बृहस्पतिवार : छब्बीस दिसम्बर
वीर बहादुर की लाश सवेरे सात बजे बरामद हुई । वो तब भी अभी न बरामद होती अगर लाश पर एक कुत्ता न भौंकने लगा होता और कुत्ते को चुप कराने की नीयत से उसका मालिक उसके करीब न पहुंचा होता।
कुत्ते के मालिक के बुलाये ही पुलिस मौकायेवारदात पर पहुंची ।
पुलिस ने आकर यही नतीजा निकाला कि वो कोई साधारण चोर था जो कि इमारत के किसी फ्लैट में घुसने की कोशिश में ऊपर से नीचे आ गिरा था । अलबत्ता ये उनके लिए हैरानी की बात थी कि उस कड़ाके की ठण्ड में चोर के जिस्म पर कोई कपड़ा नहीं था और उसके कपड़े लाश के करीब ही पाये गये एक झोले में, जिसमें कि एक हीरे की कलम और एक एक्शन पम्प भी था, पाये गये थे ।
पुलिस ने घर-घर जाकर पूछताछ की कि किसी के यहां से कुछ चोरी तो नहीं गया था ।
सबने, विमल ने भी, इनकार में जवाब दिया ।
नौ बजे तक लाश उठवा दी गई और पुलिस वहां से रुखसत हो गई ।
सवा नौ बजे विमल ने बाल्कनी के दरवाजे का वो शीशा तोड़ दिया जिसके बीच में वीर बहादुर गोलाकार छेद बना गया था ।
“क्या हुआ ?” - आवाज सुनकर भीतर बैडरूम से नीलम ने व्यग्र भाव से पूछा ।
“शीशा टूट गया !” - विमल बैडरूम के दरवाजे पर पहुंच कर बड़ी मासूमियत से बोला ।
“कैसे टूट गया ?”
“मेरा कार्पेट में पांव उलझ गया, मैं लड़खड़ाकर कुर्सी पर गिरा, कुर्सी जाके शीशे से टकराई, शीशा टूट गया ।”
“तुम्हें चोट तो नहीं लगी ?”
“नहीं ।”
“ठीक से चला करो न, सरदारजी । घर में ही ठोकरें खाते फिरोगे तो कैसे काम चलेगा ।”
“मैं शीशे वाले को बुलाकर लाता हूं ।”
***
लूथरा थाने पहुंचा तो उसने पहली डाक द्वारा चण्डीगढ से वहां पहुंची सब-इंस्पेक्टर प्यारासिंह की कौल की बाबत रिपोर्ट को अपना इन्तजार करते पाया ।
उसने रिपोर्ट पढी और फिर पढी ।
एक शब्द हथौड़े की तरह उसके जेहन में बजने लगा ।
सोहल !
वो थाने के रिकार्ड रूम में पहुंचा ।
हर थाने में ऐसे अपराधियों का रिकार्ड रखा जाना था जो कि अपराध की दुनिया में राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर चुके होते थे और जिनकी गिरफ्तारी पर भारी इनाम की घोषणा होती थी ।
वहां से उसने कई नामों से जाने जाने वाले तथा कई राज्यों में बड़ी-बड़ी वारदात कर चुके इनामी इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल की फाइल निकाली ।
सबसे पहले उसने फाइल में उपलब्ध सोहल की तसवीरों का मुआयना किया ।
यह देखकर उसे बड़ी मायूसी हुई कि सोहल की सूरत - न सिख वाली और न क्लीनशेव्ड - कौल से कतई नहीं मिलती थी ।
फिर भी उसने फाइल का पीछा न छोड़ा, उसने आद्योपन्त उसे पढना आरम्भ किया ।
***
विमल आफिस पहुंचा तो उसने शिवनारायण को रिसेप्शन पर बैठे पाया ।
विमल ने उसका अभिवादन किया और बोला - “मुझे पहचाना, जनाब ? मैं कौल । परसों शाम शुक्ला साहब के वहां मुलाकात हुई थी । क्रिसमिस ईव की पार्टी में ।”
“ओह, हां । हां ।” - वो बोला - “कैसे हो, भई ?”
“बढिया ।”
“गाल को क्या हुआ ?”
“कुछ नहीं ।” - विमल अपने बायें गाल को जख्म पर हुई ड्रेसिंग पर से छूता हुआ बोला - “यूं ही जरा चोट लग गई ।”
“ओह ।”
“आप सुनाइये, आप कैसे हैं ?”
“इनायत है ऊपर वाले की । तुम्हारे बास से मिलने चला गया था, वो तो अभी आया नहीं लगता ।”
“बस आते ही होंगे शुक्ला साहब । आप यहां क्यों बैठे हैं ? उनके आफिस में जाके बैठते ।”
“एक ही बात है ।”
“आइये, मेरे पास बैठिये । कुछ गपशप होगी ।”
“ठीक है ।”
विमल उसे अपने आफिस में ले आया । उसने चपरासी को चाय लाने का कहा जो कि वो तुरन्त लेकर आया ।
“नारायण साहब” - विमल बोला - “आज ये बहुत बड़ा इत्तफाक हुआ है कि मैंने आपको याद किया और आपसे मुलाकात हो गई ।”
“तुमने याद किया मुझे ?”
“जी हां ।”
“कब ? क्यों ?”
“आज सुबह सवेरे । अखबार पढकर ।”
“कोई खास बात ?”
“थी तो सही । अखबार तो आपने भी पढा होगा ?”
“हां । रोज पढता हूं ।”
“फिर तो अपने चौदह साल उम्र के नौंवी कक्षा के उस विद्यार्थी को खबर पढी होगी जिसने क्लास में ही अपने टीचर के पेट में चाकू घोंप दिया बताते हैं ?”
“पढी है ।”
“पुलिस कहती है कि उस हरकत की वजह पूछे जाने पर विद्यार्थी ने जवाब दिया था कि उसने टीचर ने भरी क्लास के सामने उसे डांटा था और उससे वो बेइज्जती बर्दाश्त नहीं हुई थी उसने टीचर ने उसे यूं बेइज्जत करके उस पर जुल्म किया था जिसका कि उसके पेट में चाकू घोंपकर उसने बदला लिया था ।”
“हूं ।”
“नारायण साहब, मैं आपकी तवज्जो इस बात की तरफ दिलाना चाहता हूं कि अपने बयान में उस विद्यार्थी ने, उस नाबालिग छोकरे ने कहा है कि ऐसा करने की प्रेरणा उसे अखबारों में ‘खबरदार शहरी’ की बाबत छपने वाली बातों से मिली थी खबरदार शहरी के कारनामे पढकर ही उसने ये सबक लिया था कि जालिम से जुल्म का बदला न लेना भारी बुजदिली का काम था ।” - विमल ने एक क्षण अपलक शिवनारायण की ओर देखा और बोला - “जनाब, इसका क्या ये मतलब है कि अब हर स्कूल टीचर, जो अपने किसी स्टूडेंट को डांटेगा, अपना पेट चाक कर दिये जाने के खतरे के जेरेसाया डांटेगा ?”
“या फिर” - शिवनारायण हंसा - “बच्चों को पढाने जिरहबख्तर पहन के स्कूल आया करेगा ।”
“आप बात को गम्भीरता से नहीं ले रहे, जनाब ।”
उसकी हंसी को ब्रेक लगी ।
“क्या कहना चाहते हो ?” - वो बोला ।
“मैं आपका ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित करना चाहता हूं कि अखबारों में कथित खबरदार शहरी के कारनामों का यशोगान होने का एक अपरिपक्व दिमाग पर कितना बुरा प्रभाव पड़ा है और उसकी करतूत उसी जैसे छात्रों के लिये ट्रेजिक मिसाल बन सकती है ।”
वो खामोश रहा ।
“अब दूसरी वारदात को देखिये जो कल रात ही एक पैट्रोल पम्प पर हुई । अखबार के मुताबिक पिछली रात शंकर रोड के रात के वक्त कदरन तनहा रहने वाले एक पेट्रोल पम्प को जब चार सशस्त्र नौजवानों ने लूटने की कोशिश की तो पम्प के रामकुमार नाम के एक कर्मचारी ने गजब की फुर्ती दिखाते हुए इन नौजवानों की उस कार पर पैट्रोल छिड़क दिया जिस पर कि सवार होकर वो वहां पहुंचे थे और एक सिगरेट लाइटर जलाकर उन्हें वे धमकी दी कि अगर वो फौरन वहां से कूच न कर गये तो वो लाइटर को पैट्रोल से भीगी कार पर, जिसकी ड्राइविंग सीट पर उसका एक साथी मौजूद था, उछाल देगा । तब इन लुटेरों की न केवल गोली चलाने की हिम्मत नहीं हुई बल्कि उन्होंने तब तक हाथ आ चुका कैश भी वहीं छोड़ दिया और वो कार में सवार होकर वहां कूच कर गये । लेकिन अभी थोड़ी ही दूर गये थे कि इंजन के स्पार्क से या पहियों की सड़क से रगड़ की वजह से पैट्रोल आग पकड़ गया और कार के रुकते-रुकते वो चारों बुरी तरह से झुलस गये । समीप ही खड़ी पुलिस की एक जिप्सी वैन ने जब उन्हें हस्पताल पहुंचाया था तो तब तक उन्हें ये मालूम नहीं था कि वो चारों डकैती का एक नाकाम कोशिश के अपराधी थे ।”
“चलो, पकड़े तो गये न कमीने ।”
“जनाब, मैं आपकी तवज्जो इस वारदात की तरफ नहीं, वारदात के अंजाम की पैट्रोल पम्प के कर्मचारी रामकुमार पर हुई प्रतिक्रिया की तरफ दिलाना चाहता हूं । जब उसको उन चारों नौजवानों के अंजाम की खबर लगी थी तो वो खुशी से फूला नहीं समाया था । प्रैस को दिये, अपने बयान में उसने कहा है कि वैसी ‘बहादुरी’ दिखाने की प्रेरणा उसे ‘खबरदार शहरी’ से मिली थी । उन लुटेरों की बाबत उसने विशेष जोर देकर कहा था कि सब साले एक ही जुबान समझते हैं और वो जुबान है ईंट का जवाब पत्थर से देने की जुबान ।”
“क्या गलत कहा उसने ?”
“ऐन ये ही बात परसों रात आपने कही थी कि अपराधी एक ही जुबान समझता है । सख्ती की । डण्डे की । अब ये जुबान चाहे पुलिस बोले, चाहे कोई खबरदार शहरी बोले, चाहे काला चोर, मसलन पैट्रोल पम्प का रामकुमार नाम का वो कर्मचारी बोले ।”
“भई, वो तो परसों की बहस की गर्मागर्मी की बात थी, ऐसा कुछ कहने के लिये मैं उसके घर थोड़े ही गया था ।”
“गये थे आप ।” - विमल तनिक मुस्कराकर बोला ।
“क्या मतलब ?” - वो चौंककर बोला ।
“परसों शाम हमारे बीच जो बहस-मुबाहसा हुआ था, आपके अखबारनवीस दोस्त मिस्टर जगतनारायण ने उसे तकरीबन वैसे का वैसा अपने सम्पादकीय में उतार दिया था । अब उस सम्पादकीय वाले अखबार का रामकुमार के घर पहुंचना एक तरह से अपने ख्यालात के साथ आपका उसके घर पहुंचना ही तो हुआ ?”
“हूं ।”
“आपने ये भी पढा होगा कि पैट्रोल पम्प के मालिक ने अपने ‘बहादुर और जांबज’ मुलाजिम को एक हजार रुपये का नकद इनाम देने की घोषणा की है ।”
“हौसलामन्द आदमी का हौसला बढाने का ये भी एक तरीका होता है ।”
“होता है, साथ ही ऐसा इनाम रामकुमार जैसे गरीब आदमी को और दिलेरी दिखाने के लिये प्रेरित करता है । इस बार इत्तफाक से दिलेरी दिखाने लायक हालात से उसका सदका पड़ा अगली बार वो ऐसे हालात की जबरिया तलाश करेगा या ऐसे हालात खुद क्रियेट करने की कोशिश करेगा ।”
“क्या हर्ज है ? खबरदार शहरी भी तो ये ही करता मालूम होता है ?”
“जनाब, जब तक खबरदार शहरी बनाने का कोई ट्रैनिंग स्कूल न खुल जाये, तब तक हर्ज है । हर काम हर किसी के बस का नहीं होता । आपने परसों फौज की मिसाल दी थी । उस सन्दर्भ में आपको इस हकीकत की तरफ भी ध्यान देना चाहिये कि हर शहरी फौज में भरती होने के काबिल नहीं मान लिया जाता । खास कामों के लिये खास ट्रेनिंग की जरूरत होती है । रामकुमार जैसे, अखबार पढ के ताव खाये किसी पैट्रोल पम्प अटैन्डेंट को ऐसी ट्रेनिंग कहां से आयेगी ? उस जैसे शख्स के लिये अधिक साहब विडम्बना बन सकता है । कल उसके पम्प पर जो कुछ हुआ, अब तो उसका परिणाम सुखद निकला लेकिन हकीकत में तो यह भी हो सकता था कि पम्प के सारे के सारे कर्मचारी लुटेरों की गोलियों का शिकार होकर मारे जाते या पैट्रोल से भीगी कार के आग पकड़ जाने पर उसके साथ-साथ सारा पैट्रोल पम्प ही फुंक जाता । उस आग से जो तबाही बचती वो प्रलय से कम न होती । एक बहुत बड़ी ट्रेजेडी इसलिये हो जाती क्योंकि एक कथित खबरदार शहरी के कारनामों से प्रभावित पैट्रोल पम्प का एक कर्मचारी इस जुनून के हवाले था कि उसने पम्प का कुछ हजार रुपया नहीं लुटने देना था । उस वक्त उसने ये न सोचा, कि वो लुटेरे हार्डन्ड क्रिमिनल हो सकते थे, ऐसे खतरनाक अपराधी हो सकते थे जिनको किसी की जान लेने से कतई कोई गुरेज न होता, वो सहूलियत का ये तरीका भी अख्तियार कर सकते थे कि वो पहले सबको शूट कर देते और फिर पम्प का कैश लूटते । हमारे अप्रैन्टिस खबरदार शहरी रामकुमार ने उस घड़ी ये न सोचा कि उसकी वो ड्रामाई हरकत उसके साथ-साथ उसके साथी कर्मचारियों की भी जान ले सकती थी ।”
“भई, क्या बात है ? परसों तो तुम खबरदार शहरी की परिकल्पना के बड़े हिमायती थे !”
“मैं आज भी बड़ा हिमायती हूं लेकिन साथ ही इस मसले का भी बड़ा हिमायती हूं कि जिसका काम, उसी को साजे ।”
“अब जरूर तुम इस तथ्य को भी झुठलाने की कोशिश करोगे कि पिछले दिनों क्राइम रेट घटा है ।”
“लेकिन ये भी तो देखिये कि उसके बदले डिफेन्सिव वायलेंस कितनी बढ गयी है । कल रात को पैट्रोल पम्प वाली वारदात की ही मिसाल लीजिये । सरकारी आंकड़ेबाजी के लिहाज से तो लूटमार की वारदातों के क्राइम रेट में इजाफा होने से बच गया । लेकिन जो चार आदमी झुलसी हालत में हस्पताल में पड़े हैं, वो अगर मर गये होते तो उनको पुलिस अपने आंकड़ों के कौन से खाते में जमा करती ? जाहिर है कि किसी में भी नहीं । कथित खबरदार शहरी ने सत्रह आदमी मार गिराये, उन मौतों को पुलिस कत्ल के केसों में इजाफे का दर्जा तो नहीं देता । यानी कि सरकारी क्राइम रेट के आंकड़े नेक शहरियों की बद्किस्मती के वाक्यात की गिनती से ही बनते हैं । जो गुण्डे-बदमाश मरते हैं, नेक चाहे न सही लेकिन वो भी तो शहरी हैं । उनकी मौत को भी क्राइम का दर्जा दिया जाये तो कहां घटा क्राइम रेट ! कहने का मतलब ये है, जनाब, कि ये भ्रामक तथ्य है कि खबरदार शहरी के हालिया कारनामों से क्राइम रेट घटा है । तथ्य ये है कि उसके और सिर्फ उसके कारनामे वजह हैं डिफेन्सिव वायलेंस में इतनी बढोत्तरी की ।”
शिवनारायण चुप रहा ।
“जनाब, ये कथित खबरदार शहरी जो कुछ कर रहा है, वो ऐसी दवा की तरह है जो बीमारी तो ठीक कर देती है, लेकिन मरीज की जान ले लेती है । वो ऐसी दवा है जिसके साइड इफैक्ट्स तो हद से ज्यादा हैं । यूं जो एक समस्या हल होती है, उससे दर्जन भर नहीं समस्यायें और पैदा हो जाती हैं । आज के पेपर में छपी दोनों ही वारदात मेरी इस बात का सबूत हैं ।”
“तुम्हारी तमाम बातों का कुल जमा मतलब ये हुआ कि इस मूवमेंट को जोर नहीं पकड़ना चाहिये ।”
“जोर पकड़े ये मूवमेंट बेशक पकड़े लेकिन किन्ही मुक्त भोगियों की किसी प्रीप्लान्ड, खूब सोची-विचारी कार्यप्रणाली के अन्तर्गत ऐसे लोगों की शिरकत से जोर पकड़े जिन पर जिसका काम उसी को साजे वाली कहावत चरितार्थ होती हो अखबारों द्वारा खबरदार शहरी के कारनामों को महिमामंडित किये जाने की वजह से एक जुनून के हवाले इस मूवमेंट ने जोर पकड़ा तो बहुत बेगुनाह मरेंगे । बहादुर ने बहादुरी दिखाई, देखने वालों ने उसे हिमाकत करार दिया तो वो क्या बहादुरी हुई !”
“मतलब ?”
“सर्कस के रिंग मास्टर की देखादेखी कोई दर्शक भी जिद करे कि वो शेर के जबड़े में सिर देगा तो आप उसे बहादुर कहेंगे ! कोई कुतुबमीनार से छलांग लगा दे तो वो बहादुर कहलायेगा । उसमें क्या बहादुरी है ! कोई भी अहमक, अक्ल का अन्धा वो काम कर सकता है । इसीलिये मैं फिर कहता हूं, जनाब, कि जिसका काम उसी को साजे ।”
“आज हमारा पत्रकार दोस्त जगतनारायण यहां नहीं हैं, वर्ना उसको अपने कल के सम्पादकीय के लिए भी तगड़ा रेडीमेड मसाला हासिल हो जाता ।”
विमल हंसा ।
“तुम कोई ऐसे आदमी तो नहीं” - शिवनारायण बोला - “जो फैंस पर बैठना पसन्द करता हो ?”
“क्या मतलब !”
“न इधर न उधर लेकिन जिधर की हवा देखी, उधर का रुख कर लिया !”
“मैं अभी भी आपका मतलब नहीं समझा ।”
“भई, यही कि खबरदार शहरी की वाहवाही होती देखी तो वाहवाही में शामिल हो गये । उसकी मुखालफत होती देखी तो उसे कोसने लगे ।”
“मैं ऐसा आदमी नहीं ।” - विमल तनिक अप्रसन्न स्वर में बोला - “मैं तो खुद इस बात में एतबार रखने वाला हूं कि जुल्म सहने से भी जालिम की मदद होती है । लेकिन साथ ही मैं...”
“वो मैंने सुना । जिसका काम उसी को साजे । राइट ?”
विमल ने उत्तर न दिया । उसे यूं लगा जैसे शिवनारायण उसे घिसने की कोशिश कर रहा था ।
“कभी-कभी” - शिवनारायण फिर बोला तो उसका लहजा बेहद संजीदा था । - “कोई काम मजबूरन भी तो सजाना पड़ता है, बेटा । घर में चोर घुस आये ते क्या कोई ये सोचकर टायलेट में जा दुबकता है कि उसे तो चोर से दो-चार होने की कोई ट्रेनिंग हासिल नहीं ! सरेराह कोई किसी की बीवी को छेड़े तो क्या खाविन्द ये सोचकर चुप बैठ जाता है कि एतराज करना उसकी जान ले लेगा ? किसी की बहन-बेटी के साथ कोई मुंह काला करे तो क्या वो काले मुंह को अपनी नियति मान लेता है ?”
“नहीं ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि जुल्म, जोर-जबरदस्ती, ज्यादती पर ताव खाना इनसानी फितरत का हिस्सा होता है । लेकिन अमूमन गुस्सा वक्ती होता है इसलिये ठण्डा पड़ जाता है । गुस्साया हुआ आदमी अपनी प्रतिक्रिया को अपनी परिकल्पना में जीता है । अपने ख्यालों में हम दर्जनों हौलनाक कामों को अन्जाम देते हैं, खून तक कर डालते हैं । यूं हमें एक फर्जी ताकत का अहसास होता है और इस अहसास का हम सुख पाते हैं । आपकी नयी कार को कोई कील से खरोंच जाये या उसके पहिये की हवा निकाल जाये या उसके वाइपर उतार के ले जाये तो उस वक्त आपकी एक ही ख्वाहिश होती है कि वो करतूत करने वाला शख्स एक बार आपके हाथ आ जाये सही, आप जरूर उसे कच्चा चबा जायेंगे । लेकिन क्या कोई कच्चा चबा जाता है किसी को ? गुस्से के उफान में हम सिर्फ फैन्टेसाइज करते हैं उस सिचुयेशन को हम सपना देखते हैं, किसी को कच्चा चबा जाने का क्योंकि ऐसा कोई काम सपने में ही हो पाना मुमकिन है । लेकिन हकीकतन हमारा वो ही सपना हमारे गुस्से को शान्त करता है । वो सपना हमारे भड़के हुए मिजाज में वो रोल अदा करता है जो रोल प्रैशर कुकर में सेफ्टी वैल्व अदा करता है । प्रैशर कुकर में गैस ज्यादा बन जाये तो उसे सेफ्टी वैल्व निकालता है, इसी तरह भेजे में गुस्से का गुबार उमड़ता है तो उसकी फूंक हमारी फैन्टेसी, हमारी परिकल्पना, हमारा सपना निकलता है ।”
“सेफ्टी वैल्व बिगड़ जाये तो क्या होता है ?”
“तो प्रैशर कुकर फट जाता है ।”
“जिसकी फैन्टेसी काम नहीं करती, जिसको सपना तसल्ली नहीं देता, जिसकी परिकल्पना जड़ हो जाती है, उसके साथ क्या होता है ?”
“वही होता है जो प्रैशर कुकर के साथ होता है । उसके गुस्से का गुबार फट पड़ता है ।”
“और जिसके गुस्से का गुबार फट पड़े, वो क्या करता है ?”
“वो या मरता है या मारता है ।”
“यू सैड इट, माई ब्वाय । ऐसे शख्स को सपनों से सुकून हासिल नहीं हो सकता । वो या मरता है या मारता है । वो अपने भीतर एक डैथविश को पनाह देता है और जो करता है, ये सोच के करता है कि दरिया में डूब के या छत से छलांग लगा के या जहर खा के आत्महत्या करने से बेहतर तरीका ये है कि वो मारता हुआ मरे ।”
“जनाब, आपकी इस बात को अगर हम अपने मूल विषय से जोड़ें तो हमें खबरदार शहरी का नाम खतरनाक शहरी रखना पड़ेगा ।”
शिवनारायण हंसा ।
तभी विमल के इन्टरकाम की घण्टी बजी । उसने रिसीवर उठाकर एक क्षण को फोन सुना और फिर बोला - “शुक्ला साहब आ गये ।”
“तो मैं चलता हूं ।” - वो उठता हुआ बोला - “हैड ए वैरी नाइस टाइम विद यू, यंग मैन । थैंक्यू ।”
“थैंक्यू, सर ।” - विमल एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “मैं आपसे एक बात पूछना चाहता था ।”
“क्या ?”
“आपका शगल क्या है ? आई मीन वाट इज युअर लाइन ऑफ बिजनेस ?”
“आई हैव नो लाइन ऑफ बिजनेस, माई डियर ब्वाय” - वो मुस्कराता हुआ बोला - “आई एम ए रिटायर्ड पर्सन ।”
फिर वो वहां से रुख्सत हो गया ।
***
मुबारक अली अपने दायें-बायें के साथ पहाड़गंज पहुंचा ।
चार्ली अपने पीजा पार्लर में मौजूद था ।
“सलाम !” - वो बोला - “मेरे कू आने को बोला, आप ।”
“हां ।” - चार्ली बोला - “कल रात की मदद के लिये मैं तुम्हारा शुक्रगुजार हूं ।”
“अपुन तो मजदूर आदमी है, बाप । शुक्रगुजार होना है तो उसका हो जो हमेरे आदमियों कू तेरे पीछू जाने को बोला ।”
“मैं उसका भी शुक्रगुजार हूं ।”
“वो तेरी मेहरबानी है ।”
“अब बोलो क्या खिदमत करूं ?”
“खिदमत ?”
“क्या फीस नजर करूं कल की धुलाई की ?”
“अच्छा, वो । अपुन कोई चाय-पानी की खिदमत समझा था ।”
“वो भी हो जायेगी । पहले अपनी फीस बोलो ।”
“बाप, इस बार फीस जरा और तरीके से लेने का है ।”
“और तरीके से ?”
“अपना बास ऐसा बोला ।”
“और कौन से तरीके से ?”
“उस लाल-पीले साहब का नशे-पानी का सामान दिल्ली में कैसे पहुंचता है ?”
सवाल से चार्ली को जैसे सांप सूंघ गया ।
“कैसे पहुंचता है ?” - मुबारक अली ने फिर अपना सवाल दोहराया ।
“म- मैं... मैं सब नहीं जानता ।”
“जो जानता है बोल ।”
चार्ली बोलने लगा ।
***
विमल के फोन की घण्टी बजी ।
उसने रिसीवर उठाकर कान से लगाया और बोला - “हल्लो ।”
“कौल साहब ?” - आवाज आई ।
“हां । कौन ?”
“कौल साहब, सुमन बोल रही हूं ।”
“सुमन । बोलो सुमन, कैसे फोन किया ? खैरियत तो है ?”
“कौल साहब, जल्दी घर आइये ।”
“क्यों ? क्या हुआ ?”
“आपकी मिसेज की तबीयत एकाएक बहुत खराब हो गई है । आज से मेरी शाम की ड्यूटी लगी है इसलिए मैं घर पर थी जो कि अच्छा ही हुआ । मिसेज कौल के कहने पर मैंने उनकी डाक्टर मिसेज कुलकर्णी को भी फोन कर दिया है । आप जल्दी घर आइये ।”
“आता हूं । लेकिन हुआ क्या है नीलम को ? सुबह तो मैं उसे अच्छी भली...”
“दर्द की शिकायत कर रही है । और मुझे कुछ नहीं पता । आप जल्दी आइये ।”
“आता हूं ।”
***
बहादुरगढ़ की ओर से अण्डों के क्रेटों से भरा एक ट्रक दिल्ली में दाखिल हुआ । ट्रक पर हिसार के एक पोल्ट्री फार्म का नाम लिखा हुआ था ।
ट्रक सड़क के एक सुनसान भाग में पहुंचा तो ड्राइवर ने उसे कच्चे में उतारकर रोक दिया । फिर ड्राइवर और उसके दो क्लीनर ट्रक से बाहर निकले और ट्रक में से एक स्टेपनी और जैक वगैरह उतारने लगे ।
फिर उन्होंने ट्रक के एक अच्छे-भले पहिये को जैक लगाना आरम्भ कर दिया ।
पुलिस की एक जीप सड़क पर से गुजरी । जीप पर सवार पुलिसकर्मियों ने ट्रक का ‘पंचर’ पहिया बदलते ट्रक वालों पर एक सरसरी निगाह डाली और फिर वापिस सड़क पर देखने लगे ।
वही ट्रक उन्होंने बार्डर पर चैक होते देखा था और उन्हें मालूम था कि उसमें अण्डों के अलावा कुछ नहीं था ।
एक नीली मारुति कार सड़क पर प्रकट हुई । कार ट्रक के करीब पहुंचकर रुकी । कार में तीन आदमी सवार थे । उनमें से एक कार की ड्राइविंग सीट पर बैठ रहा और बाकी के दो जने कार से निकलकर ट्रक का पहिया बदलते आदमियों के करीब पहुंचे ।
अपने साथियों को जैक चलाने का आदेश देकर ड्राइवर उठ खड़ा हुआ । वो कार वाले दोनों जनों के करीब पहुंचा ।
कुछ क्षण दोतरफा खुसर-पुसर चली ।
फिर ड्राइवर बन्द ट्रक के पृष्ठ भाग में पहुंचा । उसने अण्डों के कुछ क्रेट ट्रक से निकालकर बाहर सड़क पर रखने शुरू कर दिये । यूं सड़क पर पच्चीस-तीस क्रेट पहुंच गये तो वो ठिठका । उसने घूमकर मारुति वालों की तरफ देखा । मारुति वालों ने चारों तरफ निगाह दौड़ाई और फिर सहमति में सिर हिलाया ।
मारुति के ड्राइवर ने कार में से निकलकर उसकी डिकी खोली ।
ट्रक ड्राइवर ने एक क्रेट ट्रक में से निकला और उसे दो आदमियों में से एक के हवाले कर दिया । उस आदमी ने क्रेट को डिकी में रखा तो मारुति के ड्राइवर ने उसका दरवाजा बन्द कर के उसमें ताला लगा दिया ।
तीनों मारुति में सवार हो गये ।
ट्रक ड्राइवर जमीन पर पड़े क्रेट एक-एक करके वापिस ट्रक में रखने लगा ।
उसके क्लीनर यूं जैक वापिस घुमाने लगे जैसे पहिया बदल कर हटे हों ।
कार दिल्ली की ओर दौड़ चली ।
कोई तीन मील आगे जाकर कार ने मोड़ काटा तो उसे एकाएक रुक जाना पड़ा ।
आगे सड़क पर एक टैम्पो खड़ा था जिसमें लदी काफी सारी पेटियां बाहर सड़क पर बिखरी पड़ी थीं । दो आदमी एक-एक पेटी उठाकर तिरछे खड़े टैम्पो में वापिस लाद रहे थे और तीसरा टैम्पो का हुड खोले भीतर इंजन को झांक रहा था ।
कार के ड्राइवर ने हार्न बजाया ।
टैम्पो के इंजन के भीतर झांकता मुबारक अली सीधा हुआ, उसने हुड को वैसे ही खड़ा रहने दिया और फिर वो कार की और बढा ।
“ट्रक वाला साइड मार गया” - वो रास्ते में ही बोलने लगा - “टैम्पो तो बिगड़ा पड़ा है लेकिन अभी पेटियां हट जाती हैं । बस दो मिनट...”
“जल्दी करो ।” - ड्राइवर की बगल में बैठ आदमी बेसब्रेपन से बोला ।
मुबारक अली पूर्ववत् लापरवाही से चलता हुआ कार के समीप पहुंचा ।
तब कार की सवारियों को उसके हाथ में थमी रिवाल्वर दिखाई दी ।
“खबरदार !” - मुबारक अली बड़े क्रूर स्वर में बोला - “हिलना नहीं मांगता ।”
तीनों सवारियों को जैसे सांप सूंघ गया ।
“बाहर । चुपचाप । गड़बड़ नहीं मांगता ।”
तीनों बाहर निकले ।
तब तक पेटियां उठाते मुबारक अली के खास जोड़ीदार नौजवान अली मोहम्मद और वली मोहम्मद भी वहां पहुंच गये ।
“तू” - मुबारक अली कार के ड्राइवर से बोला - “खिड़की खोल । किरेट निकाल ।”
“क- रेट ! - ड्राइवर के मुंह से निकला ।”
“अण्डों वाला । जल्दी ।”
भारी कदमों से ड्राइवर कार के पृष्ठ भाग की ओर बढा । उसने डिक्की का दरवाजा उठाकर भीतर हाथ डाला । जब वो सीधा हुआ तो उसके हाथ में क्रेट की जगह एक कारबाइन थी ।
मुबारक अली ने फायर किया ।
गोली खिड़की का शीशा तोड़ती हुई ड्राइवर के माथे में धंस गयी । । ड्राइवर वहीं ढेर हो गया ।
उसके दोनों साथी घूमकर पेड़ों की ओर भागे ।
वो अभी सड़क भी नहीं छोड़ पाये थे कि दोनों की दो-दो गोलियां आकर लगीं । दोनों वही धराशायी हो गये ।
मुबारक अली ने अपने साथियों को संकेत किया तो वो बगूले की तरह वापिस टैम्पो के करीब पहुंचे और लकड़ी की पेटियां जो कि एकदम खाली थीं, उठा-उठाकर गेंद की तरह टैम्पो में फेंकने लगे ।
मुबारक अली कार के पृष्ठ भाग में पहुंचा । उसने डिक्की में से क्रेट उठाया और उसे सिर से ऊंचा करके सड़क पर पटक दिया ।
क्रेट के सारे अण्डे फूट गये । उनमें से आधे सच में अण्डे थे, बाकी आधे नकली थे जिसमें हेरोइन भरी हुई थी । हेरोइन और टूटे अण्डे एक दूसरे में गड्ड-मड्ड सड़क पर बिखर गये ।
मुबारक अली वापिस टैम्पो के पास पहुंचा । उसका एक जोड़ीदार उसका हुड पहले ही गिरा चुका था और दूसरा ड्राइविंग सीट पर बैठा इंजन स्टार्ट कर रहा था ।
मुबारक अली टैम्पो में सवार हो गया ।
फिर अगले ही क्षण टैम्पो यह जा वह जा ।
***
लूथरा झण्डेवालन फिंगर प्रिंट एक्सपर्ट तिवारी के पास पहुंचा ।
“क्या खबर है ?” वो बोला ।
“किस बाबत ?” - तिवारी अनमने स्वर में बोला ।
“अरे भई, फिंगर प्रिंट्स के मिलान की बाबत और किस बाबत ?”
“काम हो रहा है ।”
“साल-छ: महीने में हो जायेगा ?”
“इतने में तो हो ही जायेगा ।”
“क्या बात है, यार ! अब बहुत उखड़ रहे हो ।”
तिवारी खामोश रहा ।
“अब कुछ जवाब तो दो ।” - लूथरा जिदभरे स्वर में बोला ।
“देखो” - तिवारी बड़े धीरज से बोला - “काम हो रहा है । आनेस्ट, काम हो रहा है । बिना कोताही, बिना टालमटोल काम हो रहा है । ये ही मेरा जवाब है । इससे बेहतर जवाब फिलहाल मैं नहीं दे सकता ।”
“तुम तो खफा हो रहे हो, यार ।”
“ऐसी कोई बात नहीं ।”
“एक काम करो ।”
“क्या ?”
“उस काम के बाद हो सकता है इस बाबत कुछ करना ही न पड़े ।”
“करूं क्या ?”
“रिकार्ड से मशहूर इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल की उंगलियों के निशान निकालो और उनसे हैल्मेट पर से उठाये गये निशानों का मिलान करो ।”
तिवारी ने हैरानी से उसकी तरफ देखा ।
“प्लीज !” - लूथरा बोला ।
तिवारी सहमति से अपने स्थान से उठा और वांछित फिंगर प्रिंट्स का चार्ट निकालकर लाया । फिर मैग्नीफाइंग ग्लास की सहायता से उसने उनका मिलान हैल्मेट पर से उठाये गये फिंगर प्रिंट्स से करना आरम्भ किया ।
लूथरा आशापूर्ण नेत्रों से अपलक उसे देखता रहा ।
“नहीं मिलते ।” - आखिरकार एक्सपर्ट बोला ।
निराशा से लूथरा का चेहरा लटक गया ।
“पक्की बात ?” - फिर भी वो बोला ।
“क्या बात हैं, भई ?” - तिवारी लूथरा को घूरता हुआ बोला - “मेरी सत्ताइस साल की नौकरी पर खाक डाल रहा है ?”
“सारी । मेरा वो मतलब नहीं था ।”
तिवारी फिर भी उसे घूरता रहा ।
“अब एक आखिरी मेहरबानी और करो ।” - लूथरा बोला - “ये चार्ट, जिस पर फिंगर प्रिंट्स लिये जाते हैं, ऐसे दो कारे चार्ट मुझे दे दो ।”
“क्या करोगे उनका ?”
“अपनी नाकामयाबी पर जब दहाड़े मार-मारकर रोऊंगा तो आंसू पोंछूंगा उनसे ।”
तब तिवारी ने बिना एक शब्द भी और बोले दो कोरे चार्ट उसे सौंप दिये ।
***
बद्हवास विमल अपने फ्लैट में दाखिल हुआ ।
उसने डाक्टर मिसेज कुलकर्णी को और सुमन की नीलम के सिरहाने पाया ।
नीलम ने बड़े कातर भाव से विमल को देखा ।
विमल ने आगे बढकर नीलम का हाथ थाम लिया और उसे बड़े आश्वासनपूर्ण भाव से थपथपाया ।
“क्या बात है ?” - फिर उसने डाक्टर से पूछा ।
“ब्लीडिंग हो रही है ।” - डाक्टर बोली - “प्रीमैच्योर डिलीवरी का अन्देशा है । नर्सिंग होम में सब करना होगा । मैंने एम्बूलेंस बुलाई है ।”
“कोई खतरे वाली बात तो नहीं ?”
“खास खतरे वाली कोई बात नहीं, सिवाय उन अन्देशों के जो पहली डिलीवरी के हर केस में होते हैं ।”
“ओह !”
तभी दरवाजे पर दस्तक पड़ी ।
सुमन ने जाकर दरवाजा खोला । वो लौटी ते उसके साथ स्ट्रेचर उठाये दो आर्डरली थे । उन्होंने स्ट्रेचर बैडरूम के फर्श पर रखा और फिर नीलम को पलंग पर से स्ट्रेचर पर स्थानान्तरित किया गया । फिर दोनों आर्डरली ने स्ट्रेचर उठाया और वो बाहर को चल दिये ।
डाक्टर और सुमन उनके साथ हो लीं ।
पीछे विमल ने फुर्ती से फ्लैट की खिड़कियां वगैरह बन्द की और मुख्य द्वार का ताला लगाकर उनके पीछे लपका ।
लिफ्ट द्वारा वे सब नीचे पहुंचे ।
नीचे इमारत के सामने एम्बूलेंस खड़ी थी जिस पर नीलम को सवार कराया गया । डाक्टर और सुमन भी एम्बूलेंस में सवार हो गयीं ।
“तू...” - विमल ने कहना चाहा ।
“नाइट ड्यूटी है ।” - सुमने पहले ही बोल पड़ी - “रात तक खाली हूं ।”
“अच्छी बात है । मैं दफ्तर की गाड़ी लाया हूं । पीछे-पीछे आता हूं ।”
“ठीक है ।”
एम्बूलेंस वहां से रवाना हूई ।
***
लूथरा अपनी मोटर साइकल पर विमल के फ्लैट वाली इमारत के करीब पहुंच ही रहा था कि उसे वहां से एक एम्बूलेंस और उसके पीछे एक कार रवाना होती दिखाई दी । एम्बूलेंस में उसे ड्राइवर और उसके साथ बैठे दो आर्डरलीज के सिवाय कुछ न दिखाई दिया लेकिन उसके पीछे चलती फियेट कार की चलाते कौल को उसने साफ देखा ।
उसने इमारत के सामने मोटर साइकल रोकी ।
“ये कौल साहब ही थे न ?” - वो लॉबी में बैठे चौकीदार रामसेवक से बोला ।
“हां, साहब ।” - चौकीदार रामसेवक बोला ।
“एम्बूलेंस के पीछे क्यों जा रहे थे ?”
“एम्बूलेंस में उनकी बीवी थी । इमरजेन्सी हो गयी । लेडी डाक्टर भी साथ है । सुमन बीबी भी साथ है ।”
“सुमन बीबी । वो आठवीं मंजिल वाली सुमन वर्मा ?”
“वही ।”
“मेरे को जानता है ?”
“नहीं । पर होंगे तो आप पुलिस वाले ही ।”
“वो कैसे ?”
चौकीदार ने थाने की पीली मोटर साइकल की ओर निगाह दौड़ाई ।
“सयाना आदमी है । मोटर साइकल का ध्यान रखना । मैं थोड़ी देर में आता हूं ।”
“ठीक है, जनाब ।”
मन में एक शैतानी ख्याल लिये लूथरा इमारत में दाखिल हुआ ।
कौल की बीवी की हालत नाजुक थी । वो उसे अभी-अभी एम्बूलेंस पर कहीं किसी हस्पताल में लेकर गया था । सुमन भी उसके साथ गयी थी । हालात का इशारा ये ही था कि वो लोग जल्दी लौटने वाले नहीं थे । यानी कि विमल के फ्लैट में घुसने का इससे बढिया मौका हाथ में नहीं आने वाला था ।
वो लिफ्ट में सवार हो गया ।
चण्डीगढ से आयी सब-इंस्पेक्टर प्यारसिंह की रिपोर्ट ने उसके मन में जो उम्मीदें जगाई थीं उन पर काफी हद तक इस हकीकत ने पानी फेर दिया था कि कौल की उंगलियों के निशान इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल की उंगलियों के निशान से नहीं मिलते थे । फिर भी कौल की बातों से अपनी जगह से हिलाने की कोशिश करने की नीयत से वो वहां आया था और अब मौजूदा हालत को देखते हुए वो कौल के फ्लैट में घुसने का इरादा बना बैठा था ।
वो सातवीं मंजिल पर पहुंचा ।
फिर ताले खोलने में सिद्धहस्त उस पुलसिये न पांच मिनट में कौल के फ्लैट के मुख्य द्वार का ताला खोल लिया ।
***
ढक्कन परेशान था ।
दिन में दो बार गुरबख्शलाल का बुलावा आ चुका था लेकिन उसको उसके सामने पड़ने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी । जिस काम को निहायत मामूली समझकर उसने अपने जिम्मे लिया था, वो मामूली तो निकला ही नहीं था, उलटे अब उसे फिक्र होने लगी थी कि वो उसे अंजाम दे भी पायेगा या नहीं ।
क्या चीज था वो कौल का बच्चा जो देखने में सफेदपोश बाबू लगता था लेकिन असल में निकला था आफत का परकाला । अभी भी ये ख्याल करके ही उसके शरीर में झुरझुरी दौड़ जाती थी कि कैसे परसों रात पंडारा रोड पर उस निहत्थे आदमी ने उसकी आंखों के सामने उसके चार आदमी मार गिराये थे ।
दिन में वो बजरंगलाल से ‘शुभ समाचार’ सुनने के लिये बाराटूटी पहुंचा था तो वहां बजरंगलाल की जगह उसे उसकी लाश मिली थी जिसे कि पुलिस वाले घेरे खड़े थे ।
फिर वही उसे पिछली रात फड़ में मौजूद रहा एक आदमी मिला था जिसने बताया था कि कैसे एक आदमी आधी रात को वहां पहुंचा था और बजरंगलाल की फड़ से उठाकर अपने साथ ले गया था । फिर थोड़ी ही देर बाद बजरंगलाल की लाश डयोढी में पड़ी पाई गयी थी ।
बजरंगलाल की मौत ही इस बात का सबूत थी कि उस बाबू को मारने के लिये उसका भेजा पेशेवर कातिल वीर बहादुर भी जिन्दा नहीं हो सकता था ।
फिर दोपहर तक वीर बहादुर की मौत की तसदीक हो गई ।
तब जिन्दगी में पहली बार ढक्कन का मनोबल टूटा था ।
एक तो काम नहीं हो के दे रहा था, ऊपर से गुरबख्शलाल उसे बार-बार तलब कर रहा था ।
जो काम उसे चींटी मसलने जैसा लगता था, वो अब उसे शेर मारने जैसा लगने लगा ।
अभी पता नहीं गुरबख्शलाल को खबर थी या नहीं कि वो दो बार नाकाम हो भी चुका था । वैसे खबर लगने की सम्भावना न के बराबर थी । ढक्कन खुद ही उसे बताता तो बताता कि परसों पंडारा रोड पर जो चार आदमी मरे थे, वो कौल नाम के उस बाबू का अगुवा करने की फिराक में थे, कल वीर बहादुर नाम का जो चोर गोल मार्केट की एक इमारत पर से गिरकर मरा था, वो हकीकतन वो उसी बाबू का खून करने वहां पहुंचा था और मकतूल बजरंगलाल वो शख्स था, जिसने वीर बहादुर को उस कत्ल के लिये भेजा था ।
उन वाक्यात को सोच-सोचकर ढक्कन को पसीने आने लगे ।
पचास हजार रुपये की रकम उसे अपने से दूर, और दूर सरकता जा रहा सपना लगने लगा ।
मोनिका उसे छप्पन व्यंजनों से सजी ऐसी थाली लगने लगी जो उसके सामने से सरकी जा रही थी ।
मौजूदा हालात में गुरबख्शलाल को मुंह दिखाने के काबिल वो था नहीं और उस जैसे आदमी के बुलावे को ज्यादा देर वो टाल नहीं सकता था । दो बार जो हो गया सो हो गया, तीसरी बार कोई उसे ये कहने नहीं आने वाला था कि गुरबख्शलाल बुलाता था, तीसरी बार जो कोई उसे बुलाने आता, वो उसे जबरन पकड़कर अपने साथ लेकर जाता ।
यूं गुरबख्शलाल के सामने पेश किये जाने के ख्याल से ही उसका कंठ सूखने लगा । उसे लगने लगा कि अगर उसे अपनी जिन्दगी प्यारी थी तो वैसी नौबत आने से पहले ही उसने कुछ करके दिखाना था ।
वो अभी इसी उधेड़बुन में लगा हुआ था कि गुरबख्शलाल का तीसरा बुलावा आ गया । तीसरी बार जो हरकारा उसके पास पहुंचा वो कोई मामूली प्यादा नहीं, लट्टू था जो कि कुशवाहा का खास आदमी था । खुद उसकी तरह, लट्टू की हैसियत भी उन लोगों जैसी थी जिन्हें गुरबख्शलाल अपने पास बिठाने के काबिल समझता था ।
“लट्टू !” - ढक्कन लगभग गिड़गिड़ाता हुआ बोला - “मेरे ऊपर एक मेहरबानी कर ।”
“क्या ?”
“वापिस जा के बोल दे मैं तुझे नहीं मिला ।”
“पागल है ! मरवायेगा मुझे । मुझे हुक्म हुआ है कि तेरी तलाश में अगर मुझे कुओं में जाल भी डलवाने पड़ें तो मैं ऐसा करूं ।”
“कुओं में जाल डलवाने में भी तो टाईम लगता है । मुझे उतना टाइम तो दे ।”
“क्या मतलब ?”
“मुझे दो घण्टे की मोहलत दे । दो घण्टे तू भी वापिस लाल साहब के पास न जा । मैं तेरे से वादा करता हूं कि तेरे से वादा करता हूं कि तेरे लाल साहब के पास वापिस पहुंचने से पहले... सुन रहा है ? ...पहले मैं उनके पास हाजिर हो जाउंगा । लट्टू, तू मेरा यार है तो मेरा ये कहना मान ले ।”
“यार तो हूं मैं तेरा ।”
“तो फिर कहना मान मेरा ।”
“तू अपने वादे पर खरा न उतरा तो ?”
“तो समझ लेना कि मेरे से बड़ा यारमार और वादशिकन आदमी दुनिया में पैदा नहीं हुआ । फिर भले ही तू ही मेरा इंसाफ कर देना और लाल साहब के पास ये खबर लेकर वापिस जाना कि मुझे यारमारी और वादखिलाफी की सजा मिल गयी ।”
“दो घण्टे ?”
“ज्यादा से ज्यादा ।”
“ठीक है ।”
लट्टू वहां से रुख्सत हो गया ।
ढक्कन की जान में जान आयी ।
तब उसने सिर पर कफन बांध लेने का फैसला किया ।
कौल जहां कहीं भी उपलब्ध था, अपनी जान की परवाह किये बिना उसने वहीं उसे शूट कर देने का फैसला किया ।
वो कर्जन रोड पहुंचा ।
कौल के आफिस के रिसैप्शन से उसे मालूम हुआ कि कौल साहब की बीवी की तबीयत एकदम खराब हो गयी थी, इसलिये वो घर चले गये थे ।
वो गोल मार्केट पहुंचा ।
कौल के फ्लैट वाली इमारत के सामने एक पुलिस की मोटर साइकल खड़ी पाकर वो तनिक सकपकाया । वो कुछ क्षण ठिठकर खड़ा रहा और फिर हिम्मत करके उसने लाबी में कदम डाला ।
लाबी में कोई नहीं था ।
वो लिफ्टों की ओर बढा ।
“कहां जाना है ?”
वो चौंककर घूमा । अपने पीछे उसे सुरती फटकता वर्दीधारी चौकीदार दिखाई दिया जो पता नहीं पहले कहां था और अब कहां से टपका था ।
“ऊपर ।” - ढक्कन के मुंह से निकला ।
चौकीदार रामसेवक ने सिर से पांव तक ढक्कन पर निगाह दौड़ाई तो वो उसे हल्का आदमी लगा ।
“ऊपर तो जाना ही होगा, भाई ।” - वो रूखे स्वर में बोला - “पाताल का तो कोई रास्ता है नहीं यहां से । ऊपर कहां जाना है और किससे मिलना है ?”
“साहब से ।” - बाहर खड़ी पीली मोटर साइकल पर निगाहें, डालते उसके मुंह से निकला ।
“कौन से साहब से ?”
“जिनकी मोटर साइकल खड़ी है ।” - उसके स्वर में तब दिलेरी आ गयी - “अबे, मैं थाने से आया हूं ।”
“तो यूं बोलो न ।” - रामसेवक का स्वर तत्काल नरम पड़ा - “अब हम ठहरे यहां के चौकीदार । पूछना तो बनता है न हमारा । कोई नई सूरत दिखाई दे तो उससे सवाल तो करना पड़ना है न ?”
“ठीक है । ठीक है ।”
चौकीदार उससे परे हट गया ।
ढक्कन लिफ्ट में सवार हुआ और सातवीं मंजिल पर पहुंचा ।
कौल के फ्लैट के सामने पहुंचकर उसने अपनी पतलून की बैल्ट में खुंसी अपनी रिवाल्वर को वहां से निकालकर अपने कोट की बाहर की जेब में डाल लिया और फिर फ्लैट की कालबैल बजाई ।
***
कुशवाहा ने डरते डरते दिल्ली बहादुरगढ रोड पर हुई वारदात की और उसमें अपने तीन आदमियों के मरने की खबर गुरबख्शलाल को दी ।
गुरबख्शलाल अभी आधा घन्टा पहले लोटस क्लब पहुंचा था और आते ही उसने चार्ली की बाबत सवाल किया था । तब कुशवाहा को मजबूरन वो कहानी सुनानी पड़ी थी कि कैसे चार्ली को जबरन पकड़ लाने के लिये भेजे गये उनके आदमी पिट के लौट आये थे । उस खबर ने ही गुरबख्शलाल का पारा सातवें आसमान पर चढा दिया था और अब उसे दिल्ली-बहादुरगढ रोड वाली वारदात की खबर उसे सुनानी पड़ रही थी ।
“कैसे हुआ ?” - गुरबख्शलाल ने बड़े सब्र के साथ पूछा - “अब ये न कहना कि ये काम भी उन मादर... धोबियों का है ।”
“लगता तो ऐसा ही है ।” - कुशवाहा धीरे से बोला ।
“कैसे ? कैसे लगता है ? और ऊंचा बोल । कुनमुन न कर । कुछ सुनाई देने दे मुझे ।”
“अण्डों में चालीस लाख रुपये की हेरोइन थी । वो काम हमारे धन्धे के किन्हीं दुश्मनों का होता तो सबसे पहले उन्होंने माल को काबू में किया होता । लाल साहब, मालूम हुआ है कि माल टूटे अण्डों में लिथड़ा वहीं बिखरा पड़ा पाया गया है ।”
“हूं ।”
“इस वारदात का पैट्रन भी पहली वारदातों जैसा ही है ।”
“पैट्रन क्या ?”
“कोई हमारे ड्रग्स के अन्धे के पीछे पड़ा है । वो उसे कब्जाना नहीं, उसे बन्द करना चाहता है ।”
“बन्द तो हुआ ही समझ । हमारे पास माल नहीं होगा, तो हम बांटेंगे क्या ? ऐसे ही एकाध बार माल और लुट जाये तो फिर गली-गली प्रभात फेरी लगाया करेंगे । गाना-वाना आता है ?”
“आता तो है लेकिन...”
“बढिया । तू भजन गाया करना मैं खड़ताल बजाया करूंगा, कोई पेटी-तबले वाला भी निकल आयेगा अपने ही आदमियों में ।”
कुशवाहा खामोश रहा ।
गुरबख्शलाल कई क्षण खामोश रहा ।
“तो” - फिर वह बोला - “ये भी धोबियों का कारनामा है ?”
“मालूम तो ऐसा ही होता है ।”
“खबर कैसे लगी होगी उन्हें ?”
“माल को यूं दिल्ली लाने के तरीके की खबर” - कुशवाहा दबे स्वर में बोला - “चार्ली को थी । सच पूछिये तो ये तरीका सुझाया ही उसने था ।”
“यानी कि” - गुरबख्शलाल का स्वर फिर कहर ढाने लगा - “हमारी हर हार, हर तबाही में कहीं न कहीं चार्ली फिट है ?”
कुशवाहा खामोश रहा ।
“और यकायक इतना ताकतवर हो गया है वो कि हमारे काबू में भी नहीं आ रहा । बुलाते हैं तो आता नहीं । पकड़ मंगवाने की कोशिश करते हैं तो हमारे आदमियों को पिटवाकर भगा देता है । ठीक ?”
कुशवाहा का सिर बड़ी कठिनाई से सहमति में हिला ।
“ढक्कन की कोई खोज-खबर ?”
“मैंने लट्टू को उसके पीछे भेजा है ।”
“कमाल है ! अभी कल तक लोग हमारे पीछे दुम हिलाते फिरते थे, अब हमें उसके पीछे-पीछे फिरना पड़ता है !”
“ऐसी बात नहीं, लाल साहब ।”
“ऐसी ही बात है । वो ढक्कन का बच्चा जो मरा जा रहा था उस बाबू का ढक्कन खोलने के लिए, जिससे मुझे ये अंदेशा था कि पचास हजार रुपये के लालच में वो बेगुनाह का खून न कर दे, अब छुपता फिर रहा है । और मेरी बहन है कि ‘गुरबख्शया, गुरबख्शया’ करके मेरी आंख में डडा किये दे रही है । मैं गुरबख्शलाल अपनी बहन से छुपता फिर रहा हूं क्योंकि मैं उसे ये खबर नहीं दे सकता कि मेरे भांजे का कातिल अब इस दुनिया में नहीं है ।”
“मैं ढक्कन की खुद खबर लेता हूं, लाल साहब ।”
“जैसे तू चार्ली की खुद खबर ले रहा है ?”
कुशवाहा ने जोर से थूक निगली ।
“अब तू क्या करेगा ?”
“किस बाबत ?” - कुशवाहा बोला ।
“चार्ली की बाबत और किस बाबत ?”
मैं रात को खुद जाऊंगा और...”
“हाथ-पांव तुड़ा के लौटूंगा । ठीक ?”
कुशवाहा ने होठों पर जुबान फेरी और बेचैनी पहलू बदला ।
“मैं कोई राय दूं ?” - गुरबख्शलाल बोला ।
“हुक्म कीजिये ।” - कुशवाहा बोला ।
“इससे पहले कि काली रात में मुंह काला करके टांगों में पूंछ दबा के यहां से खिसकने की नौबत आये, हम पहले ही हर की पौड़ी पर जा बैठते हैं । तब हम बड़ी दिलेरी से ये कह सकेंगे कि मोहमाया हमसे छिनी नहीं, हमने खुद त्याग दी । कैसी रहेगी ?”
“लाल साहब, आप मजाक कर रहे हैं ।”
“ईश्वर करे, मजाक ही हो ये ।” - वो कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “एक बात बता ।”
“पूछिये ।”
“प्यासा कुएं के पास जाता है या कुआं प्यासे के पास जाता है ?”
“प्यासा कुएं के पास जाता है ।”
“तो फिर, मेरे भाई, चार्ली के पास चलने की तैयारी कर । इस वक्त प्यासे हम हैं न कि चार्ली । इस वक्त उसे हमारी नहीं हमें उनकी जरूरत है । हमने अपने दुश्मन को फौरन पहचनना हैं वर्ना हम सबके सब मरे पड़ें होंगे । ये काम हो पाने का चार्ली के अलावा कोई दूसरा जरिया हमारे सामने नहीं । है तो बोल ।”
कुशवाहा ने इनकार में सिर हिलाया और फिर बोला - “मैं इन्तजाम करता हूं ।”
“ठीक ।”
***
लूथरा प्रसन्न था ।
उनकी मेहनत बेकार नहीं गयी थी । कौल ने अपना कुछ खास साजो-सामान फ्लैट में बहुत चतुराई से छुपाया था लेकिन फ्लैट का एक-एक इंच भाग टटोलने को आमादा लूथरा को आखिरकार उसके धीरज का फल मिल ही गया था ।
बरामद सामान में से वो पेस्टनजी नौशेरवानजी घड़ीवाला के ड्राइविंग लाइसेंस का मुआयना कर रहा था जब कि एकाएक कालबैल बज उठी ।
लूथरा तनिक सकपकाया जरूर लेकिन आशांकित या आतंकित कतई न हुआ । अब वो फ्लैट के मालिक से कैसे भी डायलाग के लिये तैयार था ।
उसने उठकर दरवाजा खोला ।
आगन्तुक अरविन्द कौल नहीं था ।
उसने घूरकर ढक्कन को देखा और फिर कर्कश स्वर में बोल - “क्या है ?”
ढक्कन हड़बड़ाया । दरवाजा खोलने वाले की सूरत पर लिखा था कि वो पुलसिया था । रही-सही कसर उसकी आवाज ने पूरी कर दी थी ।
“क- कौल साहब के मिलना है ।” - ढक्कन बोला ।
“कहां से आया है ?”
“आफिस से ।”
“अरे, कौन से आफिस से ?”
“कौल साहब के आफिस से । कनाट प्लेस से । गैलेक्सी ट्रेडिंग कार्पेरिशन से । बड़े साहब ने भेजा है ।”
“क्यों ?”
“उनकी बीवी की खबर लेने के लिये । बड़े साहब फिक्र कर रहे थे ।”
“बीवी को अभी अभी एम्बूलेंस पर हस्पताल ले जाया गया है । कौल साहब साथ गये हैं ।”
“भई, हालत ज्यादा खराब हो, तभी एम्बूलेंस की जरूरत पड़ती है । तभी हस्पताल ले जाया जाता है ।”
“कौन से अस्पताल में ?” - ढक्कन बोला ।
लूथरा से तत्काल जवाब देते न बना ।
“बड़े साहब पूछेंगे ।” - ढक्कन बोला । कौल कहां था, उसे मालूम होना चाहिये था । मौजूदा हालात में वो उसे कहीं भी शूट कर देने के लिये तैयार था ।
“मुझे मालूम नहीं ।” - लूथरा बोला - “कौल साहब यहां लौटे या उनका फोन आया तो मैं आफिस फोन करा दूंगा ।”
“शुक्रिया ।” - ढक्कन एक क्षण ठिठका और बोला - “आप कौन ?”
“मैं कौल साहब का दोस्त हूं ।”
“आपका शुभ नाम ?”
लूथरा ने उसे घूरकर देखा ।
जवाब में ढक्कन का मुंह न खुला, उसके हाथ तत्काल अभिवादन में उठ गये और फिर वो वहां से विदा हो गया ।
लूथरा ने फिर फ्लैट का दरवाजा बन्द कर लिया ।
***
विमल नर्सिंग होम के रिसैप्शन पर बैठा बेचैनी से पहलू बदल रहा था ।
नीलम डाक्टर मिसेज कुल्कर्णी की केयर में थी, सुमन नीलम के पास थी और खुद उसे बाहर ही रहने का हुक्म हुआ था ।
पाइप के कश लगाते वो प्रतीक्षा करता रहा ।
उसके पहलू में बैठा एक आदमी उस रोज का ईवविंग न्यूज पढ रहा था जिसके मुखपृष्ठ पर मोटी हैडलाइन्स थी - विष्णु गार्डन में ज्वेलर की हत्या ।
वो अखवार से फारिग हुआ तो विमल ने उससे अखबार मांग लिया ।
उसने ज्वेलर की हत्या वाली खबर पढी ।
खबर के मुताबिक उसी रोज दोपहर बाद दो सशस्त्र नौजवान विष्णु गार्डन के मेन बाजार में स्थित एक ज्वेलर शाप में घुस आये थे । दुकान में उस घड़ी मालिक के अलावा तीन सेल्समैन थे । मालिक के खुद के पास रिवाल्वर थी जिसे निकालकर उसने डकैतों का मुकाबला करने की कोशिश की थी, वो डकैती से पहले उन पर दो फायर झौंकने में कामयाब भी हो गया था लेकिन शूटिंग का पहले से कोई तजुर्बा न होने के कारण उसकी चलाई एक भी गोली अताताइयों को नहीं लगी थी । उलटे अताताइयों द्वारा चलाई गई गोलियों से दो सेल्समैन मारे गये थे और मालिक और एक अन्य सेल्समैन गम्भीर रूप से घायल हुए थे ।
फिर अताताई बिना कोई सामना लूटे वहां से भाग खड़े हुए थे । उनके भाग जाने के बाद अगल बगल के दुकानदार वहां इकट्ठे हुए थे और फिर पुलिस को फोन किया गया था ।
पुलिस ने आकर सबसे पहले घायल ज्वेलर और उसके सेल्समैन को एम्बूलेंस पर हस्पताल रवाना किया था । ज्वेलर ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया था लेकिन उसका सेल्समैन हस्पताल में डाक्टर द्वारा बचा लिया गया था और खतरे से बाहर घोषित कर दिया गया था ।
ज्वेलर अपनी मौत से पहले ये बयान देकर मरा था कि दुकान में रिवाल्वर रखना उसने पिछले रोज से ही शुरू किया था और ऐसा करने की प्रेरणा उसे खबरदार शहरी के कारनामों से और उसके कारनामों से प्रभावित लोगों के कारनामों से - खासतौर से फतेहपुरी के गल्ले के व्यापारी से और शंकर रोड के पैट्रोल पम्प अटैण्डेण्ट से - मिली थी ।
विमल ने अखबार उसके मालिक को वापिस कर दिया और बड़े अवसादपूर्ण भाव से गर्दन हिलाई ।
जिस बात का अन्देशा उसने सुबह शिवनारायण पर जाहिर किया था, वो हो भी चुकी थी ।
तभी डाक्टर कुलकर्णी वहां पहुंची ।
विमल तत्काल उठकर बढा हुआ । उसने व्यग्रपूर्ण भाव से उसकी तरफ देखा ।
वृद्ध लेडी डाक्टर उसके करीब पहुंची और उसका कन्धा थपथपाती हुई बोली - “फिलहाल प्रीमैच्योर डिलीवरी वाली कोई बात नहीं, मिस्टर कौल !”
“ओह !”
“वो फाल्स अलार्म था । अब ब्लीडिंग बन्द हो गई है । पहली डिलीवरी में ऐसा अक्सर हो जाता है ।”
“अब हालत कैसी है उसकी ?”
“बिल्कुल ठीक । परफैक्टली इन कन्ट्रोल । सो यू स्टाप वरीईंग ।”
“थैक्यू ।” - विमल कृतज्ञ भाव से बोला ।
“लेकिन आबजर्वेशन के लिए अभी पेशेन्ट को दो तीन दिन यहां रहना जरूरी है ।”
“ऐज यू से ।”
“मैं अब जाती हूं ।”
“मैं मिल सकता हूं अपनी बीवी से ?”
“मिल सकने को तो” - वायोवृद्ध लेडी डाक्टर के चेहरे पर एक रंगीन मुस्कराहट आई - “चाहे साथ जा के लेट जाओ लेकिन वो सिडेटिव के असर में है ।”
“ओह !”
डाक्टर विदा हो गई तो विमल नीलम के कमरे में पहुंचा ।
नीलम बेसुध सोई पड़ी थी और सुमन उसके करीब एक कुर्सी पर बैठी थी ।
“अब तू भी जा” - विमल बोला - “तुझे अपनी ड्यूटी पर जाना होगा ।”
“मैं छुट्टी कर सकती हूं ।” - सुमन व्यग्र भाव से बोली ।
“जरूरत नहीं । डाक्टर कह के गई है कि ये अब बिल्कुल ठीक है ।”
बड़ी मुश्किल से उसने सुमन को वहां से रुख्सत किया ।
फिर वो खुद भी अपने आफिस के लिए रवाना हुआ ।
वो पार्किंग में कार खड़ी कर रहा था तो अपने बॉस शुक्ला को उसने एक दूसरी कार में सवार होते पाया ।
वो लपककर उसके करीब पहुंचा ।
“कौल !” - शुक्ला उसे देखते ही बोला - “अब कैसी हैं मिसेज ?”
विमल ने बताया ।
“ओह !” - शुक्ला बोला - “देखो कार की तुम्हें फिर जरूरत पड़ सकती है इसलिए जब तक तुम्हारी मिसेज नर्सिंग होम में हैं, कार तुम अपने पास रखो ।”
“थैंक्यू, सर ।”
“और आफिस की फिक्र करने की जरूरत नहीं । आ सको तो ठीक है, न आ सको तो भी चलेगा ।”
“थैंक्यू वैरीमच, सर ।”
“नाट ऐट आल । नाट ऐट आल ।”
उसने ड्राइवर को संकेत किया ।
“सर” - विमल व्यग्र स्वर में बोला - “मैं एक मिनट आपसे आपके फ्रेंड शिवनारायणजी के बारे में बात करना चाहता था ।”
“फिर कभी ।” - शुक्ला बोला - “अभी मैंने एक बहुत जरूरी मीटिंग में पहुंचना है एण्ड आई एम आलरेडी गैटिंग लेट ।
“सारी, सर ।”
शुक्ला की कार सर्र से उसके पहलू से निकल गई ।
***
लूथरा लिफ्ट से निकला और लॉबी में मौजूद चौकीदार रामसेवक की ओर बढा ।
“आपका आदमी मिल गया, साहब ?” - लूथरा के मुंह खोल पाने से पहले ही रामसेवक बोल पड़ा ।
“मेरा आदमी !” - लूथरा सकपकाया ।
“जो आपके थाने से आया था ।”
“क्या बकता है ?”
“साहब, वो ही बोला कि वो थाने से आया था ।”
“कौन बोला ? कौन था वो ? हुलिया बता उसका । पहनावा बता ।”
रामसेवक ने बताया ।
लूथरा को समझते देर न लगी कि वो उसकी आदमी का हुलिया बयान कर रहा था जो थोड़ी देर पहले उसकी मौजूदगी में ऊपर कौल के फ्लैट पर पहुंचा था । वो शख्स कौल के दफ्तर से आया आदमी नहीं हो सकता था ।
क्या कौल फिर अपने फ्लैट में ही कत्ल होने से बाल-बाल बचा था ?
जरूर यही बात थी ।
“साहब” - रामसेवक कह रहा था - “क्या वो आपका आदमी नहीं था ?”
“उसे छोड़ ।” - लूथरा तनिक उतावले स्वर में बोला - “ऐम्बूलेंस की बात कर । जो एम्बुलेंस अभी थोड़ी देर पहले कौल साहब की बीवी को लेकर गई थी, वह कौन से अस्पताल की थी ?”
“हमें तो मालूम नहीं, साहब ।”
“क्यों नहीं मालूम ? तेरे सामने ही तो आई होगी वो यहां । और एम्बूलेंस पर तो दोनों तरफ से मोटा- मोटा हस्पताल का नाम लिखा होता है ।”
“साहब, हम अंग्रेजी पढ़े-लिखे तो नहीं हैं न और आप तो जानते ही हैं कि ऐसी बातें अंगेजी में ही...”
“तूने किसी को हस्पताल का नाम लेते भी नहीं सुना ? कौल की ? सुमन बीवी को ? एम्बूलेंस के ड्राइवर या आर्डरली वगैरह किसी को ?”
“नहीं, साहब ।”
“इतना ही पता हो कि एम्बूलेंस किसी सरकारी हस्पताल की थी या किसी प्राइवेट नर्सिंग होम की ?”
“हमें कैसे मालूम होगा, साहब । हम तो पिराईवेट और सरकारी में फर्क नहीं जानते ।”
“वैसे इतना सयाना बनता है !”
“अब, साहब, हम तो...”
“दफा हो ।”
रामसेवक ने आहत भाव से लूथरा को देखा और फिर उससे थोड़ा परे सरक गया ।
लूथरा सोचने लगा ।
कैसे मालूम हो कि कौल ने अपनी बीवी को कहां भरती किया था ?
फिर तत्काल ही उसे एक तरकीब सूझी ।
वो अपनी मोटर साइकल पर सवार हुआ और कर्जन रोड पर स्थित मिसेज कुलकर्णी के रेजीडेंस कम क्लीनिक पर पहुंचा ।
“डाक्टर साहिबा से मिलना है ।” - वो रिसैप्शनिस्ट से बोला ।
“वो तो विजिट पर गई हैं ।” - जवाब मिला ।
“मैं डाक्टर मिसेज कुलकर्णी की बाबत पूछ रहा हूं ।”
“उन्हीं की बाबत बताया है मैंने । वो विजिट पर गई हैं ।”
“कब तक लौटेंगी ?”
“पता नहीं । सीरियस केस देखने गई हैं । हो सकता है बहुत देर में लौटें ।”
“मेरा उनसे फौरन मिलना जरूरी है ।”
“क्यों ?”
“एक पुलिस केस की तहकीकात में मुझे उनके बयान की जरूरत है । फौरन । बल्कि फौरन से पेशतर ।”
रिसैप्शनिस्ट ने फिर एक निगाह लूथरा पर डाली और फिर बोली - “तो फिर आप ऐसा क्यों नहीं करते ? यहां इन्तजार करने की जगह आप उनके पीछे चले जाइये ।”
“कहां ? कहां चला जाऊं ? कहां होगी वो ?”
“वो महाजन नर्सिंग होम में हैं । अभी थोड़ी देर पहले ही उसका वहां से फोन आया था ।”
“कहां है ये नर्सिग होम ?”
“कनाट प्लेस के करीब । हनुमान रोड पर ।”
महाजन नर्सिग होम । हनुमान रोड । - लूथरा मन ही मन याद करता हुआ बोला । फिर उसने रिसैप्शनिस्ट का शुक्रिया अदा किया और वहां से विदा हो गया ।
***
विमल सुजानसिंह पार्क पहुंचा ।
मुबारक अली अपने स्टैण्ड पर नहीं था । मालूम हुआ कि वो उसी क्षण एयरपोर्ट की सवारी लेकर वहां से गया था ।
यानी कि वो डेढ-दो घन्टे से पहले नहीं लौटने वाला था ।
वो सतनगर पहुंचा ।
ढक्कन के घर को भी उसने ताला लगा पाया ।
तब उसके मन में गुरबख्शलाल के किसी प्रसिद्ध ठीये का चक्कर लगाने का ख्याल आया ।
वैसा करीबी ठीया लोटस क्लब ही था ।
वो कनाट प्लेस की ओर रवाना हुआ ।
रास्ते में उसे एक ख्याल आया ।
गुरबख्शलाल उसके खून का प्यासा था, उसके किसी ठीये पर यूं पहुंच जाना क्या ठीक होता ?
उसे वो ठीक न लगा ।
कार लिंक रोड पहुंची तो आगे कनाट प्लेस पहुंचती पंचकुइयां रोड पकड़ने की जगह उसने उसे मन्दिर मार्ग पर मोड़ दिया ।
वो अपने घर पहुंचा ।
किचन के एक ऊंचे शैल्फ में बने एक गुप्त खाने में से उसने अपनी बम्बई का यादगार साजो सामान निकाला ।
उसने अपने चेहरे पर फ्रेंचकट दाढी लगायी जो कि चोट की वजह से बायें गाल पर बड़ी मुश्किल से एडजस्ट हुई - ऐसा करने के लिये उसे जख्म पर से ड्रेसिंग उतारकर अलग करनी पड़ी - आंखों की पुतलियों पर नीले कान्टैक्ट लैंस चढाये और ऊपर से बिना नम्बर वाला तार के फ्रेम का चश्मा लगाया ।
ब्रीफकेस के साथ लोटस क्लब में जाना अजीब लगता इसलिये लाल ब्रीफकेस वाली रिवाल्वर का विचार त्यागकर उसने वीर बहादुर ने छीनी खिलौना सी रिवाल्वर निकाली । उसने उसका साइलेंसर निकाल दिया और यूं और भी छोटी हो गयी रिवाल्वर का अपनी बायीं टांग के भीतर के तरफ जुराब में खोंस लिया ।
फिर उसे अपने पेस्टनजी नौशेरवानजी घड़ीवाला के नाम वाले ड्राइविंग लाइसेंस का ख्याल आया । उस लाइसेंस पर उसकी जो तसवीर थी, उसमें दाढी-मूंछ और चश्मा नहीं था लेकिन लाइसेंस पांच साल की अवधि के लिए जारी होता था और उस अवधि में लाइसेंसधारी दाढी मूंछ रख सकता था और उसे चश्मा लग सकता था ।
उसने लाइसेंस के लिए शैल्फ को टटोला तो वो उसे वहां न मिला । जरूर लापरवाही में उसने उसे इधर- उधर कहीं गिरा दिया था ।
दिन की रोशनी में उसे ठीक से तलाश करने का इरादा करके वो वहां से रुख्सत हुआ ।
वो कनाट प्लेस पहुंचा ।
लोटस क्लब वस्तुत: कनाट प्लेस के कनाट सर्कस के नाम से जाने जाने वाले बाहरी दायरे में थी और वो शंकर मार्केट के ऐन सामने पड़ती थी ।
उसने लोटस क्लब के चकाचौंध भरे माहौल में कदम रखा ।
विमल वहां की जगमग से प्रभावित हुए बिना न रह सका ।
फिर वो सन्तुलित कदमों से चलता हुआ बार पर पहुंचा ।
लो ब्लाउज और हाई स्कर्ट वाली अपनी सैक्सी ड्रैस में मोनिका बार पर मौजूद थी । वो तत्काल विमल के करीब पहुंची उसने आंख भरकर विमल की ओर देखा और फिर उसके होंठों पर वो सैक्सी मुस्कराहट नमूदार हुई जिससे वो कुछ खास ग्राहकों को ही नवाजती थी ।
“यस सर ।” - वो बोली ।
विमल ने नोट किया कि वो यू कन्धे सिकोड़कर खड़ी थी कि उसके गिरहबान में सहज ही झांका जा सकता था । उसने उसके उन्नत वक्ष की घाटियों पर से निगाह हटाकर पीछे शीशे के विशाल शोकेस में लगी विस्की की दर्जनों बोतलों पर निगाह दौड़ाई और फिर बोला - “जानी बाकर ब्लैक लेबल ।”
“लार्ज, सर ?”
“वैल, आई एम ए लार्ज मैन । आई मस्ट हैव ए लार्ज वन ।”
मोनिका ने उसके लिए पैग बनाकर उसके सामने रखा ।
“सोडा ?”
“नो ।” - विमल बोला - “वाटर ।”
शीशे की एक नन्ही सी सुराही में से उसने गिलास में पानी और आइस क्यूब्स डाले ।
“थैंक्यू ।” - विमल बोला - “हाउ मच ?”
“थ्री सिक्सटी रुपीज पर ।”
“जरूर इसमें” - विमल ने स्टेज पर थिरकती लगभग नंगी कैबरे डांसर की ओर निगाह दौड़ाई - “इस नजारे की फीस भी शामिल होगी ।”
“और आर्केस्ट्रा की भी ।” - वो बोली ।
“अगर मैं वादा करूं कि कैब्रे डांसर की तरफ निगाह नहीं उठाऊंगा और आर्केस्ट्रा से कान बन्द कर लूंगा तो ड्रिंक की क्या कीमत होगी ?”
मोनिका हंसी, उसके मोती जैसे सफेद दांत चमके । मजाक पसन्द लोग उसे पसन्द थे । खूबसूरत, नौजवान मजाकपसन्द लोग उसे खास पसन्द थे ।
“सर” - वो बोली - “तो भी यही कीमत होगी ।”
“यानी कि अन्धे बहरों के लिए ये जगह मंहगी है ।”
“ये जगह सभी के लिये महंगी है, सर । चीज की कीमत पूछकर उसे हासिल करने वाले यहां नहीं आते, सर ।”
“वो कहां जाते हैं ?”
“वो ठेके से बोतल खरीदते हैं और घर बैठ के पीते हैं । घर न पी सकें तो जूस की दुकान पर खड़े होकर पीते हैं, जूस के गिलास की कीमत अदा करना भी मुश्किल लगे तो टायलेट का नलका तो है ही ।”
“बड़ी खतरनाक बातें करती हो ।”
“हर किसी से नहीं ।”
“यानी कि मेरे पर खास नजरेइनायत है ?”
“यही समझ लीजिये ।”
“यानी कि मैं खुशनसीब समझूं अपने आपको ?”
“वो आपकी मर्जी है ।”
“आई सी । आई सी ।”
“मेरा नाम मोनिका है ।”
“अच्छा नाम है ।”
“आपके नाम से तो अच्छा न होगा ?”
“नाम पूछ रही हो मेरा ?”
वो मुस्कराई ।
“नाम उसका पूछना चाहिये” - विमल बोला - “जिससे दोबारा मुलाकात का मन करता हो ।”
“आप तो अन्तर्यामी हैं, सर ।”
“मेरा नाम... विमल है । सूटिंगवाला ।”
“हल्लो, मिस्टर विमल ।” - वो मादक स्वर में बोली ।
“हल्लो, हनी ।”
“आपने ड्रिक को तो छुआ ही नहीं ?”
“ओह, यस । यस” - उसने सौ-सौ के चार नोट निकालकर मोनिका को सौंपे और बोला - “यू कैन कीप दि चेंज ।”
“थैंक्यू, सर ।”
विमल ने विस्की का एक घूंट भरा और फिर धीमे से बोला - “लाल साहब हैं ?”
एक लम्बे वार्तालाप के बाद विमल ने वो सवाल पूछा था इसलिये मोनिका जवाब की बाबत फैसला न कर सकी । दूसरे, पूछने का ढंग ऐसा था जैसे वो युवक लाल साहब का कोई वाकिफकार हो, अत: कौन लाल साहब कहना उसे ठीक न लगा । उसके इस निर्णय में इस बात का भी हाथ था कि विमल उसे पहली निगाह में भा गया था, वो उसे वैसा मर्द लगा था जैसे की कि वो मन ही मन हमेशा ख्वाहिश करती थी ।
“नहीं ।” - वो बोली ।
“अभी आये ही नहीं ?” - विमल सहज भाव से बोला ।
“आये थे । अभी थोड़ी देर पहले कहीं गये हैं ।”
“ढक्कन ?”
“कौन ?”
“अनमोल कुमार । ढक्कन ।”
“आप उसे जानते हो ?”
“हां ।”
मोनिका ने फिर उसकी सूरत और पोशाक पर निगाह दौड़ाई ।
“मेरी जान” - विमल अपनी एक आंख तनिक दबाकर बोला - “सूरत बड़ी धोखेबाज शै होती है और लिबास उस धोखे को दोबाला करता है ।”
“ये आप अपनी बाबत कह रहे हैं ?”
“और किसकी बाबत कहूंगा ।”
“आप ये कह रहे हैं कि आप ढक्कन के कोई जोड़ीदार हैं ?”
“कोई एतराज ?”
“आप तो मेरा दिल तोड़ रहे हैं ।”
“यानी कि अभी तक तुम्हारा दिल साबुत था ? अगर ऐसा है तो खुशकिस्मत हो । मेरा दिल तो तभी टूट गया था” - विमल के जेहन में अपनी पहली बीवी सुरजीत कौर का अक्स उभरा - “जबकि मुझे पहली बार पता लगा था कि दिल होता क्या था ?”
“इधर भी यही हाल है ।”
“फिर तो खूब गुजरेगी जो मिल बैठेंगे दीवाने दो ।”
“यस, सर ।” - मोनिका जोश में बोली - “खूब गुजरेगी ।”
“गुड । आई एम ग्लैड ।”
“लेकिन, सर ।”
“क्या ?”
“दाढी नहीं चलेगी ।”
“मतलब ?”
“मुझे यकीन है, यकीन क्या, गारण्टी है कि आप दाढी के बिना ज्यादा खूबसूरत लगेंगे ।”
“ये बात ?”
“यस, सर ।”
“तो मैं जाता हूं ।”
“कहां ?”
“शेव कराने ।”
वो हंसी ।
“जल्दी क्या है ?” - वो बोला ।
“मुझे कोई जल्दी नहीं । तुम्हें हो तो मैं अभी इस दाढी को नोच-नोचकर अपने चेहरे से उतार सकता हूं ।”
“ये तकलीफ वाला काम होगा, सर ।”
“होगा तो होगा । दिल टूटने से ज्यादा तकलीफ वाला काम तो नहीं होगा न ये ?”
“वो तो है ।”
“तो फिर मैं...”
विमल ने यूं अपनी दाढी को थामा जैसे उसे नोचने लगा हो ।
“ओह नो, सर, मे बी लेटर । इन ए प्रापर एण्ड आर्डरली मैनर ।”
“ऐज यू विश ।”
“थैंक्यू, सर ।”
“बात ढक्कन की हो रही थी ।”
“वो है तो नहीं यहां लेकिन किसी भी घड़ी यहां पहुंचने वाला है ।”
“कैसे मालूम ?”
“बास ने अपना एक खास आदमी उसे लिवा जाने के लिये भेजा है । वो खाली हाथ नहीं लौटाने वाला ।”
“खास आदमी कौन ?”
“लट्टू ।”
“तुम तो हर बात की खबर रखती हो ।”
वो हंसी ।
“ये भी एक फायदा होता है खूबसूरत होने का ।” - विमल बोला - “मलिकायेहुस्न को अपना राजदार बनाने में लोग फख्र महसूस करते हैं ।
“सर, आई एम ओनली ए बारमेड ।”
“बट वाट ए लवली, ल्यूशियस डिलैक्टेबल बारमेड ।”
वो फिर हंसी ।
तभी बार के दूसरे सिरे पर एक और ग्राहक पहुंचा ।
“एक्सक्यूज मी, सर ।” - वो बोली ।
विमल ने सहमति में सिर हिलाया । मोनिका परे चली गयी तो विमल अपना पाइप निकालकर तैयार करने लगा ।
मोनिका दूसरे ग्राहक को सर्व कर चुकी थी लेकिन उसने वापिस लौटने का उपक्रम न किया ।
विमल ने पाइप सुलगा लिया ।
तभी एक और आदमी बार पर पहुंचा । उसे देखते ही मोनिका तत्काल उसके सामने पहुंची । उसे आदमी के मुंह खोल पाने से पहले ही मोनिका ने दबे स्वर में उससे कुछ पूछा जिसके जवाब में उस आदमी ने इनकार में सिर हिलाया ।
विमल ने मोनिका के चेहरे पर निराशा के भाव उभरते देखे ।
यूं ही कुछ क्षण उन दोनों में और खुसर-पुसर और इशारे-बाजी हुई, फिर वो आदमी भी वहां से हटा और बार के कोने में लगा एक दरवाजा खोलकर भीतर दाखिल हो गया ।
मोनिका विमल के करीब पहुंची ।
उस बार जब वो बोली तो उसकी जुबान में सम्पन्न ग्राहकों के लिये सुरक्षित पहले वाला अदब नहीं था ।
“तुम तो” - वो बोली - “अपने आपको ढक्कन का कोई जोड़ीदार बता रहे थे ?”
“तो ?” - उसके मिजाज में आई तब्दीली को नोट करता विमल तनिक हकलाकर बोला ।
“ढक्कन तुम्हारी बगल में खड़ा था और तुमने उसे पहचाना तक नहीं ।”
“ढक्कन मेरी बगल में खड़ा था ?” - विमल सकपकाया - “कब खड़ा था ?”
“अभी एक मिनट पहले । अभी एक आदमी मेरे से बात नहीं कर रहा था ?”
तो वो था ढक्कन - विमल मन-ही-मन बोला ।
“कर रहा होगा ।” - प्रत्यक्षत: वो लापरवाही से बोला - “मेरी उसकी तरफ तवज्जो नहीं थी । मेरी किसी की तरफ तवज्जो नहीं थी । आई मीन, सिवाय तुम्हारे ।”
वो खुश हो गयी लेकिन तत्काल फिर उसके चेहरे पर शंका के भाव आये ।
“लेकिन ढक्कन ने तो” - वो बोली - “तुम्हारी तरफ देखा था पहचाना तो नहीं उसने तुम्हें ?”
“कैसे पहचानता ?” - विमल बड़े इत्मीनान से बोला ।
“क्या मतचलब ?”
“करीब आओ । समझाता हूं ।”
मोनिका उसके करीब आयी ।
“मेरे चेहरे को देखो । दायें गाल पर निगाह रखो ।”
“लेकिन...”
“सुना नहीं ?”
“ओके ।”
विमल ने अपनी दाढी का कोना पकड़कर उसे जरा-सा अपने चेहरे से अलग किया और फिर फौरन ही गाल थपककर उसे वापिस चिपका लिया ।
मोनिका के नेत्र फैले ।
“अब समझीं ?” - विमल रहस्यपूर्ण स्वर में बोला ।
मोनिका ने जल्दी-जल्दी सहमति में सिर हिलाया । तत्काल फिर उसके चेहरे पर सम्मान के भाव आ गये ।
“तभी आप...”
“श-श ।” - विमल ने उसे चुप कराया ।
उसने फौरन होंठ भींच लिये लेकिन उसकी निगाहों से प्रशंसा का भाव न गया । पता नहीं वो विमल को क्या समझ रही थी ।
“अब तुम मेरा एक काम करो ।” - विमल बोला ।
“क्या ?”
“ढक्कन से मेरा मिलना बहुत जरूरी है लेकिन मैं उससे यहां नहीं मिलना चाहता क्योंकि दाढी-मूंछ में वो मुझे पहचानेगा नहीं ।”
“मूंछ भी ?” - मोनिका हैरानी से बोली ।
“चश्मा भी । सिर के बाल भी । नाक भी ।”
“ना... नाक भी... न...कली है ?”
“हां । मैं बाहर जाकर अपनी कार में बैठता हूं, तुम ढक्कन को बाहर भेज दो । कार क्रीम कलर की फियेट है । नम्बर डी ई ए-7142 है । ओके ?”
“मैं ढक्कन को क्या कहूंगी ?”
“वही जो मैंने कहा है ।”
“लेकिन... लेकिन वो और सवाल करेगा ।”
“जरूर करेगा । लेकिन किससे करेगा ? तुम्हारे से । और तुम क्या कोई मामूली हस्ती हो ?”
“लेकिन...”
“मोनिका, मेरी जान, मेरा इतना-सा काम नहीं कर सकतीं ?”
“वो तो ठीक है लेकिन...”
“अच्छी बात है ।”
“दैट्स लाइक ए गुड गर्ल । आई लव यू, डार्लिंग ।”
फिर विमल ने अपना गिलास खाली किया और पाइप के कश लगाता हुआ वहां से बाहर निकल गया ।
***
मायूस ढक्कन ने लोटस क्लब में कदम दखा ।
लट्टू से उसे सिर्फ दो घण्टे की मोहलत न मिली होती तो अभी वो और तलाश करता उस कौल के बच्चे को । कम-से-कम गोल मार्केट के आसपास के प्राइवेट नर्सिंग होमों के चक्कर तो वो जरूर ही लगाता । लेकिन तब ऐसे किसी काम की शुरूआत के लिए भी वक्त नहीं था । उसे लट्टू से पहले गुरबख्शलाल के हुजूर में पहुंचना था ।
किसी सजते से जवाब के साथ ।
मौजूदा हालात में एक ही जवाब मुमकिन था जो उसकी नाकामी पर पर्दा डाल सकता था ।
वो कह सकता था कि उसने अरविन्द कौल की भरपूर तहकीकात की थी और वो आखिरकार इसी नतीजे पर पहुंचा था कि वो ऐन वही था जो कि दिखाई देता था । यानी कि शरीफ शहरी । एकाउन्टैन्ट की नौकरी करने वाला सफेदपोश बाबू । तब गुरबख्शलाल का कहर सहजपाल नाम के उस पुलसिये पर पर नाजिल होता जो कि अरविन्द कौल की बाबत खबर लाया था । लेकिन जब उसकी अपनी जान सांसत में थी तो वो किसी दूसरे की दुश्वारी की क्या परवाह करता ! इस पुलसिये के मुकाबले में वो ज्यादा विश्वासनीय आदमी था और उसे यकीन था कि गुरबख्शलाल उसी की बात का एतबार करता । यूं पचास हजार रूपये कमाने का - और फिर मोनिका को हासिल करने का - उसका सपना जरूर चकनाचूर हो जाता लेकिन तब वक्त की जरूरत यह थी कि उन फायदों का गम खाकर भी वो अपने आपको गुरबख्शलाल की निगाहों से गिरने से बचाता ।
तब यूं तनिक राहत महसूस करता वो लौटकर क्लब में दाखिल हुआ ।
वो बार पर पहुंचा । वहां मौजूद मोनिका के पूछने पर उसने उसे बताया कि अभी तक उसे कामयाबी का मुंह देखना नसीब नहीं हुआ था जिसे सुनकर मोनिका बहुत मायूस हुई । फिर मोनिका से ही उसे मालूम हुआ कि गुरबख्शलाल क्लब में नहीं था, वो कुशवाहा के साथ कहीं गया था ।
बॉस के इन्तजार में वो पिछवाड़े के एक कमरे में जा बैठा ।
तभी मोनिका वहां पहुंच गयी ।
“बाहर पार्किंग में” - वो बड़े व्यस्त भाव से बोला - डी ई ए-7142 नम्बर की एक क्रीम कलर की फिएट खड़ी है उसमें एक आदमी बैठा तुम्हारा इन्तजार कर रहा है ।”
“कौन ? कौन आदमी ?”
“कोई तुम्हारा मिलने वाला है ।”
“मेरा मिलने वाला है ?”
“हां । वो लाल साहब का भी वाकिफ है । उनकी गैरहाजिरी में वो तुम्हारे से मिलना चाहता है ।”
“नाम क्या है उसका ?”
“विमल ।”
“मैं किसी विमल को नहीं जानता ।”
“वो तुम्हें जानता है । नाम ले के पूछ रहा था । तुम्हारे दोनों नाम ले के पूछ रहा था ।”
“कमाल है !”
“कभी-कभी नाम से कोई नहीं याद आता । जा के सूरत देखोगे तो जान जाओगे ।”
“लेकिन...”
“मेरे पास बहस का वक्त नहीं । ड्यूटी का टाइम है । मैंने बार पर पहुंचना है ।”
और वो कूल्हे मटकाती, एड़ियां ठकठकाती वहां से रूख्सत हो गयी ।
ढक्कन कुछ क्षण विचारपूर्ण मुद्रा बनाये बैठा रहा और फिर उठकर खड़ा हो गया ।
फिर उत्सुकता उसे क्लब से बाहर तक ले आयी ।
कौन था वो आदमी जो लाल साहब से वाकिफ था और उसको उसके दोनों नामों से जानता था ।
पार्किंग में उसकी फियेट तलाश करने में उसे विशेष दिक्कत न हुई लेकिन फियेट खाली थी । उसका ड्राइविंग सीट की ओर का अगला दरवाजा खुला था और चाबियां इग्नीशन में लटक रही थीं ।
यानी कि कार का मालिक आसपास ही कहीं था ।
उसने कार के भीतर दाखिल होकर इग्नीशन आन किया और हार्न बजाया ।
“दरवाजा बन्द कर ले ।”
ढक्कन ने चिहुंककर पीछे देखा । पिछली सीट पर एक फ्रेंचकट दाढी वाला आदमी बैठा था जबकि अभी उसने पीछे देखा था तो वहां कोई नहीं था ।
“कौन है भई तू ?” - ढक्कन चिड़चिड़े स्वर में बोला ।
जवाब में विमल ने रिवाल्वर निकालकर उसके कान से सटा दी ।
“क-क्या चाहता है ?” - ढक्कन बोला ।
“कार चला ।” - विमल ने आदेश दिया ।
“क-कार चलाऊं ?”
“बहरा है ? कान पर ढक्कन लगा है ?”
“लेकिन...”
विमल ने रिवाल्वर पर यूं दबाव डाला कि उसकी नाल ढक्कन को अपने कान में घुसती महसूस हुई ।
“चलाता हूं ।” - उसके मुंह से निकला ।
उसके कान पर नाल का दबाव तनिक ढीला पड़ा । उसने आगे स्टियरिंग की ओर निगाह फिराई तो नाल कान से हटकर उसकी गरदन के साथ आ लगी ।
उसने कार स्टार्ट की और उसे पार्किंग से बाहर निकाला ।
“किधर ?” - उसने पूछा ।
“कर्जन रोड । फिर वहां से बायें टालस्टाय मार्ग ।”
रह-रहकर रियर व्यू मिरर में उसकी सूरत देखता ढक्कन कार चलाने लगा ।
“तू कौन है, भाई” - कुछ क्षण बाद वो फिर याचनापूर्ण स्वर में बोला - “और क्या चाहता है ?”
“चुपचाप कार चला ।” - विमल बोला - “अभी मेरे बताये बिना ही तुझे सब कुछ मालूम हो जायेगा ।”
“मैं गाड़ी को तेज भगा दूंगा ।”
“धमका रहा है ?”
ढक्कन ने जवाब न दिया ।
“तेज भगा के कहां ले जायेगा ?”
“थाने ।” - ढक्कन बोला ।
“थाने !” - विमल हंसा - “यानी कि तुझे पुलिस बचायेगी तेरा बाप गुरबख्शलाल नहीं ! सोच ले, गुरबख्शलाल की जगह पुलिस की शरण में जायेगा तो वो खफा हो जायेगा ।”
“तेज भागती गाड़ी में तू मुझे शूट करेगा तो खुद भी मरेगा ।”
“क्या हर्ज है !”
वस्तुत: जिन सड़कों पर से वो गुजर रहे थे उन पर बहुत करीब-करीब ट्रैफिक सिग्नल थे इसलिये गाड़ी के तेज भगाये जाने की कोई गुंजायश ही नहीं थी ।
“तो फिर” - विमल बोला - “भगा रहा है तेज ?”
ढक्कन ने जवाब ने दिया ।
“दायें मोड़ ।”
ढक्कन ने एक उजाड़ गली में कार मोड़ी ।
तभी उसकी निगाह दोबरा रियर व्यू मिरर पर पड़ी तो उसके छक्के छूट गये ।
रियर व्यू मिरर में से अपनी ओर झांकती उसे कौल की सूरत दिखाई दी ।
“रोक !”
ढक्कन ने जोर से ब्रेक लगाकर कार को रोका । वो विमल की ओर, जिसने कि दाढी और चश्मा उतार लिया था, घूमा और हकलाता हुआ बोला - “तू...तू...”
विमल मुस्कराया, उसने उसकी ठोढी पर रिवाल्वर की चाल से दस्तक की और बोला - “अभी बच्चा शिकारी है । खुद शिकार बन गया !”
“क-क्या चाहता है ?”
“तू बता, तू क्या चाहता है ?”
“अब मैं क्या बताऊं ? रिवाल्वर मेरे हाथ में होती तो मैं बताता ।”
“ठीक है, मैं ही बताता हूं । गुरबख्शलाल तक पहुंचने का कोई तरीका बता ।”
“तो... तो सच में तूने ही उसके भांजे का खून किया ?”
विमल ने उसकी नाक की हड्डी पर दस्तक दी । वो पीड़ा से बिलबिला गया ।
“ये” - विमल कहरभरे स्वर में बोला - “मेरे सवाल का जवाब नहीं, हरामजादे !”
“उ... उस तक... उस तक कोई नहीं पहुंच सकता ।”
“पागल हुआ है ! ऐसा होता है कहीं ?”
“ऐसा ही है ।”
“तेरी क्या पोजीशन है ? तू पहुंच सकता है या नहीं उसके पास ?”
“मैं पहुंच सकता हूं ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि मैं उसके भरोसे का आदमी हूं ।”
“और ऐसा आदमी एक अकेला तू ही है ?”
“वो बात तो नहीं ।”
“यानी कि कई हैं ?”
“कई तो नहीं लेकिन तीन-चार तो हैं ही ।”
“उनमें से सबसे ज्यादा भरोसे का आदमी कौन है ?”
“कुशवाहा ।”
“खास आदमी है उसका ?”
“हां । दायां हाथ ।”
“रहता कहां है ?”
“न्यू राजेन्द्र नगर की एक कोठी में ।”
“पता बोल ।”
ढक्कन ने बोला ।
“फैमिली है ?”
“नहीं । अकेला रहता है लेकिन साथ में दो सशस्त्र बाडीगार्ड हर वक्त रखता है ।”
“घर किस वक्त होता है ?”
“कोई मुकर्रर वक्त नहीं ।”
“फिर भी ?”
“रात के दो बजे से सवेरे एक बजे तक ।”
“हां । तू तो मुझे नहीं मार सका । फेल हो गया । अब गुरबख्शलाल क्या करेगा मेरी बाबत ?”
“छोड़ेगा तो नहीं तुझे । वो तेरी जान लेने का कोई दूसरा इन्तजाम करेगा ।”
“क्या ?”
ढक्कन ने जवाब न दिया ।
“तेरे जैसा कोई और जमूरा मेरे पीछे लगायेगा ? बाखुद हल्ला बोल देगा मेरे पर ?”
“वो किसी और को तेरे पीछे लगायेगा ।”
“वो भी नाकाम रहा तेरी तरह से तो ?”
“तो किसी और को ।”
“यानी कि लम्बा सिलसिला होगा ये । यानी कि ये सिलसिला खत्म करने के लिये मुझे चोर की मां को खत्म करना पड़ेगा ।”
“तू गुरबख्शलाल के करीब भी नहीं फटक पायेगा ।”
“देखेंगे ।”
ढक्कन खामोश रहा ।
“तू ले के चल मुझे गुरबख्शलाल के पास ।”
ढक्कन ने इनकार में सिर हिलाया ।
“क्यों ?”
“किसी अनजाने आदमी को साथ लेकर उसके पास पहुंचने की किसी को इजाजत नहीं ।”
“कुशवाहा को तो होगी ?”
“उसे है ।”
“उसे क्यों है ?”
“क्योंकि अनजाने आदमी से मुलाकात तो करनी पड़ ही जाती है । ऐसे आदमी से पहले कुशवाहा मिलता है । कुशवाहा को आदमी जंचे तो फिर वो खुद उसे गुरबख्शलाल के पास ले के जाता है ।”
“यानी कि जैसे अड़ंगे गुरबख्शलाल के पास पहुंचने में हैं वैसे कुशवाहा के पास पहुंचने में नहीं हैं । ठीक ?”
ढक्कन के सहमति में सिर हिलाया ।
“गुड !” - विमल बोला ।
“तू... तू कुशवाहा तक पहुंचेगा ?
“कोई एतराज ?”
“खता खायेगा । कुशवाहा गुरबख्शलाल से कहीं ज्यादा खतरनाक आदमी है ।”
“लेकिन उसक तक पहुंचा जा सकता है !”
“पहुंचा जा सकता है । लौटा नहीं जा सकता ।”
“सारे दादे अपने आपको भगवान से दस हाथ ऊंचा समझते हैं लेकिन ऊंचे से ऊंचा ऊंट भी कभी न कभी पहाड़ के नीचे जरूर आता है । जैसे इस वक्त तू आया हुआ है ।”
“तू मेरा क्या करेगा ?”
“मैंने क्या करना है तेरा, सिवाय इस इन्तजाम के कि कुशवाहा को मेरी बाबत कोई वार्निंग न देने पाये ।”
“मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं ।”
“क्यों नहीं इरादा तेरा ? मालिक का वफादार कुत्ता नहीं तू ?”
“मैं कुशवाहा को कुछ नहीं बोलूंगा ।”
“तेरे जैसे लोगों की जुबान एतबार के काबिल नहीं । मुझे गारन्टी चाहिए ।”
“वो... वो कैसे होगी ?”
“कार से बाहर निकल । बताता हूं ।”
वो कार से बाहर निकला ।
विमल ने उसे शूट कर दिया ।
***
लूथरा दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी पहुंया ।
वहां लायब्रेरियन को उसने अपना परिचय दिया और बम्बई से प्रकाशित होने वाले किसी प्रसिद्ध अखबार की आठ से दस महीने पुरानी फाइलें देखने की इच्छा व्यक्त की ।
लायब्रेरियन ने उसे एक चपरासी के हवाले कर दिया जो कि उसे रिकार्ड रूम में ले आया वहां उसने लूथरा को एक और कर्मचारी के हवाले कर दिया ।
उस कर्मचारी ने वांछित फाइलें उसके हवाले की ।
लूथरा ने देखा कि वो इन्डियन एक्सप्रेस के बम्बई से प्रकाशित होने वाले संस्करण की फाइलें थीं ।
वो रिकार्ड रूम के कोने की एक मेज पर जाकर बैठ गया और फाइलों का अध्ययन करने के लम्बे, उबाऊ, काम में जुट गया ।
***
विमल वापिस लोटस क्लब पहुंचा ।
उसके बार पर पहुंचते ही मोनिका मुस्कराती हुई उसके करीब पहुंची ।
“मेरा जरा-सा काम नहीं किया !” - विमल शिकायत-भरे स्वर में बोला ।
“कौन-सा काम नहीं किया मैंने ?” - मोनिका सकपकाकर बोली ।
“ढक्कन को बाहर नहीं भेजा ।”
“लेकिन” - वो तीव्र विरोधपूर्ण स्वर में बोली - “मैंने तो उसे अभी बाहर भेज दिया था । तुम्हारी कार का नम्बर बताकर वो तो मेरे सामने यहां से बाहर निकला था ।”
“मेरे पास तो पहुंचा नहीं । कार में बैठा-बैठा सूख गया मैं तो ।”
“कमाल है । और कहां चला गया ढक्कन का बच्चा ?”
“वो किसी और पार्किंग में चला गया हो ?”
“जब तुम यहां की पार्किंग में थे तो किसी और पार्किंग में उसे तुम कहां से मिल जाते ?”
“ये भी ठीक है ।”
“तुम नहीं मिले तो उसे लौट के आना चाहिए था । वो लौटा भी तो नहीं है ।”
“खैर छोड़ो । बहरहाल तुमने तो अपना काम किया न ।”
“लौट के आये सही । मैं लेती हूं उसकी खबर ।”
“तुम लोगी उसकी खबर ?” - विमल नकली हैरानी जाहिर करता हुआ बोला ।
“हां ।” - वो दृढता से बोली ।
“डरता है तो तुम्हारे से ?”
“हां ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि वो फिदा है मेरे ऊपर ।”
“अब नहीं रहेगा ।”
“क्या ?”
“फिदा ।”
“मतलब ?”
“मेरी जान एक म्यान में दो तलवारें भला कैसे रह सकती हैं ।”
वो खुश हो गयी । उसने तत्काल विमल के लिए जानीवाकर ब्लैक लेबल का एक पैग बनाया ।
“ये” - विमल बोला - “ये...”
“आन दि आउस ।” - मोनिका बड़े राजदाराना लहजे से बोला ।
“ओह ! थैंक्यू । थैंक्यू । बहुत मेहरबान लड़की हो तुम ।”
“सबके लिये नहीं ।”
“कितना खुशकिस्मत हूं मैं ।”
वो हंसी ।
तभी एक व्यक्ति वहां पहुंचा और बार के पहलू की ओर बढा ।
मोनिका की निगाहें उसका अनुसरण करने लगीं ।
उसकी देखादेखी विमल भी उधर देखने लगा ।
वो व्यक्ति बार के पहलू का दरवाजा खोलकर उसके पीछे गायब हो गाया तो मोनिका विमल की ओर घूमी और बड़े राज-भरे स्वर में बोली - “ये लट्टू था ।”
“आई सी ।” - विमल बोला - “वैसे ये अजीब बात नहीं ?”
“क्या ?”
“जो आदमी लाया जाना था, वो पहले आ गया और जो लिवाने गया था, वो बाद में आया ।”
“यहां यही कुछ चलता है ।” - वो लापरवाही से बोली - “ये ऐसी ही जगह है जहां कोई बात अजीब नहीं लगती ।”
“मुझे ऐसी जगह पसन्द है ।”
“कैसी जगह ?”
“जहां कि कोई बात अजीब न लगे । मिसाल के तौर पर ये ही देखो कि हमारी आज ही शाम मुलाकात हुई है और हम यूं बतिया रहे हैं जैसे बरसों से एक-दूसरे को जानते हों ।”
“वो भी तब जबकि आप क्लब के मुअज्जिज मेहमान हैं और मैं यहां की मुलाजिम एक मामूली बारमेड ।”
“दिल से दिल को राह होती है, जानेमन । और फिर मुहब्बत ऊंच-नीच नहीं देखती ।”
“मुहब्बत !” - वो मुदित मन से बोली ।
“जो कि लगता है मुझे तुमसे होती जा रही है ।”
वो खुश हो गयी । उसने आंखों में दिल रखकर विमल की ओर देखा ।
विमल ने विस्की की एक चुस्की भरी और फिर धीरे से बोला - “लाल साहब लौटे ?”
“नहीं ।”
“कुशवाहा ? वो है क्लब में ?”
“तुम तो सबको जानते हो !”
“सबको कहां जानता हूं ! लट्टू को कहां जानता था ?”
“लेकिन जनाने लायक सबको जानते हो !”
“मुझे भी सब जानते हैं ।”
“मैं तो नहीं जानती ।”
“नकली दाढी-मूंछ का कसूर है । नकली नाक का कसूर है ।”
“ओह ! तुम्हारी असली सूरत तो मेरे लिए सस्पैंस बनती जा रही है ।”
“अभी दिखाऊं ? सब मेकअप उतार के काउन्टर पर रख दूं ?”
“नहीं, नहीं । अभी नहीं ।”
“जैसी तुम्हारी मर्जी ।”
“कुशवाहा भी लाल साहब के साथ ही गया है ।”
“कहां ?”
“मालूम नहीं ।”
“लौटेंगे कब वो दोनों ?”
“मालूम नहीं । लेकिन वो जब भी यूं इकट्ठे जाते हैं तो उनका कोई लम्बा प्रोग्राम ही होता है ।”
“अशोक विहार या साउथ एक्सटेंशन तो नहीं गये ?”
मोनिका ने उलझनपूर्ण भाव से उसकी तरफ देखा ।
“भई, शहनशाह या डलहौजी बार ?” - विमल बोला ।
“तुम तो वाकई सब कुछ जानते हो ?”
विमल बड़े राजदाराना अन्दाज से हंसा ।
“कुशवाहा साथ गया है” - मोनिका बोली - “इससे साबित होता है कि लाल साहब वहां नहीं गये ।”
विमल को तब वहां और रुकना बेकार लगने लगा ।
उसने अपना विस्की का गिलास खाली किया और स्टूल से उठता हुआ बोला - “सी यू, हनी ।”
“चल दिये ?” - वो मायूसी से बोली ।
“फिर मिलेंगे ।”
“कब ?”
“बहुत जल्दी । तुम्हारी उम्मीद से जल्दी । गुड नाइट । स्वीड ड्रीम्स ।”
मोनिका का सिर हौले से सहमति में हिला ।
***
चार बाडीगार्डों के साथ गुरबख्शलाल और कुशवाहा पहाड़गंज पहुंचे ।
बुलेटप्रूफ गाड़ी में से सबसे पहले कुशवाहा बाहर निकला । फिर एक गार्ड बाहर निकला और वो दोनों चार्ली के पीला पार्लर में दाखिल हुए । ग्राहकों से भरे हुए हाल को पार करके वो चार्ली के आफिस के बन्द दरवाजे पर पहुंचे । वो एक क्षण दरवाजे पर ठिठके, फिर गार्ड ने दरवाजा ठेला और वो आगे-पीछे भीतर दाखिल हुए ।
चार्ली भीतर मौजूद था । कुशवाहा को देखकर वो सकपकाया ।
“कु-कु-कुशवाहा ?” - फिर उसके मुंह से निकला - “कैसे आया ?”
“लाल साहब आये हैं ।” - कुशवाहा बोला ।
चार्ली के छक्के छूट गये । वो उछल के खड़ा हो गया ।
“हौसला रख ।” - कुशवाहा शान्ति से बोला ।
“वो... वो” - वो हकलाता-सा बोला - “वो यहां क्यों आये हैं ?”
“क्योंकि तू उनके पास आने को तैयार नहीं ।”
“मैंने कब मना किया ।”
“छोड़ ! ये बहस का मुद्दा है । तू ये बोल कि तू लाल साहब से मिलने को तैयार है या नहीं ?”
“मेरी क्या मजाल है जो मैं उनसे मिलने से इनकार कर सकूं ? कहां हैं वो ? मैं अभी उन्हें लिवा के लाता हूं ।”
“तू बैठ । मैं लाता हूं ।”
गार्ड को वहीं छोड़कर कुशवाहा गुरबख्शलाल को बुलाने चला गया । गुरबख्शलाल और वो वहां वापिस लौटे तो गार्ड वहां से बाहर निकल गया ।
“वैलकम !” - चार्ली खीसें निपोरता हुआ बोला - “वैलकम, लाल साहब ।”
चार्ली के अपनी तरफ बढे हुए हाथ को नजरअन्दाज करता हुआ गुरबख्शलाल एक कुर्सी पर ढेर हो गया ।
कुशवाहा बड़े अदब से उसके पहलू में खड़ा रहा ।
“कैसा है, चार्ली ?” - थूक की बारीक फुहार चार्ली के बढ़े हुए हाथ पर छोड़ता हुआ गुरबख्शलाल बोला ।
“फाइन, सर ।” - हाथ वापिस खींचकर चुपचाप कुर्सी के हत्थे से लटके तौलिये के साथ पोंछता हुआ चार्ली बोला ।
“और क्या खबर है ?”
“सब ठीक है, बॉस ।”
“धन्धा कैसा चल रहा है ?”
“ठीक चल रहा है ।”
“यानी कि हमारा धन्धा छोड़ने का कोई रंज नहीं ?”
“लाल साहब, वो क्या है कि...”
“बाहर की भीड़ से लगता है कि तेरे यहां पीजा कुछ ज्यादा ही बढिया बनता है ।”
“ठीक ही है, लाल साहब ।”
“मैं आज कुशवाहा से बोला कि चल के चार्ली का पीजा खा के आते हैं । क्यों, कुशवाहा ?”
कुशवाहा ने तत्काल सहमति में सिर हिलाया ।
“मैं अभी मंगाता हूं ।” - चार्ली बोला ।
“जल्दी क्या है ?” - गुरबख्शलाल बोला - “अभी तो आये हैं । अब आये हैं तो इतमीनान से खा-पी के जायेंगे । क्यों ?”
“जैसे आपका हुक्म हो, लाल साहब ।”
“भई, मेहमान मेहमाननवाजी हुक्म दे के थोडे़ ही करवाता है ?”
“क्या पेश करूं ?”
“भई शाम का वक्त है । कोई बोतल-वोतल निकाल ।”
“अभी, लीजिये ।”
चार्ली ने मेज के एक दराज में से वैट-69 की एक बोतल निकाली और आशापूर्ण नेत्रों से गुरबख्शलाल की ओर देखा ।
“बढिया ।” - गुरबख्शलाल बोला ।
चार्ली ने घण्टी बजाकर एक वेटर को बुलाया ओर उसे ड्रिंक्स का बाकी साजो-सामान लाने का आदेश दिया ।
वेटर के लौटने तक गुरबख्शलाल ने एक सिगार निकाल लिया जिसे कि कुशवाहा ने बड़ी तत्परता से सुलगाया ।
वेटर चला गया तो चार्ली तीन ड्रिंक्स बनाने लगा ।
“कुशवाहा नहीं पीता ।” - गुरबख्शलाल सहज स्वर में बोला ।
चार्ली ने हैरानी से कुशवाहा की तरफ देखा । कुशवाहा ने इनकार में सिर हिलाया । चार्ली ने एक गिलास परे सरका दिया और फिर दो जाम तैयार किये ।
फिर उसने गुरबख्शलाल के साथ चियर्स बोला ।
“बैठ जा, भई ।” - गुरबख्शलाल कुशवाहा से बोला - “क्यों खड़ा है मेरे सिर पर बिजली के खम्बे की तरह ?”
कुशवाहा एक कुर्सी पर बैठ गया ।
“ले ।” - गुरबख्शलाल ने काजू की प्लेट कुशवाहा की तरफ सरकाई ।
कुशवाहा ने बड़े अदब से प्लेट में से एक काजू उठाया ।
गुरबख्शलाल ने विस्की की एक घूंट पिया, होंठ चटकाये, थूक की फुहार दायें-बायें छोड़ी, सिगार का लम्बा कश लगाया और फिर बोला - “तेरे को एक बात बोलूं, चार्ली !”
“बोलिये, लाल साहब ।” - चार्ली बोला ।
“मेरा भी इस धन्धे से मन उकता गया है । मैं खुद भी ये नामुराद धन्धा छोड़ रहा हूं ।”
“वाकई, लाल साहब !”
“अब तेरे से झूठ बोलूंगा ?”
“नहीं, नहीं । वो बात नहीं ।”
“तू बात को यूं समझ कि एक तरह से तूने मुझे सही रास्ता दिखाया ।”
“बॉस, मैं किस काबिल हूं ।”
है तो तू गोली मार देने के काबिल, साले ! - गुरबख्शलाल मन-ही-मन दांत पीसता हुआ बोला - लेकिन इस वक्त मेरी तेरे से गरज है ।
“अब दिक्कत ये है” - प्रत्यक्षत: वो बोला - “जैसे तूझे एकाएक धन्धे से हाथ झाड़ लिये, वैसा मैं नहीं कर सकता । मेरे सौ बखेड़े हैं, हजार पंगे हैं । जैसे तूने मुझे टका-सा जवाब दे दिया कि मैं नहीं करता ड्रग्स का धन्धा, वैसा टका-सा जवाब मैं तो आगे उन लोगों को नहीं दे सकता न, जिनसे कि मैं सप्लाई हासिल करता हूं ।”
“वो तो है ।”
“कहने का मतलब ये है कि मैं तो ड्रग्स के धन्धे से धीरे-धीरे ही हाथ खींच पाऊंगा । दो-तीन महीने तो लग ही जायेंगे । बोल, लग जायेंगे न ?”
“आप बेहतर जानते हैं, लाल साहब ।”
“तू भी जानता है । तू क्या नहीं जानता ?”
चार्ली खामोश रहा । फिर उसने देखा कि गुरबख्शलाल का गिलास खाली था । उसने बोतल उठाई ।
“भई” - गुरबख्शलाल बोला - “अपना गिलास भी तो खाली कर ।”
“लाल साहब, वो क्या है कि अभी तो... दिन ढला है ओर यहां काम भी...”
“ऐसी बात थी तो बोतल खोलने की क्या जरूरत थी । बोल देता कि तेरा अभी टाइम नहीं हुआ पीने का ?”
“वो बात नहीं, लाल साहब ।”
“तो और क्या बात है ! या शायद तू मुझे बड़ा शराबी समझता है ?”
“नहीं लाल, साहब, वो बात...”
“कुशवाहा ! ये तो हमारी तौहीन कर रहा है । ये तो ढक्कन समझ रहा है गुरबख्शलाल को जिसे कि हर वक्त बोतल के मुंह पर ही होना चाहिए ।”
“लाल साहब” - कुशवाहा के जवाब दे पाने से पहले चार्ली बोला - “वो... वो... मैं अभी गिलास खाली कर रहा हूं ।”
“शाबाश !”
चार्ली ने अपना गिलास खाली किया ।
“ये हुई न बात ।” - गुरबख्शलाल प्रशंसात्मक स्वर में बोला - “तूने तो हमारी इज्जत ही धो डाली थी ।”
“मेरी ऐसी मजाल हो सकती है ?”
मादर... कुत्ता !
चार्ली ने नये पैग बनाये ।
“हां तो” - नया पैग थामता हुआ गुरबख्शलाल बोला - “क्या बात हो रही थी ?”
“आप कह रहे थे कि ड्रग्स के धन्धे के हाथ खींचने में आपकी दो-तीन महीने लग जायेंगे ।” - चार्ली बोला ।
“हां । कम-से-कम । वो भी तब जबकि मैं जिद पकड़ लूं तेरी तरह कि मैंने ड्रग्स का धन्धा नहीं करना । समझा ?”
चार्ली ने सहमति में सिर हिलाया ।
“ये जो ड्रग्स के बड़े डीलर होते हैं... थोक वाले... जिनसे मैं माल लेता हूं, ये बड़े पहुंच वाले लोग होते हैं और उनके इंटरनैशनल कनैक्शन होते हैं । गुरबख्शलाल जैसे छोटे डीलर की लाश गिरा देना इनके लिये चींटी मसल देने जैसा काम होता है । ऐसे लोगों को मैं टका-सा जवाब दूंगा तो न गुरबख्शलाल बचेगा और न उसका कोई हिमायती । समझा ?”
चार्ली ने यन्त्रचालित ढंग से सहमति में सिर हिलाया ।
“तू भी समझा, कुशवाहा ?”
“जी हां ।” - कुशवाहा बोला - “समझा ।”
“क्या समझा ?”
“वही जो आपने कहा ।”
“क्या कहा मैंने ?”
“यहीं कि... कि...”
“तेरा ध्यान कहीं और मालूम होता है और ये हाल तब है जबकि तू विस्की नहीं पीता ।” - वो चार्ली की ओर घूमा - “चार्ली, ये अपना कुशवाहा विस्की नहीं पीता । कितनी हैरानी की बात है ! पीता नहीं तो साला जीता कैसे है !”
गुरबख्शलाल हो-हो करके हंसा ।
चार्ली ने हंसा में उसका साथ दिया ।
“और बना ।” - गुरबख्शलाल गिलास खाली करके उसके सामने पटकता हुआ बोला ।
मजबूरन चार्ली का अपना गिलास खाली करना पड़ा ।
उसने नये पैग बनाये ।
“हां तो मैं ये कह रहा था” - गुरबख्शलाल फिर बोला - “कि ये साला ड्रग्स का धन्धा शेर सवारी है - सवार होना आसान है, उतरना बहुत मुश्किल है । नहीं ?”
“आप ठीक कह रहे हैं ।”
“तू मानता है न कि मेरे का इस धन्धे से हाथ खींचने में दो-ढाई महीने लग सकते हैं ?”
“मानता हूं ।”
“दिल से कह रहा है ?”
“जी हां ।”
“सोच-समझ के भी ?”
“जी हां ।”
“मेरी प्राब्लम समझता है ?”
“जी हां ।”
“उससे हमदर्दी रखता है ?”
“जी हां ।”
“मेरा खैरख्वाह है तू ?”
“ये भी कोई पूछने की बात है ?”
“है । बोल, खैरख्वाह है तू मेरा ?”
“हूं ।”
“तेरी मेरी कोई जाती अदावत नहीं ?”
“कतई नहीं ।”
“कोई छोटी-मोटी बात हुई तो इसलिये हुई क्योंकि इस धन्धे में ऐसा होता ही है ?”
“जी हां ।”
“उस वजह से तूने अपने मन में गुरबख्शलाल के लिए कोई वैर भाव तो नहीं पाला हुआ ?”
“सवाल ही नहीं पैदा होता !”
“होता हो तो बोल ?”
“न ।”
“जीता रह । और बना ।”
तब तक चार्ली भी तरंग में आ चुका था । इस बार उसने अनमने भाव से नहीं बल्कि पूरे जोशोखरोश के साथ नये पैग बनाये ।
“हां तो चार्ली, मेरे दोस्त” - गुरबख्शलाल नये पैग पर काबिज होता हुआ बोला - “मेरे भाई । मैं क्या कह रहा था ?”
“कब ?” - चार्ली झूमकर बोला ।
“अभी ।”
“अभी आप मेरे से पूछ रहे थे कि ‘मैं क्या कह रहा था’ ।”
“अरे, उससे पहले ?”
“उससे पहले शेर सवारी की बात हो रही थी ।
“हां । शेर सवारी की बात हो रही थी मैंने शेर पर से उतरना है । किनारा करना है मैंने इस धन्धे से । और इस काम के लिए मुझे वक्त चाहिये । बोल, चाहिये कि नहीं ?”
“बिल्कुल चाहिये, लाल साहब । हर काम के लिये वक्त चाहिये होता है ।”
“कितना ?”
“दो-ढाई महीने ।”
“हां । दो-ढाई महीने । तू मानता है न ?”
“जी हां ।”
“अब दो-ढाई महीने कोई आजकल में तो हो नहीं जाते ! वो दो-ढाई महीनों में ही होते हैं ।”
“बिल्कुल ठीक ।”
“क्या ठीक ? तेरे हिमायती तो साले अभी मेरी आंख में डंडा किये दे रहे हैं ।”
“मेरे हिमायती ?”
“कैसे मिल गये इतने जांबाज, इतनी सलाहियात वाले लोग तुझे ?”
“लाल साहब, वो क्या है कि...”
“मेरी तीन अड्डे लूट लिये । तेरे ठीये को जोड़ूं तो चार । मेरी चालीस लाख को हेरोइन लूट के तबाह कर दी । मेरे दर्जन आदमी लूले-लंगड़े बना दिये । भई वाह ! क्या खूब आंख में डंडा करवाया तूने गुरबख्शलाल के !”
“लाल साहब, वो...”
“चार्ली, तू तो कहता था मेरे भांजे को स्मैक तूने नहीं दी थी ?”
“ये सच है, लाल साहब ।”
“लेकिन उसका यार शफीक खबरी तो कहता है कि मेरे भांजे को - और उसे भी - स्मैक तूने दी ।”
“वो झूठ बोलता है ।”
“जरूर ये ही बात होगी । उस साले हल्के, टुच्चे, गैर आदमी का मुझे क्या एतबार ! तू मेरा जिगरी है । मुझे तेरे पर एतबार है । तू कहता है कि तूने सुन्दर को स्मैक नहीं दी तो नहीं दी । ठीक ?”
“जी हां । लाल साहब, वो क्या है कि...”
“और बना ।”
चार्ली ने अपना गिलास खाली किया और दो नये पैग बनाये ।
गुरबख्शलाल ने नये जाम में से एक घूंट भरा और होंठ चटकाता हुआ बोला - “वाह, भई । मजा आ गया । क्या चीज बनाई है बनाने वाले ने ! कौन-सी थी ?”
“वै... वै मिक्सटी नाइन ।”
“हां । वैट सिक्सटी नाइन । कुशवाहा !”
“यस, सर ।” - कुशवाहा तत्काल बोला ।
“साले, तू निरा अभागा है । न वैट पीता है, न सिक्सटी पीता है, न नाइन पीता है । पीता नहीं तो जीता कैसे है ?”
कुशवाहा बड़े अदब से केवल मुस्कराया ।
“ऐसा तो नहीं कि छुप के पीता हो ?”
“नहीं, लाल साहब ।”
“बाज लोग पीते हैं छुपके । मेरा एक दोस्त था । पंडित । जनेऊधारी । साला पीतल के कड़े वाले ये लम्बे गिलासों में डाल के विस्की पीता था ताकि किसी को दिखाई न दे कि वो क्या पी रहा था । कुशवाहा, तू तो कोई ऐसा पाखण्ड नहीं करता ?”
“नहीं, लाल साहब ।”
“तू, चार्ली ?”
“नहीं, लाल साहब ।” - चार्ली भी बोला - “मैं तो आप देख रहे हैं कि पी ही रहा हूं ।”
“मेरे साथ खुल के पी रहा है लेकिन औरों के साथ पाखण्ड करता हो ?”
“नहीं, लाल साहब । मैं पाखण्ड नहीं करता ।”
“मैं भी पाखण्ड नहीं करता । बढिया आदमी है तू । पाखण्ड जो नहीं करता । बढिया आदमी है अपना चार्ली । पाखण्ड नहीं करता । शाबाश ! जीता रह ! और पीता रह ! शा-बाश !”
“शुक्रिया, लाल साहब ।”
“और बना !”
चार्ली ने इस बार जाम बनाये तो बोतल खाली हो गई ।
“और है न ?” - खाली बोतल पर निगाह डालता गुरबख्शलाल यूं बोला जैसे इन्कार में जवाब मिलने से तबाही आ सकती है ।
“बहौत ।” - चार्ली झूमकर बोला ।
“फिर क्या बात है !” - गुरबख्शलाल ने एक घूंट पिया और बोला - “तो कौन हैं तेरे धोबी ?”
“धोबी !”
“जो धो के रख देते हैं !”
“झक्क सफेद निकाल देते हैं ।” - नशे में चार्लीं ने, जैसा कि गुरबख्शलाल चाहता था, डींग हांकी - “इतना तो मानना पड़ेगा आपको, लाल साहब ।”
“मान लिया, भई मान लिया ।”
“ऊपर से उनका वो टकला हैड धोबी ! कहर है लाल साहब, निरा कहर । मुझे तो साले की शक्ल से डर लगता है ! आदमी क्या है वो, साला राक्षस है । बारह नम्बर का तो जूता पहनता है । आम आदमी को यूं उठाके हवा में उछाल देता है जैसे हम आप रबड़ का गेंद उछालें ।”
“है कौन वो ?”
“मालूम नहीं”
“मेरा मतलब है ये धोबी कौन हैं ?”
“मालूम नहीं ।”
“क्या बकता है ?”
“लाल साहब, बाई जीसस, मैं उनमें से किसी को नहीं जानता, वो सारे के सारे उसी के आदमी हैं ।”
“किसके ?”
“नाम लेना मुनासिब होगा ?”
“यहां क्या हर्ज है ?”
“दीवारों के भी कान होते हैं !”
“वो किताबी बातें हैं ।”
“फिर भी कान इधर कीजिए ।”
मन-ही-मन उसे दर्जन-भर चुनिंदा गलियां देते हुए गुरबख्शलाल ने कान नशे में थरथराते चार्ली की तरफ बढाया ।
“सोहल !” - चार्ली उसके कान में फुसफुसाया ।
“कौन ?” - गुरबख्शलाल अचकचाकर बोला ।
“सोहल ।”
“वो कौन है ?”
“आप सोहल को नहीं जानते ?”
“नहीं ।”
“ये कहीं” - कुशवाहा धीरे से बोला - “सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल की बात न कर रहा हो ।”
गुरबख्शलाल चौंका, उसने घूरकर चार्ली को देखा और फिर सख्ती से बोला - “तू उस सोहल की बात तो कहीं कर रहा जिसने बम्बई में बखिया को मारा था ?”
“मैं उसी की बात कर रहा हूं ।”
“धोबियों के सारे उत्पात के लिये वो जिम्मेदार है ?”
“हां ।”
“वो दिल्ली में है ?”
“जाहिर है ।”
“तेरा हिमायती कैसे बन गया वो ?”
“मेरा वो पुराना वाकिफ है ।” - चार्ली सगर्व बोला ।
“वो... वो इतना बड़ा गैंगस्टर तेरा वाकिफ है ! वो भी पुराना !”
“जी हां ।”
“कमाल है !”
“वो ही है जिसने यहां सामने गली में आपके भांजे को शूट किया था ।”
“लेकिन वो तो कोई सिख था जिसकी फोटो भी अखबार में छपी थी ।”
“सोहल भी सिख ही है ।”
“तू ये कहना चाहता है कि वो फिर से सिख बन गया है ?”
“नहीं ।”
“लेकिन मेरे भांजे को किसी सिख ने मारा था ?”
“हां ।”
“वो सिख सोहल था ?”
“हां ।”
“लेकिन वो फिर से सिख नहीं बन गया हुआ ?”
“हां ।”
“कुशवाहा ! ये क्या कह रहा है । मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा ।”
“ये शायद ये कह रहा है ” - कुशवाहा धीरे से बोला - “कि आपके भांजे के कत्ल के वक्त वो सिख के बहुरूप में था ।”
“क्यों चार्ली ! तू ये कह रहा है ?”
“जी हां ।”
“लाल साहब” - कुशवाहा फिर बोला - “सहजपाल के जरिये हमें जो जानकारी हासिल हुई थी, वो ये कहती है कि आप के भांजे का कातिल कोई अरविन्द कौल नाम का सफेदपोश बाबू है । ये सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल कई नामों से मशहूर है । वो अपने कई फर्जी फ्रंट बनाकर रखने का आदी बताया जाता है । सर, उसका ताजातरीन नाम अरविन्द कौल हो सकता है और उसका ताजा फर्जी फ्रन्ट सफेदपोशी और बाबूगिरी हो सकता है ।”
गुरबख्शलाल को जैसे सांप सूंघ गया । वो विस्की पीना भूल गया । वो सिगार का कश लगाना भूल गया ।
“वो” - फिर वो मन्त्रमुग्ध स्वर में बोला - “दफ्तर का बाबू सोहल है !”
कोई कुछ नहीं बोला ।
“चार्ली” - गुरबख्शलाल कर्कश स्वर में बोला - “हाल में वो तेरे से कब मिला था ? कहां मिला था ?”
“यहीं मिला था ।” - चार्ली बोला ।
“वो खुद चल के यहां आया था ?”
“हां ।”
“कब ? पहली बार कब आया वो ?”
“पिछले शनिवार ।”
“उसे तेरी खबर कैसे लगी ?”
“मालूम नहीं ।”
“क्या बकता है ?”
“मैं सच कह रहा हूं, लाल साहब । वो तो प्रेत की तरह मेरे सिर पर आ खड़ा हुआ था ।”
“तूने देखते ही पहचान लिया उसे ?”
“नहीं । लाल साहब, वो क्या है कि जिस सोहल को मैं जानता था, उससे तो न उसकी सूरत मिलती थी और न आवाज मिलती थी ।”
“फिर भी तूने उसे पहचाना ?”
“जी हां ।”
“कैसे ?”
“उसकी बातों से । उसने कुछ ऐसी बातें कही थीं जो सोहल के अलावा और कोई जानता नहीं हो सकता था ।”
“यानी कि तेरे को सिर्फ अन्दाजा है कि वो शख्स सोहल है ?”
“पहले अन्दाजा था लेकिन बाद में उसने खुद अपनी जुबानी इस बात की तसदीक की थी कि वो सोहल था ।”
गुरबख्शलाल के चेहरे पर आश्वासन के भाव न आये ।
“जिस सोहल को तू जानता था” - फिर वो बोला - “जब उसकी उससे सूरत नहीं मिलती थी, आवाज नहीं मिलती थी तो वो कैसे हो गया सोहल ! कोई भी आदमी आके तेरे को चन्द ऐसी बातें कह सुनाये जो तेरी निगाह में सोहल के अलावा कोई नहीं जानता हो सकता हो तो तू उसे सोहल मान लेगा ?”
“नहीं ।”
“तो ?”
“लाल साहब, चूहा अपने आपको शेर कहने लगे तो वो शेर हो जायेगा ? खुद को शेर मनवाने के लिये शेर ही होना जरूरी होता है । अब मैं इतना तो अन्धा नहीं कि चूहे और शेर में फर्क न पहचानूं ?”
“आया क्यों थो वो तेरे पास ? चाहता क्या था ?”
“सुन्दरलाल का पता जानना चाहता था ।”
“क्यों ?”
“पता नहीं ।”
“पूछा होता ।”
“पूछा था । उसने पता पूछने की कोई वजह नहीं बताई थी ।”
“तूने बताया पता ?”
“नहीं । मालूम होता तो बताता न ?”
“इतना तो बताया होगा कि सुन्दर तेरे यहां आता-जाता था ।”
“वो तो उसको मेरे बिना बताये ही मालूम था ।”
“बोतल निकाल ।”
चार्ली ने वैट-69 की नयी बोतल निकालकर मेज पर रखी । इस बार गुरबख्शलाल ने बोतल खुद काबू कर ली, उसने अपने और चार्ली के गिलासों में - अपने में कम, चार्ली के में ज्यादा - विस्की डाली और फिर तब तक खामोश रहा जब तक कि चार्ली ने आधा गिलास खाली न कर दिया ।
“नाम क्या बताया था उसने अपना ?” - फिर गुरबख्शलाल बोला ।
“किसने ?”
“उसी ने । तेरे पुराने यार सोहल ने ।”
“सोहल ।”
“सोहल के तौर पर तो तूने उसे पहचाना था । असल में वो क्या कहता था कि वो कौन था ?”
“कुछ भी नहीं । एक बार उसके ये कबूल कर लेने के बाद कि वो सोहल था, और कुछ कहने की जरूरत ही नहीं रही थी ।”
“तेरे को कुछ कहने की जरूरत नहीं थी लेकिन वैसे तो उसने अपना कोई नाम रखा ही हुआ होगा । मसलन अरविन्द कौल ।”
“उसने अपना कोई नया नाम मेरे सामने नहीं लिया था ।”
“न तूने पूछा ?”
चार्ली ने इनकार में सिर हिलाया ।
“अब तो तुझे मालूम है कि वो मेरे भांजे की बाबत इसलिये पूछताछ कर रहा था क्योंकि वो उसका कत्ल करना चाहता था लेकिन तब तूने क्या सोचा था जब उसने पहली बार तेरे से मेरे भांजे का पता पूछा था ?”
“सोचा तो कुछ बुरा ही था, लाल साहब, लेकिन ये नहीं सोचा था कि वो उसका कत्ल कर देगा । सच पूछिये तो मैंनै तो उस पर आपका रोब गालिब करने की भी कोशिश की थी ।”
“वो कैसे ?”
“मैंने उसे बताया था जिस आदमी को वो तलाश कर रहा था, वो गुरबख्शलाल का भांजा था और गुरबख्शलाल इस शहर का बादशाह था ।”
“रोब गालिब हो गया उस पर ?”
चार्ली ने जवाब न दिया । उसने विस्की का एक घूंट पिया ।
“यानी कि नहीं हुआ ?”
“अब मैं क्या कहूं ?”
“कह ! कह और बेखौफ कह ।”
“लाल साहब, आपके नाम का कोई रोब खाना तो दूर, उसने तो आपको और आपके नाम को और आपके जद्दोजलाल को यूं नजरअन्दाज किया जैसे कान से मक्खी उड़ाई हो ।”
कुशवाहा को साफ लगा कि उसका बॉस फट पड़ने वाला था
लेकिन किसी प्रकार गुरबख्शलाल ने अपने आप पर जब्त किया ।
“ड्रग का धन्धा छोड़ने के लिये भी उसी ने तुझे कहा ?” - गुरबख्शलाल बोला ।
“हां ।”
“उसने कहा और तूने मान लिया !”
“यूं ही नहीं मान लिया, लाल साहब ।”
“तो और क्या हुआ ?”
चार्ली ने बताया कि उसकी नयी मारूति-1000 के साथ क्या बीती थी और उसकी कोठी के साथ क्या बीतने की उसे धमकी मिली थी ।
“ऊपर से” - चार्ली बोला - “वो कह रहा था कि वो मेरे इस पीजा पार्लर की ईंट-से-ईंट बजा देगा । वो तो ये भी कह रहा था कि...”
“चार्ली सहमकर चुप हो गया ।
“हां, हां । बोल । बेखौफ बोल ।”
“वो कह रहा था” - चार्ली कठिन स्वर में बाला - “कि वो इस शहर के ऐसे तमाम ठीये तबाह कर देगा जिन्हें किसी गुरबख्शलाल की प्रोटेक्शन हासिल थी ।”
“किसी गुरबख्शलाल की ! मैं ‘कोई’ गुरबख्शलाल हो गया ?”
“वो ऐसा ही बोला था, लाल साहब ।”
“तुझे मेरे पास आना चाहिए था ।”
“आना तो चाहिए था लेकिन... अब मैं क्या कहूं ?”
“कह, कह । बेखौफ कह । कह कि तेरे पर उसका ऐसा रोब गालिब हुआ था कि तेरा गुरबख्शलाल पर से विश्वास हिल गया था । तुझे लगने लगा था कि गुरबख्शलाल तुझे कोई प्रोटेक्शन नहीं दे सकता था ।”
“लाल साहब, वो बहुत पावरफुल आदमी है ।”
“और लाल साहब सड़ांध मारता, मरा हुआ चूहा है ?”
“लाल साहब, वो पीर-पैगम्बरों वाली सलाहियात वाला आदमी है । वो काल पर फतह पाया हुआ आदमी है । वो चलता-फिरता प्रेत है जिसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता । उससे तो मौत भी दूर भागती है । लाल साहब, जिस आदमी के सामने राज बहादुर बखिया जैसे सुपर अण्डरवर्ल्ड बॉस की बादशाहत न ठहर सकी...”
“उसके सामने से बेचारा गुरबख्शलाल क्या ठहरेगा ! ठीक ?”
“है तो ठीक ही ।”
“अब तू क्या राय देता है मुझे ?”
“मैं आपको क्या राय दे सकता हूं, लाल साहब, लेकिन इतना फिर भी कहता हूं कि आपने एकदम ठीक फैसला किया है ।”
“कौन-सा ? कौन-सा फैसला ठीक किया है मैंने ?”
“ड्रग्स के धन्धे से किनारा कर लेने का । वो” - चार्ली आगे को झुककर बड़े राजदाराना अन्दाज में बोला - “ड्रग्स के धन्धे के खास खिलाफ है ।”
“अच्छा ।”
“जी हां ।”
“यानी कि वो जो कुछ कर रहा है, इस धन्धे को मेरे से हथिया लेने की नीयत से नहीं कर रहा है ?”
“हरगिज भी नहीं ।”
“वो क्यों खिलाफ है ड्रग्स के धन्धे के ? कोई नेता-वेता बनने की फिराफ में तो नहीं वो ?”
“ऐसा तो नहीं होगा ।”
“तो और क्या वजह होगी ?”
“पता नहीं !”
“गिलास खाली कर ।”
चार्ली ने ऐसा किया तो गुरबख्शलाल ने एक और दो के अनुपात से अपना और चार्ली का गिलास विस्की से भरा । फिर चार्ली ने एक घूंट भर लिया तो वो बोला - “देख, जैसा कि मैंने कहा है, मुझे इस धंधे से हाथ खींचने में दो-ढाई महीने का वक्त लगेगा । मैंने फौरन इस धंधे से किनारा किया तो मुझे तेरा वो यार सोहल भी नहीं बचा सकेगा जिसे कि तू पीर-पैगम्बरों जैसी सलाहियात वाला आदमी बताता है ।”
“वो है ही ऐसा ।” - चार्ली झूमता हुआ बोला ।
“कबूल । कबूल । तू जरा वो सुन जो मैं कहना चाहता हूं ।”
“सुन रहा हूं, लाल साहब ।”
“तू या तो मेरी उससे एक मीटिंग करा ताकि मैं खुद उसे अपनी समस्या समझा सकूं या फिर तू खुद उससे मिल के उसे मेरी समस्या समझा और मुझे उससे इस वादे के साथ दो-ढाई महीने की मोहलत ले के दे कि मैं इतने अरसे में यकीनी तौर पर, मुकम्मल तौर पर, ड्रग्स के धन्धे से हाथ खींच लूंगा । बोल, करता है ?”
“करता हूं ।” - चार्ली जोश से बोला - “मैं दोनों काम करता हूं ।”
“एक ही कर लेगा तो वो भी काफी होगा ।”
“मैं दोनों करता हूं । सोहल मेरा लिहाज करता है । वो मेरा कहना नहीं टालेगा ।”
“बढिया ।”
“और फिर टाला जाने पर कोई मैं टल जाऊंगा ! अपने यार का काम तो मैं करा के रहूंगा ।”
“यार !”
“आपको कह रहा है ।” - कुशवाहा धीरे से बोला ।
“ठहर जा कंजर के बीज !” - गुरबख्शलाल दांत पीसता हुआ बोला ।
“क्या कहा, लाल साहब ?” - चार्ली गिलास पर से सिर उठाकर बोला ।
“कुछ नहीं ।” - गुरबख्शालाल ने खंखारकर गला साफ किया - “मैं यही कह रहा था कि यार की कद्र करने वाले की मैं कद्र करता हूं ।”
“लाल साहब !”
“बोल, बेटा ।”
“यू आर ए मैन आफ्टर माई ओन हार्ट ।”
गुरवख्शलाल ने कुशवाहा की तरफ देखा ।
“आपको” - कुशवाहा बोला - “अपने दिल के करीब बता रहा है ।”
“दिल तो मैं इस बहन... का शमशीर पर टांग के भूनकर खाऊंगा । सीख कबाब की तरह ।”
“क्या कहा ?” - चार्ली बोला ।
“कुछ नहीं ।” - गुरबख्शलाल एकाएक उठ खड़ा हुआ - “मेहमाननवाजी का शुक्रिया, चार्ली । अब हम चलते हैं ।”
“अभी से कहां चल दिये, जनाब ! अभी तो बोतल में बहुत शराब बाकी है ।”
“वो तू पी ले । मेरे नाम की भी । तो कल तू मुझे खबर करेगा कि तेरे यार सोहल ने मुझे मोहलत दी या मुलाकात का वक्त दिया ?”
“पक्की बात, लाल साहब जी ।”
“खबर करेगा या खबर” - गुरबख्शलाल ने दांत पीसे - “लेने आना पड़ेगा ?”
“मैं खुद खबर करूंगा ।”
“शाबाश ! तू बैठा रह । हम चले जायेंगे ।”
चार्ली ने फिर भी उठने की कोशिश की लेकिन नशे के आधिक्य में उसने उस मामूली काम को अंजाम देने में अपने आपको असमर्थ पाया ।
गुरबख्शलाल ने भी तकरीबन उतनी ही विस्की पी थी लेकिन उसके चेहरे पर शिकन तक नहीं थी, कदमों में हल्की-सी लड़खड़ाहट तक नहीं थी ।
गुरबख्शलाल और कुशवाहा अभी चार्ली के आफिस से बाहर निकले भी नहीं थे कि चार्ली का सिर मेज से जा टिका था और उसकी आंखें मुंद गयी थी ।
***
विमल माडल टाउन पहुंचा ।
ढक्कन के चक्कर में उसे वहां पहुंचने से बहुत देर हो गयी थी लेकिन ये देखकर उसने बड़ी राहत महसूस की कि पिपलोनिया अभी अपनी कोठी पर ही था । विमल के देखते-देखते वो अपनी कार सें सवार हुआ और वहां से रवाना हुआ ।
विमल ने अपनी कार उसके पीछे लगा दी ।
थोड़ी ही देर में उसे महसूस हो गया कि पिछली रात की तरह उस रोज भी उसका लक्ष्य कनाट प्लेस ही था । एक बार ऐसा महसूस हो जाने के बाद विमल ने अपनी कार उसके ऐन पीछे ही न लगाये रखी । वो दो बार अपनी कार को उससे आगे निकालकर ले गया और फिर दोनों बार जान-बूझकर उससे पिछड़कर उसके पीछे रह गया । अलबत्ता उसकी सूरत ठीक से वो तब भी न देख सका जबकि वो उसकी कार के पहलू से गुजरा था या जब वो आगे निकल गया था । उसकी कार के शीशे काली फिल्म वाले थे जो कि ठण्ड की वजह से उसने चढाये हुए थे और सामने की तरफ से हैडलाइट्स की चौंधियाहट की वजह से वो उसकी सूरत देख पाने में असमर्थ रहा था ।
कार पंचकुइया रोड पहुंची तो विमल ने उसका पीछा छोड़ दिया । वो अपनी कार को तेजी से उसकी बगल से निकाल ले गया और उससे पहले कनाट प्लेस में दाखिल हो गया । वहां प्लाजा के मोड़ से वो इनर सर्कल में पहुंचा और गोल रास्ते पर कार चलाता हुआ अन्डरग्राउंड पार्किग तक पहुंचा । टोकन लेकर उसने कार को पहली बेसमैंट में उतार दिया । वहां बाईं ओर की पहली ही कतार में पार्किंग के लिये जगह उपलब्ध थी । उसने अपनी कार को वहां खड़ा किया और फिर उसकी तमाम बत्तियां बुझाकर शीशे चढा लिये ।
वो प्रतीक्षा करने लगा ।
यूं पिपलोनिया से पहले वहां पहुंचकर उसने उसे खो देने का रिस्क लिया था - वो वहां आने की जगह कहीं और चला जाता तो कम-से-कम उस रात वो इतने बड़े शहर में उसे दोबारा नहीं तलाश कर सकता था - लेकिन यूं उसे ये फायदा भी था कि पिपलोनिया को गारन्टी होती कि कोई उसके पीछे नहीं लगा हुआ था ।
तभी ढलान पर पिपलोनिया की फियेट प्रकट हुई ।
विमल ने चैन की सांस ली । वो सावधान होकर बैठ गया ।
पिपलोनिया की फियेट उसी की लाइन में सिरे पर जाकर रूकी और उसकी बत्तियां आफ हुई । फिर कार का दरवाजा खुलने और बन्द होने की आवाज आयी ।
यानी कि आगे उसने जहां भी जाना था, पैदल जाना था । विमल हौले से अपनी कार से बाहर निकल आया । उसने बड़ी सावधानी से पिपलोनिया की कार की तरफ निगाह दौड़ाई उसने देखा कि उस घड़ी पिपलोनिया की उसकी तरफ पीठ थी लेकिन अब बाहर का रुख करने के लिये उसने किसी भी क्षण उसकी तरफ घूमना था और फिर विमल को उसकी सूरत निश्चित रूप से दिखाई दे जानी थी क्योंकि वहां पर्याप्त रोशनी थी ।
लेकिन वो घूमने की जगह वैसे ही पीठ फेरे-फेरे पार्किग में और आगे की तरफ बढ चला ।
विमल को सख्त हैरानी हुई ।
बाहर का रास्ता छोड़कर वो पार्किग की विशाल बेसमैंट में गहरा कहां धंसा जा रहा था ?
विमल अपनी कार की ओट छोड़कर दबे पांव आगे बढा ।
बहुत सावधानी से अन्य कारों की ओट लेता हुआ वो उसके पीछे लगा ।
पिपलोनिया पार्किंग के बिल्कुल आखिरी सिरे पर कारों की आखिरी कतार तक पहुंच गया और फिर एक काली एम्बेसेडर कार के पास ठिठका ।
विमल, जो तब उससे केवल दस फुट दूर था, एक खम्बे की ओट में हो गया ।
पिपलोनिया ने जेब में हाथ डालकर चाबियों का एक गुच्छा निकाला और एम्बेसेडर का दरवाजा खोलने लगा ।
विमल सकपकाया ।
पिपलोनिया एम्बेसेडर में सवार हो गया ।
एम्बेसेडर यूं खड़ी थी कि उसका मुंह आगे दीवार की ओर था इसलिए कार की ड्राइविंग सीट पर जा सवार हुए पिपलोनिया की विमल को सिर्फ पीठ दिखाई दे रही थी ।
विमल कार के स्टार्ट होने की और उसके पार्किंग में से निकलने की प्रतीक्षा करने लगा लेकिन कार स्टार्ट न हुई ।
उसे कार में पिपलोनिया का साया कुछ हरकत-सी करता तो लग रहा था लेकिन वो अन्धेरे में अन्धेरी कार में बैठा क्या कर रहा था, ये विमल की समझ में नहीं आ रहा था ।
पांच मिनट बाद एम्बेसेडर की डोम लाइट जली ।
तब विमल को उसके सिर पर हैट और गर्दन को ढंके ऊंचा कालर दिखाई दिया जो कि ओवरकोट का ही हो सकता था ।
फिर डोम लाइट बुझ गयी और कार का इंजन स्टार्ट हुआ और हैडलाइट्स जलीं । कार बैक होती पार्किंग से बाहर निकली और राहदारी पर आकर सीधी हुई ।
तब विमल को पिपलोनिया की सूरत की एक झलक मिली ।
वो आंखो पर काला चश्मा लगाये था और - और अब उसके ऊपरी होंठ पर मोटी-मोटी मूंछे थीं ।
तब सारा माजरा विमल की समझ में आ गया ।
पिपलोनिया निश्चय ही चालाक आदमी था । वो अपनी जानी-पहचानी फियेट पर वहां पहुंचता था और फिर वहां छुपाकर खड़ी की गयी अपनी दूसरी - काली एम्बेसेडर - कार पर सवार हो जाता था । दूसरी कार में वो अपना ओवरकोट, हैट, चश्मा, नकली मूंछें - और शायद रिवॉल्वर भी - छुपाकर रखता था और वो उन सब चीजों को धारण करके वहां से निकलता था । इसी वजह से पिछली रात मुबारक अली को, जो कि नीली फियेट और उसके क्लीनशेव्ड ड्राइवर की ताक में था, काली एम्बेसेडर पर सवार हैट, चश्मा और मूंछ वाले पिपलोनिया के वहां से प्रस्थान की खबर नहीं लगी थी ।
उस एम्बेसेडर कार का नम्बर या रजिस्ट्रेशन या दोनों चीजें फर्जी हो सकती थीं । यानी कि संकट की घड़ी में पिपलोनिया उसे कहीं भी त्याग के चलता बनता तो कम-से-कम उस कार के माध्यम से कोई उस तक न पहुंच पाता ।
गुड !
अब ये बात भी स्पष्ट थी इतनी कि सावधानी बरतने की अक्ल रखने वाले शख्स को रिवाल्वर हासिल करते वक्त मजबूरन अपना असली नाम बताना पड़ा था क्योंकि फर्जी नाम बताने पर हुसैन साहब उसे आगे तनवीर अहमद के पास नहीं भेजने वाले थे ।
तब तक विमल को इस बात की शत-प्रतिशत गारन्टी नहीं थी कि पिपलोनिया ही दूसरा खबरदार शहरी था क्योंकि ये भी हो सकता था कि रिवाल्वर उसने खरीदी खुद हो लेकिन उसे इस्तेमाल करने वाला कोई और हो । लेकिन अब जैसे उसने अपनी कार तब्दील की थी और अपना हुलिया तब्दील किया था, उसको मद्देनजर रखते हुए यकीनी तौर पर ये कहा जा सकता था कि दूसरा खबरदार शहरी पिपलोनिया ही था ।
पिपलोनिया जो कि एक उच्च शिक्षा प्राप्त, संवेदनशील व्यक्ति था, कालेज का प्रोफेसर था, जिसका जवान बेटा ड्रग्स का शिकार होके मरा था और जिसकी नाबालिग बेटी बलात्कारियों की शिकार होकर मरी थी ।
ऐसा आदमी कुछ भी कर गुजरने पर आमादा हो सकता था ।
विमल दबे पांव अपनी कार की ओर लपका ।
***
“लाल साहब” - वापिसी में कुशवाहा ने पूछा - “आप वाकई चाहते हैं कि चार्ली आपकी सोहल से मुलाकात फिक्स करवाये या आपके लिये दो-ढाई महीने की मोहलत मांगे ?”
“बिल्कुल नहीं ।” - गुरबख्शलाल आवेगपूर्ण स्वर में बोला - “मैं उस दगाबाज, जलील, हरामजादे, कुत्ते के पिल्ले का अहसान लूंगा ! और अपना ड्रग्स का धन्धा बन्द कर दूंगा जो कि मैंने सालों में इतनी जानमारी और इतने खून-खराबे के बाद जमाया है !”
“ओह !”
“और फिर इस मामले में हमें उस बहन... की किसी मदद की जरूरत क्या है ! अब तो हम उससे ज्यादा जानते हैं । वो नहीं जानता कि आज की तारीख में सोहल कौन है और कहां पाया जाता है लेकिन हम जानते हैं ।”
“यानी कि आपको उसकी बातों पर यकीन आ चुका है ! आपको यकीन है कि अरविन्द कौल ही सोहल है ?”
“तुझे क्या लगता है ?”
कुशवाहा ने उत्तर न दिया ।
“यानी कि तेरे मन में कोई शंका है ?”
“है तो सही, लाल साहब ! इतना बड़ा गैंगस्टार, इतना हौसलामन्द डकैत, इतना खतरनाक हत्यारा कोई नौकरशाह बाबू कैसे हो सकता है ?”
“अबे, क्या दोतरफा बातें कर रहा है ?” - गुरबख्शलाल झल्लाया - “अभी पीछे पीजा पार्लर में तो तू कह रहा था कि सोहल फर्जी फ्रन्ट बनाकर काम करने का आदी था और सफेदपोशी और बाबूगिरी उसका ताजातरीन फर्जी फ्रन्ट था ?”
कुशवाहा खामोश रहा ।
“अब कुछ बोल, भई ?”
“मैं क्या बोलूं ?”
“ठीक है । मैं बोलता हूं । मैं ये बोलता हूं कि इस बाबू का मरना जरूरी है । ये सोहल है तो भी, नहीं है तो भी । ये मेरे भांजे का कातिल है तो भी, नहीं है तो भी ! मुझे इस ख्याल से दहशत हो रही है कि सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल दिल्ली में है और यहां खास मेरे ही धन्धे के पीछे पड़ा हुआ है । समझा कुछ ?”
“जी हां ।”
“पहले मैं तसदीक चाहता था कि ये अरविन्द कौल वाकई मेरे भांजे का कातिल था । तभी मैंने ढक्कन को कहा था कि वो पहले पक्का करे कि कहीं वो वाकई कोई सफेदपोश बाबू तो नहीं था लेकिन अब ऐसी किसी तसदीक की, ऐसा कुछ पक्का करने की जरूरत नहीं ! बड़ी हद यें ही तो होगा कि बाद में हमें मालूम होगा कि एक बेगुनाह मर गया ? कोई बात नहीं ! मरने दे एक बेगुनाह को । जब अपनी जान पर बनी हो तो एक बेगुनाह की जान की फिक्र में हलकान होते नहीं रहा जा सकता ! क्यों ?”
कुशवाहा ने सहमति में सिर हिलाया ।
“और फिर पहले क्या कभी हमने किसी बेगुनाह के खून से हाथ नहीं रंगे जो अब कोई अनोखी या अनहोनी बात हो जायेगी ?”
“गेहूं के साथ घुन पिस ही जाता है ।”
“और क्या ! इतनी सयानी बातें करता है फिर भी वहम करता है ! और मुझे भी वहम में डालता है ! अरे, न भी हुआ ये आदमी सोहल तो सोहल के लिये हम फिर चार्ली के पीछे पड़ जायेंगे और भजने लगेंगे कि सोहल से हमारी मीटिंग करा, हमें मोहलत ले के दे वगैरह-वगैरह ! इसीलिये तो उस कुत्ते के पिल्ले को जिन्दा छोड़ दिया ! उसे उसकी दगाबाजी की फौरन सजा नहीं दी । उसके पीजा पार्लर में ही उसकी लाश नहीं गिरा दी ।”
कुशवाहा ने बड़ी तारीफी निगाहों से गुरबख्शलाल की तरफ देखा और फिर बोला - “आपकी सोच-समझ का जवाब नहीं, लाल साहब । आप महान हैं ।”
गुरबख्शलाल मुस्कराया । कोई और वही बात कहता तो वो उसे चमचागिरी का दर्जा देता और कहने वाले के गले पड़ जाता लेकिन कुशवाहा से ऐसी बातें सुनकर वो खुश होता था क्योंकि वो जानता था कि कुशवाहा उसका वफादार था और जो कहता था, दिल से कहता था ।
तभी कार लोटस क्लब पहुंची ।
पहले दो गार्ड और कुशवाहा बाहर निकले और फिर उनसे इशारा मिलने के बाद गुरबख्शलाल ने बाहर कदम रखा ।
वापिसी में गार्ड चार से दो इसलिये हो गये थे क्योंकि गुरबख्शलाल के आदेश पर दो गार्डों को पीछे पहाड़गंज में चार्ली की निगरानी के लिये छोड़ दिया गया था ।
वो भीतर पहुंचे तो मालूम हुआ कि ढक्कन वहां नहीं था लेकिन उसको बुलाने गया लट्टू क्लब में मौजूद था ।
लट्टू की पेशी हुई । उससे ढक्कन की बाबत पुछा गया ।
“मालूम हुआ है” - लट्टू बोला - “वो थोड़ी देर पहले यहीं था ।”
“मालूम हुआ है ?” - गुरबख्शलाल की भवें उठीं ।
“जी हां । कहीं इधर-उधर चला गया होगा । वो अभी...”
“भौंकना बन्द कर ।” - गुरबख्शलाल दहाड़कर बोला ।
लट्टू सहमकर चुप हो गया ।
“वो तेरे से पहले यहां था ?”
“जी हां ।”
“जिस आदमी को तू साथ लिवाने गया था, वो तेरे से पहले यहां कैसे था ?”
लट्टू से जवाब देते न बना ।
“ये कुछ छुपा रहा है !” - गुरबख्शलाल कुशवाहा से बोला ।
कुशवाहा ने सहमति में सिर हिलाया । वो लट्टू के करीब पहुंचा । लट्टू ने कुशवाहा के चेहरे पर कहर के ऐसे भाव देखे कि वो थर-थर कांपने लगा ।
“क्या छुपा रहा है ?” - कुशवाहा बर्फ से सर्द स्वर में बोला ।
“बताता हूं ।” - लट्टू भयभीत भाव से बोला । फिर उसने मशीन की तरह ढक्कन द्वारा मांगी दो घन्टे की मोहलत का वाकया कह सुनाया और अन्त में बोला - “उसने वादा निभाया था । वो दो घन्टे बाद यहां था ।”
“अब कहां गया ?” - कुशवाहा बोला ।
“यहीं कहीं होगा । आ जायेगा ।”
“ढूंढ के ला ।”
“क्या फायदा !” - गुरबख्शलाल बोला - “इस बार ये उसे चार घन्टे की मोहलत दे देगा । आखिर इसका यार ठहरा वो ।”
“लाल साहब” - लट्टू गिड़गिड़ाता हुआ बोला - “वो क्या है कि...”
“दफा हो जा ।”
लट्टू तत्काल वहां से भागा ।
“आपका मतलब है” - कुशवाहा बोला - “कि ढक्कन अगर आस-पास कहीं होगा तो अभी खुद ही लौट आयेगा !”
“तू ढक्कन को गोली मार ।” - गुरबख्शलाल उतावले स्वर में बोला - “अब ये अकेले ढक्कन की किस्म का काम नहीं रहा ।”
“शायद वो काम कर चुका हो !” - कुशवाहा दबे स्वर में बोला ।
“अपनी अम्मा का सिर कर चुका होगा वो । कर चुका होता तो उसने अपनी इस कामयाबी की खबर फौरन हमें की होती । आखिर उसने पचास हजार रुपये कमाने हैं । वो आंधी-तूफान की तरह यहां लौटा होता ।”
“लौटा तो वो है ।”
“कब लौटा है ! लट्टू से दो घन्टे की मोहलत हासिल कर चुकने के बाद । यानी कि वो मोहलत हासिल होने से पहले तक तो हमारे काम को अंजाम नहीं दे सका था । अब इस दो घन्टे में खड़े पैर उसने क्या करिश्मा कर दिखाया होगा !”
कुशवाहा खामोश रहा ।
“कुशवाहा, कबूल कर इस बार ये ढक्कन का बच्चा हमारी उम्मीदों पर खरा न उतर सका । जरा याद कर कि लट्टू को क्यों भेजा था हमने उसके पीछे ? क्योंकि ढक्कन हमसे छुपता फिर रहा था । ऐसे छुपते फिर रहे आदमी से क्या उम्मीद रखता है तू ? रखता है कोई उम्मीद ?”
“नहीं ।” - कुशवाहा इनकार में सिर हिलाता हुआ बोला - “अगर वो बाबू सच में सोहल है तो फिर तो एक तरह से हमने अपने ढक्कन को बिल्ली की पूंछ बताकर शेर की पूंछ थमा दी है ।”
“और क्या ? अब तो मुझे ये सुनकर भी कोई हैरानी नहीं होगी कि ढक्कन लगाने गये ढक्कन के खुद के ही ढक्कन लग गया । कुशवाहा, तू ढक्कन को गोली मार । हमें मालूम है वो बाबू कहां रहता है । तू अपने दर्जन-भर चुनिन्दा आदमी उस बाबू की टोह में उन्हें ये समझा के भेज कि वो जहां मिले, जिस हाल में मिले, जब मिले, वो उसकी लाश गिराकर हो लौटें । न मिले तो इन्तजार करें । इन्तजार से न मिले तो तलाश करें । समझ गया ?”
“जी हां ।”
“कुशवाहा, मुझे आज ही यह खबर मिलनी चाहिये कि वो बाबू इस दुनिया में नहीं रहा । भले ही वो सोहल न हो ।”
“ठीक है । मैं अभी सब इन्तजाम करता हूं ।”
***
आगे-पीछे कार चलाते पिपलोनिया और विमल खेल गांव पहुंचे ।
वहां अपना कोई शिकार ढूंढने के लिए पिपलोनिया ने ऐन वही हरकतें करनी शुरू की जो कि विमल उसकी जगह होता तो करता ।
पहले वो एक रेस्टोरेंट से दाखिल हुआ । दस मिनट बाद जब वो कहां से बाहर निकला तो उसके हाथ में ढेर सारे सौ-सौ के नोट थे जिन्हें वो अपने पहले से ही नोटों से भरे बटुवे में ठूंसने की कोशिश कर रहा था ।
कई निगाहें उस पर पड़ी ।
वो तमाम निगाहें ऐेसे नौजवान लड़कों की थीं जिनमें से हर कोई खूब घिसी हुई जीन, बदरंग हो चुकी टीशर्ट और बिल्ले और फुन्दने लगी जीन जैसी ही घिसी हुई जैकेट पहने था और सिगरेट के कश लगा रहा था ।
पिपलोनिया खेल गांव के पीछे के जंगल की दिशा में बढ चला ।
कोई उसके पीछे न लगा ।
नौजवान छोकरों की वो पोशाक भी तो बहुत भ्रामक थी - विमल ने मन-ही-मन सोचा - कुलीन घरों के रौशन चिराग भी तो फटेहाल रहने को फैशन समझने लगे थे । कितना मुश्किल हो चला था महज पोशाक और सूरत के दम पर गुण्डे-बदमाशों और शरीफों में फर्क पहचानना !
तभी पिपलोनिया वापिस लौट आया ।
किसी अपराधी को अपराध के लिये उकसाने की उसकी कोशिश नाकाम रही थी लेकिन फिर भी उसका तत्काल वहां से टलने का इरादा नहीं मालूम होता था । रेस्टोरेन्ट के गिर्द मंडराते हिप्पीनुमा छोकरों से उसे कोई खास उम्मीदें मालूम होती थीं ।
लेकिन विमल की ऐसी उम्मीदों का निशाना वहां रेस्टोरेन्ट के करीब मौजूद एक और शख्स था ।
वो एक कोई चालीस साल का सूरत से ही बदमाश लगने वाला दढियल आदमी था जो कि एक खम्भे के साथ पीठ लगाये खड़ा अखबार पढ रहा था । उसकी बाबत विमल को दो बातें सन्दिग्ध लगी थीं । एक तो अखबार में उसकी कोई खास तवज्जो नहीं मालूम होती थी, रह-रहकर उसकी निगाह अखबार से भटककर अपने सामने और दायें-बायें दौड़ने लगती थी । दूसरे उस घड़ी रात के दस बजे थे और विमल की निगाह में वो कोई अखबार पढने का वक्त नहीं था ।
वो रेस्टोरेन्ट बहुत चहल-पहल वाला मालूम होता था । जैसी वहां आवाजाही थी, उससे लगता था कि भीतर बार या डांस जैसा भी कोई इन्तजाम था । वहां जोड़ों में घूमती कुछ नौजवान लड़कियों की भी आवाजाही थी जो कि वास्तव में संभ्रान्त दिखने वाली कालगर्ल्स होतीं तो कोई बड़ी बात न होती ।
रेस्टोरेन्ट का दरवाजा किसी के आगमन या प्रस्थान पर खुलता था तो भीतर से संगीत की स्वर लहरियां बाहर फूटने लगती थीं ।
तभी जीनधारी हिप्पी युवकों के झुंड में से एक लाल भभूका रंग और पकौड़े-सी नाक वाला क्लीनशेव्ड लेकिन कन्धों तक आने वाले सिर के बालों वाला युवक झुंड से अलग हुआ और रेस्टोरेन्ट की ओर बढा । वो कुछ क्षण रेस्टोरेन्ट की एक काले शीशे वाली खिड़की के सामने खड़ा रहा और फिर रेस्टोरेन्ट का दरवाजा खोलकर भीतर दाखिल हो गया ।
पिपलोनिया रेस्टोरेन्ट से परे एक पेड़ की ओट में खड़ा था और सिगरेट के कश लगा रहा था ।
अखबार वाले दढियल की निगाह रेस्टोरेन्ट के दरवाजे तक लम्बे बालों वाले युवक के पीछे गयी थी और फिर उसके दरवाजे के पीछे ओझल हो जाने के बाद अखबार पर वापिस लौट आयी थी ।
दो आदमी एक-दूसरे के गले में बांहें डाले लड़खड़ाते हुए रेस्टोरेन्ट से बाहर निकले । उनकी हालात इस बात का सबूत थी कि भीतर बार भी था । दोनों के बाहर निकलते ही वर्दीधारी ड्राइवर द्वारा चालित एक कार वहां पहुंची जिसमें वो दोनों सवार हुए और फिर कार वहां से चली गयी ।
एक टैक्सी रेस्टोरेन्ट के दरवाजे पर पहुंची । दो और आदमी रेस्टोरेन्ट से बाहर निकले और उस पर सवार होकर वहां विदा हो गये ।
फिर लम्बे बालों वाला युवक तनिक हड़बड़ी दिखाता हुआ बाहर निकला । बाहर निकलकर उसने अपने हिप्पी साथियों के करीब जाने की कोशिश न की । वो उनसे परे एक ओर को चल दिया ।
अखबार वाले दढियल ने अखबार का एक पन्ना पलटा ।
जीन-जैकेटधारी कटे बालों वाली एक युवती अपना हैंडबैग झुलाती फुदकती-सी रेस्टोरेन्ट से बाहर निकली और बिना दायें-बायें देखे एक ओर चल दी । युवती सुन्दर थी और निगाहबीनी के काबिल थी । विमल की निगाह ने थोड़ी दूर तक वहां तक उसका पीछा किया जहां से कि वो मोड़ घूम गयी और फिर वापिस रेस्टोरेन्ट पर लौट आयी ।
तब वो तनिक सकपकाया ।
अखबार वाला दढियल अपने स्थान पर नहीं था ।
जरूर वो उस युवती के पीछे लग गया था ।
उसने उधर निगाह दौड़ाई जिधर लम्बे बालों वाला युवक गया था ।
उसे वो युवक भी कहीं दिखाई न दिया ।
उसने उस पेड़ की तरफ देखा जहां सिगरेट के कश लगाता पिपलोनिया खड़ा था ।
पिपलोनिया वहां नहीं था ।
विमल हड़बड़ाया ।
उसने पार्किंग में उधर निगाह डाली जिधर पिपलोनिया ने अपनी कार खड़ी की थी ।
उसकी काली एम्बेसेडर कार वहां मौजूद थी ।
विमल अपनी कार से बाहर निकला और लम्बे डग भरता उधर बढा जिधर हैण्डबैग झुलाती युवती गयी थी ।
लम्बे बालों वाला युवक जरूर उस युवती की - या वैसी किसी अकेली युवती की - ही फिराक में रेस्टोरेन्ट में गया था और उसे वहां से रुख्सत होती पाकर वो उससे पहले वहां से बाहर निकल आया था । अखबार वाला दढियल यकीनन उसका कोई जोड़ीदार था जिसे कि वो कोई इशारा कर गया था और अब वो दोनों उस युवती के पीछे लग गये थे ।
विमल को फिजां भारी लगने लगी । उसे आदतन सूंघ लगने लगी कि वहां कोई वारदात बस होने ही वाली थी ।
उसने ब्लाक का मोड़ काटा और आगे बढा ।
आगे सड़क पर हलकी-फुल्की आवाजाही थी । सड़क के रेस्टोरेन्ट वाले ब्लाक की ओर के हिस्से में रोशनी थी लेकिन आगे अन्धेरा था । आगे जो मामूली रोशनी दिखाई दे रही थी, वो रेस्टोरेन्ट वाले ब्लाक की रोशनियों का ही नतीजा था ।
फिर नीमअन्धेरे में हैण्डबैग झुलाती सड़क पर तनहा चली जा रही वो युवती विमल को दिखाई दी ।
उससे काफी पीछे सड़क छोड़कर पेड़ों की ओट में चलता पिपलोनिया उसे दिखाई दिया । उसकी निगाह दायें-बायें भटकतो जरूर लम्बे वालों वाले युवक को और उसके अखबार वाले दढियल साथ को तलाश कर रही थीं ।
युवती सड़क पार करके एक नीमअन्धेरी गली में दाखिल हो गयी ।
पिपलोनिया ने भी तेजी से सड़क पार की और लम्बे डग भारता हुआ युवती से आगे निकल गया ।
विमल समझ गया कि वो क्या चाहता था ! वो युवती के सम्भावित रास्ते पर आगे कहीं छुपकर पीछे झांकता तो आसानी से जान सकता था कि कोई युवती के पीछे लगा हुआ था या नहीं ।
विमल छोटे-मोटे पौधों और बिजली के खम्बों की ओट लेता काफी फासले से उधर आगे बढ रहा था लेकिन फिर भी उसे पिपलोनिया द्वारा देख लिए जाने का अंदेशा था । यूं पिपलोनिया को ये वहम हो सकता था कि वही युवती के पीछे लगा हुआ था ।
काफी सावधानी की जरूरत थी ।
तभी एकाएक युवती के पीछे वो लम्बे बालों वाला युवक जैसे आसमान से टपका । उसके हाथ में एक खुला चाकू था जिसे उसने युवती के हैण्डबैग के स्ट्रेप में फंसाया और बड़ी दक्षता से एक ही झटके में स्ट्रेप को काट डाला । स्ट्रेप कटते ही उसका पहले से तैयार दूसरा हाथ बैग पर पड़ा और उसने बड़ी सफाई से युवती के कन्धे पर से बैग अलग कर लिया ।
विमल ने आगे पिपलोनिया की ओर देखा । उसका दायां हाथ अब उसके ओवरकोट की जेब में नहीं था । उसके हाथ में एक बार जुगनू-सा चमका । जरूर उसने रिवाल्वर निकाल ली थी जिसकी नाल पर से तभी रोशनी की कोई मद्धिम-सी किरण प्रतिबिम्बित हुई थी ।
युवती को जब अहसास हुआ कि बैग उसके कन्धे पर नहीं था तो उसके मुंह से एक घुटी चीख निकली, वो थमककर खड़ी हुई और वापस घूमी ।
तभी जैसे एकाएक युवती के पीछे वो लम्बे बालों वाला युवक प्रकट हुआ था, वैसे ही एकाएक उसके पीछे अखबार वाला दढियल प्रकट हुआ ।
विमल को उसके हाथ में रिवाल्वर साफ दिखाई दी ।
“खबरदार !” - वो कर्कश स्वर में बोला - “हिले तो गोली ।”
युवक जैसे जड़ हो गया ।
“यू आर अन्डर अरैस्ट ।” - दढियल कड़ककर बोला ।
आवाज पिपलोनिया तक भी पहुंची, उसका रिवाल्वर वाला हाथ वापिस उसके ओवरकोट में सरक गया ।
“चाकू फेंक ।” - दढियल, जो कि दिल्ली पुलिस के कमिश्नर साहब के नये अभियान के अन्तर्गत अपनी ड्यूटी भुगताता पुलिस वाला था, बोला ।
एक झनाक की आवाज से चाकू फर्श पर गिरा ।
“बैग भी फेंक ।”
भयभीत युवक ने बैग अपनी उंगलियों में से निकल जाने दिया ।
“उठाइये ।”
युवती ने डरते-झिझकते स्ट्रेप कटा बैग उठा लिया ।
“और साले तू ! दोनों हाथ ऊपर करके अपने सिर पर रख ।”
युवक ने आदेश का पालन किया ।
तब दढियल ने खाली हाथ से पुलिस वाली सीटी निकालकर बजानी शुरू कर दी ।
विमल चुपचाप वापिस लौट पड़ा ।
लम्बे भग भरता वो वापिस रेस्टोरेन्ट के करीब पहुंचा और अपनी कार में सावर हो गया ।
वो महसूस कर रहा था कि पिपलोनिया बाल-बाल बचा था । झपट्टामार युवक को वो शूट करने को तैयार ही था जबकि वो दढियल पुलसिया वहां पहुंच गया था । पिपलोनिया गोली चला चुका होता तो या तो वो गिरफ्तार हो जाता और या फिर पुलसिये को गोली का शिकार होकर जान से हाथ धो बैठा होता ।
जो कि वास्तव में उसकी नियति मालूम होती थी ।
पुलिस के हाथों या किसी अपराधी के हाथों उसकी वैसी मौत निश्चित थी ।
पिपलोनिया वापिस लौटा ।
रेस्टोरेन्ट का रुख भी किये बिना वो कार में सवार हो गया । कार फौरन वहां से रवाना हुई ।
वो जगह पुलिस की निगरानी में थी, वहां उसकी मौजूदगी बेमानी जो थी । दढियल का सीटी बजाना साफ जाहिर कर रहा था कि उस इलाके में वैसी ही किसी ताक में आसपास और पुलसिये भी फैले हुए थे ।
विमल ने अपनी कार फिर पिपलोनिया के पीछे लगा दी
पिपलोनिया विक्रम होटल पहुंचा ।
वहां उसने कार को होटल के कम्पाउन्ड में या उसके करीब ले जाने की जगह उसे होटल से परे उस सड़क पर खड़ा किया जहां फुटापाथ पर झुग्गी-झोपड़ी वाले बसे हुए थे । कार से बाहर निकलकर वो वापिस होटल की तरफ बढा ।
विमल ने उसके होटल के बाहरले गेट पर पहुंचने से पहले ही अपनी कार गेट के सामने ले जा खड़ी की और प्रतीक्षा करने लगा ।
पिपलोनिया वहां पहुंचा, वो बाहरले गेट से भीतर दाखिल हुआ और आगे लॉबी में पहुंचा । वहां बाईं तरफ बार था जिसका प्रवेश द्वार विमल को बाहर से ही दिखाई दे रहा था । पिपलोनिया बार में दाखिल हो गया ।
बार में उसने कोई आधा घन्टा लगाया ।
जब वो वहां से बाहर निकला तो उसके पांव यूं लड़खड़ा रहे थे जैसे वो नशे में धुत्त हो । एक हाथ अपने कोट की दाईं जेब में डाले यूं ही लड़खड़ाती चाल चलता वो बाहर अपनी कार की ओर बढा ।
विमल कार में ही बैठा तमाम नजारा करता रहा ।
कोई उसके पीछे न लगा ।
न होटल से निकलकर । न झुग्गी-झोपड़ी में से कहीं से निकलकर ।
होटल की सड़क के सिरे पर पहुंचकर उसने मोड़ काटा तो विमल ने कार आगे बढा दी और उसे ले जाकर मोड़ पर वहां खड़ा किया जहां से पिपलोनिया कुछ ही क्षण पहले गायब हुआ था ।
आगे वो सड़क थी जिसके सिरे पर पिपलोनिया की कार खड़ी थी ।
विमल ने देखा वो पूर्ववत् लड़खड़ाता हुआ सड़क पर बढा जा रहा था ।
कोई उसके पीछे प्रकट न हुआ ।
उस दौरान केवल एक राहगीर सड़क से गुजरा जिसने पिपलोनिया की तरफ निगाह भी न उठाई ।
पिपलोनिया की कार उससे कोई बीस गज दूर रह गयी तो एकाएक उसकी चाल में से शराबी लड़खड़ाहट गायब हो गई । फिर उसके कदम बड़े सुसंयत ढंग से सड़क पर पड़ने लगे ।
जैसा कि विमल सोच रहा था, वो नशे में कतई नहीं था, वो केवल नशे में होने का अभिनय कर रहा था ।
वहां भी उसका मिशन कामयाब नहीं हुआ था ।
तीसरा पड़ाव उसने साउथ एक्सटेंशन की मार्केट में डाला ।
पौने घण्टे के वक्फे में वहां उसने नोट भी झलकाये और शराबी की तरह चलकर भी दिखाया ।
नतीजा सिफर ।
लगता था शहर के सारे जरायमपेशा लोग वक्ती तौर पर सुधर गये थे ।
आखिर कोई साढे ग्यारह बजे उसने वापिस घर का रुख किया ।
***
ऐन उस वक्त मुबारक अली अपने दायें-बायें अली, वली के साथ अशोक बिहार में स्थित गुरबख्शलाल के शहनशाह के नाम से जाने जाने वाले रेस्टोरेंट में बैठा हुआ कैब्रे देख रहा था ।
स्टेज पर सलोमी नाम की एक कैब्रे डांसर नाच रही थी जिसके बारे मे घोषणा की गयी थी कि उसने उस डांस नम्बर के अन्त में ऐसा कुछ होगा जो लोगों को चौंका देगा ।
अब मुबारक अली और उसके जोड़ीदार ‘चौंकने’ का इन्तजार कर रहे थे ।
कुछ क्षण पहले वेटर लोग हर टेबल पर एक लम्बी मोमबत्ती रख गये थे जो कि मोम की बनी होने के स्थान पर कागज की बनी हुई थी और उसके ऊपर जो लौ झिलमिला रहीं थी वो लौ के आकार का एक बल्ब था जो जाहिर था कि मोमबत्ती के भीतर कहीं लगे पैंसिल सैल से जल रहा था ।
लगभग अनावृत अवस्था में सलोमी बैंड की ताल पर मेजों के बीच घूमती नाचने लगी ।
फिर हाल की बत्तियां मद्धम पड़ने लगीं । कुछ क्षण बाद वो इतनी मद्धम पड़ गयीं कि हर मेज पर एक सैल के सहारे झिलमिलाती नकली मोमबत्ती की रोशनी भी काफी से ज्यादा लगने लगी ।
हाल में तीखे प्रकाश का साधन केवल वो स्पाट लाइट थी जो सलोमी पर एक गोल दायरे की सूरत में पड़ रही थी और हाल में हर जगह उसका पीछा कर रही थी ।
नृत्य और संगीत दोनों तेज होते जा रहे थे ।
फिर एक वेटर ने सलोमी को रिमोट कन्ट्रोल जैसा एक आला पकड़ाया । सलोमी के होंठों पर एक मधुर मुस्कराहट आयी और वो बारी-बारी रिमोट कन्ट्रोल का रुख हर टेबल पर करने लगी ।
यूं ‘चौंकाने वाले आइटम’ की शुरुआत हुई ।
मुबारक अली ने देखा कि उसकी टेबल पर रखी मोमबत्ती एकाएक एक गुलदस्ते में तब्दील हो गयी थी । उसने हड़बडा़कर उसे छुआ तो पाया कि गूलदस्ते के फूल और पत्तियां विभिन्न रंगों में रंगे महीन कागज की बनी हुई थीं ।
“अबे, दायें-बायें वालो ।” - मुबारक अली मंत्रमुग्ध स्वर में बोला - “ये तो कमाल हो गया । ये अल्लामारी मोमबत्ती गुलदस्ता कैसे बन गयी ?”
“रिमोट कन्ट्रोल से ।” - वली मोहम्मद बोला ।
“फिर भी...”
“कागज मोड़ने का कमाल है । रिमोट से मोमबत्ती के भीतर मौजूद मकैनिज्म चालू हो गयी और मोमबत्ती का मुंह बिखरकर गुलदस्ते की तरह खुल गया ।”
“तू तो बहुत सयाना है, बे । कैसे जानता है ?”
“नुमायश में देखा था । जापान के पैविलियन में । उनके यहां यूं कागज मोड़कर कुछ का कुछ बना देने की कला को ओरीगेमी (Origami) कहते हैं ।”
“तो ये मोमबत्तियां कोई जापानी बनाता होगा ?”
“जापानी नहीं बनाता होगा तो जापान से ये हुनर सीख के आया कोई देसी आदमी बनाता होगा ।”
मुबारक अली कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “अबे, दायें-बायें वालो ! इस देसी आदमी को तलाश करना है ।”
“क्यों ?”
“मुझे एक बात सूझी है । मुझे लगता है कि उस लाल-पीले साहब के यहां के धन्धे का बट्टा बैठाने में वो ही हमारे काम आयेगा ।”
“कैसे ?”
“मालूम पड़ जायेगा । पहले वो आदमी तो पकड़ में आये ।”
“आ जायेगा ।”
“फिर क्या वान्दा है !”
तभी सलोमी का वो डांस समाप्त हुआ । बैंड बजना बन्द हुआ और हाल की मद्धम पड़ चुकी बत्तियां तेज हो गयी ।
मुबारक अली ने मोमबत्ती से बना गुलदस्ता उठाकर अपने अधिकार में कर लिया और वेटर को बिल लाने को कहा ।
***
चार्ली के विश्वासपात्र स्टीवार्ड माइकल ने मेज के पीछे जाकर चार्ली को कन्धे से पकड़कर झिझोड़ा तो चार्ली ने आंखे खोलीं और सिर उठाकर उसकी तरफ देखा ।
“सर !” - माइकल धीरे से बोला - “बारह बजने का है ।”
चार्ली ने हड़बड़ाकर वाल क्लाक की ओर निगाह उठायी तो पाया कि बारह बजने में केवल दस मिनट बाकी थे ।
वो याद करने की कोशिश करने लगा कि गुरबख्शलाल और कुशवाहा कब वहां से रुख्सत हुए थे ।
शायद साढे आठ या पौने नौ बजे ।
यानी कि वो तीन घंटे यूं ही मेज पर सिर डाले सोया रहा था ।
“माइकल !” - चार्ली बोला - “मुझे एक गिलास पानी पिला और कुछ खाने को ला ।”
“क्या ?” - माइकल बोला ।
“कुछ भी ।”
“हमबर्गर !”
“चलेगा ।”
स्टीवर्ड चला गया ।
चार्ली दोनों हाथों से अपना माथा थामे सोचने लगा ।
क्यों इतनी विस्की पी उसने ?
क्योंकिे गुरबख्शलाल का बच्चा जिद कर रहा था ।
क्यों जिद कर रहा था ? विस्की का उसकी आमद से क्या लेना-देना था ?
तब धीरे-धीरे चार्ली को ये सूझने लगा कि उसे बाकायदा उल्लू बनाया गया था, विस्की को उसकी जुबान खुलवाने का जरिया बनाया गया था ।
ये सूझते ही वो घबराकर याद करने की कोशिश करने लगा कि उसने कुछ उलटा-सीधा तो नहीं बक दिया था । जल्दी ही उसे याद आ गया कि उसने गुरबख्शलाल और कुशवाहा के सामने सोहल की बाबत खूब मुंह फाड़ा था ।
जीसस ! जीसस, मेरी एण्ड जोजेफ !
ये क्या कर डाला उसने ! गुरबख्शलाल के सामने सोहल का नाम भी लेने की क्या जरूरत थी ! अब अगर सोहल को उसकी उस करतूत का पता लग गया तो गुरबख्शलाल अगर सोहल पर चढ दौड़ा तो क्या सोहल फौरन से नहीं समझ जायेगा कि गुरबख्शलाल को सोहल की बाबत कोई कुछ बता सकता था तो वो चार्ली था ।
बैठे-बिठाये ये क्या सांप-छछूंदर जैसी हालत कर ली थी उसने अपनी !
अब वो क्या करे ?
वो तो सोहल को कोई वार्निंग भी नहीं दे सकता था । वो तो जानता ही नहीं था कि सोहल कहां पाया जाता था ।
तभी उसे धोबियों का ख्याल आया ।
उस टकले हैड धोबी ने खुद उसे बताया था कि उसके कम-से-कम दो आदमी हर घड़ी उसकी और उसके पीजा पार्लर की हिफाजत के लिए उसके इर्द-गिर्द रहा करेंगे और जरूरत पड़ने पर वो जितने चाहे आदमी बुला सकेंगे ।
वो तत्काल उठाकर खड़ा हुआ ।
तभी एक वेटर पानी और हमबर्गर के साथ वहां पहुंचा । चार्ली उसे परे धकेलकर आफिस से बाहर निकला और पार्लर के शीशे के दरवाजे पर पर पहुंचा । उसने सावधानी से बाहर झांका ।
जो वो देखना चाहता था, उससे पहले उसे कुछ और दिखाई दिया ।
उसे सड़क से पार एक खम्बे के साथ लगा खड़ा फौजी दिखाई दिया ।
फौजी गुरबख्शलाल का आदमी था जिसे कि वो खूब अच्छी तरह से जानता था । उसके साथ एक आदमी और था जो उसके लिये अपरिचित था लेकिन कयोंकि वो फौजी के साथ था इसलिए यकीनन गुरबख्शलाल की ही आदमी था ।
यानी कि गुरबख्शलाल वहां उसकी निगरानी का सामान करके गया था ।
उसकी व्याकुल निगाह फौजी पर से हटी और इधर-उधर भटकने लगी ।
दायीं ओर पीजा पार्लर के करीब ही एक आटोरिक्शा खड़ा था जिसकी पैसेन्जर सीट पर दो आदमी बैठे सिगरेट पी रहे थे । दूर से चार्ली को उनकी शक्लें दिखाई नहीं दे रही थीं लेकिन उनमें से एक ने सिगरेट का लम्बा कश खींचा तो उसकी लौ में उसका चेहरा चमका और फिर चार्ली ने उसे उन चार धोबियों में से एक की सूरत में पहचाना जो कि पिछली रात वसन्त कुंज में उसकी कोठी पर पहुंचे थे ।
वो वापिस लौटा । उसने स्टीवार्ट माइकल को तलब किया ।
“माइकल !” - वो व्यग्र भाव से बोला - “एक काम करना है । चुपचाप । फौरन ।”
“बोलिये ।” - माइकल बोला ।
“बाहर पार्लर की दायीं तरफ एक - एक ही - आटोरिक्शा खड़ा है । उसके भीतर दो आदमी बैठे हैं । तू उन्हें...”
“यहां बुला के लाऊं ?”
“स्टुपिड ।”
“सारी, सर ।”
“सब्र से सुन जो मैं कह रहा हूं ।”
“यस सर !”
“उनको जाके चुपचाप बोल कि उनमें से कोई फोन पर मेरे से बात करे ।”
“फोन पर ?”
“हां । पास ही पी सी ओ है । उन्हें उसकी बाबत बता देना और यहां का फोन नम्बर बता देना । तुम उल्टे पांव लौटने की जगह थोड़ा आगे तक चले जाना और दसेक मिनट के बाद लौटना ताकि किसी की तुम्हारे पर निगाह हो तो उसे ये लगे कि तुमने आटोरिक्शा वालों को कहीं चलने के लिए कहा था लेकिन उन्होंने जाने से इन्कार कर दिया था ।”
“मैं समझ गया सर !”
“जा ।”
माइकल चला गया ।
पीछे चार्ली फोन काल की इन्तजार में उसके सिरहाने बैठे गया ।
यूं बात चुपचाप उस टकले हैट धोबी तक पहुंच जाने की तो गारन्टी थी । आगे वो खुद सोहल से सम्पर्क कर सकता था और उसे चार्ली की मूर्खता की वजह से बजूद में आये खतरनाक हालात से आगाह कर सकता था ।
***
पिपलोनिया माडल टाउन अपनी कोठी में पहुंच गया ।
विमल को इस बात से बड़ी झुंझलाहट हो नहीं थी कि वापिसी में कनाट प्लेस की अंडरग्राउन्ड पार्किंग में अपने मेकअप और एम्बेसेडर कार को तिलांजलि दे चुकने के बाद से उसके अपनी कोठी पर पहुंच जाने तक एक बार भी ऐसा इत्तफाक नहीं हुआ था कि वो उसकी सूरत पर निगाह डाल पाता । अब क्यंकि वो अपने बहुरुप को तिलांजिली दे चुका था तो अब उसने वापिस अपने ही कोठी पर लौटना था इसलिए आधे रास्ते में विमल ने उसका पीछा छोड़ दिया था और उससे आगे निकलकर उससे पहले कोठी के करीब पहुंच गया था । तब उसे अपनी ओर अग्रसर होते पिपलोनिया की सूरत देख पाने की पूरी उम्मीद थी ।
लेकिन वो उम्मीद भी पूरी नहीं हुई थी ।
पिपलोनिया ने कोठी के करीब पहुंचती अपनी फियेट की हैडलाइट्स को हाईबीम पर लगा दिया था जिसकी वजह से अपनी कार में बैठे विमल की आंखे ऐसी चौंधियाई थी कि वो उसकी सूरत नहीं देख सका था ।
अब वो अपनी कोठी के भीतर मौजूद था ।
विमल कुछ क्षण सोचता रहा, फिर वो दृढ निश्चय के साथ अपनी कार से बाहर निकला । वो पिपलोनिया की कोठी के सामने पहुंचा और फाटक खोलकर भीतर दाखिल हो गया ।
बरामदे में पहुंचकर उसने वहां लगी कालबैल बजाई ।
कुछ क्षण बाद दरवाजा खुला ।
विमल की ऊनी ड्रेसिंग गाउन और ऊनी टोपी पहने उस व्यक्ति पर निगाह पड़ी जिसने दरवाजा खोला था ।
“नमस्ते, शिवनरायण जी ।” - फिर वो मधुर स्वर में बोला ।
“तुम !” - वो हकबकाया-सा बोला ।
“जी हां । मैं । कौल । अरविन्द कौल । पहचाना नहीं क्या, जनाब ?”
“यहां ?”
“जी हां ।” - विमल बड़े इतमीनान से बोला ।
“इतनी रात गये ?”
“इतनी कहां ! अभी तो सिर्फ आधी रात हुई है ।”
“पता कैसे जाना ?”
“एक ऐसे शख्स ने बताया जो आपका भी दोस्त है और मेरा भी ।”
“शुक्ला ?”
“शुक्ला साहब सिर्फ आपके दोस्त हैं, मेरे तो वो बॉस हैं । अन्नदाता हैं ।”
“तो फिर कौन ?”
“सोचिये ?”
“माई डियर ब्वाय, डू यू वान्ट टु कन्डक्ट ए क्विज प्रोग्राम इन दि मिडल आफ नाइट ।”
“नो सर ।”
“तो क्या चाहते हो ?”
“अगर मैंने सब कुछ बरामदे में ही खड़े-खड़े बताना है तो फिलहाल तो एक कम्बल चाहता हूं ।”
“कम्बल !”
“ओढने के लिये । बहुत ठण्डी हवा चल रही है जनाब, हड्डियों में घुसी जा रही है ।”
“ओह ! प्लीज कम इन ।”
“थैंक्यू ।”
उसने विमल को भीतर एक छोटे से ड्राइंगरूम में ले जा के बिठाया । ड्राइंगरूम का हाल कोठी के बाहरी माहौल से किसी कदर बेहतर नहीं था हर तरफ उपेक्षा और अस्तव्यस्तता का बोलबाला था ।
बिन घरनी घर भूतों का डेरा - विमल ने मन-ही-मन सोचा ।
“बैठो ।” - वो बोला ।
“थैंकयू ।” - विमल बोला और एक सोफे पर ढेर हो गया ।
वो विमल के सामने बैठ गया और उलझनपूर्ण नेत्रों से उसकी तरफ देखने लगा ।
“मुझे अफसोस है ।” - फिर वो बोला - “कि मैं घर आये मेहमान की इतनी रात गये कोई खिदमत नहीं कर सकता ।”
“मैं मेहमान बन के नहीं आया, जनाब ।” - विमल बड़ी संजीदगी से बोला - “और खिदमत करवाने नहीं खिदमत करने आया हूं ।”
“अच्छा ।”
“जी हां ।”
“बड़ी रहस्यभरी बातें कर रहे हो, मिस्टर ।”
“घर में और कौन है ?”
“कोई नहीं ।”
“यानी कि बाहर खड़ी फियेट पर अभी-अभी आप ही घर लौटे हैं ?”
“हां ।”
“और इस घर के मालिक आप हैं ?”
“हां ।”
“रिटायर्ड प्रोफेसर ?”
“हां, भई, तुम...”
“मिस्टर पिपलोनिया ! आपका पूरा नाम शिवनरायण पिपलोनिया है ?”
“है तो क्या हुआ ?”
“शिवनरायण जी ! पिपलोनिया साहब ! शिवनरायण पिपलोनिया साहब ! आप खबरदार शहरी नम्बर दो हैं ।”
वो बुरी तरह से चौंका ।
“आप ही वो शख्स है जिसने शुक्रवार, बीस तारीख को पंखा रोड पर चेन स्नैचर्स को शूट किया, जिसने शनिवार, इक्कीस तारीख को मोतीनगर और राजा गार्डन के बीच डी टी सी की एक बस में चार बलात्कारियों को शूट किया, जिसने रविवार बाईस तारीख को इण्डिया गेट पर पुलिसकर्मियों को तब शूट किया जब रक्षक ही भक्षक बनने पर आमादा थे, जिसने सोमवार तेईस तारीख को लाल किले के करीब दो लुटेरे और बलात्कारी आटोरिक्सा वालों को शूट किया ! जनाब ये महज इत्तफाक है कि सोमवार तेईस तारीख से आज छब्बीस तारीख तक आपका ऐसा कोई दांव न लगा वर्ना अपनी तरफ से तो आपने कोई कसर न छोड़ी होगी । आज की तरह । आज तो आप ही ज्यादा भटके शिकार को खातिर लेकिन कोई न फंसा ।”
“ये क्या बकवास है ?”
“जनाब, बकवास का दर्जा आपने मेरी आखिरी बात को दिया या तमाम बातों को ?” - विमल एक क्षण ठिठका और फिर उत्तर की प्रतिक्षा किये बिना बोला - “आज जिन जगहों को आपने अजमाया लेकिन जहां आपकी दाल नहीं गली, वो हैं खेल गांव, विकास होटल और साउथ एक्सटेंशन मार्केट । खेल गांव में आपको अपना शिकार मिलता लगा था लेकिन आपसे पहले उस पर पुलिस झपट पड़ी थी । च-च ! कितना नुकसान हो गया आपका !”
“पता नहीं क्या बक रहे हो तुम !”
“आपने एक सवाल बीच में छोड़ दिया ।”
“कौन-सा ?”
“मैंने आपका पता कैसे जाना ?”
“कैसे जाना ?”
“तेलीवाड़े वाले तनवीर अहमद की मदद से आना । तनवीर अहमद वो शख्स है जिसके पास आपको सदर वाले हुसैन साहब ने भेजा था - आपके ड्राइविंग लाइसेंस से आपके नाम और पते की तसदीक करके । तनवीर अहमद वो शख्स है जिसके आपने चौवालीस कैलिवर की एम-चौदह मार्का दस फायर करने वाली जर्मन रिवाल्वर खरीदी थी ।”
“मैं समझ गया ।” - वो एकाएक बोला ।
“क्या समझ गये, जनाब ?”
“तुम वो खबरदार शहरी हो जिसका कहर आजकल शहर में बरपा है ।”
“कमाल है !” - विमल हंसा - “आप तो उलटे मेरे ऊपर इलजाम लगाने लगे ।”
“तनवीर अहमद ने मुझे बताया था कि वैसी रिवाल्वरें उसके पास दो थीं और एक उसने कुछ ही अरसा पहले किसी दूसरे शख्स को बेची थी । वो दूसरे शख्स, रिवाल्वर के मेरे से पहले वाले खरीददार तुम थे ?”
“यानी कि आप कबूल करते हैं कि आपने तनवीर अहमद से रिवाल्वर खरीदी ?”
“मैं कुछ कबूल नहीं करता । लेकिन तुम खबरदार शहरी हो । मुझे हैरानी है, सख्त हैरानी है कि शुक्ला का मामूली एकाउन्टेंट इतना खतरनाक आदमी निकला !”
“मामूली प्रोफेसर खतरनाक आदमी निकल सकता है तो मामूली एकाउन्टेंट पर इस मामले में क्या पाबन्दी होगी !”
“तो तुम कबूल करते हो कि वो लीजेन्ड्री खबरदार शहरी तुम हो ?”
“आप कबूल करते हो ?”
“मैं कुछ कबूल नहीं करता । पहले भी कहा ।”
“आपके कबूल न करने से बात की हकीकत थोड़े ही बदल जायेगी !”
“तुम कुछ साबित नहीं कर सकते ।”
“मैं कुछ साबित करना ही नहीं चाहता ।”
“कोई कुछ साबित नहीं कर सकता ।”
“ऐसा आप इसलिये कह रहे हैं क्योंकि आप समझते हैं कि आपने अपनी रिवाल्वर, अपनी नकली मूंछे, अपना ओवरकोट, काला चश्मा, हैट वगैरह बड़ी चतुराई से छुपाया हुआ है । कनाट प्लेस की अण्डरग्राउन्ड पार्किंग में खड़ी डी आई ए- 7799 नम्बर की काली एम्बेसेडर में ! राइट ?”
वो फिर बुरी तरह से चौंका ।
“मेरी ऐसी कोई कार नहीं ।” - फिर वो लापारवाही से बोला - “मेरे पास सिर्फ एक नीली फियेट है जो कि बाहर खड़ी है ।”
“एम्बेसेडर में से आपको उंगलियों के निशान बरामद हो सकते हैं ।”
“नहीं हो सकते ।”
“क्यों नहीं हो सकते ? निशान पोंछ के आते है या दस्ताने पहनते हैं ?”
वो केवल मुस्कराया ।
“तनवीर अहमद आपकी शिनाख्त कर सकता है ।”
“ऐसा करने से पहले उसे ये कबूल करना होगा कि वो गैरकानूनी हथियार बेचता है ।”
“हुसैन साहब आपकी शिनाख्त कर सकते है ।”
“क्या कहकर ? ये कहकर कि वो तनवीर अहमद नाम के इललीगल फायरआर्म्स डीलर के एजेन्ट हैं और उन्होंने बतौर ग्राहक मुझे तनवीर अहमद के पास भेजा था ?”
“आप तो सब कुछ सोच बैठे हैं, जनाब ।”
“मिस्टर, तुम अपनी बात करो । चाहते क्या हो तुम ?”
“मैं चाहता हूं कि आप इस खतरनाक खेल से किनारा करें ।”
“क्यों ? ताकि तुम ये खेल जारी रख सको ?”
“आप तो ऐसे कह रहे हैं जैसे ये कोई इनाम हासिल होने के काबिल काम है ! जैसे जिसके इस खेल में सबसे ज्यादा नम्बर आयेंगे, उसे बादशाह बना दिया जायेगा । जनाब, ये बहुत खतरनाक खेल है जिसे खेलने वाले ख़त्म हो जाते हैं लेकिन खेल खत्म नहीं होता ।”
“ये जानते-बूझते तुम खुद ये खेल खेल रहे हो ?”
“मेरे और आपके हालात एक जैसे नहीं । मेरी और आपकी समस्याएं एक जैसी नहीं । मेरी और आपकी सोच तो कतई जुदा हैं । मेरी सोच क्या है ये मैं आपको आज सुबह बता ही चुका हूं अलबत्ता तब मुझे नहीं मालूम था कि आप ही पिपलोनिया साहब थे । मेरे और आपमें खास फर्क ये है कि मैं एक मरा हुआ आदमी हूं जबकि आप जिन्दा हैं । मैं उधार की जिन्दगी जी रहा हूं लेकिन आपके सामने अभी बहुत जिन्दगी बाकी है और जिन्दगी की संभावनायें बाकी हैं ।”
“कुछ बाकी नहीं ।” - वो उदास स्वर में बोला ।
“मैं आपकी पर्सनल ट्रेजेडी से वाकिफ हूं...”
“वाकिफ हो ?” - वो हैरानी से बोला ।
“जी हां ।”
“फिर भी मुझे ये राय दे रहे हो कि मैं इस खेल से किनारा करूं ?” - उसने विमल की तरफ देखा तो विमल ने पाया कि उसकी आंखें डबडबा आई थीं - “मेरा एक ही बीटा था, ड्रग्स की लत ने जिसकी भरी जवानी में जान ले ली । मेरी फूल जैसी नाबालिग बेटी बलात्कारियों की हवस पर बलि चढ़ गयी । तुम चाहते हो कि मैं घर बैठकर घुटनों में सिर देकर अपनी बदकिस्मती का मातम मनाता रहूं और नशे के व्यापारी और बलात्कारी छुट्टे घुमते रहें !”
“आप सबका खात्मा नहीं कर सकते ।”
“कुछ का तो कर ही सकता हूं । कर रहा हूं ।”
“आप मारे जाएंगे ।”
“मुझे मालूम है । लेकिन यही वो तरीका है जो मैंने अपने आपको खत्म करने का चुना है । मरना तो मैं चाहता ही हूं लेकिन मैं मार के मरूंगा । मार के मरूंगा मैं । बस चला तो सबको । सबको । मुझे जो भद्दी सूरत अपनी तरफ देखती दिखाई देती है, मुझे लगता है कि यही है वो जिसने मेरी बेटी के साथ बदफेली की । मुझे जो बटेर जैसी आंखों वाला और लाल भभूका चेहरे वाला शख्स दिखाई देता है, मुझे लगता है कि यही है वो जिसने मेरे नौजवान बेटे को ड्रग एडिक्ट बनाया । वो सब मेरे दुश्मन हैं और मैं उन सबका दुश्मन हूं । मेरी निगाह में उस तरह का हर आदमी एक पगलाया हुआ कुत्ता है जिसे देखते ही गोली मार देना जरूरी है वर्ना वो काट खायेगा ।”
विमल ने एक आह भरकर उसकी तरफ देखा । उसे याद आया कि ऐन वही बात उसकी भी जुबान से तब निकली थी जब वो सुमन की मां और बहन के अन्तिम संस्कार के वक्त श्मशान घाट पर थानाध्यक्ष रतनसिंह से मिला था ।
“जनाब” - प्रत्यक्षतः वो बोला - “अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता ।”
“मुझे मालूम है लेकिन बहुत जल्द हम कई होंगे...”
“इसी बात का मुझे अन्देशा है । इसलिये आपको उस राह पर चलने से रोकना जरूरी है जो आपने आजकल अपने लिये चुनी हुई है । जनाब, आप अपनी तरफ से जो अच्छा-अच्छा कर रहे हैं वो एक व्यापक सर्वेनाश की भूमिका है । आपने आज का इवनिंग न्यूज पढा ?”
“नहीं ।”
“पढते तो महसूस करते कि आप कितने आत्मघाती खयाल के पोषक बनते जा रहे हैं । विष्णु गार्डन के एक ज्वैलर ने आपसे सबक लेकर आज खबरदार शहरी बनने की कोशिश की, नतीजा ये हुआ कि फर्जी दिलेरी से बौराया हुआ वो अनाड़ी खबरदार शहरी खुद तो मरा ही, उसकी हरकत की वजह से उसके दो सेल्समैनों की जान गयी और एक बुरी तरह से घायल हुआ । यहां इस बात का जिक्र भी जरूरी है कि उस ज्वैलर की दुकान का सारा माल इन्श्योर्ड था, माल लूट जाने से उसे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था, उसके सेल्समैनों को तो कतई कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था क्योंकि वो वहां सिर्फ मुलाजिम थे लेकिन आपके कारनामों ने खबरदार शहरी की परिकल्पना को उसके मन में इलना ग्लोरीफाई कर दिया था कि वो ‘साले जो जुबान समझते थे उसी में उनको जवाब’ देने पर आमादा हो गया था । जनाब, इसी हिमाकत भरी बहादुरी को मैंने आज सुबह शेर के जबड़े में मुंह डालना और कुतुबमीनार से छलांग लगाना कहा था । आप मरना चाहते हैं क्योंकि आपके दिमागी प्रैशर कुकर का सेफ्टी वैल्व बिगड़ गया है । ठीक है । शौक से मरिये । आप मारना चाहते हैं क्योंकि आपको यही अपनी औलाद के हौलनाक अंजाम का बदला मालूम होता है । ये भी कबूल । लेकिन आप औरों के लिये आत्मघात की प्रेरणा क्यों बनना चाहते हैं ? क्यों आप उस डैथ विश की, जो आपके मन में घर कर गयी है, एक तम्बू की तरह सारी मानवता को, सारे समाज को ओढाना चाहते हैं ? ये खुदगर्जी है । ये उस किस्म की खुदगर्जी है जिसके जेरेसाया लंगड़ा ये चाहता है कि क्योंकि मैं लंगड़ा हूं इसलिये सारे लंगड़े हो जायें, अंधा ये चाहता है क्योंकि मैं अन्धा हूं इसलिये सारे अन्धे हो जायें ।”
“गलत मिसाल है ये । मैं कब चाहता हूं कि जो अंजाम मेरी बेटी का हुआ, वो हर किसी की बेटी का हो ? मैं कब चाहता हूं कि क्योंकि मेरा जवान बेटा ड्रग्स का शिकार होकर मरा इसलिये हर किसी की औलाद का ये ही अंजाम हो !”
“बात का सूत्र जरा दूसरे सिरे से पकड़िये, जनाब । आप यकीनन ये चाहते हैं कि जिस किसी की बेटी बलात्कार का शिकार हुई हो, वो बलात्कारियों को गोली से उड़ा दे । आप यकीनन ये चाहते हैं कि जिस किसी का बेटा ड्रग एडिक्ट बन जाये, वो नशे के व्यापारियों को चुन-चुन के मारे । ये वो आत्मघाती ख्याल है, जनाब, जिसको आप अपने कारनामों से पब्लिसिटी दे रहे हैं ।”
“अपना-अपना नजरिया है ।”
“और आप ये जिद ठाने बैठे हैं कि जो आपका नजरिया है, वही दुरुस्त है ।”
“मैं बहस नहीं करना चाहता ।”
“क्यों बहस नहीं करना चाहते । बहस तो आपका पसन्दीदा पागल है ।”
“मैं तुमसे बहस नहीं करना चाहता ।”
“मैं भी बहस नहीं करना चाहता । खासतौर से आधी रात को । और खास तौर से ऐसे आदमी से जो पूर्वद्वेष, पक्षपात और अविवेक का शिकार हो । मैं आपसे सिर्फ ये कहना चाहता हूं, शिवनारायण जी, कि जो हुआ सो हुआ । दो के बदले में आपने दस आदमी मार दिये । अब बस कीजिये । अब फैन्टम बन के रात रात-भर दिल्ली की सड़कों पर विचरण बन्द कीजिये ।”
“तुम्हारे कहने से ?”
“अभी तो मैं ही कह रहा हूं ।”
“तुम क्यों कह रहे हो ?”
“क्योंकि मैं आपकी भलाई चाहता हूं ।”
“क्यों मेरी भलाई चाहते हो ?”
“क्योंकि आप एक काबिल, जहीन, बुद्धिजीवी आदमी हैं और समाज को आप जैसे महानुभावों की जरूरत है । आप जैसे लोग हमारे समाज में पहले ही बहुत कम हैं, मैं नहीं चाहता कि उनमें से एक और घट जाये ।”
“तुम कौन हो ? मेरा मतलब है शुक्ला का एकाउन्टैन्ट होने के अलावा ?”
“मैं हूं खुदा का एक गुनहगार बन्दा जो अपने बनाने वाले से अपने गुनाह बख्शवाने का ख्वाहिशमन्द है ।”
“एक बात की तो गारन्टी है ।”
“किस बात की ?”
“तुम कोई मामूली आदमी नहीं हो सकते ।”
“बात आपकी हो रही है, जनाब ।”
“जो तुम चाहते हो, अगर वो मैं न करूं तो तुम क्या करोगे ?”
“तो मैं पुलिस में आपकी बाबत एक गुमनाम टेलीफोन काल कर दूंगा । मैं आपके खास साजो-सामान से लैस आपकी काली एम्बेसेडर पकड़वा दूंगा और आपको गिरफ्तार करा दूंगा ।”
“मेरी कोई एम्बेसेडर नहीं । मैंने कोई गिरफ्तार होने लायक काम नहीं किया पुलिस वाले मूर्ख ही होंगे जो एक गुमनाम टेलीफोन की बिना पर एक प्रतिष्ठित, सम्भ्रान्त नागरिक पर चढ दौड़ेंगे ।”
“देखेंगे ।”
“गुमनाम टेलीफोन काल मैं भी कर सकता हूं ।”
“किस बाबत ?”
“तुम्हारी बाबत ! वो दूसरी रिवाल्वर तुम्हारे पास है । अगर वो तुम्हारे पास पकड़ी गयी तो...”
“अब आप बिल्कुल ही बचकानी बातें कर रहे हैं ।”
“यानी कि तुमने भी पूरा इन्तजाम किया हुआ है कि तुम्हारे पर कोई हर्फ न आये ?”
“आप फिर विषय से भटक रहे हैं ।”
“तुम कौन हो ? सच-सच बताओ ।”
“क्या कीजिएगा जान के ?”
“फिर भी ?”
“मेरी हकीकत तो बहुत खराब है । आप पर जाहिर हो गयी तो आप मेरा नाम भी उन्हीं लोगों की फेहरिस्त में जोड़ लेंगे जिनको आपने अपने हाथों से जहन्नुम रसीद करना है ।”
“तुम कोई जरायमपेशा आदमी हो ?”
“मैं आपके दोस्त शुक्ला साहब का मामूली मुलाजिम हूं ।”
“असल में तुम कोई जरायमपेशा आदमी हो ?”
“मुझे छोड़िये । मैं जिक्र के काबिल आदमी नहीं । आप ये बताइये कि आपका जवाब क्या है ?”
“मेरा जवाब चाहते हो ?”
“हां ।”
“ओके । आई विल गिव यू माई आन्सर ।” - वो उठ के खड़ा हो गया और दरवाजे की ओर उंगली उठाता हुआ बोला - “गैट आउट आफ माई हाउस ।”
“तो” - विमल उठता हुआ बोला - “ये जवाब है आपका ?”
“हां । मेरे घर से बाहर निकल जाओ ।”
“निकल जाता हूं । लेकिन सिर्फ एक बात और कहने की इजाजत दीजिये ।”
“वो भी बोलो ।”
“आपकी वजह से जो समस्या इस वक्त मेरे सामने है उसका मेरे पास एक दूसरा हल भी है । न रहे बांस, बजे बांसुरी जैसा ।”
“मतलब ?”
विमल ने जेब से रिवाल्वर निकाल ली ।
“आई विल शूट यू हेयर एण्ड नाओ ।” - वो बोला - “ऐनी प्राब्लम ?”
“नो प्राब्लम ।” - वो निसंकोच बोला - “प्लीज डू । मेहरबानी होगी तुम्हारी ये मेरे ऊपर । मैं खुद बेजार हूं अपनी मौजूदा जिन्दगी से । गोली चलाओ और निजात दिलाओ मुझे खुद अपनी लाश ढोये फिरने से ।”
विमल ने एक आह भरी और रिवाल्वर वापिस अपनी जेब में रख ली ।
कभी वैसी ही हालत तब उसकी भी हुई थी जब उसे नीलम की मौत की खबर लगी थी । प्रियजनों का वियोग सम्वेदनशील लोगों को यूं ही चलती-फिरती लाश बना देता था ।
वृद्ध अपलक उसे देख रहा था ।
विमल उससे निगाह मिलाये न रह सका । वो घूमा और बिना एक शब्द भी और बोले वहां से बाहर निकल गया ।
आधी रात के बाद विमल गोल मार्केट पहुंचा ।
उस घड़ी चारों तरफ सन्नाटा था और कहीं कोई आवाजाही नहीं थी ।
उसने कार को अपने फ्लैट वाले रेजीडेन्शल कम्पलेक्स की ओर मोड़ा ही था कि एकाएक एक मैटाडोर वैन तूफानी रफ्तार से उसके पीछे से निकली और उसकी कार के सामने आ गयी । विमल को मजबूरन ब्रेक लगानी पड़ी । वो ब्रेक पर लगभग खड़ा हो गया तो भी उसकी कार का बम्फर मैटाडोर की पीठ से थोड़ा लगा ।
तभी गोलियां चलने लगीं ।
गोलियों की एक बाढ-सी आयी लेकिन वो तमाम की तमाम मैटाडोर वैन से ही टकराई । गोलियों की आवाज के साथ शीशे टूटने की आवाज भी गूंजने लगी ।
एक और मैटाडोर वैन विमल की कार के पहलू में प्रकट हुई और दो ब्लाकों के बीच के पार्क को रौंदती हुई आगे बढने लगी ।
विमल ने कार का ड्राइविंग सीट की ओर का दरवाजा खोल कर बाहर निकलने की कोशिश की तो किसी ने पूरी शक्ति से दरवाजे को बाहर से धक्का दिया । धक्का इतना प्रबल था कि विमल को दरवाजा थामे अपना हाथ दोहरा होता महसूस हुआ ।
तभी खिड़की पर मुबारक अली की सूरत प्रकट हुई ।
“शीशा चढा और भीतर ही बैठ ।” - मुबाकर अली कर्कश स्वर में बोला - “बाहर निकलना नेईं मांगता ।”
“ल-लेकिन...”
जवाब देने की जगह मुबारक अली मैटाडोर वैन की छत पर चढ गया और उस पर लेटकर सामने गोलियां चलाने लगा ।
गोलियां दोतरफा चल रही थीं लेकिन सामने दीवार की तरह मैटाडोर वैन खड़ी होने की वजह से उसे कुछ पता नहीं चल रहा था कि आगे क्या हो रहा था ।
दो मिनट वही सिलसिला चला ।
फिर दूर कहीं फ्लाइंग स्क्वायड के सायरन की आवाज गूंजी ।
तत्काल गोलियां चलनी बन्द हो गयीं और वाहन वहां से भागने लगे ।
मुबारक अली मैटाडोर से नीचे कूदा और फियेट के करीब पहुंचा । उसने फियेट का दरवाजा खोला और विमल को जबरन ड्राइविंग सीट से परे धकेल दिया ।
“हथियार !” - उसने हांफते हुए पूछा - “हथियार है कोई ?”
विमल ने जेब से वीर बहादुर वाली नन्ही रिवाल्वर निकाली । मुबारक अली ने तत्काल रिवाल्वर उसके हाथ से झपट ली ।
तभी मैटाडोर से उसके खास जुड़वां नौजवान साथियों में से एक नीचे कूदा और लपककर फियेट के करीब पहुंचा । मुबारक अली ने अपनी और विमल की रिवाल्वरें उसे थमा दीं । वो दौड़कर वापिस मैटाडोर में सवार हो गया । फिर मैटाडोर ने पार्क की घास पर से यू टर्न किया और वहां से भाग निकली ।
मुबारक अली ने तत्काल फियेट स्टार्ट करके उसे बैक गियर में डालकर सीधा किया और फिर उसे सामने सड़क पर दौड़ा दिया ।
“क्या किस्सा है ?” - विमल बोला ।
मुबारक अली ने उत्तर न दिया । उसके होंठ भिंचे हुए थे और चेहरे पर तीव्र उत्कंठा के भाव थे ।
“रोड ब्लाक !” - एकाएक मुबारक अली बोला - “आगे रोड ब्लाक है । पूछ होगी तो क्या बोलेंगा, बाप ?”
विमल हड़बड़ाया, उसने देखा कार भगतसिंह रोड पर होती हुई कनाट प्लेस की ओर बढ रही थी ।
“बीवी !” - तत्काल उसके मुंह से निकला - “बीवी नर्सिंग होम में है । महाजन नर्सिंग होम में । रीगल के पीछे हनुमान रोड पर । वहीं जा रहे हैं ।”
“बढिया ।” - मुबारक अली बोला - “पीछू बैठ । मैं तेरा डिरेवर । तू मेरा साब ।”
विमल आगे की सीट लांघकर पिछली सीट पर पहुंच गया ।
रोड ब्लाक पर उन्हें रोका गया ।
एक सशस्त्र हवलदार ने संदिग्ध भाव से उन दोनों की सूरतें देखीं और कार के भीतर टार्च की रोशनी फिराई ।
“कहां जा रहे हैं ?” - पूछा गया ।
विमल ने बताया ।
“कहां से आ रहे हैं ?”
विमल ने वो भी बताया ।
गोल मार्केट का नाम सुनकर वो चौकन्ना हुआ । उसने एक और हवलदार को अपने करीब बुलाया, फुसफुसाकर उसके कान में कुछ कहा और फिर बोला - “बाहर निकलिये । दोनों ।”
दोनों बाहर निकले तो दूसरे हवलदार ने दोनों की तलाशी ली ।
फिर डिकी खुलवाकर उसमें भी झांका गया ।
“जाइये ।” - फिर हुक्म हुआ ।
“बात क्या है ?” - एक साधारण नागरिक की स्वभाव-सुलभ उत्सुकता दिखाता हुआ विमल बोला ।
“अभी-अभी खबर मिली है कि पीछे गोल मार्केट में भीषण गोलीबारी हुई है । खबर के बाद से गोल मार्केट की ओर से आने वाली पहली गाड़ी आपकी है, इसलिये सख्त तलाशी जरूरी थी ।”
“ओह !”
फिर मुबारक अली ने कार आगे बढायी ।
“बात क्या है, मियां ।” - विमल बोला ।
“बाप, तू बाल-बाल बचा ।” - मुबारक अली बोला - “वहां कम-से-कम नहीं तो दर्जन आदमी बैठेले थे, तेरी एक जने की लाश गिराने कू । अल्लामारों ने यूं मोर्चाबन्दी की हुई थी कि आज कोई करिश्मा भी तेरे कू न बचा पाता ।”
“गुरबख्शलाल के आदमी ?”
“और कौन होयेंगा तेरे खून का प्यासा ?”
“तेरे को खबर कैसे लगी ?”
“चार्ली बोला । साला हलकट, पहले तेरी बाबत गुरबख्शलाल कू बोला । बोला गुरबख्शलाल ज्यास्ती पिला दिया, नशे में वो तेरी बाबत सब बक दिया उसके सामने । बोला नशा उतरतां पछताने लगा । तेरे कू चेताना मांगता था पण तेरा पता नेईं जानता था । उदर अपना दो आदमी बैठेला था । चार्ली उनको बोला, अपुन का आदमी अपुन को बोला । बोलने-बोलने में ही साला मालूम नेईं कितना टेम खोटा हो गया । अपुन फुल स्पीड पर उदर पहुंचा । शुकर है पाक पवरदिगार का कि टेम पर पहुंचा, ऐन टेम पर पहुंचा, आधा मिनट भी ज्यास्ती लगा होता पहुंचने में तो आज तो तू खलास था, बाप ।”
“ओह !”
“बाप, इतना इन्तजाम एक आदमी की लाश गिराने का अपुन पहले कब्बी नेईं देखा और साथ असला भी ऐसा कि सिर्फ तोप खाने की कसर छोड़ी अल्लामारो ने ।”
“तेरे साथ कितने आदमी थे ?”
“पन्दरह ।”
“सब सलामत ?”
“मालूम नेईं । सुब्बू मालूम पड़ेगा ।”
“मुझे वहां से क्यों भगा लाया ? घर तो जाने देता ।”
“पागल हुआ है ? आज तेरा घर जाना ठीक नेईं । उदर तेरे पर फिर हमला हो सकता है ।”
“वो तो आज क्या, कभी भी हो सकता है ।”
“बरोबर बोला । इसलिये कुछ सोच, बाप ।”
“तू तो नहीं सोचे बैठा कुछ ?”
“सोचेला तो है ।”
“क्या ?”
“कुछ रोज उदर अपने फिलेट में रहने से नक्की कर ।”
“तो कहां रहूं ?”
“अपुन का गरीबखाना तो तेरे कू रखने के काबिल नेई, बाप, उदर तो पहले ही एक-एक कोठरी में दर्जन-दर्जन लोग बसेला है इसलिए जाके किसी होटल में रह । नाम बदल के । क्या ?”
विमल सोचने लगा ।
“तो अपुन चले किसी होटल कू ?”
“नहीं । आगे पार्लियामेंट स्ट्रीट पर चल और फिर पहला ही मोड़ दायें मोड़ । वहां हनुमान रोड पर वो नर्सिंग होम है जिसमें मेरी बीवी भरती है । बाकी की रात मैं वहां भी गुजार सकता हूं, फिर कल की कल सोचेंगे । तू मुझे वहां छोड़ के चले जाना ।”
“बाप, तू उदर अकेला...”
“उस जगह की वाकफियत किसी को नहीं । वहां मुझे कोई खतरा नहीं ।”
“पण ।”
“बोला न ।”
“अपुन बी तो कुछ बोला न” - मुबारक अली ने पहली बार उसकी बात काटी - “अपुन ये बोला कि तेरे कू, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में पूरी हिफाजत में होना मांगता है । तेरे कू वो... वो बाडी का गार्ड मांगता है अंग्रेजी में ।”
“पागल हुआ है ! मैं लाव-लश्कर ले ले के फिरूंगा ?”
“लाव-लश्कर नहीं । सिर्फ दो । अपुन का खास भरोसे का आदमी । अपुन का दायां-बायां ।”
“दायां-बायां ?”
“अली मुहम्मद । वली मुहम्मद । जुड़वा भाई हैं । जान दे देंगे पर तेरी जान पर हर्फ नहीं आने देंगे । कल से हर बड़ी वो साये की तरह तेरे पीछू रहेंगे । आज की जंग के लिहाज से होना तो अपुन उन्हें तेरे दायें-बायें मांगता है पण तेरे कू दायें-बायें से ऐतराज होगा इसलिये पीछू रहेंगे । तेरे को पीछू से एतराज होगा तो भी पीछू रहेंगे ।”
“लेकिन...”
“बाप, कहना मान । अपुन हमेशा तेरा कहना माना है । एक बार तू अपुन का कहना मान । क्या वान्दा है ?”
“अच्छी बात है । अब बोल और क्या खबर है ?”
मुबारक अली उसे गुरबख्शलाल की हेरोइन की कनसाइनमैंट पर हमले की बाबत और ‘शहनशाह’ में अपने फेरे की बाबत बताने लगा ।
***
लोटस क्लब बन्द हो चुकी थी लेकिन गोल मार्केट से अपेक्षित किसी ‘शुभ समाचार’ की उम्मीद में गुरबख्शलाल तब भी क्लब में बैठा था ।
रात का एक बज चुका था और वो पहले ही फरीदाबाद अपनी कोठी पर लौटने की जगह बाकी की रात सिटी रोड वाले फ्लैट में मोनिका के पहलू में गुजारने का फैसला कर चुका था । उसी फैसले के तहत वो दस बजे ही उसकी बार से छुट्टी कर चुका था ताकि वो फ्लैट पर उससे पहले पहुंचकर उसके वहां स्वागत का सामान कर पाती ।
साली सो गयी हुई - उसने मन-ही-मन सोचा - तो मार-मार के पेंदा लाल कर दूंगा ।
तभी एक्सटेशन टेलीफोन का बजर बजा ।
गुरबख्शलाल ने फोन उठाया और फिर माउथपीस में भैंस की तरह डकराया - “क्या है ?”
“लाल साहब” - मेन फोन पर बैठा क्लब का एक कर्मचारी भयभीत भाव से बोला - “कोई आपको पूछ रहा है ।”
“कौन ?”
“मालूम नहीं ।”
“साले ! नया भर्ती हुआ है ! जिसका कुछ मालूम न हो, उसको क्या जवाब देना है, ये तुझे नहीं मालूम ?”
“मैंने वो ही जवाब दिया, लाल साहब । मैंने बोला कि आपके नाम वाला कोई आदमी इधर नहीं पाया जाता । लेकिन वो इस जवाब से टला नहीं । कहने लगा वो वो शख्स बोल रहा था जिसने आपके भांजे का कत्ल किया था ।”
गुरबख्शलाल को सांप सूंघ गया ।
“तब मैंने सोचा कि आपसे पूछ लूं । शायद आप उस शख्स से बात करना चाहते हों ।”
“बात कराओ ।” - गुरबख्शलाल बोला ।
एक खट्ट की आवाज हुई फिर कोई बोला - “हल्लो ।”
“क्या है ?” - गुरबख्शलाल बोला ।
“गुरबख्शलाल ?”
“हां ।”
“मैं कौल बोल रहा हूं । अरविन्द कौल ।”
“मैं इस नाम के किसी आदमी को नहीं जानता ।”
“गुरबख्शलाल, मैं वो शख्स हूं जिसने तेरे बलात्कारी, स्मैकिये भांजे सुन्दरलाल को मौत की सजा दी थी ।”
“तो तूने मेरे भांजे का कत्ल किया था ?”
“मौत की सजा को कत्ल कहना चाहता है तो मर्जी तेरी ।”
“यही बताने के लिये फोन किया है ?”
“नहीं । अभी आगे भी सुन । अभी ये भी सुन कि अगला नम्बर किसका है ?”
“किसका है ?”
“तेरा । तेरा है अगला नम्बर ।”
“क्या मतलब ?”
“अपने पुरखों के रूबरू होने के लिये तैयार हो जा, गुरबख्शलाल, क्योंकि बहुत जल्द तू उनके पास पहुंचने वाला है ।”
“कौन पहुंचायेगा मुझे मेरे पुरखों के पास ?”
“मैं ।”
“तू और और कौन ?”
“मैं और सिर्फ मैं ।”
“या साथ में तेरे वो धोबी ?”
“उनका काम धुलाई और धुनाई करना है । बाकी अर्थी मुर्दा, कलश वाला काम सिर्फ मेरे जिम्मे है ।”
“मुझे वार्निंग क्यों दे रहा है ?”
“ताकि मरते वक्त तेरे मन मे इस बाबत कोई सस्पैंस न रहे कि तुझे किसने मारा ।”
“अभी बोल कहां से रहा है ?”
“मुझे मालूम है ये सवाल तू क्यों पूछ रहा है ! तू जानना चाहता है कि मैं अभी घर पहुंचा हूं या नहीं ।”
“पहुंचा है ?”
“हां । वहीं से बोल रहा हूं । क्या समझा ?”
गुरबख्शलाल से जवाब देते न बना । उस घड़ी उसे एक ही बात सूझी कि जिस शुभ समाचार के इन्तजार में बैठा वो रात खोटी कर रहा था, वो अब उसे नहीं मिलने वाला था ।
“सो गया” - उसके नाम में आवाज पड़ी - “या जुबान को लकवा मार गया ?”
“तू सोहल है ।” - गुरबख्शलाल बोला ।
“भगवान श्रीकृष्ण का तरह मेरे कई नाम हैं । अपनी बोल तू सोहल के हाथों चाहता है तो ये नाम भज ले ।”
“तू चाहता क्या है ?”
“मैं तेरा और तेरे ड्रग्स के धन्धे का सर्वनाश चाहता हूं ।”
“क्यों ? क्यों चाहता है तू ऐसा ? मेरी जात-बिरादरी का होके तू....”
“किसने कहा मैं तेरी जात-बिरादरी का हूं ?”
“जब तू इतना बड़ा दादा है तो...”
“किसने कहा मैं बड़ा दादा हूं ? किसने कहा मैं दादा हूं ?”
“क्या पहेलियां बुझा रहा है, यार...”
“यार रंडियों के होते हैं ।”
“...तू मेरे से मुलाकात कर, तब...”
“मुलाकात तो तेरी-मेरी एक ही बार होगी ।”
“कब ?”
“जब तू मुझे रिवाल्वर की नाल में से दिखाई देगा ।”
फिर लाइन कट गयी ।
गुरबख्शलाल ने रिसीवर वापिस रख दिया और अस्थिर हाथों से एक सिगरेट सुलगाया ।
तभी कुशवाहा ने वहां कदम रखा । उसके चेहरे पर परेशानी के भाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित थे ।
कुशवाहा की सूरत से ही गुरबख्शलाल को अहसास हो गया कि अभी जो टेलीफोन काल वो सुनकर हटा था, वो फर्जी नहीं थी ।
“कितने मरे ?” - वो बोला - “कितने बचे ?”
कुशवाहा ने हैरानी से उसकली तरफ देखा ।
“लगता है सब मर गये ?”
“नहीं ।” - कुशवाहा कठिन स्वर में बोला ।
“तो ?”
“मरा तो एक ही है लेकिन गम्भीर मामला ये है कि हमारे दो आदमी पुलिस की गिरफ्त में आ गये हैं ?”
“पुलिस कैसे पहुंच गयी ?”
“किसी पड़ोसी ने गोलियों की आवाज सुनकर पुलिस की फोन कर दिया होगा ।”
“दर्जन आदमियों से एक आदमी न सम्भला ?”
“लाल साहब, उसके साथ हमारे साथ हमारे आदमियों से ज्यादा आदमी थे ।”
“वही धोबी ?”
“और कौन होंगे ?”
“वो वहां कैसे पहुंच गये ?”
“यही तो हैरानी को बात है । मुझे तो लगता है कि चार्ली ने दगाबाजी की ।”
“यानी कि उसने उस बाबू को खबरदार कर दिया ?”
“ऐसा ही मालूम होता है ।”
“कैसे कर दिया ? हम पीछे जो दो आदमी उसकी निगरानी के लिये छोड़ के आये थे, वो क्या मर गये थे ?”
“मैंने फौजी से बात की है । वो कहता है कि वो और उसका साथी पूरी चौकसी मे अपना काम करते रहे थे । वो कहता है कि न तो चार्ली वहां से निकलकर किसी के पास गया था और न कोई वहां चार्ली के पास आया था ”
“फोन कर दिया होगा ! अपने पीजा पार्लर के स्टाफ में से किसी को हरकारा बना के भेज दिया होगा ।”
“ऐसा तो वो तब करता जब उसे खबर होती कि उसकी चौकसी की जा रही थी ।”
“खबर होगी उसे ।”
“कैसे ?”
“मुझे क्या मालूम कैसे ? तू बता ?”
कुशवाहा ने उत्तर में जोर से थूक निगली ।
“बहरहाल” - गुरबख्शलाल बोला - “अन्त-पन्त ये चार्ली का बच्चा उसी का सगा निकला । वो नशा ही था जो उसे गलबहियां डाल डाल के हमारे से मिलने के लिये उकसा रहा था ।”
“ऐसा ही मालूम होता है लाल साहब, ऐसा दोगला आदमी क्या तो हमारी सोहल से मीटिंग करायेगा और क्या हमें धन्धा बन्द करने के लिये मोहलत दिलायेगा !”
“तू ठीक कह रहा है । लाश गिरा दे इस दगाबाज कुत्ते की ।”
कुशवाहा ने खामोशी से सहमति में सिर हिलाया ।
“अब एक बात बता ।” - गुरबख्शलाल बोला ।
“पूछिये ।” - कुशवाहा बोला ।
“तुझे अपने बहुत ही करीब मानकर पुछ रहा हूं ।”
“ये आपकी जर्रानवाजी है कि आप मुझे अपने करीब....”
“मेरी लाश को कन्धा तो देगा न ?”
“क्या कह रहे हैं, लाल साहब !” - कुशवाहा दहशतनाक स्वर में बोला ।
“ठीक कह रहा हूं । कुशवाहा, जिस आदमी की मौत का तूने मुझे शुभ समाचार सुनाना था, उसका तेरे आने से थोड़ी देर पहले यहां फोन आया था ।”
“नहीं !” - कुशवाहा अविश्वासपूर्ण स्वर में बोला ।
“वो कह रहा था कि अगला नम्बर बस मेरा ही है ।”
“उसकी इतनी मजाल हुई ।”
“उसकी मंशा मुझे धमकाने से ज्यादा मुझे ये जताने की थी कि मेरे सब इन्तजामात की उसे खबर थी ।”
“सिर्फ उस दगाबाज चार्ली की वजह से । वर्ना कैसे हो सकती थी ?”
“जाहिर है । अब वक्त की जो सच्चाई है वो ये है कि इन धोबियों से निपटे बिना हम सोहल से नहीं निपट सकते । ये धोबी एक अभेद्य दीवार हैं जो हमारे और हमारे इस दुश्मन के बीच खड़े हैं । सिर्फ दीवार बनकर खड़े ही रहते, तो भी कोई बात थी लेकिन वो तो कहर पर कहर बरपाये जा रहे हैं । यूं तो एक दिन वो हमें नंगा करके छोड़ेंगे ।”
“मैं खुद उन्ही से खौफजदा हूं, लाल साहब । ऐसे जाबाज लड़ाके मैंने आज तक न देखे न सुने पता नहीं आज से पहले ये लोग दिल्ली में कहां छुप के बैठे हुए थे !”
“कहीं वो भी तो बाहर से ही नहीं आये इस सोहल के साथ ?”
“क्या पता ? लेकिन उनकी तारीफ में मैं इतना जरूर कहना चाहता हूं कि अगर हमारे एक चौथाई आदमी भी उन जैसे जियाले हों तो हम क्राइम की दुनिया फतह कर लें । गोल मार्केट से लौट हमारे पिटे हुए खलीफा लोग बताते हैं कि अगर वहां पुलिस की आमद का अन्देशा न हो गया होता और उन धोबियों को ही वहां से निकल जाने की जल्दी न हो गयी होती तो हमारे आदमियों में से एक भी जिन्दा वापिस न लौटा होता । उनको तो यूं घेर के रौंदा गया था कि वो भाग नहीं सकते थे । पुलिस की आमद की वजह से वो धोबी भागे तो उनको भी भागने का मौका मिला । लाल साहब, दुश्मन की तारीफ करते मेरा कलेजा फटता है लेकिन हकीकत यही है कि हमारे आदमी उन धोबियों के सामने नहीं ठहर सकते । वो जब जायेंगे, पिट के आयेंगे ।”
“यूं तो वो जाने से ही इन्कार करने लग सकते हैं ।”
“यही फिक्र तो मुझे सता रही है । इसलिए ऐसी नौबत आने से पहले हालात का हमारे काबू में आना जरूरी है ।”
“ऐसा क्योंकर होगा ?”
कुशवाहा से जवाब देते न बना ।
“हालात की तो ये मां... रही है कि वो आदमी मुझे फोन करके धमकाता है कि अगला नम्बर मेरा है ।”
“वो आपके करीब भी नहीं फटक सकता ।”
“सारे टॉप के दादाओं के सारे लेफ्टीनेंट उन्हें यही कह के तसल्ली देते हैं । ये बात तू नहीं जानता या मैं नहीं जानता ?”
कुशवाहा के चेहरे पर खिसियाहट के भाव आये ।
“इसलिये चमचाबाजी बन्द कर । झूठी तसल्लियों देना भी बन्द कर । ऐसी बातें तुझे शोभा नहीं देती ।”
“सारी, लाल साहब ।”
“बहरहाल उस टेलीफोन काल से ये एक बात तो साफ हो गयी कि वो बाबू, वो अरविन्द कौल वाकई सोहल है । उसने अपनी जुबानी कबूल किया था कि वो मेरे भांजे का कातिल था और उन धोबियों का सरगना था ।”
“सोहल ही होगा वो । किसी ऐरे-गैरे की मजाल नहीं हो सकती आपको धमकी देने की !”
“हां । कुशवाहा, मौजूदा हालात को काबू करने एक ही तरीका है ।”
“वो क्या ?” - कुशवाहा आशापूर्ण स्वर में बोला ।
“उसे गुरबख्शलाल की नहीं, इस शहर के मुकम्मल अन्डरवर्ल्ड की ताकत दिखानी होगी । हमें सोहल के खिलाफ अपनी बिरादरी को एकजुट करना होगा । मेरे जैसे जितने भी और अन्डरवर्ल्ड बॉस हैं इस शहर में, उनसे एक मीटिंग रखकर हमें उन्हें समझाना होगा कि अगर हमने वक्त रहते सोहल से मुकाबले के लिये एक सांझा फ्रंट न खड़ा किया तो वो हम सबको तबाह कर देगा, तो यहां भी मौत का वही नंगा नाच होगा जो उस इकलौते आदमी की वजह से बम्बई के अन्डरवर्ल्ड में हो चुका है । कुशवाहा, तू कल बिरादारी की एक मीटिंग का इन्तजाम कर । मुझे यकीन है कि हमारी बिरादरी को मेरी बात जंचेगी ।”
“ठीक है ।” - कुशवाहा जोश से बोला, अपने बॉस की वो योजना उसे भी जंची थी ।
“तू हमारे दो आदमी गिरफ्तार हो गये बता रहा था ?”
“जी हां ।”
“कौन हैं वो ?”
“आम भरती के लोग हैं । आप नहीं जानते उन्हें ।”
“यानी कि मुंह फाड़ सकते हैं ?”
कुशवाहा ने हिचकिचाते हुए हामी भरी ।
“उनका कोई इन्तजाम कर ।”
“सुबह से पहले” - कुशवाहा कठिन स्वर में बोला - “कोई इन्तजाम मुश्किल है ।”
“हैं कहां वो ?”
“मंदिर मार्ग थाने में ।”
“वहां तो हमारा तोता सहजपाल होता है ।”
“जी हां । मैंने उसका पता भी किया था लेकिन वो इस वक्त ड्यूटी पर नहीं है । मेरे कहने पर वो खासतौर से थाने पहुंचा तो उस पा शक किया जायेगा ।”
“बदनाम पुलिसिया जो ठहरा ।”
“जी हां ।”
“तो फिर ?”
“वो सुबह ड्यूटी पर आयेगा तो मैं खुद जाकर उससे बात करूंगा ।”
“तब तक हमारे आदमियों ने सब बक-झक दिया तो ?”
“इसी बात की तो मुझे फिक्र है ।”
“ये वैसे भी सहजपाल के बस का काम नहीं । तू वहां के लूथरा नाम के सब-इन्स्पेक्टर का पता कर । अभी फोन कर । थाने पर या घर पर वो जहां भी हो, तू मेरी उससे बात करा । तेरे उन गिरफ्तार दो आदमियों का हल मैं निकालता हूं ।”
कुशवाहा ने तत्काल फोन की ओर हाथ बढाया ।
फोन की घन्टी ने लूथरा का सोते से जगाया ।
“हल्लो !” - वो उनीन्दे स्वर में माउथपीस में बोला ।
“सब-इन्सपेक्टर लूथरा बोल रहा है ?”
लूथरा सचेत हो गया । वो आवाज उसने फौरन पहचानी । वो गुरबख्शलाल की आवाज थी ।
“हां ।” - लूथरा बोला - “कौन ?”
“वही जिसने पिछले सोमवार तुझे थाने में फोन किया था । सुन्दरलाल की बाबत ।”
“गुरबख्शलाल ?”
तत्काल खामोशी छा गयी ।
“बातचीत खत्म हो गयी है” - लूथरा बोला - “तो मैं फोन रखूं ?”
“कैसे जाना ?”
“टाइम क्या हुआ है ?”
“ठीक है, ठीक है । गुरबख्शलाल ही बोल रहा हूं मैं । अब सुन मैंने तुझे क्यों फोन किया है ।”
“अपने भांजे के कातिल का नाम जानने के लिये । तुमने कहा था दो-तीन दिन बाद तुम फिर करोगे ।”
“वो कहानी अब खत्म हुई । अपने भांजे के कातिल का नाम मुझे मालूम है ।”
“यानी कि मेरे पचास हजार रुपये मारे गये ?”
“बात बीस की थी लेकिन तू रुपये की फिक्र न कर । जितना कहेगा मिल जायेगा ।”
“और क्या कहानी है ?”
“तेरे थाने में मेरे दो आदमी बन्द हैं । उन्हें छुड़ा ।”
“कब बन्द हुए ?”
“अभी कोई एक घंटा पहले ।”
“क्या कर रहे थे ?”
“कुछ नहीं यूं ही सड़क से गुजर रहे थे ।”
“आधी रात को ?”
“सिनेमा देख के लौट रहे थे ।”
“कहां से पकड़े गये थे ?”
“गोल मार्केट से ।”
“गोल मार्केट में कहां से ?”
“कोबिल मल्टी स्टोरी हाउसिंग कम्पलैक्स से ।”
लूथरा के कान खड़े हुए ।
“पांच मिनट बाद फोन करना ।”
“लेकिन...”
“पांच मिनट बाद फोन करना ।”
लाइन कट गयी ।
लूथरा ने थाने का नम्बर डायल किया और ड्यूटी आफिसर से बात की । बात करने के बाद उसने फोन रखा ही था तो घंटी फिर बज उठी ।
“पांच मिनट हो गयी ।” - उसे गुरबख्शलाल का अधिकारपूर्ण स्वर सुनाई दिया ।
“मैंने थाने से पता किया है ।” - लूथरा बोला - “वो लफड़े वाला मामला है ।”
“लफड़ा निकाल । तभी तो तेरे को फोन किया ।”
“लफड़ा निकालने के लिए मुझे असलियत मालूम होनी चाहिये ।”
लाइन पर खामोशी छा गयी ।
“तुम्हारे आदमी” - लूथरा बोला - “वहां अरविन्द कौल नाम के एक आदमी का कत्ल करने गये थे । ठीक ?”
“जब जानता है तो क्यों पूछता है ?”
“कुछ जानता हूं । कुछ नहीं जानता । जो नहीं जानता वो तुम्हारी जुबानी सुनना चाहता हूं ।”
“क्या नहीं जानता ?”
“एक मामूली एकाउन्टैन्ट का कत्ल करने के लिये इतने ढेर सारे आदमी किसलिये ?”
“ढेर सारे आदमी ?”
“पकड़े सिर्फ दो गये हैं लेकिन चश्मदीद गवाहों के बयानात से मालूम हुआ है कि वहां दर्जनों आदमी थे ।”
“सब मेरे नहीं थे ।”
“जो तुम्हारे थे, वो भी दर्जन से कम नहीं थे ।”
“जिसका कत्ल करना था, वो मेरे भांजे का कातिल है ।”
“एक फौज के काबिल काम वो फिर भी न था ।”
“तू है किस फिराक में, भई ?”
“असलियत जानने की फिराक में हूं मैं ।”
“वो शख्स मेरे भांजे का कातिल ही नहीं, मेरे अपने वजूद के लिए भी खतरा है ।”
“वो कैसे ?”
“जाने बिना नहीं मानेगा ?”
“मान जाऊंगा । तब अपना काम किसी और को बताना ।”
“बात अपने तक रखेगा ?”
“हां ।”
“वादा करता है ?”
“पक्का ।”
“वो सोहल है ।”
“कौन सोहल है ?”
“वही जो अपना नाम अरविन्द कौल बताता है ।”
“सोहल ? यानी कि मशहूर इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल ?”
“हां ।”
“साबित कर सकते हो ?”
“नहीं ।”
“यानी कि उसे गिरफ्तार करा देने से तुम्हारा काम नहीं बन सकता ?”
“न ।”
“सोहल के सिर पर तीन लाख रुपये का इनाम है ।”
“तू उस कौल को गिरफ्तार कर और उसे सोहल साबित करके सजा दिला, मैं तुझे छ: लाख रुपये देता हूं ।”
“उसे सजा हो जाने के बाद ?”
“तू कह तू ऐसा कर सकता है तो एडवांस ।”
“मैं सोच के जवाब दूंगा ।”
“साल-छ: महीने में सोच लेगा ?”
“दो दिन । सिर्फ दो दिन काफी होंगे ।”
“ठीक है । सोच ले दो दिन । अब बोल, मेरे दूसरे काम का क्या होगा ?”
“कल तुम्हारे आदमी छूट जायेंगे ।”
“बिना कोई राग अलापे ?”
“हां ।”
“गारन्टी करता है ?”
“छूट जाने की ?”
“छूट जाने की भी और गाना न गाने की भी ।”
“करता हूं ।”
“बढिया । अब फीस बोल अपनी ।”
“कल सुबह अपने किसी आदमी को थाने भेजना । फीस उसे समझा देंगे ।”
“ठीक है ।”
लाइन कट गयी ।
लूथरा फोन रख के बिस्तर से निकला और थाने जाने की तैयारी करने लगा ।
0 Comments