दालूबाबा।
उम्र कितनी ? नहीं मालूम । डेढ़ सौ बरस से उसे देखने वाले वैसे का वैसा ही देख रहे थे । देखने में पचास बरस से ज्यादा का नहीं लगता था । स्वस्थ शरीर । सिर पर छोटे-छोटे बाल । होठों पर मूंछें । कोई भी बाल सफेद नहीं । चौड़े कंधे, गठा हुआ शरीर । करीब पौने छः फीट लंबा था दालूबाबा ।
इस वक्त दालूबाबा अपने गृह नीले पहाड़ के शयनकक्ष में था । बहुत ही खूबसूरत और बड़ा बेड था उसका । शहनील के कपड़ो में लिपटे तकियों का सहारा लेकर, वो बेड पर अधलेटा सा था । इस वक्त उसकी सेवा में चार बेहद खूबसूरत युक्तियां मौजूद थी, जिन्होंने बहुत कम कपड़े पहन रखे थे । दो युवतियां उसकी टांगे दबा रही थी और बाकी दो उसके सिर के करीब बेड पर बैठी उसके साथ हंसी-ठठ्ठा कर रही थी। दालूबाबा के हाथ युवतियों के जिस्म पर छेड़-छाड़ के इरादे से चल रहे थे ।
ये दालूबाबा नगरी का सबसे ताकतवर व्यक्ति था । इसके यहां से आदेश निकलते हैं और तिलस्मी नगरी के छोटे-बड़े लोग, सिर झुकाकर उन आदेशों को स्वीकार करते थे ।
तभी कमरे में कोने में लगा छोटा-सा घंटा बज उठा ।
चारों युवतियों की हरकतें रुकी ।
दालूबाबा की निगाह फौरन घंटे की तरफ उठी। जिसकी जंजीर, दीवार के पास दूसरी तरफे कहीं जा रही थी । उसके खास लोगों में से किसी को मुलाकात मुलाकात करनी हो तो, तब यह घंटा बजाया जाता था और मुलाकात करने वाले यह भी जानते थे कि दालूबाबा शयनकक्ष में होता है तो तब किसी से मिलना उसे पसंद नहीं आता ।
इसका मतलब आने वाले के पास कोई खास खबर है ?
दालूबाबा फौरन बेड से उतरा और स्लीपर पहनते हुए बोला ।
"तुम सब यहीं पर मेरा इंतजार करो ।" कहने के साथ ही वो तेज-तेज चाल से आगे बढ़ता हुआ दीवार के पास पहुंचकर ठिठका और हाथ बढ़ाकर दीवार के एक हिस्से को दबाया तो सामने की दीवार एक तरफ सरक गई और रास्ता नजर आने लगा । उस रास्ते से बाहर निकलकर, दूसरी तरफ की दीवार का खास हिस्सा दबाया तो दीवार वापस सरक आई और वो रास्ता बंद हो गया ।
दालूबाबा आगे बढ़ गया ।
चेहरे पर किसी तरह का भाव नहीं था ।
आगे रास्ता मुड़ रहा था । दालूबाबा रास्ते के साथ मुड़ गया । कुछ आगे वो जाकर रास्ता बंद हो गया और सामने दीवार नजर आने लगी ।
दालूबाबा ने उस दीवार के खास हिस्से को दबाया तो बे-आवाज दीवार एक तरफ खिसक गई और उससे पार रोशनी का तीव्र प्रकाश फैला नजर आने लगा । दालूबाबा उस रास्ते से बाहर निकला तो वह रास्ता बंद होता चला गया ।
दालूबाबा की निगाह हर तरफ घूमने लगी ।
रोशनियों से जगमग करता यह बहुत बड़ा हॉल था । जैसे कोई राजे-महाराजे का दरबार हो । छत पर फानूस लटके जगमगा रहे थे। और भी कई जगहों से रोशनियां फूट रही थी । उस विशाल हॉल में शीशे कुछ इस तरह लगा रखे थे कि वो आती रोशनी को दुगना करके वापस भेज रहे थे । वहां का जर्रा-जर्रा चमक रहा था। विशाल हॉल के बीच करीब पन्द्रह गोल थम्ब थे जोकि छः-छः फीट व्यास के थे। फर्श पर हर जगह गद्देदार कालीन ही बिछे नजर आ रहे थे । एक तरफ पांच फीट ऊंचा चबूतरा बना हुआ था, जो कि काले कालीन से ढका हुआ था और उस पर सिंहासन जैसी बेहद खूबसूरत कुर्सी पड़ी थी, जिस पर हीरेजवाहरात लगे, तीव्रता से चमक रहे थे।
दालूबाबा आगे बढ़ा और आठ छोटी-छोटी सीढ़ियां तय करके चबूतरे पर पहुंचा और सिंहासन नुमा कुर्सी पर जा बैठा ।
उसके सामने करीब दस कुर्सियां मौजूद थी । जिस पर तीन व्यक्ति मौजूद थे, परंतु उसके वहां प्रवेश करते ही वो खड़े हो गए थे। उनमें से दो तो दालूबाबा के कामों की देख-रेख वाले व्यक्ति थे और उनके बीच गीतलाल मौजूद था । जो कि दालूबाबा के सिंहासन पर पहुंचते ही सिर झुका कर बोला ।
"दालूबाबा की सेवा में गीतलाल हाजिर है ।"
दालूबाबा ने गहरी निगाहों से गीतलाल को देखा ।
"कहो गीतलाल । ऐसी क्या बात हो गई, जो तुम यहां आए ?" दालूबाबा ने संयत स्वर में कहा ।
"दालूबाबा । बहुत ही खास और अजीब बात देखी ।" गीतलाला आदर भरे स्वर में बोला । "क्या ?"
"मैंने देवी को देखा।" गीतलाल ने कहा ।
"दालूबाबा बुरी तरह चौंका ।
"किसे-देवी को ?" दालूबाबा के होठों से निकला ।
"हां । हमारी तिलस्मी नगरी की देवी....।"
"क्या बकवास करते हो गीतलाल ।" दालूबाबा हत्थे से उखड़ता नजर आता दिखाई देने लगा--- "देवी को तुमने कहां देख लिया । अभी तो उसकी वापसी का वक्त भी नहीं हुआ।"
"मैंने देवी को देखा है दालूबाबा ।" गीतलाल हाथ जोड़कर पुनः कह उठा।
"देवी के आने का जो वक्त लिखा हुआ है, वो वक्त अभी नहीं आया ।" दालूबाबा अपने पर काबू पाता कह उठा--- "तुम इस वक्त गलतफहमी के दौर में से गुजर रहे हो, गीतलाल ।"
दो पल खामोश रहकर, गीतलाल पुनः पहले जैसे स्वर में कह उठा ।
"दालूबाबा मेरी बात पर यकीन कीजिए ?"
इस बार गीतलाल के शब्द सुनकर, दालूबाबा की आंखें सिकुड़ी । चेहरे के भाव फिर बननेबिगड़ने लगे । निगाहें गीतलाल पर ही रहीं ।
"न-नहीं । ये कैसे हो सकता है । असंभव । उसके लौटने का अभी समय...।" बड़बड़ाहट रोककर, दालूबाबा ने गीतलाल से कहा--- "तुम कैसे कह सकते हो कि जिसे तुमने देखा, वो देवी ही है । "
"देवी के बुत से उसका चेहरा हू-ब-हू मिलता था दालूबाबा।"
दालूबाबा का सिर इंकार में हिला ।
"देवी जैसा चेहरा बनाना किसी की चाल भी हो सकती है और कोई बात ?"
"देवी के बूत पर पड़ी तिलस्मी लकीरों वाली चादर हटा दी।" गीतलाल बोला ।
दालूबाबा के चेहरे के भाव गुडमुड़ हुए ।
"फिर तो वो वहीं, खड़े पांव जान गवां बैठी होगी ।" दालूबाबा ने गीतलाल को घूरा ।
"नहीं दालूबाबा । उसे कुछ नहीं हुआ । वो जिंदा रही । "
"असंभव । तिलस्मी लकीरों वाली चादर हटाने के बाद वो जिंदा नहीं रह सकती ।"
"मेरी बात का यकीन करें दालूबाबा ।"
दालूबाबा के चेहरे पर सख्ती की परत चढ़ गई ।
"जरूर यकीन करता, अगर बात यकीन करने के लायक होती । अपने बुत से तिलस्मी चादर सिर्फ ही हटा कर, जिंदा रह सकती है और तुम कहते हो कि वो जिंदा रही, जबकि लिखे समय के मुताबिक अभी देवी की वापसी का वक्त नहीं आया ।"
गीतलाल खामोश रहा।
"अगर तुम हमारे खास आदमियों में न होते तो मैं तुम्हारी इतनी भी बात नहीं सुनता । मेरा बहुत कीमती वक्त तुमने खराब किया है गीतलाल।" दालूबाबा का स्वर गंभीर था ।
"मैं क्षमा चाहता हूं दालूबाबा ।
परंतु दालूबाबा तो बेचैनी के भंवर में घूम रहा था ।
"तो उसने, जिसे तुम देवी कह रहे हो, बुत से लकीरों वाली चादर उतारी और उसे कुछ नहीं हुआ ?" दालूबाबा अपने एक-एक शब्द को चबाकर, सिर हिलाते कह उठा ।
"जी हां ।"
"तुम पास थे उसके तब ? "
"जी हां । "
"अगर तुम्हारी बात झूठ या गलत निकली तो अंजाम जानते हो ।
"हां दालूबाबा। मैं इस वक्त अच्छी तरह जानता हूं कि मैं दालूबाबा से बात कर रहा हूं।" दालूबाबा का हाथ उठा और अंगूठे से अपनी आंख मसलने लगा ।
"उसने कहा कि वो देवी है ?"
"नहीं ।" गीतलाल ने इनकार में सिर हिलाया--- "बल्कि मैं खुद हैरान था उसके सवालों पर । क्योंकि जो सवाल वो पूछ रही थी, उसका जवाब तो देवी के पास होना चाहिए।"
"फिर तुम कैसे कह सकते हो कि वो देवी है ?"
"क्योंकि देखने में हू-ब-हु देवी ही है और बुत से तिलस्मी लकीरों वाली चादर उतारने पर उसे कुछ नहीं हुआ तो मैं ये खबर आपको देने आ पहुंचा।" गीतलाल ने गंभीर स्वर में कहा - "हो सकता है, मुझे गलती से लगी हो। वो देवी न हो। परंतु अब सोचता हूं तो वो देवी ही महसूस होती है।"
दालूबाबा पुनः अंगूठे से आंख मसलने लगा।
"अब वो कहां है ?"
"मैंने उसे तिलस्म में डाल दिया है । " दालूबाबा ने आंखे सिकोड़कर उसे देखा।
"अगर तुम्हें लगा कि वो देवी है तो तुमने उसे तिलस्म में क्यों भेजा ?"
"दो वजहों से । मैंने सोचा अगर वो देवी है तो ऐसे सवाल क्यों पूछ रही है, जिसका जवाब उसके पास होना चाहिए। दूसरी वजह यह रही कि शरीर की महक से मैंने यह महसूस कर लिया कि वो मनुष्य है । पृथ्वी की वासी है और आपका सख्त आदेश है कि अगर कोई मनुष्य आ जाए तो उसे तिलस्म में भेज दिया जाए।"
दालूबाबा सोच-व्याकुल के अंदाज में गीतलाल को देखता रहा ।
"किस दिशा में उसे तिलस्म में भेजा ?" दालूबाबा ने पूछा।
"उत्तर दिशा से । वो जिसका चेहरा देवी से मिलता था, वो मुझे अपने ही महल में मिली, जो खंडहर बन चुका था और उसके पीछे जो कुआं, तिलस्मी नक्शे में ले रखा है, उसी कुंए के रास्ते उसे तिलस्म में भेजा । लेकिन अब कभी-कभार महसूस होने लगता है कि वो असल में देवी ही होगी ।"
दालूबाबा ने पुनः अंगूठे से आंख मली।
"ठीक है गीतलाल । तुमने ये खबर देकर बहुत अच्छा किया। सच-झूठ को हम परख लेंगे । फिर जरूरत पड़ी तो तुम्हें याद करेंगे।" इसके साथ ही दालूबाबा ने उसके साथ खड़े दोनों व्यक्तियों से कहा--- "खाना पानी के बाद इसे बाहर तक छोड़ दिया जाए । "
"जी।"
दोनों ने सिर हिलाया और गीतलाल को वहां से लेकर चले गए।
दालूबाबा सिंहासन नुमा कुर्सी पर बैठा रहा । सोचता रहा। जब वह यहां आया था तो मन-दिमाग शांत था । परंतु गीतलाल की बातों से दिलो-दिमाग अशांत हो चुका था । मन में पचासों तरह के विचार आ रहे थे । देवी वापस आ गई है, यह खबर दालूबाबा को जड़ से हिला देने के लिए बहुत थी ।
दालूबाबा सिंहासन से खड़ा हो गया।
"असंभव ।" दालूबाबा बड़बड़ाया--- "समय से पहले मिन्नो वापस कैसे आ सकती है । लेकिन गीतलाल की बातों को यूं भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता । तिलस्मी बातों का वो अच्छा ज्ञानी है। वो ये भी जानता है कि मेरे को त खबर देने पर मैं उसे तबाह कर सकता हूं।"
काफी देर तक दालूबाबा, उसी चबूतरे पर, सिंहासन जैसी कुर्सी के सामने टहलता रहा । जहां उसके अलावा, दो पहरेदार थे, जो दूर खड़े थे ।
एकाएक दालूबाबा टहलना छोड़कर, चबूतरे की सीढ़ियां उतरा और तेजी से उस हॉल से बाहर निकलता चला गया। अपने शयनकक्ष की तरफ नहीं, दूसरी राह पर । रास्ते में कई पहरेदार खड़े मिले, जो उसके सामने से गुजरने पर सिर झुका रहे थे।
दालूबाबा एक ऐसे दरवाजे के सामने रुका, जिसका रंग स्याह काला था और दो वो पल्लों वाला दरवाजा था । उस दरवाजे पर कोई ताला नहीं था । चाबी लगाने के लिए 'होल' नहीं था खोलने बंद करने के लिए कोई हैंडिल नजर नहीं आ रहा था ।
दालूबाबा की आंखों में व्याकुलता भरी पड़ी थी ।
दरवाजे के बाहर खड़े होकर, आंखें बंद करने के पश्चात उसके होंठ हिलने लगे, जैसे किसी मंत्र का उच्चारण कर रहा हो । लेकिन होठों से कोई आवाज नहीं निकल रही थी । बीस-सैकिंड के बाद उसके होंठ हिले । आंखें खुली। नजरें दरवाजे पर जा टिकी ।
चंद क्षणों बाद ही वो दरवाज़ा हल्का-सा हिलता महसूस हुआ, फिर उसके पल्ले धीरे-धीरे खुलने लगे । देखते ही देखते पल्ले पूरे खुल गए ।
दालूबाबा ने दोनों हाथ जोड़कर खुले दरवाजे को सिर झुका कर नमस्कार किया फिर पांवो में पहने स्लीपर उतारकर भीतर प्रवेश कर गया । दो कदम भीतर जाकर वो पलटा और दरवाजे की तरफ मुंह करके होठों ही होठों में कुछ बुदबुदाया तो दरवाजे के पल्ले बंद होते चले गए।
दालूबाबा की नजर उस छोटे से कमरे में दौड़ने लगी जो दस फीट चौड़ा और आठ फीट लंबा था। कमरे में कोई खिड़की-दरवाजा नहीं था, परंतु फ्रेश हवा वहां मौजूद थी। कमरे में नीला-सा मध्यम प्रकाश फैला हुआ था ।
बीचो-बीच टेबल और कुर्सी मौजूद थी। टेबल पर बहुत मोटी किताब पड़ी नजर आ रही थी । इसके अलावा टेबल पर कुछ नहीं था।
दालूबाबा आगे बढ़ा और कुर्सी पर बैठकर, दोनों हाथ जोड़कर किताब को प्रणाम किया और अधीर भाव से किताब खोल कर, जल्दी-जल्दी पन्ने पलटने लगा। किताब के पन्नों पर, काली स्याही से, हाथ की लिखाई लिखी हुई थी।
पन्ने पलटते हुए दालूबाबा कई जगह रुका । लिखावट पर उंगली रख कर उन शब्दों को पढ़ा । अजीब सी भाषा में, वो पन्ने भरे हुए थे ।
करीब आधा घंटा वो किताब में उलझा रहा ।
जब किताब बंद की तो चेहरे पर अजीब से भाव थे।
मैं पहले ही कह रहा था कि मिन्नो के वापस लौटने का अभी वक्त नहीं हुआ । किताब में उसकी वापसी सौ साल के बाद ही दर्ज है। फिर वो वापस कैसे आ सकती है। गीतलाल को अवश्य धोखा हुआ है। जाने कैसे उसे वहम हो गया कि उसने बुत से चादर उतारी और उसे कुछ नहीं हुआ । अभी मि॒न्नो वापस नहीं आई ।" दालूबाबा ने तसल्ली भरे शब्द अपने को कहे फिर किताब बंद करके उठ खड़ा हुआ ।
दोनों हाथ जोड़कर किताब को नमस्कार किया फिर दरवाजे के पास पहुंचकर होठों ही होठों में बुदबुदाया तो दरवाजा खुल गया। बाहर निकल कर दरवाजे को देखते हुए आंखें बंद करके होठों ही होठों में मंत्रों का उच्चारण किया तो दरवाजा बंद हो गया।
दालूबाबा ने स्लीपर पहने और आगे बढ़ गया। चेहरे पर सोच के भाव अवश्य थे, परंतु अब वह खुद में राहत महसूस कर रहा था । मस्तिष्क में जो उथल-पुथल पैदा हो गई थी वो अब शांत होती जा रही थी। मन शांत होता जा रहा था ।
"मुझे मालूम करना होगा कि गीतलाल ने किस बात पर इतना बड़ा धोखा खाया है ।"
चलते-चलते दालूबाबा बड़बड़ाया और सिर हिलाने लगा । तभी उसके कानों में घंटा बजने की आवाज पड़ी ।
दालूबाबा के कदम ठिठक गए ।
अब कौन आ गया उससे मुलाकात करने ? यही सोचकर उसके कदम उस रास्ते पर बढ़ गए, जो उसी विशाल हॉल में जाकर समाप्त होता है । तीन मिनट बाद ही दालूबाबा ने उसी हॉल में प्रवेश किया। सामने निगाह पड़ी तो आंखें फैलती चली गई। दालूबाबा को ऐसा लगा जैसे पांवों के नीचे से फर्श खिसक रहा हो । वो बुत सा बना खड़ा रह गया । पल भर में ही, चेहरे पर से सैकड़ों रंग आकर गुजर गए । फिर चेहरे पर जो रंग ठहरा, वो अविश्वास-हैरत और असंभव वाला रंग था । दालूबाबा का शरीर जाने कब तक वैसे ही ठहरा रहा और आंखें उस पर टिकी रही।
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वो शुभसिंह था।
जिसे उसने डेढ़ सौ बरस से पत्थर का बनाकर, तिलस्मी कैद में डाला हुआ था और वो तभी सामान्य अवस्था में आ सकता था जब देवी स्वयं आकर उसे छुए और उसकी छाती पर रखी शीशे की बॉल को तोड़कर, उसकी कैद के तिलस्म को समाप्त कर ।
और अब वही शुभसिंह उसके सामने मौजूद था ।
इसका मतलब गीतलाल ठीक कह रहा था कि उस खंडहर हुए महल के बुत से देवी ने तिलस्मी चादर हटाई । उसके ख्याल से वो देवी ही थी।
तो क्या वास्तव में मिन्नो वापस आ गई है।
परंतु तिलस्मी किताब के मुताबिक तो अभी मिन्नो की वापसी में सौ बरस बाकी थे ?
शुभसिंह के साथ दो पहरेदार मौजूद थे ।
दालूबाबा, हैरानी से अभी तक शुभसिंह को देखे जा रहा था ।
"दालूबाबा को डेढ़ सौ बरस बाद, शुभसिंह नमस्कार करता है।"
"शुभ-सिंह तुम...?"
"हां । दालूबाबा । डेढ़ सौ बरस लंबी सजा से मुझे, देवी ने आकर मुक्ति दिला दी । वैसे मेरी गलती ऐसी नहीं थी कि मुझे ऐसी सजा दी जाती । फिर भी मैं खुश हूं कि, अब मैं आजाद हो चुका हूं।"
दालूबाबा अपनी बिगड़ी हालत पर काबू पाने की चेष्टा करने लगा । "तुम-तुम कैद से मुक्त हो गए ?" दालूबाबा का स्वर अजीब-सा था । "देवी की मेहरबानी से ।"
"दे-वी आ गई ।" दालूबाबा की आवाज में अविश्वास के भाव थे ।
"जी हां दालूबाबा । यही खबर सुनाने मैं, सबसे पहले तुम्हारे पास ही आया हूं।" शुभसिंह के होठों पर बराबर मुस्कान छाई हुई थी --- "वैसे हैरत की बात है, दालूबाबा इतना लापरवाह कब से हो गया कि देवी तिलस्म में भटक रही है और तुम्हें उसके आने तक की खबर नहीं । "
दालूबाबा ने जल्दी से खुद पर काबू पाया ।
"तुमने-तुमने बहुत अच्छी खबर सुनाई शुभसिंह । मैं-मैं तो तुम्हें अपने सामने देखते ही समझ गया कि देवी आ गई है, तभी तो तुम सजा से मुक्ति पाकर, मेरे सामने हो । इससे ज्यादा खुशी की बात और क्या हो सकती है कि देवी वापस आ गई है।" दालूबाबा अपनी बिगड़ी हालत पर काबू पाता जा रहा था ।
शुभसिंह ने गहरी निगाहों से दालूबाबा को देखा।
"डेढ़ सौ बरस से तुम एक मात्र स्वामी बने रहे तिलस्मी नगरी के । जबकि ये नगरी तुम्हें, देवी देखभाल के लिए तुम्हारे हवाले करके गई थी । अब सब कुछ देवी के हवाले करने को तैयार हो जाओ।"
"क्यों नहीं । दालूबाबा ने मुस्कुराने की चेष्टा की --- "मैं तो देवी के कहेनुसार, नगरी को और तिलस्म को संभालने की जिम्मेवारी अपने सिर पर लिए हुए था, लेकिन अब सब कुछ देवी के हवाले करके, सारी जिम्मेवारी से मुक्त हो जाऊंगा। बहुत अच्छी खबर सुनाई तुमने ।"
"वो ताज कहां है दालूबाबा ।"
"है । बहुत संभालकर रखा है ।" दालूबाबा ने सिर हिलाया, परंतु उसके चेहरे के भाव बता रहे थे कि वो कहीं और ही कुछ सोच रहा है । st
"मैंने पूछा है कहां ?"
"ये मैं नहीं बता सकता तुम्हें । "
"कोई बात नहीं । ताज की मालकिन, देवी खुद ही तुमसे ताज के बारे में पूछेगी । उसे दे देना।"
"जरूर ।" इस बार दालूबाबा खुलकर मुस्कुराया- "मैं तो खुद देवी के सिर पर 'ताज' रखने को बेताब हूं।"
"मुझे खुशी है कि तुमने ईमानदारी से देवी के आदेश को डेढ़ सौ बरस तक पूरा किया।" शुभसिंह की आवाज में किसी तरह का भाव नहीं था--- - "और आगे भी ठीक ढंग से देवी की सेवा करोगे।"
"दालूबाबा, अपने फर्ज से पीछे कभी नहीं हटता । अब तुम क्या करोगे ?"
"मैं वही करूंगा जो पहले करता था । देवी की रक्षा करना मेरा फर्ज है। मैं अपने साथियों को इकट्ठा कर लूंगा और देवी के लिए पहले की ही तरह जान की बाजी लगा देने के लिए के लिए ह हमेशा तैयार रहूंगा।"
दालूबाबा मुस्कुराया ।
"दालूबाबा, देवी के वफादारों की हमेशा कद्र करता आया है । "
"देवी, तिलस्म में है, उसे वहां से निकालो और पूरी तरह मान-सम्मान दो।"
"मैं अपने फर्ज को अंजाम देना बखूबी जानता हूं शुभसिंह।" दालूबाबा ने कहा।
"अब मैं इजाजत चाहूंगा ।" शुभसिंह बोला।
दालूबाबा ने अपने दोनों पहरेदारों को इशारा किया तो वो शुभसिंह को लेकर चले गए।
"नामुमकिन । असंभव ।" दालूबाबा परेशान - सा बड़बड़ा उठा--- "तिलस्मी किताब कहती है कि देवी के आने में अभी सौ बरस बाकी है । तो फिर देवी समय से पहले कैसे आ पहुंची ? यकीन नहीं आता । शुभसिंह को सामने पाकर भी मन, देवी के आगमन पर यकीन नहीं करने देता। गणना में कहां कमी रह गई । पहले मैं खुद विश्वास करूंगा कि वास्तव में देवी ही है वो या कोई धोखा है । "
दालूबाबा एक ऐसे कमरे में पहुंचा, जहां का फर्श चांदी की तरह चमक रहा था। कमरे में कहीं कोई प्रकार रोशन नहीं था। परंतु वहां चांदी की तरह चमकती रोशनी फर्श से निकल रही थी । कमरे की दीवारें सफेद होने की वजह से उस रोशनी का असर इस हद तक बढ़ा हुआ था कि महसूस होता था जैसे चंद्रमा ने अपनी पूरी रोशनी कमरे में ही फैला रखी हो ।
कमरे के बीचो-बीच फर्श पर ही आसन बिछा था । आसन के सामने चौड़ी-सी चांदी की चौकी पड़ी थी जो शीशे की तरह चमक रही थी ।
कमरे के कोने में चांदी की मीडियम साइज की पेटी थी ।
दालूबाबा उस चांदी की पेटी के पास पहुंचा और स्लीपर उतारकर दाएं हाथ की तर्जनी उंगली से पेटी के चारों कोनों को छुआ फिर हाथ जोड़कर, आंखें बंद किए, ऊंचे-ऊंचे स्वर में अजीब सी भाषा में बड़बड़ाने लगा, जैसे किसी मंत्र का उच्चारण कर रहा हो ।
मिनट भर बाद वो रुका। होंठ बंद किए फिर चांदी की पेटी को देखा ।
देखते ही देखते उसका ऊपर का ढक्कन, ऊपर उठकर चला गया और फिर हवा में स्थिर हो गया । उसी पल ही कमरे में फैला सारा प्रकाश गायब हो गया और पेटी में मौजूद आधे फीट व्यास की चमकती बॉल नजर आई, जिसमें से निकलने वाली रोशनी, कमरे में मध्यमसा प्रकाश फैला रही थी।
दालूबाबा ने बॉल को दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया फिर दोनों हाथ बढ़ाकर बॉल को उठाया और उसने वहां मौजूद चौकी पर लाकर रख दिया । और खुद नीचे बिछे आसन पर बैठ गया।
बॉल से निकलने वाली मध्यम-सी रोशनी में वह कमरा अजीब सा लग रहा था। दालूबाबा आसन की मुद्रा में बैठा, आंखें बंद किए बड़बड़ाने लगा । वक्त बीतने के साथसाथ कमरे में लहसुन और लोबान की महक महसूस होने लगी। फिर धूप और अगरबत्ती जैसी खुशबू के साथ, कमरे में धुआं सा महसूस होने लगा । पल-प्रतिपल वो धुआं बढ़ता ही जा रहा था और दो मिनट में ही ऐसा लगने लगा जैसे कमरे में धुंध ही धुंध भर गई हो
धुंध के गहरेपन में वो बॉल किसी तारे की तरह चमकती महसूस हो रही थी । दालूबाबा ने आंखें खोली । निगाह एकमात्र चमकती नजर आती बॉल पर जा टिकी । इस वक्त उसकी आंखों में अजीब-सा तेज महसूस हो रहा था।
उसके देखते ही देखते बॉल धीमे-धीमे घूमने लगी ।
दालूबाबा की निगाह उस पर टिकी रही । धुंध में डूबी बॉल का घूमना, अजीब-सा लग रहा था । लहसुन-लोबान, धूप और अगरबत्ती की महक के वहां का वातावरण रहस्यमय हो रहा था।
फिर एकाएक बॉल का घूमना थम गया और इसके साथ इसके साथ ही उसका रंग बदल कर लाल सुर्ख लाल होने लेगा। यह देकर दालूबाबा की आंखें और भी तीव्रता से चमक उठी ।
बॉल के लाल सुर्ख होते ही वहां मध्यम-सा स्वर गुंजा । "क्या बात है ?"
आवाज कहां से आ रही है महसूस नहीं हो रहा था ।
"दालूबाबा का नमस्कार स्वीकार कीजिए।"
मुझे नींद से क्यों उठाया ?" पुनः आवाज आई ।
"कुछ पूछना था आपसे ।"
"तू मिन्नो के बारे में पूछना चाहता है।"
"हां । आपसे कुछ भी छिपा नहीं है ।" दालूबाबा ने श्रद्धा भाव से कहा ।
"ठीक कहता है, मुझसे कुछ भी छिपा नहीं है। क्या पूछना है तेरे को मिन्नो के बारे में ?"
"खबर मिली है कि वो इस नगरी में आ चुकी है ।" दालूबाबा ने पूछा ।
"हां।"
"कहां जन्म लिया उसने ?"
"पृथ्वी पर ।"
"तो फिर मिन्नो यहां कैसे पहुंच गई ?"
"समय ने उसे यहां पहुंचा दिया । "
"लेकिन किताब में तो मिन्नो की वापसी का समय सौ वर्ष बाद का दर्ज है । किताब झूठ नहीं हो सकती । तो फिर मिन्नो सौ बरस पूर्व कैसे पहुंच गई ?" दालूबाबा की आवाज में परेशानी के भाव आ गए।
"किताब में जो लिखा है सच लिखा है । लेकिन समय का पहिया जल्दी घूम गया । समय को कभी कोई नहीं बांध पाया । कभी इसकी रफ्तार बहुत कम हो जाती है तो कभी बहुत तेज।"
दालूबाबा दो पल के लिए खामोश हो गया ।
"और कुछ नहीं पूछना ?" आवाज पुनः आई ।
"अगर कुछ है बताने को तो, बता दो ?" दालूबाबा के होंठ हिले ।
"देवा भी तिलस्मी नगरी में आ पहुंचा है।"
दालूबाबा चिहुंक पड़ा ।
"देवा ?" दालूबाबा का मुंह खुला का खुला रह गया ।
"हैरान क्यों हो गए ?"
"देवा और मिन्नो की वापसी एक साथ तिलस्म में ?"
"ठीक कहा तुमने । इस वक्त देवा और मिन्नो तिलस्म में हैं और आखिरकार उनकी मंजिल तुम ही होगे ।" मध्यम सी आवाज वहां गूंज रही थी ।
"वे दोनों एक साथ हैं या अलग-अलग ।" दालूबाबा के होठों से निकला ।
"इस बारे में मैं विश्वास के तौर पर कुछ नहीं कह सकता । क्योंकि पृथ्वी पर उनका रिश्ता दुश्मनी का है, यहां पर क्या होगा, यह भविष्य के गर्भ में है।"
चेहरे पर गम्भीरता ओढ़े दालूबाबा ने आंखें बंद की और आसान की मुद्रा में बैठने के पश्चात्, होठों ही होठों में बड़बड़ाया तो वहां का वातावरण, पहले की तरह होने लगा । धुंध छंटने लगी। बॉल का लाल रंग कम होने लगा और फिर बॉल अपनी पूर्ववस्था में आ गई । उसमें से मध्यम सी रोशनी फूट रही थी अब, पहले की ही तरह ।
कमरे में अब किसी भी तरह की महक नहीं थी ।
दालूबाबा ने आंखें खोली । हाथ जोड़कर वो उठा और फिर दोनों हाथों से बॉल उठाए, पेटी के पास पहुंचा और उसे भीतर रख दिया। फिर जब मंत्र पढ़े तो हवा में उठा हुआ ढक्कन वापस पेटी पर आ गया ।
दालूबाबा ने स्लीपर पहने और कमरे से बाहर निकलकर दरवाजे को छुआ तो दरवाजा खुद-ब-खुद ही बंद होता चला गया । पलटकर दालूबाबा आगे बढ़ गया। चेहरे पर परेशानी और व्याकुलता स्पष्ट नजर आ रही थी । रह-रहेकर वो क्रोध में नजर आने लगता। रास्ते में मिलने वाले पहरेदार, उसके सामने से गुजरने पर सर झुका देते थे ।
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दालूबाबा जिस कमरे में पहुंचा वो सामान्य साइज का, खूबसूरत कमरा था । भीतर प्रवेश करते ही उसने एक तरफ लटकती जंजीर खींची तो दूर घंटा बजने की आवाज आई । उसके बाद दालूबाबा सोफे पर बैठ गया। परंतु व्याकुलता उसके सिर पर सवार थी ।
आधे मिनट से कम समय में चालीस बरस का स्वस्थ व्यक्ति वहां पहुंचा ।
"आपने याद किया दालूबाबा ?" उसने आदर भाव में पूछा ।
"हरीसिंह ।" दालूबाबा ने उसे देखा--- "हर तरफ सब ठीक है ?"
"सब ठीक है । "
"तिलस्म को देखो । मुझे लगता है, वहां कोई आ गया है।" दालूबाबा ने कहा--- "आने वालों के चेहरे देवा और मिन्नो से मिलते हैं। देखो इस वक्त वो कहां है ? "
"जी, मैं अभी तिलस्म में जाता हूं।" हरीसिंह बोला ।
"और किसी के हाथ गुलाबलाल और सोमनाथ तक संदेश भिजवा दो कि वे फौरन आएं गंभीर विषय पर बात करनी है ।" कहते हुए दालूबाबा के होंठ भिंच गए ।
हरीसिंह ने सिर हिलाया ।
"मैं अभी किसी को भेजता हूं।"
दालूबाबा ने हाथ हिलाया तो हरीसिंह बाहर निकल गया ।
उसके जाने के बाद दालूबाबा उठा और पीठ पर हाथ बांधे चहलकदमी करने लगा । उसके चेहरे पर परेशानी ऐसी छाई थी कि छंटने का नाम नहीं ले रही थी ।
"देवा-मिन्नो दोनों आ गए ।" दालूबाबा बड़बड़ाया--- "जिस वक्त ने सौ वर्ष के बाद आना था वो पहले आ गया और मैं निश्चिंत था कि अभी सौ बरस पड़े हैं।"
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