उसका नाम शीना तलवार था और वो कनाट प्लेस के उस बार-कम- रेस्टोरेंट में स्टीवार्डेस थी जिसका नाम कोजी कार्नर था और जो मेरा फेवरेट था । शाम को जब भी मैं खाली होता था या मुझे तनहाई सताती जान पड़ती थी तो मैं हमेशा वहीं पहुंचता था जहां का मालिक, मैनेजर, बारमैन समेत सारा स्टाफ मेरा वाकिफ था । कोई स्टीवार्डेस वहां पहले नहीं होती थी क्योंकि 'कोजी कार्नर' का विलायती पब जैसा बार होने पर ही जोर था । लेकिन पिछले एक साल में कनाट प्लेस में इतने बार हो गये थे और आये दिन अभी और खुल रहे थे कि कम्पीटीशन झेलना मुहाल था इसलिये 'कोजी कार्नर' के मैनेजमेंट ने उसके रेस्टोरेंट वाले पहलू पर अतिरिक्त फोकस बनाने का फैसला किया था और उसी दिशा में रौनक के लिये, सजावट के लिये एक स्टीवार्डेस को एंगेज किया गया था जो कि शीना तलवार थी। रेस्टोरेंट बिजनेस में आम तौर पर ऐसी महिला होस्टेस कहलाती है लेकिन वहां क्योंकि वो स्टीवार्ड वाली जगह रखी गयी थी इसलिये स्टीवार्ड का फैमिनिन संस्करण स्टीवास कहलाती थी ।
- बार आधी रात तक चालू रहता था लेकिन रेस्टोरेंट का धंधा तब तक कबका ठंडा पड़ चुका होता था इसलिये शीना तलवार की ड्यूटी दोपहरबाद एक बजे से ले कर दस बजे तक ही होती थी । वहां उस जैसी एक लड़की और थी जो कि बारह बजे तक क्लोजिंग टाइम तक ठहरती थी । उसका नाम रुचि कालरा था और वो एक तरह से वहां शीना की अंडरस्टडी थी, अमूमन वही काम करती थी जो शीना उसे करने को कहती थी।
वो शीना से दो घंटे लेट आती थी इसलिये दो घंटे लेट जाती थी । शाम सात से नौ तक दो घंटे बार का बिजनेस जलाल पर होता था इसलिये कभी कभार कोई मनचला घूंट का रसिया नशे में शीना के साथ कोई गैरवाजिब हरकत कर बैठता था - मसलन कमर में हाथ डाल देता था, नितम्ब पर थपकी दे देता था, कहीं हल्की सी, मखौल जैसी चिकोटी काट लेता था लेकिन शीना बड़े सब्र के साथ मुस्करा कर उस बेजा हरकत को झेलती थी इसलिये कम से कम इस वजह से कभी किसी फौजदारी की नौबत नहीं आयी थी । रेस्टोरेंट के वहां के धंधे ने जल्दी जोर पकड़ लिया था - अब ऐसे फैमिली वाले लोग भी वहां आने लगे थे जिनका घूंट से कोई सरोकार नहीं होता था इसलिये शीना बद्सलूकी की बाबत कोई शिकायत करती तो यकीनन उसको डिसमिस कर दिया जाता और उसकी जगह किसी मर्द को, स्टीवार्ड को, रख लिया जाता । -
शीना इस हकीकत से वाकिफ थी इसलिये खामोश रहती थी ।
खाकसार को आप भूले तो न होंगे ! भूल गये हों तो याद दिला देता हूं कि बंदे को सुधीर कोहली कहते हैं और बंदा तब से राजधानी में पीडी के धंधे में है जबकि यहां उसका दर्जा अंधों में काना राजा जैसा था । अलबत्ता अब वो बात नहीं रही थी, अब दिल्ली में, एनसीआर में प्राइवेट डिटेक्टिवों की भरमार थी, बड़ी बड़ी, फैंसी फर्म खुल गयी थीं, जिनमें से कई का तो इंगलैंड, अमेरिका, सिंगापुर की पीडीज के बड़े संस्थानों से टाई अप था लेकिन फिर भी ऊपर वाले की कृपा थी कि पीडी सुधीर कोहली दिल्ली और आसपास चालीस कोस तक बड़ी मकबूलियत के साथ जाना जाता था ।
बहरहाल जब आप सुधीर कोहली को जान गये हैं तो ये भी जान ही गये होंगे कि मेरा मिजाज लड़कपन से आशिकाना है । इस वजह से शीना तलवार के कद्रदानों की लिस्ट में हालिया इजाफा यूअर्स टूली के नाम का भी हो गया था । इजाफा हालिया बोला मैंने इसलिये फिलहाल उसके बारे में मैं इतना ही जानता था कि उसकी उम्र छब्बीस साल थी, वो हेली रोड के एक नये बने पंद्रह मंजिला रेजीडेंशल टावर की दसवीं मंजिल के एक छोटे से फ्लैट में रहती थी, शक्लसूरत वाह वाह थी, बनी भी बढ़िया हुई थी और मूलरूप से जम्मू की रहने वाली थी । उसके परिवार के बारे में मुझे कोई वाकफियत नहीं थी लेकिन इतना मालूम था कि दिल्ली में उसका रहन सहन खुदमुख्तारी वाला था जो कि दिल्ली के लिये कोई नयी बात नहीं थी। नौकरी की मजबूरी में हजारों नौजवान लड़कियां दिल्ली में अकेली रहती थीं लेकिन ज्यादातर की तरजीह पेईंग गैस्ट अकामोडेशन होती थी, शीना की तरह इंडिपेंडेंट फ्लैट में रहने वालियों की तादाद ज्यादा नहीं थी।
फिर एक दिन शीना तलवार शीना मरहूम हो गयी ।
वो दिसम्बर का महीना था और बुधवार का दिन था । यानी सर्दियों का मौसम था लेकिन दिल्ली की फेमस सर्दी, जिसमें रात का तापमान दो-ढ़ाई डिग्री तक पहुंच जाता था, अभी दिल्ली में सैट नहीं हुई थी । बीच बीच में कभी बेमौसम बरसात का छींटा पड़ जाता था तो ठण्ड बढ़ जाती थी लेकिन अगले रोज चमकीली धूप फिर निकल आती थी तो सब ठीक हो जाता था ।
यूअर्स टूली का जाती खयाल है कि सर्दी से बचने के लिये हाथ दास्ताने में होने चाहिये या ब्लाउज में लेकिन वो किस्सा फिर कभी
वो ऐसा ही एक दिन था जबकि आधी रात को शीना पके आम की तरह हाईराइज टावर से उसके पथरीले कम्पाउंड में टपकी । रात को नीचे कारें खड़ी होती थीं लेकिन वो आकर किसी कार की छत पर न गिरी, ऐसा संयोग हुआ कि दो कारों के बीच आ कर गिरी ।
तीन या बड़ी हद तक चार सैकेंड लगे होंगे उसे अर्श से फर्श पर होने में और तत्काल बाद वो फिर अर्श पर अपने बनाने वाले के रूबरू थी ।
सामान सौ बरस का, पल की खबर नहीं ।
आधी रात का वाकया था इसलिये खबर अखबारों में नहीं जा सकी थी, अलबत्ता सुबह टीवी की हर न्यूज़ चैनल पर उसका जिक्र था । अपने भगवानदास रोड पर स्थित आवास में जो कि हेली रोड से कोई ज्यादा दूर नहीं था - ब्रेकफास्ट के दौरान टीवी पर मैंने वो खबर देखी थी। तभी मुझे पता लगा था कि बरामदी के वक्त दो ऊपर से नीचे तक नंगे पांव थी । दूसरे शब्दों में लाश के जिस्म पर कपड़े की एक धज्जी भी नहीं थी ।
जो कि हैरानी की बात थी ।
किसी ने उसे गिरते नहीं देखा था । जिस्म के जमीन से टकराने की जो भीषण आवाज हुई थी, उसीकी वजह से टावर के इकलौते वाचमैन की तवज्जो उसकी तरफ गयी थी, वो दौड़ा दौड़ा वहां पहुंचा था और फिर उसीने वारदात की
बाबत पुलिस का '100' नम्बर खटखटाया था ।
***
हत्प्राण के आवास वाले पंद्रह मंजिला टावर का नाम हिमसागर था - क्यों था, रिसर्च का मुद्दा था। दिल्ली में हिम का, बर्फ का, क्या काम- वारदात को हुए अभी दस-बारह घंटे हुए थे लेकिन वहां वारदात की चुगली करने वाली कोई बात नहीं थी - सिवाय इसके कि जहां वो आ कर गिरी थी, वहां चाक से एक आउट लाइन खिंची हुई थी और उसके गिर्द दिल्ली पुलिस का मौकायवारदात को संरक्षित करने वाला पीला रिबन तना हुआ था ।
कम्पाउंड में खड़े हो कर मैंने सिर उठा कर टावर की ऊंचाई पर निगाह दौड़ाई ।
कौन सी खिड़की होगी उसकी ?
मैंने निगाह से मंजिले गिनने की कोशिश की लेकिन हर बार निगाह भटक गयी ।
फिर मैंने नोट किया कि टावर के उस रुख में सिर्फ एक ही खिड़की खुली थी । लिहाजा वही दसवीं मंजिल थी और खुली खिड़की जरूर बदनसीब शीना के फ्लैट की थी ।
कितनी ऊंचाई पर होगी वो खिड़की !
सवा सौ फुट से कम क्या होगी ऊंचाई !
इतनी ऊंचाई से गिरने पर क्या बचना था बेचारी का !
तौबा !
मैं लॉबी में पहुंचा ।
वहां एक तरफ वाचमैन का केबिन था। भीतर प्राइवेट सिक्योरिटी की वर्दी में एक कोई चालीस साल का, तावदार मूंछ वाला व्यक्ति मौजूद था ।
मेरे इशारे पर वो बाहर निकला और मेरे करीब आ कर खड़ा हुआ ।
"बहुत बुरा हुआ !" - मैंने अफसोसनाक लहजे से कहा
उसने सहमति में सिर हिलाया, पर ये न पूछा कि क्या बहुत बुरा हुआ, मेरा इशारा किस तरफ था !
हौलनाक वारदात हालिया हो तो जेहन यूं ही कंडीशंड होता है ।
“नौजवान लड़की!” - मैं उसी लहजे में आगे बढ़ा - “इतनी जल्दी रुखसत हो गयी इस फानी दुनिया से ! अभी तो सारी जिंदगी आगे पड़ी थी... "
“आप वाकिफ थे ?” - वो हमदर्दीभरे अंदाज से बोला ।
"हां, भई । ज्यादा तो नहीं, मामूली वाकफियत थी । लेकिन यूं तो गैर का जाना भी कलेजा छील जाता है। नहीं ?"
"हां ।" - वो अनिश्चित सा बोला ।
“जानते, पहचानते होगे उसे ?"
"हां"
"हूं।"
“मैं तो, साहब, इतनी ऊंची बिल्डिंगों के ही खिलाफ हूं । आदमी का बच्चा धरती पर पैदा हुआ है, उसे धरती पर ही पांव टिका कर रखने चाहिये । आसमान को टाकी लगाने का क्या फायदा ! इन बातों का कोई ओर ओर है ! विलायत में सुना है सौ-सौ, डेढ़-डेढ़ सौ मंजिल की इमारतें बनती हैं । हादसा होते पता लगता है ! जितनी ज्यादा ऊंचाई, उतनी ज्यादा जान जाने की गारंटी । "
"सही बोला । वो दसवें माले पर थी ?"
“हां ।”
"रहन सहन कैसा था ? आवाजाही कैसी थी ? कोई खास मेहमान..."
तभी एक कार पार्किंग में आ कर रुकी और तीन आदमी उसमें से बाहर निकले ।
“मैं चलता हूं ।” - अपार व्यस्तता जताता वो एकाएक बोला - "ड्यूटी करना है न !”
वो घूमा और आगंतुकों की तरफ लपका।
मुझे उम्मीद थी कि दो उनसे फारिग होकर वापिस मेरे पास लौटेगा लेकिन ऐसा न हुआ । वो लोग लिफ्टों की ओर बढ़ गये तो वो वापिस अपने केबिन में चला गया और फिर वहां से न निकला ।
न ही उसने मेरे से फिर निगाह मिलाई ।
अब वहां कुछ नहीं रखा था । पार्टी उखड़ गयी थी ।
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