विभा ने आई• जी• का नंबर बताकर मुझे उन्हें फोन करने और यहां पहुंचने के लिए कहा, मैं कमरे से बाहर निकला और वहां रखे फोन से आई जी• को फोन किया, दीनदयाल का बयान सच है या झूठ, पता लगाने के लिए विभा ने जिस पैमाने का निर्धारण किया था वह मुझे जंचा।


कुछ ही देर बाद वहां आई जी साहब आ गए ।


विभा ने दीनदयाल को उन्हें सौंपा, उसका पूरा बयान बताया और कहा कि इसे आज रात बिना किसी प्रकार का कष्ट दिए लॉकअप में रखा जाए। इसकी उंगलियों के निशान ताले और फोन पर मिले निशानों से मिलाएं जाएं। इस तरह दीनदयाल को लेकर आई• जी• साहब विदा हुए।


कमरे में पुनः मैं और विभा रह गए।


कुछ देर बाद की खामोशी के बाद विभा बोली- "मेरा अनुमान गलत निकला, सोचा था कि दीनदयाल का बयान इस सारे झमेले को किसी-न-किसी हद तक सुलझाएगा जरूर, लेकिन यहां तो मामला ही उल्टा निकला। झमेला कुछ और ज्यादा उलझ गया है।"


"तुम्हारा अपना अनुमान क्या है विभा, दीनदयाल झूठ बोल रहा है या सच?"


“सच।” उसने बिल्कुल स्पष्ट कहा।


मैंने चौंकते हुए पूछा-"फिर व्यर्थ ही उसे लॉकअप में बंद कराने का क्या मतलब?”


"ऐसी सिर्फ मेरी अनुभूति है वेद, और हत्या के केस में कोई भी रास्ता अनुभूतियों से नहीं, बल्कि ठोस सबूतां के आधार पर निर्धारित किया जाता है। कल सुबह तक के लिए उसे थोड़ी असुविधा होगी, सच प्रमाणित होने पर ही किसी को छोड़ना श्रेयस्कर होता है ।"


"इसका मतलब ये कि हत्यारे ने इसका फ्लैट इस्तेमाल किया है ?"


"बेशक!” विभा ने कहा - " और अगर यह बात सच है तो मानना पड़ेगा कि हत्यारा दुःसाहसी और बेहद चालाक है, उस तक पहुंचने के लिए दिमाग खपाना पड़ेगा और सच वेद, मेरे और उसके टकराव में मजा आ जाएगा।"


अपने जिस्म में दौड़ती हुई मैंने अजीब सनसनी महसूस की। विभा के भभकते चेहरे को मैं देखता ही रह गया। अचानक ही खुद को नियंत्रित करके वह बोली- "घटनाएं बहुत तेजी से घटी हैं और हर घटने वाली नई घटना से यह महसूस किया है कि कोर्ट रहस्य खुलने वाला है, परंतु अहसास के ठीक विपरीत घटने वाली हर नई घटना इस सारे मामले को पहले से कहीं ज्यादा जटिल बना देती है।"


"क्या तुम कोई अनुमान लगा सकी हो विभा ?"


"केवल यह कि वह संतरा इस केस में कुंजी है, अगर किसी तरह हमें यह पता लग जाए कि वे जोगा और उसके हाथ में दबे संतरे से इतना क्यों डरते थे तो बहुत से रहस्य खुल सकते हैं।"


"म.... मगर यह पता लगाना आसान नहीं।"


"आओ मेरे साथ ।" कहने के साथ ही वह तेजी से कमरे के बंदर दरवाजे की तरफ बढ़ गई, मैं उसके पीछे लगभग लपका ही था कि चटकनी गिराकर उसने स्वयं ही दरवाजा खोला और बाहर निकल गई । लिखने की आवश्यकता नहीं कि मैं उसके पीछे ही था ।


वह मुझे दूसरी मंजिल के एक कमरे में ले गई।


कमरे को देखते ही महसूस किया कि मैं किसी राजकुमार के शयनकक्ष में आ गया हूं, विभा ने कहा- "यह हमारा बेडरूम है, और वह है उनकी पर्सनल सेफ ।"


"पर्सनल सेफ से क्या मतलब है?"


कमरे की बाई दीवार में एक तिजोरी जैसी सेफ अटैच्ड थी। तिजोरी का केवल दरवाजा ही चमक रहा था और मैं देखते ही समझ गया कि वह 'नंबर लॉक' तिजोरी है, विभा की दृष्टि उसी पर केन्द्रित थी, बोली- "उसे खोलने की इजाजत मुझे भी नहीं थी ।"


"मैं समझा नहीं।"


"एक दिन मैंने उनसे इस सेफ या तिजोरी के बारे में बात की थी, खोलने के लिए नंबर जानना चाहा था, तब उन्होंने कहा था कि इस तिजोरी को सिर्फ जिन्दल परिवार का मालिक ही खोल सकता है, परिवार को स्त्रियों को कभी सेफ का नंबर नहीं बताया जाता ।"


"ऐसा क्यों ?"


"उनके शब्दों में इसे जिन्दल परिवार की परम्परा ही कहा जा सकता है।"


मैंने उत्सुक स्वर में पूछा- "म...मगर उसमें क्या है?"


"बहुत जिद करने पर उन्होंने मेरे इस प्रश्न का जवाब दिया था, बोले थे कि इसमें एक 'रायतादान' है।”


"रायतादान ?"


"हां, वही, जिसमें से आज से चालीस-पचास साल पहले दावत आदि में लोगों को 'रायता' सर्व किया जाता था।"


"म...मगर ।"


"जिन्दल पुरम् के संस्थापक यानी हरिकेश बहादुर जिन्दल ने पीतल का बना वही 'रायतादान' एक 'बनिए' के पास गिरवी रखकर एक आना उधार लिया था और उसी आने से उन्होंने वह लॉटरी को पत्ता खरीदा था, जिसे लेकर वे अपन झोंपड़ी के बाहर बैठे और ये जिन्दगल पुरम् खड़ा किया ।"


"तीस साल बाद हरिकेश बहादुर ने यही रायतादान बनिए को दस हजार देकर छुड़ाया था, इस कहानी के मुताबिक 'रायतादान' कम-से-कम जिन्दल वंश के लिए ऐतिहासिक और जिन्दल पुरम ! का संस्थापक बन गए। उसे इस सेफ में सुरक्षित रखा गया है और परंपरा के मुताबिक खानदान का प्रत्येक मालिक अपने उत्तराधिकारी को सेफ का नंबर तथा 'रायतादान' का रहस्य बताता रहा है।"


"ओह !"


"तब तो इसका नंबर बाबू जी को भी पता होगा?"


"क्या मतलब?"


"हां, जरूर पता होगा, लेकिन मैं उनके द्वारा नंबर बताए जाने तक इंतजार नहीं कर सकती।"


"कोशिश करके मैं इस सेफ को इसी समय खोलना चाहती हूं।"


"लेकिन क्यों, आखिर इसे खोलने से हमें अपने केस में क्या मदद मिलने वाली है?"


"मदद मिल भी सकती है वेद और नहीं भी, जब एक बार खानदार का मुखिया इस सेफ का रहस्य अपने वारिस को बता देता है तो उसके बाद वह स्वयं भी कभी सेफ को हाथ नहीं लगाता, यह बात वे जानते थे अतः अपनी किसी बहुत ही सीक्रेट चीज को इसमें निश्चिंत होकर रख सकते थे।"


"क्या तुम्हें लगता है कि इसके अंदर से कोई ऐसी वस्तु मिल सकती है, जिसमें संतरे के रहस्य का पर्दाफाश हो सके ?"


"यदि उनके पास कोई ऐसी वस्तु थी तो उन्होंने इसी में रखी होगी।" कहने के साथ ही विभा आगे बढ़कर सेफ के समीप पहुंच गई। सेफ कमरे के फर्श के केवल दो फुट ऊपर दीवार में फिक्स थी ।


विभा घुटने टेककर फर्श पर बैठी।


मैं समीप खड़ा उसे देखता रहा, एक क्षण भी बिना गवांए उसने डायल से छेड़छाड़ शुरू कर दी थी, विभिन्न नंबरों को घुमा कर वह सेफ का हैंडिल घुमाती रही।


समय गुजरने लगा। दो घण्टे गुजर गए।


मैं बुरी तरह बोर होने लगा था, एक क्षण का भी विश्राम लिए बिना निरंतर डायल से जूझती रही, वह पसीने–पसीने हो गई थी, कई बार मैंने उससे कहा भी कि अब वह उसे छोड़े, कल सुबह ट्राई करे, किंतु उसने जैसे मेरी बात सुनी ही नहीं। जुटी रही।


उस वक्त सुबह के चार बजे थे जब अचानक ही 'कट' की हल्की सी आवाज के साथ हैंडिल घूम गया । अपने जिस्म में मैंने स्फूर्ति सी महसूस की, विभा ने भी संतोष की सांस ली थी ।


मैं जल्दी से उसके निकट ही बैठ गया।


विभा ने सेफ खोली और उसके खुलते ही मैं चकित रह गया, शायद विभा भी, क्योंकि सेफ में कोई 'रायतादान' नहीं था । वह एक प्रकार से खाली ही था, परंतु पूर्णतया खाली भी नहीं कही जा सकती ।


सेफ की एक रैक पर सलीके से कागजों का एक पुलन्दा रखा था।


विभा ने अंदर हाथ डालकर पुलन्दा उठा लिया, वे कुछ पत्र थे। करीब तीस-बत्तीस पत्र होंगे, एक ही राईटिंग के । जाहिर था कि वे सभी पत्र किसी एक ही व्यक्ति ने लिखे थे। प्रत्येक पत्र कॉपी के सादे कागज पर था, हर पत्र को सम्बोधन था। "मेरे राजा अनूप"


प्रत्येक पत्र के अंत में - "तुम्हारी सुधा पटेल ।”


संबोधनों और लिखने वाली के नाम से हमें वे पत्र पढ़ने के लिए उत्सुक कर दिया । हम दोनों ही जैसे वहां से उठना भूल गए थे, वहीं बैठे-बैठे हमने पहला पत्र पढ़ा, दूसरा, तीसरा, चौथा, पांचवा और इसके बाद एक के बाद दूसरा पत्र पढ़ते ही चले गए ।


संक्षेप में मैं यही कह सकता हूं कि वे सभी पत्र दरअसल 'प्रेम पत्र थे जो किसी सुधा पटेल ने अनूप को लिखे थे, पत्रों से जाहिर था कि किसी जमाने में अनूप और सुधा पटेल आपस में प्यार करते थे, मगर कब यानि यह पता नहीं लगता था कि यह कहानी कितने दिन या वर्ष पुरानी है, क्योंकि किसी भी पत्र कोई तारीख नहीं थी। न ही किसी पत्र में सुधा पटैल का एड्रेस था यानि पत्रों से लिखने वाले के बारे में उसके नाम से अलावा अन्य कोई विशेष बता पता नहीं लगती थी, पत्रों से जाहिर था कि अनूप भी सुधा पटेल को पत्र लिखता रहा है, क्योंकि कई पत्र अनूप के पत्रों का जवाब थे। पत्रों में उन दोनों के अलावा कहीं-कहीं जो तीसरा नाम आया था, वह था जोगा का नाम । जोगा, अनूप और सुधा के बीच विलेन का काम कर रहा था । एक पत्र में सुधा ने लिखा था कि- "अनूप, यदि तुम कल सही वक्त पर न आ जाते तो जोगा मुझे बरबाद कर देता । मेरा सर्वस्व लूट लेता, मगर उससे चौकस रहना मेरे राजा, वह बहुत खतरनाक है। अब वह निश्चय ही तुम से बदला लेने की कोशिश करेगा।"


एक पत्र में सुधा ने लिखा था- ' -"तुम्हारा पत्र मिला अनूप, पढ़कर दुःख हुआ। तुमने लिखा है कि मैं अबॉर्शन करा लूं। सारा इंतजाम तुम कर लोगे, लेकिन नहीं अनूप । तुम्हारी सुधा इतनी नीच नहीं हैं कि अपने ही बच्चे को मार डाले। प्लीज, ऐसा फिर कभी मत लिखना अनूप । बरसात की उस रात में खोह के अंदर हममें कोई एक नहीं, बल्कि दोनों की बहक गए थे । और एक बार बांध टूट जाने के बाद हम दोनों ही बहकते रहे और उसी का परिणाम मेरे पेट में है। ऐसी घटना होने पर लड़कियां अक्सर सारा दोष लड़कों पर ही थोप देती हैं, परंतु मैं उनमें से नहीं हूं, मेरा भी उतना दोष है, जितना तुम्हारा...| और अब केवल इतना ही चाहती हूं कि ऐसा फिर कभी मत लिखना, वादा करती हूं, अपने या अपने बच्चे के लिए मैं कभी तुमसे कोई अधिक नहीं मांगूगी। हां, जोगा से सावधान रहना । लगता है उसे हमारे संबंधों की पूर्ण जानकारी है ।"


उससे अगले पत्र में लिखा था- "तुम्हारा जवाब पढ़कर खुशी हुई अनूप । भगवान का शुक्र है कि तुमने मेरी प्रार्थना सुन ली। अब कभी अबॉर्शन की बात जुबान पर नही लाओगे। मैं तुम्हारी मजबूरी समझती हूं अनूप तुम मुझसे शादी नहीं कर सकते। मुझे तुमसे कोई शिकवा, कोई शिकायत नहीं है। तुम्हें मालूम है न, मुझे गुलाब का फूल बहुत पसंद है। हर मुलाकात पर तुम मेरे लिए गुलाब का फूल लाया करते थे, मिलते ही उसे मेरे बालों में टांक दिया करते थे। मुझे बहुत अच्छा लगता था, बड़ी खुशी होती थी अब न हम मिल पाते हैं, न ही तुम गुलाब का फूल देते हो, मगर नहीं, शायद यह गलत है। तुमने तो मुझे गुलाब के फूल से भी कहीं ज्यादा अच्छा फूल दिया है। बेजान नहीं बल्कि ऐसा फूल जिसमें प्राण होंगे और हां, तुमने तो मुझे जीवन भर के लिए एक फ्लैट और खर्चा देते रहने के लिए लिखा है, इस पेशकश के लिए शुक्रिया अनूप | मगर नहीं, तुम्हारी रानी रखैल नहीं बनेगी। मुझे अपने प्रेमिका ही रहने दो। मैं कहीं भी रहकर इस फूल को जन्म दें दूंगी। सींचूंगी । संवारकर इसे अपने बुढ़ापे का सहारा बना लूंगी । यह फूल मेरा रहेगा अनूप, केवल मेरा। इस पर तुम्हारा भी कोई हक नहीं है । "


बस, सारे पत्रों में मिलाकर यह ही चंद उल्लेखनीय बातें थी ।


उन पत्रों में उलझे हमें करीब एक घंटा गुजर चुका था और सभी पत्र पढ़ने के बाद हमारे चेहरे तथा मन–मस्तिष्कों पर सन्नाटा सा छा गया था। काफी देर तक हम एक-दूसरे से नजरें तक नहीं मिला सके । विभा ने सारे पत्र पुनः सेफ में रखे, दरवाजा बंद करते ही डायल घूम गा ।


नंबर गड़बड़ा गए थे ।


विभा आहिस्ता से खड़ी हुई, उसके खड़े होने का अंदाज ही बता रहा था कि वह टूट - सी गई है। इन पत्रों ने निराशा के किसी गहरे अंधकूप में डाल दिया था उसे।


मैं स्वयं भी सोचता - सा रह गया ।


पत्रों की रोशनी में अनूप का चरित्र बहुत रोशन नहीं रह गया था, वह दागदार - सा नजर आ रहा था, कदाचित इन पत्रों को पढ़कर विभा के दिल में चोट - सी लगी थी, एकाएक वह मेरी तरफ घूमी और बोली- "इन पत्रों को पढ़ने के बाद तुम किस नतीजे पर पहुंचे वेद ?"


"मैं, मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है।"


"मैं जानती हूं कि पत्रों को पढ़ने के बाद तुम जिस नतीजे पर पहुंचे हो उसे केवल इसलिए कहना नहीं चाहते, क्योंकि वह मेरे पति थे, लेकिन नहीं दोस्त, हम इस वक्त एक हत्या के केस की तफ्तीश कर रहे हैं और हमें किसी भी सामाजिक रिश्ते के बंधन में कैद नही रहना है। सब कुछ भूलकर वही करना है, जो सुबूत कह रहे हैं।"


मैं चुप रहा, चाहकर भी कुछ नहीं कह सका था।


वह फिर बोली- "जोगा और उसके द्वारा खाए गए संतरे से जिस तरह आतंकित होते थे, उसी से जाहिर था कि अपनी पिछली जिंदगी में उन्होंने कोई ऐसा गुनाह किया है जिससे वे डरते हैं और जिसके खुलने से बेहतर उन्होंने आत्महत्या समझी, ये पत्र बताते हैं कि सुधा पटेल और उनका संबंध ही वह रहस्य था, जिसे जोगा जानता था और संतरे के छील डालने की धमकी इसी रहस्य को खोल देने की धमकी थी ।"


मैंने बड़ी मुश्किल से कहा- "इस रहस्य से भला संतरे का क्या मतलब ?”


"तुम व्यर्थ ही उनके पक्ष में सोचने की कोशिश कर रहे हो वेद, सारा मामला बिल्कुल साफ है । वे सुधा पटेल से प्यार करते थे। बहक गए थे। उन बहके हुए क्षणों का फोटो आदि जोगा के कब्जे में था, वे उसी के प्रकाशित होने से डरते थे। अपने जीते जी उन जैसा कोई भी इज्जतदार व्यक्ति ऐसा रहस्य प्रकट होने देने की अपेक्षा मर जाना पसंद करेगा ।"


मैं चुप रह गया |


मेरी वही धारणा बन गई थी, जो विभा कह रही थी। हां, उस सबको मैं अपने मुंह से विभा के सामने कहने का साहस नहीं जुटा सका था जबकि विभा कहती ही चली गई- "मुझे यह अफसोस नहीं है कि उन्होंने सुधा से प्यार किया, उनके बहक जाने का भी अफसोस नहीं है, क्योंकि साधारण लोंगों से अक्सर ऐसा हो जाता है। अफसोस है तो केवल इस बात का कि उन्होंने सुधा के साथ न्याय नहीं किया।"


मैं अब भी चुप ही रहा।


"खैर, हम किसी एक व्यक्ति के चरित्र का विश्लेषण नहीं बल्कि हत्या की वारदात की तफ्तीश कर रहे हैं, एक बार फिर मेरा अनुमान गलत साबित हो गया है। सोचा था कि अगर संतरे का रहस्य खुल जाए तो सारी गुत्थियां सुलझ जाएंगी, लेकिन एक बार फिर गुत्थियां कुछ और ज्यादा उलझ गई हैं । "


"व...वह कैसे ?" म.....मेरे ख्याल से तो.... 


" हां... हां, बोलो, तुम्हारे ख्याल से क्या ?"


मैंने साहस करके कहा- "मेरे ख्याल से तो सब गुत्थियां सुलझ गई हैं, केवल इतना - सा ही चक्कर था, जोगा भी सुधा से प्यार करता होगा। अनूप बाबू से उसे ईर्ष्या होगी, इसलिए उसने अनूप बाबू की हत्या कर दी ।"


"तब फिर उस पहेली का क्या मतलब ?"


"व.... वह कोई और चक्कर होगा।"


"उसी चक्कर का तो पता लगाना है।" विभा बोली- "यह भी पता लगाना है कि सुधा पटेल और यदि उसका बच्चा हो चुका है तो वे कहां है । जिक्र था कि इस सेफ में रायतादान है, वह कहां गया ?”


"संभव है, कोई रायतादान न रहा हो, अनूप बाबू ने केवल तुम्हें संतुष्ट करने के मकसद से ही झूठ बोला हो ।"


"हो सकता है, लकिन ऐसी संभावना कम ही है, खैर, सेफ में रायतादान था या नहीं, इस सवाल का जवाब तो वक्त आने पर बाबूजी भी दे सकते हैं। फिलहाल हमारे सामने दो महत्वपूर्ण काम हैं, सुधा पटेल और उसके बच्चे को तलाश करना । जोगा को तलाश करना, जिसमें हेयर पिन हमारी मदद कर सकता है।"


"सुधा और उसके बच्चे को तलाश करके तुम क्या करोगी ?"


"यह तो वक्त बताएगा वेद, सुबह हो गई है। फिलहाल तुम जाकर थोड़ी देर के लिए आराम कर लो और याद रखना, जिस रहस्य को रहस्य ही बनाए रखने के लिए उन्होंने आत्महत्या कर ली, यानि इन पत्रों का अभी किसी से जिक्र न करना । उम्मीद है कि तुम बाजार खुलने से पहले ही सर्राफ़ा चले जाओगे।"


मैं चुपचाप कमरे से बाहर निकल गया ।