ही लूट ली जाती, उसे पहली बार सूझा था । पहले वो सिर्फ एकाध कायन डीलर को ही अपना शिकार बनाता था । वो वैसी किसी नुमायश में जाता था, किसी सहयोगी कायन डीलर का सिक्कों का कीमती स्टाक ताड़ता था, उसके कीमती सिक्के चुपचाप मार्क करता था और फिर किसी फ्रेंडली चोर को उनकी बाबत टिप दे देता था । चोर वो सिक्के चुराने में कामयाब हो जाता था तो वो खुद ही उन्हें औने-पौने रेट पर खरीद लेता था । यानी कि वो कायन डीलर ही नहीं फैंस (चोरी के माल की खरीद फरोख्त करने वाला) भी था और उसकी असली कमाई उसके दूसरे, छुपे हुए धन्धे से थी ।
लेकिन वो कमाई भी कोई खास नहीं थी, संतोषजनक नहीं थी । खास होती तो क्या वो इतनी बड़ी कायन रॉबरी का ख्याल भी करता ?
बिलथरे दो भाइयों में छोटा था। उनके मां-बाप कब के स्वर्गवासी हो चुके थे और बड़ा भाई प्रदीप बिलथरे बचपन से ही सैलानी प्रवृत्ति का था जोकि कभी घर पर टिककर नहीं बैठा था । उसका बिलथरे को ये फायदा हुआ था कि मां बाप का बनाया वो मकान, जिसमें कि वो आजकल रह रहा था, सहज ही उसके कब्जे में आ गया था ।
शादी उसने आज तक नहीं की थी क्योंकि शादी के नाम पर वो खूबसूरत बीवी का ख्वाहिशमंद था, लेकिन उसकी ट्रैजडी ये थी कि खूबसूरत लड़कियां उस जैसे अधगंजे थुलथुल व्यक्ति की ख्वाहिशमंद नहीं होती थीं ।
फिर संयोगवश उसका वास्ता सुकन्या से पड़ा ।
उसका सैलानी भाई प्रदीप बिलथरे एक रोज एकाएक पूना पहुंच गया । पूना पहुंच गया तो उसे मालूम हुआ कि उसने नारायणगांव की अपने जैसे ही मिजाज की एक लड़की से शादी कर ली थी । उसका एक साला था जोकि रेलवे में ड्राइवर था । साले की एक बीवी थी जोकि पटाखा थी, जिसे कि देखते ही बिलथरे लार टपकाने लगा था । उसका भाई तो दो दिन उसके पास रहकर चला गया, लेकिन उसके साले से बिलथरे ऐसा जुड़ा कि कभी वो नारायणगांव तो कभी साला सपत्नीक उसके घर ।
वो सिलसिला कोई एक साल बहुत बढ़िया चला ।
फिर एक रोज सुकन्या ने ने उसे सूचना दी कि उसका पति रेलवे एक्सीडेंट में मारा गया था । उसे
बिलथरे को जरा अफसोस न हुआ । उसे ये सोचकर बहुत खुशी हुई कि सुकन्या अब आजाद थी । उस वाकये को उसने उसे और सुकन्या को करीब लाने में खुदा की मर्जी माना । अभी उसके पति का चौथा भी नहीं हुआ था कि उसने सुकन्या को हासिल करने का अपना वन पॉइंट प्रोग्राम शुरू कर दिया । सहानुभूति की आड़ में वो उसके करीब, और करीब, आने की कोशिश करने लगा। ज्यों-ज्यों वो उसके और करीब आता गया, उसकी सुकन्या के लिए तड़प बढती गई । फिर, जैसा कि आखिरकार होना ही था, एक रोज उसने अपनी मंशा सुकन्या पर जाहिर की।
जवाब में सुकन्या ने ऐसा सर्द व्यवहार दिखाया कि वो पानी-पानी हो गया । नतीजतन वो फिर अपने हमदर्द वाले रोल में पहुंच गया । लेकिन न वो सुकन्या का पीछा छोड़ सका और न उसके सपने देखने बंद कर सका । सुकन्या उसे हासिल होती या न होती, लेकिन उसने मान लिया हुआ था कि सुकन्या के आगे उसकी दुनिया खत्म थी ।
फिर वैसे ही सर्द माहौल में एक रोज सुकन्या उसके पास आई और उसने बिलथरे को बताया कि उसे पच्चीस लाख रुपये की जरूरत थी । क्यों जरूरत थी ? ये उसने लाख पूछने पर भी न बताया । बदले में बिलथरे को क्या मिलता ? इस बाबत भी कोई पक्का दो टूक वादा उसने न किया । लेकिन ये बात फिर भी स्पष्ट थी कि अगर बिलथरे उसकी वो जरूरत पूरी कर पाता तो वो उसके प्रणय निवेदन की उसकी खारिज हो चुकी अर्जी पर दोबारा गौर सकती थी ।
नतीजा वो कायन रॉबरी थी जिसमें वो उस घड़ी शरीक था।
पच्चीस लाख के हासिल के आश्वासन के बाद भी बिलथरे सुकन्या से अपनी कोई ख्वाहिश पूरी कर सका था तो सिर्फ ये कि एकाध बार उसने उसे अपनी बांहों में भर लिया था या एकाध बार उसके होंठ चूम लिए थे। जबकि उसे पूरा यकीन था कि वो बद्रीनाथ उसके साथ सब कुछ कर भी चुका था। बावजूद इस अहसास के सुकन्या के लिए उसके मन में जो तड़प थी वो रंचमात्र भी नहीं घटी थी । बद्रीनाथ से अब वो कोई खास आशंकित नहीं था, क्योंकि उसने उसे साफ आश्वासन दिया था कि सुकन्या के लिए उसके मन में गम्भीर कुछ नहीं था । यानी कि कल नहीं तो परसों वो अपनी राह लगता और फिर पीछे वो होता या सुकन्या होती ।
उसकी अहसानमंद सुकन्या जिसे कि उसने उसकी वांछित रकम मुहैया कराने का सामान किया था ।
लेकिन अब एक बात के लिए बिलथरे भी दृढप्रतिज्ञ था । सुकन्या जब तक अपनी राजी से उसके सामने समर्पण न करती, पूरे जोशोखरोश के साथ हमबिस्तर न होती तब तक पच्चीस लाख तो क्या, उसे एक छेद वाला काला पैसा नहीं मिलने वाला था ।
तभी जीतसिंह ने फर्श में से सिर निकाला और चिन्तित भाव से बोला- "टाइम बहुत ज्यादा हो गया है । अब एक-एक आखिरी फेरा लगाकर हमें फारिग हो जाना चहिए । पीछे जो रह गया सो रह गया ।
"मिर्ची !" - बिलथरे बोला - "लौटा नहीं !"
"होगी कोई वजह । तुम दो सूटकेस उठाओ और चलो । वो रास्ते में मिले तो उसे लौटा देना ।”
बिलथरे ने सहमति में सिर हिलाया ।
" और तुम ?" - फिर वो बोला ।
"हम भी तुम्हारे पीछे पीछे ही आ रहे हैं।"
"ठीक है ।"
जीतसिंह का सिर छेद में से गायब हो गया ।
बिलथरे ने वो दो सूटकेस उठा लिए जोकि उसने मिर्ची के लिए तैयार करके रखे थे और आगे बढ़ा ।
दीवार में बने रास्ते के करीब उसने दोनों सूटकेस फर्श पर रखे, वापस सुकन्या की तरफ घूमा और फिर बड़े आश्वासनपूर्ण भाव से मुस्कुराया ।
सुकन्या भी जबरन मुस्कुराई ।
बिलथरे परली छत पर उतर गया । उसने घूमकर दोनों सूटकेस उठाए और फिर सीढियों की दिशा में छत पर आगे कदम बढाया ।
एक पिलर के पीछे से ओवरकोट और फैल्ट हैट एक साया निकला और बिलथरे के रास्ते में आ खड़ा हुआ ।
"क... कौन ?" - बिलथरे हकबकाया सा बोला ।
"हल्लो, बिलथरे ।" - साया धीरे से बोला ।
बिलथरे ने उसे तत्काल पहचाना । पहले आवाज से, सूरत से भी ।
"बलसारा !" - वो भौंचक्का सा बोला- "तू यहां ?"
"हां । आगे बढो । करीब आओ ।"
आगे बढ़ने की जगह बिलथरे ने दोनों सूटकेस अपने से निकल जाने दिए और फुर्ती से अपने शोल्डर होलस्टर की तरफ हाथ बढाया । उसका हाथ अभी अपनी रिवॉल्वर की मूठ तक ही पहुंचा था कि सामने से फायर हुआ ।
गोली सीधी उसके दिल में घुस गई ।
वो अभी धराशायी भी नहीं हुआ था कि उसके प्राण पखेरू उड़ चुके थे ।
गोली की आवाज सुकन्या ने साफ सुनी ।
"गोली !" - नवलानी हकबकाया सा बोला - "गोली की आवाज थी । करीब ही चली । शायद छत पर । "
सुकन्या केवल सहमति में सिर हिला पाई ।
नवलानी दीवार में बने रास्ते की ओर बढ़ा ।
तभी बाहर छत पर एक हैट वाला सिर प्रकट हुआ।
"बलसारा !" - नवलानी के मुंह से निकला ।
एक फायर हुआ ।
नवलानी के मुंह से निकला वो आखिरी शब्द सिद्ध हुआ ।
सुकन्या जोर से चीखी ।
एक गोली उसके सिर के ऊपर से गुजरी । वो फर्श पर ढेर हो गई और जोर जोर से चीखने लगी ।
बलसारा ने बिलथरे के हाथ से निकले दोनों सूटकेस उठा लिए और घूमकर वापस बरसाती की ओर लपका ।
जीतसिंह फर्श के छेद में से उचका । उसने कमरे में कदम रखा और दूर होते बलसारा के साए की दिशा में देखा ।
"कौन था ?" - वो बोला ।
जवाब देने की जगह फर्श पर ढेर सुकन्या फिर चीखी
फिर जीतसिंह को छत पर धराशायी बिलथरे का अहसास हुआ ।
कमरे में नवलानी मरा पड़ा था ।
अब उसे कालों और मिर्ची की खैरियत की भी कोई गारण्टी नहीं थी ।
पलक झपकते ही कितना कुछ हो गया था ।
वो छत पर कूदा, उसने बिलथरे की रिवॉल्वर अपने कब्जे में की और वापस कमरे में आया । उसने सुकन्या को जबरन उठाकर उसके पैरों पर खड़ा किया और एक झन्नाटेदार झापड़ उसके चेहरे पर रसीद किया ।
" होश में आ ।" - वो हिंसक भाव से बोला - "वरना हम दोनों भी मरे पड़े होंगे ।"
अगली चीख सुकन्या के गले में ही घुट गई । वो फटी-फटी आंखों से जीतसिंह की तरफ देखने लगी ।
"कौन था ?" - जीतसिंह ने पूछा ।
"ब... ब.. बल... सारा ।"
जीतसिंह ने उसकी बांह दबोची, कमरे का दरवाजा खोला और उसे अपने सामने धकेला । लपककर वो उसके साथ लिफ्ट में दाखिल हुआ और ग्राउंड फ्लोर का बटन दबाया।
उसने बलसारा से पहले सड़क पर पहुंचना था । बलसारा के पास दो सूटकेसों का बोझ था । वो उससे पहले सड़क पर पहुंच सकता था ।
“समझ तू बन्धक है।" - वो सुकन्या के कान में फुंफकारा - " मैं तुझे रिवॉल्वर दिखाकर यहां से ले जा रहा हूं । यूं ही हम दोनों यहां से बाहर निकल पाएंगे। समझ गई ?”
सुकन्या ने आतंकित भाव से सहमति में सिर हिलाया
लिफ्ट नीचे पहुंची । दरवाजा खुलने से पहले जीतसिंह ने अपनी बायीं बांह उसकी गर्दन के गिर्द पिरो दी और दाएं हाथ में थामी रिवॉल्वर उसकी कनपटी से सटा दी ।
निकासी का वो रास्ता अख्तियार करना इसलिए भी जरूरी था क्योंकि बगल की इमारत वाले रास्ते पर कहीं बलसारा उनका इंतजार करता बैठा हो सकता था ताकि वे उधर से भागने की कोशिश करते तो वो उन दोनों को शूट कर देता ।
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