यह जानने के बाद कि जिन्दल परिवार की बहूरानी से हमारे इतने घनिष्ट संबंध हैं, होटल का सारा स्टाफ हमें विशेष सम्मान और श्रद्धा से देखने लगा था। मैनेजर ने हमें बताया था कि जिन्दल परिवार ने अपने निवास स्थान का नाम 'मंदिर' रखा है।


पौने सात बजे ही हम टैक्सी द्वारा 'मंदिर' की तरफ रवाना हो गए।


जब 'मंदिर' के पोर्च में हम टैक्सी से उतरे तो भौंचक्के से अपने चारों तरफ देखने लगे। 'मंदिर' नाम की वह इमारत किसी भी रूप में ताजमहल से कम खूबसूरत नहीं थी। ऊंची और संगमरमरी बाउंड्री वॉल के घिरे भू-भाग के बीचों-बीच खालिस सफेद रंग के संगमरमरी पत्थरों से बनी पांच मंजिली इमारत सीना ताने खड़ी इमारत के चारों तरफ लॉन था ।


लॉन में दीवार, अशोक, जामुन और शहतूत आदि के अनेक वृक्ष थे। घास ऐसी थी जैसे हरे रंग का मखमली कालीन बिछा हो। क्यारियों में खिले सैकड़ों किस्म के फूल वातावरण को महकाए हुए थे। इमारत का मुख्य द्वार किसी किले की तरह विशाल एवं भव्य था ।


द्वार के मस्तक पर लिखा था- 'मंदिर' |


किसी बगुले के–से सफेद रंग की बेदाग वर्दी पहने मंदिर के चार सेवकों ने हमारी अगवानी की। वे हमें इमारत के अंदर ले गए। हमने देखा कि इमारत के भीतरी भाग में लगे सभी पत्थरों पर रामायण की चौपाइयां लिखी थीं। सिर्फ फर्श पर चौपाइयां नहीं लिखी थीं, हमारी अगवानी करते हुए सेवक हमें कई गैलरियों, हॉलों और दलानों से गुजरते हुए ले जा रहे थे । दीवारों, खम्बों और छतों में जड़े पत्थरों पर लिखी रामायण की चौपाइयों को मैं और मधु पढ़ते हुए भौंचक्के से चले जा रहे थे ।


अचानक ही मैंने एक सेवक से पूछा कि क्या समूची इमारत पर ही ये चौंपाइयां लिखी हैं, तब उसने बड़े सम्मानित स्वर में जवाब दिया- "जी हां, दरसल इमारत की सभी दीवारों पर चौपाइयों के रूप में संपूर्ण रामायण लिखी हुई, इसीलिए इस इमारत का नाम मंदिर रखा गया हैं।"


"स...संपूर्ण रामायण ?" न चाहते हुए भी मेरे मुंह से चकित स्वर निकल पड़ा।। "


आगे बढ़ते हुए उसने हल्की-सी मुस्कान के साथ सिर्फ इतना ही कहा - "जी हां।"


मेरा दिमाग झन्नारकर रह गया । मन-ही-मन उस आईडिए की तारीफ किए बिना नहीं रह सका, मधु भी भौंचक्की-सी मेरे साथ सेवकों के पीछे चली जा रही थी। सेवकों ने हमें एक बहुत बड़े हॉल में पहुंचा दिया था। वहीं विभा थी, जो हमें देखते ही स्वागत के लिए खड़ी हो गई ।


यदि मैं उस हॉल की खूबसूरती का वर्णन करने बैठूं तो शायद कई पेज भरता चला जाऊंगा, इसलिए संक्षेप में केवल इतना ही लिखूंगा कि हॉल इन्द्र की मधुशाला जैसे लग रहा था । बीचों-बीच एक बहुत लंबी डायनिंग टेबल रखी थी। टेबल पर सजे थे-चांदी के चमचमाते बर्तन ।


विभा ने हमें डायनिंग टेबल से संबंधित कुर्सियों पर बैठाया। मधु ने सचमुच उसके चरण स्पर्श करे, मेरे स्वार्थीपन की क्षमा मांगी। जब मधु ने ऐसा किया तो कुछ भी न समझने के कारण विभा बौखला - सी गई । जब मैंने उसे सब कुछ समझाया तो खिल-खिलाकर हंस पड़ी, बोली- " वेद को एक अच्छा लेखक बनाने के लिए मैंने कुछ नहीं किया, किसी को कोई कुछ नहीं बना सकता। हर व्यक्ति अपने टेलेंट और मेहनत से कुछ बन जाया करता है । "


कुछ देर तक इसी तरह की औपचारिक बातें होती रहीं ।


मैंने चौंकते हुए पूछा- "मिस्टर अनूप कहां हैं, नजर नहीं आ रहे ?"


"अभी आ जाएंगे ।" विभा के स्वर में अजीब-सी गंभीरता उभर आई।


"लेकिन हमें यहां बुलाकर वे खुद चले कहां गए ?"


"गए कहीं नहीं । 


वहां । 


"उस कमरे में है।" विभा ने एक बंद कमरे की तरफ इशाला किया ।


मैं और मधु चकित रह गए, दृष्टि बंद दरवाजे पर स्थिर हो गई, मेरे मुंह से हैरत में डूबा स्वर निकला-“उस कमरे में, मगर क्यों ? मिस्टर अनूप उस कमरे में क्या कर रहें हैं ? उन्हें बुलाओ विभा।"


"अभी नहीं।" विभा का स्वर पहले से भी कहीं ज्यादा गंभीर था, साढ़े सात बजा रही वॉल-क्लॉक की तरफ देखती हुई वह बोली-


"त... तीस मिनट, मगर किस चीज में ?"


"उनके बाद आने में।"


"मैं कुछ समझा नहीं विभा । मेरा स्वर हैरत में डूबा जा रहा था - मिस्टर अनूप ठीक आठ बजे ही उस कमरे से बाहर क्यों निकलेंगे, वहां वे क्या कर रहे हैं ?"


‘"यह सवाल तो उनके बाहर आते ही खुद मुझे भी उनसे पूछना है।"


"तुम अजीब-सी रहस्यमय बात कर रही हो विभा, ऐसा क्या है। क्या वे हर रोज इस समय उसी कमरे में बंद होते हैं ?"


"नहीं।" 


"तो फिर ?"


"उस वक्त ठीक साढ़े चार बजे थे जब वे यहां आए, मुझसे बोले कि वे उस कमरे में जा रहे हैं। ठीक साढ़े तीन घंटे तक उस कमरे में रहेंगे। मैं चकरा गई, सोचने लगी कि साढ़े तीन घंटे तक वे अकेले उस कमरे में बंद होकर क्या करेगे ? यही सवाल मैंने उनसे पूछा भी, किंतु उन्होंने कुछ भी नहीं बताया। जब मैंने ज्यादा जिद की तो उल्टे डांटने लगे, मैं चकित निगाहों से दिखती रह गई, क्योंकि पहले कभी वे मुझ पर इस तरह नहीं झुंझलाए थे। मैं अवाक्-सी खड़ी उनकी तरफ देखी ही रही थी कि वे मुझे कठोर शब्दों में यह हिदायत देकर कमरे में चले गए कि साढ़े तीन घंटे से पहले उन्हें किसी भी सूरत में डिस्टर्ब न किया जाए।”


मेरे चेहरे पर हैरानी के भाव उभर आए, मधु भी चकित - सी विभा की तरफ देख रही थी, न रहा गया तो बोला- "म... मगर, ये बात क्या हुई विभा । मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूं।"


"समझ तो मैं खुद नहीं पा रही हूं वेद । अचानक ही विभा के सुंदर मुखड़े पर मौजूद गंभीरता अपना आकार बढ़ाती चली गई - "मेरी अटपटी बातें सुनकर जितने चकित तुम तुम रह गए हो, उससे नहीं ज्यादा हैरत में मैं खुद हूं। जो कुछ मैंने देखा और सुना उसने मेरी बुद्धि  चक्कुर दी थी।"


"तुमने क्या सुना है ?"


"हम लोगों ने तुम दोनों को कोई उपहार देने का निश्चिय किया था, अतः उपहार खरीदने के लिए हमें बाजार जाना था। उस वक्त करीब साढ़े तीन बजे थे जब मैं बाजार चलने के लिए तैयार होकर इस हॉल में आई। वे पहले से ही तैयार हुए यहां बैठे थे। कुछ देर तक हम यहीं बैठे विचार विमर्श करते रहे कि तुम्हें उपहार में क्या दें, किंतु कुछ निश्चय नहीं कर सके। तब अनूप ने कहा कि यह निर्णय हम बाजार में ही कर लेगें। हम उठाकर दरवाजे की तरफ बढ़े ही थे कि एक व्यक्ति हॉल में प्रविष्ट हुआ ।


"हम ठिठक गए।"


"त... तुम !" उसे दिखते ही अनूप के मुंह से निकला था ।


मैंने अचानक अनूप की तरफ देखा और देखते ही भौंचक्की रह गई, क्योंकि अनूप का चेहरा हल्दी के समान पीला पड़ता चला गया था । वह एक पतला दुबला और करीब साढ़े छः फुट लंबा व्यक्ति था । जिस्म पर काला कोट और काली ही पतलून पहने हुए उस व्यक्ति के होठ मोटे, काले और भद्दे थे। आंखें किसी नशे के कारण सुर्ख और डरावनी- सी । अनूप की तरफ देखता हुआ वह निरंतर जहरीले अंदाज में मुस्करा रहा था।


"त...तुम यहां क्यों आए हो ?" अनूप ने लगभग चीखते हुए पूछा।


जवाब में उसकी मुस्कराहट गहरी हो गई, भद्दा हाथ कोट की जेब में गया और जब वह बाहर आया तो उसमें एक संतरा दबा हुआ था, संतरे को देखते ही अनूप के चेहरे का रंग उड़ गया। उसने संतरा हवा में उछाला, लपका। फिर हवा में उछाला लपका और बार बार ऐसा ही करता हुआ अनूप की तरफ बढ़ने लगा। मैं कभी उस व्यक्ति को देख रही थी, और कभी अनूप को। अनूप की दृष्टि संतरे पर टिकी थी और उसे भयवश कांपते देखकर मैं हैरान थी।


"प... प्लीज प्लीज ये संतरा जेब में रख लो।" अनूप गिड़गिड़ा उठा ।


वह हंसा, बड़ी भयानक हंसी थी उसकी।


अनूप के चेहरे को मैंने पसीने-पसीने होते देखा, रो देने के से अंदाज में चीख पड़े - अ... आखिर तुम चाहते क्या हो, यहां क्यों आए हो ?"


"आपको मेरे साथ चलना होगा।" कहते हुए संतरा उसने जेब में रख लिया।


"क... कहां ?"


"जहां मैं कहूं।"


"म... मगर इस वक्त तो मैं अपनी पत्नी के साथ... ।”


“खामोश !” अनूप का वाक्य पूरा होने से पहले ही वह गुर्रा उठा- '। - "तुम्हें इसी वक्त मेरे साथ चलना होगा, वर्ना मैं इस संतरे को यहीं छीलना चालू कर दूंगा और फिर इसकी फांकें बिखर जाएंगी।”


"न...नहीं !" अनूप पागलों ही तरह चीख पड़ा- "त... तुम ऐसी नहीं कर सकते। म... मैं तुम्हारे साथ चलता हूं । व... विभा। तुम यहीं ठहरो। मैं अभी आता हूं..।"


"लेकिन ?"


"प... प्लीज विभा, इस वक्त कोई सवाल मत करो। वापस आकर मैं तुम्हें सब कुछ बता दूंगा, फिलहाल मैं इसके साथ जा रहा हूं।।" कहने के बाद वे कुछ इतनी तेजी से हॉल का दरवाजा पार कर गए कि मुझे भी कुछ कहने का मौका ही न मिल सका। मैं हक्की-बक्की-सी खड़ी रह गई, जबकि वे और उनके साथ ही वह संतरे वाला आदमी भी जा चुका था। बहुत देर तक मैं किंकर्त्तव्यविमूढ़ - सी मुंह फाड़े खड़ी उस दरवाजे को देखती रही जिससे वे निकलकर गए थे, फिर धम्म से सोफे पर गिर पड़ी। तुम्हारे लिए प्रजेंट लाने की बात मैं बिल्कुल भूल चुकी थी । सोफे पर पड़ी दो-चार मिनट में ही घट गई उस आश्चर्यजनक घटना के बारे में सोच-सोचकर हैरान और चिंतित होती रही। रह-रहकर मेरी आंखों के सामने संतरे वाला आदमी, उसकी जहरीली मुस्कान, उसके शब्द, अनूप की घबराहट, उनकी गिड़गिड़ाहट चकराने लगा।


करीब एक घण्टे बाद यानी साढ़े चार बजे, वे तेजी से और लंबे-लंबे कदमों के साथ हॉल में पुनः प्रविष्ट हुए। मैं एक झटके से खड़ी हो गई। इस बार उनके साथ संतरे वाला आदमी नहीं था। मुझे देखते ही रहे। मैं दावे के साथ कह सकती हूं कि वे किसी उलझन में उलझे हुए थे। बेहद परेशान । चाहकर भी मैं कुछ बोल न सकी, जबकि उन्होंने कहा- 'त.. तुम, विभा । तुम अभी तक यहीं हो ?"


" ज... जी !" मेरे गले में जैसे कुछ फंस गया था ।


"मधु और वेद के लिए कोई प्रजेंट लेने नहीं गई ?


"जी नहीं।" "क्यों मैं तो कह गया था कि... ।”


"आप तो जानते हैं कि मैं कभी अकेली बाजार नहीं जाती हूं।"


“ओफ्फो, तुम समझती क्यों नहीं विभा ? फिलहाल मुझे काम है, तुम जाकर कोई प्रजेंट ले आओ।"


"अब आपको क्या काम है ?"


"मैं उस कमरे में जा रहा हूं, साढ़े तीन घंटे तक मुझे उसी कमरे में कोई जरूरी काम करना है। याद रहे, तुम या अन्य कोई कोई भी मुझे बिल्कुल डिस्टर्ब न करे।"


"म... मगर, ऐसा आपको क्या काम है ?"


कमरे की तरफ बढ़ते हुए वे ठिठके और बोले- "फिलहाल मैं कुछ नहीं बता सकता, यदि दिमाग ने साथ दिया तो साढ़े तीन घंटे बाद इस कमरे से निकलकर ही सब कुछ बताऊंगा।”


"म... मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है, पता नहीं आप कैसी बातें कर रहे हैं ? वह संतरे वाला आदमी कौन था ? आप संतरे से इस कदर क्यों डरते है ?"


"इस वक्त मेरे पास तुम्हारे किसी सवाल का जवाब देने के लिए वक्त नहीं है, एक - एक क्षण कीमती है। याद रखना विभा, साढ़े तीन घंटे से पहले मुझे किसी भी हालत में डिस्टर्ब न किया जाए । "


उनकी इस चेतावनी के बाद मैंने कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि उस कमरे के अंदर पहुंचकर उन्होंने दरवाजा बंद कर लिया। चटकनी बंद होने की आवाज ने मेरे होश उड़ा दिए। 


तब से अब तक | तीन घंटे से कुछ ज्यादा समय हो चुका है, वे उसी कमरे में बंद हैं।