पैदल चलता मैं 'कोजी कॉर्नर' पहुंचा ।
उस घड़ी वो जगह खाली पड़ी थी । केवल परले कोने की टेबल पर एक नौजवान जोड़ा सिर से सिर जोड़े बैठा था ।
मैं भीतर दाखिल ही हुआ था कि बार पर से मेरे परिचित बारमैन ने मेरा अभिवादन किया ।
हाथ हिला कर अभिवादन स्वीकार करता मैं बार पर पहुंचा । मैंने बारमैन से एक बीयर हासिल की और बार स्टूल पर काबिज होने की जगह वहां से परे जाकर प्लेन ग्लास की बरामदे की ओर की विशाल खिड़की के पास जाकर एक टेबल पर बैठा ।
डनहिल के कश लगाता मैं बीयर चुसकने लगा ।
दिल्ली की सर्दियों में धूप खिली दोपहर में बीयर पीने का अपना ही मजा होता था । आपके खादिम को कोई काम धाम न हो तो वो मजा दोबाला हो जाता था ।
काम काज न हो तो वैसे भी ऐब की तरफ तवज्जो ज्यादा जाती है । उन दिनों क्लायंट्स का बिजनेस का तोड़ा था इसलिये अक्सर मैं नेहरू प्लेस में स्थित अपने यूनीवर्सल इनवैस्टिगेशंस के ऑफिस में भी नहीं जाता था जिसे कि मेरी गैरहाजिरी में मेरी सैक्रेट्री रजनी बाखूबी सम्भाल लेती थी वो बावक्तेजरूरत मुझे मेरे मोबाइल पर फोन कर देती थी ।
ऐसी जरूरत पिछले दो हफ्ते से पेश नहीं आयी थी ।
"एक्सक्यूज मी !"
मैंने बीयर के गिलास पर से सिर उठाया ।
एक नौजवान लड़की मेरे से मुखातिब थी । वो कमउम्र थी और अपनी जींस-कुर्ती की पोशाक से और पानीटेल में बंधे बालों से कालेज स्टूडेंट जान पड़ती थी। उसके मेकअपविहीन नयननक्श सुथरे थे और रंग गोरा था । उसके चेहरे पर अवसाद के भाव थे और खूबसूरत भूरी आंखें बुझी बुझी सी जान पड़ती थीं ।
“यस ?" - मैं भवें उठाता बोला ।
“आर यू मिस्टर सुधीर कोहली ?"
“आई एम ।"
“दि फेमस प्राइवेट डिटेक्टिव ?"
“दोनों बातें ठीक । चर्चा है तो सही दिल्ली में और आसपास चालीस कोस तक सुधीर कोहली पीडी की फेम का ।"
“मैं पिंकी तलवार हूं..."
नाम का मेरे पर कोई असर नहीं हुआ लेकिन तब उसने साथ जोड़ा -
"... शीना की छोटी बहन | "
"ओह !"
मैंने फिर से उसकी सूरत पर निगाह डाली तो उस बार वो मुझे शीना से मिलती भी जान पड़ी ।
"बैठो !" - मैं बोला ।
वो मेरे सामने बैठ गयी ।
"कुछ पियोगी ?"
उसने एक उड़ती निगाह मेरी बीयर पर डाली ।
"मैं ड्रिंक नहीं करती ।" - फिर बोली ।
"बीयर को आजकल ड्रिंक कौन मानता है ! लेकिन वो किस्सा फिर कभी । ये रेगुलर रेस्टोरेंट है, कोई नार्मल, सोशल, सिविल ठण्डा ! गर्म !"
"जरूरत नहीं । लेकिन अगर यहां आ कर बैठने वाले के लिये कुछ आर्डर करना जरूरी होता है तो..."
“नहीं, नहीं । ऐसी कोई बात नहीं । यू बी कम्फर्टेबल ।” "थैंक्यू । आप शीना से वाकिफ थे ?"
"था तो सही, लेकिन" - मैं सावधान स्वर में बोला. "मामूली तौर पर । उतना ही जितना कि कोई ऐसी जगह का रेगुलर किसी सुपरवाइजरी स्टाफ से हो सकता है।"
“आई सी । पुलिस कहती है उसने खुदकुशी की ।"
"सुना तो ऐसा ही है !"
तत्काल उसकी गर्दन यूं हिली जैसे उसे मेरे सुने से नाइत्तफाकी हो ।
"तुम्हारा खयाल जुदा है ?" - मैंने उत्सुक भाव से पूछा ।
"हां।" - वो दृढ़ता से बोली- "और जो है, वो मेरा खयाल नहीं, यकीन है । "
"क्या ?"
"शीना ने खुदकुशी नहीं की है । "
"उसने खुद खिड़की से बाहर छलांग नहीं लगाई ?"
"नहीं लगाई । ये मुमकिन ही नहीं। मैं क्या जानती नहीं अपनी बहन को ! उसके मिजाज को !”
“तो ?"
“उसका कत्ल हुआ है। मुझे सौ फीसदी गारंटी है उसका कत्ल हुआ है।"
"गारंटी की कोई बुनियाद ?"
“मैं” - उसने बम सा छोड़ा - "कातिल को जानती हूं।"
“अच्छा !"
"हां।" - उसके स्वर की दृढ़ता में कोई कमी न आयी ।
“कौन है कातिल ?”
"मनोरथ सलवान ।”
मैंने वो नाम कभी नहीं सुना था ।
"होने को कोई और भी हो सकता है।" - वो आगे बढ़ी "लेकिन मेरा दावा मनोरथ सलवान पर है। "
“वजह ?"
“शीना का लिव-इन पार्टनर था । इस वजह से जो वारदात हुई उसको अंजाम देने की सबसे ज्यादा सहूलियत उसी को हासिल थी । रोज का वास्ता हो तो... तो... आप समझे मेरी बात ?”
"नहीं ?"
"भई, बर्तन खड़कते ही हैं । आपस में सौ तकरार हो - जाती हैं ऐसी तकरार जिनमें आदमी आपे से बाहर हो जाता है, हत्थे से उखड़ जाता है। ऐसे भड़के मूड में, ऐसे माहौल में कुछ भी हो सकता है।"
"लिव-इन पार्टनर को दस मंजिल ऊंची खिड़की से बाहर धकेला जा सकता है !"
“क्यों नहीं ?"
"जो मुझे कह रही हो, वो पुलिस को बोला होता!" “बोला था ।”
“अच्छा, बोला था ! उन्होंने क्या कहा ?”
“कान से मक्खी उड़ाई। खुदकुशी, खुदकुशी भजना न छोड़ा ।"
“आई सी ।"
" शीना ने खुदकुशी की होती तो पिल खाती । उसका ओवरडोज खा लेती और चैन की मौत मरती ।"
"वो नशा करती थी ? नशे की गोलियां खाती थी ?"
"हां । दिल्ली जैसे महानगर में अकेली रहती बालिग, खुदमुख्तार लड़की के लिये ये कोई नई बात नहीं । मॉडरेट, साफ्ट ड्रग्स आज की सोसायटी में इन थिंग हैं । "
“लिहाजा पिल का शौक तुम भी करती हो !"
"नहीं, मैं नहीं ।”
"क्यों ? तुम बालिग नहीं हो, खुदमुख्तार नहीं हो या आज की सोसायटी का हिस्सा नहीं हो ?"
"सब कुछ हूं लेकिन ड्रग्स नहीं । अभी नहीं । आगे का पता नहीं ।”
"हूं।"
" शीना छब्बीस की थी। मैं उससे चार साल छोटी हूं । मुझे अपनी बहन से बहुत प्यार था । वो मेरा आदर्श थी ।"
"लेकिन ड्रग्स के मामले में नहीं !"
" अब छोड़िये वो किस्सा और बात का मर्म समझने की कोशिश कीजिये ।"
“समझ रहा हूं । ये समझ रहा हूं कि शीना ने खुदकुशी नहीं की, उसका कत्ल हुआ और कातिल मनोरथ सलवान नाम का एक शख्स है जो कि हेली रोड के हिमसागर नाम के टावर के शीना के फ्लैट में उसके साथ रहता था ।”
"हां ।"
"मुझे क्यों बता रही हो ?"
"क्योंकि आप पीडी है, बतौर पीडी दिल्ली शहर में आपका बड़ा नाम है । आप अपने ट्रेड के टॉप के हैं। "
"वो तो मैं हूं ऊपर वाले की मेहर से लेकिन चाहती क्या हो ?"
"इतने नादान सूरत से जान तो नहीं पड़ते आप कि न जानते हो कि मैं क्या चाहती हूं ! कातिल का पता लगाइये, मिस्टर कोहली ।"
“वो तो तुम्हीं ने लगा लिया है !”
"सबित करके दिखाइये । उसके चेहरे पर से नकाब नोच कर दिखाइये ताकि कातिल का नापाक चेहरा सब पर नुमायां हो । "
"मैंने केस की तफ्तीश की, मेरी तफ्तीश का नतीजा ये सामने आया कि ये खुदकुशी का ही केस है तो ?"
"तो मेरी किस्मत ।" - वो आह सी भरती बोली - "मेरी बहन की किस्मत ।”
“यानी यकीन कर लोगी ?
"नहीं।"
। "हूं । तुमने मुझे टॉप का बोला । टॉप के स्पैशलिस्ट की फीस भी टॉप को होती है । मालूम !"
उसने जवाब न दिया, उसने गोद में रख कर अपना हैण्डबैग खोला और उसमें से हजार के नोटों की एक गड्डी निकाल कर मेरे सामने मेज पर रखी ।
"कॉल सेंटर की जॉब करती हूं।" - फिर धीरे से बोली"ये मेरी कुल जमा पूंजी है । इसके अलावा मेरे पास कुछ नहीं । अगर इतने से आपका काम चलता हो तो..." -
वो खामोश हो गयी । उसने सिर झुका लिया ।
"कितने हैं ?" - मैंने पूछा ।
"पैंतीस ।" - बिना सिर उठाये वो बोली ।
मैं पांच दिन के मिनीमम के साथ दस हजार रुपये प्रति दिन जमा खर्चे चार्ज करता था । कड़की का दौर हो तो दस की जगह सात चार्ज कर लेता था लेकिन मिनीमम के साथ, एक्सपेंसिज के साथ कम्प्रोमाइज नहीं करता था । वो कड़की का दौर था इसलिये पैंतीस हजार में मेरी सेवायें प्राप्त की जा सकती थीं, मैं जानता था यूं उसकी कुल जमा पूंजी कब्जा लेना उसके साथ जुल्म होता लेकिन घोड़ा घास से यारी करता तो खाता क्या !
फिर मैं दर्दमंदों के आंसू बटोरता होता तो समंदर मेरा अपना होता ।
आखिर मैंने फैसला किया ।
मैंने पंद्रह नोट उठा लिये ।
***
मैं पुलिस हैडक्वार्टर पहुंचा।
पिछले रोज मैंने नये क्लायंट के लिये काफी फुट वर्क किया था लेकिन बाराखम्बा रोड थाने में, जिसके अंडर कि वो केस आता था, मैं किसी को उस बाबत विस्तृत बात करने के लिये राजी नहीं कर सका था क्योंकि हर किसी की जिद थी कि खुदकुशी के उस मामूली वाकये में बात करने लायक कुछ था ही नहीं । फिर मैंने पुलिस हैडक्वार्टर में अपने वाकिफ इन्स्पेक्टर देवेंद्र यादव से बात करने की कोशिश की थी लेकिन कोशिश नाकाम रही थी क्योंकि वो वहां अपने आफिस में मौजूद नहीं था ।
कल के अधूरे काम को पूरा करने के लिये मैं सुबह साढे दस बजे ही पुलिस हैडक्वार्टर पहुंच गया था ।
इस्पेस्टर देवेंद्र यादव से मेरा बड़ा अजीबोगरीब लव-हेट रिलेशन था । कभी उसे मेरे अहसान याद आ जाते थे तो मेहरबान हो जाता था, नहीं याद आते थे, या नहीं याद करना चाहता था, तो ऐसे पेश आता था जैसे मेरी सूरत से भी नावाकिफ हो ।
उस रोज कुछ दरम्याना सा व्यवहार उसने मेरे साथ किया।
शीना की मौत के हवाले से मैं उसको उसकी छोटी बहन के बारे में बताया और केस की बाबत उसकी मजबूत धारणा से उसे वाकिफ कराया ।
"नानसेंस !" वो मुंह बिगाड़ता बोला- "ये खुदकुशी नहीं तो बड़ी हद एक हादसा है । कत्ल का तो कोई मतलब ही नहीं । "
"फिर भी..." - मैंने कहना चाहा ।
“क्या फिर भी ? बात को समझो, भई । तुम्हारा यहां मेरे पास आना बेमानी है। मैं उन्हीं केसों के लिये ऑफिसर आन स्पैशल ड्यूटी मुकर्रर हूं जो कि निर्विवाद रूप से कत्ल के केस हों । ये कत्ल का केस नहीं है इसलिये मेरे पास नहीं है । थाने जाओ ।”
- "वहां भी चला जाऊंगा।" - मैं धीरज से बोला . "लेकिन केस से वाकिफ तो हो न ?”
"हां, वाकिफ तो हूं ! महकमे का हिस्सा जो ठहरा !"
“अपना जाती खयाल तो बता सकते हो अपने दोस्त को!"
“दोस्त ! वो कौन हुआ ?"
0 Comments