आगन्तुक कामता नाथ था ।
कामता नाथ किसी जमाने में सुनील का बड़ा अच्छा मित्र था और दोनों का काफी समय इकट्ठा गुजरा करता था । इन दिनों कामता नाथ मिनर्वा पिक्चर्ज का पब्लिक रिलेशन आफिसर था । फिर धीरे-धीरे कामता नाथ फिल्म निर्माण के चमक-दमक पूर्ण धन्धे में और गहरा धंसता चला गया । पहले वह सहायक निर्देशक बना, फिर निर्देशक बना और फिर बहुत बड़ा निर्देशक बन गया । आठ साल के अल्प समय में ही उसने भारतीय फिल्म उद्योग में अपना इतना अच्छा स्थान बना लिया था कि आज वह बड़ा ही निर्भर करने योग्य निर्देशक माना जाता था और अब वह सेठ उत्तमचन्दानी की डेढ करोड़ रुपये के बजट की भव्य प्रोडक्शन इन्कलाब का डायरेक्टर था, और उस फिल्म में सन्तोष कुमार और दमयन्ती माला जैसी भारतीय रजतपट की चोटी की टीम को डायरेक्ट कर रहा था । कामता नाथ बेहद व्यस्त आदमी बन गया था और सुनील और कामता नाथ की मुलाकातों का सिलसिला टूटता-टूटता इस हद तक टूट गया था कि अब या तो कामता नाथ उसे फिल्म उद्योग में होने वाली पार्टियों का निमन्त्रण पत्र भेजता था तो उसे मालूम होता था कि कामता नाथ नगर में ही था, किसी फिल्म की लोकेशन शूटिंग पर बाहर नहीं गया हुआ था और या फिर तीन चार महीन में एक बार कामता नाथ का फोन आता था जिसमें बार बार एक ही बात दोहराई जाती थी - यार कभी मिलते नहीं हो । कभी किसी पार्टी में नहीं आते हो । उत्तर में सुनील अगली पार्टी में जरूर-जरूर आने का वायदा करता था लेकिन फिर भी जाता कभी नहीं था । वजह केवल एक थी । उसे ऐसे पार्टियों में शामिल होने में बड़ी वहशत होती थी जहां उसे कोई जानता न हो । केवल एक बार वह ऐसी पार्टी में शामिल हुआ था । कामता नाथ ने उसमसे हाथ मिलाया था, उसे गले से लगाया था और फिर उसके हाथ में एक विस्की का गिलास थमाकर और ‘बी कम्फर्टेबल’ कहकर वहां से चला गया था ।
उसके बाद कामता नाथ को मेहमानों की भीड़ से निकल कर सुनील के पास आने का और उससे बात करने का अवसर नहीं मिला था । यहां तक कि भरपूर बोर हो चुकने के बाद जब वह चुपचाप वहां से खिसक गया था तो कामता नाथ को खबर भी नहीं लगी थी ।
बाद में यूथ क्लब में रमाकान्त के सामने उस पार्टी का जिक्र करते हुए सुनील ने कहा था - “उस रोज मुझे पहली बार मालूम हुआ था कि आप न केवल विस्की को पी सकते हैं बल्कि उससे बाकायदा होली खेल सकते हैं, उससे हाथ मुंह धो सकते हैं और नहा सकते हैं । दूसरे मैंने वहां मेकअप की एक इन्च मोटी परत के नीचे दबे, नकली प्रकाश में चमचमाते हुए नकली चेहरे देखे । मेरी राय में कथित खूबसूरत औरतें केवल अपना चेहरा धो लें तो उनका एकाध किलो वजन घट जाये ।”
सुनील द्वारा किया गया उस पार्टी का जिक्र काफी अरसे तक यूथ क्लब में मनोरंजन का विषय बना रहा था ।
आज कामता नाथ जब बड़े ही अप्रत्याशित ढंग से दनदनाता हुआ सुनील के ‘ब्लास्ट’ के दफ्तर में स्थित छोटे से केबिन में घुस आया तो तो सुनील के आश्चर्य का पारावार न रहा ।
“कैसे आये ?” - सुनील के मुंह से बरबस निकल गया ।
कामता नाथ ने भी खामखाह के तकल्लुफ में वक्त बरबाद नहीं किया । उसने दो टूक बात कही - “तुम्हारी सहायता की जरूरत है ।”
“मेरी सहायता ?”
“हां ! यह मत समझो कि तुमसे मुलाकात नहीं हो पाती इसलिये हमें यह भी मालूम होता कि तुम क्या गुल खिला रहे हो । मैं ‘ब्लास्ट’ में छपी और तुम्हारी कलम से लिखी एक-एक लाइन पढता हूं । तुम्हारे द्वारा सुलझाये केसों का विवरण पढकर मैं एक ही राय पर पहुंचा हूं कि अगर तुम अखबार के क्राइम रिपोर्टर होने के स्थान पर फिल्मों के लिये सस्पैंस की कहानियां लिखते तो बेहद कामयाब होते । आजकल तो वैसे ही फिल्म उद्योग में जासूसी और स्पाई फिल्में बनाने का रोग प्लेग की तरह फैला हुआ है । सीधे-सीधे फैमिली ड्रामा तक में तो क्राइम घुसाया जा रहा है । फिल्म का विषय कुछ भी क्यों न हो इण्टरवल के बाद या उसके आस पास एक खून जरूर हो जाता हैं और फिर जासूसी शुरू । और तो और...”
“बहको मत, प्यारे लाल” - सुनील उसे टोकता हुआ विनोदपूर्ण स्वर से बोला - “अगर तुम मुझे फिल्म उद्योग की सामयिक रिपोर्ट सुनाने लगे तो मतलब की बात भूल जाओगे ।”
“ओह, सॉरी” - कामता नाथ सकपकाकर बोला - “सॉरी अगेन ।”
सुनील चुप रहा ।
“मतलब की बात ही कहता हूं” - वह बोला - “तुम मेरे साथ चलो ।”
“कहां ?”
“मिनर्वा स्टूडियो ।”
“अभी ?”
“हां ।”
“वहां क्या होगा ?”
“वहां मैं तुम्हें उत्तमचन्दानी सेठ से मिलाऊंगा । उत्तमचन्दानी सेठ मिनर्वा स्टूडियो का मालिक है । डेढ करोड़ के बजट से बन रही फिल्म इन्कलाब का प्रोड्यूसर और भारत के विभिन्न नगरों में स्थित दस एयरकन्डीशन सिनेमा हालों का मालिक है ।”
“वह तो हुआ लेकिन तुम मुझे उससे क्यों मिलाना चाहते हो ?”
“भई, कहा न, हमें तुम्हारी सहायता की जरूरत है । सुनील, बड़ा लफड़ा हो गया है और भी ज्यादा बड़ा लफड़ा होने के आसार दिखाई दे रहे हैं । मैंने सेठ को तुम्हारे बारे में बताया था । सेठ तुमसे अभी का अभी मिलना चाहता है ।”
“लेकिन किस्सा क्या है ?”
“तुम, मेरे साथ चलो । किस्सा मैं तुम्हें वहीं चलकर बताऊंगा ।”
“लेकिन थोड़ा संकेत दे दो ।”
“मैं तुम्हें दो हजार रुपये दिलवाऊंगा ।”
“मैंने रुपये का संकेत नहीं मांगा था ।”
“ओह, अच्छा भई, फिलहाल इतना सुन लो कि ‘इन्कलाब’ के हीरो संतोष कुमार की हत्या की साजिश हो रही है ।”
“और तुम मुझे मिलवाने ले जा रहे हो सेठ उत्तमचन्दानी से ?”
“हां ! अगर संतोष कुमार मर गया तो पटड़ा तो उत्तमचन्दानी सेठ का ही होगा ।”
“क्यों ? कैसे ?”
“ये सवाल तुम इसलिये पूछ रहे हो क्योंकि फिल्म उद्योग में तुम्हारी रुचि नहीं है । भाई साहब, संतोष कुमार ‘इन्कलाब’ का हीरो है । ‘इन्कलाब’ डेढ करोड़ रुपये के बजट से बन रही है । तीन चौथाई फिल्म पूरी हो चुकी है । अगर ऐसे में कोई संतोष कुमार की हत्या करदे तो ‘इन्कलाब’ का क्या होगा ? उत्तमचन्दानीं सेठ क्या उस अधूरी फिल्म की शहद लगाकर चाटेगा । उसका तो सफासफा पटड़ा हो जायेगा ।”
“ओह !”
“अब उठो ।” - कामता नाथ उतावले स्वर से बोला ।
सुनील ने घड़ी पर दृष्टिपात किया । चार बजने को थे ।
“ओके ।” - वह बोला और उठ खड़ा हुआ ।
कामता नाथ भी उठ खड़ा हुआ ।
सुनील ने कुर्सी की पीठ पर लटका हुआ अपना कोट उतारा और उसे पहनता हुआ कामता नाथ के साथ अपने केबिन से बाहर निकल आया । एक ओर रेलिंग लगे लम्बे गलियारे में से गुजरते हुये वे बाहर की ओर बढे ।
रिसेप्शन डैस्क के पीछे बैठी रिसैप्शनिस्ट-कम-टेलीफोन आपरेटर रेणु ने एक उड़ती हुई दृष्टि कामता नाथ पर डाली और फिर ज्यों ही सुनील डैस्क के समीप से गुजरा वह बोल पड़ी - “मिस्टर सुनील, यूअर काल प्लीज ।”
सुनील ठिठका और डैस्क के समीप आ गया ।
कामता नाथ उससे दूर सीढियों की ओर जाने वाले द्वार के समीप ही खड़ा रहा ।
“यह आदमी कौन है ?” - रेणु ने पूछा ।
“मेरी काल थी ?” - सुनील बोला ।
“काल-काल कुछ नहीं है । मैंने पूछा है यह आदमी कौन है । मुझे इसकी सूरत पहचानी हुई मालूम होती है । मैंने जरूर इसे कहीं देखा है ।”
“सपनों में देखा होगा । है भी सपनों के शाहजादों जैसा ही खूबसूरत ।”
“बको मत ! यह आदमी... हां याद आ गया । इस बार की ‘स्क्रीन’ में इसकी तस्वीर छपी है । यह संतोष कुमार की फिल्म ‘इन्कलाब’ का डायरेक्टर द्वारका नाथ है न ?”
“कामता नाथ !”
“हां, कामता नाथ ! यहां क्या करने आया है यह ?”
“मेरा दोस्त है । मुझसे मिलने आया है ।”
“कामता नाथ तुम्हारा दोस्त है” - रेणु नेत्र फैलाकर बोली - “इतने बड़े-बड़े आदमी भी तुम्हारे दोस्त हैं ?”
“फिल्म डायरेक्टर बहुत बड़ा आदमी होता है क्या ?”
“और नहीं तो क्या ! अभिनेत्री बनने का इच्छुक खूबसूरत लड़कियां फिल्म डायरेक्टरों के आगे पीछे घूमती हैं ।”
“खूबसूरत लड़कियां तो मेरे भी आगे पीछे घूमती हैं ।” - सुनील अकड़ कर बोला ।
“तुम्हारे आगे पीछे कौन सी खूबसूरत लड़की घूमती है ?”
“तुम्हीं घूमती हो ।”
रेणु ने एक गहरी सांस ली और बोली - “शुक्र है । तुमने मुझे खूबसूरत तो माना । जबकि हमेशा तुम यही जाहिर करने की कोशिश करते हो कि अगर अन्धेरे में बच्चे मेरी सूरत देख लें तो चीखें मार-मार कर भाग निकलें ।”
“मैं जाऊं ?” - सुनील बोला - “एक भला आदमी मेरा इन्तजार कर रहा है ।”
“परवाह मत करो । फिल्म लाइन से सम्बन्धित लोग भले आदमी नहीं होते । वैसे भी वह तुमसे मिलने आया है तुम उससे मिलने नहीं गये हो । क्या चाहता है ?”
“तुम्हें बताना जरूरी है ?”
“मत बतलाओ ।” - रेणु मुंह फुलाकर बोली ।
“किसी ने इसे यह कह दिया है कि मैं शरलाक होम्ज का भी बाप हूं । इसलिये मेरी सहायता मांगने चला आया है ।”
“किस विषय में ?”
“कोई अभिनेत्री प्याला सिन्हा की अड़तीस साइज की काले रंग की ब्रेसियर और गुलाबी रंग की लिपस्टिक चुराकर ले गया है । मुझे चोर का पता लगाने का काम सौंपा गया है ।”
“नहीं ।” - रेणु अविश्वासपूर्ण स्वर में बोली ।
“मैं सच कह रहा हूं ।”
“उस काली ब्रेसियर और गुलाबी लिपस्टिक में ऐसी कौन-सी करामात है जो...”
“प्याला सिन्हा कहती है कि वे दोनों चीजें उसके लिये बहुत शुभ हैं । उन दोनों चीजों की वजह से ही वह इतनी बड़ी सिनेमा स्टार बनी है ।”
“आखिर किसी को ये चीजें चुराने की क्या जरूरत थी ?”
“कोई नहीं चाहता होगा कि प्याला सिन्हा प्रसिद्ध सिनेमा स्टार बनी रहे । तुमने उस जिन्न की कहानी तो सुनी ही होगी जिसकी जान तक तोते में थी । बिल्कुल उसी प्रकार अभिनेत्री प्याला सिन्हा की जान उस ब्रेसियर में है, विशेष रुप से बांये कप में ।”
“शटअप ! तुमने यह बेहूदा काम स्वीकार कर लिया है ?”
“हां ।”
“वह चोर तो अहमक है ही जो ये दो बेहूदी चीजें चुराकर ले गया है । तुम उससे ज्यादा बड़े अहमक हो जो उनकी तलाश में जा रहे हो ।”
“अपना अपना ख्याल है, मैडम । जरा सोचो, अगर मैं कामयाब हो गया तो कितना मजा आयेगा । आखिर प्याला सिन्हा की उस स्पेशल ब्रेसियर को करीब से देखने या छू पाने का सौभाग्य कितने आदमियों को प्राप्त हुआ है ।”
“लानत है ।” - रेणु होंठ सिकोड़ कर बोली ।
“लानत तो है ही । साथ ही अच्छा खासा फायदा भी है ।”
“फायदा क्या है ?”
“कामता नाथ कहता है कि अगर मैं प्याला सिन्हा की अड़तीस साइज की काली ब्रेसियर और गुलाबी लिपस्टिक तलाश करने में सफल हो गया तो वह मुझे भी सिनेमा स्टार बना देगा और मुझे प्याला सिन्हा के ही साथ इन्ट्रोड्यूस करेगा ।”
“तुम और सिनेमा स्टार बनोगे ?”
“क्या खराबी है मुझमें ?”
“कभी शीशे में मुंह देखा है ।”
“अभी सुबह ही देखा था ।”
“कैसा लगा ?”
“संतोष कुमार की सूरत मेरे से जरा ही अच्छी है । और फिर कामता नाथ कहता है कि मेकअप के बाद मैं बहुत खूबसूरत लगने लगूंगा ।”
“आल राइट ! बधाई हो । अगर सिनेमा स्टार बन जाओ तो मुझे चिट्ठी लिख देना ।”
“ओके ! और चिट्ठी के साथ अपनी पहली फिल्म का फ्री पास भी भेज दूंगा ।”
“पास रहने देगा । तीन घन्टे लगातार अगर मैं तुम्हारी सूरत देखती रही तो दो तीन महीने मुझे नींद नहीं आयेगी ।”
“अगर ऐसी बात है तो पास अपनी किसी ऐसी सहेली को दे देना जिससे तुम्हारी पक्की दुश्मनी हो ।”
रेणु चुप रही ।
“अब मैं जाऊं मेम साहब ।”
“शौक से । मैं मलिक साहब को बता दूं कि तुम हमेशा के लिये जा रहे हो ? अब लौटकर नहीं आओगे ।”
“पहले मैं अपने मिशन में कामयाब तो हो जाऊं । पहले मैं वह तोता तो तलाश कर लूं जिसमें जिन्न की जान है अर्थात वह ब्रेसियर तो तलाश कर लूं जिसमें अभिनेत्री प्याला सिन्हा की जान है । तुम क्या इसे कोई आसान काम समझती हो ?”
“तुम्हारा दोस्त दरवाजे पर खड़ा बोर हो रहा है ।”
“जा रहा हूं ।”
और सुनील जाने के लिये घूमा ।
“एक काम और करना ।” - रेणु एकाएक बोली ।
“क्या ?”
“जब प्याला सिन्हा की ब्रेसियर तलाश कर लो तो साइज चैक कर लेना और यह भी देख लेना कि कपों के भीतर रुई की पर्त कितनी मोटी है ।”
“तुम कौन सा साइज पहनती हो ?”
रेणु का चेहरा लाल हो गया । उसने घूरकर सुनील की ओर देखा और फिर उसकी ओर से दृष्टि फिरा ली ।
सुनील कामता नाथ के समीप पहुंचा ।
“बोर हो गये ?” - सुनील उसके साथ सीढियां उतरता हुआ बोला ।
“कतई बोर नहीं हुआ” - कामता नाथ बोला - “मैं तो बड़ी दिलचस्पी से तुम्हें उस लड़की के साथ बातें करता देख रहा था । मुझे अपनी अगली फिल्म के लिये हीरो और हीरोइन की पहली मुलाकत का बड़ा बढिया शाट सूझ गया है ।”
सुनील चुप रहा ।
“सुनील” - कामता नाथ बोला - “वह लड़की तुम पर मरती है ।”
“अच्छा !”
“और तुम भी उस पर मरते हो ।”
“कैसे जाना ?”
“तुम दोनों का एक-एक ऐक्शन तुम्हारी चुगली कर रहा था । वैसे तर्क के रूप में यह भी कहा जा सकता है कि अगर तुम्हारी उसमें गहरी दिलचस्पी न होती तो तुम मुझे द्वार पर खड़ा छोड़ कर पांच मिनट तक उससे गप्पे नहीं हांकते रहते ।”
“केवल दो मिनट ।” - सुनील तनिक विरोधपूर्ण स्वर से बोला ।
“पांच मिनट से एक सैकेण्ड भी कम नहीं” - कामता नाथ बोला - “इश्क में डूबे हुए इन्सान की वक्त की सैंस नहीं रहती ।”
“तुम एक मिनट यहां ठहरो” - सुनील विषय परिवर्तन करता हुआ बोला - “मैं पार्किंग में से मोटर साइकिल निकालकर लाता हूं ।”
“मोटर साईकिल वहीं रहने दो” - कामता नाथ जल्दी से बोला - “मैं गाड़ी लेकर आया हूं ।”
“अच्छा ।”
कामता नाथ सुनील को साथ लेकर फुटपाथ के किनारे खड़ी एक इम्पाला की ओर बढा ।
एक वर्दीधारी ड्राइवर ने फुर्ती से कार बाहर निकाली और उसने बड़ी तत्परता से कार का पिछला दरवाजा खोल दिया ।
दोनों कार में बैठ गये ।
ड्राइवर अपनी सीट पर जा बैठा । उसने गाड़ी को स्टार्ट किया और फिर उसे ट्रैफिक में डाल दिया ।
“तुम्हारी है ?” - सुनील ने पूछा ।
“क्या ?” - कामता नाथ बोला - “गाड़ी ?”
“हां ।”
“नहीं ! उत्तमचन्दानी सेठ की है । मेरे पास तो भाई एक पुरानी सी फियेट है और उसे मैं खुद चलाता हूं । और संयोगवश वह भी आज बिगड़ी पड़ी है ।”
सुनील चुप हो गया ।
उसने अपना लक्की स्ट्राइक का पैकेट निकाला और फिर दोनों ने एक-एक सिगरेट सुलगा लिया ।
***
विशाल इम्पाला गाड़ी मिनर्वा स्टूडियों के फाटक से भीतर प्रविष्ट हुई ।
द्वार पर खड़े गोरखे ने ठोक कर सलाम मारा । सलाम उस ने गाड़ी के भीतर मौजूद सुनील और कामता नाथ को नहीं मारा था, बल्कि इम्पाला गाड़ी को मारा था । क्योंकि गाड़ी उत्तमचन्दानी सेठ की थी और उत्तमचन्दानी सेठ मिनर्वा स्टूडियों का मालिक था और गोरखे का भी मालिक था । उत्तमचन्दानी सेठ बहुत पैसे वाला आदमी था और पिछले कई सालों से बम्बई के फिल्म उद्योग में बिजली के खम्बे की तरह गड़ा हुआ था । गरीब आदमी ऐसे पैसे वाले की कार को तो क्या उसके कुत्ते को भी सलाम मार सकता है ।
गाड़ी एक दो मन्जिली इमारत के सामने आकर रुकी ।
सुनील कामता नाथ के साथ गाड़ी से बाहर निकल आया ।
इमारत के सामने और भी चार पांच गाड़ियां खड़ी थीं । उनमें से एक गाड़ी ने सुनील का ध्यान विशेष रूप से आकर्षित किया । वह एक गहरे लाल रंग की, छोटी सी, बेहद खूबसूरत गाड़ी थी और उस माडल की गाड़ी सुनील ने भारत में पहले कभी नहीं देखी थी ।
“आओ ।” - कामता नाथ उसकी बांह पकड़कर इमारत के भीतर की ओर कदम बढाता हुआ बोला ।
“बहुत खूबसूरत है ।” - सुनील बोला ।
“दुल्हन !” - कामता नाथ बोला - “हां वाकई बहत खूबसूरत है ।”
सुनील ने एक बार हैरानी से कामता नाथ की ओर देखा और फिर बोला - “भई, मैं किसी दुल्हन का नहीं, उस लाल रंग की विदेशी गाड़ी का जिक्र कर रहा था ।”
“मैं भी उसी का जिक्र कर रहा हूं” - कामता नाथ बोला - “यह गाड़ी संतोष कुमार की है । पिछले दिनों हम लोग इन्कलाब की लोकेशन शूटिंग पर योरोप वगैरह गये थे । संतोष कुमार इसे इटली से लाया है और उसे हमेशा दुल्हन के नाम से पुकारता है ।”
“ओह !”
“और इसके साथ उसका लगाव भी वैसा ही है, जैसा नई दुल्हन के साथ होता है । संतोष कुमार के पास चार नई, खूबसूरत, चमचमाती हुई गाड़ियां और भी हैं लेकिन जब से वह ‘दुल्हन’ लाया है उसने कोई दूसरी गाड़ी इस्तेमाल नहीं की है । आजकल वह हर जगह इसी गाड़ी पर जाता है और इसे हमेशा खुद ही ड्राइव करता है ।”
“आई सी ।”
“इस गाड़ी पर आजकल वह कितना फिदा है, इसकी एक बात सुनाता हूं तुम्हें । ...आओ भीतर चलें ।”
सुनील दुल्हन पर एक आखिरी निगाह डालकर कामता नाथ के साथ हो लिया ।
“क्या बात सुना रहे थे तुम ?” - रास्ते में सुनील ने पूछा ।
“इन्कलाब का यूनिट लेकर लोकेशन शूटिंग पर योरोप जाने से पहले राजनगर मे ही एक फिल्म के लिये एक ‘चेज’ (पीछा करने) के सीन की शूटिंग की गई थी । कहानी के अनुसार खलनायक हीरोइन को अपने अधिकार में कर लेता है और अपने साथियों के साथ एक कार में भाग निकलता है । हीरो उसका पीछा करता है । जब हम लोग योरोप से वापस लौटे तो संतोष कुमार जिद करने लगा कि ‘चेज’ के उस दृश्य की शूटिंग दुबारा से की जाये और इस बार उसे दृश्य में लाल गाड़ी को अर्थात ‘दुल्हन’ को ड्राइव करता हुआ दिखाया जाये । मैंने और उत्तमचन्दानी सेठ ने उसे बहुत समझाया कि उस दृश्य की दुबारा शूटिंग करने में बड़ा लफड़ा होगा । हीरोइन से डेट लेनी पड़ेगी, खलनायक से डेट लेनी पड़ेगी और फिल्म पहले ही लेट हुई जा रही है, लेकिन कौन सुनता था । संतोष कुमार अपनी जिद पर अड़ा रहा । अन्त में उत्तमचन्दानी सेठ को ही हथियार डालने पड़े, और उस दृश्य की शूटिंग दुबारा की गई और इस बार संतोष कुमार को अपनी चहेती गाड़ी ‘दुल्हन’ ड्राइव करता हुआ दिखाया गया ।”
“कमाल है ! ऐसी बेहूदा मांग पेश करते हैं ये लोग ?”
“और लोग नहीं करते । संतोष कुमार करता है । क्योंकि वह भारतीय रजत पट का सबसे बड़ा अभिनेता है और जितना वह बड़ा अभिनेता है, उतना ही वह बददिमाग भी है । अगर वह ऐसी हरकतें नहीं करें तो बड़ा स्टार कैसे कहलवाये ।”
“तुम फिल्म के डायरेक्टर हो । तुम ऐतराज नहीं करते ?”
“अजी, मैं किस खेत की मूली हूं । संतोष कुमार की किसी बात पर एतराज करने की हिम्मत तो खुद उत्तमचन्दानी सेठ की नहीं होती । मुझे तो वह वैसे ही घास नहीं डालता । सच पूछो तो मैं तो इन्कलाब का नाम मात्र का ही डायरेक्टर हूं । फिल्म तो खुद संतोष कुमार ही डायरेक्ट कर रहा है । सैट पर वह होता है जो संतोष कुमार कहता है । कैमरे के ऐंगल तक तो वह खुद चुनता है । अपने आपको हरफनमौला जाहिर करना चाहता है इसलिये बड़े इतमीनान से हर बात में टांग अड़ाता है । हीरोइन का मेकअप और एकस्ट्राओं की ड्रैसें तक वह खुद चैक करता है । शूटिंग आरम्भ होने से पांच मिनट पहले डायलाग बदलवाने की फरमायश कर देता है । फिल्म की एडिटिंग भी अपनी देख-रेख में करवाता है । सैट पर गलती हो जाने पर छोटे मोटे कलाकार को तो थप्पड़ तक मार देता है ।”
“कमाल है ।”
“और सुनो ! फिल्म की हीरोइन दमयन्ती माला से उसकी बनती नहीं । कई बार सैट पर झगड़े हो चुके हैं । संतोष कुमार कहता है, वह दमयन्ती माला के साथ काम नहीं करेगा और दमयन्ती माला कहती है कि वह खुद उसकी सूरत से बेजार है । लगभग छ: महीने पहले झगड़ा इतना बढ गया था कि मद्रास में एक फिल्म बन रही थी । ‘दो भाई’ । उसमें भी संतोष कुमार और दमयन्ती माला ही काम कर रहे हैं । संतोष कुमार ने उस फिल्म में से दमयन्ती माला को निकलवा दिया ।”
“अरे !”
“हां ! वह तो ‘इन्कलाब’ में से भी दमयन्ती माला को निकलवाना चाहता था लेकिन फिल्म क्योंकि तीन चौथाई बन चुकी है इसलिये उसे फिल्म से निकलवाना सम्भव नहीं था । वर्तमान स्थिति में अगर दमयन्ती माला को ‘इन्कलाब’ में से निकाला जाता तो उत्तमचन्दानी सेठ का कम से कम पिचहत्तर लाख रुपया डूब जाता । अब हालत यह है कि इन्कलाब की शूटिंग के लिये जब वे दोनों सैट पर आते हैं तो एक का मुंह उत्तर की ओर होता है तो दूसरे का दक्षिण की ओर । तुम ही सोचो, एक दूसरे की सूरत से बेजार हीरो हीरोइन कैमरे के सामने आकर क्या प्रेम प्रदर्शन कर सकेंगे । और बेचारा डायरेक्टर कामता नाथ शाट तैयार होने तक वह सन्तोष कुमार और दमयन्ती माला के बीच में फुटबाल की तरह उछाला जाता है । मैं कभी एक के पांव पकड़ता हूं तो कभी दूसरे के हाथ जोड़ता हूं । एक को खुश करने के लिये मक्खन लगाता हूं तो दूसरा नाराज हो जाता है । अजीब मुसीबत । भगवान कसम, जिस दिन ‘इन्कलाब’ की शूटिंग खतम होगी मैं तो उस दिन सारे शहर में प्रसाद बांटूंगा और स्वयं को उतना स्वतन्त्र समझूंगा जितना उम्र कैद से छूटकर आया हुआ आदमी अपने आपको समझता है ।”
“बड़ी अनोखी बातें बता रहे हो, उस्ताद ! मेरे दिमाग में तो फिल्मी सितारों की और फिल्म उद्योग की बड़ी ऊंची कल्पना थी ।”
कामता नाथ एक विद्रूपपूर्ण हसी हंसा ।
कामता नाथ गलियारे के सिरे पर स्थित एक द्वार के सामने रुका । उसने द्वार पर लगे शीशे में से भीतर झांका और फिर सुनील से बोला - “आओ ।”
सुनील कामता नाथ के पीछे कमरे में प्रविष्ट हो गया ।
वह एक विशाल और सुसज्जित आफिस था । आबनूस की विशाल मेज के पीछे एक लगभग पचास वर्ष का सूटबूट धारी स्वस्थ व्यक्ति बैठा हुआ था । उसके सामने पड़ी आधी दर्जन कुर्सियों में से दो पर दो व्यक्ति बैठे हुए थे ।
“सेठ जी, यह सुनील है” - कामता नाथ मेज के पीछे बैठे व्यक्ति का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता हुआ बोला - “जिसका जिक्र मैंने आपसे किया था । और सुनील, ये हैं सेठ उत्तमचन्दानी ।”
सुनील ने भावहीन ढंग से दोनों हाथ जोड़ दिेये ।
सेठ सुनील की ओर देखकर मुस्कराया । फिर वह अपने सामने बैठे दो व्यक्तियों की ओर देखकर बोला - “अभी तुम लोग छुट्टी करो । मैं तुम्हें फिर बुलाऊंगा ।”
दोनों आदमी अपने स्थान से उठ खड़े हुए ।
“और जब तक मैं न कहूं किसी को भीतर मत आने देना ।” - सेठ बोला ।
दोनों ने सहमतिसूचक ढंग से सिर हिलाया, सेठ का अभिवादन किया और उत्सुकतापूर्ण नेत्रों में सुनील को देखते हुए कमरे से बाहर निकल गये ।
सेठ उत्तमचन्दानी ने एक बार सिर से पांव तक सुनील को देखा और फिर बोला - “बैठो ।”
कामता नाथ और सुनील सेठ के समीप की दो कुर्सियों पर बैठ गये ।
“कामता नाथ” - सेठ उत्तमचन्दानी बोला - “तुमने इसे कुछ बताया है ?”
“लगभग कुछ भी नहीं” - कामता नाथ बोला - “मैंने सोचा शायद आप सुनील से खुद बात करना चाहें ।”
“एक ही बात है ।”
“मैंने सुनील को केवल इतना बताया है कि कोई सन्तोष कुमार को मार डालने की कोशिश कर रहा है ।”
सेठ उत्तमचन्दानी ने एक गहरी सांस ली और फिर सुनील से बोला - “तुम फिल्म निर्माण के धन्धे के बारे में कुछ जानते हो ?”
“नहीं ।” - सुनील बोला ।
“फिल्में देखते हो ?”
“हां ।”
“कभी सन्तोष कुमार को फिल्म देखी है ।”
“देखी है । कई देखी हैं ।”
“कैसा ऐक्टर लगता है तुम्हें ?”
“बहुत अच्छा ऐक्टर है । वाकई जानता है कि ऐक्टिंग क्या होती है ?”
“तुम ठीक कह रहे हो । सन्तोष कुमार वाकई बहुत बढिया ऐक्टर है इसीलिये इस सफेद हाथी को मैंने अपनी फिल्म में लिया था । मिस्टर, एक फिल्म में काम का जितना पैसा संतोष कुमार मांगता है उतने पैसे में शांताराम चार रंगीन फिल्में तैयार कर लेता है ।”
सुनील चुप रहा ।
“सिगरेट पियो ।” - सेठ बोला और उसने स्टेट एक्सप्रैस का डिब्बा सुनील की ओर बढा लिया ।
“थैंक्यू” - सुनील बोला - “मैं अपना ब्रांड पीता हूं ।”
और सुनील ने अपनी जेब से लक्की स्ट्राइक का पैकेट निकाल लिया ।
कामता नाथ ने स्टेट एक्सप्रैस के डिब्बे में से एक सिगरेट निकाल लिया ।
“आप !” - सुनील सेठ की ओर देखता हुआ बोला ।
“मैं सिगरेट नहीं पीता” - सेठ उदास स्वर में बोला - “मेरा डाक्टर मुझे सिगरेट नहीं पीने देता । मैं लोगों को सिगरेट पीते देखकर और वातावरण में से सिगरेट का धुंआ सूंघ कर ही संतोष कर लेता हूं ।”
“ओह !” - सुनील बोला । उसने पहले कामता नाथ का और फिर अपना सिगरेट सुलगा लिया ।
“सन्तोष कुमार” - उत्तमचन्दानी सेठ सावधानी से शब्द चयन करता हुआ बोला - “जितना बढिया अभिनेता है, उतना ही घटिया इन्सान है । सन्तोष कुमार में इतना ज्यादा अहम भर गया है कि वह अपने मुकाबले में दूसरे आदमी को कलाकार तो क्या, इन्सान भी नहीं समझता । जनता सन्तोष कुमार को पसन्द करती है क्योंकि सन्तोष कुमार उनके सामने एक अभिनेता के रूप में आता है, एक इन्सान के रूप में नहीं । सन्तोष कुमार फिल्म की बाक्स आफिस पर सफलता की गारन्टी होती है इसलिये बड़े निर्माता उसे अपनी फिल्म में लेते हैं और अब उसे ले लेते हैं तो उस मनहूस दिन को हजार हजार गालियां देते हैं जब उन्होंने सन्तोष कुमार को साइन किया था । ऐसा ही दुखदाई इन्सान है सन्तोष कुमार । निर्माता को वह अपनी बेहूदी हरकतों से और वाहियात मांगों से इतना तंग कर देता है कि निर्माता आत्महत्या करने का विचार करने लगता है । यही वजह है कि इतना उच्च कोटि का कलाकार होते हुए भी उसके पास कोई फिल्म नहीं है । कोई उसे अपनी नई फिल्म में नहीं ले रहा है । वह इस समय सिर्फ एक फिल्म में काम कर रहा है और वह है मेरी फिल्म इन्कलाब ।”
उत्तमचन्दानी सेठ एक क्षण रूका और फिर बोला - “भाई साहब, पब्ल‍िक बड़ी बेरहम है, सिनेदर्शक बहुत हरजाई है । किसी स्टार की मार्केट में कोई फिल्म न आये तो वे उसे यूं भूल जाते हैं जैसे उसका कभी अस्तित्व ही नहीं था । जब कोई अभिनेता सिने दर्शकों को निगाहों से गिर जाता है तो वह कितना ही बड़ा स्टार क्यों न हो, वह फिल्म निर्माताओं की निगाहों से भी गिर जाता है और फिर धीरे धीरे उसका फिल्म कैरियर खत्म हो जाता है । सन्तोष कुमार यह बात अपने मुंह से कभी नहीं मानेगा । लेकिन यह हकीकत है कि उसकी बददिमागी और उसका अक्खड़पन उसका कैरियर तबाह किये दे रहे हैं । आज सन्तोष कुमार बहुत बड़ा स्टार है लेकिन मेरी फिल्म रिलीज होने के बाद अगर एक साल तक इसकी कोई फिल्म घोषित न हो तो जनता भूल जायेगी कि कभी सन्तोष कुमार नाम का कोई स्टार था । वे उस समय के अन्य मशहूर अभिनेताओं में सन्तोष कुमार का विकल्प तलाश कर लेंगे और फिर छुट्टी । मैं ठीक कह रहा हूं, कामता नाथ ?”
“जी हां ।” - कामता नाथ ने गम्भीरता से सहमतिसूचक ढंग से सिर हिलाया ।
“सन्तोष कुमार भी यह अनुभव करता है कि कोई निर्माता उसे साइन नहीं कर रहा है । सन्तोष कुमार फिल्मी अखबारों और पत्रिकाओं के माध्यम से इस बात का प्रचार करने की कोशिश कर रहा है कि वास्तव में उसे फिल्में तो बहुत ऑफर की जा रही हैं लेकिन वह जानबूझ कर कोई कांट्रेक्ट स्वीकार नहीं कर रहा है ।”
“क्यों ?” - सुनील ने पूछा ।
“वह कहता है कि हालीवुड के बड़े अभिनेताओं की तरह अब वह भी भविष्य में एक समय में केवल एक ही फिल्म में अभिनय किया करेगा । इस प्रकार उसे अपनी अभिनयक्षमता का प्रदर्शन करने का ज्यादा अच्छा अवसर मिलेगा । लेकिन हकीकत खुल ही जाती है । जिन अखबारों से सन्तोष कुमार की बनती नहीं वे साफ-साफ छाप देते हैं कि सन्तोष कुमार झूठ बोल रहा है । वास्तव में कोई निर्माता उसे अपनी फिल्म में लेने के लिये तैयार ही नहीं है ।”
“आप यह कहना चाहते हैं कि आपकी फिल्म पूरी हो जाने के बाद इतना बड़ा और इतना प्रसिद्ध स्टार बेकार हो जायेगा ।”
“बेकार तो शायद नहीं होगा लेकिन आज जितना चर्चा का विषय भी वह नहीं बना रह पायेगा । अव्वल तो कोई न कोई ऐसा निर्माता निकल ही आयेगा जो उसकी बददिमागी के बावजूद भी उसे अपनी फिल्म में लेने को तैयार हो जायेगी । नहीं तो वह खुद पैसे वाला आदमी है, अपनी फिल्म खुद बनानी आरम्भ कर देगा । लगभग आठ साल पहले उसने एक फिल्म बनाई भी थी जो खूब चली थी ।”
“सेठ साहब” - सुनील तनिक बोर होता हुआ बोला - “संतोष कुमार का जीवन चरित्र तो मैं खूब समझ गया अब आप यह तो बताइये के वास्तव में किस्सा क्या है और मैं - एक गैर फिल्मी आदमी - इस तस्वीर में कहां फिट होता हूं ।”
“वही बताने जा रहा हूं ।” - उत्तमचन्दानी सेठ बोला । फिर वह कामता नाथ की ओर आकर्षित होकर बोला - “मैं बताऊं या तुम बताओगे ?”
“आप ही बताइये । अगर आप कुछ भूल रहे होंगे तो मैं याद दिला दूंगा ।” - कामता नाथ बोला ।
“ओके” - सेठ बोला और फिर सुनील से सम्बोधित हुआ - “यह तो कामता नाथ तुम्हें बात ही चुका है कि कोई सन्तोष कुमार को मार डालने की कोशिश कर रहा है । मैं तुम्हें बताता हूं शुरुआत कैसे हुई ।”
सेठ ने अपने कोट की भीतरी जेब में से एक पर्स निकाला । उस पर्स में से उसने एक तह किया हुआ कागज बाहर निकाला और पर्स वापिस अपनी जेब में रख लिया । उसने कागज को खोला और उसे सुनील की तरफ बढा दिया ।
सुनील ने कागज ले लिया ।
वह एक पत्र था । पत्र अंग्रेजी में लिखा हुआ था और उसका आशय यह था -
सन्तोष कुमार ।
शीघ्र ही तुम इस संसार से विदा होने वाले हो । मैंने तुम्हें जान से मार डालने की कसम खाई है । यह पत्र मैं तुम्हें सावधान करने के लिये लिख रहा हूं । अगर मेरे हाथों से बच सकते हो तो कोशिश कर देखो ।
नीचे किसी के हस्ताक्षर नहीं थे ।
“यह पत्र सन्तोष कुमार के पास डाक से पहुंचा था ?” - सुनील ने पूछा ।
“नहीं” - उत्तमचन्दानी बोला - “पत्र लिखने वाले ने संतोष कुमार तक यह पत्र पहुंचाने का बड़ा अनोखा तरीका इस्तेमाल किया था ।”
“क्या ?”
“उस दिन सन्तोष कुमार की शूटिंग थी । हमारे ड्रैस मेकर के पास से उसके लिये एक नया सूट सिलकर आया था जो सन्तोष कुमार ने उस दिन की शूटिंग के लिये पहनना था । सन्तोष कुमार ने उस सूट को पहना था और उस सूट की जेब में ही यह पत्र मौजूद था ।”
“इस पत्र की सन्तोष कुमार पर क्या प्रतिक्रिया हुई थी ?”
“उसने समझा था कि किसी ने उसके साथ मजाक किया था । वह बहुत आग बबूला हुआ था ।”
“इस पत्र ने उस रोज संतोष कुमार का इतना मूड बिगाड़ दिया था कि चार घन्टे की मेहनत के बावजूद भी एक शाट ओके नहीं हो पाया था । चौदह रिटेक के बाद तंग आकर पैक अप कर दिया गया था ।” - कामता नाथ बोला ।
“यह मालूम नहीं हो सका कि सूट की जेब में यह पत्र किसने रखा था ?” - सुनील ने पूछा ।
“कैसे मालूम होता ?” - उत्तमचन्दानी सेठ हाथ फैलाकर बोला - “यह सूट तो पता नहीं कितने हाथों से गुजरा था और ड्रैस मेकर के यहां और स्टूडियों में कितनी देर असुरक्षित पड़ा रहा था । हमारे पास तो यह जानने का भी कोई साधन नहीं था कि वह चिट्ठी सूट की जेब में ड्रैस मेकर के यहां रखी थी, रास्ते में रखी गई थी या स्टूडियो में रखी गई थी । स्टूडियो में सैकड़ों आदमी काम करते हैं । सैकड़ों आदमी आते जाते हैं । क्या पता वह शरारत किस की थी ।”
“पुलिस को सूचना दी गई थी ?”
“नहीं” - सेठ बोला - “हर किसी का यही ख्याल था कि वह एक बेहूदा मजाक था और पुलिस को सूचना देने की जरूरत नहीं थी ।”
“मैंने कहा था कि चिट्ठी पुलिस को दिखाई जाये” - कामता नाथ बोला - “चिट्ठी टाइप की हुई थी और मैंने सुना था कि पुलिस वालों के पास ऐसे साधन होते हैं जिससे वे यह पता लगा लेते हैं कि चिट्ठी कौन से टाईपराइटर पर टाईप की गई थी और फिर चिट्ठी भेजने वाले का भी पता लगाया जा सकता था । लेकिन मेरी किसी ने सुनी नहीं थी ।”
“बाद में” - सेठ बोला - “गुस्सा उतर जाने पर सन्तोष कुमार ने भी कहा था कि अच्छा हुआ पुलिस को सूचना नहीं दी गई थी । उसका ख्याल था कि शायद उसके किसी मित्र ने ही यह मजाक किया हो । अगर पुलिस को खबर की गई और पुलिस ने उसे तलाश कर लिया तो वह खामखाह मुसीबत में फंस जायेगा ।”
“यह तो कोई समझदारी की बात नहीं हुई ।” - सुनील बोला ।
“मैं मानता हूं” - सेठ सहमति सूचक ढंग से सिर हिलाता हुआ बोला - “लेकिन अभी तो आगे सुनो । बाद में तो इससे भी ज्यादा मूर्खतापूर्ण बातें हुई और अभी तक हो रही हैं ।”
“बाद में क्या हुआ ?” - सुनील ने पूछा ।
“चिट्ठी वाली घटना से पांच दिन बाद की बात है” - सेठ बोला - “इन्कलाब के लिये इसी स्टूडियो में एक क्लब का सैट लगाया गया था । जिस दृश्य की शूटिंग होनी थी उसमें खलनायक ने हीरो पर रिवाल्वर से गोलियां चलानी थीं । ऐसे दृश्यों में रिवाल्वर में नकली गोलियां भरी जाती हैं जो चलाये जाने पर ढेर सारा धुंआ फैलाती हैं और जोर की आवाज करती हैं । शूटिंग से पहले खलनायक रामचन्द्र को नकली गोलियों से भरा हुआ रिवाल्वर सौंप दिया गया था ।”
“रिवाल्वर में नकली गोलियां मैंने अपने हाथों से भरी थीं और एक फायर करके रिवाल्वर को टैस्ट भी किया था ।” - कामता नाथ बोला ।
“करैक्ट” - सेठ बोला - “कामता नाथ सैट पर रोशनियां वगैरह ठीक करवा रहा था और खलनायक रामचन्द्र, सन्तोष कुमार और मैं मेकअप रूम मैं बैठे हुये शाट तैयार होने की प्रतीक्षा कर रहे थे । रामचन्द्र ने रिवाल्वर को अपने सामने मेज पर रखा हुआ था । हम लोग बातें कर रहे थे । बातों बातों में अनजाने में ही सन्तोष कुमार ने रिवाल्वर उठा ली । वह कितनी ही देर रिवाल्वर को अपने हाथों में उलटता-पलटता रहा, फिर एकाएक उसे पता नहीं क्या सूझा उसने रिवाल्वर को सीधा किया और फायर कर दिया । रिवाल्वर में से गोली निकली - असली गोली निकली, मिस्टर सुनील - और रामचन्द्र के कान के पास से होती हुई उसके पीछे लगे विशाल शीशे से टकराई और शीशे के परखचे उड़ गये ।”
सेठ उत्तमचन्दानी चुप हो गया ।
सुनील उसके दुबारा बोलने की प्रतीक्षा करने लगा ।
“मिस्टर सुनील” - सेठ बोला - “रामचन्द्र फिल्मों में क्रूर खलनायक का रोल जरूर करता है लेकिन वास्तव में बड़ा डरपोक आदमी है । ज्यों ही उसे यह अहसास हुआ कि अभी उसका भेजा उड़ जाने वाला था, वह बेहोश होता-होता बचा । उसका चेहरा कागज की तरह सफेद हो गया और कितनी ही देर उसके मुंह से बोल नहीं फूटा । मेरी अपनी बुरी हालत थी । मैं हक्का बक्का सा कभी टूटे हुए शीशे को और कभी सन्तोष कुमार के हाथ में थमी रिवाल्वर को देख रहा था । संतोष कुमार कुछ क्षण तो पत्थर का बुत बना बैठा रहा । फिर वह जोर से चिल्लाया और उसने अपने हाथ से रिवाल्वर यूं झटकी जैसे अभी तक वह रिवाल्वर नहीं जीवित सांप थामे हुये था ।”
सेठ एक क्षण रुका और फिर बोला - “सन्तोष कुमार की चीख सुनकर कर्मचारियों की भीड़ मेकअप रूम में घुस आई । तब तक आतंक की स्थिति गुजर चुकी थी मैंने कर्मचारियों को मेकअप रूम से बाहर निकाला और कामता नाथ को रिवाल्वर उठाने का संकेत किया ।”
“रिवाल्वर में अभी एक और असली गोली मौजूद थी ।” - कामता नाथ ने बताया ।
“रामचन्द्र के होश जब ठिकाने आये” - सेठ बोला - “तो वह सन्तोष कुमार से भिड़ गया और बाकायदा मार कुटाई पर उतर आया । मैंने और कामता नाथ ने बड़ी मुश्किल से दोनों को अलग किया और रामचन्द्र को समझाया कि सन्तोष कुमार को यह थोड़े ही मालूम था कि किसी ने रिवाल्वर में असली गोलियां रख दी हैं । उल्टा खुद संतोष कुमार शूटिंग के दौरान में रामचन्द्र के हाथों उन गोलियों का शिकार बनने वाला था । रामचन्द्र को जब बात समझ में आई तो वह शान्त हो गया ।”
“उस घटना की रिपोर्ट पुलिस में की गई थी ?” - सुनील ने पूछा ।
“नहीं ।” - उत्तमचन्दानी सेठ कठिन स्वर से बोला ।
सुनील ने हैरानी से सेठ की ओर देखा और बोला - “वजह ?”
“संतोष कुमार नहीं माना था” - सेठ बोला - “दहशत की स्थिति गुजर जाने के बाद संतोष कुमार क्रोध से आग बबूला हो गया था और चिल्ला-चिल्ला कर कहने लगा था कि जो आदमी ऐसी बेहूदी हरकतें कर रहा है, वह खुद उसे तलाश कर के उसका गला घोंट देगा ।”
“लेकिन यह तो कोई समझदारी की बात नहीं हुई । आखिर उसको पुलिस को बुलाने में एतराज क्या था ?”
“एक बड़ी ही लचर सी बात कही थी उसने । कहता था कि वह लाखों लोगों का मनपसन्द हीरो है । अगर वह पुलिस के चक्कर में पड़ गया तो उसके प्रशंसकों में उसका इमेज बिगड़ जायेगा और खुद उसे भी बहुत परेशानी होगी । उसने तो उल्टा यह कहा कि वास्तव में क्या हुआ है, इसकी जानकारी स्टूडियो में मौजूद लोगों को भी नहीं होने दी जानी चाहिये । हमने संतोष कुमार के कहने पर ऐसा ही किया लेकिन मजेदार बात यह है कि बात फिर भी सारी दुनिया को मालूम हो गई ।”
“कैसे ?”
“पूरा हादसा एक फिल्म पत्रिका में छप गया । उस फिल्म पत्रिका में छपा विवरण इतना वास्तविक था जैसे वह रिपोर्ट लिखने वाला आदमी खुद घटनास्थल पर मौजूद रहा हो । संतोष कुमार ने भी उस पत्रिका में छपा समाचार पढा । वह बहुत नाराज हुआ और आकर हम लोगों पर इलजाम लगाने लगा कि रामचन्द्र, कामता नाथ और मुझमें से ही किसी ने उस पत्रिका की सारी घटना बयान की है । हम तीनों ने हजार-हजार कसमें खाईं कि हम तीनों में से किसी ने ऐसा नहीं किया है, तब जाकर कहीं वह शान्त हुआ ।”
“उस पत्रिका का नाम क्या है ?”
“फिल्म संसार । साप्ताहिक पेपर है । अखबार के साइज में छपता है ।”
“आपने ‘फिल्म संसार’ से नहीं पूछा कि उन्हें इस बात की जानकारी कैसे हो गई थी ।”
“मैंने ‘फिल्म संसार’ के सम्पादक श्याम वर्मा को बुलाया था । मेरे बुलाने पर यह मेरे दफ्तर में तो आ गया था लेकिन उसने बड़ी नम्रता से यह बताने से इन्कार कर दिया था कि उसे वह समाचार कहां से मिला था । मैंने तो उसे धमकाया भी था कि वह गलत अफवाह फैला रहा था और यह कि उस पर मुकदमा चलाया जा सकता था लेकिन श्याम वर्मा भयभीत नहीं हुआ । उसने मुझे कुछ नहीं बताया ।”
सेठ एक क्षण रुका और फिर बोला - “दरअसल, मिस्टर सुनील, हम उसे धमकाने के अतिरिक्त कुछ कर नहीं सकते थे । गोली की आवाज और संतोष कुमार की चीख के बाद जो लोग मेकअप रूम में घुस आये थे उनमें से कई लोगों ने संतोष कुमार के हाथ में थमी रिवाल्वर और हजार टुकड़ों में बिखरा हुआ विशाल शीशा देखा था । उस समय उन्हें वास्तविक बात की समझ आई हो या न आई हो लेकिन बाद में ‘फिल्म संसार’ में सारा विवरण पढने के बाद बहुत लोगों को यह महसूस हुआ था कि वास्तव में यही कुछ हुआ था जो कि अखबार में छपा था । ‘फिल्म संसार’ में छपने के बाद तो हर अखबार ने इस घटना को छापा और खूब नमक मिर्च लगाकर छापा । सारा सिलसिला कितनी ज्यादा पब्लिसिटी पा गया इस बात का यहां से अन्दाजा लगाओ कि खबर पुरानी हो चुकने के बावजूद भी कई गैर फिल्मी समाचार पत्रों ने भी उसे छापा । और तो और संतोष कुमार के पास दर्शकों की दर्जनों ऐसी चिट्ठियां आ गई जिनमें संतोष कुमार के साथ हमदर्दी जताते हुए यह राय दी गई थी कि वह अपना पूरा ख्याल रखे । अगर उसे कुछ हो गया तो भारतीय फिल्म उद्योग के आकाश में से एक बहुत बड़ा सितारा टूट जायेगा और भारतीय सिनेदर्शक एक बहुत ही उच्च कोटि के कलाकार की कला का रस स्वादन कर पाने से वंचित रह जायेंगे । ऐसे कई पत्र न केवल संतोष कुमार के पास आये बल्कि फिल्मी समाचार पत्रों के सम्पादकों के नाम भी पहुंचे जो उन्होंने बड़ा महत्व देकर छापे ।”
“यह मालूम नहीं हुआ कि रिवाल्वर में दो असली गोलियां किसने रखी थीं ?” - सुनील ने पूछा ।
“कैसे मालूम होता ?” - सेठ बोला - “यह जान पाने का कोई साधन नहीं था । रामचन्द्र कहता है कि कामता नाथ से रिवाल्वर लेकर उसने मेकअप रूम में मेज पर रख दी थी । एक दो बार रिवाल्वर को वहीं छोड़कर रामचन्द्र मेकअप रूम में बाहर गया था । क्या पता मेकअप रूम में कौन आया और रिवाल्वर में दो असली गोलियां डाल गया ।”
“खैर ! फिर ?”
“अब तीसरी घटना सुनो । यह सिर्फ दस दिन पहले की बात है । उस रोज संतोष कुमार की शूटिंग चार बजे के करीब समाप्त हो गई थी । स्टूडियों से जाने से पहले उसने चाय पीने की इच्छा व्यक्त‍ की । स्टूडियो की कैन्टीन से चाय और सैंडविच मंगाई गईं । सब लोग यहीं मेरे दफ्तर में बैठे हुये थे । मेरे और संतोष कुमार के अतिरिक्त कामता नाथ रामचन्द्र, और कैमरामैन दिवाकर भी यहां मौजूद थे । और चाय आने तक सन्तोष कुमार का सैक्रेटरी सोम प्रकाश भी आ गया था । कैन्टीन का वेटर चाय और सैंडविच दे गया । सन्तोष कुमार की सैक्रेटरी सोम प्रकाश के लिये सबने चाय बनाई और सबको सैंडविच दी । सन्तोष कुमार मीट नहीं खाता । उसके लिये विशेष रूप से वैजिटेबल सैंडविच मंगाई गई थी । बाकी सब लोगों के लिये चिकन सैंडविच थीं । हम लोग चाय पीने लगे । सन्तोष कुमार ने सैंडविच के दो कौर ही खाये थे कि एकाएक उसने चाय का कप और सैंडविच मेज पर रख दी और पेट के दर्द की शिकायत करने लगा । देखते देखते ही उसके चेहरे की रंगत बदलने लगी और उसकी हालत खराब होने लगी । उस समय हम लोगों में से जो सबसे अधिक अकलमन्द साबित हुआ और जिसने समय पर भारी तत्परता का परिचय दिया, वह सोम प्रकाश था । उसी के दिमाग में सबसे पहले यह ख्याल आया था कि सन्तोष कुमार की हालत चाय या सैंडविच की वजह से ही बिगड़ी थी । वह बगोले की तरह बाथरूम की ओर भागा ओर वहां से एक गिलास में लीक्विड सोप (साबुन का घोल) भरकर ले आया । उसने जबरदस्ती वह साबुन सन्तोष कुमार को पिला दिया । सन्तोष कुमार तत्काल उल्टियां करने लगा । पेट खाली होने के बाद उसकी हालत सुधरने लगी । बाद में डाक्टर बुलाया गया तो मालूम हुआ कि सन्तोष कुमार को जहर दिया गया था ।”
“जहर चाय में था या सैंडविच में ?”
“सैंडविच में । चाय तो इकट्ठी आई थी । जहर अगर चाय में होता तो हम लोग भी मरते । जहर केवल वैजिटेबल सैंडविच में था ।”
“इस बार पुलिस को सूचना दी गई ?”
“नहीं !”
“क्यों ?”
“सन्तोष कुमार कहता था कि अगर अब पुलिस को सूचना दी गई तो वे कहेंगे कि पहली दो घटनाओं के समय उन्हें सूचित क्यों नहीं किया गया । और फिर जवाबदेही मुश्किल हो आयेगी । लेकिन इस बार यह फर्क पड़ा कि पुलिस बाद में बिना बुलाये ही आ गई ।”
“कैसे ?”
“सन्तोष कुमार को जहर देकर मार डालने की घटना सविस्तार फिर ‘फिल्म संसार’ में छप गई । नई घटना के विवरण में पिछली घटना का भी जिक्र था । समाचार पुलिस अधिकारियों की निगाह से भी गुजरा होगा और वे लोग तफ्तीश करने चले आये ।”
“लेकिन तफ्तीश का कोई फायदा तो हुआ नहीं । पुलिस आई चौबीस घन्टे बाद । जब तक जहर भरी सैंडविच फेंकी जा चुकी थी । पुलिस का जो इन्स्पेक्टर आया, उसने हम लोगों से बात की, डाक्टर से बात की, सन्तोष कुमार से बात की, इस बात पर खेद प्रकट किया कि इनते ऊंचे दर्जे के पढे लिखे समझदार आदमी अपनी जिम्मेदारी नहीं समझते और ऐसे गम्भीर अपराध पुलिस से छुपाने का प्रयत्न करते हैं । सन्तोष कुमार ने इन्स्पेक्टर के सामने शर्मिन्दगी महसूस करते हुए अपनी गलती स्वीकार की, इन्स्पेक्टर ने उस लड़के को जो कैन्टीन से चाय वगैरह लेकर आया था, डराया धमकाया, कैंटीन के बाकी लोगों के बयान लिये और छुट्टी । नतीज कुछ भी नहीं निकला ।”
“इस बार फिल्म संसार को इस घटना की कैसे खबर हुई ?”
“मालूम नहीं ! ‘फिल्म संसार’ के सम्पादक श्याम वर्मा को फिर बुलाया गया लेकिन इस बार भी उसने यह बात बताने से इन्कार कर दिया कि वास्तव में उस घटना की सूचना उसे किस साधन से मिली थी । उस बार तो सन्तोष कुमार भी मौजूद था । उसने तो श्याम वर्मा को बहुत डराया, धमकाया और गुण्डों से पिटवा देने तक की धमकी दे डाली । लेकिन वास्तविकता बताना तो दूर, उसने तो उल्टे जाकर यह बात भी अपने अखबार में छाप दी कि सन्तोष कुमार उसे गुण्डों से पिटवाने की धमकी दे रहा था ।”
“बड़ा हिम्मती आदमी है ।”
“स्टार से सम्बन्धित चटपटी खबर छापने के मामले में सारे ही फिल्म अखबार वाले बड़े हिम्मती आदमी होते हैं । वे तो झूठ बात छापकर अड़ जाते हैं, श्याम वर्मा तो सौ फीसदी सच्ची बात छाप रहा था ।”
“लेकिन आखिर वह यह बताता क्यों नहीं था कि उसे उन समाचारों की प्राप्ति कैसे हुई ?”
“इसी बात पर तो हम हैरान हैं” - सेठ बोला - “मैंने तो उसे ‘इन्कलाब’ का पूरे पृष्ठ का विज्ञापन देने का वादा भी किया था लेकिन वह टस से मस नहीं हुआ था । पिछली बार की घटना के साक्षी तो बहुत लोग थे लेकिन इस बार तो गारण्टी थी कि अखबार में छपने से पहले जहर वाली बात की जानकारी मेरे, कामता नाथ, रामचन्द्र, कैमरा मैन दिवाकर, संतोष कुमार, संतोष कुमार के सैक्रेट्री सोमप्रकाश और उस डाक्टर के अतिरिक्त किसी को नहीं थी जो बाद में बुलाया गया था और कोई कसम खाता था कि उसने यह बात किसी को नहीं बताई थी । इसके बावजूद भी सारी घटना का विवरण फिल्म संसार में तत्काल छप गया था ।”
“और कुछ ?”
“बस !”
“अब आप यह बताइये कि आप मुझसे क्या चाहते हैं ?”
उत्तमचन्दानी सेठ एकाएक यूं चुप हो गया जैसे उससे कोई बड़ा कठिन प्रश्न पूछ लिया गया हो, फिर वह धीरे से बोला - “मैं चाहता हूं कि तुम यह पता लगाओ कि सन्तोष कुमार की हत्या के इन प्रयत्नों के पीछे किसका हाथ है । कौन सन्तोष कुमार का इतना बड़ा दुश्मन बन गया है कि वह उसे मार डालना चाहता है और बाकायदा चेतावनी देकर मार डालना चाहता है । मिस्टर सुनील, कामता नाथ ने मेरे सामने तुम्हारी बहुत तारीफ की है और उसका ख्याल है कि तुम यह काम कर सकते हो ।”
“मैं नहीं कर सकता । करना चाहते हुए भी नहीं कर सकता ।” - सुनील बोला ।
“क्यों ?”
“क्योंकि आपकी अपनी फिल्म जबान में यह बड़ा लफड़े वाला काम है । जो आदमी इस प्रकार सन्तोष कुमार को जान के पीछे हाथ धोकर पड़ा हुआ है, वह मेरा भी खातमा कर सकता है । वैसे भी इस जानकारी के मुकाबले में, कि उसे कौन मारने की कोशिश कर रहा है, सन्तोष कुमार को अपनी जान की हिफाजत की ज्यादा जरूरत है । और यह काम अगर कोई कर सकता है तो वह है पुलिस जैसी संगठित संस्था ।”
“लेकिन सन्तोष कुमार पुलिस के बखेड़े में नहीं पड़ना चाहता ।”
“तो इसका मतलब यह है कि वह खुद अपनी मौत बुला रहा है । वह खुद ही मरना चाहता है ।”
“मिस्टर सुनील” - सेठ गहरी सांस लेकर बोला - “मुझे इस बात में दिलचस्पी नहीं है कि सन्तोष कुमार जीता है या मरता है । मुझे तो सिर्फ अपने उस रुपये में दिलचस्पी है जो ‘इन्कलाब’ में लगा हुआ है । मेरी ओर से सन्तोष कुमार मरता है तो मर जाये लेकिन मेरी फिल्म में अपना काम समाप्त करके मरे । मिस्टर सुनील, मेरा इस फिल्म में एक करोड़ से ज्यादा रुपया खर्च हो चुका है । फिल्म तीन चौथाई से ज्यादा कम्पलीट है । सन्तोष कुमार का बहुत थोड़ा सा काम बाकी है । पांच या छ: शूटिंग डेट्स में वह भी खत्म हो जायेगा । अगर आज सन्तोष कुमार मर गया तो मेरी मौत उसके साथ हो जायेगी । मेरा एक करोड़ रुपया डूब जायेगा, साहब !”
सेठ ने एक गहरी सांस ली और फिर बोला - “जो आदमी सन्तोष कुमार को मार डालने की कोशिश कर रहा है, उसे तलाश करने के लिये मैं आपको सन्तोष कुमार की वजह से नहीं कह रहा हूं, बल्कि अपनी वजह से कह रहा हूं । मिस्टर सुनील, मैं आपको नहीं जानता । कामता नाथ आपको जानता है । और उसकी राय है कि अगर आप चाहें तो यह काम कर सकते हैं । अगर आप यह काम कर सकते हैं तो जरूर कीजिये । आप सफल हो या न हों कम से कम कोशिश जरूर कीजिये । उससे मुझे यह तसल्ली तो होगी कि अपना एक करोड़ रुपया डूबने से बचाने के लिये, मैं जो कर सकता था, मैंने किया । आपकी सफलता आपकी नहीं, मेरी तकदीर की बात है । मैं आपका हर हालत में हार्दिक रूप से अहसानमन्द तो हूंगा ही, साथ ही आपको नकद एडवांस, दस हजार रुपये दूंगा ।”
सुनील सोचने लगा ।
“क्या फैसला है आपका ?” - सेठ व्यग्र स्वर से बोला ।
सुनील तनिक मुस्कराया और विनोदपूर्ण स्वर में बोला - “कामता नाथ कह रहा था कि उत्तमचन्दानी सेठ कितनी भी कंजूसी क्यों न करे, मेरी सेवाओं के बदले में वह कम से कम दो हजार रुपये जरूर दिया जायेगा मुझे ।”
“दस हजार रुपयों के अलावा दिन दो हजार रुपयों का वादा आपसे कामता नाथ ने किया है, मैं वह भी आपको दूंगा । मैं आपको बारह हजार रुपया दूंगा ।”
“मेरा यह मतलब नहीं था सेठ जी, आप उन दो हजार रुपयों के बदले में ही तो मुझे दस हजार रुपये दे रहे हैं ।”
“तो आप मेरी मदद करने को तैयार हैं ?” - उत्तमचन्दानी सेठ आशापूर्ण में स्वर बोला ।
“मैं कोशिश करके देखता हूं । शायद कामयाब हो जाऊं ।”
“थैंक्यू ।”
“लेकिन सेठ जी मेरी निजी राय अब भी यही है कि इस काम के लिये उचित लोग पुलिस वाले ही हैं ।”
“वह मेरी मजबूरी है । मैं सन्तोष कुमार को नाराज नहीं करना चाहता ।”
“सन्तोष कुमार को मालूम है कि आपने मुझे बुलाया है ?”
“नहीं । लेकिन वह स्टूडियो में आया हुआ है । दूसरे सैट पर एक अन्य फिल्म की शूटिंग हो रही है, वह वहां गया है । आज इन्कलाब की भी शूटिंग है । जब वह आयेगा तो मैं उसे बता दूंगा ।”
“और अगर उसे पुलिस की तरह मेरा दखल भी पसन्द न आया तो ?”
“मुझे उम्मीद है कि ऐसी कोई बात नहीं होगी । पुलिस से तो वह एक गलत किस्म की पब्लिसिटी की वजह से डरता है । आखिर वह अपनी जान का दुश्मन तो नहीं है । मुझे विश्वास है कि तुम्हारे गुप्त रूप से तफ्तीश करने का आइडिया उसे भी पसन्द आयेगा ।”
“भगवान करे ऐसा ही हो ।” - कामतानाथ बोला ।
“अब आप थोड़ी देर के लिये मुझे सुनिये ।” - सुनील बोला ।
कामतानाथ और सेठ उत्तमचन्दानी उसकी ओर देखने लगे ।
“जो कुछ आपने मुझे बताया है, उससे साफ जाहिर होता है कि जो आदमी सन्तोष कुमार की हत्या करना चाहता है, वह न केवल स्टूडियो से सम्बन्धित है बल्कि आप लोगों का और यहां तक कि सन्तोष कुमार का भी जाना पहचाना आदमी है ।”
“कैसे” - सेठ उत्तमचंदानी हैरानी से बोला - “कैसे जाना ?”
“हर बात इसी दिशा की ओर संकेत करती है” - सुनील बोला - “पहले उस चेतावानी वाली चिट्ठी को लीजिये । चिट्ठी उस सूट की जेब में पाई गई थी जो सीधा ड्रैस मेकर के पास से स्टूडियो में आया था । सन्तोष कुमार के दुश्मन को यह बात मालूम थी कि वह सूट सन्तोष कुमार ही पहनने वाला था, इसी लिये उसने उस सूट की जेब में चिट्ठी रखी ।”
“यह तो कोई ठोस बात नहीं है । यह बात तो ड्रैस मेकर के यहां से ऐसे लोगों की जानकारी में भी आ सकती है जो स्टूडियों से सम्बन्धित नहीं हैं और जिन्हें हम नहीं जानते ।”
“अभी आगे सुनिये । मेरे तर्क की अगली कड़ी इसे ठोस बात बना देगी ।” - सुनील विश्वासपूर्ण स्वर में बोला ।
“बोलो ।”
“फिर किसी ने उस रिवाल्वर में दो असली गोलियां भर दी जो शूटिंग के दौरान खलनायक रामचन्द्र सन्तोष कुमार पर चलाने वाला था । अगर मेकअप रूम वाला हादसा न होता तो शूटिंग के दौरान सैट पर ही सन्तोष कुमार का खातमा हो गया होता और सन्तोष कुमार के दुश्मन का काम हो जाता । यह सारा सिलसिला स्पष्ट रूप से इस बात की ओर संकेत करता है कि सन्तोष कुमार के दुश्मन को उस शाट की जानकारी थी, इसीलिये तो उसने रिवाल्वर की नकली गोलियों की जगह दो असली गोलियां रखीं । फिल्म के उस शाट की जानकारी किसी बाहरी आदमी को कैसे हो सकती थी ।”
“साधारणतया नहीं हो सकती थी ।” - सेठ उत्तमचन्दानी ने स्वीकार किया ।
“अब जहरभरी सैंडविच वाली बात पर आइये । सन्तोष कुमार के दुश्मन को न केवल यह मालूम था कि सन्तोष कुमार मीट नहीं खाता था बल्क‍ि उसे यह भी मालूम था कि वैजिटेबल सैंडविच सन्तोष कुमार के लिये ही जा रही थी । कैन्टीन को केवल चाय और सैन्डविच का ही आर्डर दिया था । किसी बाहरी आदमी को यह मालूम नहीं था कि उस आर्डर में सन्तोष कुमार भी हिस्सेदार था । फिर भी केवल वैजिटेबल सैंडविच में ही जहर निकला जो वास्तव में सन्तोष कुमार खाने वाला था ।”
“तुम ठीक कह रहे हो ।” - उत्तमचन्दानी सेठ प्रभावित स्वर से बोला ।
सुनील चुप रहा ।
“लेकिन तुम्हारे कहने के ढंग से तो ऐसा मालूम होता है जैसे मेरे डायरेक्टर कामता नाथ, खलनायक रामचन्द्र, कैमरा मैन दिवाकर और सन्तोष कुमार के सैक्रेट्री सोम प्रकाश में से ही कोई सन्तोष कुमार की हत्या करना चाहता है ।”
“आपका तो सवाल ही नहीं पैदा होता” - सुनील बोला - “क्योंकि सन्तोष कुमार के मरने से सबसे ज्यादा नुकसान आप ही को है ।”
“और मैं भी भला सन्तोष कुमार की हत्या क्यों करूंगा ?” - कामता नाथ बोला - “मेरा उससे कोई लेन देन नहीं, कोई दुश्मनी नहीं । वैसे भी अगर मैं उसका दुश्मन होता तो मैं सुनील को बुलाकर नहीं लाता । मैं भला सुनील की शक्ल में अपने रास्ते में फन्दा क्यों लगता ?”
“ठीक है ।” - सेठ बोला ।
“और कैमरा मैन दिवाकर तो सन्तोष कुमार का सबसे बड़ा भक्त है । वह फिल्म इंस्टिट्यूट से डिपलोमा प्राप्त कैमरा मैन है और ‘इन्कलाब’ जैसी बड़ी फिल्म उसे सन्तोष कुमार की ही सिफारिश से मिली है ।”
“बिल्कुल” - सेठ बोला - “मैं तो कोई पुराना तजुर्बेकार कैमरा मैन रखना चाहता था लेकिन सन्तोष कुमार की जिद की वजह से मुझे दिवाकर को लेना पड़ा था ।”
“अब बाकी रह गये खलनायक रामचन्द्र और सन्तोष कुमार का सैक्रेट्री सोम प्रकाश” - सुनील बोला - “इन दोनों में से रामचन्द्र को रिवाल्वर में गोलियां बदलने की सबसे ज्यादा सहूलियत थी क्योंकि रिवाल्वर उसके अधिकार में था ।”
“लेकिन रामचन्द्र ऐसा काम नहीं कर सकता ।” - कामता नाथ तीव्र विरोधपूर्ण स्वर में बोला ।
“क्यों ?”
“क्योंकि रामचन्द्र मेरा दोस्त है और मैं उसे बरसों से जानता हूं । रामचन्द्र और सन्तोष कुमार में ऐसी कोई दुश्मनी नहीं है जिसकी वजह से वह सन्तोष की हत्या करने की सोचने लगे । अगर उसने रिवाल्वर में गोलियां बदली होती तो रिवाल्वर को वह हर समय अपने अधिकार में रखता न कि उसे अपनी जेब से निकालकर लापरवाही से मेज पर रख देता । और तीसरी बात यह भी है कि अगर शूटिंग के दौरान सन्तोष कुमार सचमुच रामचन्द्र की रिवाल्वर से निकली गोली से मर जाता तो सबसे पहले सन्देह रामचन्द्र पर ही किया जाता । रामचन्द्र भला स्वयं को ऐसी सन्देहास्पद स्थिति में क्यों डालता ?”
“तुम्हारा तर्क काफी वजनी है” - सुनील ने स्वीकार किया - “और अब रह गया सन्तोष कुमार का सैक्रेट्री सोम प्रकाश ।”
“सोम प्रकाश पर भी सन्देह करना बेकार है” - सेठ उत्तमचन्दानी बोला - “वह बरसों से सन्तोष कुमार का सेक्रेट्री है । किसी ने कभी उनमें किसी प्रकार की कहासुनी या मतभेद होता नहीं सुना । और फिर जिस दिन रिवाल्वर में असली गोलियां डालने वाली गड़बड़ हुई थी, उस दिन सोम प्रकाश स्टूडियो में नहीं था ।”
“आपने तो सब को सन्देह से मुक्त कर दिया” - सुनील बोला - “लेकिन मेरी थ्योरी के अनुसार नि:सन्देह सन्तोष कुमार का दुश्मन सन्तोष कुमार और आप सब का जाना पहचाना आदमी होना चाहिये ।”
“स्टूडियों में तीन फ्लोर और भी हैं” - सेठ बोला - “और हर फ्लोर पर किसी न किसी फिल्म की शूटिंग चलती ही रहती है । इन्कलाब के यूनिट के अलावा भी स्टूडियो में ऐसे बहुत बहुत लोग आते हैं जो हम सब के जाने पहचाने हैं और फुरसत के क्षणों में वे अक्सर गप्पें मारने के लिये हमारे सैट पर आ जाते हैं । ऐसे लोगों में से भी तो कोई सन्तोष कुमार का दुश्मन हो सकता है ।”
“आप किसी ऐसे आदमी का नाम लीजिये जो सन्तोष कुमार का दुश्मन हो सकता हो ।”
“किस किसका नाम लूं, भाई साहब ? सन्तोष कुमार का तो सारा फिल्म उद्योग ही दुश्मन है । सन्तोष कुमार के सताये हुए अनगिनत आदमी फिल्म उद्योग में मौजूद हैं । यहां सन्तोष कुमार की बनती किस से है । खुद मेरा कई बार जी चाहता है कि मैं अपने हाथों से इस आदमी का गला दबा दूं ।”
“कोई एक आध सम्भावित नाम बताइये ।”
“आराधना ।”
“आराधना कौन है ?”
“आराधना वह अभिनेत्री है जिसे मैंने पहले ‘इन्कलाब’ में सन्तोष कुमार के साथ हीरोइन लिया था लेकिन सन्तोष कुमार की जिद पर मुझे बाद में उसे फिल्म में से निकालना पड़ा था और दमयन्ती माला को हीरोइन लेना पड़ा था । आराधना...”
उसी क्षण कमरे का द्वार खुला और उत्तमचन्दानी सेठ एकदम चुप हो गया ।
सुनील ने घूमकर देखा । कमरे में दो आदमी प्रविष्ट हो रहे थे । उनमें से एक को सुनील फौरन पहचान गया ।
वह सन्तोष कुमार था ।
सुनील ने कभी उसे प्रत्यक्ष नहीं देखा था । लेकिन उसने सन्तोष कुमार की कई फिल्में देखी थीं और सारे नगर में सन्तोष कुमार की तस्वीर वाले पचास-पचास फुट के बैनर लगे रहते थे इसलिये सन्तोष कुमार को पहचानने में उसे कोई कठिनाई नहीं हुई थी ।
दूसरा आदमी उसके लिये अजनबी था ।
“आओ, आओ ।” - उत्तमचन्दानी सेठ उल्लासपूर्ण स्वर में बोला ।
सन्तोष कुमार को देखते ही कामता नाथ के चेहरे पर यूं मुस्कराहट उभरी जैसे बिजली का स्विच आन कर देने से रोशनी जल उठती है ।
सुनील अपार निर्लिप्तता का प्रदर्शन करता हुआ गम्भीर मुद्रा बनाये अपने स्थान पर बैठा रहा ।
सन्तोष कुमार ने एक उड़ती सी निगाह सुनील पर डाली और धम्म से एक कुर्सी पर बैठ गया ।
दूसरा आदमी उसकी बगल में बैठ गया ।
“सिगरेट पिलाओ, सेठ ।” - सन्तोष कुमार बड़े अधिकारपूर्ण स्वर में बोला ।
उत्तमचन्दानी ने स्टेट एक्सप्रेस का डिब्बा खोला और उसे बड़ी तत्परता से सन्तोष कुमार की ओर बढा दिया ।
सन्तोष कुमार ने एक सिगरेट ले लिया ।
कामता नाथ ने उसका सिगरेट सुलगा दिया ।
“कहां थे ?” - उत्तमचन्दानी ने पूछा ।
“दूसरे सैट पर गया था” - सन्तोष कुमार मुंह बिगाड़ कर बोला - “हाय मेरी जान की शूटिंग हो रही थी... साले जुबली स्टार बनते हैं एक्टिंग की दुम नहीं समझते, एक डायलाग ढंग से बोल नहीं सकते और चले हैं जुबली स्टार बनने । पता नहीं कहां से चले आते हैं यह कुमार, वह कुमार । आपकी तारीफ ।”
आखिर वाक्य उसने सुनील की ओर संकेत करके कहा था ।
“हां, हां, इनसे मिलो” - उत्तमचन्दानी बोला - “ये हैं मिस्टर सुनील ।”
“सुनील कुमार चक्रवर्ती ।” - कामता नाथ बोला ।
“और मिस्टर सुनील, ये भारतीय रजत पट के सबसे बड़े स्टार और ‘इन्कलाब’ के हीरो सन्तोष कुमार हैं और ये उनके सैक्रेट्री सोमप्रकाश हैं ।”
सुनील ने मुंह से एक शब्द भी बोले बिना हाथ जोड़ लिया ।
सन्तोष कुमार कुछ क्षण गौर से सुनील को देखता रहा और फिर बोला - “हीरो बनना चाहते हो क्या ?”
सन्तोष कुमार के स्वर में व्यंग्य का बड़ा गहरा पुट था ।
उत्तमचन्दानी सेठ और कामता नाथ कसमसाये लेकिन मुंह से कुछ नहीं बोले ।
सुनील के चेहरे पर एक क्षीण सी मुस्कराहट उभरी और फिर वह शांत स्वर में बोला - “मैं हीरो बन सकता हूं ?”
“हां, हां । क्यों नहीं बन सकते ?” - सन्तोष कुमार बोला - “आजकल हर ऐरा गैरा, नत्थू खैरा हीरो बना जा रहा है तो आप ही में क्या कमी है ? अच्छे खासे खूबसूरत आदमी हो । जुबान तुम्हारी चलती ही है । आजकल तो हीरो बनने के लिये यही दो काबलियत काफी समझी जाती हैं ।”
“आप में भी यही दो काबलियत हैं क्या ?”
सन्तोष कुमार के चेहरे पर कठोरता के भाव उभरे । उसने सिगरेट को ऐश ट्रे में झोंक दिया और मेज पर हथोड़े की तरह घूंसा जमा कर गर्जा - “तुम मेरी अभिनय क्षमता को चैलेंज कर रहे हो ?”
“मैं तो आपसे केवल एक सवाल कर रहा हूं, साहब ?”
“मत करो । तुम मुझसे सवाल करने वाले कौन होते हो ? सन्तोष कुमार अजनबियों के मुंह लगना पसन्द नहीं करता ।”
“शुरुआत तो आप ही ने की थी, साहब ।”
“मैंने तुमसे एक सवाल पूछा था और तुम शराफत से उसका हां या ना में जवाब दे सकते थे ।”
“लेकिन मेरा हां या ना में जवाब सुनकर भी शायद आपको कोई विशेष संतोष नहीं होता, जनाब । आपके अहम की वास्तविक सन्तुष्टि तब होती जब मैं आपको भगवान समझकर आपके कदमों में लोट जाता और भगवान से वरदान मांगने के ही अन्दाज में आपसे प्रार्थना करता कि हां साहब मैं हीरो बनना चाहता हूं और अगर आपकी नजरेइनायत हो जाये, मैं जमीन से आसमान पर पहुंच जाऊंगा वगैरह-वगैरह । जैसे आप अपने प्रभाव से लोगों को फिल्म में से निकलवा देते वैसे आप लोगों को फिल्म में शामिल भी तो करवा सकते हैं ।”
“बड़े बद्तमीज आदमी हो” - सन्तोष कुमार बोला - “सेठ, कैसे-कैसे लोग मिलने चले आते हैं तुमसे । भगाओ इसे यहां से । मुझे तुमसे बहुत जरूरी बात करनी हैं ।”
उत्तमचन्दानी सेठ ने असहाय भाव से सुनील की ओर देखा । उसके नेत्रों में क्षमायाचना के भाव झलक रहे थे ।
कामता नाथ ने मेज के नीचे से धीरे से सुनील का पांव दबाया ।
सुनील अपने स्थान से उठा खड़ा हुआ । उसने लापरवाही से अपना लक्की स्ट्राइक का पैकेट उठाकर अपनी जेब में डाला और फिर शांत स्वर में बोला - “मुझे भगाने की जरूरत नहीं । मैं वैसे ही जा रहा हूं । मैं आपसे फिर मिलूंगा, सेठ जी ।”
सेठ के होठों पर एक खिसियाहट भरी मुस्कराहट उभरी । उसने अपना हाथ आगे बढा दिया । सुनील ने सेठ से हाथ मिलाया और फिर सन्तोष कुमार की ओर घूमा । वह संतोष कुमार के सामने तन कर खड़ा हो गया और फिर शांत स्वर में बोला - “मिस्टर सन्तोष कुमार, अंग्रेजी की एक कहावत है । मैन शुड आलवेज कीप हिज वर्ड्स स्वीट एण्ड साफ्ट, बिकाज ही डज नाट नो वैन ही विल हैव टु ईट दैम बैक । और अगर बात आपकी समझ में न आई हो तो अपने सैक्रेट्री को कहियेगा इसका अनुवाद करके आपको समझा दे । एण्ड नाउ जन्टलमैन, आई विश यू आल ए वैरी गुड ईवनिंग ।”
सन्तोष कुमार का चेहरा कानों तक लाल हो गया । इससे पहले कि वह कुछ कह पाता, सुनील अपनी एड़ियों पर घूमा और लम्बे डग भरता हुआ कमरे से बाहर निकल गया ।
बाहर गलियारे में कुछ लड़कियां खड़ी थीं । वे उत्सुक नेत्रों से सुनील की ओर देखने लगीं । सुनील बिना उनकी ओर दृष्टिपात किये आगे बढ गया ।
“शायद यही है वह नया हीरो जिसे अपनी अगली फिल्म में सेठ आशा पारेख के साथ इंट्रोड्यूस कर रहा है ।” - उसके कानों में एक प्रशसात्मक स्त्री स्वर पड़ा ।
वह गलियारे के मोड़ पर पहुंचा हो था कि किसी ने उसे पीछे से आवाज दी ।
सुनील ने घूमकर देखा ।
कामता नाथ दौड़ा चला आ रहा था ।
कामता नाथ उसके समीप पहुंचा । उसने सुनील की बांह पकड़ी और उसे इमारत से बाहर ले आया ।
“मैं बहुत शर्मिन्दा हूं” - वह हांफता हुआ बोला - “सेठ ने मुझे बहाने से तुम्हारे पीछे भेजा है । हमें गलत मत समझना, भाई, डेढ करोड़ रुपये का मामला है, अगर वह सहयोग देना बन्द कर देगा तो सेठ का पटड़ा हो जायेगा । इसलिये हम लोग उस नीच के सामने नपुन्सक हो जाते हैं ।”
“ठीक है” - सुनील आवश्वासनपूर्ण स्वर से बोला - “मुझे उससे किसी प्रकार का वास्ता नहीं । मुझे उसकी किसी बात की परवाह नहीं ।”
“तुमने खुद ही देख लिया है कि कितना सख्त हरामजादा आदमी है यह । आदमी हेंकड़ी जताने के लिये ही साला किसी न किसी से उलझने का बहाना तलाश करता रहता है ।”
“छोड़ो यार । अच्छा ही हुआ कि मुझे खुद ही उसके मिजाज का एक नमूना देखने को मिल गया । ऐसे बेहूदे आदमी की हत्या कर देने वाले को तो कोई सरकारी इनाम मिलना चाहिये ।”
“लेकिन, सुनील, सन्तोष कुमार से हुई झैं-झैं की वजह से तुम हमारी प्रार्थना तो नहीं ठुकरा रहे हो न ? तुम उस आदमी को तलाश करने की कोशिश तो करोगे न जो सन्तोष कुमार की हत्या करने की कोशिश कर रह है ।”
सुनील एक क्षण चुप रहा और फिर बोला - “मुझ से जो होगा, मैं करूंगा । अपनी ओर से मैं कोई कसर उठा नहीं रखूंगा ।”
“थैंक्यू । थैंक्यू वैरी मच” - कामना नाथ छुटकारे की गहरी सांस लेता हुआ बोला - “मैं जाता हूं, दोस्त, वर्ना संतोष कुमार शक करेगा । वैसे भी अभी मुझे और सेठ को कम से कम एक घन्टा सन्तोष कुमार के तलवे चाटने पड़ेंगे, तब कहीं जाकर उसका मूड ठीक होगा और वह शाट देने के लिये तैयार होगा । मैं चला ।”
“सुनो ।”
कामता नाथ ठिठका । उसने प्रश्नसूचक नेत्रों से सुनील की ओर देखा ।
“वह सन्तोष कुमार को लिखी गई धमकीभरी चिट्ठी मैं अपने साथ ले आया हूं । सेठ को बता देना ।” - सुनील बोला ।
“ओके ।”
और कामता नाथ तेजी से वापिस चल दिया ।
सुनील स्टूडियो के बड़े फाटक की ओर बढा ।
***
फिल्म संसार एक सीमित सरक्यूलेशन वाला एक छोटा सा पेपर था । मैजेस्टिक सर्कल पर स्थित एक पांच मंजिली इमारत के दो छोटे-छोटे कमरों में उसका एक छोटा सा दफ्तर था ।
बाहर के कमरे में चार टेबल लगी हुई थी जिनमें से एक पर एक लगभग पच्चीस साल का युवक बैठा था और चेहरे पर भारी बोरियत का भाव लिये हुए प्रूफ पढ रहा था ।
सुनील धीरे से खंखारा ।
युवक ने सिर उठाया, उसने एक उचटती सी निगाह सुनील पर डाली और फिर अपने काम में जुट गया ।
“सम्पादक जी हैं ?” - सुनील ने पूछा ।
युवक ने बिना सिर उठाये भीतरी कमरे की ओर संकेत कर दिया ।
सुनील आगे बढा । भीतरी कमरे के द्वारा पर एक पीतल की नेम प्लेट लगी हुई थी जिस पर लिखा था -
श्याम वर्मा
सम्पादक
सुनील द्वार ठेल कर भीतर प्रविष्ट हो गया ।
वह कमरा बाहरी कमरे से छोटा था और एक बड़ी सी मेज और पांच कुर्सियों की मौजूदगी में पूरी तरह पैक हुआ मालूम होता था । द्वार के सामने की दीवार की सारी लम्बाई चौड़ाई में फिल्मी कलाकारों के हर साइज के चित्र लगे हुए थे । जमीन पर एक ओर विभिन्न पत्रिकाओं का ढेर लगा हुआ था और उनके ऊपर सात आठ ब्लाक पड़े थे ।
मेज के पीछे के कुर्सी पर एक लगभग चालीस साल का आदमी मौजूद था । उसने अपने पांव मेज पर फैलाये हुए थे, दोनों हाथ भारी भरकम पेट पर बांधे हुए थे और कुर्सी को टेढी करके पीछे दीवार के सहारे लगाया हुआ था । उसके नेत्र बन्द थे और व्यवस्थित रूप से चलती हुई सांस से ऐसा मालूम होता था जैसे वह सो रहा है । उसके चेहरे पर चश्मा लगा हुआ था जो उसने अपनी आंखों के स्थान पर अपने माथे पर सरकाया हुआ था ।
सुनील धीरे से खंखारा ।
उस आदमी के पोज में कोई अन्तर नहीं आया ।
“वर्मा जी ।” - सुनील बोला ।
बेकार ।
“वर्मा जी !” - सुनील जोर से बोला ।
उस आदमी ने हड़बड़ा कर आंखें खोल दीं । पहले उसने नंगी आंखों से सुनील की ओर देखा, फिर उसने माथे पर लगा चश्मा आंखों पर सरका कर सुनील की ओर देखा, फिर कुर्सी सीधी की, मेज पर से पांव हटाये और फिर दुबारा सिर से पांव तक सुनील की ओर देखा । एक क्षण के लिये उसके नेत्रों में एक चमक उभरी, चेहरे पर हर्ष के भाव प्रकट हुये और फिर लुप्त हो गये । उसने मशीन की तरह सुनील से हाथ मिलाया ।
“मैंने तुम्हें पहचाना नहीं ।” - वह बोला ।
“कैसे पहचानेंगे आप” - सुनील मुस्कराकर बोला - “आप ने आज से पहले कभी मुझे देखा ही नहीं है ।”
“बैठो ।”
सुनील एक कुर्सी पर बैठ गया ।
“मैं सो रहा था ।” - वह बोला ।
“जी हां । मैंने देखा था ।”
“मैं न केवल सो रहा था बल्कि ख्वाब देख रहा था । बड़ा प्यारा ख्वाब था ।”
“क्या ख्वाब था ?”
“मैं ख्वाब देख रहा था कि कागज का भाव घट गया है । फिल्म संसार का नाम डी ए वी पी की विज्ञापन के लिये अप्रूवड पत्रिकाओं की लिस्ट में आ गया है । ‘फिल्म संसार’ की सरकुलेशन एक लाश हो गई है वगैरह-वगैरह ।”
सुनील मुस्कराया ।
“मैंने आंखें खोलीं, एकदम तुम्हें देखा तो यूं लगा कि राजेश खन्ना आ गया है । फिर तत्काल ही भरम मिट गया । राजेश खन्ना भला यहां क्या करने आयेगा । तुम क्या कोई नये अभिनेता हो ?”
“नहीं ।”
“नहीं हो तो हो जाओगे । आज कल तो फिल्म उद्योग में नये अभिनेताओं की भर्ती दर्जनों में हो रही है । तुम तो अच्छे खासे खूबसूरत नौजवान हो । अगर कोई प्रोड्यूसर या डायरेक्टर जानता है तुम्हें तो बहुत ही अच्छी बात है वर्ना किसी टैलेण्ट कन्टेस्ट में शामिल हो जाओ । यूं हीरो बन जाओगे ।”
उसने चुटकी बजाने का प्रयत्न किया लेकिन चुटकी नहीं बजी । उसने विचित्र नेत्रों से अंगूठे और उस उंगली की ओर देखा जिनमें से वह चुटकी की आवाज निकालने की अपेक्षा कर रहा था, एक बार फिर कोशिश की लेकिन कोई नतीजा न निकलता देखकर वह फिर सुनील की ओर आकर्षित हुआ - “तुमने मुझे अभी तक यह नहीं बताया है कि तुम कौन हो ।”
“आप मुझे मौका ही कहां दे रहे हैं ?” - सुनील विनोदपूर्ण स्वर में बोला ।
“बोलो ।”
“आप श्याम वर्मा ही हैं न ?”
“जी हां । मैं श्याम वर्मा ही हूं । मेरे अलावा इस दुनिया में ऐसा और कौन सा आदमी हो सकता है जिससे चुटकी बजाने जैसा मामूली काम न होता हो ।”
“आप बहुत दिलचस्प आदमी हैं ।”
“हां । शायद ।”
“मेरा नाम सुनील है” - सुनील बोला - “सुनील कुमार चक्रवर्ती । मैं ‘ब्लास्ट’ का विशेष प्रतिनिधि हूं ।”
“अरे !” - वह चौंककर बोला - “तुम हो वह आदमी ?”
“कौन आदमी ?” - सुनील बौखलाये स्वर में बोला ।
“वही जो तुमने बताया है । सुनील कुमार चक्रवर्ती । ‘ब्लास्ट’ का विशेष प्रतिनिधि । बड़ा नाम है तुम्हारा ।”
“ओह !” - सुनील गहरी सांस लेकर बोला - “आप चौंके तो मुझे यूं लगा जैसे आपने मुझे कोई इश्तिहारी मुजरिम समझ लिया था ।”
श्याम वर्मा हो हो करके हंसा और फिर बोला - “बड़ा नाम है भई, तुम्हारा । अपनी किस्म के अनोखे आदमी हो । मुझे तो आज यूं समझना चाहिये कि जैसे चींटी के घर भगवान आ गये हों ।”
“आप मुझे जरूरत से ज्यादा सम्मान दे रहे हैं साहब” - सुनील शिष्ट स्वर में बोला - “वर्ना मैं तो बहुत मामूली आदमी हूं ।”
“यह तुम्हारी महानता है कि तुम अपने आपको मामूली आदमी समझते हो । तुम वाकई बहुत करामाती इन्सान हो । ‘ब्लास्ट’ में तुम्हारे द्वारा सुलझाये केस का विवरण पढ कर मजा आ जाता है । बाई गॉड, क्या खोद के निकालते हो बात को । क्या उठा के पटकते हो । वाह !” - फिर वह एकदम बदले स्वर में बोला - “क्या सेवा कर सकता हूं मैं तुम्हारी ?”
“सेवा तो आप तो बहुत कर सकते हैं वर्मा जी ।” - सुनील गम्भीर स्वर में बोला - “लेकिन सवाल इस बात का है कि आप करना चाहेंगे या नहीं ।”
“अरे क्यों नहीं करना चाहूंगा ? मैंने यह बात कही किस लिये है ? क्या कोई इनाम जीतने के लिये ? वैसे चलकर मेरे दफ्तर आये हो तो कोई महत्वपूर्ण बात ही होगी ।”
“बात तो महत्वपूर्ण ही है ।”
“क्या ?”
“एकाएक सिनेमा स्टार संतोष कुमार मेरी दिलचस्पी का विषय बन गया है ।”
श्याम वर्मा के चेहरे से हंसी के भाव उड़ गये । वह एकदम गम्भीर हो गया ।
“तुम सिगरेट पीते हो ?” - उसने पूछा ।
“जी हां, पीता हूं । लेकिन आप कष्ट मत कीजिये । सिगरेट मेरे पास हैं ।”
और सुनील ने जेब की ओर हाथ बढाया ।
“मैं कहां कष्ट कर रहा हूं, भाई” - श्याम वर्मा बोला - “मैंने तो यह बात इसलिये पूछी थी कि आप सिगरेट पीते हो तो एक सिगरेट मुझे भी पिलाओ ।”
“ओह, श्योर ! श्योर ।”
सुनील ने पैकेट खोलकर उसकी ओर बढाया । श्याम वर्मा ने एक सिगरेट ले लिया । सुनील ने भी एक सिगरेट होठों में दबाया । उसने पहले श्याम वर्मा का और फिर अपना सिगरेट सुलगाया ।
श्याम वर्मा ने सिगरेट के दो तीन गहरे गहरे कश लिये और फिर बोला - “देखो दोस्त, अगर तुम यह पूछने वाले हो कि सन्तोष कुमार की हत्या के उपक्रमों के समाचार मुझे कैसे प्राप्त हुए है तो मैं तुम्हें कुछ भी नहीं बताऊंगा ।”
“मैं यही पूछना चाहता हूं ।”
“सारी । नो डाइस ।”
“वजह ?”
“वजह यह है कि यह मेरा व्यवसायिक रहस्य है । इसे मैं किसी दूसरे अखबार के प्रतिनिधि के सामने खोलना नहीं चाहता ।”
“और अगर मैं यह वादा करुं कि आपका रहस्य आपका ही रहस्य होगा वह किसी तीसरे आदमी पर मेरी वजह से प्रकट नहीं होगा तो ?”
श्याम वर्मा ने उत्तर नहीं दिया ।
“अभी आप मुझे बहुत महान आदमी बता रहे थे । अगर आप वे बातें खामखाह मुझे खुश करने के लिये नहीं कह रहे थे तो आपको मेरे व्यक्तित्व में शराफत की इतनी झलक तो दिखाई देनी ही चाहिये कि अगर मैं कोई वायदा कर लूं तो उससे फिरुं नहीं ।”
“मुझे तुम्हारी शराफत और ईमानदारी पर संदेह नहीं है ।”
“तो फिर विश्वास कीजिये आपकी उस जानकारी के साधन को मैं किसी तीसरे आदमी पर आपकी इजाजत के बिना प्रकट नहीं करूंगा ।”
श्याम वर्मा सोचने लगा ।
सुनील व्यग्रता से उसके बोलने की प्रतीक्षा करने लगा ।
“मुझे बड़े संकट में डाल दिया तुमने ।” - श्याम वर्मा संकोचपूर्ण स्वर में बोला ।
“मैं आपको भरोसा करने के काबिल आदमी दिखाई नहीं देता ?”
“बिल्कुल दिखाई देते हो लेकिन मैं तुम्हें जानता नहीं । आज से पहले मैंने तुम्हारा चर्चा ही सुना है या कभी कभार ‘ब्लास्ट’ में तुम्हारी तस्वीर देखी है लेकिन... खैर छोड़ो । एक बात बताओ ?”
“दो पूछिये ।”
“तुम्हारी सन्तोष कुमार में क्या दिलचस्पी है ?”
“दरअसल मेरी दिलचस्पी सन्तोष कुमार में नहीं है । मेरी दिलचस्पी उस आदमी में है जिसको संतोष कुमार के मर जाने से भारी नुकसान हो सकता है ।”
“तुम्हारा संकेत उत्तमचन्दानी सेठ की ओर है !”
“हां” - सुनील बोला - “उत्तमचन्दानी सेठ ने मुझे उस आदमी को तलाश करने का काम सौंपा है जो सन्तोष कुमार का दुश्मन है और उसकी हत्या का प्रयत्न कर रहा है ।”
“क्या तुम्हारे दिमाग में यह बात आई है कि वह आदमी सन्तोष कुमार की जगह उत्तमचन्दानी सेठ का भी दुश्मन हो सकता है ?”
“और या फिर दोनों का । मुझे यह बात सूझी थी । उत्तमचन्दानी सेठ को सूझी या नहीं, मुझे नहीं मालूम । प्रत्यक्ष है कि अगर सन्तोष कुमार मर गया तो उत्तमचन्दानी सेठ तो उसके साथ ही मर जायेगा । उसका एक करोड़ रुपया डूब जायेगा । सम्भव है कोई उत्तमचन्दानी से दुश्मनी निकालने के लिये हो संतोष कुमार की हत्या करना चाहता हो ।”
“करैक्ट !”
“आप मेरे असली सवाल को फिर टाल गये हैं, वर्मा जी ।”
“अगर मैं तुम्हें यह बता दूं कि मुझे सन्तोष कुमार की हत्या के उपक्रमों के समाचार कैसे प्राप्त हुए हैं तो इससे तुम्हारा कोई भला होगा ?”
“मुझे तो बहुत आशा है । शायद मुझे ऐसा कोई सूत्र मिल जाये जिससे मुझे सन्तोष कुमार के दुश्मनों को तलाश करने में सहूलियत हो ।”
“और मैं तुम्हारा यह वादा भी पक्का समझूं कि तुम किसी तीसरे आदमी से इस बारे में जिक्र नहीं करोगे ।”
“एकदम पक्का समझिये । आपकी इजाजत के बिना मैं किसी को कुछ नहीं बताऊंगा ।”
“ओके ! ओके ! सुन लो ।” - श्याम वर्मा निर्णयात्मक स्वर में बोला - “सच पूछो तो वे समाचार मेरे दफ्तर में आसमान से टपके थे । छप्पर फाड़ कर गिरे थे । बिल्कुल ऐसे अप्रत्याशित ढंग से वे समाचार मुझे प्राप्त हुये थे जैसे किसी की लाटरी निकल आती है ।”
“कैसे ?” - सुनील ने उत्सुक भाव से पूछा ।
“जिस रोज पहली घटना हुई उस रोज एक छोकरा मुझे एक लिफाफा दे गया । मैंने वह लिफाफा खोला तो भीतर टाईप की हुई चार शीट मौजूद थी जिनमें उस घटना का सविस्तार विवरण टाइप किया हुआ था । साथ में एक छोटी से टाइप की हुई चिट्ठी थी जिसमें लिखा था कि पत्र भेजने वाले ने एक दर्जन फिल्मी समाचार पत्रों में से केवल ‘फिल्म संसार’ को ही उस घटना का विवरण भेजा है और यह कि अगर ‘फिल्म संसार’ के सम्पादक के अक्ल का छोटा सा भी अंश मौजूद है तो वह इस सिलसिले में अपनी जुबान बन्द रखेगा और उस एक्सक्लूसिव समाचार का भरपूर फायदा उठायेगा । और यह कि अगर मैं उस समाचार की प्राप्ति का साधन किसी पर प्रकट नहीं करूंगा तो भविष्य में भी मुझे ऐसे सैन्सेशनल सपाचार प्राप्त होते रहेंगे ।”
“आपने क्या किया ?”
“मैंने तो साहब, उसे मजाक समझा, किसी की शरारत समझी । मेरी तो वह समाचार छापने की हिम्मत हुई नहीं । छपने के बाद अगर बात झूठी निकल आती और सन्तोष कुमार मुझ पर मान हानि का मुकदमा कर देता तो मेरा बेड़ा गर्क हो जाता ।”
“लेकिन समाचार तो आपने छापा था और सविस्तार छापा था ।”
“बाद में छापा था । पहले मैंने उस समाचार की पुष्टि की थी । मैं फौरन खुद मिनर्वा स्टूडियो गया था और गुप्त रूप से उस मामले की तहकीकात करके आया था । वहां जाकर मुझे मालूम हुआ कि सारी बात एकदम सच्ची थी । फिर मैंने छाप दी । और भाई साहब, मैं बयान नहीं कर सकता कि उस समाचार की वजह से हमारा पेपर एकाएक कितना महत्वपूर्ण हो उठा । उस समाचार को पढकर हमारा अखबार पढने वालों में तो सनसनी फैली हो साथ ही हमारे हमपेशा, दूसरे फिल्म अखबार छापने वाले भी चौंधिया गये कि ऐसी सैन्सेशनल खबर मैं कैसे और कहां से मार लाया । पहले तो सबने यही समझा कि मैंने बेपर की उड़ाई है । लेकिन जब उन्हें विश्वास हो गया तो उन्होंने भी सारे केस का बड़ा घटिया सा, मुर्दा सा, विवरण छापा ।”
“जहर वाली घटना की खबर भी आपको इसी प्रकार हुई ?”
“बिल्कुल ! उस बार भी पहली बार की तरह एक छोकरा मेरे दफ्तर में एक लिफाफा दे गया ।”
“वह छोकरा पहले वाला ही था ?”
“नहीं ! वह कोई और था । लेकिन मैंने उसे पकड़ लिया था और उससे उस सिलसिले में पूछताछ करने की कोशिश की थी । लेकिन उसे कुछ भी मालूम नहीं था । उसे तो एक साहब ने एक रुपया दिया था और कहा था कि वह उस लिफाफे को फिल्म संसार के दफ्तर में दे आये । लड़का उस साहब का हुलिया तक नहीं बयान कर सका था । मैं लड़के के साथ नीचे चौक तक गया था लेकिन साहब वहां से गायब हो चुका था ।”
“दूसरा पत्र भी पहले जैसा ही था ?”
“बिल्कुल ! उसमें भी जहर वाला घटना का सविस्तार विवरण था । साथ में एक पत्र था जिसमें लिखा था कि मैंने पहले समाचार की प्राप्ति का साधन किसी पर प्रकट न करके बहुत अच्छा किया है । भविष्य में भी मुझे इसी प्रकार ऐसे करामाती समाचार प्राप्त होते रहेंगे । अगले दिन मेरा पेपर आउट होने वाला था । तब तक मुझे उन समाचारों की प्रमाणिकता का इतना भरोसा हो चुका था कि उस बार तो मैंने बिना किसी प्रकार की तहकीकात किये समाचार को फौरन छाप दिया । भाई साहब, फिल्म उद्योग में तहलका मच गया । सारी इन्डस्ट्री में केवल ‘फिल्म संसार’ के चर्चे होने लगे । सन्तोष कुमार से सम्बन्धित इतनी चिट्ठियां हमारे दफ्तर में आई - और अभी तक आ रही हैं - कि इन सबको सम्भाल पाना कठिन हो गया । भाई साहब, विश्वास कीजिये, इसी सिलसिले में मेरे अखबार की सर्कूलेशन डबल हो गई है ।”
“आपके ख्याल से आपको ये समाचार कौन भेज रहा है ?”
“इस बारे में मेरी अपना कोई ख्याल जाहिर करने की कतई इच्छा नहीं है । मेरी बला से चाहे वह काला चोर भेजता हो । मुझे तो आम खाने से मतलब है, पेड़ गिनने से नहीं । मैं तो केवल इतना जानता हूं कि वे समाचार झूठे नहीं हैं । अगर वे समाचार झूठे होते तो सन्तोष कुमार ने अब तक मुझे जेल भिजवा दिया होता । सन्तोष कुमार ने मुझे धमकाया । मुझे गुन्डों से पिटवा देने की धमकी दी । लेकिन मेरे खिलाफ मुकदमा नहीं किया । और सन्तोष कुमार का यह रुख ही इस बात का सबसे बड़ा सूबत है कि सारी बात शतप्रतिशत सच है ।”
श्याम वर्मा एक क्षण रूका और फिर बोला - “मैं और मेरा अखबार इस सिलसिले में एकाएक बेहद महत्वपूर्ण हो उठे । बड़े-बड़े अखबारों वाले मुझसे यह कहने लगे कि मैं अपनी जानकारी उनसे पूल कर लिया करूं और बदले में वे मुझे कोई भी कीमत देने की तैयार थे । खुद उत्तमचन्दानी सेठ ने मुझे बुलाया और पूछा कि यह बातें मुझे कैसे मालूम हुईं और रिश्वत के तौर पर उसने मुझे ‘इन्कलाब’ का निरन्तर विज्ञापन देते रहने का लालच दिया लेकिन मैंने अपनी जुबान नहीं खोली । केवल इसलिये नहीं खोली कि चिट्ठी चिखने वाले से मुझे चेतावनी दी थी कि इस विषय में मैं अपनी जुबान बन्द रखूं । मुझे भय था कि अगर मैं अपनी जुबान खोली और चिट्टी भेजने वाले को मालूम हो गया तो वह मेरे स्थान पर किसी और पत्रिका को ऐसे समाचार भेजने लगेगा । मैं इतना बड़ा रिस्क कैसे ले सकता था ।”
“आपको ख्याल से आपको ये समाचार भेजने वाला कौन हो सकता है ?” - सुनील ने पूछा ।
“मैंने कहा न चाहे व काला चोर हो ।”
“वह तो ठीक है लेकिन फिर भी आपके मन में यह उत्सुकता तो उत्पन्न हुई होगी कि वह काला चोर कौन हो सकता था ?”
श्याम वर्मा ने सिगरेट के तीन चार कश लगाये और फिर सिगरेट फर्श पर फेंक कर उसे जूते से मसल दिया । कुछ क्षण वह चुप रहा और फिर बोला - “मैंने इस विषय में सोचा था । मेरी राय में तो मुझे समाचार भेजने वाला एक ही आदमी हो सकता है ?”
“कौन ?”
“वही जो सन्तोष कुमार की हत्या करने का प्रयत्न कर रहा है । तुम्हारी क्या राय है ?”
“मैं आपसे सहमत हूं ।”
“लेकिन यह भी तुम्हें मानना पड़ेगा कि वह आदमी कोई समझदारी का काम नहीं कर रहा । वह जरूर कोई सिरफिरा और बदअक्ल इन्सान है । अपने इरादों को इतना प्रचार देकर तो वह खुद ही अपने लिये फन्दा तैयार कर रहा है । उसकी जगह अगर कोई समझदार आदमी होता तो अपनी हरकतों को अपनी ओर से कुरेदने का तो हरगिज प्रयत्न नहीं करता ।”
“आप ठीक कह रहे हैं । अपनी नीयत का वह जानबूझ कर प्रचार करने की कोशिश कर रहा है । सन्तोष कुमार की हत्या का प्रयत्न करने से पहले उसने एक चेतावनीभरी चिट्ठी लिखकर सन्तोष कुमार को सावधान किया था कि वह उसे जान से मार देने वाला है । अगर सन्तोष कुमार बच सकता हो तो बच जाये ।”
श्याम वर्मा एकदम कुर्सी पर सम्भल कर बैठ गया । उसेक नेत्र फैल गये ।
“ऐसी कोई चिट्ठी सन्तोष कुमार को लिखी गई थी ?” - वह उत्तेजित स्वर में बोला ।
“जी हां ।” - सुनील बोला - “और आप जो मेरी सहायता कर रहे हैं, उसके बदले में मैं आप को वह चिट्ठा दिखा भी सकता हूं ।”
“तुम्हारे पास है वह ?”
“हां ।”
“दिखाओ । दिखाओ ।”
श्याम वर्मा की सूरत को देख कर यूं मालूम हो रहा था जैसे उत्तेजना और उत्सुकता से उसका हार्ट फेल हो जायेगा ।
सन्तोष कुमार की ऐसी की तैसी - सुनील मन में बोला और चिट्ठी निकालकर उसने श्याम वर्मा के सामने रख दी ।
श्याम वर्मा ने चिट्ठी पढी और फिर खुशी से झूम उठा ।
“मैं इसे नकल कर लूं ?” - वह बोला ।
“बेशक कर लीजिये लेकिन चिट्ठी के मामले में सन्तोष कुमार मुकर सकता है । यह चिट्ठी छाप कर आप मुसीबत में फस सकते हैं ।”
“देखा जायेगा” - श्याम वर्मा जोश से बोला - “जब ओखली में सर दे ही दिया है तो मूसलों से क्या डरना ।”
उसने कागज और पैन निकाल लिया और उस चिट्ठी की नकल करने लगा । सारी चिट्ठी नकल कर चुकने के बाद उसने कागज अपनी जेब में रख लिया और चिट्ठी सुनील की ओर सरका दी ।
“अब क्या मैं समाचारों का वह विवरण देख सकता हूं जो आपको उस काले चोर ने भेजे थे ?” - सुनील बोला ।
श्याम वर्मा एक क्षण हिचकिचाया और फिर बोला - “अभी दिखाता हूं ।”
उसने अपनी जेब से एक चाबी निकाली और उसकी सहायता से अपनी मेज के दराजों का ताला खोला । एक दराज में से उसने कुछ टाइप किये हुए कागज निकाले और उन्हें सुनील के सामने रख दिया ।
सुनील ने कागजात पढने आरम्भ कर दिये । उनमें सन्तोष कुमार की हत्या के दोनो प्रयत्नों का विवरण था और दो कवरिंग लैटर थे जिनका जिक्र श्याम वर्मा पहले ही कर चुका था । सारे कागज टाइप किये हुये थे । सुनील ने उन कागजों में से एक कागज छांट लिया और बड़ी बारीकी से उसके टाइप किये हुए अक्षर चेतावनी वाली चिट्ठी से मिलाने लगा ।
श्याम वर्मा ने कुछ बोलने का उपक्रम किया लेकिन सुनील ने उसे हाथ उठाकर रोक दिया ।
“वर्मा जी” - अन्त में सुनील बोला - “आपकी ये रिपोर्ट और यह चेतावनी भरी चिट्ठी एक ही टाइपराइटर पर टाइप की गई हैं और इससे इस बात की काफी सम्भावना दिखाई देती है कि शायद दोनों चीजें एक ही आदमी द्वारा टाइप की गई हैं । चिट्ठी को ड्राफ्ट करने का स्टाइल भी एक ही है ।”
“तुमने यह कैसे जाना कि दोनों चिट्ठियां एक ही टाइप राइटर पर टाइप की गई हैं ?” - श्याम वर्मा ने उत्सुक स्वर से पूछा ।
“दोनों चिट्टियों में ‘बी’ और ‘एफ’ को गौर से देखिये । सब जगह ‘बी’ का निचला भाग टूटा हुआ है और ‘एफ’ की अलाइनमैंट बिगड़ी हुई है । ‘एफ’ बाकी अक्षरो के मुकाबले में जरा ऊंचा उठा हुआ है ।”
श्याम वर्मा ने अपनी आंखों चश्मा ठीक किया और गौर से सुनील की बातों को परखने लगा ।
“बाई गाड, तुम ठीक कह रहे हो” - अन्त में वह बोला - “यार तुम तो पूरे शरलक होम्ज हो ।”
सुनील मुस्कराया और उसने चेतावनी वाली चिट्ठी अपनी जेब में रख ली । श्याम वर्मा ने भी अपने कागज समेटे और दराज में बन्द कर लिये ।
“मैं एक बात कहूं ।” - श्याम वर्मा बोला ।
“कहिये ।” - सुनील बोला ।
“यह जरूर किसी औरत का काम है । सन्तोष कुमार की जाने के पीछे जरूर कोई औरत पड़ी हुई है ।”
“कैसे जाना ?”
“ऐसी मूर्खता कोई औरत ही कर सकती है कि पहले वह सन्तोष कुमार को कोई चेतावनी भरी चिट्ठी लिखे और फिर उसकी हत्या के अपने ही प्रयत्नों का विवरण लिखकर किसी अखबार को भी भेज दे ।”
“आप मजाक कर रहे हैं ।”
“मैं एकदम गम्भीर हूं । यह जरूर किसी औरत का काम है और किसी विक्षिप्त औरत का काम है । सन्तोष कुमार के असख्य दुश्मनों से आधी से अधिक संख्या औरतों की होगी । सन्तोष कुमार ने अभिनेत्री बनने के लालच में फिल्मी उद्योग में आने वाली बहुत लड़कियों को धोखा दिया है, बहुत लड़कियां खराब की हैं उसने ।”
“लेकिन एक बात आप भूल रहे हैं ।”
“क्या ?”
“आप के दफ्तर तक चिट्ठी पहुंचाने के लिये जो छोकरा आया था, उसने कहा था कि उसे चिट्ठी एक आदमी ने दी थी ।”
“फिर क्या हुआ ! सम्भव है किसी लड़की ने ही चिट्ठी देकर उस आदमी को भेजा हो और बाद में उस आदमी ने अपनी सुरक्षा की खातिर एक रुपये के बदले में उस लड़के को चिट्ठी यहां तक लाने के लिये तैयार कर लिया हो ।”
“सम्भव है ।”
“अच्छा एक बात बताओ ।”
“पूछिये ।”
“चाय पियोगे ?”
सुनील ने विचित्र नेत्रों से श्याम वर्मा की ओर देखा और फिर तनिक मुस्करा कर बोला - “आपका बात करने का ढंग बड़ा चौंका देने वाला है । मैं समझा था कि आप सन्तोष कुमार के सन्दर्भ में ही कोई महत्वपूर्ण बात करने वाले हैं और आपने चाय की बात कर दी ।”
“चाय पियोगे ?”
“पी लूंगा ।”
“मैं अभी मंगाता हूं” - वह बोला और फिर उच्च स्वर में उसने आवाज लगाई - “परवाना साहब ।”
कुछ क्षण बाद वह युवक भीतर प्रविष्ट हुआ जिसे सुनील बाहर वाले कमरे में बैठा प्रूफ पढता देखकर आया था ।
“मैं जा रहा हूं” - श्याम वर्मा अपने स्थान से उठता हुआ ‘परवाना साहब’ से बोला - “आप आधे घन्टे तक मेरा इन्तजार कर लीजियेगा । अगर मैं तब तक न आऊं तो आप दफ्तर बन्द करके चाबी अपने साथ ले जाइयेगा ।”
परवाना साहब ने स्वीकृतिसूचक ढंग से सिर हिला दिया ।
“आइये सुनील साहब ।” - श्याम वर्मा बोला ।
सुनील श्याम वर्मा के साथ दफ्तर से बाहर निकल आया ।
“वाकेई आपका बात करने का ढंग बहुत चौंका देने वाला है” - सीढियां उतरता हुआ सुनील बोला - “मैं तो समझा था, आप परवाना साहब को चाय मंगाने के लिये बुला रहे थे ।”
“आपने बिल्कुल ठीक समझा था” - श्याम वर्मा बोला - “लेकिन उसकी सूरत सामने आने पर मैंने इरादा बदल दिया था ।”
“क्यों ?”
“परवाना साहब अपने आप को बहुत बड़ा साहित्यकार मानते हैं । शायरी करते हैं और जासूसी उपन्यास लिखते हैं । शेर तो आज तक कहीं नहीं छपे लेकिन जासूसी उपन्यास कभी कभार छप जाता है । मैं इनसे चाय मंगवाता तो वे इनकार तो नहीं करते लेकिन अगले दिन बाकी स्टाफ के आने पर वे इस बात का तीव्र विरोध करते और अपनी मजबूरियों का रोना रोते हुए कहते कि इस कम्बख्त नौकरी के लालच में हिन्दोस्तान के एक महान साहित्यकार को चपरासी की तरह सम्पादक के लिये चाय लाने का हकीर काम करना पड़ता है ।”
सुनील हंसा ।
“सिगरेट पीजिये ।” - वह बोला ।
“नहीं ।” - श्याम वर्मा बोला - “मैं एक दिन में एक से ज्यादा सिगरेट नहीं पीता । तुम पियो ।”
सुनील ने एक सिगरेट सुलगा लिया ।
“वैसे मिस्टर सुनील, एक बात आपको माननी पड़ेगी” - श्याम वर्मा बोला - “इस सारे हंगामे की वजह से सन्तोष कुमार को बड़ा भारी फायदा हुआ है ।”
“और आपको भी ।”
“हां हमें तो हुआ ही है लेकिन संतोष कुमार को ज्यादा हुआ है । जितनी पब्लिसिटी उसे इन घटनाओं की वजह से मिली है, उतनी उसे पिछले दस सालों में नहीं मिली । बच्चे-बच्चे की जुबान पर सन्तोष कुमार का नाम आ गया है । दरअसल आजकल क्योंकि सन्तोष कुमार से फिल्म निर्माता परहेज करने लगे हैं इसलिए सन्तोष कुमार के बारे में कुछ छापने लायक तो होता नहीं । धीरे धीरे सन्तोष कुमार का नाम सिने दर्शकों की जुबान से उतरता जा रहा है, लेकिन अब फिर वह भारी चर्चा का विषय बन गया है ।”
सुनील चुप रहा ।
श्याम वर्मा उसे एक चाय की दुकान में ले आया । उसने चाय का आर्डर दिया और सुनील के साथ एक कोने की मेज पर जा बैठा । दुकान में और कोई ग्राहक नहीं था । रेडियो फुल वाल्यूम पर बज रहा था । फिल्मी गाने प्रसारित हो रहे थे ।
“पहलवान, जरा रेडियो हल्का कर दो ।” - श्याम वर्मा दुकानदार से बोला ।
“अच्छा वर्मा जी ।” - दुकानदार बोला ।
रेडियो हल्का हो गया ।
“अब मैं आपसे एक दो बातें पूंछूं ?” - सुनील बोला ।
“सौ पचास पूछो ।” - श्याम वर्मा बोला ।
“आराधना और सन्तोष कुमार का क्या किस्सा था ? सुना है ‘इन्कलाब’ में पहले दमयन्ती माला की वजह आराधना हीरोइन थी ।”
“तुमने बिल्कुल ठीक सुना है । यह चार साल पहले की बात है । आराधना की नई अभिनेत्री थी और उसके बहुत बड़ी स्टार बनने के आसार दिखाई दे रहे थे । तब तक उसकी तीन या चार फिल्में आई थीं और सभी में उसके अभिनय की बहुत तारीफ की गई थी । उत्तमचन्दानी सेठ ने ‘इन्कलाब’ के लिये आराधना और सन्तोष कुमार को साइन किया था । अखबारों में विज्ञापन चला गया, फिल्म का महूरत हो गया, दो दिन की शूटिंग भी हो गई और उसके बाद पता नहीं सन्तोष कुमार कैसे भड़क गया कि वह ‘इन्कलाब’ में से आराधना को निकालने के लिये जिद करने लगा । पूछे जाने पर उसने कहा कि आराधना की अभिनय करना नहीं आता था । ऐसी नई और नौसिखिया लड़की के साथ अगर वह हीरो आयेगा तो उसका अपना इमेज बिगड़ जायेगा । साहब, सन्तोष कुमार बहुत बड़ा स्टार है । उत्तमचन्दानी सेठ आराधना की खातिर सन्तोष कुमार को तो निकाल नहीं सकता था । नतीजा यह हुआ है कि ‘इन्कलाब’ में से निकाल दिया गया और उसके स्थान पर दमयन्ती माला को ले लिया गया और मजेदार बात यह है कि अब उसकी दमयन्ती माला से भी नहीं बनती लेकिन फिल्म क्योंकि तीन चौथाई से ज्यादा बन चुकी है इसलिये वह दमयन्ती माला को फिल्म से निकलवा नहीं सकता ।”
“इस सिलसिले में आराधना ने कुछ नहीं कहा था ?”
“कहा भी था तो अब मुझे याद नहीं है । वैसे उन दिनों आराधना को ‘इन्कलाब’ में से निकलवाये जाने के पीछे जो अफवाह मशहूर थी वह यह थी कि सन्तोष कुमार चाहता था कि आराधना इस मामले में उसका अहसान माने कि उसे इतने बड़े स्टार के साथ अभिनय करने का अवसर मिल रहा है और इस अहसान का बदला वह अपने शरीर से चुकाये । लेकिन सुना है कि आराधना सन्तोष कुमार की हवस का शिकार बनने के लिये तैयार नहीं हुई थी । सन्तोष कुमार चिड गया और फिर अपने कमीनेपन पर उतर आया । नतीजा यह हुआ कि आराधना का ‘इन्कलाब’ में से पत्ता काट गया । उन दिनों आराधना के पास तीन और फिल्में थीं । अपने प्रभाव से संतोष कुमार ने आराधना को उनमेंसे भी निकलवा दिया ।”
“अरे !”
“आराधना का तो सारा कैरियर ही सन्तोष कुमार ने खराब किया है । आराधना, जिसमें बहुत बड़ी स्टार बनने के लक्षण दिखाई दे रहे थे, अब सैकेण्ड रेट फिल्मों की सैकेन्ड रेट अभिनेत्री बनकर रह गई है । ऐसे तमाशे सन्तोष कुमार ने बहुत अभिनेत्रियों के साथ किये हैं । अन्तर केवल इतना है कि बाकी अभिनेत्रियां प्रसिद्ध थीं, सन्तोष कुमार की बदमाशियों से उन्हें भारी फर्क नहीं पड़ा लेकिन आराधना क्योंकि नई अभिनेत्री थी इसलिये बरबाद हो गई ।”
“ऐसी कोई ताजी घटना भी हुई है ?”
“दो हुई हैं । एक में सन्तोष कुमार का शिकार प्रसिद्ध अभिनेता स्वराज कुमार था और दूसरी में मद्रास का एक निर्माता था ।”
“स्वराज कमार का क्या किस्सा है ?”
“स्वराज कुमार का नाम तो सुना है न ?”
“सुना है । अच्छा खासा मशहूर अभिनेता है । मैंने उसे एक फिल्म में सन्तोष कुमार के साथ भी देखा था ।”
“और उस फिल्म में उसने सन्तोष कुमार की नाक भी नीची कर दी थी । हर सिनेदर्शक यही कहता था कि उस फिल्म में स्वराज कुमार ने सन्तोष कुमार से अच्छा अभिनय किया था ।”
“आप असली बात सुनाइये ।”
“पिछले दिनों स्वराज कुमार की दो तीन फिल्में इकट्ठी रिलीज हुई थी और उन सबमें उसने बहुत शानदार काम किया था । फिल्म देखने वालों ने उसके अभिनय की इतनी ज्यादा तारीफ की थी कि अपने फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर के भारी आग्रह पर सेठ उत्तमचन्दानी ने स्वराज कुमार की ‘इन्कलाब’ में शामिल कर लिया । सन्तोष कुमार को ज्यों ही यह बात मालूम हुई वह उत्तमचन्दानी सेठ के पास पहुंच गया कि फिल्म में या तो स्वराज कुमार को रख लो या उसे रख लो । मजबूरन उत्तमचन्दानी सेठ को स्वराज कुमार का मोह छोड़ना पड़ा ।”
“सन्तोष कुमार को फिल्म से स्वराज कुमार की मौजूदगी से क्या फर्क पड़ता था ?”
“बहुत फर्क पड़ता था । सच पूछो तो सन्तोष कुमार स्वराज कुमार से घबराता है । अगर पिछली फिल्म की तरह इन्कलाब में भी स्वराज कुमार उसे पीट जाता तो सन्तोष कुमार की ऐसी तैसी हो जाती । सन्तोष कुमार के पहले ही झंडे उखड़े जा रहे हैं, एक बड़ा धक्का उसे और लग जाता ।”
उसी क्षण चाय आ गई ।
दोनों चाय की चुस्कियां लेने लगे ।
“और मद्रास के फिल्म निर्माता की क्या बात थी ?” - सुनील ने पूछा ।
“मद्रास में सन्तोष कुमार की दो फिल्में बन रही थी । एक ‘दो भाई’ जिसमें सन्तोष कुमार का डबल रोल था और दूसरी ‘नया इन्सान’ । ‘नया इन्सान’ उस मद्रासी निर्माता अश्वथप्पा की फिल्म थी जिसका मैं तुमसे जिक्र करने वाला हूं । ‘नया इन्सान’ ‘दो भाई’ से पहले आरम्भ हुई थी और लगभग पूरी ही चुकी थी । सन्तोष कुमार का उसमें बहुत थोड़ा सा काम बाकी थी । उसी दौरान सन्तोष कुमार की राजनगर में बनी तीन अन्य फिल्में बारी बारी रिलीज हुई और तीनों बाक्स आफिस पर बुरी तरह पिट गई । सन्तोष कुमार के पांव के नीचे से जमीन निकल गई । अश्वथप्पा की फिल्म ‘नया इन्सान’ से उसे कोई भारी आशायें नहीं थी । उसे लग रहा था कि वह फिल्म भी जरूर पिट जायेगी और फिर उसकी बहुत दुर्गति होगी लेकिन ‘दो भाई’ के चल जाने की काफी सम्भावना थी । ‘दो भाई’ बाक्स आफिस के फारमूले पर बनाई जा रही एक हल्की फुल्की कामेडी फिल्म थी । सन्तोष कुमार चाहता था कि पहले ‘दो भाई’ रिलीज हो जाये ताकि उसकी डूबती हुई नैय्या को थोड़ा सहारा मिल जाये । परिणाम स्वरूप उसने अस्वथप्पा को शूटिंग डेट बनी बन्द कर देनी बन्द कर दीं और उसकी लगभग कम्पलीट फिल्म की बीच में लटका कर ‘दो भाई’ को जल्दी-जल्दी पूरी करवाने में जुट गया ।”
श्याम वर्मा चाय की एक चुस्की लेने के लिये रुका और फिर बोला - “सन्तोष कमार की इस हरकत ने अश्वथप्पा को तबाह कर दिया । वह बड़े तगड़े सूद पर लेकर अपनी फिल्म पर पैसा लगा रहा था । संतोष कुमार की बदमाशी से फिल्म अटक गई । उसे सूद की मोटी मोटी रकमें भारनी पड़ीं । नतीजा यह हुआ कि उसका बंगला, कार और बीवी के जेवर तक बिक गये । बाद में ‘दो भाई’ से निपट कर सन्तोष कुमार ने ‘नया इन्सान’ भी पूरी तो करवा दी लेकिन तब तक अश्वथप्पा कंगाल हो गया । लेकिन सन्तोष कुमार की चाल चल गई । ‘दो भाई’ पहले रिलीज हुई और खूब चली । ‘नया इन्सान’ साफ साफ पिट गयी । अश्वथप्पा दर-दर का भिखारी बन गया ।”
“कमाल है” - सुनील बोला - “कोई आदमी अपने निजी स्वार्थ के लिये इतनी नीचता भी दिखा सकता है ।”
“हर कोई नहीं दिखा सकता । सन्तोष कुमार दिखा सकता है । अब तुम्हीं सोचो । सन्तोष कुमार के सताये हुए लोगों में से अगर कोई सन्तोष कुमार की हत्या करने पर उतर आये तो इस में हैरानी की क्या बात है ?”
“आप ठीक कह रहे हैं ।”
“अब एक और मजेदार बात सुनो । पिछले दिनों अश्वथप्पा राजनगर में मौजूद था ।”
“अच्छा ।”
“हां और जिस रोज सैंडविच मैं जहर वाली घटना घटी थी, उस रोज स्वराज कुमार मिनर्वा स्डूडियो के ही एक सैट पर शूटिंग कर रहा था ।”
“और आराधना ?”
“उसके बारे में मुझे नहीं मालूम ।”
“मैं सबसे पहले आराधना से ही मिलूंगा । उसका पता मालूम है आपको ?”
“हां । चेथम रोड पर भवानी लाज के एक कमरे में रहती है वह ।”
सुनील चुप हो गया और चुपचाप चाय पीने लगा ।
रेडियो ने फिल्मी गीत प्रसारित करने बन्द कर दिये थे और अब कोई समाचार पढ रहा था । सुनील का ध्यान रेडियो की ओर नहीं था लेकिन एकाएक सन्तोष कुमार का नाम कान के पड़ते ही वह चौंका । वह रेडियो की आवाज सुनने लगा ।
अनाउन्सर कह रहा था - अभी अभी समाचार प्राप्त हुआ है कि प्रसिद्ध सिनेमा स्टार सन्तोष कुमार की किसी ने हत्या कर दी है । मिनर्वा स्टूडियो के कम्पाउन्ड में खड़ी उनकी लाल रंग की विदेशी गाड़ी में किसी ने बम रख दिया था । सन्तोष कुमार पिछले पन्द्रह वर्षों से भारतीय फिल्म...
बाकी बात सुनील ने नहीं सुनी । वह एकाएक उठा और बाहर की ओर भागा ।
श्याम वर्मा कुछ क्षण मुंह बाये उसे बाहर भागता देखता रहा और फिर वह भी उठकर उसके पीछे भागा ।