मैं कोई जुआरी नहीं लेकिन कभी-कभार तीज-त्यौहार में ताश खेल लेने से परहेज नहीं करता । दीवाली पर तो मैं आफिस में या किसी दोस्त के घर जरूर ही जुए की बैठक में शामिल होता हूं लेकिन जिस जुए की महफिल में मैं इस दीवाली पर शामिल हुआ, वह मेरी कल्पना से परे थी । जिन चार सज्जनों के साथ मैंने जुआ खेला उनमें से एक को मैंने पहले कभी नहीं देखा था, एक को मैं केवल सूरत से पहचानता था और बाकी दो मेरे दोस्त थे ऐसे दोस्त जिनसे आजकल उठना बैठना कम था लेकिन बचपन में वे मेरे सहपाठी और जिगरी दोस्त रह चुके थे। उनके नाम थे शामनाथ और बृजकिशोर । अन्य दो सज्जन उन्हीं के दोस्त थे । मेरे लिए जो नितान्त अजनबी था, उसका नाम खुल्लर था और चौथे साहब थे कृष्ण बिहारी ।
जुए के लिए जो स्थान चुना गया था उसकी कल्पना मैंने नहीं की थी । उन्होंने, रणजीत होटल में एक दो कमरों का सूट बुक करवाया हुआ था। मुझे बड़ी झिझक हुई । रख-रखाव से ऐसा लग रहा था जैसे बहुत ऊंचे दर्जे के जुए का प्रोग्राम था जबकि ऊंचे दर्जे का जुआ खेलने लायक न मुझमें हौसला था और न मेरे पास पैसा था । लेकिन अब ऐन मौके पर मैं अपनी इन कमियों को उन लोगों की निगाहों में नहीं आने देना चाहता था, इसलिये मैं उनमे जम गया ।
रात को दस बजे मैं शामनाथ के साथ वहां पहुंचा। बाकी के तीन सज्जन वहां पहले ही मौजूद थे । हमारे वहां पहुंचने के लगभग फौरन बाद फ्लैश का खेल शुरू हो गया ।
मैंने सुना था कि बृजकिशोर पेशेवर जुआरी था और खुल्लर और कृष्ण बिहारी के बारे में मुझे तब बताया गया कि वे दोनों बड़े उस्ताद खिलाड़ी समझे जाते थे। लेकिन मुझे उन चारों में से किसी में भी कोई उस्तादी वाली बात नहीं दिखाई दी । मैं मामूली खिलाड़ी था जो जीतने की तो कभी कल्पना ही नहीं करता था, इत्तफाक से कभी जीत जाऊं, यह दूसरी बात थी वर्ना मैं कभी यह दावा नहीं कर सकता था कि मैं बड़ा होशियार खिलाड़ी था इसलिए मेरा जीतना एक असाधारण घटना थी। मैं तो जश्न में शामिल होने के अन्दाज से एक निश्चित रकम हारने के लिए अपने आपको मानसिक रूप से तैयार करके जुआ खेलता था लेकिन उस दिन यह खुद मेरे लिए हैरानी की बात थी मैं उन जैसे उस्ताद खिलाड़ियों से जीत रहा था और वह भी पत्ते के जोर पर नहीं, ब्लफ के दम पर ।
अन्त में मैं इसी नतीजे पर पहुंचा कि उन लोगों का मन खेल में नहीं था और इसीलिए मेरी बन रही थी ।
एक बजे तक मैं कोई दो हजार रूपये जीत में था ।
लगभग दो बजे खेल में अस्थायी व्यवधान आया | सूट के दूसरे कमरे में खाने पीने का तगड़ा इन्तजाम था । बृजकिशोर और खुल्लर इन्तजाम करने के लिए दूसरे कमरे में चले गये। उनकी गैर हाजिरी में कोई पांच-सात मिनट हम तीन जने ताश खेलते रहे । फिर वे भी जुए की मेज पर आ गये और हम पांचों खेलने लगे ।
उसके बाद मुझे लगा कि अब उन लोगों के खेल में से पहले वाला अनमनापन गायब हो गया था। अब वे बड़ा चौकस खेल खेल रहे थे और अब लग रहा था कि वे उस्ताद खिलाड़ी थे । नतीजा यह हुआ कि सुबह सात बजे जब हम लोगों ने खेल खत्म किया तब मैं जीते हुये दो हजार रुपयों के साथ अपनी जेब से भी पांच सौ रुपये हार चुका था ।
***
मैं घर पहुंचा और सीधा बिस्तर के हवाले हो गया ।
उसी शाम को ईवनिंग न्यूज में मैंने एक बड़ी सनसनी खेज खबर पढ़ी थी । उस रोज सुबह दस बजे के करीब अरविन्द कुमार नाम का एक युवक अपने कालका जो स्थित फ्लैट में मरा पाया गया था । किसी ने उसकी हत्या कर दी थी और सरकारी डाक्टर के अनुसार हत्या पिछली रात लगभग दो बजे हुई थी ।
मैं अरविन्द कुमार को जानता था । वह भी जुए का बहुत शौकीन था और मैंने सुना था कि वह पेशेवर जुआरियों के साथ बहुत बड़ा जुआ खेलता था और उस पर कई लोगों का उधार चढ़ा हुआ था । मैंने यह भी सुना था कि उस पर उधार की रकमें अब इतनी चढ़ गई थीं कि जुआरियों ने उसे धमकी दी हुई थे कि अगर उसने फौरन उनका पैसा न अदा किया तो उसका अन्जाम बुरा होगा ।
मैंने एक बार खुद बृजकिशोर के ही मुंह से सुना था कि अरविन्द ने बृजकिशोर का भी बहुत पैसा देना था ।
रात के दो बजे उसकी हत्या हुई थी और लगभग उसी समय हमारी जुए की बैठक का मध्यान्तर हुआ था ।
मेरे दिल में एक अनजानी सी चिन्ता घर करने लगी । पता नहीं क्यों मेरा मन गवाही देने लगा कि पिछली रात की असाधारण और जुए की महफिल में और अरविन्द कुमार की हत्या में कोई सम्बन्ध था ।
गया । अगले दिन सुबह मुझे पुलिस हैडक्वार्टर से बुलावा आ जब मैं पुलिस इन्स्पेक्टर एन. एस. अमीठिया के कमरे में पहुंचा तो मैंने अपने चारों जुए के साथियों को वहां पहले ही मौजूद पाया ।
"तुम भी इन लोगों के साथी हो ?" - अमिठिया शिकायत भरे स्वर में बोला ।
"क्या मतलब ?" - मैं हैरानी से बोला ।
अमीठिया कुछ क्षण चुप रहा और फिर बोला- "तुम्हें मालूम है कि ये चरों पेशेवर जुआरी हैं और नगर में गुप्त रूप से जुए के अड्डे चलाते हैं ?"
मेरे होंठ भिंच गये । मैंने बारी-बारी से चारों की तरफ देखा और फिर दबे स्वर में बोला- "बृजकिशोर के बारे में तो मुझे ऐसा कुछ मालूम था लेकिन यह मुझे इसके बारे में भी नहीं मालूम था कि यह जुए का अड्डा चलाता था ।”
"तुम अरविन्द कुमार को जानते हो ?"
"मामूली जान पहचान थी ।"
“यानी कि उसकी हत्या की खबर पढ़ चुके हो ?"
"हां । "
"तुम्हारी जानकारी के लिये हमें तुम्हारे इन साथियों पर उसकी हत्या का सन्देह है। अरविन्द कुमार पर इन चारों का ही कर्जा चढ़ा हुआ है। जिन लोगों ने उसे भयंकर अंजाम की धमकी दी थी, उनमें ये चारों भी शामिल थे ।"
"लेकिन क्या उसका कत्ल कर देने से इन लोगों का पैसा वसूल हो जायेगा ?"
"तुम इन जुआरियों की कार्य प्रणाली को नहीं समझते । ऐसी एक हत्या हो जाने से उन और लोगों को भी सबक हो जाता है जिन्होंने इन लोगों के पैसे देने होते हैं।"
"ओह !"
"इन लोगों को हत्या के सन्देह में यहां बुलवाया गया था लेकिन ये लोग हत्या के समय की बड़ी अकाट्य शहादत के रूप में तुम्हारा नाम ले रहे हैं । क्या यह सच है कि ये चारों ही पिछली सारी रात तुम्हारे साथ थे ?"
"सच है । परसों रात दस बजे से लेकर सुबह सात बजे तक हम पांचों होटल रणजीत के सूट में ताश खेलते रहे थे । उस समय इन चारों में से कोई मेरी निगाहों से ओझल नहीं हुआ था और अगर निगाहों से ओझल हुआ भी था तो मुझे मालूम था कि वह कहां था । जैसे कभी कोई पेशाब करने क्लाक रूम गया था तो कोई एक पैग विस्की या कोई खाने की चीज लेने सूट के दूसरे कमरे में। दो कमरों के उस सूट के एक कमरे में हमने ताश की मेज जमाई हुई थी और दूसरे में खाने पीने का सामान रखा था । खाने-पीने का सामान पहले ही मंगाकर रख लिया गया था ताकि आधी रात को होटल वालों को परेशान न करना पड़े। दो बजे के करीब खेल में थोड़ी देर के लिए व्यवधान आया था। मैं, शामनाथ और कृष्ण बिहारी ताश खेलते रहे थे और बृजकिशोर और खुल्लर हम सबके लिए खाने पीने का सामान तैयार करने बगल के कमरे में चले गये थे। उन्होंने बगल के कमरे में सैंडविच और काफी वगैरह तैयार करने में कोई दस मिनट लगाए थे। उस दौरान वे दोनों चाहे मेरी निगाहों के सामने नहीं थे लेकिन मुझे उनके बातें करने की आवाजें निरन्तर आ रही थीं । एक-दो बार उसने भीतर से पुकार कर हमसे भी सवाल किये थे, जैसे कौन काफी कैसे चाहता था या कौन साथ में ब्रान्डी भी चाहता था, वगैरह।"
"इसका मतलब यह हुआ कि इन चारों में से कोई एक क्षण के लिए भी सूट से बाहर नहीं गया था ?”
"ऐसा ही मालूम होता है।”
"बगल के कमरे से चुपचाप खिसक जाने का कोई और रास्ता भी है ?"
"नहीं ! बगल के कमरे का इकलौता दरवाजा ताश वाले कमरे में खुलता था ।"
"इन्स्पेक्टर" - बृजकिशोर आवेशपूर्ण स्वर में बोला - “आप तो लगता है, हमें फंसाने के लिए बहाना तलाश कर रहे हैं । होटल रणजीत में और कालका जी में स्थित अरविन्द कुमार के फ्लैट में कम से कम बारह मील का फासला है । मैं और खुल्लर केवल दस मिनट के लिए बगल वाले कमरे में गए थे। अगर हम वहां से चुपचाप निकल भी सकते होते तो भी क्या हम दस मिनट के भीतर-भीतर कालका जी पहुंच कर अरविन्द कुमार का कत्ल करके वापस आ सकते थे ?”
"शायद समय के मामले में पाठक का अन्दाजा गलत हो।"
"मेरा अन्दाजा गलत नहीं है" - मैं धीरे से बोला - "ये दोनों दस मिनट से ज्यादा बगल वाले कमरे में नहीं रहे । और यह भी सम्भव नहीं कि इन दोनों में से कोई कमरे से बाहर ने गया हो । मैं ताश वाले कमरे में इस ढंग से बैठा हुआ था कि दोनों कमरों को जोड़ने वाला बीच का दरवाजा मेरे एकदम सामने पड़ता था । अगर वहां से इन दोनों में से कोई जाता तो उस दरवाजे में से ही निकलकर जाता । और मुझे जरूर दिखाई देता । एक बार खुल्लर दरवाजे पर आया था और उसने हमसे पूछा कि हम लोग काफी कैसी-कैसी पियेंगे । शामनाथ ने कहा था कि उसकी काफी में दूध न डाला जाये तो भीतर से बृजकिशोर ने आवाज देकर पूछा था कि चीनी कितनी डालनी थी ! शामनाथ ने कहा था दो चम्मच | फिर बृजकिशोर ने ब्रांडी के बारे में पूछा था तो शामनाथ ने कहा था कि वह बोतल ही साथ लेता आये । उस वक्त चाहे बृजकिशोर दिखाई नहीं दे रहा था लेकिन यह वार्तालाप इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि वह भीतर था । और फिर बृजकिशोर ने भी गलत नहीं कहा है। दस मिनट में तो होटल रणजीत से कालकाजी पहुंचा भी नहीं जा सकता, उतने समय में अरविंद कुमार का कत्ल करके वहां से लौट कर आना तो असम्भव काम है । "
"ओके ! ओके !" - अमीठिया बोला फिर वह चारों की ओर घूमा - "तुम लोगों की तकदीर ही अच्छी थी जो कल तुम्हारे साथ पाठक मौजूद था। मुझे तुम चारों का धेले का विश्वास नहीं लेकिन मुझे पाठक का विश्वास है । फिलहाल मैं तुम चारों को सन्देह से मुक्त कर रहा हूं लेकिन तुम में से कहीं कोई खिसक न जाये । मुझे तुम लोगों की दोबारा जरूरत पड़ सकती है | समझ गये ? "
सबने हामी भरी । फिर वे चारों वहां से चले गये ।
अमीठिया कुछ क्षण बैठा मेज ठकठकाता रहा और फिर बोला - “इन चारों की शहादत बड़ी ठोस है लेकिन मेरा दावा हिया कि कत्ल इन्हीं में से किसी ने किया है । "
“यह असम्भव है ।" - मैं बोला ।
"तुम ठीक कह रहे हो लेकिन... '
"क्या यह नहीं हो सकता कि कत्ल इन्होंने किसी से करवाया हो ?"
"नहीं हो सकता । यह कत्ल इन लोगों की खातिर इनके किसी पट्ठे ने नहीं किया । ऐसी बातों की जानकारी के मेरे अपने गुप्त साधन हैं। मैं निर्विवाद रूप से जानता हूं कि यह किसी किराये के आदमी का काम नहीं । अगर कत्ल के साथ इन लोगों का रिश्ता है तो कत्ल इन्हीं चारों में से किसी ने किया है । "
"यह हो ही नहीं सकता। वे चारों हर क्षण होटल में मौजूद थे ।”
"क्या तुम इनके साथ अक्सर उठते बैठते हो ?"
"नहीं । परसों ही पता नहीं कैसे बैठक हो गई । इन लोगों ने इतनी जिद की कि मैं इन्कार न कर सका ।"
"मुझे तो ऐसा लग रहा है कि तुम्हें आमन्त्रित करने के पीछे इनका कोई उद्देश्य था । शायद इन्हें मालूम था कि उस रात अरविन्द कुमार की हत्या होने वाली थी इसलिए इन्होंने तुम्हारे माध्यम से अपने लिये बड़ी अकाट्य शहादत का इन्तजाम किया था । इन्हें मालूम था कि मैं इनकी बात का विश्वास नहीं करने वाला था ।”
"अजीब गोरख धन्धा है। मैं कहता हूं कि कत्ल ये लोग नहीं कर सकते थे । तुम कहते हो कि यह हो ही नहीं सकता कि कत्ल इन लोगों के अलावा किसी और ने किया हो । दोनों बातें कैसे सम्भव हो सकती हैं ?"
"हां यही तो समस्या है । "
मैं कुछ क्षण चुप बैठा रहा और फिर बोला- "मैं अब चलूं ?"
"हां" - अमीठिया तनिक बड़बड़ा कर बोला- "लेकिन मेरी राय मानो । ऐसे लोगों की सोहबत मत किया करो।"
"मुझे नहीं मालूम था कि ये लोग पेशेवर जुआरी हैं। मैं आगे से ख्याल रखूंगा।"
मैंने अमीठिया से हाथ मिलाया और वहां से निकल आया।
मैं एक स्कूटर पर सवार हुआ और होटल रणजीत पहुंचा। मैं होटल में दाखिल हुआ और बिना रिसेप्शन की ओर निगाह उठाये सीधा सीढ़ियों की ओर बढ़ गया । रिसैप्शनिस्ट ने भी मेरी ओर ध्यान न दिया ।
जिस सूट में जुए की महफिल जमी थी, वह दूसरी मंजिल पर था और उसका नम्बर 203 था, मैं उसके सामने पहुंचा । मैंने दायें बायें देखा । उस वक्त गलियारा खाली था । मैंने उसका हैंडल घुमाया तो मुझे मालूम हुआ कि उसे ताला नहीं लगा हुआ था । मैं चुपचाप भीतर दाखिल हुआ। जिस कमरे में जुए की महफिल जमी थी, मैं उसमें रुकने का उपक्रम किए बिना सीधा भीतरी कमरे में पहुंचा । परसों रात जब मैं वहां आया था तो मैंने कमरे के साजो सामान और जुगराफिये की तरफ कोई खास ध्यान नहीं दिया था। लेकिन तब मैंने बड़ी बारीकी से वहां का मुआयना किया। मुझे कोई विशेष बात नहीं दिखाई दी। फिर मैंने कमरे की इकलौती खिड़की खोली और बाहर झांका । मेरा माथा ठनका । उस खिड़की की बगल में ही फायरएस्केप की लोहे की घुमावदार सीढ़ियां गुजरती थीं और सीधे पिछवाड़े की सड़क तक जाती थीं ।
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