“व... विभा... विभा !" उसकी तरफ भागते हुए मैंने उसे पुकारा ।


वह रूकी, बोली- "हैलो वेद । पेपर कैसा रहा ?"


"ठीक !” भागने के कारण मैंने अपनी उखड़ी हुई सांस को नियंत्रित करने की कोशिश की।


"क्या बात है ?" विभा मुस्कराई- "काफी दूर से भाग कर आ रहे हो ?"


"न... नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं है !" मैं संभला- "खैर, आज के बाद हम अपने-अपने शहर लौट जाएंगे, इसलिए सोच रहा था कि- कि...!"


मेरे गले में जैसे कुछ फंस गया था ।


"हां... हां बोला न ! क्या सोच रहे थे ?"


"य... यह कि हम साथ बैठकर आखिरी बार चाय पी लें।"


"ओह, यह बात थी । आओ, मैं कैंटीन की तरफ ही जा रही थी !"


"क... कैंटीन नहीं विभा, मैं सोच रहा था कि कहीं बाहर..... ।"


मेरे मुंह से निकलता ही चला गया ।


विभा का चेहरा अचानक ही गंभीर हो गया ।


मेरा दिल घबरा उठा।


थोड़ी कठोरता-सी भी उसके चेहरे पर उभरी । घबराकर मैं उससे अपनी कही हुई बात पर क्षमा मांगने वाला था कि अचानक उसके होठों पर बड़ी प्यारी सी मुस्कान उभर आई, बोली- "चलो, जब आखिरी बार ही साथ बैठकर चाय पीनी है तो वहीं पिएंगे जहां तुम कहोगे !"


मेरा मन मयूर नाच उठा।


दिल में एक उमंग-सी उठी । लगा कि वह भी मेरे दिल की भावनाओं को समझती है, फिर भी मेरे साथ चाहे जहां चलने के लिए तैयार है। इसका सीधा-सा अर्थ है कि वह मेरा प्यार स्वीकार कर लेगी।


हम दोनों एक होटल के केबिन में जा बैठे।


रास्ते में मैंने दृढ़ निश्चय कर लिया था कि आज अपने दिल की बात भी विभा से कहकर ही रहूंगा और चाय के मेज पर आते ही मैंने कहा- "विभा !"


“हुं !” जाने किन विचारों में डूबी विभा चौंकी, उसने मेरी तरफ देखा, मैं सकपकाया किंतु शीघ्र ही सभलकर बोला- "मेरा एक उपन्यास मेरे नाम से छप गया है ।"


"रियली ?" उसने आश्चर्य व्यक्त किया ।


"हां !" कहने के साथ ही मैंने जेब से "दहकते शहर" निकालकर मेज पर रख दिया। 


उसने उपन्यास उठाते हुए कहा- "वैरी गुड । कांग्रेचुलेशन वेद !"


"थैक्यू !" मैं इतना ही कह सका ।


विभा "दहकते शहर" को उलट-पुलटकर देखती रही। उसके मुखड़े की तरफ देखता हुआ मैं असली बात कहने का साहस जुटाता रहा, उपन्यास को देखते हुए ही उसने पूछा- "छपकर मार्किट में कब आया ये ?" 


एक महीने पहले।


और तुम ये खुशखबरी मुझे आज दे रहे हो ?"


"हां विभा !" मेरा स्वर स्वप्निल सा उठा-' - "तुम्हें यह खुशखबरी देने के लिए मैंने आज ही का दिन चुना था !"


"आज का दिन, वह क्यों ?"


"क... क्योंकि आज मैं तुमसे एक और बात करने वाला हूं।"


"कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हो वेद ?"


मैंने सारी दुनिया भर का साहस बटोर कर कहा- "ये...एक ऐसी बात, जिसे तुमसे कह देने के लिए मेरा मन तभी हुआ था जिस क्षण तुम्हें देखा था, किंतु तीन साल तक भी न कह सका । "


"ऐसी क्या बात है ?"


"व... विभा, म... मैं तुमसे !" मेरा हलक सूख गया, सारा चेहरा पसीने से भरभर उठा ।


"प्यार करता हूं !” विभा ने मेरा अधूरा वाक्य पूरा कर दिया ।


मेरा दिल धक् से रह गया । सच, उन दो-चार क्षणों के लिए मेरा दिल बिल्कुल नहीं धड़का था । चेहरे पर ढेर सारा पसीना और हक्का-बक्का रह जाने के भाव लिए उसकी तरफ देखो । वह बिल्कुल गंभीर थी । मेरे मुंह से बड़ी मुश्किल से फंसी-फंसी आवाज निकली - "ह... हां !"


"चलो, तुमने यह बात कही तो सही ।" विभा बोली, उसके इस वाक्य ने मेरे हौसले बुलंद कर दिए, बोला - "स..सच विभा, मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूं। म... मुझे अपने नाम से छिपने वाली इस पहली कृति की कसम है, तुमसे शादी करना चाहता हूं !"


"इतनी बड़ी कसम ?"


"म... मैं इससे भी बड़ी कसम खा सकता हूं विभा। सच, मैं तुमसे बेहद...उफ् ! तुम्हारी कसम ! तुम्हारे इस खूबसूरत मुखड़े की तरफ देखकर मैं हमेशा से यही कल्पना करता रहा हूं कि इस मस्तक पर सिन्दूरी बिंदिया लगेगी, तुम्हारी मांग से सिंदूर भरा होगा, उस रूप में तुम कितनी सुंदर लागोगी। अपने इस रूप से कई गुना ज्यादा सुंदर ! वह बिंदिया, वह सिंदूर । सब मेरे लिए होगा। म... मैं ।”


"वेद !" उसने टोका ।


उड़ते-उड़ते जैसे किसी ने मेरे पंख काट दिए। चौंककर उसकी तरफ देखने लगा।


उसने बड़े ही शांत और गंभीर स्वर में कहा - "मैं जानती हूं कि तुम भावुक हो । भावुक न होते तो लेखन की तरफ कभी न झुकते, लेकिन भावनाओं में इतनी दूर तक मत बहो कि उन्हीं में डबकर रह जाओ।"


"क... क्या मतलब विभा ?" मैं जमीन पर आ गिरा।


"मैं इन प्यार - मुहब्बत की बातों से नफरत करती हूं।"


"व... विभा !" मैं किसी जख्मी के समान छटपटा-सा उठा।


"जो तुमने कहा है या आगे भी जो कुछ तुम कह सकते हो, वह मैं जानती हूं। आज से नहीं, बल्कि तभी से जब हम फर्स्ट ईयर में थे। तुमसे पहले भी सैकड़ों लड़के मुझसे यही कह चुके हैं । "


"म... मैं उन लड़कों जैसा नही हूं विभा ।"


"जानती हूं, इसलिए तुम्हारे कहने पर मैंने वैसा नहीं किया जैसा उन लड़कों के साथ करती रही हूं। ऐसा कहने से पहले ही मेरे हाथ का झन्नाटेदार थप्पड़ उनके गाल पर पड़ता था, मगर तुम्हारे साथ मैं ऐसा नहीं कर सकी। जानना चाहते हो क्यों ?"


"क्यों ?"


"क्योंकि मैं जानती हूं कि तुम सचमुच मुझसे बेहद प्यार करते हो ।"


मैं चकित निगाहों से उसकी तरफ देखता रहा ।


वह कहती ही चली गई- "सचमुच अपनी बात कहने के लिए तुमने बहुत अच्छा दिन चुना है। हमारी कॉलिज लाईफ का आखिरी दिन, अगर तुमने आज से पहले कभी मुझसे यह बात कही होगी तो तुम्हारे साथ भी वही व्यवहार करती, किंतु तुमने सचमुच गजब के धैर्य का सुबूत दिया। इतना जबरदस्त धैर्य का, कि मैं खुद भी तुम्हारे मुंह से यह वाक्य सुनने के लिए बेचैन हो उठी थी।"


"वि... विभा !"


"प्यार, खांसी और बैर किसी के छिपाने से छुपते नहीं हैं वेद । और कम-से-कम उस लड़की से तो बिल्कुल नहीं छुप सकता, जिससे उसके इर्द-गिर्द रहने वाला पुरूष प्यार करता हो । हर नारी को ईश्वर ने पुरूष की नजरों का अर्थ समझने की अद्भुत शक्ति दी है। भले ही नारी अनजान बनी रहे, लेकिन वह जानता है कि कौन-सा मर्द उसे किस दृष्टि से देखता है। एक नारी होने के कारण वही अद्भुत शक्ति मुझमें भी है और उस शक्ति ने मुझे उसी क्षण तुम्हारे मनोभाव बता दिए थे, जिस क्षण तुमने मेरी तरफ पहली बार देखा था, आज से तीन साल पहले। एडमिशन वाले दिन ।”


"फिर भी तुम... |


"इसलिए फर्स्ट ईयर में मैंने तुमसे बात तक नहीं की। हां, तुम्हारी नजर मैं बराबर पढ़ रही थी। मुझे उम्मीद थी कि किसी-न-किसी बहाने मुझसे बात करने या मेरा सामीप्य पाने का प्रयास करोगे, मुझसे वही वाक्य कहोगे जो तुमने आज कहा है, मगर तुमने मेरी इस धारण को गलत साबित कर दिया । पूरा साल गुजर गया, तब मैं समझ गई कि तुम दूसरे लड़कों की तरह कम-से- कम छिछोरे नहीं हो। अपने अलावा मैंने तुम्हें कभी अन्य लड़की की तरफ आंख उठाकर देखते भी नहीं देखा, जबकि मैं जानती हूं कि तुमसें बहुत सी लड़कियां इंट्रेस्ट लेती थीं । तुम्हारे इसी करेक्टर ने सैंकिंड ईयर में मुझे तुम्हारा दोस्त बना दिया। जब दूसरा साल भी गुजर गया तो मैं तुम्हारे प्यार की कायल हो गई। गुजरते हुए तीसरे साल ने मुझे बेचैन कर दिया और आज सुबह तक मेरी बेचैनी बहुत बढ़ गई थी, जानते हो क्यों ? मैं ये "बेचैनी " शब्द क्यों प्रयोग कर रही हूं ?"


"क्यों ?"


"क्योंकि मैंने तुममें देश का एक अच्छा 'डिटेक्टिव नॉवलिस्ट बनने के गुण देखे हैं।"


"विभा !”


"यह सच है वेद और यह भी सच है कि तुम्हारे करेक्टर से प्रभावित हूं, तुम्हारे जज्बातों की कद्र करती हूं। तुम्हारे दिमाग में जिंदगी भर के लिए रह जाने वाली खलबली, दिल पर रह जाने वाले बोझ की हूक शायद तुम्हें कभी अपने कार्य के प्रति ईमानदार न होने देता। मुझे डर था कि अगर तुमने मुझसे बात नहीं की तो देश तक भावी और अच्छे जाजूसी उपन्यासकार को खो देगा । यही मैं नहीं कह दी ।"


"मैं अब भी समझ नहीं सका हूं कि तुमने मेरे प्यार को स्वीकार किया है या...!"


"कह चुकी हूं वेद कि मुझे इस किस्म की बातों से नफरत है।"


उसने मेरा वाक्य बीच ही में काट दिया- "तुम्हें भी सलाह दूंगी कि इस प्यार - व्यार के चक्कर में कम-से-कम तब तक न पड़ना जब तक कि कुछ बन न जाओ, यह चक्कर इंसान को उसके असली मकसद से भटका देता है। ऐजुकेशन पूरी करने के बाद आज से हमारी लाईफ शुरू हुई। हमें अपने-अपने क्षेत्र में आगे बढ़ना है। तुम्हें उपन्यासकार बनना है। बहुत अच्छा । अपने क्षेत्र में सबसे ऊपर जाना है तुम्हें । यह एक दोस्त की राय, शुभकामना है। सिर्फ दोस्त की । सच, मेरे मन में तुम्हारे लिए एक दोस्त के अलावा कोई भावना नहीं है। यह रिश्ता सबसे ऊंचा है वेद, पति-पत्नी के रिश्ते से भी कहीं ऊंचा। प्लीज, किसी अन्य भावना का मिश्रण करके इसे दागदार मत करो। ऐसा करके तुम अपने साथ नाइंसाफी करोगे।"


"म...मगर मैं...?"


"जानती हूं कि क्या कहोगे, यही न तुम अपने दिल के हाथों विवश हो । यह एक कच्ची भावना है वेद ! बहुत कच्ची, बिल्कुल अस्थाई जानती हूं कि इस वक्त तुम्हें मेरे इंकार पर बहुत दुःख होगा किंतु वह दुःख अस्थाई हैं। आंखे मूंद कर, सब कुछ भी याद नहीं रहने देगा। इन क्षणों को इन क्षणों में मिलने वाले उन दुःखों को जिन्हें तुम असहनीय समझ रहे हो, भूल जाओगे।"