"अरे, मेरे दोस्त, मेरे भाई, यूं अपना खानाखराब करना नादानी है । शैलजा इतनी इज्जत के, इतनी तवज्जो के, इतनी हाय-हाय के काबिल नहीं है । "


"ये तुम कह रहे हो ?"


"क्या मतलब ?"


"तुम क्या जानते नहीं हो कि हम दोनों के बीच जो कुछ हुआ, तुम्हारी वजह से हुआ । तुम साले आकर कबाब में हड्डी की तरह... "


" ऐसी कोई बात नहीं।"


" ऐसी ही बात है । अन्धे को दिखाई देता है कि तुम्हारी और सिर्फ तुम्हारी वजह से शैलजा का मेरी तरफ से मिजाज बदला है।"


"लेकिन...'


"साला माशूककतरा ।"


"तुम नशे में हो और भड़के हुए हो इसलिये..."


"क्या इसलिये ? तुम इनकार करते हो कि तुम्हारा उस पर दिल आ गया है ? इनकार करते हो कि उससे मुहब्बत करने लगे हों ?"


"मैं ! मुहब्बत ! उससे !" - उसने अट्टहास किया ।


"तुम बात को हंसी में नहीं उड़ा सकते।"


"कौन उड़ा रहा है, यार ? लेकिन जरा अपने हवास काबू में करो और अक्ल से काम लो ताकि तुम्हारे ज्ञानचक्षु खुल सकें । "


"क्या कहना चाहते हो ?"


"सुनो। बात को यकीन में ला के सुनो। मेरा उस लड़की से कोई जज्बाती रिश्ता नहीं है । न है, न होगा, न हो सकता है।"


"झूठ !"


" बीच में मत बोलो । पूरी बात सुनो ।”


"सुनाओ।"


"वो मेरी करीबी नहीं बन गयी हुई । वो तुम्हारी भी करीबी नहीं है । तुम्हें ऐसा लगता है लेकिन वो नहीं है । फर्क सिर्फ ये है कि मैं इस हकीकत से वाकिफ हूं, तुम नहीं हो।”


"कैसी हकीकत ?”


"वो गोल्डडिगर है । धनदीवानी है । जिस दिन उसे तुम्हारी अन्टी का माल खत्म दिखाई देता, वो तुम्हें वैसे ही दरवाजा दिखा देती। माई डियर फ्रैंड, शी इज एक प्रास्टीच्यूट हूज क्लायन्टेल इज लिमिटिड टु ए सलैक्ट फियू । ऐज यू आर वन । ऐज आई एम अनदर | ऐज..."


"शटअप !"


"सच्ची बात कड़वी ही लगती है। मेरे भाई, वो जोंक है जो चिपकती है तो खून का आखिरी कतरा चूस लेने के बाद ही छोड़ती है । तुम खुशकिस्मत जानो अपने आपको कि तुम्हारे में अभी खून के चन्द कतरे बाकी थे जबकि उसने तुम्हारा पीछा छूट जाने दिया ।"


"तुम मुझे गुमराह करने की कोशिश कर रहे हो ?"


"क्यों भला ?"


“ताकि बिगड़े ताल्लुकात संवारने का ख्याल मेरे मन में आये ही नहीं ।”


"नानसेंस !"


“तुम्हारी एकाएक उससे कोई खुन्दक हो गयी है जिसकी वजह से तुम उसके खिलाफ यूं जहर उगल रहे हो । दिस इज नथिंग बट कैरेक्टर असासिनेशन | "


"अरे, कैरेक्टर होगा तो असासिनेशन की नौबत आयेगी न !”


"मैं शैलजा के खिलाफ कुछ सुनना नहीं चाहता।"


वो फिर भी सुनाता रहा । समझाता रहा कि शैलजा से किनारा कर लेने में ही उसकी भलाई थी ।


उस घड़ी वो प्रभात को ऐन जगदीश पाल की तरह बोलता लगा जो उसकी मां को समझाता रहा था कि उसे बोर्डिंग स्कूल में भेज देने में ही उसकी भलाई थी । उसकी मां ने उस भलाई पर अमल किया तो आगे मौत मिली; अब बेटा उस भलाई पर अमल करता तो क्या पता हासिल मौत से भी बद्तर होता । उसके समझाये तो, एक जिद के तहत, प्रभात कुछ न समझा लेकिन आखिरकार उसके चले जाने के बाद उसने उस बाबत बहुत कुछ सोचा । सोचा तो उसे उसकी वो तमाम ड्रिल ये सुनिश्चित करने की खातिर लगी कि भविष्य में फिर कभी प्रभात शैलजा के करीब फटकने की कोशिश न करे ।


कमीना हड्डी वो था कबाब में लेकिन अपनी चतुर सुजान बातों से मुझे हड्डी साबित करके चला गया ।


कहां चला गया ?


क्या पता इसीलिये इतनी शिद्दत से वो उसे वो उलटी पट्टी पढ़ाकर गया कि उस घड़ी वो उधर का रुख न करे ।


क्यों न करू ? - प्रभात ने खुद से सवाल किया । जाऊंगा तो वो क्या कर लेगी मेरा !


गोली तो नहीं मार देगी !


मेरे को किसी खातिर में नहीं लायेगी तो इतना तो मुझे पता चल ही जायेगा कि वो वहां पहुंचा था या नहीं; तो उसे खातिर में ला रही थी या नहीं !


जाऊं न जाऊं की उधेड़बुन में पता नहीं कितना अरसा वो वहीं बैठ रहा । यूं गुजरे वक्त का कोई अन्दाजा उसे हुआ तो तभी हुआ जब कि वेटर ने उसके सामने बिल लाकर रखा और उसे अहसास हुआ कि अतुल वर्मा के जाने के बाद से वो तीन पैग और पी गया था ।


उसने बिल चुकाया और उठ खड़ा हुआ । लेकिन तत्काल ही वापिस कुर्सी पर ढेर हो गया ।


" टैक्सी बुला दूं, साहब ?" - अपने परिचित ग्राहक के सहानुभूति दर्शाता वेटर बोला ।


"नहीं | जरूरत नहीं । "


बड़ी शिद्दत से वो फिर उठा और लड़खड़ाते कदमों से बाहर की तरफ बढ़ा |


उसने घड़ी पर निगाह डाली तो पाया दस बजने को थे । उसे याद नहीं पड़ रहा था कि अतुल वर्मा कब उसके पास बार में पहुंचा था लेकिन उसका अन्दाजा था कि ऐसा कम से कम एक घन्टा पहले हुआ था ।


क्या अभी भी वो शैलजा के फ्लैट में होगा ?


क्या प्राब्लम थी ? अब तो वो रात ही वहीं गुजारता तो कोई बड़ी बात नहीं थी ।


बाहर बून्दा-बान्दी तब भी हो रही थी लेकिन अपनी नशे की हालत में वो उससे बेखबर था ।


शैलजा का फ्लैट वहां से ज्यादा दूर नहीं था इसलिये वो झूमता झामता वो पैदल वहां पहुंचा। वह पहुंच कर उसे ख्याल आया कि उसे आया जानकर तो हो सकता था कि रात की उस घड़ी वो उसके लिये फ्लैट का दरवाजा ही न खोलती । फिर उसे क्यों कर मालूम होता कि वो कमीना बार में उसके पास में उठकर वहां पहुंचा था या नहीं ! वो भीतर था या नहीं ! लिहाजा वो पिछवाड़े में पहुंचा जहां कि फायर एस्केप की गोल सीढ़ियां थीं । उधर अंधेरा था जिसकी वजह से और नशे के अधिक्य की वजह से उसे सूझ ही नहीं रहा था कि उधर वो कम्बख्त गोल सीढ़ियां कहां थीं !


आखिरकार फायर एस्केप के दर्शन उसे हुए लेकिन अभी उसने रेलिंग पकड़कर पहली सीढ़ी पर कदम रखा था कि एकाएक कम्पाउन्ड रोशनियों से जगमगा उठा और फिर उसने अपने आपको पुलिसवालों की गिरफ्त में जकड़ा छटपटाता पाया । फिर सीधे रास्ते से वो लोग उसे ऊपर दूसरी मंजिल पर शैलजा के फ्लैट में लेकर गये जहां कि अतुल वर्मा की लाश पड़ी थी। वो ड्राइंगरूम के फर्श पर लुढ़का पड़ा था, किसी ने गोली मारकर उसका भेजा उड़ा दिया था । आलायकत्ल मौकाय-वारदात से ही बरामद ही गया था । वो एक बत्तीस कैलीबर की रिवाल्वर थी जो कि...


उसकी थी ।


फ्लैट में लाश के इर्द-गिर्द बहुत लोग मौजूद थे जिनमें एक तीन सितारों वाला इन्स्पेक्टर था जिसकी बाबत उसे बाद में मालूम हुआ कि उसका नाम अमरनाथ था और वो स्थानीय थानाध्यक्ष था- दो हवलदारों और एक सब इन्स्पेक्टर के अलावा एक पुलिस का फोटोग्राफर था, एक फिंगरप्रिंट एक्सपर्ट था और एक कदम नाम का डॉक्टर था । उन्होंने उसे लाश का मौकायवारदात का अच्छी तरह से नजारा कर लेने दिया फिर एक हवलदार उसे किचन में ले गया जहां उसने उसे एक स्टूल पर बिठा दिया और दरवाजा भीतर से बन्द कर दिया । खुद वो बन्द दरवाजे के साथ पीठ लगा कर खड़ा हो गया । 1


दो घन्टे तक वो किचन उसके लिये हवालात बनी रही ।


उस दौरान उसका नशा मुकम्मल तौर से उतर गया ।


फिर एक बैडरूम में मौजूद इन्स्पेक्टर अमरनाथ के सामने उसे पेश किया गया ।


इन्स्पेक्टर कई क्षण अपलक उसे देखता रहा और वो यूं देखे जाने से विचलित बेचैनी से पहलू बदलता रहा ।


"क्या कहते हो ?" - आखिरकार वो बोला ।


"किस बारे में ?" - प्रभात नर्वस भाव से बोला ।


"इकबालेजुर्म के बारे में।"


"मैंने कोई जुर्म नहीं किया ।"


“तुमने अपनी रिवॉल्वर से मकतूल अतुल वर्मा को शूट किया" - इन्स्पेक्टर सख्ती से बोला- "और फायर एस्केप के रास्ते यहां से फरार हो जाने की कोशिश की । फरार होते वक्त तुम फायर एस्केप पर ही थे - आखिरी सीढ़ी पर ही थे - कि पकड़े गये । ठीक ?"


"नहीं ठीक ।" - प्रभात खोखले स्वर में बोला - "मैं तो अभी पहुंचा ही था नीचे कि..."


"तुम नशे में धुत्त थे । तुम्हें क्या पता नीचे कहां से पहुंचे थे।" 


"बार से पहुंचा था ।"


“बार से पहुंचा था।"


"फायर एस्केप पर किसलिये ?"


"यहां आने के लिये ।"


“क्यों ? सीधे रास्ते से क्यों नहीं ?"


उसने वजह बतायी ।


उसे उसकी बात पर रत्ती भर भी यकीन न आया ।


“तुम यहां आये थे..."


"नहीं ।”


"आये थे लेकिन अपनी नशे की खस्ता हालत की वजह से तुम्हें याद नहीं । कोई हद से ज्यादा पिए हो तो उसे अमूमन भूल जाता है, याद किये भी याद नहीं आता, कि वो कहां-कहां गया था ? पढ़े लिखे समझदार आदमी हो, इस घड़ी पहले जितने टुन्न भी दिखाई नहीं दे रहे हो, खुद ही इंसाफ करो और जवाब दो कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि तुम्हारे पांव यहां फ्लैट में पड़े हों लेकिन तुम्हें इसका जरा भी इल्म न रहा हो ?"


जो जवाब प्रभात ने दिया, वो उसे नहीं देना चाहिये था


"हो तो सकता है ।" - उसके मुंह से निकला ।


"तुम यहां आये, तुमने अपनी रिवाल्वर से मकतूल को शूट किया, रिवाल्वर यहीं फेंकी और फिर फायर एस्केप के रास्ते यहां से चुपचाप निकल जाने की कोशिश की लेकिन बद्किस्मती से कामयाब न हो सके । ठीक ?"


उसने जवाब न दिया ।


"जवाब दो !" - इन्स्पेक्टर सख्ती से बोला ।


"मैं रिवाल्वर साथ लिये-लिये नहीं फिरता ।" - वो तनिक दिलेरी से बोला ।


" हमेशा नहीं लिये फिरते होगे लेकिन जब इरादा कत्ल का हो तो...' "


“रिवाल्वर मेरी है लेकिन इससे ये साबित नहीं होता कि इसे चलाया भी मैंने "


"तो किसने चलाया ?"


“कातिल ने ।”


"जो कि तुम हो ।" "हरगिज नहीं।"


“खामखाह ! अभी तो कबूल करके हटे हो कि कोई पूरी तरफ टुन्न हो तो उसे नहीं याद रहता कि वो उस हालत में कहां गया और उसने क्या किया ?"


"इस पर मेरी उंगलियों के निशान हैं ?"


तभी डॉक्टर कदम वहां पहुंचा । उसने वार्तालाप में दखलअन्दाज होने की कोशिश न की, केवल इशारे से इन्स्पेक्टर को बताया कि उसका काम खत्म था । इन्स्पेक्टर ने भी इशारे से ही उसे तनिक रुकने को बोला । सहमति में सिर हिलाता डॉक्टर ड्रेसिंग टेबल से टेक लगाकर खड़ा हो । गया ।


"तुम क्या कह रहे थे ?" - इन्स्पेक्टर फिर मेरी तरफ आकर्षित हुआ ।


"पूछ रहा था।" - प्रभात बोला- "रिवाल्वर पर मेरी उंगलियों के निशान हैं ?"


"हम जरूर तसदीक करते लेकिन वो क्या है कि उस पर किसी की भी उंगलियों के निशान नहीं हैं । "


"वजह ?"


"किसी ने पोंछ डाले ।"


“मैंने ?”


"क्यों नहीं ?"


"जब मुझे इतना समझदारीभरा काम करना सूझा तो मैं टुन्न कैसे हुआ ?"


“जब गोली चलाना सूझा, वो भी इतनी एक्यूरेसी के साथ कि जाकर ऐन माथे पर लगी, तो उंगलियों के निशान पोंछना भी सूझा हो सकता है।”


" आप कुछ भी कह सकते हैं लेकिन मैं अपना तसव्वुर एक कातिल को सूरत में नहीं कर सकता ।"


"कर नहीं सकते या करना नहीं चाहते ?"


"मैं कातिल नहीं ।”


"हर कातिल यही कहता है । तुम्हें क्योंकि कुछ याद नहीं इसलिये तुम शायद ये कहना चाहते हो कि काश तुम कातिल न होवो ।”


वो चुप रहा ।