मैं अपनी तकदीर को एक लफ्ज में बयान करना चाहूं तो वो लफ्ज 'डण्डीमार' ही होगा। लोगबाग रसद वगैरह खरीदते हैं, साग-सब्जी खरीदते हैं तो उन्हें अक्सर शिकायत होता है कि शातिर दुकानदार ने पूरा तोल न तोला, डण्डी मार दी । ये वही बात है जो कि अंग्रेज लोगों के इस आधुनिक मुहावरे में निहित है कि 'आई हैव बिन शार्टचेंज्ड' । यानी कि मेरा रुपया चौदह आने का । मैं अपनी तीस साला जिन्दगी के जिस पहलू पर निगाह डालता हूं, मुझे किसी ने किसी डण्डीमार के दर्शन होते हैं। क्या मेरी जननी, मेरी महतारी; क्या मेरी बीवी, क्या मेरे जिगरी, क्या मेरी एम्पलायर; सब डण्डीमार । आई हैव बिन शार्टचेंज्ड बाई ऐवरीबॉडी ।
ये उद्गार प्रभात चावला नामक शख्स के थे जो उसके जेहन में तब आये थे जबकि ये हौलनाक, नापाक, आत्मघाती ख्याल आया था कि वो अपने बेटे का अपने हाथों गला घोंट दे या अपनी एम्पलायर जानकी रंगनाथन को गोली मार दे या वीरेश पातकी नाम के उस फैंसी नौजवान के कलेजे में खंजर उतार दे जिसे कि जानकी रंगनाथन ने हाल ही में उसके सहायक के तौर पर अपनी फर्म ओमेगा गारमेंट्स एक्सपोर्ट्स में भर्ती किया था । प्रभात चावला उस फर्म का चीफ डिजाइनर था और जानकी रंगनाथन ने उसके लिये असिस्टेंट इसलिये एंगेज किया था क्योंकि वो महसूस करती थी कि प्रभात चावला के पास काम ज्यादा था और उसका हाथ बंटाने के लिये उसका कोई एक सहायक होना ही चाहिये था । प्रत्यक्षत: ये एक मेहरबान, कद्रदान, एम्पलायर का सूझ-बूझ भरा कदम जान पड़ता था लेकिन 'हकीकत' को अपनी डण्डीमार तकदीर से खत खाया सिर्फ प्रभात चावला समझता था । ये सब उसको दरवाजा दिखाने की दिशा में पहला कदम था । आइन्दा दिनों में वो कमबख्तमारा उसका असिस्टेंट उसकी जगह शोभायमान होता और वो फर्म से बाहर होता ।
इशारों की जुबान में उसने अपना वो अन्देशा अपने एम्पलायर पर जाहिर किया तो एम्पलायर ने, जानकी नटराजन ने, बात को हंसी में उड़ा दिया और उसे राय दी कि वो अपनी ड्रिंकिंग हैबिट्स पर काबू पाए जिसकी वजह से विस्की में तैरते उसके जेहन में ऐसी बेबुनियाद बातें आती थीं ?
लेकिन क्या प्रभात चावला उस बात से आश्वस्त हुआ ?
जरा भी नहीं ।
हो जाता तो उसकी इस शिकायत की बुनियाद न हिल जाती कि उसकी तकदीर हमेशा उसके साथ डण्डी मारती थी ।
ये उन दिनों का वाकया था जब कि प्रभात की अपनी बीवी ईशा से अलहदगी हो चुकी था और उसका अपनी सैक्रेट्री शैलजा माथुर से इश्क खूब परवान चढ़ रहा था । उसका दिल गवाही देता था कि उसको फर्म से रुख्सत करने की जो चाल चली जा रही थी उसमें इस बात का भी रोल था कि वो फर्म की ही एक एम्पलाई पर दीवानगी की हद तक फिदा था । उस 'चाल' को समझ जाने के बाद उसकी गैरत ने उसे ऐसा ललकारा कि उसने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। इससे पहले कि उस फर्म में 'गैट आउट' बोला जाता, वो खुद ही फर्म को 'गुड बाई' बोल गया। यूं जैसे उसने अपनी डण्डीमार तकदीर की चाल पलट दी, तकदीर के इक्के पर इस्तीफे की सूरत में तुरुप की दुक्की जड़ दी ।
वो साली जानकी नटराजन क्या समझती थी कि जैसे मेरी औलाद से मेरी हेठी हो सकती थी, वैसे उससे भी हो सकती थी !
औलाद अभी पालने में झूलने वाला दस महीने का बच्चा था जिसे कि अभी कोई मुनासिब नाम न रखा जा सकने की वजह से चिन्टू के नाम से पुकारा जाता था । इतनी नन्ही-सी जान की जान लेना क्या बड़ी बात थी ! मुंह पर थोड़ी देर तकिया दबाकर रखो तो खत्म !
ईशा को वो कालेज के टाइम से ही जानता था और उसे तभी पता था कि एक दिन वो उसकी बीवी बनने वाली थी; बावजूद इसके कि उन दिनों उसका मानसी नाम की एक लड़की से भरपूर टांका फिट था । उसे मानसी खूब पसंद थी लेकिन उसका दिल कहता था कि मिसेज प्रभात चावला ईशा ही बनने वाली थी ।
बनी ।
कालेज से निकलने के छ: महीने के भीतर उसने उससे शादी कर ली। शादी कर ली और उसे इल्म भी न हुआ कि तब भी उसकी तकदीर ने डण्डी ही मारी थी । रूपये का सोलह आने वाला हासिल तो मानसी में ही था। लेकिन तब वो क्या जानता था कि शादी का वो फैसला उसका नहीं था, उसकी नियति का था जिसने उसे शार्टचेंज करना ही करना था ।
शादी का एक साल भी मुकम्मल होने से पहले चिन्टू आ गया । जिस दिन उसका चिन्टू से नाता जुड़ा, उसी दिन जैसे उसका उसकी मां से नाता टूट गया । ईशा पति की निष्ठवान पत्नी न रही, बेटे की अभिमानभरी मां बन गयी । चिन्टू ने आकर जैसे प्रभात चावला नामक शख्स का वजूद ही खत्म कर दिया । मुकम्मल तौर से काबिज हो गया वो उस औरत पर जिसके पहलू में उसकी वजह से प्रभात चावला के लिए कोई जगह नहीं रही थी ।
वो अतीत में गोते लगाने लगा और ख्यालों में खुद से बतियाने लगा, खुद को अपनी आपबीती सुनाने लगा:
पीता तो मैं कालेज के टाइम से ही था लेकिन बोतल से मेरी असली यारी उस नामुराद दौर में ही हुई। तब आधी-आधी रात तक मैं इस उम्मीद में बार में बैठा रहने लगा कि जब घर लौटूंगा तो ईशा के पहलू में मेरी जगह खाली होगी ।
ऐसा कभी न हुआ ।
फिर हालात इस हद तक बिगड़ गये कि मेरे सामने दो ही रास्ते रहे गये ।
या तो मैं चिन्टू को उसी दुनिया में अरसाल कर देता जिससे कि वो आया था या बीवी से तलाक ले लेता ।
औरत से भरपूर खता खाने का वो मेरी जिन्दगी का दूसरा मौका था ।
पहले मेरी मां ने मुझे रुसवा किया और अब बीवी ने ।
बाप से तो मेरा कभी वास्ता ही नहीं पड़ा था; वो तो फौजी था जो कि जम्मू-कश्मीर में ड्यूटी करता, बारामुला में उग्रवादियों के द्वारा किये एक ग्रेनेड अटैक में मारा गया था और मुझे मेरी निहायत खूबसूरत मां के साथ तनहा छोड़ गया था ।
फिर डण्डी जैसे मां ने न मारी उसकी नौजवानी और खूबसूरती ने मारी ।
मां बेटे के बीच जगदीश पाल नाम का वो वकील आन टपका जिसने कि मेरे बाप की मौत के बाद उसकी पैत्रिक सम्पति का हक कानूनी लड़ाई लड़कर मेरी मां को दिलवाया था और फीस में मेरी मां को ही क्लेम कर लिया था । शुरुआती दौर में उसने सब इखलाकन किया था क्योंकि हरिहर चावला - मेरा बाप - उसका दोस्त था । केस खत्म हो गया, सब कुछ निपट गया, वो फिर भी हमारे घर आता रहा, किसी इज्जतदार मेहमान के किसी इज्जतदार घरबार से रुख्सत होने के वक्त से कहीं बाद आता रहा । मेरी मां मुझे घर के ऊपर के बैडरूम में सुला कर नीचे जाती जहां कि वो मौजूद होता और कभी ऊपर लौटती तो कभी न लौटती । मैं तब हमेशा ही सोया नहीं होता था, मुझे नीचे से आती अजीबोगरीब आवाजें सुनायी देती थीं जिसका मतलब मैं नहीं समझ पाता था लेकिन इतना फिर भी समझता था कि मेरी मां बहुत खुश थी । मुझे ऊपर 'सुला' कर वो नीचे जाती थी तो जैसे मेरी वजूद को कतई भूल कर जाती थी ।
फिर एक रोज मेरे से न रहा गया । मेरा अपरिपक्व दिमाग और नादान दिल ये जानने को मचलने लगे कि आखिर नीचे क्या होता था ! नतीजतन एक रात मां के नीचे जाने के थोड़ी देर बाद मैं कमरे से निकला और दबे पांव सीढ़ियों की तरफ बढ़ा । आधी सीढ़ियों उतरते ही मेरी हिम्मत दगा के गयी और मैं वहीं यूं दोहरा होकर बैठ गया जैसे कोई नीचे से सीढ़ियों की तरफ देखता तो उसे मैं न दिखाई देता । तब मुझे मेहमान की आवाज साफ सुनायी दी जो मेरी मां को कह रहा था कि 'वो सिलसिला' तभी ठीक से चलता रह सकता था जब कि वो मुझे वहां से दूर कहीं किसी बोर्डिंग में भरती करा देती । स्कूल
कौन-सा सिलसिला !
कई साल बाद मैं समझ पाया कौन-सा सिलसिला !
लेकिन मैं जानता था मेरी मां वो बात कबूल नहीं करने वाली थी; वो मुझे अपने से दूर नहीं भेजने वाली थी ।
खाक जानता था मैं ।
थोड़ी सी ही ना नुक्कर के बाद मेरी मां ने उस राय पर अमल करना कबूल कर लिया ।
मेरी महतारी ने ही डण्डी मार दी ।
उसने मुझे देहरादून के एक स्कूल में भरती कराया, लौटकर जगदीश पाल से शादी की और हनीमून के लिए योरोप चली गयी ।
महीने बाद स्कूल के हैडमास्टर के बताये मुझे पता चला कि लन्दन से रोम जाता ब्रिटिश एयरवेज का एक प्लेन क्रैश कर गया था, एक भी मुसाफिर जिन्दा नहीं बचा था और मुसाफिरों की लिस्ट में मेरी मां और मेरे नये बाप का भी नाम था ।
मैं यतीम ।
मेरी डण्डीमार तकदीर ने मुझे यतीम बनाने में जगदीश पाल नाम के शख्स को साधन बनाया ।
तकदीर ने जगदीश पाल को निमित्त बनाकर डण्डी मारी तो मां गयी ।
चिन्टू को निमित्त बनाकर डण्डी मारी तो बीवी गयी ।
वीरेश पातकी को निमित्त बनाकर डण्डी मारी तो ओमेगा की नौकरी गयी ।
और अब...
अब अतुल वर्मा को निमित्त बनाकर डण्डी मारी तो समझो मैं गया ।
अतुल वर्मा मकतूल था और अपनी डण्डीमार किस्मत की वजह से मैं उसका कातिल समझा जा रहा था ।
वो शैलजा माथुर का फ्रेंड था और शैलजा हमेशा, हमेशा मुझे ये यकीन दिलाने में कामयाब हो जाती थी कि अतुल वर्मा उसका सिर्फ फ्रेंड था; उसकी जिन्दगी में अतुल वर्मा का भी वो दर्जा नहीं हो सकता था जो कि मेरा था ।
ओमेगा की नौकरी छोड़ने के बाद से मैं फ्री लांसिंग करने लगा था और शैलजा के साथ साकेत में स्थित उसके फ्लैट में रहने लगा था । शाम को अपने-अपने काम से फारिग होकर हम तफरीह के लिये निकलते थे और रोज किसी नये बार में जाकर बैठते थे | एक शाम हम कनाट प्लेस में स्थित 'कोजी कार्नर' में बैठे थे जब कि अतुल वर्मा हमारी टेबल पर पहुंच गया क्योंकि पूरे भरे बार में उसे कहीं बैठने की जगह नहीं मिल रही थी । हमने उसे अपने साथ टेबल शेयर करने की इजाजत दे दी और वो उंगली पकड़कर पाहुंचे तक पहुंच गया । शैलजा उससे कहता था फिल्मों के लिये स्टोरी स्क्रीनप्ले लिखता था ऐसी प्रभावित हुई कि बाकायदा परिचय का आदान-प्रदान हुआ और शैलजा ने तो उसे कभी अपने फ्लैट में आने का निमन्त्रण भी जारी कर दिया । - -
वो सच में ही आ गया । अगले ही रोज आ गया । आ गया तो आने ही लग गया ।
हमारी जो शाम की बैठकें किसी पब या बार में होती थी, तो फिर पता नहीं कब 'थ्रीसम' के तौर पर शैलजा के फ्लैट पर ही होने लगीं और शैलजा को वो सिलसिला ज्यादा पसंद आने लगा। मैं तो हैरान ही हो गया कि पता नहीं कब, कैसे वो शख्स हम पर इतना हावी हो गया था । फिर मेरे जेहन में शक का ये कीड़ा कुलबुलाने लगा कि दोनों में कोई कन्टीन्यूटी भी फिट हो गयी थी । उस बात का पहले मैंने स्वाभाविक तौर से शैलजा से जिक्र किया, फिर झगड़ा हुआ, फिर तीखी तकरार हुई, फिर इतना कोहराम मचा जिसकी वजह ये भी थी कि तब मैं भरपूर नशे में था कि शैलजा ने मुझे अपने फ्लैट से निकल जाने का हुक्म दनदना दिया और ये भी कह दिया था कि दोबारा कभी कर्टसी काल के लिए भी लौटकर आने की जरूरत नहीं थी ।
मुझे कोई हैरानी न हुई ।
उसकी जिन्दगी में किसी अतुल वर्मा ने दाखिला पाना था तो किसी प्रभात चावला को रुख्सत होना ही पड़ना था ।
ऐसा न होता तो मेरी खोटी तकदीर की वो जंजीर न टूट जाती तो मेरे जन्म से ही कड़ी-दर-कड़ी बढ़ती जा रही थी, मजबूत होती जा रही थी !
इतने में ही बात खत्म हो जाती तो समझता कि सस्ता छूटा । लेकिन बात खत्म न हुई; बात तो आगे, बहुत आगे बढ़ गयी ।
"रिपीट सर ?"
प्रभात की तन्द्रा टूटी | उसके अपने आप से डायलॉग को ब्रेक लगी । उसने अपने खाली गिलास पर निगाह डाली और फिर ये सोचने की कोशिश करने लग कि वो कितने पैग पी चुका था । गिनती तो उसे न सूझी लेकिन उसकी घूमती खोपड़ी ने उसे बहुत कुछ समझाया ।
"नो, थैंक्यू ।" - वो बोला, फिर तत्काल बोला- “यस, प्लीज । "
बारमैन ने उसे नया ड्रिंक सर्व किया ।
नया ड्रिंक चुसकता वो फिर ख्यालों में खो गया ।
शैलजा का वो अल्टीमेटम मिलने के बाद उससे अगली शाम को वो उस रोज की तरह ही एक नजदीकी बार में मौजूद था और अपने आपको विस्की के सैलाब में गर्क करने की कोशिश कर रहा था जबकि अतुल वर्मा वहां पहुंच गया ।
वो सिर पर हैट लगाये था और जिस्म पर वैसा वाटरप्रूफ ओवरकोट पहने था जो कि मैकिंटोश कहलाता था ।
वो एक ठिगना-सा शख्स था जो खूब ऊंची हील वाले जूते पहनने के बावजूद कद में मुश्किल से साढ़े पांच फुट तक पहुंच पाता था । अलबत्ता नखशिख से अच्छा था और आकर्षक जान पड़ता था ।
वो प्रभात के सामने बैठ गया ।
"तुम यहां बैठे हो..."
"हां । बाहर बारिश हो रही है ?"
"हां।" - फिर वो संजीदा लहजे में बोला - "मैंने पता नहीं कहां-कहां ढूंढा तुम्हें !"
"क्यों ?" - प्रभात रुखाई से बोला ।
"ये क्या हालत बना रखा है"
"तुम्हें क्या ?"
"तुम क्या देवदास बनना चाहते हो ?"
"दफा हो जाओ।"
"मैं तुम्हें कुछ समझाने की कोशिश कर रहा हूं।"
"मैंने कुछ नहीं समझना ।"
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