साढे चार बजे जीतसिंह सर्कस पहुंचा।
मालूम हुआ मगनया मैटिनी शो के लिए ऐरेना में था, इण्टरवल से पहले नहीं मिल सकता था ।
सिगरेट के कश लगाता वो इण्टरवल होने की प्रतीक्षा करने लगा ।
पांच बजे के करीब इण्टरवल हुआ तो मगनया उसके पास पहुंचा । जीतसिंह उसे सर्कस के विशाल तम्बू के पिछवाड़े में वहां ले आया जहां कि जानवरों के पिंजरे थे ।
“क्या बात है ?” - वो बोला- "क्यों ढूंढता था मुझे?"
मगनया बड़ी बेशर्मी से बेवजह हंसा ।
"हंसता क्यों है ।" - जीतसिंह डपटकर बोला ।
"बाप, मेरे को खुसी हुआ कि मेरे को ढूंढता तू इधर पहुंचा।"
"तो ?"
"तो ये कि मेरा अंदाजा ठीक ।"
“कौन सा अंदाजा ठीक ? ठीक से बोल । जल्दी बोल । सारा दिन नहीं पड़ा मेरे पास तेरी बकबक सुनने को ।”
"थोड़ा टेम तो पड़ा है न, बाप ! तभी तो इधर आया।"
“अब कुछ कहेगा भी ?"
"बाप, मेरे को रोकड़ा कम मिला ।"
"रोकड़ा कम मिला ! कौन सा रोकड़ा कम मिला ?"
भीतर "जो तुम मेरे को उधर मोदी कालोनी में रोशनदान से घुसकर भीतर से कुंडी खोलने का दिया ।"
"क्या बकता है ? इतने से काम का तीन हजार रुपया कम है ?"
"मैं बहुत बड़ा काम किया, बाप । बड़े काम का तीन हजार रुपिया कम है । "
"बड़ा काम किया ! कौन सा बड़ा काम किया ?"
"होटल के वॉल्ट की डुप्लीकेट चाबी तैयार करने में मैं तुम्हारा हैल्प किया ।”
जीतसिंह को जैसे सांप सूंघ गया । वो भौचक्का सा मगनया का मुंह देखने लगा ।
"साले !" - एकाएक उसने उसकी गर्दन थाम ली और उसे झिंझोड़ता, दांत पीसता फुफकारा "कमीने! इतना-सा तो तू है, इतनी बड़ी बड़ी बातें कहां से सीख गया ?" -
"छोड़ो !" - मगनया उसकी पकड़ में छटपटाता हुआ बोला - "छोड़ो ! वरना मैं शोर मचा दूंगा।"
"क्या शोर मचा देगा ?"
"यही कि तुम लोग होटल ब्लू स्टार का वॉल्ट लूटने की फिराक में हो ।”
"लूटने की ? उसमें क्या रखा है ?”
"कुछ तो रखा ही होगा। तभी तो उसे खोलने का जुगाड़ कर रहे हो ।"
"कैसे जाना ?"
“दीमाक से जाना । अब छोड़ दो वरना मैं चिल्लाने लगूंगा।”
"मैं तुझे चिल्लाने लायक छोडूंगा, तब न !”
"मुझे कुछ हुआ तो मेरा उस्ताद तुम्हें ठीक कर देगा।"
"साले, चूहे ! धमका रहा है ?"
"हां"
जीतसिंह के मुंह से बोल न फूटा, फिर उसने उसका गिरहबान छोड़ दिया ।
"क्या चाहता है ?" - फिर वो धीरे से बोला ।
"ज्यास्ती कुछ नहीं चाहता ।"
"क्या चाहता है ?"
"एक लाख रुपिया । "
"क्या !"
"तुम बड़ा बाप । तुम्हारे लिए मामूली रकम ।"
" उस्ताद कौन है तेरा ?"
"क्यों पूछते हो ?"
"वो भी तेरी उम्र का ही है ? "
"नहीं । वो तो... बड़ा है । रिंग मास्टर का असिस्टेंट है
"वो तेरा खास है ?”
"मैं उसका खास हूं।"
"ये बात ?"
"हां"
“नाम क्या है उसका ?"
वो खामोश रहा ।
"मैं वैसे ही जा के पता करू कि सर्कस में मगनया का खास है तो कोई-न-कोई बता ही देगा। ऊपर से तू बोला कि वो रिंग मास्टर का असिस्टेंट है। रिंग मास्टर के असिस्टेंट सर्कस में कोई सौ पचास थोड़े ही होंगे !”
"दाराबजी मास्टर |"
"ये उसका नाम है ?"
"हां"
"तू छोटा है, नादान है, तेरा एतबार नहीं किया जा सकता । मुझे तेरे उस्ताद का आश्वासन चाहिए कि रोकड़ा लेकर तुम लोग अपना मुंह बन्द रखोगे । तुम भी और तुम्हारा उस्ताद भी ।"
" यानी कि रुपिया दे रहे हो ।”
" देना ही पड़ेगा। मजबूरी है। तू साला इतने बड़े दीमाक वाला जो निकला, इतना सा हो के इतना चिल्लाक जो निकला जो हमारा इतना बड़ा राज जान गया ।”
मगनया बड़ी शान से हंसा । अब उसकी आंखों में कामयाबी की चमक थी और वो मन ही मन लाख रुपये के नोट गिन रहा था ।
"मैं उस्ताद को बुलाकर लाता हूं।"
रोकड़ा रखा है ?” " "अभी क्या बुलाकर लाता है ? अभी क्या मेरे पास
"लेके आना था न, बाप !”
"क्यों ? मेरे को मालूम था कि तू मेरे को क्यों ढूंढता था ?"
"तो ?"
“इधर नाइट शो कब खत्म होता है ?"
"साढे बारह बजे ।"
"तू कब फारिग होता है ?"
"ग्यारह बजे । नाइट शो के इण्टरवल से पहले ।"
" और तेरा उस्ताद ?"
"शेरों की आइटम के बाद । झूले की आइटम से पहले।”
"टेम बोल ।"
"बारह बजे ।"
"ठीक है । बारह बजे अपने उस्ताद के साथ मेरे को इधर ही मिलना । "
"तुम रोकड़ा लेकर आयेगा, बाप ?"
"फुल नहीं । फुल किधर है ? एक लाख किधर है ? पण कुछ लेके आएगा ।"
"कुछ कितना ?"
“देखना ।”
"ठीक है ।"
जीतसिंह ने वो बात केवल सुकन्या को बताई ।
"तौबा !" - सुकन्या बोली- "बित्ते भर का छोकरा और इतना हरामी ! सब भांप गया !"
"कोई मुश्किल काम नहीं था ।" - जीतसिंह बोला - " चाबी की छाप लेने में वो मेरी मदद कर रहा था । चाबी के साथ लगे बिल्ले पर साफ तो लिखा था कि वो होटल ब्लू स्टार के वॉल्ट की चाबी थी । कायन कन्वेंशन के सारे पूना में पोस्टर और होर्डिंग लग चुके हैं। ऐसे में ये समझ लेना क्या बड़ी बात थी कि हम वॉल्ट क्यों खोलना चाहते थे ! बाकी रही सही कसर उसके उस्ताद ने पूरी कर दी होगी।"
" अब क्या होगा ?"
"वही जो हम करेंगे ?"
"क्या करेंगे ?"
" उन दोनों का मुंह बंद करेंगे !"
"कैसे ? लाख रुपया दे के ?"
"नहीं । पैसा देना उन लोगों के मुंह को लहू लगाने जैसा होगा । एक बार लहू लग जाए तो फिर आदमबू आदमबू ही होती है । उनको कोई रकम देना उनका हौसला बुलन्द करना होगा । अगली बार वो बड़ी रकम की मांग के साथ पहुंच जाएंगे। ऐसे मामलों में ऐसा ही होता है । "
"हम तीन चार दिन के लिए उन्हें टरका नहीं सकते?"
"अब नहीं टरका सकते । सस्पैंस का मारा अब मैं उस छोकरे से मिल जो आया । मुझे क्या पता था कि उस जरा से छोकरे की ब्लैकमेलिंग की मजाल हो जाएगी !"
"ब्लैकमेल उस्ताद ने सुझाई होगी न ! वो तो जरा सा छोकरा नहीं । "
"हां । अब जरूरत उन दोनों का हमेशा के लिए मुंह बन्द करने की है । ये काम रोकड़े से नहीं होने वाला । रोकड़े का असर वक्ती होगा ।"
"और कैसे होगा उनका मुंह हमेशा के लिए बन्द ?"
"इतनी नादान तो नहीं हो कि इतनी-सी बात न समझ सको ।”
"ओह ! कौन करेगा ये काम ?”
"मैं कर सकता हूं । लेकिन मैं अकेला क्यों करू ?" ओह !"
"अगर हम एक टीम हैं तो हममें से हर किसी को हर भले-बुरे में शरीक होना चाहिए । होना चाहिए या नहीं चाहिए ?"
"होना चाहिए।"
"तो तुम जाकर बिलथरे को समझाओ, वो आगे जनों को समझाएगा ।"
"ठीक है ।"
“जो नतीजा सामने आए उसकी मुझे खबर कर देना वक्त रहते ।"
"ठीक है ।"
***
आधी रात को जीतसिंह सर्कस के तम्बू के पीछे पूर्वनिर्धारित जगह पर पहुंचा ।
मगनया वहां मौजूद था ।
उसके साथ कोई चालीस साल का हिजड़े जैसा आदमी था जिसको देखकर हैरानी होती थी कि वो शेरों के खेल में शरीक होता था ।
"मास्टर ।" - मगनया बड़े गर्व से बोला- "मेरा उस्ताद ।”
"दाराबजी मास्टर ?" “दाराबजी ?" - जीतसिंह मुस्कराता हुआ बोला ।
उस्ताद ने अनमने भाव से सहमति में सिर हिलाया और बोला - "पैसा लाए हो ?"
"कुछ के लिए बोला था, कुछ लाया हूं।"
"सब क्यों नहीं लाए ?"
“सब का अभी कोई इंतजाम नहीं । कामयाब होंगे तो होगा । अभी जो ज्यादा से ज्यादा बन पड़ा है, वो मैं ले के आया हूं।"
"कितना ?"
"चालीस ।”
"निकालो ।”
"पहले मेरे को ये गारण्टी मांगता है कि बात तुम दोनों से आगे नहीं बढ़ चुकी है । "
“भेजा फिरेला है ! बात आगे बढाकर हम और हिस्सेदार पैदा करेंगे ?"
" यानी कि जो तुमने भांपा है, वो तुम दोनों के बीच ही है ? उसे तुम दोनों के सिवाय कोई नहीं जानता ?"
"हां"
"पक्की बात ?"
"एकदम । अब टेम खोटी न करो । रोकड़ा निकालो।"
"रोकड़ा बाहर मेरी कार में है ।"
"ले के आओ ।"
"खुद ले के आओ । इधर अंधेरा है । बाहर सड़क रोशनी है । गिन के, चौकस करके, खुद जा के काबू करो।"
"चलो ।”
"मैं इधर ही ठहरता है । पैसा डिरेवर के पास है । तुम्हारे मांगते ही दे देगा ।"
“कार कौन सी है ?”
"एम्बैसेडर | काले रंग की ।"
"नम्बर बोलो।"
जीतसिंह ने बोला ।
"ठीक है ।" - उस्ताद बोला- "मैं जा के आता हूं।" जीतसिंह ने सहमति में सिर हिलाया ।
काली एम्बैसेडर सड़क पर सर्कस के प्रवेश द्वार से काफी परे परली तरफ के फुटपाथ के साथ लगी खड़ी थी ।
नोटों के सपने देखता उस्ताद जैसे हवाओं पर कदम रखता कार के करीब पहुंचा। ड्राइविंग सीट पर एक खूबसूरत लड़की को बैठा देखकर वो सकपकाया, लेकिन फिर ये सोचकर आश्वस्त भी हुआ कि उसका किसी मर्द से नहीं किसी औरत से वास्ता पड़ रहा था ।
"रोकड़ा मांगता है।" - वो रोब से बोला ।
“कितना ?”
"तुम्हेरे को मालूम ।"
"मेरे को तो मालूम" - सुकन्या मुस्कराई "लेकिन तुम सही रकम बोलोगे तो मुझे पता चलेगा न कि तुम सही आदमी हो जिसे कि मैंने रुपया सौंपना है ।" -
'ओह ! चालीस हजार ।"
"ठीक ।" - सुकन्या ने हाथ बढाकर कार का परली तरफ का दरवाजा खोला और बोली- "आओ।"
"पण..."
"सुना नही !"
झिझकते हुए उस्ताद ने कार का घेरा काटा और भीतर जा बैठा ।
सुकन्या ने अपना बड़ा-सा पर्स खोलकर उसमें से नोटों की गड्डियां निकाली और उन्हें उस्ताद की गोद में डाल दिया ।
उस्ताद की बांछें खिल गई ।
बढिया । और अभी तो वो पहली किश्त थी ।
"गिनो ।” - सुकन्या आदेशपूर्ण स्वर में बोली ।
"ठीक ही होगा सब ।" - नोटों के साथ वहां से रुख्सत होने को उतावला उस्ताद बोला ।
“गिनो।" - सुकन्या बोली - “जरूरी है ।”
"क्यों जरूरी है ?"
"तीस मिला ।"
"बाद में बोल दोगे अड़तीस मिला । पैंतीस मिला ।
"मुझे तुम्हारे पर एतबार है । "
"बढिया । लेकिन मुझे तुम्हारे पर एतबार नहीं है, इसलिए गिनो ।”
"अच्छी बात है।"
कांपती उंगलियों से वो नोट गिनने लगा ।
"शेरों के पिंजरों से" - जीतसिंह सहज भाव से बोला "शेर बाहर नहीं निकल आते ?"
"कैसे निकल आएंगे ?" - मगनया बोला - "हर पिंजरा सब तरफ से तो बन्द है । और सींखचे इतने मजबूत हैं |"
"किसी पिंजरे के दरवाजे को कोई ताला लगा तो नहीं दिखाई दे रहा !"
"तो क्या हुआ ? कभी शेर भी चोरी होता है ?"
"चोरी तो नहीं होता लेकिन शरारत में कोई किसी शेर का पिंजरा खोल दे, शेर बाहर निकल जाए तो... चार छ : तो सर्कस के लोगों को ही खा जाएगा वो ।”
" ऐसा नहीं होता । शेरों का शो अभी खत्म हुआ इसलिए अभी उन्हें पिंजरे में घुसाकर बाहर से सांकल लगा दी गई है। बाद में, शो के बाद खुद उस्ताद आ के सब पिंजरों में ताला भरेगा ।"
"और मैं पिंजरा भरूंगा।"
"क्या ?"
"तेरी लाश से ।"
जीतसिंह ने बर्फ काटने का एक लम्बा सुआ उसके दिल में पैवस्त कर दिया और फिर लाश उठाकर शेर के पिंजरे में डाल दी ।
वक्ती तौर पर दीन दुनिया को भुलाए बैठा उस्ताद बड़ी तन्मयता से नोट गिन रहा था ।
कार की पिछली सीट से दो साए प्रेत की तरह उठे ।
उस्ताद ने उस घड़ी सिर उठाकर सामने भी देखा होता तो उसे कार के रियरव्यू मिरर में कार्लो और मिर्ची की सूरतें दिखाई दे गई होतीं ।
नायलोन की एक डोरी एकाएक उस्ताद के गले में पड़ी और फिर वो दोनों पूरी शक्ति से उसे अपनी तरफ उमेठने लगे ।
उस्ताद की आंखें फट पड़ी, वो जोर से तडपा । सारे नोट उसकी गोद से फिसलकर नीचे जा गिरे। उसके दोनों हाथ अपने गले पर कसती डोरी पर पड़े, लेकिन कसती डोरी को थाम न पाए । उसके पांव गाड़ी की बॉडी से टकराकर उसे खड़काने लगे तो सुकन्या ने कसकर घुटनों के पास से उसकी टांगें थाम ली ।
उस्ताद थोड़ी देर और तड़पा, छटपटाया, फिर उसका जिस्म ढीला पड़ गया ।
सुकन्या ने उसकी टांगें छोड़ दीं ।
उस्ताद के जिस्म में कोई हरकत न हुई ।
कार्लो ने डोरी का अपनी ओर का सिरा छोड़ा तो मिर्ची ने उसे दूसरी तरफ से खींच लिया। फिर दोनों ने गर्दन उचका कर सशंक भाव से उसकी तरफ देखा तो पाया कि उसकी जुबान उसके मुंह से बाहर लटक रही थी, आंखें पथरा चुकी थीं और चेहरा काला पड़ गया था ।
सुकन्या ने उसकी नब्ज टटोली, दिल की धड़कन टटोली और गले के पास शाहरग को छुआ ।
तभी जीतसिंह वहां पहुंचा।
उसने प्रश्नसूचक नेत्रों से कार में सवार अपने साथियों की तरफ देखा ।
"खलास !" - मिर्ची बो ला ।
जीतसिंह ने संतोषपूर्ण भाव से सहमति में सिर हिलाया ।
"दूसरा ?" - सुकन्या बोली ।
"वो भी ।" - जीतसिंह बोला ।
"गुड | "
फिर सुकन्या कार में बिखरे नोट बटोरने लगी ।
पैदल चलते हुए बिलथरे और नवलानी वहां पहुंचे।
कार्लो और मिर्ची कार में से बाहर निकल आए और जीतसिंह के करीब आ खड़े हुए।
बिलथरे और नवलानी उनकी जगह कार में सवार हो गए।
सुकन्या ने तत्काल कार आगे बढ़ा दी ।
अब उनका काम उस्ताद उर्फ दाराबजी मास्टर की लाश को नदी में डुबोना था ।
लिहाजा कत्ल में सब जने शरीक थे ।
यही जीतसिंह चाहता था ।
आगे टीम को एक सूत्र में पिरोए रखने का ये भी तरीका था ।
गुरुवार : ग्यारह दिसम्बर
अगले रोज सुबह वो सब फिर बिलथरे के घर पर थे ।
नवलानी और मिर्ची के अनुसार फर्श उधेड़ने के काम की प्रोग्रेस संतोषजनक थी और वो उस शाम या हद अगले रोज की दोपहर तक मुकम्मल हो जाने वाला था ।
एम्बुलेंस तैयार थी और मकान के पिछवाड़े में एक तिरपाल से ढकी खड़ी थी । उसका साइन बोर्ड पेंटर कदम पिछले रोज दोपहर से पहले ही अपनी फीस लेकर वापस कल्याण के लिए रवाना हो गया था ।
एक जो और काम बाकी था वो नवलानी के फायर स्पेशलिस्ट वाले रोल से ताल्लुक रखता था, लेकिन उसकी नौबत आने से पहले अभी तीसरी चाबी का हाथ में आना जरूरी था ।
कार्लो ने ये गुड न्यूज दी थी कि कोठारी की आया ऐग्नेस अब उससे पूरी तरह से फिट थी और वक्त आने पर कैसी भी, कोई भी मदद करने को तैयार थी ।
"कैसे बात बनी ?" - जीतसिंह ने पूछा ।
“उसका विश्वास जीतने से ही बात बनी ।" - कार्लो बोला - "दरअसल मैं ने तख्त या तख्ता वाला कदम उठाया था।”
"क्या मतलब ?"
" मैंने अपनी मंशा उस पर साफ जाहिर कर दी थी ।"
"अरे !"
“उसी से काम बना । शुक्र है कि तख्ता न हुआ।"
"लेकिन चोर की तरह भीतर घुसना..."
" मैंने सेंट फ्रांसिस की कसम खाकर उसे कहा था कि मेरी मंशा एक सूई भी चुराने की नहीं थी। मुझे सिर्फ वॉल्ट की चाबी की तलाश थी और उसे भी मैंने चुराना नहीं था, सिर्फ देखना था, परखना था। "
"अरे, चड़या हुआ है ?" - नवलानी भन्नाया - “चाबी का भी बोल दिया ।”
"बोला न, उसका विश्वास जीतने के लिए ये जरूरी था।"
“वो कोठारी को बोल देगी ?"
"उसने बोलना होता तो अब तक बोल चुकी होती । बोल चुकी होती तो ऐसी दगाबाजी के बाद अभी भी मेरे से मिल न रही होती ।"
"ये ठीक कह रहा है । " - जीतसिंह बोला ।
नवलानी खामोश हो गया ।
"और ?”
"चाबी की बाबत साफ बोल देने पर ही उसने मुझे बताया था कि चाबी कहां हो सकती थी।"
"अच्छा ! ये भी बताया ?"
"पक्की जगह नहीं बताई, अपना अंदाजा बताया । लेकिन उसके अंदाजे में दम है । "
"क्या बताया ?"
"ये कि चाबी बेसमेंट में हो सकती है ।”
"कोठी में" - बिलथरे बोला - "कोई बेसमेंट भी है ? "
"हां"
"क्या है उसमें ?"
"तकरीबन खाली पड़ी बताती है वो । कहती है कि एक दीवार के साथ छत तक पहुंचे हुए कुछ स्टोरेज रैक लगे हुए हैं। वो कहती है कि बेसमेंट में कहीं चाबी होगी तो उन्हीं रैक्स पर कहीं होगी।"
"ऐसा सोचने की वजह ? यही सोचने की वजह कि चाबी बेसमेंट में होगी ?"
"बेसमेंट में अमूमन कोई नहीं जाता। कभी कोई जाता भी है तो खुद कोठारी की बीवी जाती है । वो जरूरी समझती है तो कभी नौकर-चाकर को साथ ले जाती है । किसी नौकर-चाकर के खुद ही बेसमेंट में उतर जाने पर पाबन्दी है । फिर भी ऐसी जगह कोई जाता है तो कोठारी जाता है । उसका वहां जाना ही इस बात की तरफ इशारा है कि चाबी बेसमेंट में है । "
"कैसे ?" - जीतसिंह ने पूछा- "कैसे इशारा है ?"
"ऐग्नेस कहती है कि बेसमेंट में कभी कोई रेगुलर सफाई वगैरह नहीं होती इसलिए वहां धूल मिट्टी का बोलबाला है । ऐसी जगह में कोठारी कभी कदम रखता है तो कब रखता है ? सूट बूट डाटकर होटल के लिए रवाना होने से पहले । जब ऐसे कभी कदम रखता है तो दोबारा कब कदम रखता है ? रात को होटल से घर लौटते ही । इसका क्या मतलब हुआ ?"
"मतलब तो वही हुआ जो तुम समझाने की कोशिश कर रहे हो।”
“अभी आगे सुनो । ऐसे टेम पर उसने कभी किसी सर्वेंट लोग या अपनी वाइफ को कुछ लाने के लिए बेसमेंट में नहीं भेजा । उधर से जब वो कुछ मांगता है तो लेने खुद जाता है । फिर उस कुछ को वापस रखने खुद जाता है। अब इतना बड़ा साहब, घर का मालिक, कोई रसद पानी निकालने के लिए तो बेसमेंट में उतरेगा नहीं !"
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