सवा आठ बजे पिछले रोज की तरह सजा धजा जीतसिंह जिमखाना के बार में पहुंचा ।


शिवारामन उसके साथ बिछुड़े भाई की तरह मिला । सब से पहले उसने खुद बारमैन के पास जाकर दो ड्रिंक्स हासिल किए, जिन्हें लेकर वे एक कोने में जा बैठे।


"आपका काम हो जाएगा।" - जीतसिंह बोला ।


"आपने फोन पर बताया था ।" - शिवारामन जोश से बोला - “आई एम ग्लैड ।"


"पैसा..."


"मैं लाया हूं । फोन पर आपकी हिदायत के मुताबिक


"पूरा ?"


"हां"


“रकम का मेरा, एक अनजबी आदमी का, यकीन कर लेंगे आप ?"


वो हड़बड़ाया, उसके चेहरे पर ऐसे भाव आए जैसे इस बाबत तो उसने सोचा ही नहीं था ।


"आप आलोक पारेख के दोस्त हैं" - फिर वो अनिश्चित भाव से बोला - "पारेख ने आपको यहां क्लब की टैम्परेरी मैम्बरशिप के लिए रिकमैंड किया है। आप गलत आदमी कैसे हो सकते हैं ?"


"सूरत से कैसा लगता हूं मैं ?"


"भले आदमी लगते हैं आप | शरीफ लगते हैं । डीसेंट लगते हैं ।”


"हैरानी है। लोगों को तो मैं चोर उचक्का और उठाईगिरा लगता हूं।"


"मिस्टर नाथ, आप मजाक कर रहे हैं।"


"हां, मजाक ही कर रहा था । "


"तो... पैसा... मैं अभी..."


"मिस्टर शिवारामन, मैं आपका सस्पैंस कम कर देता हूं। मैं आपका पैसे का रिस्क घटा देता हूं।"


"क्या मतलब ?"


“आप अभी मुझे सिर्फ दस हजार रुपये दे दीजिए । बाकी मैं तब ले लूंगा जबकि लड़की आपके हवाले होगी ।"


" पूरी रकम ही..."


"मुझे आप पर एतबार है, मिस्टर नाथ। मैं आपको..."


"कोई जरूरत नहीं । दस ठीक हैं । "


"मर्जी आपकी ।”


शिवारामन ने जेब से पांच सौ के नोटों की एक मोटी गड्डी निकाली और उसमें से बीस नोट अलग करके जीतसिंह को सौंपे ।


"शुक्रिया । कल दोपहरबाद मैं आपको फोन करूंगा । ऑफिस में ही रहिएगा ।"


“आज ही कुछ नहीं हो सकता ?"


"नहीं । आज ही नहीं हो सकता ।"


"मैं बहुत तकलीफ में दूं यार....


"एक दिन की तकलीफ और झेल लीजिए।"


"अच्छी बात है ।"


“मैं अब चलता हूं ।”


शिवारामन ने सहमति में सिर हिलाया ।


*****

रविवार : सात दिसम्बर


दोपहर को बिलथरे ने जीतसिंह को खबर दी कि लड़की तैयार थी ।


जीतसिंह मालाबार के सामने ही बिलथरे से मिला जहां से कि वो उसे यशवन्त नगर लेकर गया ।


मालूम हुआ कि वहां की एक दोमंजिली कोठी वस्तुत: मैडम का ठीया था ।


मिसेज अब्राहम उसे वहीं एक सजे हुए ड्राइंगरूम में मिली जहां कि लड़की मौजूद थी।


"शीला ।" - मिसेज अब्राहम बड़े गर्व से बोली 


"बेबी अभी तेरह का अगली फरवरी में होगा ।"


लड़की मुस्कराई ।


"हल्लो !" - फिर वो बेखौफ बोली ।


" डेढ़ साल से धन्धे में है।" - मिसेज अब्राहम बोली - "लेकिन वर्जिन है । है न बेबी ?"


लड़की हंसी ।


हुए जीतसिंह सन्नाटे में आया उसको देखता रहा । वो रंग में सांवली थी, लेकिन नयन-नक्श तीखे थे । उसके बाल कटे थे और भवें बनी हुई थीं। होंठों पर वो बहुत हल्की लिपस्टिक लगाए थी जो कि बहुत गौर से देखने पर ही दिखाई देती वी । वो एक लम्बी स्कर्ट और बिना बांहों की स्कीवी यहने थी । स्कीवी कसी हुई थी इसलिए छाती पर हल्के से उभार नुमायां हो रहे थे ।


बालवेश्यावृत्ति का उसने सिर्फ जिक्र ही सुना था, कभी कोई बालवेश्या उसने देखी नहीं थी । उसके दिल ने यही गवाही दी कि वो पैसा कमाने का सबसे भ्रष्ट, सबसे घिनौना तरीका था ।


"इसे कुछ समझाया ?" - फिर वो बोला ।


"मैं क्या समझाएगा, मैन ?" - मिसेज अब्राहम बोली “जो समझाना है तुमने समझाना है।"


"ये सहयोग तो देगी न ?"


“वन हंड्रेड पर्सेट । जो कहोगे करेंगा अपना मिस्सी बाबा।"


"ठीक है । फिर मैं समझाता हूं।"


"मिस्सी बाबा साहब के पास जाकर बैठो।" 1


लड़की अपने स्थान से उठी और बड़ी बेबाकी से जीतसिंह की बगल में आ बैठी ।


"अब गौर से सुनना मांगता है कि साहब क्या बोलता है। "


लड़की ने सहमति से सिर हिलाया ।


जीतसिंह धीर-धीरे उसे समझाने लगा कि उसने क्या करना था, कहां करना था, किसके साथ करना था, कब तक करना था ।


लड़की ने बड़ी संजीदगी से हर बात सुनी और समझी


जीतसिंह खामोश हुआ तो मिसेज अब्राहम के इशारे पर लड़की वहां से उठकर चली गई ।


तब मिसेज अब्राहम ने जीतसिंह की तरफ देखकर दाएं हाथ से सिक्का उछालने का एक्शन किया।


जीतसिंह ने तल्काल उसे नौ हजार रुपये सौंपे ।


“एक हजार और ।" - वो बोली ।


जीतसिंह की भवें उठीं ।


"सेफ ठीये के । सेफ और एयरकंडीशंड ठीये के । सेफ्टी की गारण्टी के साथ | होटल में तीन हजार लगते हैं और सेफ्टी की कोई गारण्टी नक्को । "


जीतसिंह ने चुपचाप उसे हजार रुपये और थमा दिए ।


"थैंक्यू ।" - मिसेज अब्राहम बोली- "अब बोलो, तुम्हारे लिए कोई इंतजाम मांगता है ?"


"इंतजाम ?"


"शीला जैसी का । या किसी बालिग लड़की का ?"


जीतसिंह ने मुस्कुराते हुए इंकार में सिर हिलाया । 


"क्यों ? क्या वान्दा है ?"


"कोई वान्दा नहीं । पण मैं ऐसे कामों के लिए रोकड़ा खर्च नहीं करता ।"


"रोकड़ा खर्च नहीं करता ! तो क्या करता है, मैन ?”


"छीन लेता है । झपट लेता है । दबोच लेता है । मुर्गी की माफिक | क्या !"


वो हड़बड़ाई ।


"डिमांस्ट्रेशन मांगता है ?"


"डिमांस्ट्रेशन ! इधर किधर है कोई डिमांस्ट्रेशन के वास्ते ?”


"तुम है न ! मेरे को पसन्द । सब हजम कर जाएगा । हड्डी-हड्डी छोड़ देगा । साला, न रहे बांस, न बजे बांसुरी ।'


“हरामी ! मसखरी मारता है ।"


जीतसिंह हंसा । ऐसी अजीब-सी वहशी हंसी हंसा कि वो सहम गई ।


“मसखरी मारता है ।" - फिर वो खिसियायी सी बोली - “बिलथरे, ले के जा इसको इधर से । माथा फिरेला है इसका । साथ मेरे की भी पावभाजी बनाना मांगता है।”


बिलथरे ने झिझकते हुए जीतसिंह की बांह दबाई ।


जीतसिंह उठा और उसके साथ हो लिया ।


तीन बजे एक टैक्सी यशवन्त नगर की मिसेज अब्राहम की दोमंजिली कोठी के सामने रुकी।


टैक्सी में शिवारामन के साथ जीतसिंह सवार था।


बाकी के चालीस हजार रुपये जीतसिंह टैक्सी में ही शिवारामन से हासिल कर चुका था ।


“वो सामने कोठी है ।" - जीतसिंह धीरे से बोला - "जहां कि सब सैट है। आपने सिर्फ जाकर कालबैल बजानी है और जो कोई भी दरवाजा खोले उसे अपना नाम बताना है । ठीक ?"


शिवारामन ने बड़े ही सस्पेंस में सहमति में सिर हिलाया ।


"मैं अभी इधर ही ठहरा हुआ हूं। सब कुछ फिट पाएं तो मुझे इशारा कर दीजिएगा ।"


शिवारामन ने फिर सहमति में सिर हिलाया ।


"जाइए।"


वो कार से निकला और कोठी का आयरन गेट ठेल कर भीतर दाखिल हो गया ।


कालबैल के जवाब में दरवाजा खुला तो चौखट पर मिसेज अब्राहम प्रकट हुई । फिर शिवारामन ने भीतर कदम रखा और दरवाजा उसके पीछे बंद हो गया ।


जीतसिंह प्रतीक्षा करता रहा ।


दो मिनट बाद दरवाजा फिर खुला और बरामदे में शिवारामन प्रकट हुआ । उसने टैक्सी की तरफ हाथ हिलाया और वापस कोठी में दाखिल हो गया ।


दरवाजा फिर बन्द हो गया ।


"चल, भई ।" - जीतसिंह बोला ।


ड्राइवर ने टैक्सी को यू टर्न किया, लेकिन टैक्सी ने अभी दोबारा स्पीड भी नहीं पकड़ी थी कि जीतसिंह ने उसे रुकवाया ।


टैक्सी कोठी से कोई दो सौ गज परे रुकी।


जीतसिंह बाहर निकला, उसने टैक्सी का भाड़ा चुकाकर उसे रुख्सत कर दिया । टैक्सी के निगाहों से ओझल हो जाने तक वो वहीं खड़ा रहा, फिर वो वापस घूमा और कोठियों के पिछवाड़े की सर्विस लेन में घुस गया ।


जिधर कि मिसेज अब्राहम की कोठी के पिछवाड़े का दरवाजा उसे खुला मिलना था ।


शिवारामन पहली मंजिल के एक ऐश्वर्यशाली ढंग से सजे एयर-कंडीशंड बैडरूम में मौजूद था। कमरे में एक तरफ बालकनी थी जिसके आगे इतना मोटा पर्दा खिंचा हुआ था कि बाहर का ये पता नहीं चलता था कि दिन था कि रात थी । डबल बैड के पीछे एक विशाल खिड़की थी और उस पर भी वैसा ही मोटा पर्दा खिंचा हुआ था ।


कमरे में कृत्रिम प्रकाश का बड़ा रोमांटिक नीम अंधेरा था और उसमें गुलाब की खुशबू बसी हुई थी। पलंग के एक पहलू में एक टेबल थी जिस पर ब्लैक एण्ड वाइट की एक बोतल, एक सोडा सायफन, एक गिलास और काजुओं से भरा एक कटोरा पड़ा था। शिवारामन शराब का रसिया था, लेकिन उस घड़ी उसकी उसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी । आखिर वो वहां शराब पीने तो नहीं आया था ।


तब लड़की ने कमरे में कदम रखा । उसने अपने पीछे दरवाजे को भीतर से बन्द किया, पलंग पर टांगे लटकाए बैठे शिवारामन के करीब पहुंची और बड़ी मासूमियत से बोली "हल्लो ! हमें शीला कहते हैं । हम आपका नाम जान सकते हैं ?"


शिवारामन यूं भौचक्का सा उसे देखने लगा जैसे जो वो देख रहा था, उसे उस पर विश्वास नहीं हो रहा था । बालवेश्यावृत्ति की बाबत उसने सुना बहुत था, लेकिन किसी बालवेश्या से कभी उसका वास्ता नहीं पड़ा था । न उसने कभी ऐसी ख्वाहिश की थी । कुमारी कन्या ने बालिका ही होना था, लेकिन फिर भी उसने वैसी कमसिन लड़की की कल्पना नहीं की थी। उसके सांवले गालों पर लालिमा दांत ऐसे थे जैसे दूध के हों और वो पलकें फड़फड़ाती अपनी बड़ी-बड़ी आंखों से उसकी तरफ देख रही थी ।


"हमें शिवारामन कहते हैं ।" - वो फंसे कंठ से बोला ।


"हल्लो ।”


"तो तुम्हारा नाम शीला है ?"


"हां"


"तुम्हें मालूम है हम यहां क्यों आए हैं ?"


"हां । मैडम बोला ।”


" यानी कि मालूम हम तुम्हारे साथ क्या करेंगे ?"


"मालूम ।"


"डर नहीं लगता ?”


“लगता है । पण..."


वो खामोश हो गई ।


"पास आओ।"


लड़की करीब सरक आई ।


शिवारमन ने उसे अपनी बांहों के घेरे में ले लिया और कुछ क्षण उसके जिस्म को इधर-उधर टटोला ।


"कपड़े उतारो ।" - फिर वो बोला ।


"पहले आप उतारिए ।" - लड़की बोली ।


"क्या ?"


"हमको बोलना है तो पहले बत्ती बन्द कीजिये ।"


"बत्ती बन्द करें ? किधर से ? "


उसने पीछे दीवार पर लगे स्विच बोर्ड की ओर संकेत किया ।


शिवारामन ने हाथ बढाकर उसके सारे स्विच ऑफ कर दिये । फिर वो भारी सांसें छोड़ता हुआ बोला- "अब..."


“यस, सर ।"


लड़की ने अपने कपड़े उतारकर एक ओर डाल दिए और पलंग पर चढ आई ।


"अब आप ।" - वो बोली ।


शिवारामन उठकर खड़ा हुआ । उसने एक-एक करके अपना सूट, कमीज वगैरह उतारकर एक करीबी सोफे पर डाले और फिर जूते-जुराबे उतारीं ।


फिर वो बाज की तरह लड़की पर झपटा।


तत्काल लड़की यूं चीखी जैसे बिच्छू ने काटा हो ।


"क्या हुआ ?" - शिवारामन घबराकर बोला - "अभी तो हमने कुछ भी नहीं किया ।"


“छाती पर कुछ चुभा ।" - वो छटपटाती सी बोली - "बहुत जोर से । जान निकल गयी । क्या है ?"


"जंजीर है। "


"जंजीर कहीं चुभती है !"


“लॉ... लॉकेट है ।”


"लॉकेट भी कहीं इतना चुभता है ?"


"तुम बहुत नाजुक हो ।"


"हम नहीं जानते । हमें लॉकेट नहीं चुभा । हमें कुछ और चुभा । बोलिए क्या है ?"


“च... चाबी है । "


"चाबी ? आप गले में चाबी पहनते हैं ?"


“खास चाबी है ।”


“हम खास आम नहीं जानते । उतारिए उसे भी वरना..."


"वरना क्या ?"


"वरना हम जा रहे हैं । "


"अरे, नहीं ।"


" आप तो हमारी चमड़ी उधेड़कर छोडेंगे। एक तो वैसे ही... ऊपर से..."


"अरे, तुम तो खामखाह..."


"क्या खामखाह ! मैडम का खौफ न होता तो हम अब तक यहां से चले भी गए होते। दोबारा हमारी छाती पर कुछ चुभा तो हम बिल्कुल नहीं रुकेंगे ।”


“अच्छा, अच्छा । मैं उतारता हूं।"


"हां । उतारिए । "


शिवारामन ने गले से जंजीर निकालकर उसे साइड टेबल पर रख दिया ।


कि विघ्न आ गया था । फिर उसने अपना वो काम फिर शुरू किया, जिसमें


लड़की भी तब बड़े जोश के साथ लता की तरह उसके साथ लिपट गयी ।


गया । शिवारामन सुधबुध भूलकर अपने 'इलाज' में जुट


दीवानगी के उस आलम में उसको इस बात की खबर लग पाना नामुमकिन था कि उसकी गुत्थमगुत्था के दौरान पीछे खिड़की पर पड़े भारी पर्दे में से एक हाथ बाहर निकला था और उसने वॉल्ट की चाबी वाली जंजीर साइड टेबल पर से उठा ली थी ।


वो खिड़की भी एक साइड बालकनी में खुलती थी जिसमें कि जीतसिंह मौजूद था । तत्काल उसने मोम के दो आयताकार टुकड़ों पर चाबी के दोनों रुखों की छाप बनानी शुरू कर दी ।


- वस्तुत: शिवारामन जंजीर उतारकर कहीं और भी रखता - जैसे तकिये के नीचे, कुर्सी पर पड़े अपने कपड़ों पर या कहीं भी और तो उसके जूनून के दौरान लड़की वहां से जंजीर बरामद कर लेती और उसे साइड टेबल पर पहुंचा देती और बाद में उसे वहां से उठाकर यथास्थान पहुंचा देती । शिवारामन ने जंजीर खुद ही वहां रखकर काम आसान कर दिया था ।


छाप तैयार हो जाने के बाद जीतसिंह ने चाबी को स्पिरिट से साफ करके पोंछा और फूंक मार-मारकर उस पर से स्पिरिट की गन्ध उड़ाई । जब उसे यकीन हो गया कि चाबी पर न कोई मोम का कण मौजूद था और न स्पिरिट की गन्ध तो उसने पर्दों में हाथ डालकर जंजीर को वापस साइड टेबल पर रख दिया ।


फिर वो खामोशी से वहां से रुख्सत हो गया ।


अब चाबी तैयार कर लेना उसके लिए निहायत मामूली काम था ।


यानी कि पहली चाबी उसे हासिल हो चुकी थी ।


पीछे लड़की अपनी फर्जी आहों कराहों से कमरे को गुंजाती रही और शिवारामन अपने को परम सौभाग्यशाली समझता उसे रौंदता रहा कि वो कुमारी कन्या से सम्भोग का दुर्लभ आनन्द भी उठा रहा था और अपनी नामुराद बीमारी का इलाज भी कर रहा था ।


***

ठीक पौने छ: बजे जीतसिंह, इमरान मिर्ची और सुकन्या मोदी कालोनी में मैट्रो सिक्योरिटी सर्विसिज के ऑफिस के सामने वाली सड़क पर मौजूद था। उनके साथ एक कोई चौदह साल का दुबला-पतला, अपनी उम्र के लिहाज से कदरन लम्बा, बालक था जो कि टाइट जाली और गोल गले की पूरी बांह वाली बनियान सी पहने था, जिसके ऊपर वह बिना बांह वाली सामने से खुली जैकेट पहने था । गले में उसने लाल रंग का रुमाल बांधा हुआ था । बालक का नाम मगनया था जिसे कि सर्कस का कोई शौकीन उस कलाकार के तौर पर पहचान सकता था जो कि सर्कस में अपने एक जोड़ीदार के साथ लोहे के उस रिंग में से गुजरकर दिखाता था जिसमें से उनमें से एक का भी गुजरना असम्भव मालूम पड़ता था और जिसकी सूरत सर्कस के बाहर लगे पब्लिसिटी बोर्डों में से एक पर अंकित देखी जा सकती थी ।


जीतसिंह उसे एक हजार रुपये दे चुका था और दो हजार रुपये उसे काम हो जाने पर चुकता करने का करार कर चुका था ।


जीतसिंह उस घड़ी पिछली रात वाला ही किराए का सूट पहने था । अपनी उस पोशाक में उसने इजाफा सिर पर गोल्क कैप लगाकर किया था जिसे कि उसने अपने माथे पर काफी नीचे झुकाकर पहना हुआ था। सूरज डूबने को था लेकिन फिर भी उसने अपनी आंखों पर गॉगल्स चढाए हुए थे । वो सब उसने इसलिए किया था ताकि मैट्रो का मैनेजर उसे उस शख्स को तौर पर न पहचान पाता जो कि बुधवार शाम को अपनी पत्नी के साथ एक सिक्योरिटी गार्ड एंगेज करने की नीयत से पूछताछ करने आया था, लेकिन दोबारा वापस नहीं लौटा था ।


सुकन्या उस रोज भारी साड़ी पहने थी और गले में मंगलसूत्र लटकाए बड़ी लकदक वाली गृहिणी लग रही थी । उसके हाथ में एक सितारों जड़ा झिलमिलाता हुआ सफेद पर्स था ।


जीतसिंह ने एक उड़ती निगाह परे मैट्रो के ऑफिस की दिशा में दौड़ाई और फिर इमरान मिर्ची को इशारा किया ।


मिर्ची सहमति से सिर हिलाता कार से उतरा और एक आम राहगीर की तरह भीड़ में जा मिला ।


वो मैट्रो के ऑफिस के करीब पहुंच गया तो जीतसिंह मगनया की तरफ घूमा और बोला- "तैयार ?"


मगनया ने सहमति में सिर हिलाया ।


"सब याद है न क्या करना है ?"


"हां" 


"तो फिर शुरू हो जा ।”


तत्काल छोकरे ने सुकन्या के हाथ का पर्स झपटा और फिर सरपट सामने सड़क पर भागा ।


"मेरा पर्स !" - सुकन्या व्याकुल भाव से चिल्लाई "मेरा पर्स !"


कुछ राहगीर ठिठके ।


"चोर !" - जीतसिंह चिल्लाया - "पकड़ो ! पकड़ो !"


फिर वो खुद भी छोकरे के पीछे लपका।


अब राह चलते बहुत लोगों की तवज्जो परेशानहाल महिला की तरफ, सड़क पर भागते उसके पति की तरफ और उससे आगे सरपट भागते छोकरे की तरफ जा चुकी थी । एकाध जने ने छोकरे को पकड़ने की कोशिश की तो वो उसकी पकड़ से निकलकर किसी और की पकड़ में आने से बचने की कोशिश करता लोगों के बीच से रास्ता बनाता आड़ा तिरछा भागता रहा ।


मैट्रो के दफ्तर के सामने वो एकाएक थमककर खड़ा हुआ । उसने व्याकुल भाव से सामने मौजूद लोगों की तरफ देखा जो उसका रास्ता घेरे दृढता से उसकी तरफ बढ़ रहे थे । तब छोकरे ने नया पैंतरा बदला और वो आनन-फानन मैट्रो के ऑफिस की सीढियां चढने लगा ।


जीतसिंह पूर्ववत चोर-चोर, पकड़ो पकड़ो चिल्लाता उसके पीछे सीढियां चढने लगा ।


उनके पीछे सड़क पर से किसी राहगीर ने सीढ़ियों की तरफ लपकने की कोशिश न की । केवल इमरान मिर्ची ने यूं लापरवाही से सीढियों पर कदम डाला जैसे उस होहल्ले से उसका कुछ लेना-देना नहीं था, वो तो अपने ही किसी काम से ऊपर जा रहा था ।


आगे छोकरे ने भड़ाक से ऑफिस का दरवाजा खोला और भीतर दाखिल हुआ। किसी ने उसके रास्ते में आने की कोशिश की तो उसने एक मेज उलट दी, दो कुर्सियां उलट दीं और फिर जैसे बच निकलने के किसी रास्ते की तलाश में पीछे मैनेजर के ऑफिस में घुस गया ।


बाहरले ऑफिस में से रास्ता बनाता और तब भी चोर चोर चिल्लाता जीतसिंह उसके पीछे लपका ।


“पकड़ो ! पकड़ो !” - जीतसिंह चिल्लाया ।


हड़बड़ाया सा मैनेजर उठकर खड़ा हो गया । वो मेज के पीछे से निकलकर छोकरे की तरफ बढ़ा तो छोकरा मेज पर चढ गया । उसने एक व्याकुल निगाह अपने पीछे डाली और फिर ऊपर रोशनदान की तरफ देखा ।


"पकड़ो ! ये मेरी बीवी का पर्स मारकर भागा है । "


“खबरदार !" - मैनेजर रोब से चिल्लाया - "रुक जा|"


रुक जाने की जगह छोकरे ने मेज पर से पत्थर की भारी ऐश ट्रे उठाई और उसे रोशनदान पर दे मारा । रोशनदान का शीशा टूटकर नीचे फर्श पर बिखर गया । उसने यूं नुमायां हुई रोशनदान की सलाख पकड़ने के लिए ऊपर को जुस्त लगाई तो तभी जीतसिंह ने उसे टांगों से थाम लिया और वापस घसीट लिया ।


तब तक सारा स्टाफ मैनेजर के कमरे में इकट्ठा हो चुका था ।


बाहरले ऑफिस में अब केवल इमरान मिर्ची था जो कि बड़े सहज भाव से दरवाजे के पास सरक आया था । उसके हाथ में अब एक कोई पौना फुट लम्बी लोहे की मजबूत छड़ थी जिससे उसने मैनेजर के कमरे की चौखट में बाहर की ओर से लगी कुंडी का वो भाग उमेठकर उखाड़ देना था जिसे कि उसने आंख जैसी ब्रैकेट की संज्ञा दी थी, जिसमें कि कुंडी की लोहे की, सलाख जैसी, बांह जाकर घुसती थी और कुंडी ताला लग पाने की पोजीशन में आती थी । क्योंकि हर किसी की मुकम्मल तवज्जो भीतर चोर की तरफ थी, इसलिए ये गौर करने वाला कोई नहीं था कि पीछे चौखट पर मौजूद मिर्ची हाथ में थमी छड़ से कुंडी के साथ क्या छेड़छाड़ कर रहा था ।


छोकरा नीचे मेज पर गिरा तो जीतसिंह ने उसे गर्दन से थाम लिया । छोकरा उसकी पकड़ में छटपटाने लगा । पर्स उसके हाथ से छिटककर जमीन पर जाकर गिरा जिसे कि मैनेजर ने उठा लिया ।


“साले ! कमीने!" - जीतसिंह ने उसके चेहरे पर एक झन्नाटेदार थप्पड़ रसीद किया "झपट्टामारी करता है ! मेरी बीवी का पर्स झपटकर भागता है !" -


"छोड़ दो । छोड़ दो।" - छोकरे ने आर्तनाद किया "गरीब हूं । भूखा हूं।"


"ठहरा जा साले भूखे के बच्चे।" - जीतसिंह ने एक थप्पड़ और रसीद किया और जोर से उसका कान उमेठा।


छोकरा पीड़ा से बिलबिलाया ।


" इसे पुलिस के हवाले करना चाहिए।" - मैनेजर बोला । 


"मैं यही करूंगा।" - जीतसिंह बोला- "मैं अभी इसे थाने लेकर जाता हूं।"


"यही ठीक रहेगा ।”


"कमीने ने आपका भी तो नुकसान किया। शीशा तोड़ दिया ।"


“उसकी कोई बात नहीं । वो तो कल नया लग जाएगा|"


जीतसिंह को वही सुनने की उम्मीद थी, इसीलिए उसने वो ड्रामा ऐन दफ्तर बन्द होने के टाइम पर रचा था ताकि नया शीशा लगाने के लिए मिस्त्री बुलाए जाने का काम अगले रोज तक के लिए मुल्तवी हो जाता ।


"मैं इसे थाने पहुंचाता हूं ।" - वो बोला ।


"गुड ! ये लीजिए अपना पर्स ।”


जीतसिंह ने पर्स लेकर कोट की जेब में रख लिया और छोकरे की गर्दन दबोचे उसे लगभग घसीटता हुआ वहां से रवाना हुआ ।


वो नीचे पहुंचा तो उसने पाया कि सीढियों के दहाने पर भीड़ जमा थी और उनमें सबसे आगे सुकन्या थी।


"मिला ?" “मेरा पर्स !” - वो पब्लिक को सुनाती हुई बोली


"हां । ये रहा ।" - जीतसिंह ने जेब से निकालकर पर्स सौंपा । 


"ओह ! थैंक गॉड !"


" और चोर को भी पकड़ लिया ।"


"ठहर जा, कमीने।" - तब सुकन्या ने भी एक चपत जमाई । 


"छोड़ दो।" - छोकरे ने आर्तनाद किया - "गरीब भूखा हूं।"


"मैं अभी तुझे पुलिस के हवाले करता हूं।" - जीतसिंह बोला - "फिर वो ही तेरी भूख मिटाएंगे।"


"छोड़ ही दीजिए, साहब।" - कोई हमदर्दीभरे स्वर में बोला - "आपका माल तो मिल ही गया, अब क्यों इसे पुलिस के हवाले करते हैं ?"


"हां।" - कोई दूसरा बोला - "माफ कर दीजिए ।”


"छोटा है । "


“नादान है।”


"भूखा है ।" 


"फिर नहीं करेगा ।"


"क्यों बे ?" - जीतसिंह ने उसका कान उमेठा- "फिर करेगा ?"


“नहीं, साहब ।" - छोकरा गिड़गिड़ाया- "कभी नहीं करूंगा | छोड़ दीजिए। पांव पड़ता हूं।"


“अब भूखा नहीं है ?"


“अब मैं मजूरी करूंगा, कोई भी काम करूंगा, भूखा भी रह लूंगा, लेकिन ये काम नहीं करूंगा।"


"पक्की बात ?"


"हां, साहब । कसम गणपति बप्पा की।"


"ठीक है।" - जीतसिंह ने उसकी पीठ पर एक धौल जमाई - "भाग जा ।"


छोकरा भीड़ में से रास्ता बनाता सरपट वहां से भागा


तत्काल अपने आप भीड़ छंटने लगी ।


जीतसिंह और सुकन्या वापस सड़क पर उधर बढे जिधर से वो आए थे ।


थोड़ी ही दूर वो जगह थी जहां सुकन्या ने कार खड़ी की थी ।


कार के पहलू में मिर्ची मौजूद था ।


जीतसिंह ने प्रश्नसूचक नेत्रों से उसकी तरफ देखा ।


- "सब फिट ।" - मिर्ची बोला- "सब चौकस । मैंने चौखट में लगी वो आंख जैसी ब्रैकेट उमेठकर उखाड़ दी थी । वो दो पेचों के जरिए चौखट में फिट थी। मैंने पेचों के छेद जबरन खुले कर दिए थे और ब्रैकेट को चौखट लगाकर ऊपर से पेच लगा दिए थे। अब जब वो कुंडी लगाई जाएगी तो लगाने वाले को पता नहीं चलेगा कि ब्रैकेट अपनी जगह से पूरी तरह से हिली हुई थी और पेच उसे मजबूती से चौखट के साथ कसने का नहीं, उसे चौखट के साथ सिर्फ जोड़े रहने का काम कर रहे थे। अब चाहे बाहर से कुंडी लगाई जाए या कुंडी लगाकर उसमें ताला भरा जाए, भीतर से एक मजबूत धक्का लगाते ही ब्रैकेट उखड़ जाएगी और कुंडी और ताले के लगे लगे भी दरवाजा खुल जाएगा।"


"बढिया ।"


“यही चाहते थे न ?"


"हां । ऐन यही चाहता था । अब साढे सात तक तुझे यहीं रुकना होगा ।"


"क्या ?"


“छ बजे क्लैरिकल स्टाफ की छुट्टी होती है। सात बजे गार्ड लोग भी चले जाते हैं। फिर साढे सात तक मैनेजर जाता है । उसके बाद पीछे चपरासी रह जाता है जो नाइट वाचमैन के पहुंचने तक वहां रुकता है । तुझे इस बात की गारंटी के लिए यहां रुकना है कि मैनेजर की मौजूदगी में वो कुंडी की टूटी ब्रैकेट ठीक करने के लिए या टूटा शीशा बदलवाने के लिए चपरासी किसी को बुलाकर नहीं लाया।"


"ओह !"


"ये जानने के लिए तू ऊपर नहीं जा सकेगा कि अगर कोई वहां पहुंचा था तो क्या करने पहुंचा था !”


"रोशनदान का शीशा बदला जाएगा तो वो तो गली से ही दिखाई दे जाएगा।"


"उसके आज ही बदले जाने की सम्भावना कम है।


बल्कि नहीं है । क्योंकि मैनेजर मेरे सामने ही कह रहा था कि शीशा कल बदलवाया जाएगा। लेकिन टूटी ब्रैकेट की खबर तेरी लाख चतुराई के बावजूद चपरासी को लग सकती है । उसकी मरम्मत ज्यादा जरूरी समझी गई और उसके लिए कोई यहां पहुंचा तो उसके वापस लौटने पर उसे टटोलने से ही तुझे हकीकत की खबर लगेगी ।"


"उस ब्रैकेट की मरम्मत हो गई तो सब किए धरे पर पानी फिर जाएगा । हम मरम्मत तो नहीं रोक सकते, लेकिन उससे खबरदार तो हो सकते हैं। उसके तोड़ के लिए हम अपनी स्कीम में कोई तब्दीली तो कर सकते हैं । "


"वो तो है । "


"इसलिए मैनेजर के रुख्सत होने तक तेरा यहां रुकना जरूरी है ।"


"कोई वान्दा नहीं । मैं रुकता हूं।"


"साढे सात बजे के बाद जब चपरासी ऊपर अकेला रह जाएगा तो नाइट वाचमैन के आने तक वो वहां से नहीं हिलने का । वैसे भी तब तक दुकानें वगैरह बन्द हो जाती हैं, इसलिए तब कोई कारीगर नहीं मिलने का ।”


"मैं समझ गया । साढे सात तक मैं इधर ।"


“आंखें खुली रख के | चौकस ।”


"पक्का ।"


जीतसिंह सुकन्या के साथ कार में सवार हो गया । तत्काल सुकन्या ने कार को आगे सिनेमा की तरफ बढाया जिधर कि मगनया भागा था ।

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