उस रोज तेरह दिसंबर था ।
कुछ लोग 'तेरह' के अंक को मनहूस मानते है। कम से कम उस तेरह दिसंबर से पहले मैं ऐसे लोगों में से नहीं था, परंतु उस दिन घटी हृदयविदारक घटना ने मुझे भी यह मानने के लिए बाध्य कर दिया कि यह अंक सचमुच किसी न किसी रूप में मनहूस होता है ।
दोपहर का समय ।
करीब एक बज रहा था । मैं और मधु ( यह मेरी पत्नी का नाम है) इन्जवॉय के रेस्तरां में बैठ लंच ले रहे थे।
मधु खाने में व्यस्त थी, अचानक ही मैंने उसे पुकारा -
"मधु ।"
"जी ।" मधु के हाथ रूक गए।
"खाना वाकई अच्छा है ।"
"जी हां, रात के खाने से तो बहुत ही अच्छा, उस खाने को खाते वक्त तो मैं यह सोच रही थी कि घुमाने के नाम पर जाने इस बार आप मुझे कैसे शहर में ले आए हैं ?"
मैं मुस्करा दिया, बोला- "क्यों, जिन्दल पुरम् पसंद नहीं आया क्या ?"
"अब तो पंसद आ रहा है ।" मधु भी मुस्कराई ।
मैं खाने के नहीं, इस शहर के बारे में पूछा रहा हूं बेवकूफ।"
मधु की मुस्काराहट गहरी हो गई वह जानती है कि जब मुझे उस पर ज्यादा प्यार आता है तो मैं अक्सर उसे बेवकूफ कह दिया करता हूं।
बोली-"शायद आपको मालूम नहीं कि अच्छा खाना मिलना भी अच्छे शहर की खूबियों में से एक है।"
"तुम औरतों को तो बस खाने से ही मतलब है।" मैंने छेड़ा।
"हां - हां, क्यों नहीं और तुम मर्दो को क्या चाहिए, सैर-सपाटा, आंखे सेंकने के लिए बाजार में घूमती तितलियां ।”
"सबसे खूबसूरत तितली तो मेरे सामने बैठी है।"
बस - बस, बनाने को रहने दीजिए। मैं आपकी बीवी हूं, पाठक नहीं जो आपकी लच्छेदार बातों में फंसने के लिए पांच रूपये का नोट बर्बाद कर देते हैं।"
इस चुहलबाजी को जारी रखने के लिए अभी मैंने मुंह खोला ही था कि अचानक डायनिंग हॉल में एक शोर-सा उठा। काउण्टर क्लर्क सहित कई के मुंह से दबा-सा स्वर निकला-
"अ- अनूप साहब । अनूप साहब !"
हमारा ध्यान भी भंग हो गया ।
अचानक ही सरगर्मी- सी बढ़ गई थी। मेजों पर लंच लेते ग्राहक खड़े हो गए। होटल के स्टॉफ का प्रत्येक कर्मचारी साधारण अवस्था से बहुत ज्यादा चुस्त और चौकस नजर आने लगा और ऐसा उस युवा जोड़े के कारण हुआ था, जो अभी-अभी हॉल में प्रविष्ट हुआ था ।
मधु और हॉल में मौजूद सभी लोगों के साथ मेरी नजर भी उस तरफ उठ गई। काउण्टर के समीप खड़ा वह खूबसूरत जोड़ा मुस्करा रहा था। युवक किसी राजकुमार के समान सुंदर था और युवती !
उफ् ! मेरा दिल बहुत जोर से धड़क उठा। धड़कता हुआ गोश्त का लोथड़ा जैसे कंठ में आ फंसा । बरबस मेरे कंठ से दबी- दबी चीख निकल गई– "विभा !"
मधु चौंककर मेरी तरफ ही देखने लगी !
मेरा ध्यान मधु की तरफ बिल्कुल नहीं था । दिल नियंत्रण से बिल्कुल बाहर होकर किसी हथौड़े के समान पसलियों पर चोट कर रहा था। मैं एकटक उसी तरफ देख रहा था । दृष्टि उसी पर चिपककर रह गई थी । विभा के मुखड़े पर ! हां, निश्चय ही वह विभा थी । इन्द्र के दरबार की मेनका-सी । उतनी ही सुंदर, जितनी तब भी थी जब वह मेरे साथ पढ़ा करती थी, बल्कि उससे भी कहीं ज्यादा । दूध से गोरे, पूर्णिमा के चांद से गोल मुखड़े पर वे ही मृगनयनी आंखें। पंखुड़ियों जैसे होठ । सुतवा नाक । घने, काले और लम्बे बाल । कंठ ऐसा, जैसे कांच का बना हो। हां, वह विभा ही थी विभा !
उसके होठों पर मुस्कान थी।
जिस्म पर सच्चे गोटे के भारी जाल वाली कढ़ाई की साड़ी। उसी से मैच करता ब्लाऊज । गोल, भरी हुई कलाइयों में सोने की हीरे जड़ित चूड़ियां । गले में कीमती हीरों का जगमग करता नेक्लेस, होठों पर नेचुरल कलर की लिपिस्टिक। मुखड़े पर हल्का-सा मेकअप | मस्तक पर नाक के ठीक ऊपर सिंदूरी सूरज | सिंदूर से भरी मांग। नाक में नथ, और कानों में लटकने वाले बुन्दे पहने वह विभा ही खड़ी थी । कमान–सी भवों के नीचे उसकी काली और गहरी, मुस्कराती - सी आंखों में मैं खो गया । मधु शायद एकटक उस वक्त मुझे ही देख रही थी ।
विभा की दृष्टि अभी तक मुझ पर नहीं पड़ी थी ।
मेरा दिमाग में बड़ी तेजी से सवाल उभरा कि अगर वह मुझे देख ले तो क्या पहचान लेगी ? और यदि पहचान भी ले तो क्या मुझसे बात करेगी ?
अचानक ही जाने कहां से इन्जवॉय का मैनेजर प्रकट होकर उनके सामने पहुंचा सेवक की तरह झुककर उनकी अगवानी की। शायद उसने कुछ कहा !
अनुप और विभा एक खाली सीट की तरफ बढ़ गए।
मेरे दिमाग में बड़ी तेजी से ये विचार कौंधा कि यह अनूप वही, जिन्दल परिवार का एकमात्र जीवित चिराग अनूप जिन्दल है और वह उसकी पत्नी है।
विभा जिन्दल !
ओह ! मेरे दिमाग में पहले ही यह ख्याल क्यों नहीं आया कि यही विभा, विभा जिन्दल होगी। आता भी कैसे, मैं तो ख्वाब में भी नहीं सोच सकता था कि विभा इतने बड़े घराने की बहू बन गई होगी।
जो कुछ अपनी आंखों से देख रहा था, मुझे तो अब भी वह सब कुछ स्वप्न - सा लग रहा था । इस परिवार के साथ जुड़कर विभा शर्मा, विभा जिन्दल बन गई है ।
अभी अतीत का वह टुकड़ा मेरी आंखों के सामने उभरा ही था कि-
"कहां खो गए जनाब, क्या वह मुझसे भी सुंदर तितली है ?" मधु ने मुस्कराकर कहा ।
मैं बुरी तरह चौंका, बोला- "व... वह विभा है, मधु ।”
"कौन विभा ?” मधु ने धीमा से पूछा ।
परंतु मैंने हड़बड़ाहट में अपना वाक्य इतनी जोर से बोल दिया था कि आवाज हॉल में मौजूद दूसरे लोगों के अतिरिक्त अनूप और विभा ने भी सुन ली थी। दूसरों के समान चौंककर उन्होंने भी मेरी तरफ देखा, अगले ही पल विभा के कंठ में कहीं सितार बजा - "व... वेद ?"
मैं उछल पड़ा। मधु के सवाल का जवाब दिए बिना हक्का-बक्का...सा विभा की तरफ देखने लगा ।
"ओह, तुम तो सचमुच वेद ही हो !" विभा रूपी कोयल पुनः कूकी, वह खुश होकर लपकती- सी हमारी सीट की तरफ आई। हड़बड़ाकर में एक झटके से खड़ा हो गया ।
मधु भी खड़ी हो गई ।
" ह... हां विभा !" मैं हक्का-बक्का-सा था - "म... मैं तो तुम्हें यहां देखकर चकित रह गया !"
सारे हॉल की तरह मधु भी चकित निगाहों से हमारी तरफ देख रही थी। तब तक अनूप भी हमारी सीट के करीब आ चुका था, विभा ने बताया - "ये मेरे पति हैं, अनुप जिन्दल और ये है वेद प्रकाश शर्मा | मेरे साथ एल. एल. बी. में पढ़े हैं। वही, जिनके आप उपन्यास पढ़ते हैं ।"
“ओह !” कहने के साथ ही अनूप ने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया, बोला- "आपसे मिलाकर बहुत खुशी हुई शर्मा जी। मैं आपका फैन हूं। विभा अक्सर कहा करती थी तुम इसके साथ पढ़े हो ।”
"म... मुझे भी !" मैंने जल्दी से हाथ मिलाते हुए कहा- "य... ये मेरी पत्नी हैं मधु ।”
मधु ने अपनी आदत के मुताबिक हाथ जोड़कर जनमुस्ते की होड़ों पर मुस्कान बिखेरी और बोली- "लंच आपको
हमारे साथ ही लेना पड़गा ।"
"व्हाई नॉट ? बैठो विभा, तुम्हारा क्लासफैलो मिल गया है और मेरा फेवरेट राईटर | लंच में मजा आएगा !" कहने के साथ ही अनूप कुर्सी बैठ गया।
विभा उसके सामने वाली कुर्सी पर ।
मैं और मधु भी बैठ गए।
"और सुनाओ वेद, तुम यहां क्या कर रहे हो ?" विभा ने पूछा। मेरे कुछ कहने से पहले ही अनूप बोल पड़ा- "कर क्या करे होंगे, किसी नए प्लॉट की तलाश में होगें।"
मैं और मधु हंसे पड़े ।
देखीए जी, आप हम दोस्तों की बातों के बीच में नहीं टपकेगें !" विभा ने अनूप से कहा- "आपको अपने लेखक से बात करनी है तो बाद में करें, फिलहाल चुप रहने में ही आपकी भलाई है।"
अनूप ठहाका लगाकर हंस पड़ा।
मधु और मैं भी मुस्करा दिए, अनूप ने मधुर से कहा- "लीजिए मधु जी, हम दोनों ठूंठ रह गए। ये पुराने दोस्त मिल गए, अब भला हमारी परवाह कहां करेंगे ?"
"पुरानी दोस्ती में कशिश ही ऐसी होती है। !" मधु ने कनखियों से मुझे देखा ।
मेरे कुछ कहने से पहले ही वहां वेटर आ धमका। उनसे पूछकर मैंने उनकी पसंद के लंच का आर्डर का सारा सामान वेटर यूं ले आया जैसे लेने के लिए कहीं गया ही नहीं था । हम चारों एक साथ लंच लेने लगे। इधर-उधर की बातें होती रहीं । विभा ने स्वयं स्वीकारा कि अब जासूसी उपन्यास क्षेत्र में मेरा नाम खूब चल रहा है। उसने सफलता के लिए मुझे बधाई दी। अनूप जिन्दल किसी पाठक के समान ही मेरे उपन्यासों की तारीफ करता रहा, साथ ही कुछ ही कुछ वैसे प्रश्न करता रहा, जैसे अक्सर मिलने पर पाठक करते रहते हैं। जिस वक्त मैं और अनूप बात कर रहे थे उस वक्त मधु और विभा के बीच जाने क्या खिचड़ी पकती रही ? लंच में हमें एक घंटा लगा और इस घंटे में ऐसा लगने लगा था कि जाने हम सब कितने पुराने परिचित है, अनूप ने हमें डिनर पर इंवाईट किया और हमारे काफी इंकार करने पर भी न माना तो हमें स्वीकार करना ही पड़ा। हमने उनसे डिनर उन्हीं के यहां लेने का वादा कर लिया ।
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