थाने के फ्रंट डैस्क पर टेलीफोन की घंटी बजी ।
ड्यूटी ऑफिसर की जगह वहां मौजूद हवलदार ने फोन रिसीव किया ।
"हल्लो !" - वो माउथपीस में बोला- "पुलिस स्टेशन!”
"हल्लो !" - जवाब में एक घबराया हुआ स्त्री स्वर सुनायी दिया ।
"बोलिये ।"
“अ... अभी... अभी यहां गोली चली है । "
"गोली ! कहां ?"
“राजाजी मार्ग । कोठी नम्बर बारह ।"
" आप वहां रहती हैं ?"
"नहीं । नहीं। मैं पड़ोस में रहती हूं। अभी मैंने उस कोठी में गोली चलने की आवाज सुनी थी..."
“आप बारह नम्बर कोठी वालों के पड़ोस में रहती हैं?"
"... तो मैंने पुलिस को इस बाबत खबर करना अपना फर्ज समझा था । अब भगवान के लिये जल्दी आकर मालूम कीजिये कि वहां क्या हुआ है । "
"आपने सिर्फ गोली चलने कि आवाज सुनी।”
"एक तीखी चीख की आवाज भी सुनी। मुझे अन्देशा है कि... कि..."
"उस कोठी में कौन लोग रहते हैं ?"
"आप बातों में वक्त जाया न कीजिये और जल्दी यहां पहुंचिये, मेरा मन किसी अज्ञात आशंका से लरज रहा है।"
“अपना नाम, पता और टेलीफोन नम्बर बोलिये । "
लाइन कट गयी ।
हवलदार के चेहरे पर वितृष्णा के भाव आये ।
"कोई बात नहीं ।" - फिर वो इत्मीनान से बोला ।
टेलीफोन कालर आइडेन्टिटी वाला था, उसकी स्क्रीन पर वो नम्बर दर्ज था जिस पर से वो कॉल की गयी थी । ऊपर से थाने के उस फोन में खूबी थी कि जब तक वो लाइन न काटता, कॉल करने वाले की लाइन नहीं कट सकती थी।
उसने एक्सचेंज में फोन किया और बड़ी सहूलियत से मालूम कर लिया कि वो नम्बर कहां का था !
वो नम्बर राजाजी रोड के एक पब्लिक टेलीफोन बूथ का था ।
“लानत !" - उसके मुंह से निकला ।
वो एडीशनल स्टेशन हाउस ऑफिसर इंस्पेक्टर अतुल ग्रोवर के कमरे में पहुंचा। उसने उसे तमाम वाकया बयान किया ।
"राजाजी मार्ग !" - इंस्पेक्टर ग्रोवर ने दोहराया "कोठी नम्बर बारह !"
"मैं पी.सी.आर. वैन को कहां रवाना करू, साहब जी ?" - हवलदार ने पूछा - "ताकि मालूम हो सके कि वहां कौन रहता है ?"
" जरूरत नहीं । मुझे मालूम है वहां कौन रहता है ? मैं... मैं खुद वहां जाता हूं।"
वो एक खूबसूरत कोठी थी जिसके फ्रंट का ग्लास वर्क फिल्मों के सैट्स जैसा भव्य था । कोठी का रिहायशी हिस्सा रोड लैवल से कोई चार फुट ऊंचा बना हुआ था और विशाल ड्राइंगरूम के शीशे के स्लाइडिंग डोर यूं बने हुए थे कि उन्हें पूरा खोल दिये जाने पर सामने की टैरेस भी जैसे ड्राईगरूम का ही हिस्सा बन जाती थी । वो तमाम दरवाजे उस घड़ी बन्द थे जिसकी वजह जरूर ये थी कि बारिश हो रही थी ।
कोठी के सामने सड़क से पार वो टेलीफोन बूथ था जिससे कि कॉल लगायी गयी थी ।
इन्स्पेक्टर अतुल ग्रोवर झूलते आयरन गेट से भीतर दाखिल हुआ और चार सीढ़ियां चढ़कर टैरेस पर पहुंचा।
ड्राइंगरूम में शिल्पा सूद मौजूद थी । उस घड़ी वो आतिशदान के करीब थी, उसकी आहट पाकर ही वो सीधी हुई और उसकी तरफ घूमी ।
शीशे का एक दरवाजा ठेलकर ग्रोवर ने भीतर कदम डाला।
"अतुल !" - शिल्पा के मुंह से निकला - "तुमने तो मुझे डरा ही दिया ।"
ग्रोवर ने अपलक शिल्पा की तरफ, उस युवती की तरफ देखा जो मनमोहन सूद से शादी से पहले उसके दिलोजान की जीनत थी । शिल्पा ने उससे निगाह मिलाने की कोशिश न की और बेचैनी से पहलू बदला |
" अभी दस मिनट पहले" - ग्रोवर गम्भीरता से बोला - "यहां गोली चलने की आवाज सुनी गयी थी, फिर साथ ही एक चीख की आवाज भी सुनी गयी थी ।"
"चीख !"
" जैसे कि गोली किसी को लगी हो ?"
"यहां ?"
"जिसने थाने फोन किया था, उसने ऐसा ही कहा था
"किसने ? किसने फोन किया था ?"
"किसी औरत ने फोन किया था जिसने कि अपना नाम नहीं बताया था लेकिन वो यकीनन आपकी कोई पड़ोसन होगी वर्ना उसने गोली चलने की और चीख की आवाज न सुनी होती ।"
"ओह !"
“आजकल पढ़े लिखे लोग बाग अच्छे शहरी जैसी जिम्मेदारी तो यूं दिखाते हैं लेकिन पुलिस के पचड़े से बचने के लिये अपनी आइडेन्टिटी डिसक्लोज नहीं करना चाहते ।"
"हूं । उस औरत को... गलतफहमी भी तो हुई हो सकती है !"
"कैसी गलतफहमी ?"
"बारिश का मौसम है। शायद बिजली कड़की हो जिसे कि उसने गोली चलने की आवाज समझ लिया हो । "
"चीख की आवाज भी तो सुनी थी !"
“वो उसकी कल्पना की उपज होगी। बिजली कड़की तो समझ बैठी कि गोली चली थी, गोली चली थी तो कूद कर इस नतीजे पर पहुंच गयी कि किसी को लगी भी होगी, लगी होगी तो कोई चीखा भी होगा ।"
"लेकिन...."
"यहां गोली चलने का क्या काम ? यहां किसी के चीखने का क्या काम ? मैं शाम से हर वक्त यहां हूं । मैंने तो कुछ नहीं सुना ।" - फिर उसके चेहरे पर एक मधुर मुस्कराहट आयी - "कहीं ये यहां आने का बहाना तो नहीं ?"
"क्या ?"
"मेरी शक्ल भूल गयी हो, याददाश्त तरोताजा करने की ख्वाहिश जाग उठी हो । रंगीन मौसम में ऐसा हो जाता है।"
" ऐसी कोई बात नहीं । "
" तो फिर बीट के कांस्टेबल का काम करने के लिये खुद इन्स्पेक्टर साहब क्यों चले आये ? वो भी अकेले ?"
"क्योंकि वाकया तुम्हारी कोठी से ताल्लुक रखता था इसलिये ।"
"
ओह ! तो ये समझ के आये थे कि मैं यहां कहीं मरी पड़ी होऊंगी ?"
ग्रोवर खामोश रहा ।
"दरवाजा बन्द कर देते तो अच्छा था, बरसात का पानी भीतर आ रहा है । "
ग्रोवर हड़बड़ाया, उसने महसूस किया कि वो अभी तक खुले दरवाजे की चौखट पर ही खड़ा था और बरसात का पानी उसकी पीठ पीछे से उसकी बरसाती से टकरा रहा था ।
उसने घूमने अपने पीछे दरवाजा बन्द किया ।
"थैंक्यू ।" - वो बोली और फिर उसके करीब पहुंची - "मुझे खुशी है कि तुम मेरे लिये फिक्रमन्द होकर यहां पहुंचे और मुझे एक बार फिर तुम्हें अपने सामने खड़े देखने का मौका मिला । बहरहाल जिस किसी ने भी वो होक्स कॉल थाने में लगायी, मैं उसकी तहेदिल से शुक्रगुजार हूं।"
"सूद साहब कहां हैं ?" - विषय परिवर्तन की गरज से ग्रोवर बोला ।
"शाम से ही कहीं गये हुए हैं । "
"शहर में ही हैं या कहीं बाहर गये हैं ?"
“शहर में ही हैं ।" - फिर वो इठला कर बोली - "मैं जानती हूं तुम ये क्यों पूछ रहे हो !"
"क्यों पूछ रहा हूं ?"
"जैसे तुम्हें मालूम नहीं । अतुल, वो कहीं शहर से बाहर गये होते तो क्या मुझे कहना पड़ता कि आज रात यहीं रुक जाओ !"
ग्रोवर ने असहाय भाव से गर्दन हिलाई और फिर बोला "मैं देख रहा हूं कि तुम्हारी सपने देखने की आदत शादी के बाद भी नहीं छूटी है ।"
"चलो सपना ही सही लेकिन तुम यहां नहीं रुक सकते । वो वापिस लौट आये तो इतनी रात गये तुम्हें यहां मौजूद पाकर क्या सोचेंगे ?"
"कुछ भी सोचें" - ग्रोवर शुष्क स्वर में बोला- "मुझे उनकी सोच से क्या लेना देना है ?'
वो हकबकायी ।
"मैं यहां ड्यटी पर हूं । ड्यूटी पर हूं और बस ।”
ओह !"
"मुझे यहां की तलाशी लेनी होगी ।"
"खामखाह !"
“गोली चलाने वाला अभी भी यहां हो सकता है । उसका शिकार हुआ शख्स तो यहां हो ही सकता है ।"
"वाट नानसेंस ! मैं कहती हूं यहां कोई गोली नहीं चली । यहां कोई गोली का शिकार नहीं हुआ ।"
"तसदीक करनी होगी ।"
“ऐसे कामों के लिये वारन्ट की जरूरत होती है ।”
"हमेशा नहीं । ऐसा हालात पर मुनहसर होता है। इस वक्त हालात जाकर वारन्ट जारी कराने के नहीं हैं । "
"हालात ?"
"गोली खाया शख्स शायद मरा न हो, शायद वो डॉक्टरी इमदाद से बचाया जा सकता हो । "
वो दृढ़ता से आगे बढ़ा ।
“ये ज्यादती है...." - शिल्पा बोली ।
“ पुलिस रूटीन है।"
".... जो मुझे हैरानी है कि तुम... तुम मेरे साथ कर रहे हो।"
वो पिछले दरवाजे पर पहुंचा तो शिल्पा लपक कर उसके करीब पहुंची और उसकी बांह थाम कर उसे वापिस खींचने लगी ।
"तुम्हें यूं पराये घर में घुसे चले आने का कोई अख्तियार नहीं ।" - वो तीखे स्वर में बोली ।
"बांह छोड़ो ।"
"चले जाओ यहां से ।"
"तुम्हारा इतना आपे से बाहर होना ही साबित कर रहा है कि तुम कुछ छुपा रही हो । "
"ये झूठ है। तुम खामखाह...
ग्रोवर ने जबरन बांह छुड़ाई और बाहर हॉल में कदम रखा। वहां एक तरफ इमारत का प्रवेशद्वार था जिसके सामने ऊपर को जाती सीढ़ियां थीं। दायीं तरफ किचन थी, पैन्ट्री थी और एक बैडरूम था । बाजू में एक दरवाजा और था जो कि उसका अन्दाजा था कि इमारत के पहलू में खुलता था । वो उस दरवाजे की तरफ बढ़ा तो शिल्पा फिर उसे बांह पकड़ कर वापिस खींचने की कोशिश करने लगी ।
"क्या प्राब्लम है ?" - वो उलझनपूर्ण भाव से बोला ।
"प्लीज... प्लीज गो । "
"लेकिन... लेकिन... "
वो कस कर उसके साथ लग गयी ।
“अलग हटो, बरसाती गीली है ।”
“अगर तुम्हें जरा भी मेरा लिहाज है तो यहां से चले जाओ।"
"अजीब बात है ! मैंने पहले भी बोला, मैं यहां मुलाहजा भुगताने नहीं, अपनी ड्यूटी करने आया हूं। इसलिये...
उसने उसे जबरन अपने आप से अलग किया और बाजू के बन्द दरवाजे पर पहुंचा। उसने उसे धक्का देकर खोला तो भीतर अन्धेरा पाया । दीवार टटोल कर उसने बिजली का एक स्विच ऑन किया तो पाया कि उसका अन्दाजा गलत था, वो इमारत के पहलू में खुलने वाला दरवाजा नहीं, डायनिंग रूम का दरवाजा था ।
उसके निगाह पैन होती दायें बायें घूमी तो उसने पाया कि डायनिंग रूम भीतर की ओर से आधुनिक, सुन्दर, किचन से भी सम्बद्ध था ।
फिर उसे खून दिखाई दिया ।
फर्श पर । एक साथ टपकी तीन चार बून्दों की सूरत में
एक बार खून दिखाई देने की देर थी कि उसने सहज ही कल्पना कर ली कि उसका और भी कहीं होना लाजमी था । गोली लगने से खून की महज तीन चार बून्दें नहीं टपकती थीं ।
शिल्पा वहां भी उसके पीछे पहुंची हुई थी ।
“बीस हजार !" - वो फुसफुसाई । "क्या बीस हजार ? " - ग्रोवर सकपकाया । "देती हूं । अभी । चले जाओ।" “क्या बच्चों जैसी बातें कर रही हो !" - वो झुंझलाया ।
“पचास ! और भी जो चाहो ।”
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