जीतसिंह सुकन्या के साथ कार में सवार हो गया । तत्काल सुकन्या ने कार को आगे सिनेमा की तरफ बढाया जिधर कि मगनया भागा था ।
आधा किलोमीटर आगे वो उन्हें एक बिजली के खम्बे से लगा खड़ा मिला । सुकन्या ने उसकी बगल में कार रोकी तो वो तत्काल कार की पिछली सीट पर सवार हो गया । सुकन्या ने कार आगे बढाई ।
"क्या देखा ?" - जीतसिंह बोला ।
"वही" - मगनया गंभीरता से बोला- "जो तुम दिखाना मांगता था।”
"पार निकल जाएगा ?"
"बड़े आराम से ।"
"रोशनदान का क्या होगा ?"
"रोशनदान दीवार के साथ नीचे लटक जाएगा । उसके नीचे की तरफ कब्जा है । जो चिटकनी लगी हुई है वो अब बाहर से भीतर हाथ डालकर खोली जा सकती है । "
" यानी कि कर लेगा काम ?”
"बड़े आराम से ।"
" और बाकी का काम भी ?"
"हां । बड़े आराम से ।"
"बढिया । अब तू कार से उतर और रात एक बजे वापस वहीं पहुंच जाना जहां से पर्स छीनकर भागा था। "
"बड़े आराम से।" - सुकन्या कार रोकती हुई विनोदपूर्ण स्वर में बोली ।
मगनया बड़े धूर्त भाव से मुस्कराया और फिर बोला - "बाकी का दो हजार रुपया मुझे काम होते ही मिल जाएगा न ?"
"हां । अब फूट ।”
मगनया कार से उतर गया ।
तत्काल कार आगे बढ़ गई ।
सवा एक बजे के करीब जीतसिंह, सुकन्या और नवलानी एम्बैसेडर पर मोदी कालोनी पहुंचे।
नवलानी उस वक्त एक पुलिस हवलदार की यूनीफार्म में था। उसे सावधानीवश हवलदार बना कर साथ लाया गया था । गुरुवार रात की ये बात जीतसिंह भूला नहीं था कि उसे चैनल गेट की डुप्लीकेट चाबी तैयार करने में अपेक्षा से ज्यादा टाइम लग गया था । ऐसा आज भी हो सकता था । चैनल गेट की चाबी की ट्राई तो अगले रोज भी की जा सकती वी लेकिन जो कुछ आज होने वाला था, उसके लिए दूसरा मौका नहीं मिलने वाला था । इसलिए वो सुकन्या और नवलानी को समझाकर लाया था कि कैसे ऊपर देर हो जाने की सूरत में उन्होंने वाचमैन को सड़क पर अटकाकर रखना था ।
नवलानी बहुत हलकान था । उसने दिन भर होटल में फर्श खोदा था और अब इतनी रात गए वहां मौजूद था । बहरहाल अपनी पतली हालत का इजहार वो नहीं कर सकता था क्योंकि उसे अन्देशा था कि बद्री उस पर कहीं फिर ये इलजाम न लगाने लगता कि वो एक्स्ट्रा पैसेंजर था।
यशवन्त नगर से हासिल सांचों की मदद से जीतसिंह ने वॉल्ट की पहली डुप्लीकेट चाबी तैयार कर ली थी जिससे कि हर कोई खुश था । अब हर किसी को कामयाबी पहले से कहीं ज्यादा करीब दिखाई दे रही थी । अब हर किसी के मन में जीतसिंह के प्रति सम्मान बढ गया था । अलबत्ता बिलथरे मन ही मन इस बात पर कुढता रहा था कि शिवारामन को फिट करने की प्रक्रिया में जीतसिंह ने इकत्तीस हजार रुपये की कमाई कर ली थी। उसकी निगाह में वो रकम फाइनांसार को- यानी कि उसे सौंपी जानी चाहिए थी लेकिन ऐसी कोई बात जुबान पर लाने की उसकी मजाल नहीं हुई थी । वैसे भी अपने घर की बेसमेंट में उसने जब जीतसिंह को चाबी बनाते देखा था तो तभी उसे अहसास हो गया था कि उसका काम कितना बारीक था, कितना पेचीदा था, कितना अहम था । उस बात ने भी रुपयों की बाबत उसे खामोश रहने के लिए प्रेरित किया था ।
मगनया कार के करीब पहुंचा। कार में एक हवलदार को मौजूद पाकर वो हकबकाया । उसने व्याकुल भाव से जीतसिंह की तरफ देखा ।
"नकली है।" - जीतसिंह जल्दी से बोला - "अपना आदमी है।"
"ओह !" - मगनया बोला- "मैं तो डर ही गया था । "
"डरने की कोई बात नहीं । मैं तेरे साथ हूं न ? मेरे होते तेरे को कुछ नहीं होने वाला ।”
"थैंक्यू बोलता है, बाप ।”
"अब तैयार ?"
"हां । एकदम | "
ठीक डेढ बजे मैट्रो के ऑफिस में ऊपर सीढियों का चैनल गेट खडका, फिर सीढियों पर पड़ते कदमों की आवाज हुई और फिर वाचमैन बाहर सड़क पर प्रकट हुआ । उसने एक उड़ती निगाह सड़क पर बाएं डाली और फिर दाएं घूमकर रेस्टोरेंट की दिशा में बढ़ गया ।
उस घड़ी सड़क बिल्कुल सुनसान थी।
जीतसिंह कार से बाहर निकला और मगनया के साथ सीढियों की तरफ लपका ।
दबे पांव आगे पीछे सीढियां चढते वो ऊपर पहुंचे ।
जीतसिंह ने डुप्लीकेट चाबी से चैनल गेट पर लगा दरवाजा खोला और उसे इंच इंच करके इतना सरकाया कि वो उससे पार निकल पाता । फिर उकडूं होकर वो छज्जे पर पहुंचा ।
वैसे ही उसके पीछे मगनया छज्जे पर दाखिल हुआ ।
दो सौ वाट के बल्ब की रोशनी उस घड़ी छज्जे पर चकाचौंध करती मालूम हो रही थी ।
कोहनियों और घुटनों के बल आगे सरकते वो मोड़ काट कर रोशनदान के नीचे पहुंचे ।
वहां मामूली बल्ब की रोशनी थी और सड़क पर से देख लिए जाने का अंदेशा भी नहीं था । जीतसिंह रोशनदान के नीचे खड़ा हुआ । उसके इशारे पर बन्दर की सी फुर्ती से मगनया उसके कन्धे पर चढ गया । उसने टूटे शीशे से भीतर हाथ डालकर चिटकनी खोली तो रोशनदान का फ्रेम नीचे लटक गया । फिर वो रोशनदान के बीचोबीच लगी लोहे की सलाख को पकड़कर लटक गया और एक नट की तरह ऊपर को उठा । उसने अपना सिर रोशनदान से भीतर डाला तो जीतसिंह ने उसके पैर पकड़कर उसके शरीर को ऊपर को हूला । कुछ क्षण बाद उसके पैरों से जीतसिंह की पकड़ हट गई और वो रोशनदान में आधा बाहर और आधा भीतर झूलता दिखाई देने लगा ।
धडकता दिल लिए जीतसिंह अवाक् उसको देखता रहा।
उसका सारा शरीर रोशनदान में समा गया और वो दिखाई देना बन्द हो गया तो जीतसिंह वापस लौटा । मोड़ से आगे पूर्ववत् कोहनियों और घुटनों के बल चलता वो गार्डों के वेटिंग रूम के बाएं दरवाजे पर पहुंचा ।
सांस रोके वो प्रतीक्षा करने लगा ।
एक मिनट बाद उसके कानों में उस दरवाजे की चिटकनी भीतर से सरकाए जाने की आवाज पड़ी । फिर दरवाजा हौले-हौले चौखट से अलग होने लगा ।
जीतसिंह ने उसे अपनी तरफ से धक्का देकर इतना खोला कि वो भीतर दाखिल हो पाता । तत्काल वो भीतर
सरक गया और उसने अपने पीछे दरवाजा बन्द कर लिया।
उसने टार्च निकालकर जलाई तो उसे अपने सामने मगनया दांत निकालता खड़ा मिला ।
“शाबाश !" - जीतसिंह बोला ।
वो खामोश हंसी हंसा |
दोनों मैनेजर के कक्ष के दरवाजे पर पहुंचे ।
दरवाजा खुला था और उसकी कुंडी की ब्रैकेट अपने दोनों पेचों समेत नीचे फर्श पर गिरी पड़ी थी ।
कुंडी में ताला नहीं था । वो वैसे ही बाहर से बन्द की गई थी ।
वो भीतर दाखिल हुए और की-बोर्ड पर पहुंचे । जीतसिंह ने टार्च मगनाया को पकड़ाई और औजार निकाल कर की-बोर्ड का ताला खोलने में जुट गया ।
ताला, जोकि शक्ल में मामूली था, उसकी अपेक्षा से कहीं ज्यादा देर में खुला।
फिर उसने टार्च खुद थाम ली और भीतर टंगी बेशुमार चाबियों में से वो चाबी तलाशने लगा जो कि शिवारामन से हासिल हुई चाबी जैसी थी । उस चाबी पर आखिरकार उसकी निगाह पड़ी तो उसने पाया कि उसके साथ एक टैग लगा हुआ था जिस पर साफ होटल ब्लू स्टार वॉल्ट लिखा हुआ था ।
यानी कि चाबी उस टैग से भी पहचानी जा सकती थी। यानी कि उसको पहचानने के लिए पहले कोई दूसरी चाबी हासिल होना जरूरी नहीं था ।
उसने चाबी को उसके स्थान से उतारा और जेब से मोम के आयताकार ब्लाक निकाले । उसने एक ब्लाक मगनया को पकड़ाया और दूसरे पर चाबी की छाप लेने लगा ।
टाइम का उसे बड़ा गहरा एहसास था । उसे लग रहा था कि टाइम उसकी पकड़ से बाहर सरका जा रहा था ।
शायद उसी वजह से उससे जल्दबाजी हुई और उसका नतीजा सामने आया ।
वो चाबी के दूसरे पहलू की छाप मोम के दूसरे ब्लाक पर ले रहा था तो वो टूटकर दो टुकड़े हो गया ।
सत्यानाश !
कोई अतिरिक्त ब्लाक वो साथ लाया नहीं था इसलिए उसने दो टुकड़ों को आपस में वापिस जोड़ा और मैनेजर की मेज पर पड़ा सैलोटेप उनके इर्द गिर्द लपेटने लगा ।
सुकन्या ने व्याकुल भाव से सीढियों की तरफ देखा और फिर दूर सड़क पर निगाह दौड़ाई ।
उसने घड़ी पर निगाह डाली तो पाया कि एक अड़तालीस हो चुके थे ।
"आ रहा है।" - नवलानी सस्पैंसभरे स्वर में बोला ।
"उतरो" - वो बोली- "पीछे आना ।"
नवलानी के उतरते ही उसने कार आगे बढ़ा दी ।
वाचमैन अभी मैट्रो के ऑफिस से पचास गज दूर था जब कि सुकन्या ने उसके सामने कार यूं रोकी कि उसको सीढियों का दहाना न दिखाई देता ।
वाचमैन हड़बड़ाया ।
"रास्ता भटक गई हूं।" - वो अनुनयपूर्ण स्वर में बोली "जरा मदद कीजिए । प्लीज । "
वाचमैन पहले तो आशंकित हुआ, फिर जब उसने देखा कि कार में सिर्फ एक निहायत खूबसूरत युवती थी तो वो आश्वस्त हुआ ।
"कहां जाना है ?" - वो बोला ।
“रेलवे स्टेशन | मेरे हसबैंड की गाड़ी लेट है। उन्हें लेने जा रही वी । रास्ता भटक गई ।"
"रेलवे स्टेशन जाना है न आपको ?"
"हां"
“तो इधर क्यों आई? घूमकर वापस जाइए और आगे..."
वाचमैन बड़ी बारीकी से उसे रेलवे स्टेशन का रास्ता समझाने लगा । सुकन्या जानबूझकर बीच बीच में सवाल करती रही ।
तभी कहीं से सीटी बजने की हल्की-सी आवाज आई सुकन्या की जान में जान आई ।
"थैंक्यू । थैंक्यू ।" - वो बोली- "आप बहुत अच्छे आदमी हैं। भगवान आपका भला करे ।”
"कोई बात नहीं ।” - वाचमैन बड़ी दयानतदारी से बोला ।
सुकन्या कार को बैक करने की कोशिश करने लगी ।
वाचमैन आगे बढ़ गया ।
सुकन्या ने कार को उलटा घुमाया और उसे सड़क पर आगे दौड़ाया ।
तब तक वाचमैन वापस मैट्रो की सीढियां चढ गया था
और कुछ क्षण बाद तेज रोशनी वाला बल्ब बुझ गया
सुकन्या ने कार वहां ले जाकर खड़ी की जहां नवलानी के साथ जीतसिंह और मगनया खड़े थे । तत्काल तीनों कार में सवार हो गए। सुकन्या ने मंथर गति से कार को आगे बढ़ा दिया ।
"क्या हुआ ?" - फिर वो बोली ।
"ठीक हुआ।" - जीतसिंह बोला ।
"ओह !" - सुकन्या ने चैन की मील लम्बी सांस ली "देर क्यों लगी ?" -
“ऐन वक्त पर मोम का ब्लाक टूट गया । मेरी गलती थी । मुझे सूझना चाहिए था कि ऐसा हो सकता था । मुझे एक्स्ट्रा ब्लाक लेकर आना चाहिए था । "
"लेकिन काम तो हो गया न ?"
"हां । हो तो गया जैसे तैसे ।”
“चाबी बन जाएगी न ?”
"उम्मीद तो पूरी है । आगे प्रभु की मर्जी ।"
"सब ठीक होगा।" - नवलानी आशापूर्ण स्वर में बोला ।
"पीछे सब कुछ ऐन पहले जैसा ही छोड़ा ?" - सुकन्या बोली ।
"हां ।" - जीतसिंह बोला- "रोशनदान को चौखट से लगाकर उसमें वापस चिटकनी भर दी। चाबी स्पिरिट से झाड़-पोंछ दी । की-बोर्ड के बक्से में वापस ताला लगा दिया और बीच के दरवाजे की कुंडी की ब्रैकेट उसके पेचों के जरिए यथास्थान फिट कर दी । "
"लेकिन" - मगनया उत्साह से बोला "वो बाहरला एक दरवाजा खुला रह गया जिसे मैंने भीतर से खोला था । "
जीतसिंह ने घूरकर उसे देखा ।
मगनया तत्काल खामोश हो गया और परे देखने लगा
“उस दरवाजे का खुला रह जाना" - जीतसिंह बोला - "चपरासी की लापरवाही का नतीजा माना जाएगा । जिस चपरासी ने पिछली रात बन्द किया था, अगर उसी ने आज सुबह दफ्तर खोला तो देख लेना वो खुले दरवाजे का किसी से जिक्र तक नहीं करेगा । बल्कि खुश होगा कि उसकी कल की कोताही सबसे पहले उसी की जानकारी में आई थी ।"
"गुड ।" - नवलानी बोला - "वैरी गुड ।”
"ये क्या हमारे साथ ही जाएगा ?" - सुकन्या मगनया की तरफ इशारा करती हुई बोली ।
“आया कैसे था मोदी कालोनी तक ?" - जीतसिंह ने पूछा।
“आटो पर ।" - मगनया बोला, साथ ही उसने जोड़ा - "अब नहीं मिलने का । मुझे सर्कस तक छोड़ के आओ।"
"ठीक है ।"
सुकन्या का सिर स्वयमेव ही सहमति में हिला ।
" और बाकी का पैसा ?" - मगनया बोला - " बोला मुझे काम होते ही मिल जाएगा । काम तो हो गया । अब क्या वान्दा है ?”
“कोई वान्दा नहीं ।"
जीतसिंह ने उसे दो हजार रुपये दिये ।
मगनया ने रुपये लेकर पतलून की जेब में रखे, लेकिन उसका हाथ फिर भी जीतसिंह की तरफ फैला रहा ।
“अब क्या है ?" - जीतसिंह सख्ती से बोला ।
“पचास रुपया ।" - मगनया बोला - "आटो का किराया।"
“ठहर जा, साले ।”
"दो न, बाप । खर्चा तो किया न ! तुम्हारे वास्ते ।”
जीतसिंह ने एक पचास का नोट निकालकर चपत की तरह उसके सिर पर मारा ।
कार खामोशी से सुनसान सड़क पर दौड़ती रही । सोमवार : आठ दिसम्बर
अगला दिन जीतसिंह ने कल्याण जाने के लिए चुना ।
सुबह तीन बजे कहीं जाकर वो बिस्तर के हवाले हो पाया था, इसलिए सुकन्या के साथ कार पर कल्याण के लिए रवाना होते होते पूना में ही उन्हें ग्यारह बज गए ।
बिलथरे से हासिल सवा लाख रुपये के साथ वे ढाई सौ किलोमीटर से ऊपर की ड्राइव पर रवाना हुए । रास्ते में केवल एक जगह - पनवल से पहले उन्होंने लंच के लिए ब्रेक किया । तकरीबन रास्ते गाड़ी जीतसिंह ने चलाई । -
आखिरकार चार बजे वो कल्याण पहुंचे जहां कि सबसे पहले उन्होंने एक होटल का रुख किया ।
वो होटल के एक कमरे में सैटल हो गए तो जीतसिंह बोला - “अब आगे फिलहाल तुम्हारा कोई काम नहीं । तुम यहां रैस्ट करो, मैं गाड़ी की टोह में जाता हूं।"
“मैं साथ चलूंगी ।" - वो बोली ।
"क्या ?"
"सारे रास्ते बोर किया, अब यहां भी अकेले बोर होना पड़ेगा, इसलिए । "
"मैंने बोर किया ?"
" और क्या ? पांच घंटे में पांच फिकरे नहीं निकाले जुबान से ।"
"तुम पिकनिक के लिए आई हो ?"
"समझा तो यही था लेकिन रास्ते में ही पता चल गया था कि कोई पिकनिक नहीं होने वाली थी । अब यकीन हो गया।”
जीतसिंह खामोश रहा ।
"मैंने नाहक साथ आने की पेशकश की । अच्छा होता बस या ट्रेन से तुम अकेले आते ।”
"यकीनन अच्छा होता लेकिन तुम्हारे उस... उस... जो कोई भी वो तुम्हारा है, को मेरा सवा लाख की रकम का एतबार कहां था ? उसने तुम्हें पिकनिक के लिए नहीं, मेरे पर निगाह रखने के लिए भेजा है। अपनी रकम की रखवाली के लिए भेजा है। "
"मैं क्या रखवाली कर सकती हूं रकम की ?"
"कर ही रही हो । रकम तुम्हारे पास है ।"
"जो तुम पांव से जूती निकालने जैसी आसानी से मेरे से छीन सकते हो ।”
"मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं होता तो यहां तक आना जरूरी नहीं था। मैं पूना से निकलते ही ये काम कर सकता था।"
"मुझे मालूम है तुम्हारा ऐसा कोई इरादा नहीं । मुझे क्या, सबको मालूम है । जिस मेहनत से तुमने वॉल्ट की दो चाबियां मुहैया की हैं, उसको निगाह में रखते हुए सवा लाख की मामूली रकम का लालच करना बीट पर गिरना होगा ।"
"हूं।"
“और तुमने ये भी गलत सोचा है कि तुम्हारे साथ आने के लिए मुझे बिलथरे ने उकसाया था ।”
जीतसिंह के माथे पर बल पड़े। उसने अपलक सुकन्या की तरफ देखा ।
"हकीकत ये है कि मुझे उसको राजी करना पड़ा था कि वो मुझे तुम्हारे साथ जाने दे।”
"क्यों ? सोचा था पिकनिक होगी ? जोकि नहीं हुई
"बिगड़ी बात संवारी भी जा सकती है ।"
"क्या मतलब ?"
"पिकनिक क्या अब नहीं हो सकती ?"
"अब ?"
"हां"
"कैसे ?"
"इधर आओ।"
जीतसिंह करीब आया तो सुकन्या ने एकाएक उसे बांहों में भर लिया और उसे लिये लिये पलंग पर ढेर हो गई ।
"तो ये है पिकनिक तुम्हारी निगाह में ?" - जीतसिंह बोला।
"हां ।" - वो बड़ी दिलेरी से बोली ।
"मैं वो ही शख्स हूं जिसे कि अभी कल तुम पशु करार देकर हटी हो । खुर मारने वाला सुअर कह के हटी हो ।”
“मुझे पशु पसन्द हैं।" - वह इठलाकर बोली - "या समझ लो कि अब पसन्द आने लगे हैं।"
" यानी कि अब तुम्हें रौंदा, नीचा, खसोटा, भंभोड़ा जाना पसन्द आने लगा है ?"
"हां"
" एक ही बार के तजुर्बे से ? "
"हां ।”
"अब ये अन्देशा नहीं कि मेरी दरिन्दगी का शिकार तुम मर जाओगी ?"
"मार डालो मुझे ।"
“अगर एक सैकंड में मुझे नहीं छोड़ेगी तो यही होगा ।" जीतसिंह के स्वर में ऐसा हिंसक भाव था कि सुकन्या ने घबराकर उसके जिस्म से अपनी पकड़ ढीली कर दी ।
जीतसिंह उठ खड़ा हुआ।
- "मैं इस खेल में पैसे की खातिर हूं" - वो बोला . "औरत की खातिर नहीं । तेरा भी अहम मकसद पैसा हासिल करना ही है । इसलिए अपने मकसद पर तवज्जो रख । पैसे पर तवज्जो रख जो खामखाह ही हाथ नहीं लग जाने वाला । बाकी बातें आनी जानी हैं | समझी ?"
उसने भयभीत भाव से सहमति में सिर हिलाया ।
"ये भी समझी ?"
"काम के वक्त काम । पिकनिक के वक्त पिकनिक |"
"हां ।”
"बढिया ।”
***
वो काफी बड़े प्लाट पर खड़ा एक गैराज था जिस पर छत्रपति मोटर वर्क्स का बोर्ड लगा हुआ था । गैराज का मालिक छत्रपति उसका परिचित था जो कि वहां कारों की मरम्मत के अलावा उनकी खरीद-फरोख्त का भी काम करता था । प्लाट के फ्रंट में एक सायबान था जिसके नीचे एक बड़ा-सा बरामदा था और छत्रपति का ऑफिस था । बरामदे में जगह-जगह पुराने टायरों के ढेर लगे हुए थे । वैसे एक ढेर की ओट में एक टायर पर ही लगभग छुपा बैठा एक छोकरा मौजूद था । उसके सामने स्टूल पर एक टेपरिकार्डर पड़ा था जोकि फुल वोल्यूम पर बज रहा था ।
सुकन्या फिर भी उसके साथ आई थी । और कुछ नहीं तो कार चलाने से बचोगे कहकर उसके साथ आई थी । उस घड़ी वो बाहर सड़क पर एम्बैसेडर में उसकी पैसेंजर सीट पर बैठी हुई थी ।
जीतसिंह छोकरे के करीब पहुंचा ।
छोकरे ने उसकी तरफ निगाह तक न उठाई ।
जीतसिंह ने उस टायर पर पांव की ठोकर जमाई जिस पर कि छोकरा बैठा हुआ था ।
तब छोकरे ने उसकी तरफ निगाह उठाई और यूं इशारा किया जैसे पूछ रहा हो कि वो क्या चाहता था ।
“छत्रपति !” - जीतसिंह बोला - "किधर है ?"
"क्या ?"
जीतसिंह ने हाथ बढाकर टेपरिकार्डर बन्द कर दिया ।
छोकरा, जो कि कोई सत्तरह या अट्ठारह साल का था, यूं तड़पकर सीधा हुआ जैसे जीतसिंह ने उसकी आक्सीजन बन्द कर दी हो ।
"टेपरिकार्डर को हाथ लगाने का नहीं है ।" - वो आंखें निकालता हुआ बोला और उसने उसे ऑन करने के लिए उसकी तरफ हाथ बढाया ।
"तेरे को भी ।" - जीतसिंह
"क्या मेरे को भी ?" - छोकरा हड़बड़ाया ।
"टेपरिकार्डर को हाथ लगाने का नहीं है ।"
"क्या !"
“वरना टेपरिकार्डर खलास । साथ में तू भी खलास । अब बोल, पहले किस का काम करू ? तेरा या टेपरिकार्डर का ?"
"क्या मांगता है, बाप ?" - छोकरा दबे स्वर में बोला ।
"हां । ये सुर ठीक है ।”
"क्या मांगता है ?"
“छत्रपति मांगता है । "
"वो नहीं है । "
"कहां नहीं है ?"
"यहां नहीं है ।”
"मेरे को दिखाई देता है यहां नहीं । जहां है वहां से ले आ।"
"वो अभी आ जाएगा थोड़ी देर में । "
"अभी बुला के ला ।"
"मैं ठीया छोड़ के नहीं जा सकता ।"
“एक । दो... "
छोकरा हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ । उसे नहीं मालूम था कि वो गिनती कहां तक चलने वाली थी, लेकिन जीतसिंह के तीन बोलने से पहले ही वो बोला- "भीतर जा के बैठो, बाप । मैं बुला के लाता है।"
"फौरन ।”
"अब्बी गया और अब्बी आया ।"
"बढिया ।"
जीतसिंह मैले कुचैले बेतरतीब ऑफिस में जाकर एक कुर्सी पर ढेर हो गया । उसने एक सिगरेट सुलगा लिया और प्रतीक्षा करने लगा ।
पांच मिनट बाद दरवाजा खुला और छत्रपति ने भीतर कदम रखा । वो कोई पचास साल का सूरत से ही बहुत काइयां लगने वाला मराठा था ।
"कैसा है बाप ?" - जीतसिंह जबरन मुस्कुराता हुआ बोला।
"जीतसिंह !" - छत्रपति बोला ।
"शुक्र है, पहचाना ।"
" अरे, अपनों को कोई भूलता है !" - छत्रपति मेज के पीछे की कुर्सी पर ढेर होता हुआ बोला । कुर्सी एक बार उसके वजन के नीचे चरमराई और फिर शांत हो गई - "कैसा है ?"
"ठीक ।"
"रमुलू मेरे को बोला गैराज में कोई बड़ा कड़क मवाली घुस आया था।"
"रमुलू वो छोकरा ?"
"वही । अक्खी दिहाड़ी टेपरिकार्डर बजाता है । फुल वोल्यूम पर बजाता है। कभी बन्द नहीं करता।"
" निकाल बाहर करो ऐसे टपोरी को ।"
"नहीं निकाल सकता । सगी बहन का लड़का है ।"
"ओह !"
"टेपरिकार्डर बन्द था इसलिए मेरे को भी यकीन गया कि कोई कड़क बड़ा बाप ही इधर पहुंचा था । तू भी कोई कम तो नहीं है ।"
"मैं क्या है, बाप ? मामूली आदमी है ।"
" "जीते, तेरे को इधर देखकर मुझे खुशी हुआ ।”
"अच्छा !"
"इधर मुम्बई की तमाम खबरें पहुंचती हैं। पपड़ी और ख्वाजा जेल में, मेरे को मालूम । देवरे का भी छापे में पढ़ा । मैं तो सोचा कि तेरा भी काम हो गया, सिर्फ खबर इधर तक न पहुंची ।”
"मैं सेफ है, बाप । तेरे सामने बैठेला है । "
“कैसा आया ? कुछ मांगता है ?"
"हां । तभी तो आया ।"
“बाहर जो काली एम्बैसेडर में बाई बैठी है वो तेरे साथ है ?"
"हां"
"बढिया बनी हुई है । भीतर बुलाना था ।”
"नहीं, उधर ही ठीक है । "
"जीते, छत्रपति के शौक दूसरे हैं। क्या भूल गया ?"
"बोला न, बाप । उधर ही ठीक है ।"
"ठीक है। ठीक है तो ठीक है । अब बोल, क्या मांगता है ?"
जीतसिंह ने अपनी जेब से पोलेरायड तस्वीरों का लिफाफा निकाला और उसमें से तसवीरें निकालकर छत्रपति के सामने फैलाकर रखी ।
"एम्बुलैंस !" - छत्रपति तसवीरों पर निगाह दौड़ाता हुआ बोला ।
"हां ।" - जीतसिंह बोला ।
"फिर किसी फिराक में है ?"
“धंधा है, बाप । और तो कुछ सीखा नहीं जिंदगी में
"पूना में ?" जीतसिंह खामोश रहा ।
"एम्बुलैंस पर पूना लिखा है ! गांधी हस्पताल, पूना !" जीतसिंह फिर भी खामोश रहा ।
छत्रपति ने एक आह सी भरी, कुर्सी में करवट बदली और फिर बोला- "तेरा काम हो जाएगा, जीते।”
"बढिया ।"
"एक मैटाडोर मेरी निगाह में है । कोई ज्यादा काम नहीं करना पड़ेगा उसे एम्बुलैंस में तब्दील करने के लिए।"
"बढिया ।"
"कब मांगता है ?"
"अभी ।"
“अभी ?” - वो हंसा - “जादू से ? गिली गिली किया और एम्बुलेंस तैयार ?"
"जल्दी से जल्दी । दूर से आया । लौट के जाने का भी है। टेम का तोड़ा है। वेस्ट करना नहीं मांगता ।"
"ऐन अंग्रेज का माफिक ?”
“ऐन जरूरतमन्द का माफिक ।"
"मैटाडोर मैं दूंगा । तैयार करके । फिट करके । ये रंग रोगन" - उसने एक तसवीर को ठकठकाया - "कहीं और से कराना होगा ।"
"कहीं और से ?"
"कल्याण से ही, पण यहां से नहीं । पेंट का काम मेरा नहीं।”
"किसका है ?"
"कईयों का है, पण तेरे को हर कोई तो नहीं मांगता तेरे को तो स्पेशल मांगता है। जैसा मैं है । "
"स्पेशल और भरोसे का ।"
"बरोबर । जैसा मैं है । "
"उससे जो बात करना होगा, तुम्हें करना होगा ।"
"गाड़ी उधर तुझे ले के जाना होगा।"
"ठीक है । "
"गाड़ी में कोई स्पेशल काम कराना मांगता है ?"
"स्पेशल काम ?”
" जैसे नवां इंजन ?”
“नक्को । रेस में नहीं दौडानी । पण इंजन चौकस
मांगता है ।”
"होगा । ट्राई देगा ।"
"रोकड़ा ?"
"पूरा एक ?"
"कोई गुंजायश नहीं ?"
"गुंजायश करके ही बोला ।"
"अपने दोस्त के लिए ? जीते के लिए ?"
“मेरा एतबार कर, जीते । गुंजायश करके ही बोला ।” "रंग रोगन समेत ।”
"हें हें हें । बोम मारता है । जो काम मेरा नहीं, उसका पैसा मैं कैसे लेगा ? वो पेंट वाला बताएगा ।"
"बात करो।"
छत्रपति ने मेज पर पड़ा फोन अपनी तरफ घसीटकर काल लगाई, वो कुछ क्षण फोन में बात करता रहा और फिर रिसीवर वापस क्रेडल पर रखता हुआ बोला- "फिट कर दिया ।”
"कितना ?"
"बारह मांगता था । दस में किया । तेरी खातिर । "
“ज्यास्ती है।”
"जीते, रिस्क वाला काम है। पंगे वाला काम ऐसा काम है जिसे भरोसे के आदमी से ही कराया जा सकता है । इन तमाम बातों के सोचे तो दस...
"अक्खे काम के ? आजू-बाजू गांधी हस्पताल और एम्बुलैंस लिखने के भी ?"
"बरोबर ।"
"ठीक है । मंजूर ।"
"गाड़ी उधर पेंट वाले के पास तेरे को ले जाना होगा
"पहले भी बोला । मैं सुना । गाड़ी कब मिलेगा ?"
"कल सुबह सवेरे ।"
"कल क्यों ?"
*****
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