उछल पड़ने के-से अंदाज में हम तीनों एक झटके के साथ खड़े हो गए। एक भयानक आशंका ने हमें जड़- मूल तक हिलाकर रख दिया। रोंगटे खड़े हो गए। धड़कने जैसे रूक गई। पहले विभा फिर मैं और मेरे बाद मधु उस कमरे के बंद दरवाजे पर झपट पड़े मैं और मेरे बाद मधु उस कमरे के बंद दरवाजे पर झपट पड़े ।


कमरे के अंदर खामोशी छा गई थी ।


मंदिर में कोहराम- मच गया।


पागल से होकर हम तीनों जुनूनी अवस्था में बंद दरवाजे को झंझोड़ने लगे, साथ ही अनूप का नाम ले-लेकर चींखते भी चले जा झंझोड़ने लगे, साथ ही अनूप का नाम ले-लेकर चींखते भी चले जा रह थे, मगर हमारी किसी भी हरकत के जवाब में में अंदर से हल्की-सी आहट भी न उभरी।


भागते, हांफते और बदहवास से मंदिर के ढेर सारे सेवक जमा हो गए थे। भयानक आशंका हमारे दिलों में अपना आकार बढ़ाती चली गई। मैं या मधु तो उस वक्त तक होश भी न संभाल पाए थे जब विभा ने चीखकर सेवकों को दरवाजा तोड़ डालने का हुक्म दिया।


सेवक दरवाजे पर झपट पड़े ।


हम एक तरफ हट गए।


'धड़ाम-धड़ाम' की आवाज गूंजने लगीं। सेवक प्राणपण से दरवाजा तोड़ने के काम में जुट गए थे। हम तीनों पसीनो-पसीने हो गए।


एक जबरदस्त धमाके के साथ दरवाजा टूटकर कमरे में जा गिरा।


वातावरण में एक साथ अनेक चीखें गूंज गई। हम तीनों भी टूटे हुए दरवाजे पर झपटे । कमरे में दाखिल होते ही विभा के हलक से चीख उबल पड़ी - "न....नहीं !"


मेरे होश उड़ गए। टांगे कांपने लगीं।


मधु का चेहरा कागज की तरह सफेद पड़ गया। उसकी आंखों में भी मेरी तरह खौफ ही खौफ नजर आ रहा था। चीखती हुई विभा कमरे के फर्श पर गिर गई ।


फिर अपनी दोनों कलाइयां उसने फर्श पर दे मारीं ।


उफ् ! खतरनाक कांच की चूड़ियां टूट गई, कांच के नन्हें-नन्हें टुकड़े चारों तरफ उछलकर बिखर गए। एक झटके से उसने अपनी सुहाग बिंदिया पोंछ डाली । मेरा दिलो-दिमाग हाहाकार कर उठा । विभा पछाड़ों के साथ, दहाड़े मार-मारकर रो रही थी। पागल - सी हुई वह अपना सिर फर्श पर पटक रही थी ।


घबराकर मैंने मधु को इशारा किया ।


मधु विभा को संभालने के लिए आगे बढ़ी, मेरी दृष्टि मंदिर के सेवकों की तरह लाश पर चिपककर रह गई थी । अनूप की लाश पर !


लाश एक मेज के पीछे कुर्सी पर थी। कुर्सी पर बैठे अनूप का सिर मेज पर था । दाएं हाथ में रिवॉल्वर, दाई 

कनपटी पर गोली का सुराख और सुराख से गर्म, गाढ़ा खून अभी तक बह रहा था। मेज की चमकदार सनमाईका भीगती जा रही थी।


मेज पर ही एक खुला हुआ पैन और कागज पड़ा था।


दाईं तरफ फोन रखा था, परंतु रिसीवर क्रेडिल पर नहीं था। मेज से नीचे हवा में झूल रहा था। सनमाईका पर बहते खून की बूंदें टप-टप करके झूलते रिसीवर के माऊथपीस में गिर रही थीं।


हॉल में रखे फोन पर से किसी ने पुलिस को सूचना दे दी।


सभी सेवक दहाड़ें मार-मारकर रो पड़े थे। सारे मंदिर में बड़ा ही करूणाजनक रूदन गूंज गया, मेरा दिल भी फूट-फूटकर रोने के लिए मचल उठा। जबड़े भींचकर मैंने बहुत सख्ती से अपने रोने की इच्छा को दबाया, आगे बढ़ा।


मधु विभा को संभालने में लगी थी ।


मैं अभी मेज के समीप पहुंचा ही था कि...


"न...नहीं वेद, उनकी लाश को छूना नहीं !" अचानक ही विभा की गुर्राहटदार चीख ने मुझे उछाल दिया। मैंने चौंककर विभा की तरफ देखा और दंग रह गया।


आंसुओं से भीगे उसके चेहरे पर कठोरता थी । सारा श्रृंगार धुल चुका था। आश्चर्यजनक तरीके से जैसे वह रोना भूल गई थी । मधु अनावश्यक रूप से उसे पकड़े खड़ी थी।


मेरे साथ सभी हैरतअंगेज निगाहों से उसे देखते रह गए।


विभा की आंखें अनूप की लाश पर स्थिर थीं और उस लाश को देखते ही देखते मेरी विभा का चेहरा पत्थर की तरह सख्त, खुरदरा और कठोर होता चला गया । रोना भूलकर वह स्थिर से कदमों से मेज की तरफ बढ़ी |


बहुत ध्यान से उसने मेज पर मौजूद चीजों को देखा।


अंत में उसके साथ ही मेरी नजर भी खुले पैन के समीप पड़े उसे कागज पर स्थिर हो गई, जिस पर एक अजीब-सी आकृति बनी हुई थी, मैने ध्यान से उस आकृति को देखा, कागज पर उस आकृति के ऊपर एक वाक्य लिखा था, वाक्य निम्न था-


"साढ़े तीन घंटे की कोशिश के बावजूद, क्योंकि मै इसका अर्थ नहीं समझ सका हूं, इसलिए आत्महत्या कर रहा हूं। मेरी मौत की जिम्मेदार सिर्फ यह आकृति है, अन्य कोई नहीं ।"


वाक्य को पढ़कर मेरी बुद्धि चकरा गई। कदाचित विभा ने भी वह वाक्य पढ़ लिया था, तभी तो उसने झपटने के-से अंदाज में उस कागज को उठा लिया। गौर से आकृति को देखा।


आकृति निम्न थी- 




आकृति को देखकर हुई विभा की आंखें सिकुड़ती चली गई। संकुचित - सी होने बाद विभा की आंखें गोल हो गईं, कदाचित वह इस आकृति का अर्थ निकालने की कोशिश कर रही थी। कोशिश मेरी भी यही थी । पंरतु मैं कुछ भी न समझ सका ।


यदि वह वाक्य अनूप ने ही लिखा था तो बड़ी अजीब-सी बात थी, साढ़े तीन घंटे से इस कमरे से बंद होकर क्या अनूप इसी आकृति का अर्थ निकालने में व्यस्त था ? वह अर्थ नहीं निकाल सका, इसमें आत्महत्या करने की जरूरत कहां से आ पडी ?


बड़ी अजीब-सी उलझन थी ।


अभी मैं समझ भी नहीं सका था कि विभा आकृति का अर्थ समझ पाई है या नहीं कि मंदिर में भारी बूटों की आवाज गूंज उठी। चार-पांच पुलिसकर्मियों के साथ इंस्पेक्टर त्रिवेदी कमरे में दाखिल हुआ । दरवाजे पर पहुंचते ही उसके चेहरे पर अजीब-सी वेदना भरी कठोरता उभर आई, सिर से कैप उतार ली उसने और मेज की तरफ बढ़ा।