"उसको चौकस करने के लिए, डिलीवरी के काबिल बनाने के लिये टेम मांगता है । "
"कितना ?"
"चार-पांच घंटे का ।"
"कोई वान्दा नहीं । मैं बारह बजे गाड़ी लेने आएगा । पेंट वाले को बोल के रखो कि मेरा इंतजार करे।"
"क्या ! रंग-रोगन भी रात को ?"
"हां । टेम का तोड़ा है ।"
"पण अपनी रात भी तो खोटी करेगा ?"
"करेगा ।"
“जो साथ है, उसका भी तो ख्याल कर ।"
"बाप, वो मेरे साथ है न ?"
"मैं समझ गया । ठीक है । जैसा तू चाहता है, वैसा होगा।"
"शुक्रिया । पेंट वाले का पता बोलो ।”
छत्रपति ने न सिर्फ पता बोला, बल्कि उसे अपने गैराज से वहां तक पहुंचने का रास्ता भी समझाया ।
"बढिया ।" - जीतसिंह उठता हुआ बोला- "बारह बजे आता हूं।"
"जीते ! एक खास बात भूल गया ।"
"क्या ?"
"रोकड़ा ।"
जीतसिंह ने उसे सौ-सौ के नोटों की एक गड्डी सौंपी और बोला- "बाकी डिलीवरी पर । "
"पण, सिर्फ दस हजार...'
"बाकी डिलीवरी पर ।"
"ठीक है । तू यार है इसलिए ठीक है । "
"गाड़ी के कागजात ?"
"एकदम चौकस मिलेंगे। अलबत्ता रजिस्ट्रेशन कर्नाटक का होगा।”
“कोई वान्दा नहीं । कागज चौकस होने चाहिएं ।"
“होंगे।”
जीतसिंह उसका अभिवादन करके वहां से बाहर निकला|
छोकरा - रमुलू - उसे अपनी पुरानी जगह पर बैठा मिला लेकिन उसके सामने स्टूल पर रखा टेपरिकार्डर खामोश था ।
जीतसिंह ने हाथ बढाकर टेपरिकार्डर ऑन कर दिया और उसकी तरफ देखकर हंसा ।
वो भी हंसा । जवाब में कुछ क्षण छोकरे की त्योरी चढी रही, फिर
जीतसिंह बाहर सड़क पर पहुंचा और कार में सुकन्या के पहलू में सवार हो गया ।
“क्या हुआ ?" - सुकन्या स्त्रीसुलभ उत्सकता से बोली ।
"हर बात की रिपोर्ट तुम्हें जारी करना जरूरी है ?" जीतसिंह भुनभुनाया ।
"तुम भूल रहे हो कि जिस काम के लिए सब कुछ हो रहा है, उसमें मैं भी शरीक हूं। इसलिए मुझे हक है हर बात जानने का ।"
"गाड़ी का सौदा हो गया है । एक लाख में । रंग रोगन के दस हजार अलग । आधी रात को मिलेगी । पेंट वाले के पास गाड़ी हमें ले के जाना होगा । वो कितना टेम लगाएगा, मालूम नहीं । और कुछ ?"
"पेंट वाला क्या करेगा ?"
"पेंट करेगा और क्या करेगा ? उसको उस एम्बुलेंस जैसी बनाएगा जिसकी कि तुमने तसवीरें खींची थीं । "
"गांधी हस्पताल, पूना भी लिख देगा ?"
"हां"
"गाड़ी देखकर किसी को हैरानी नहीं होगी कि पूना के हस्पताल की एम्बुलैंस वहां से ढाई सौ किलोमीटर दूर कल्याण में क्या कर रही थी ?"
जीतसिंह सकपकाया ।
"किसी पुलिसिए ने पूछताछ के लिए गाड़ी को रोक लिया तो क्या जवाब दोगे ?"
"जब से मिली हो" - जीतसिंह धीरे से बोला - "पहली अक्ल की बात की है तुमने ।”
"बात करने कहां देते हो ?"
जीतसिंह ने इंजन स्टार्ट किया ।
"क्या करोगे इस बाबत ?" - सुकन्या बोली ।
"सोचेंगे । अभी टाइम है । "
सुकन्या फिर न बोली ।
आधी रात को छत्रपति मोटर वर्क्स के प्लाट में जो सीमित कृत्रिम प्रकाश था वो या ऑफिस वाले हिस्से में था या पिछवाडे के एक शैड में था ।
उस बार गाड़ी को बाहर खड़ी करने की जगह जीतसिंह उसे भीतर ले गया। उसने गाड़ी को ऑफिस के सामने खड़ा किया और हार्न बजाया ।
ऑफिस का दरवाजा खुला और ऊंघता-सा रमुलू बाहर निकला । जीतसिंह ने हैडलाइट्स ऑफ कीं, भीतर की बत्ती जलाई तो छोकरे ने उसे पहचाना । उसने उसे शैड में चलने का इशारा किया ।
जीतसिंह ने दोबारा हैडलाइट्स ऑन की और गाड़ी को ऑफिस के पहलू से घुमाकर शैड में पहुंचा। के
वहां उनकी एम्बुलैंस खड़ी थी ।
उसने एम्बैसेडर को ऐसी पोजीशन में खड़ा किया कि उसकी हैडलाइट्स की रोशनी सीधी उस मैटाडोर पर पड़ी जिसकी बाडी में जरूरी फेरबदल करके उसे एम्बुलैंस की सूरत दे दी गई हुई थी। हैडलाइट्स जलती छोड़कर वो कार से बाहर निकला ।
छोकरा उससे पहले मैटाडोर के करीब पहुंचा हुआ था । जीतसिंह करीब पहुंचा तो उसने उसे चाबियां थमा दीं ।
जीतसिंह मैटाडोर की ड्राइविंग सीट पर सवार हुआ । उसने इग्नीशन ऑन किया तो इंजन तत्काल बोला । ऑफ करके फिर ऑन किया तो भी पूर्ववत् तत्काल बोला । एक्सीलेटर दिया तो वो गरजा । उसने उसकी हैडलाइट्स ट्राई की, नीचे उतरकर देखा कि टेललाइट्स जल रही थीं या नहीं और फिर वापस उसमें सवार होकर उसे गियर में डाला । मैटाडोर को वहां से निकालकर वो बाहर सड़क पर ले गया जहां कि उसने सारे गियर ट्राई किए। एक जगह गाड़ी को खड़ा करके उसने बैटरी चैक की तो पाया कि वो नई थी । टायर बैटरी की तरह नए तो नहीं थे, लेकिन घिसे हुए भी नहीं थे ।
यानी कि छत्रपति ने दोस्ती की लाज रखी थी, उसने उसे किसी लिहाज से भी मुर्गी बनाने की कोशिश नहीं की थी।
वो वापस लौटा ।
"छत्रपति कहां है ?" - उसने छोकरे से पूछा ।
"नहीं है ।" - जवाब मिला ।
"वो तो मुझे दिखाई दे रहा है लेकिन कहां है ?"
"घर पर | सोता है।"
“पैसा उसे घर जा के जगा के देना है ?"
"मेरे को देना है ।”
“तू संभाल लेगा ?"
"हां।" - उसके स्वर में गर्व का पुट आ गया ।
"गाड़ी के कागज कहां हैं ?"
"गाड़ी में | सामने, खाने में । "
उसने कागजात भी चैक किए और फिर छोकरे को नब्बे हजार रुपए सौंपे।
“गिन ।" - वो बोला ।
छोकरे ने इन्कार में सिर हिलाया ।
"क्या ?"
"मामू नाराज हो जाएगा । बोला तुम उसके खास ।”
'ओह ! यानी कि पीठ पीछे गिनेगा ।"
वो खामोश रहा ।
"ठीक है। मामू को मेरी नमस्ते बोलना । शुक्रिया बोलना।”
उसने सहमति में सिर हिलाया ।
मैटाडोर और एम्बैसेडर आगे पीछे चलाते जीतसिंह सुकन्या वहां से रुख्सत हुए ।
पौने एक बजे के की वर्कशॉप पर पहुंचे । बाद बजे के बाद वो छत्रपति के बताए रंग वाले
वहां उनका आगमन अपेक्षित था, जिसके सबूत के तत्काल एक व्यक्ति मैडाडोर के पास पहुंचा ।
जीतसिंह मैटाडोर से बाहर निकला और बोला "छत्रपति ने भेजा । "
"मालूम ।" - वो व्यक्ति बोला- "फुल लेबर तुम्हेरे ही इन्तजार में बैठेला है, बाप । "
"बढिया ।"
"मैं साठे ।"
"बद्री ।"
"वो एम्बैसेडर तुम्हारे साथ है ?"
"हां"
"बत्तियां बंद कराओ।"
जीतसिंह परे खड़ी एम्बैसेडर तक गया और उसकी बत्तियां बुलवाकर वापस लौटा ।
“अब काम बोलो ।" - साठे बोला ।
"मैटाडोर की बॉडी को अक्सर वाइट पेंट करके एम्बुलैंस का माफिक बनाना है । ऐसा ।”
उसने उसे पोलेरायड तसवीरें सौंपी।
"मैं कारीगर को बुलाता हूं । तागड़े !"
लुंगी और बनियान पहने एक मराठा वहां पहुंचा।
साठे ने आगे तसवीरें तागड़े को सौंप दीं ।
तागड़े ने तसवीरों पर निगाह डाली, मैटाडोर का मुआयना किया, तसवीरों पर फिर निगाह डाली और बोला- "हो जाएगा ।"
"कब तक ?"
"कल इसी वक्त तक "
"क्या !"
"पेंट स्प्रे से होगा । लिखाई बुरुश से होगी । पेंट सूखेगा तो लिखाई होगी। फिर लिखाई सूखेगी ।"
"लिखाई न करनी हो तो ?"
"तो कल शाम तक नक्की ।"
"लिखाई कौन करेगा ?"
"आर्टिस्ट | दूसरा भीडू।"
"कल शाम तक ठीक है । "
"लिखाई ?”
"वो मैं साठे को बोलता हूं।"
साठे ने सहमति में सिर हिलाया । फिर उसके इशारे पर तागड़े मैटाडोर में सवार हुआ और उसे वर्कशॉप के भीतर ले गया ।
"पैसा ?" - पीछे साठे बोला ।
“देगा। काम होगा तो देगा ।"
"बारह ।"
"दस में बात हो चुकी है।"
"कौन बोला ?”
"छत्रपति बोला ।”
"पण..."
"पण नक्को । नहीं मंजूर तो मैटाडोर वापस मंगाओ
"लिखाई का क्या करोगे ?"
"मैं क्या करूंगा, तुम्हारा वो दूसरा भीडू ही करेगा जो कि आर्टिस्ट है ।"
"फिर शाम तक कैसे..."
“लिखाई के लिए वो मेरे साथ पूना चलेगा ।"
"क्या !"
"मेरे साथ मैटाडोर में। वापसी का भाड़ा भी देगा ।" "लेकिन लिखाई की फीस...'
"दस हजार में शामिल है । छत्रपति साफ बोला ।” "तब शामिल है जब वो काम इधरीच हो । पूना जाने कौन बोला ?"
तो बोलो ।” “मैं बोला । अब बोला । उसकी कोई एक्स्ट्रा फीस है
"दो हजार ।"
“फीस तुम्हारे आर्टिस्ट छोकरे की है। उसमें से भी कमाई करने की जुगत न करो । समझे !"
"पन्द्रह सौ।"
"पांच सौ ।”
"हजार । वरना नक्की करो ।"
"ठीक है । हजार । अपने रंग-रोगन के साथ आर्टिस्ट छोकरा मेरे साथ जाएगा।"
"कोई वान्दा नहीं ।"
“उससे पूछ तो लो ।”
"जरूरत नहीं । वो जाएगा।"
"ठीक है । कल जब काम हो जाए तो गाड़ी खुद लेके मेरे होटल में आना । अपने आर्टिस्ट भीडू के साथ । मेरे को फौरन पूना के लिए रवाना होने का है।"
"होटल का नाम बोलो ।"
जीतसिंह ने बोला । कमरा नम्बर भी बोला ।
फिर वो उससे विदा लेकर वापस एम्बैसेडर में ड्राइविंग सीट पर बैठी सुकन्या के पहलू में जा सवार हुआ । सुकन्या ने इंजन स्टार्ट किया और कार को सड़क पर डाल दिया ।
"क्या हुआ ?" - फिर वो बोली ।
"गाड़ी कल शाम को वापस मिलेगी ।"
“गांधी हस्पताल लिखा होने के बारे में क्या सोचा ?"
"वो नहीं लिखा होगा । उस बाबत जो होगा, पूना में होगा।"
"क्या मतलब ?"
जीतसिंह ने मतलब समझाया ।
"वैरी गुड ।" - सुकन्या सष्णुष्टिपूर्ण स्वर में बोली ।
“अब यहां तुम्हारी कोई जरूरत नहीं है। रात को गाड़ी चलाने की दहशत न हो तो भले ही अभी पूना के लिए रवाना हो जाओ।"
“अभी ?" - वो बड़े अर्थपूर्ण स्वर में बोली ।
जीतसिंह ने उत्तर न दिया, जबकि उसने उसका मन्तव्य बाखूबी समझा था ।
"समझ लो" - वो फिर वैसे ही स्वर में बोली- "मुझे दहशत है । "
"रात को गाड़ी चलाने की ?"
"तुम्हारे हाथों हड्डी पसली एक कराने की । लेकिन रात को गाड़ी चलाने के मुकाबले में मुझे ये दहशत कबूल है ।"
"तुमने ऐसे शख्स का क्या विलायती नाम बताया था जो दूसरे को यातना देकर सुख पाता है ?"
"सैडिस्ट ।"
"कोई ऐसा शख्स नहीं होता जो यातना सहकर सुख पाता हो ?"
"होता है । "
" उसे क्या कहते हैं ?"
"मैसोकिस्ट ।"
"लगता है तुम वो हो ।"
"हो सकता है । ठीक से नहीं मालूम । क्योंकि पहले सैडिस्ट से वास्ता नहीं पड़ा था। बहरहाल आज मालूम हो जाएगा | नहीं ?"
जीतसिंह ने उत्तर न दिया ।
" मैं सुबह सवेरे चली जाऊंगी।" - वो आग्रहपूर्ण में बोली।
“मुझे आराम की जरूरत है ।"
"मेरे जाने के बाद शाम तक आराम ही आराम करना । अब हां बोलो ।"
जीतसिंह के जेहन पर सुष्मिता का अक्स उभरा । रात की उस घड़ी क्या कर रही होगी वो ! वही जो शादीशुदा औरतें करती हैं । अपने खाविंद के पहलू में सोती हैं । वो भी पुरसूमल चंगुलानी के पहलू में सो रही होगी । सो रही होगी या वो बुड्ढा उसकी छाती पर चढ़ा उसे रौंद रहा होगा और वो पतिधर्म निभा रही होगी, अपने आपको धन्य मानकर खुशी से किलकारियां भर रही होगी। कितनी फीस मुनासिब मानी जा सकती है ऐसी चिकनी औरत की एक रात की ! उस कीमत से पुरसूमल की सारी दौलत को तकसीम किया जाता तो यूं पुरसूमल उसकी कितनी रातों का मालिक बन सका होता अगरचे कि उसने उसके साथ शादी न की होती ! लेकिन अब तो सब कुछ फ्री था । सब कुछ फ्री था पति के वैवाहिक अधिकारों के तहत ।
"मैं खरीदूंगा।" - वो होंठों में बुदबुदाया- "मैं खरीद के रहूंगा । मैं पुरसूमल से ज्यादा कीमत अदा करूंगा। मैं अपनी पुरसूमल से बड़ी औकात बनाऊंगा ।"
"बद्री !" - सुकन्या आशंकित भाव से बोली ।
जीतसिंह अपने ख्यालों से उबरा, उसने सिर उठाकर सुकन्या की तरफ देखा ।
"अभी क्या बड़बड़ा रहे थे ?"
"कुछ नहीं ।" - जीतसिंह अनमने भाव से बोला ।
"लेकिन कुछ तो..."
"बोला न कुछ नहीं।" - फिर जीतसिंह का दायां हाथ उसकी जांघ पर सरक गया - "ठीक है। सुबह जाना ।"
"अब बोले सुर में ।" - सुकन्या सन्तुष्ट भाव से बोली । फिर तत्काल उसने कार की रफ्तार बढ़ा दी ।
*****
बुधवार: दस दिसम्बर
सुबह पांच बजे जीतसिंह एम्बुलैंस के साथ पूना में बिलथरे के घर पहुंचा।
साठे के वादे के मुताबिक मैटाडोर अगले रोज शाम को डिलीवर नहीं हो सकी थी । वजह उसने बिजली का न होना बताई थी जिसके बिना कि स्प्रे मशीन नहीं चल सकती थी । फिर ऐन मौके पर उसका आर्टिस्ट छोकरा, जिसका नाम कदम था, पूना जाने में हीलहुज्जत करने लगा था । उन तमाम बाधाओं को पार करने में कल्याण में ही रात के ग्यारह बज गये थे। उस लिहाज से गनीमत ही थी कि वो सुबह पांच बजे भी पूना पहुंच गया था ।
उसने मैटाडोर को कम्पाउंड में दाखिल किया और टायरों से उसकी घास को रौंदता उसे पिछवाड़े में ले आया जहां कि एक ढका हुआ सायबान था। उसने मैटाडोर को सायबान के नीचे खड़ा किया और ऊंघते कदम को टहोका।
कदम ने हड़बड़ाकर उसकी तरफ देखा ।
"पहुंच गए।" - जीतसिंह बोला- "चौकस हो ।”
कदम ने सहमति में सिर हिलाया ।
जीतसिंह मैटाडोर से बाहर निकल गया ।
मैटाडोर की आवाज से जागा बिलथरे भी तब तक वहां पहुंच गया था ।
"सब ठीक हो गया ?" - उसने निरर्थक-सा प्रश्न किया ।
"हां ।" - जीतसिंह बोला- "ये कदम है । कल्याण से साथ आया है । आर्टिस्ट है। साइन पेंटर है । अपना काम करके वापस लौट जाएगा। सुकन्या ने बताया होगा ।"
"बताया था । आइडिया बढिया था । "
"वो कहां है ?"
"कौन ?"
“सुकन्या । और कौन ?"
"भीतर है।" - वो एक क्षण ठिठका और फिर बोला “सो रही है । "
"कल कब पहुंची ?"
"दोपहर के करीब पहुंच गई थी । आओ भीतर चलें"
"तुम" - जीतसिंह कदम की ओर घूमा "कोई टायलेट वगैरह जाना चाहते हो ?"
कदम ने इन्कार में सिर हिलाया ।
" तो शुरू करो अपना काम । जितनी जल्दी निपटोगे, उतनी ही जल्दी वापस लौटोगे ।”
"अंधेरा है ।"
“अभी रोशनी हो जाएगी। तब तक अपनी रंग रोगन की तैयारी तो कर |"
कदम ने सहमति में सिर हिलाया ।
जीतसिंह बिलथरे के साव इमारत के भीतर पहुंच गया|
"क्या खबर है ?" - वो बोला ।
"ठीक खबर है । फर्श की प्रोग्रेस ठीक है। कार्लो भी मेड के साथ किसी मुकाम पर पहुंच गया मालूम होता है । तफसील से सब कुछ वो खुद बताएगा ।"
"और ?"
“वो छोकरा तुम्हारे पीछे तुम्हारे होटल पहुंच गया था।"
"छोकरा ? कौन छोकरा ?"
"सर्कस वाला । मगनया । "
"होटल पहुंच गया था ? मेरे पीछे ?”
"हां"
"उसे तो नहीं मालूम था कि मैं पूना में कहां पाया जाता था ?"
"मालूम था । तभी तो होटल में पहुंच गया । जाकर तुम्हारे कमरे का दरवाजा खटखटाने लगा । नवलानी ने बड़ी मुश्किल से उसे वहां से चलता किया था । कम्बख्त टलता ही नहीं था । कहता था तुमसे मिल के जाएगा ।”
"क्यों ? क्यों मिल के जाएगा ?"
"वजह नहीं बताता था । बोलता था तुम्हीं से बोलेगा|"
"कमाल है !"
"पैसा कितना खर्च हुआ ?"
जीतसिंह ने घूरकर उसे देखा।
"मेरा मतलब है" - वो हड़बड़ाकर बोला- "ज्यास्ती खर्च हुआ हो तो मैं देता हूं।"
“नौ हजार रुपये बचे हैं।" - जीतसिंह उसे बकाया रकम सौंपता हुआ बोला ।
बिलथरे ने चैन की सांस ली । जरूर उसे यही अन्देशा सता रहा था कि वो उससे और पैसा मांग सकता था ।
"मैटाडोर आज ही गांधी हस्पताल की एम्बुलैंस की शक्ल अख्तियार कर लेगी।" - जीतसिंह बोला - "उसका यूं ही पीछे सायबान में खड़े रहना ठीक नहीं होगा।"
"तो ?"
“उसको ढकने का कोई इंतजाम करना होगा । बाहर घास में जो टायरों के निशान बने हैं, उन्हें भी मिटाना होगा ।"
“वो सब मैं कर लूंगा ।"
"सुकन्या यहीं रहती है ?"
"क्या ?"
"मैंने पूछा है सुकन्या यहीं रहती है ? तुम्हारे साथ ? हमेशा ? यही घर है उसका भी ?"
"ओह ! नहीं, वो यहां नहीं रहती। बस, आजकल ही यहां है ।”
"आजकल भी क्यों यहां है ?"
"सहूलियत के लिए। उसका अपना घर यहां से बहुत दूर है।"
"कहां ?"
"नारायणगांव में ।"
"वो कहां हुआ ?"
"इस जगह की तरह नैशनल हाइवे नम्बर पचास पर ही है। बाहर नासिक की तरफ जाती सड़क पर कोई चालीस किलोमीटर आगे।"
"वो वहां रहती है ? नारायणराव में ?"
"हां । वहां उसके हसबैंड का छोड़ा हुआ एक छोटा-सा फ्लैट है ।"
"हूं। अब जगाओ उसे ।"
"किसलिए ?"
"मुझे होटल छोड़कर आए और किसलिए? इतनी सवेरे मुझे यहां से क्या कोई सवारी मिलेगी ?"
"वो जगाये जाने से चिढती है । "
“जगाओ।"
"तुम्हें मैं होटल छोड़ आऊंगा ।”
"पीछे वो काम कौन करेगा, जो मैंने अभी तुम्हें बताए
"कोई चाय-वाय पियोगे ?"
"पी लूंगा, लेकिन पहले..."
"मैं अभी आता हूं।"
वो यूं जल्दी से वहां से विदा हुआ जैसे जीतसिंह के किसी नए सवाल से बचना चाहता हो ।
जीतसिंह एक सोफाचेयर पर पसर गया और सिगरेट सुलगा कर उसके कश लगाने लगा ।
पांच मिनट बाद एक ट्रे में चाय के तीन गिलास रखे बिलथरे वापस लौटा। उसने ट्रे मेज पर रखी, उसमें से एक गिलास उठाया और बोला- "कदम को दे के आता हूं।"
जीतसिंह ने सहमति में सिर हिलाया ।
बिलथरे चला गया तो उसने सिगरेट फेंक दिया और एक गिलास उठाकर चाय चुसकने लगा ।
बिलथरे वापस लौटा। उसने ट्रे पर पड़ा बाकी का गिलास उठा लिया और जीतसिंह के सामने बैठ गया ।
चाय में उसकी कोई रुचि नहीं मालूम होती थी । जीतसिंह ने नोट किया कि वो बड़े नर्वस भाव से पहलू बदल रहा था, बार बार कुछ कहने की नीयत से मुंह खोलता था और फिर बन्द कर लेता था ।
"कुछ कहना चाहते हो ?" - जीतसिंह बोला ।
"चाहता तो हूं ।" - वो धीरे से बोला ।
“तो कह लो । क्या वान्दा है ?"
"वो... वो... सुकन्या ..."
"क्या हुआ उसे ? नहीं उठती ?"
" हुआ कुछ नहीं । मैं उसकी बाबत कुछ कहना चाहता था।”
"क्या ?"
"तुम उसकी फिराक में तो नहीं हो ?"
"फिराक में क्या मतलब ?"
"दिल तो नहीं आ गया तुम्हारा उस पर ? शादी-वादी के या किसी और चक्कर में तो नहीं हो ?"
"क्यों पूछ रहे हो ?"
"बताओ । और बात को टालो नहीं ।"
"हूं भी तो तुम्हें क्या ?”
"मुझे है ।"
"क्या ?"
"मैं उससे मुहव्यत करता हूं।"
जीतसिंह हंसा ।
"हंसने की बात नहीं है ।" - वो व्यग्र भाव से बोला - "मैं दिल से उसे चाहता हूं।"
"तो ?"
"बद्री, जब ये सिलसिला खत्म हो जाएगा तो तुम तो अपनी राह लगोगे । तुम्हारे लिए तो ये दो घड़ी का साथ है । एक बार अपने घर लौट जाने के बाद तुम्हें तो ध्यान भी नहीं आएगा कि कभी कोई सुकन्या कहीं तुम्हें मिली थी । मेरे साथ तो ऐसा नहीं है । "
"तुम्हारे साथ कैसा है ?"
"मैं तो उसे हमेशा के लिए अपना बनाना चाहता हूं।"
"तो बना लो । किसने रोका है ?"
" रोका तो किसी से नहीं है, लेकिन... लेकिन..."
"क्या लेकिन ?"
"मुझे ऐसा लगता है जैसे तुमने आकर मेरे सामने एक कम्पीटीशन खड़ा कर दिया है। एक ऐसा कम्पीटीशन जिसमें मेरा जीत पाना मुश्किल है ।"
जीतसिंह फिर हंसा ।
"मैं फिर कहता हूं ये हंसने की बात नहीं है । ये एक गम्भीर मसला है । तुम्हारे लिए न सही लेकिन मेरे लिए है।"
"असल में तुम चाहते क्या हो ?"
"असल में मैं ये चाहता हूं कि... बद्रीनाथ, मैं तुमसे ये आश्वासन चाहता हूं कि सुकन्या के लिए तुम्हारे मन में सीरियस कुछ नहीं है । वो एक फैंसी है, एक चलताऊ दिलचस्पी है जो किसी भी मर्द की किसी भी औरत में हो सकती है। कोई मिला, थोडी देर हंसी ठट्ठा हुआ, फिर वो अपनी राह तुम अपनी राह । कहानी खत्म | "
जीतसिंह खामोश रहा, कई क्षण खामोश रहा । उस दौरान बिलथरे बड़े व्यग्र भाव से उसे देखता रहा । तब तक उसने अपने चाय के गिलास में से एक चुस्की भी नहीं भरी थी ।
"मेरी सुकन्या में कोई दिलचस्पी नहीं।" - आखिरकार जीतसिंह बोला ।
बिलथरे ने साफ चैन की सांस ली।
"मेरी औरत जात में ही कोई दिलचस्पी नहीं । सुकन्या एक खूबसूरत खिलौना है, जिसके साथ खेलने की ख्वाहिश किसी की भी हो सकती है। कोई फर्क है तो सिर्फ ये है कि मैं उस कम्बख्त बच्चे की तरह हूं जो खिलौने के साथ खेलने से ज्यादा आनन्द उसको तोड़ डालने में पाता है ।”
बिलथरे हड़बड़ाया । उसने सशंक भाव से जीतसिंह की तरफ देखा ।
"मेरी निगाह में औरत की कोई पर्सनैलिटी नहीं, उसका कोई वजूद नहीं, वो महज एक अदद है । सुकन्या महज एक जरिया है तुम्हें काबू में रखने का और अपने मौजूदा मुकाम तक पहुंचने का। वैसे ही जैसे तुम जरिया हो, नवलानी जरिया है, कार्लो जरिया है, मिर्ची जरिया है और वो छोकरा मगनया जरिया था जो पता नहीं क्यों मुझे ढूंढता फिर रहा है !"
" यानी कि सुकन्या से तुम्हारी कोई सीरियस इन्वोल्वमेंट नहीं ?"
"नहीं । तुमने ठीक कहा । ये सिलसिला खत्म होगा तो मैं अपनी राह लगूंगा।"
"अकेले ?"
"जाहिर है ।"
"सुकन्या के खयालात जुदा हो सकते हैं । "
"मुझे उसके खयालात से क्या लेना देना है ?"
" यानी कि अगर वो... वो तुम्हारे पीछे पड़ेगी तो..."
“खता खाएगी । पछताएगी कि उसने ऐसा खयाल भी क्यों किया ? या शायद बचेगी ही नहीं पछताने के लिए।"
तत्काल बिलथरे के चेहरे पर दहशत के भाव आए ।
"तुम्हारी तसल्ली, तुम्हारे इत्मीनान के लिए मैंने इतना कुछ कहा, लेकिन अगर इसमें से एक भी बात तुमने सुकन्या के कानों में डालने की कोशिश की तो मैं तुम्हारी लाश का पता नहीं लगने दूंगा।"
आखिरी शब्द जीतसिंह ने ऐसे हिंसक भाव से कहे कि बिलथरे के चेहरे का रंग उड़ गया ।
"म... मैं कुछ नहीं कहूंगा ।"
" मैंने जवाब नहीं मांगा। मैंने नहीं पूछा कि तुम कुछ कहोगे या नहीं कहोगे । तुम शौक से जो जी में आए कहना, लेकिन ऐसा अपने अंजाम से खबरदार होकर करना ।"
"म... मैं... मैं समझ गया ।"
"बढिया ।”
तभी सुकन्या ने वहां कदम रखा ।
बिलथरे हड़बड़ाया-सा वहां से रुख्सत हो गया ।
"इसे क्या हुआ ?" - सुकन्या बोली ।
जीतसिंह ने उत्तर न दिया ।
"मैं गाड़ी निकालती हूं । "
"ठीक है ।"
वो वहां से चली गई । कुछ क्षण बाद बाहर से हार्न की आवाज आई।
जीतसिंह वहां से बाहर निकलकर सड़क पर पहुचा और कार में सुकन्या के साथ सवार हो गया ।
"कहां चलूं ?" - सुकन्या बोली ।
"नारायणगांव ।" - जीतसिंह बोला ।
"कहां ?" - वो सकपकाकर बोली ।
"तुम्हारे घर ।"
"मालूम पड़ गया मैं कहां रहती हूं ?"
"हां । बिलथरे ने बताया ।”
"होटल में क्या खराबी हुई ?"
“मैं सारी रात का जागा हुआ हूं । वहां मेरे कमरे में जो काम हो रहा है, उसके होते वहां आराम मुमकिन नहीं ।”
"ओह !”
फिर उसने खामोशी से कार को आगे सड़क पर दौड़ाया ।
जीतसिंह ने आंखें बंद कर ली और अधलेटा सा सीट पर ढेर हो गया ।
कार के नैशनल हाइवे पर पहुंचने से भी पहले वो बेसुध सोया पड़ा था ।
*****
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