18 मई : सोमवार

सुबह नौ बजे राजा सा'ब ब्रेकफास्ट टेबल पर रोज़ी से मिला।
“आज तूने एक ख़ास काम करना है।” – ब्रेकफास्ट के दौरान वो बोला।
“क्या?” – रोज़ी सशंक भाव से बोली।
“ “साउथएण्ड’ जाना है।”
“इतनी सुबह?”
“बार जो है, ग्यारह बजे बिजनेस के लिए खुल जाता है। तेरे को तैयार होने में और वहाँ पहुँचने में ग्यारह बज जाएँगे।”
“करना क्या है वहाँ?”
“ख़ामोशी से स्टाफ को स्क्रीन करना है। जिस पर शक हो, उसके साथ सख़्ती से पेश आना है।”
“मकसद क्या?”
“किसी ने – यकीनन स्टाफ में से किसी ने — वहाँ मेरे ऑफिस में लगी ग्रुप फोटो की तसवीर खींच कर आगे पास ऑन की। मेरे को जो है, मालूम होना माँगता है कि ये जुर्रत किसने की!”
“मैं कर सकूँगी ये काम?”
“क्यों नहीं कर सकेगी? ऐसे और कई काम किए हैं तूने पूरी कामयाबी से।”
“ख़ुद क्यों नहीं करते?’ "मैं करूँगा तो साला बड़ा लफड़ा खड़ा होगा। मेरे को जो है, लफड़ा नहीं माँगता, गलाटा नहीं माँगता। ऐसे बार का बिज़नेस ख़राब होने का ख़तरा होगा। तू करेगी तो इत्मीनान से करेगी, चिल्लाकी से करेगी, सब्र से करेगी।”
“न कर पाई तो?”
“पहले तो मेरे को पक्का कि ऐसा होगा नहीं। होगा तो मैं है न!”
“अच्छा !”
“आधे घन्टे में निकल ले।”
“माथा फिरेला है! आधा घन्टा तो मेरे को ड्रैस सलैक्ट करने में लग जाएगा।”
“बोले तो?”
“कम से कम एक घन्टा।”
“बरोबर। बाद में मैं भी पहुँचूँगा। जब तक मैं न पहुँचूँ, उधरीच रहने का।”
“मेरा आज का योगा सैशन कैंसल!”
“एक दिन योगा नहीं करेगी तो क्या होगा? मोटी हो जाएगी?”
वो हँसी।
“ये टेम योगा की जगह भोगा कर लेना। वो भी एक्सरसाइज़ ही होता है।”
वो ज़ोर से हँसी "ओके!” — फिर बोली – “मैं ट्रेनर को फोन कर दूंगी कि ...”
“मैंने कर दिया है।”
“कर भी दिया!”
“हाँ। आज वो नहीं आएगा।”
“ठीक है फिर।”
साढ़े दस बजे कार खुद ड्राइब करती रोज़ी बंगले से निकल गई।
बंगले में छः सिक्योरिटी गार्ड्स थे और एक उनका इंचार्ज था जिसका नाम हरमेश नटके था। उनके अलावा एक खानसामा था और तीन घरेलू नौकर थे। वो चारों सुबह सात बजे आते थे और रात नौ बजे तक ठहरते थे। रोज़ी के रुखसत होते ही राजा सा'ब ने चारों की छुट्टी कर दी और नटके को तलब किया।
“सूटकेस!” - राजा सा'ब बोला – “चमड़े का। लाल रंग का! ट्रैवल लगेज जैसा! बंगले में कहीं हो सकता है। तूने और सारे गार्ड्स ने जो है, मिलकर उस सूटकेस के लिए सारे बंगले को खंगालना है। कोई ऐसी जगह टटोले जाने से न बचे जहाँ कि सूटकेस छुपाया जा सकता हो। क्या!”
“बरोबर, बाप!” – नटके अदब से बोला।
“मोटी तलाश है। कोई सूई नहीं तलाश करनी, बड़े साइज़ की आइटम तलाश करनी है। कितना टेम लगेगा?”
“बाप, तीन-चार घन्टे तो फिर भी लग जाएँगे क्योंकि हो सकता है तलाश में कहीं कोई ताला खोलना पड़े। ताला बोले तो तोड़ना आसान पण खोलने में और पहले की तरह वापिस बन्द करने में तो टेम लगेगा न!”
“ठीक है। लगाना टेम। पर एक बात कान खोल के सुनने का।”
“बोलो, बाप।”
“अगर तलाशी की ख़बर बाहर गई, किसी को हिन्ट भी लगा तो खाल खिंचवा दूँगा। बहुत बुरी मौत मरेगा गद्दार।”
“कुछ नहीं होगा, बाप। सब परखे हुए भीड़ हैं। वफादारी का ईनाम पाते हैं तो गद्दारी की सजा भी जानते हैं। कोई तुम्हेरे से बाहर जाने का ख़याल भी नहीं कर सकता।”
“बढ़िया।”
दो बजे तक नटके ने गारन्टी के साथ बोल दिया कि बंगले में – या उसके सामने के और पिछले कम्पाउन्ड में भी – चमड़े का लाल सूटकेस नहीं था।
राजा सा'ब ने कई क्षण ख़ामोशी से उस बात पर विचार किया। उस दौरान रोज़ी की जगह ख़ुद को रख कर विचार किया कि बंगले के अलावा सूटकेस वो कहाँ रख सकती थी!
एक ठिकाना उसे सूझा।
जो उसे सूझा, वो सरासर तुक्का था पर उसने उसे आज़माने का फैसला किया।
“मैडम का योगा ट्रेनर” – वो बोला – “शायद भरत नाम है ...”
“बरोबर, बाप।” – नटके अदब से बोला – “भरत खनाल।”
“मालूम, किधर रहता है?”
“मालूम, बाप। अम्बेडकर कॉलोनी, खार में रहता है। उधर एक छ: माले का बिल्डिंग है जिसके टॉप के माले के एक फिलेट में वो नेपाली भीड़ रहता है। बिल्डिंग का नम्बर नहीं मालूम पण रास्ता मालूम?”
“कैसे मालूम?”
“पिछले बड़े दिन पर मैडम केक के साथ भेजा।”
“लेकर चल।”
“बरोबर, बाप।”
नटके और दो प्यादों के साथ राजा सा'ब निर्दिष्ट पते पर पहुँचा। प्यादों को नीचे इमारत के प्रवेशद्वार पर छोड़ कर नटके के साथ वो छटे माले पर पहुंचा।
“ये है, बाप।” – नटके ने एक फ्लैट के बन्द दरवाज़े की तरफ इशारा किया।
“अरे, घन्टी बजा।”- राजा सा'ब झुंझलाया – “देख, वो फ्लैट पर है भी या नहीं!”
कॉलबैल के जवाब में फौरन दरवाज़ा खुला और चौखट पर योगा ट्रेनर प्रकट हुआ। राजा सा'ब पर निगाह पड़ते ही उसके चेहरे का रंग उड़ गया।
“म-मेरी” – बो बड़ी मुश्किल से बोल पाया – “क-कोई ... कोई ग-गलती नहीं।”
“क्या बोला?” – राजा सा'ब रुखाई से बोला।
“म-मैंने ... मैंने कुछ न-नहीं किया।”
“अरे, क्या कुछ नहीं किया?” - राजा सा'ब झल्लाया।
“म-मैं ... मैं तो...”
“भीतर चला” – नटके ने डपटा – “बॉस को चौखट पर खड़ा रखेगा?”
“स-सॉरी।”
तत्काल नेपाली एक बाजू हटा। राजा सा'ब भीतर दाखिल हुआ, उसने एक सोफाचेयर पर मुकाम पाया। काँपता-सा नेपाली उसके सामने जा खड़ा हुआ। नटके ने अपने पीछे दरवाज़ा बन्द कर दिया था और अब उसके साथ पीठ लगा के ख़ामोश खड़ा था।
“हकलाना बन्द कर।” – राजा साब सख्त लहजे से बोला – “और साफ बोल, क्या हुआ जिसमें तेरी कोई गलती नहीं?”
“सर, शायद आपको मालूम हो कि मैं सुबह छ: बजे योगा ट्रेनिंग की रूटीन के लिए यहाँ से निकलता हूँ और डेढ़ बजे के करीब वापिस लौटता हूँ। हमेशा की तरह आज मैं फ्लैट को मजबूती से लॉक कर के गया था लेकिन जब लौटा तो पाया दरवाज़ा अनलॉक्ड था।”
“ठीक से चैक न किया! या लॉक करना भूल गया!”
“नहीं, सर। मैंने पूरी एहतियात से, पूरी ज़िम्मेदारी से मेन डोर लॉक किया था।”
“तो खुला कैसे मिला?”
“मेरी गैरहाज़िरी में किसी ने खोला।”
“क्यों?”
“ज़ाहिर है चोरी करने की नीयत से।”
“हूँ| क्या चोरी गया?”
जवाब में जैसे उसे साँप सँघ गया।
“नटके, इसे बड़े वाला लाफा दे। तभी इसकी ज़ुबान खुलेगी।”
नटके दृढ़ता से आगे बढ़ा।
“सूटकेस!” – नेपाली आतंकित भाव से बोला – “सूटकेस!”
राजा सा'ब ने हाथ का इशारा किया तो नटके रास्ते में ही ठिठक गया।
“कौन-सा सूटकेस?” – फिर बोला।
“चमड़े का लाल रंग का सूटकेस!”
“जो शुक्रवार सुबह मैडम ने तेरे को हिफाज़त से पास रखने को दिया?”
“हं-हाँ।”
“हिफाज़त ऐसे होती है?”
“सर, म-मेरे को क्या पता था कि चोर ...”
“और क्या चोरी गया?”
“कु-कुछ नहीं।”
“यानी चोर ने जो है, वो सूटकेस चुराने के लिए यहाँ का लॉक खोला?”
उसकी जुबान फिर लॉक हो गई।
“उस सूटकेस की यहाँ मौजूदगी की तेरे सिवाय किस को ख़बर थी?”
“किसी को नहीं।”
“सोच-समझ के जवाब दे।”
“कि-किसी को नहीं।”
राजा सा'ब के हाथ में जैसे जादू के ज़ोर से गन प्रकट हुई। उसने गन का रुख नेपाली की तरफ किया तो वो सिर से पाँव तक काँप गया। उसका पहले से फक् चेहरा और फक हो गया।
“क्या?” – राजा सा'ब हिंसक भाव से बोला।
“सर” – नेपाली इतना तेज बोला कि अलफाज़ एक दूसरे में गडु-मडु होने लगे – “कल मैडम के भेजे दो जने यहाँ आए थे, बोलते थे सटकेस लाने के लिए मैडम ने भेजा। मैंने ये कह के इंकार कर दिया कि मैडम ने मुझे ऐसा कुछ नहीं बोला था। मैंने बोला कि फिर भी मैडम को सूटकेस की ज़रूरत पड़ गई थी तो मैं पहँचा दंगा।”
“साला येड़ा! ये बक के साबित कर दिया कि सूटकेस तेरे पास था!”
“पर दिया तो नहीं!” — वो थरथराती आवाज़ से बोला।
“जिन्हें देना था, उन्होंने खुद ले लिया। तेरी गैरहाज़िरी में फ्लैट का ताला तोड़ा और सूटकेस जो है, निकाल ले गए। अभी साला अड़वा पट्टा बोलता है कोई गलती नहीं की।”
उसका शरीर फिर ज़ोर से काँपा।
“नाम बोले?”
“हं-हाँ। गिरीश। इकबाल।”
“बोले, बंगले से आए? मैडम के भेजे?”
“हाँ।”
“इस नाम के कोई भीड़ उधर नहीं हैं।”
“न-नहीं हैं?”
“अब कल की बाबत तफ़्सील से बोल। कोई बात न छूटे।”
उसने आदेश का पालन किया।
“साला, खजूर!” – वो ख़ामोश हुआ तो राजा सा'ब तिरस्कारपूर्ण स्वर में बोला – “कौन-सा सूटकेस’ बोल कर जो है, इसी बात पर कायम रहता तो जो हुआ, वो न हुआ होता। ... सूटकेस खोला?”
“नहीं।”
राजा सा'ब का गन वाला हाथ तनिक ऊँचा हुआ। “सर, मेरे को पशुपतिनाथ की सौगन्ध” – वो आतंकित भाव से बोला – "नहीं खोला।”
“हूँ। अब क्या करे मैं तेरा?”
नेपाली ने थूक निगली, उसके गले की घंटी ज़ोर से उछली।
“अब मैडम को क्या जवाब देगा?”
“क्या जवाब दूंगा!” – वो होंठों में बुदबुदाया।
“मेरे से पूछ रहा है?”
“सू-सूटकेस के बारे में बोलना तो पड़ेगा!”
“नहीं बोलना पड़ेगा।”
“जी!”
“मैडम को कुछ नहीं बोलने का। चोरी के वाकये को जो है, जुबान पर नहीं लाने का। समझ के रखने का कि सूटकेस अभी भी तेरे पास है।”
“मैडम ने सवाल किया?”
“नहीं करेगी। तू मिलेगा तो सवाल होगा न!”
“जी!”
“मैडम को एसएमएस करने का कि तू एक हफ्ता योगा ट्रेनिंग के लिए बंगले पर नहीं आ पाएगा।”
“वजह पूछेगी।”
“फोन करेगा तो पूछेगी। इसी वास्ते एसएमएस को बोला। एसएमएस से ही वजह पूछे तो जवाब न देना।”
“वो ख़ुद आ गई?”
“तो तुम्हारे पर कोई हिदायत लागू नहीं होगी। जैसा माहौल बने, वैसा करना।”
“सूटकेस के बारे में सवाल उठा?”
“तो भी सूटकेस तेरे पास।”
“माँग लिया तो?”
ऐसा नहीं होगा। इतनी जल्दी माँग लेना था तो तेरे को सौंपा ही न होता। फिर भी किसी वजह से ऐसा हुआ तो तेरे को असलियत बयान करनी पड़ेगी। करना।”
राजा सा'ब उठ खड़ा हुआ। उसने गन वापिस जेब में रख ली। नेपाली ने चैन की लम्बी साँस ली। नेपाली पर दोबारा निगाह डाले बिना राजा सा'ब नटके के साथ वहाँ से विदा हो गया।
शाम को राजा सा'ब अपनी सिक्योरिटी के पहले जैसे ही इन्तज़ाम के साथ शिवाजी चौक पिछवाड़े के ऑफिस में मौजूद था। इस बार वहाँ उसकी खुफ़िया मुलाकात दिवाकर झाम से थी जो अपने दो प्यादों के साथ वहाँ पहुँचा था। पहले की तरह उसने झाम को राय नहीं दी थी कि वो अपनी कार को और प्यादों को लौटा दे, वापिसी में वो जहाँ चाहेगा, राजा सा'ब उसे ड्रॉप कर देगा।
रोज़ी को उसने खार से ही फोन कर दिया था कि वो उसके पास फोर्ट नहीं पहुँच सकता था, वो ख़ुद बंगले पर लौट आए। प्रत्यक्षथा कि उसने ‘साउथएण्ड’ में टाइम ही ज़ाया किया था, वो वहाँ से कोई वाँछित जानकारी हासिल कर पाई होती तो उसकी बाबत ख़ुद ही बढ़-चढ़ के बता रही होती।।
बाज़रिया रोज़ी वो किसी जानकारी का तलबगार था ही नहीं, उसको तो उसने ‘साउथएण्ड’ इसलिए भेजा था कि सूटकेस के लिए बंगले की तलाशी में विघ्न न बनती।
अब राजा सा'ब और दिवाकर झाम पिछले ऑफिस में आमने-सामने विराजमान थे और बाहर सख़्त हिदायत थी कि बुलाए बिना कोई उनके करीब न फटके।
“तुमने कहा था” – झाम बोला – “अर्जेंट, खुफ़िया मीटिंग करनी है। मैं हाज़िर हूँ|”
“वो तो शुक्रिया है तेरा।”– राजा सा'ब बोला – “न आता या फौरन न आता तो मैं जो है, इसको अपनी भारी नाकद्री मानता।”
“ऐसा कहीं हो सकता था!”
“शुक्रिया। शुक्रवार रात की मीटिंग में जो तलखी का माहौल बना था, सबसे पहले जो है, मैं उसके बारे में कुछ कहना चाहता हूँ। मेरे पर इलज़ाम था कि मैं तुम लोगों को शाह के करीब नहीं फटकने देता था, तुम लोग जो है, शाह से मुलाकात करना चाहते थे, तुम्हें मेरे से मिलने की राय दी जाती थी तो तुम लोगों की ज़िद होती थी कि तुम जो है, ये बात शाह की जुबानी सुनना चाहते थे....”
“इन सब बातों की मेरे को ख़बर है – आख़िर मैं मीटिंग में शामिल था – प्लीज़, इसके अलावा बोलो क्या कहना चाहते हो!”
“सुनो। मेरे पर इलज़ाम है कि मैं जो है, तुम लोगों को शाह के करीब नहीं फटकने देता जबकि हकीकत ये है कि मैं ही शाह के करीब नहीं फटक सकता।”
“क्या बात करते हो! शुक्रवार रात की मीटिंग में तुम्हारा ज़ोर इस बात पर था कि तुम्हारे से बाहर जाना शाह से बाहर जाना होगा, कि तुम्हारी मर्जी के बिना पत्ता नहीं हिल सकता था।”
“तब जैसा तुर्श माहौल तुम लोगों ने बना दिया था, उसकी रू में जो है, ऐसा कहना ज़रूरी था। तुम लोग मेरे को हूल दे रहे थे तो गैंग में अपनी नम्बर टू की हैसियत पर जोर देने लिए मैंने भी तो जवाब में जो है, कुछ कहना ही था वर्ना तुम लोग तो मेरे पर यँ दबाव बना रहे थे जैसे मेरी कोई औकात ही नहीं थी, हैसियत ही नहीं थी!”
“ये बात?”
“हाँ, ये बात।”
“बोले तो शाह से तुम्हारी कम्यूनीकेशन भी कमज़ोर है!”
“हालिया कम्यूनीकेशन तो है ही नहीं। यकीन जानो, शाह का मौजूदा मुकाम तक जो है, मेरे को मालूम नहीं।”
“क्या बात करते हो!”
“शाह जो है, पहले कान्दीवली के बंगले में था, फिर एकाएक किसी नामालूम जगह शिफ्ट कर गया। उसके नए मुकाम के बारे में जो है, जानने की कोशिश की लेकिन कामयाबी न मिली। खाली इतना कनफर्म हुआ कि था मुम्बई में ही।”
“हम्म!”
“देख, शाह के रूबरू होना अगर तू बहुत ज़रूरी समझता है तो एक तरकीब जो है, मेरी पकड़ में आई है, जो तू कहे तो मैं तेरे से शेयर करने को तैयार हूँ।”
“सिर्फ मेरे से? रूबरू खाली मैं?”
“हाँ। क्योंकि तरकीब ऐसी है जिसको तू ही अमल में ला सकता है, हम बाकी तीन जने नहीं ला सकते?”
“ऐसा क्यों?”
“क्योंकि तरकीब का रिश्ता अमल में लाने वाले के कद से है।”
“मैं समझा नहीं।”
“अभी समझेगा। देख, गोटी जो है, कद में छ: फुट है। मैं और मेंडिस उससे एक या डेढ़ इंच ही कम होंगे- वैसे मेंडिस का यहाँ हवाला बेकार है क्योंकि पता नहीं कब वो गोवा से वापिस लौटेगा – बहरहाल, हम चारों में एक तू ही है जो कद में कदरन हेठा है। कितना कद है तेरा? मेरा अन्दाज़ा साढ़े पाँच फुट का है।”
“मेरा कद पाँच फुट सात इंच है। लेकिन बात क्या है? कद का हवाला किस लिए है?”
“इसलिए है क्योंकि एक ख़ास काम – शाह के रूबरू होने का ख़ास काम – तेरे सिवाय कोई नहीं कर सकता।”
“मैं कर सकता हूँ क्योंकि मेरा कद तुम लोगों के मुकाबले में बहुत कम है?”
“हाँ।”
“कमाल है! लिहाज़ा उस काम के लिए मेरा कद ही मेरी क्वॉलीफिकेशन है?”
“तू बात को तंज में कह रहा है लेकिन असल में जो है, यही बात है।”
“कैसे है?”
“उसके लिए मेरे को जो है, एक कहानी करनी पड़ेगी।”
“करो।”
“टॉप सीक्रेट कहानी! ख़ास ताकीद है।”
“ताकीद पर संजीदा अमल होगा। जो बोलोगे, यहाँ से बाहर नहीं जाएगा।”
“बढ़िया। तो सुन। ये बहुत खुफ़िया बात है जो सिर्फ मेरे को मालूम है। मेरे को कैसे मालूम है, इस बाबत कोई सवाल न करना।”
“ओके!”
“बात ये है कि शाह जो है, एक अरसे से अपनी नॉर्मल तन्दुररुस्ती से महरूम है।”
“बीमार है?”
“हाँ।”
“बहुत ज़्यादा?”
“हाँ।”
“इसी वजह से उसे अपने लेफ्टीनेंट्स से – जो कि हम हैं – मेल मुलाकात से परहेज़ है?”
“हाँ”
“राजू भाई, ये कोई बड़ी बात नहीं जो हम में से किसी को न सूझी होती। सच पूछो तो गोटी का शाह से मुलाकात पर ख़ास ज़ोर इसलिए भी था कि तसदीक हो पाती कि तन्दुरुस्ती के मामले में हमारा नम्बर वन किस हाल में था!”
“ये बात!”
“हाँ, ये बात।”
“गोटी सब भाँपे बैठा था?”
“हम भी। इस फर्क के साथ कि गोटी को ये बात सबसे पहले सूझी थी।”
“हम्म!”
“अब बोलो, शाह को हुआ क्या है?”
“शाह को कोई ऐसी लाइलाज बीमारी है जो लोकल डॉक्टर साहबान की पकड़ में नहीं आ रही ...”
“जबकि मुम्बई में हर बीमारी के बड़े से बड़े डॉक्टर मौजूद हैं!”
“सब ने हाथ खड़े कर दिए हैं। फिर शाह को जो है, राय दी जाने लगी कि वो इलाज के लिए अमेरिका जाए जबकि शाह जो है, मुम्बई से बाहर जाने को तैयार नहीं। फिर शाह को किसी ने हिकमत ट्राई करने की राय दी।”
“हिकमत क्या?”
“जो इलाज हकीम करते हैं, उसको हिकमत बोलते हैं।”
“ओह!”
“उसी ने बोला कि दिल्ली में एक हकीम था, हिकमत के मामले में जिसकी ऐसी शोहरत थी कि दो-दो, तीन-तीन सौ मील दर से मरीज उसके पास आते थे और शफा पाकर लौटते थे।”
“मैं बीच में टोक रहा हूँ, ये अन्दरूनी बातें हैं, तुम्हें कैसे मालूम हैं?”
“हैं मेरे अपने भेदिये, खबरी, ज़ीरो नम्बर। वैसे ही तो मैं जो है, शाह का नम्बर टू नहीं हूँ!”
“ठीक! आगे! तो वो हकीम दिल्ली में है?”
“हाँ। नाम जो है, हकीम अकमल खान है। निज़ामुद्दीन ईस्ट में दरगाह के पास उसका कदीमी शफाखाना है। बहुत फँ फाँ वाला हकीम बताया जाता है जो उसी को देखना कुबूल करता है जो उसकी सख़्त हिदायत के मुताबिक जो है, परहेज़ कर सकता हो। परहेज़ में कोई कोताही बरते तो उससे बिना सवाल किए उसे कोताही की जो है, ख़बर लग जाती है। नब्ज़ देख के बोल देता है कि भल्ला खाया था या बर्फी खाई थी या बकरा खाया था और कोताही करने वाले को डांट कर बाहर निकाल देता है कि कहीं और जाकर इलाज करवाए।”
“कमाल है! नब्ज़ देख कर कोई ऐसी बातें जान सकता है!”
“किसी का पता नहीं, वो जान सकता है, जान लेता है। दस-बारह मिनट मरीज की नब्ज़ देखने में लगाता है। मरीज को जो है, नहीं बोलने देता कि उसको क्या अलामत थी, जिसके लिए वो हकीम साहब के पास आया था। नब्ज़ देखते बीच-बीच में कुछ नोट करता जाता है। आखिर मरीज से पूछता है- तेरे को ये होता है?”
मरीज बोलता है – “हाँ, जी। होता है।’
‘वो होता है!’ मरीज उसके होता होने की भी तसदीक करता है। ये भी होता है? हैरान मरीज हामी भरता है। आख़िर हकीम साहब कहता है – ‘अब बोल, और क्या होता है तो जवाब मिलता है – ‘बस जी, यही होता है, और कुछ नहीं होता।”
“हर मरीज के साथ यही करतब करता है!”
“हाँ।”
“बिना उससे कोई सवाल किए! खाली नब्ज़ देख कर?”
“बरोबर।”
“ये तो करिश्मा है आज की सदी में डॉक्टर तो पहले कोई दर्जन भर पैथालोजिकल टेस्ट कराते हैं, फिर कोई जवाब देते हैं बीमारी के बारे में। और तब भी अमूमन ‘शायद’ लगा के।”
“अभी पकड़ा।”
“और क्या ख़ासियत है हकीम साहब में?”
“और ख़ासियत जो है, हिकमत में नहीं, इन्तज़ाम में है। एक दिन में सिर्फ बीस मरीज देखता है। सुबह सवेरे शफाखाने का कोई मुलाज़िम बीस टोकन बाँट देता है और बाकी मरीजों को अगले दिन आने का हुक्म सुना देता है। ये बात भी ग़ौरतलब है कि टोकन तो मुँह अन्धेरे बाँट दिए जाते हैं लेकिन मरीज देखना शुरू करने के लिए हकीम साहब जो है, दस बजे आकर गद्दीनशीन होता है।”
“यानी लम्बा इन्तज़ार करना पड़ता होगा! पहले दस बजने का, फिर बारी आने का।”
“करते हैं लोग।”
“जब वो नब्ज़ देखने में ही दस-बारह मिनट लगाता है तो आखिरी मरीज की बारी आने में तो शाम हो जाती होगी!”
“चार तो सुना है बज ही जाते हैं। लेकिन ये सजा है तो शफ़ा भी तो है!”
“कोई ख़ासुलख़ास साहबान को तो पहले देखता होगा!”
“सुना है किसी का कोई लिहाज़ नहीं करता।”
“कमाल है! तो हमारा नम्बर वन क्या दिल्ली जा के हकीम के शफाखाने की लाइन में लगेगा!”
“भई, हमेशा प्यासा ही जो है, कुएँ के पास नहीं पहुँचता, कभी-कभी कुआँ भी प्यासे के पास जाता है।”
“बोले तो! हकीम दिल्ली से मुम्बई आएगा।”
“हाँ।”
“वो मान गया?”
“मनवाया गया। शाह के हुक्म पर वहाँ के लोकल अन्डरवर्ल्ड के जरिए हकीम पर दबाव बनाया गया तो ख़ास शाह को देखने के लिए उसे मुम्बई जाने के लिए हामी भरनी पड़ी। सब सैट हो चुका है। बिजनेस क्लास का उसका प्लेन का रिटर्न टिकट भी जो है, हकीम साहब के पास पहुँच गया है। कल बारह बजे की फ्लाइट से वो मुम्बई पहुँचेगा और पाँच बजे की फ्लाइट से वापिस चला जाएगा।”
“अगर पाँच घन्टों में लोकल आवाजाही, मरीज की पड़ताल, वापिसी की फ्लाइट के लिए रिपोर्टिंग टाइम वगैरह सब कवर हो जाएगा तो शाह तक पहुँचने के लिए हकीम को बहत दर तो न जाना होगा!”
राजा सा'ब ने सकपकाते हुए उस बात पर विचार किया।
“बहुत दूर की सूझी!” – फिर प्रशंसात्मक स्वर में बोला।
“स्पैशल सर्विस की उसको शाह से मोटी फीस हासिल होगी!”
“मेरे ख़याल से तो फीस का सवाल नहीं उठेगा।”
“शाह ने राजी होकर ख़ुद देनी चाही तो?”
“तो पता नहीं।”
“खैर! अब ये बताओ कि इस कहानी का मेरे कद से क्या रिश्ता है? और कैसे मेरा कद शाह के रूबरू होने के काम आएगा?”
“अभी मालूम पड़ता है।”
उसने जेब से दो बार तह किया ए-4 साइज़ का एक पेपर निकाला और तहें खोल कर उसे झाम के सामने रखा।
“ये तसवीर देख।” — फिर बोला।
झाम ने ग़ौर से तसवीर का मुआयना किया तो पाया वो एक मुअज्ज़िज़ मुसलमान शख़्स की तसवीर थी जिसकी सूरत पर स्वाभाविक रौब के अलावा लियाकत और दानाई की रौनक थी और जो उम्र में पचास से ऊपर जान पड़ता था। उसके चेहरे पर बड़ी नफ़ासत से तराशी हुई फुल दाढ़ी थी, न होने जैसी मूंछ थी और भारी भवें थी। आँखों पर वो स्याह काला चश्मा लगाए था। पोशाक के नाम पर सिर पर कश्मीरी स्टाइल की टोपी थी, जिस्म पर शेरवानी के साथ चूड़ीदार पाजामा था और पैरों में पेशावरी चप्पल थी।
“क्या देखा?” – राजा सा'ब बोला।
“रौबदार भीड़ है।” – झाम बोला – “लेकिन चश्मा! स्याह काला! जैसा, गुस्ताखी माफ, अन्धे लगाते हैं।”
“वजह मिलती-जुलती है। एक आँख में कोई बड़ा नुक्स बताया जाता है जिसकी वजह से आँख को जो है, बाज़रिया काला चश्मा हमेशा ढंक के रखता है।”
“है कौन?”
“जनाब मोहतरम हकीम अकमल खान साहब दिल्ली वाले।”
“तसवीर कहाँ से आई?”
“दिल्ली से ख़ासतौर से आई ख़ास जुगाड़ से।”
“ओके! पर ये मेरे सवाल का जवाब तो न हुआ!”
“हुआ।”
“कैसे?”
“सोच!”
“राजू भाई, प्लीज़, कलपाओ नहीं।”
“तू हकीम अकमल खान।”
“क्या!”
“हैरान होने की कोई बात नहीं। हकीम साहब की पर्सनैलिटी जो है, इतनी ख़ास है कि उसमें उसकी सूरत का रोल ही नहीं होगा। जो पहचानेगा, उसकी खास पोशाक पहचानेगा, काला चश्मा, टोपी, दाढ़ी पहचानेगा, फिर तेरे हकीम अकमल खान होने में जो है, क्या प्रॉब्लम है?”
चेहरे पर अनिश्चय के भाव लिए झाम ख़ामोश रहा।
“कल दोपहर को शाह के पर्सनल गार्ड्स दिल्ली से आए हकीम साहब को पेज करते एयरपोर्ट पर होंगे।”
“मैं हकीम अकमल खान!”
“क्या प्रॉब्लम है? अगर होता तो कद ही रुकावट होता हकीम अकमल खान का हुलिया बनाने में लेकिन वो रुकावट नहीं बना। बाकी पोशाक, दाढ़ी, टोपी, चश्मा जो है, सब मामूली बातें हैं।”
“मेरे को हकीम का हुलिया बनाना होगा!”
“तभी तो त शाह के रूबरू हो पाएगा जो कि त चाहता है।”
“किसी ने पहचान लिया तो?”
“कौन पहचान लेगा? हकीम को जो है, पहले कभी किसी ने देखा ही नहीं। एयरपोर्ट पर शाह के गार्ड्स पहचान लेंगे या बाद में जो है, खुद शाह पहचान लेगा? कोई पहचान सकता होता तो वही एयरपोर्ट पर पहुँचता, फिर शाह के मुअज्जित मेहमान को पेज किए जाने की ज़रूरत ही न होती।”
“इस बात पर एक ख़याल आया – कोई दिल्ली जाता और हकीम को साथ ले आता!”
“ये इन्तज़ाम ऑफर किया गया था – ऑफर तो चार्टर्ड फ्लाइट का इन्तज़ाम भी किया गया था लेकिन हकीम ने जो है, गैरज़रूरी जान के इंकार कर दिया था। बोला, वो कोई बच्चा नहीं था जिसे घर से घर तक एस्कॉर्ट की ज़रूरत होती।”
“ठीक!” – झाम एक क्षण ठिठका, फिर बोला – “असली हकीम का क्या होगा जो दोपहर को एयरपोर्ट पर उतरेगा?”
“ऐसा इन्तज़ाम किया जाएगा कि उसकी फ्लाइट के लैंड करने के बाद बो फौरन टर्मिनल से बाहर नहीं निकल पाएगा। किसी बहाने उसे जो है, तब तक भीतर अटका के रखा जाएगा जब तक हमारा हकीम – दिवाकर झाम — शाह के पर्सनल गार्ड्स के साथ एयरपोर्ट से रवाना नहीं हो जाएगा।”
“हम्म! पर आख़िर तो वो बाहर निकल कर आएगा?”
“हाँ। तब उसको मैं रिसीव करूँगा और ये बुरी ख़बर सुनाऊँगा कि इतनी जहमत उठा कर जिस मरीज को वो देखने आया था, उसको एकाएक दिल का दौरा पड़ गया था।”
“ओह!”
“उसकी शाम की फ्लाइट का वक्त होने तक जो है, मैं उसे एयरपोर्ट के करीब के ही एक होटल में ले जाऊँगा और तब तक उसके साथ रहँगा जब तक कि वो अपनी वापिसी की फ्लाइट पर सवार नहीं हो जाएगा।”
“उसको किसी तरह असलियत की ख़बर लग गई तो?”
“अव्वल तो ऐसा होगा नहीं, होगा तो कह देंगे पता नहीं किस कम्बख़्त ने ये अफवाह उड़ाई। यहाँ ये बात भी ग़ौरतलब है कि हकीम साहब जो है, अपनी मर्जी से मुम्बई नहीं आया होगा, उसको मजबूर किया गया होगा, उस पर दबाव बनाया गया होगा चन्द घन्टों की मुम्बई आवाजाही करने के लिए। देख लेना, आख़िर उसको मालूम पड़ ही गया कि उसके मेज़बान की, उसके स्पैशल पेशेंट की स्ट्रोक की ख़बर झूठी थी, तो भी वो यही ज़ाहिर करेगा कि उसको जो है, कुछ मालूम नहीं था ताकि उसकी शाम की फ्लाइट मिस न हो जाए।”
“जब कनफ्यूज़न दूर होगा तो बुलावा फिर आएगा!”
“बाद में क्या पता क्या होगा!”
“बोले तो?”
“शाह के खुफ़िया ठिकाने पर खुद को उसके रूबरू पाने के बाद क्या पता तू कुछ ऐसा कर गुजरे कि बाद हो ही नहीं!”
“तुम वही कह रहे हो न, जो मैं समझ रहा हूँ?”
“क्यों पूछता है? तेरी मेरी समझ में कोई फर्क है?”
जवाब देने की जगह उसने बेचैनी से पहलू बदला।
“देख, क्या माँग थी तुम लोगों की? क्या ज़िद थी? बल्कि क्या धमकी थी? ये कि फौरन तुम में से किसी को या सबको जो है, राजा सा'ब से मुलाकात का मौका दिया जाए। ठीक?”
“हाँ।”
“अब एक सेफ मौका तेरे सामने है तो तू ही तो कुछ कर के दिखाएगा! क्या कर के दिखाएगा, तू ख़ुद सोच।”
“सोचा तो है कुछ मैंने!” – झाम-के स्वर में दृढ़ता का पुट आया।
“तेरे कहने के मजबूत ढंग से ही मेरे को जो है, अन्दाज़ा हो रहा है कि तने क्या सोचा है। तेरी सोच को अपनी सोच से जोड़ कर बात को नई करवट देने के लिए तुझे और दोनों से ज़्यादा अपना करीबी जान कर रह रहा हूँ कि अगर कभी मेरे नम्बर वन बनने की नौबत आ गई तो मेरा नम्बर टू तू होगा।”
“मैं!” – वो हड़बड़ाया। “हाँ।”
“राजू भाई, ख़याल तो वाह वाह है और मोस्ट वैलकम है लेकिन अभी गोटी है, मेंडिस है!”
“मेंडिस जो है, गोवा गया कभी लौट के नहीं आएगा। क्यों लौट के नहीं आएगा, वक्त आने दे, तेरे को ख़ुद ही मालूम हो जाएगा। बाकी रहा गोटी तो या तो वो नए शाह के – मेरे अंगूठे के नीचे दब कर रहेगा या रहेगा ही नहीं।”
“रहेगा ही नहीं!” – झाम के नेत्र फैले।
“जब हकूमत बदलती है तो दमन चक्र चलता ही है।”
वो ख़ामोश रहा।
“शुक्रवार रात को गोटी ने मेरे को बहुत हूल दी, बल्कि मेरे साथ जो है, बेइज्जती से पेश आया, नया राग अलापा कि मेरे में और बाकियों में कोई फर्क नहीं था, सिवाय इसके कि मैं एक हैसियत के ओहदेदारों में नम्बर वन था, सब ईक्वल्ज़ थे और मैं फर्स्ट अमंग ईक्वल्ज़ था। फिर भी राजा साहब का हुक्म मेरी मार्फत लेने से उसे इंकार था। गोटी ने जो है, यहाँ तक बोला कि उसे फरज़ी की कमांड मंजूर नहीं थी।”
“सब गर्मागर्मी की बातें थी।”
“सब पहले से तैयार की हुई, रिहर्स की हुई बातें थी। गोटी जो है, तैयार हो के आया था पंगा खड़ा करने के लिए।”
“गोटी न!”
“हाँ, गोटी। लेकिन तू और मेंडिस भी तो बढ़-चढ़ कर उसकी हाँ में हाँ मिला रहे थे!”
“माहौल ऐसा था।”
“माहौल कभी फिर ऐसा बनेगा, या बनाया जाएगा, तो तू मेरी नम्बर टू की हैसियत पर ही सवाल खड़ा करेगा।”
“अरे, नहीं।”
“तो शुक्रवार रात को क्यों भूल गया कि नम्बर टू जो है, मेरे को तुम लोगों ने नहीं, ख़ुद शाह ने बनाया था। क्या?”
“बोले तो बरोबर।”
“अगर शाह की मर्जी कोई मायने नहीं रखती तो समझो शाह ही कोई मायने नहीं रखता।”
“बंडल! ऐसा कहीं होता है! या हो सकता है!”
“मैं समझता हूँ, नहीं हो सकता। बाकी भी तो समझें”
“सब ठीक होगा, राज भाई, अब असल बात पर आओ।”
“आ चुका मैं चाहता है मैं दोहरा के सब कहूँ तो सुन ....”
राजा सा'ब बड़े सब्र से, इत्मीनान से झाम को समझाने लगा कि कल उस से क्या अपेक्षित था।
‘व्हिस्की सोडा’ तारदेव में स्थित उस बार का नाम था रात दस बजे माइकल गोटी जहाँ मौजूद था।
राजा सा'ब मैनेजर के ऑफिस में पहुँचा और ‘साउथएण्ड के मालिक के तौर
पर उसे अपना परिचय दिया।
मैनेजर उसके सम्मान में तत्काल उठ कर खड़ा हो गया। वो राजा सा'ब को बतौर ‘साउथएण्ड’ के मालिक ही नहीं, अन्डरवर्ल्ड डॉन के तौर भी जानता था।
“वैलकम, सर।” – मैनेजर बोला।
“नाम बोले तो?” – राजा सा'ब रौब से बोला।
“हालदार, सर।”
मैनेजर अदब से बोला – “कपिल हालदार।”
“मेरे को जानता है?”
“यस, सर। तभी तो वैलकम बोला।”
“मेरे को थोड़ा टेम के लिए जो है, ये ऑफिस यूज़ करना माँगता है। ज्यास्ती टेम नहीं। खाली हाफ ऐन ऑवर। देता है क्या?”
“श्योर, सर। हाफ ऐन ऑवर क्यों, जब तक भी आप चाहें।”
“तब तुम किधर जाएगा?”
“आप मेरी फिक्र न कीजिए।”
“ठीक है फिर। एडवांस में बैंक्यू बोलता है।”
हालदार मेज़ के पीछे से निकल कर एक बाजू हुआ तो बेमुलाहज़ा राजा साहब उसकी एग्जीक्यूटिव चेयर पर काबिज़ हुआ।
“मेरी कोई ज़रूरत हो तो” – हालदार बाहर की ओर बढ़ता बोला – “बैल करना। मैं खद हाज़िर होऊँगा।”
“एक ज़रूरत अभी है।”
“बोलिए।”
“जैसे मेरे को जानता है, माइकल गोटी को भी जानता है?”
“यस, सर। इधर के रेगुलर हैं। इत्तफ़ाक से अभी भी हॉल में मौजूद हैं।”
“उसको इधर बुला के ला।”
“वो”– हालदार संदिग्ध भाव से बोला – “मेरी सुनेंगे?”
“मेरी इधर जो है, उसी से मीटिंग है। क्या?”
“ओह! अभी, सर।”
हालदार वहाँ से विदा हो गया। पीछे राजा सा'ब ने एक सिगरेट सुलगा लिया और कुर्सी पर पसर गया। पाँच मिनट बाद माइकल गोटी वहाँ पहुँचा। तत्काल राजा सा'ब ने सिगरेट करीब पड़ी ऐश ट्रे में झोंक दिया।
“बैठ।” — फिर बोला।
“राजू भाई” – गोटी भुनभुनाया – “मैं कम्पनी के साथ था!”
“आती बार दिखाई दी मेरे को जो है, तेरी कम्पनी। चोखी आइटम थी। बोले तो कैजुअल या पक्की माशूक?”
“क्यों पूछते हो?”
“गोटी, माशूक – कच्ची या पक्की – आती जाती रहती है लेकिन जो मौका इस घड़ी हाथ में है वो जो है, शायद दोबारा फिर कभी न आए।”
“सीरियस मामला है?”
“बहुत ज़्यादा। हमारे काम का।”
“हमारे! हमारे बोला?”
“हाँ। और हम में शाह को भी शामिल करके बोला।”
“ऐसा?”
“हाँ।”
“आता हूँ।”
वो गया और लगभग उलटे पाँव वापिस लौटा। इस बार वो राजा सा'ब के सामने एक विज़िटर्स चेयर पर ढेर हुआ।
“क्या किया?” – राजा साब तनिक उत्सुक भाव से बोला – “वेट करने को बोला जो है, या डिसमिस कर दिया?”
“डिसमिस कर दिया। जब सीरियस मामला बोला तो तवज्जो एक ही जगह होनी चाहिए थी न!”
“ठीक! अब मेरी बात गौर से सुन ...”
“ज़रूर। लेकिन पहले एक बात का जवाब दो!”
“पूछो।”
“कैसे जाना कि मैं यहाँ था?”
“नहीं जाना। तुक्का लगाया जो चल गया। वो क्या है कि शाम की तफ़रीह के तेरे चार-पाँच फेवरेट ठिकानों की जो है, मेरे को ख़बर थी। बारी-बारी दरयाफ़्त किया तो मालूम पड़ा तू यहाँ तारदेव में व्हिस्की सोडा’ में था।”
“ओह! अब बोलो वो बात जो मैंने गौर से सुननी है!”
“सोहल के बारे में क्या कहता है?”
“क्या कहूँ!”
“वो हमारे पीछे पड़ा है। उसने हालिया जो है, हमें बड़ी चोट पहुँचाई है। अब इस बात में शक की कोई गुंजायश नहीं कि शुक्रवार के बत्तीस करोड़ की लूट के कारनामे को सोहल ने आर्गेनाइज़ किया था। शिवाजी चौक वाले ऑफिस में घुस कर जो है, कुबेर पुजारी के घुटने उसने फोड़े थे। ऐसे और भी कई वाकये जो हैं, अब हमें यकीन है कि सोहल के ही कारनामे थे। वो हमारे पीछे पड़ा है और हम जो हैं उसके खिलाफ़ कुछ कर पाना तो दर, अभी तक ये नहीं जान पाए कि वो कहाँ पाया जाता है।”
“तो?”
“तो ये कि भेदियों के ज़रिए अभी एक ऐसी झकास जानकारी मेरे काबू में आई है जिससे हम यकीनी तौर पर जो है, जान पाएँगे कि वो कब कहाँ होगा!”
गोटी सम्भल कर बैठा।
“तुम्हारा मतलब है” – वो बोला – “कि जो शख़्स – मौजूदा हालात में हमारा दुश्मन नम्बर वन – हमें ढूँढ़े नहीं मिल रहा, उसकी तुम्हें ख़बर होगी कि वो कब कहाँ होगा?”
“हाँ।”
“बोले तो?”
“कल दोपहर को वो सहर एयरपोर्ट पर होगा।”
“एयरपोर्ट पर कहाँ?”
“अराइवल गेट पर। जैसे कहीं बाहर से आया हो और उस घड़ी उसकी फ्लाइट जो है, वहाँ पहुँची हो।”
“कैसे मालूम?”
“लम्बी कहानी है।”
“हो लम्बी कहानी! अब क्या वान्दा है? अपनी फ्रेंड को तो मैंने भेज दिया!”
“तो सुन ....” उसने शाह की लाइलाज बीमारी की और दिल्ली के हकीम अकमल खान की कल होने वाली मुम्बई विज़िट पर वही कहानी अशरक्षः गोटी को परोस दी जो उसने पहले झाम को परोसी थी।
“हमारे ज़ीरो नम्बर” — फिर वो बोला – “कहते हैं कि हकीम की मुम्बई की खुफ़िया विज़िट की ख़बर न सिर्फ लीक हो गई, मुकम्मल डिटेल्स के साथ जो है, सोहल तक पहुँच गई।”
“कमाल है! यकीन नहीं आता।”
“क्या कमाल है? क्यों यकीन नहीं आता? हमारी खुफ़ियापन्ती जो है, काम कर सकती है तो दुश्मन की नहीं कर सकती?”
“तुम ये कहना चाहते हो कि शाह को देखने के लिए कल दोपहर की फ्लाइट से जो हकीम दिल्ली से आएगा, वो मुम्बई लैंड करने के बाद एयरपोर्ट पर ही कहीं गायब हो जाएगा ...”
“गायब कर दिया जाएगा। तब तक के लिए जब तक कि हकीम का बहुरूप धारण किए सोहल अराइवल लाउन्ज के बाहर उसको पेज करते शाह के गार्ड्स को नहीं दिखाई दे जाएगा और गाईस जो हैं, ‘हकीम’ को लेकर एयरपोर्ट से रवाना नहीं हो जाएंगे।”
“अच्छा !”
“इस सारी ड्रिल की ब्यूटी ये है कि हकीम बने सोहल को जो है, शाह का मौजूदा अता-पता जानने की कोई ज़रूरत ही नहीं होगी। शाह के पर्सनल, वफ़ादार गार्ड्स ख़ुद उसे शाह तक पहुँचाएँगे और जहाँ भी शाह होगा, दिल्ली से आया हकीम – सोहल – उसके साथ अकेला होगा।”
“क्यों?”
“पूछता है क्यों? ‘हकीम’ ने पूरी तवज्जो के साथ मरीज की नब्ज़ देखनी होगी, जिसमें वो पन्द्रह मिनट तक लगाता बताया जाता है, तो तब क्या हकीम और मरीज के सिरहाने जो है, गाईस की गारद खड़ी होगी!”
“ओह!”
“हकीम की शाह के साथ मौजूदगी में जो है, किसी को भी पास फटकने की सख्त मनाही होगी।”
“सोहल शाह के साथ अकेला?”
“हाँ।”
“क्या करेगा?”
“ये भी कोई पछने की बात है! वही करेगा जिसको करने के लिए इतना ख़तरा मोल लेकर वहाँ पहुँचेगा।”
“शाह को ऑफ़ कर देगा?”
“यकीनन!”
“फायदा क्या?”
“अरे, भई, किसी गैंग को ख़त्म करना हो तो सबसे पहले उसकी लीडरशिप ख़त्म की जाती है। ऐसा होता है तो गैंग जो है, अपने आप बिखर जाता है और सम्भलते-सम्भलते सम्भलता है – कई बार नहीं भी सम्भलता।”
“हम भी तो सोहल को इसीलिए ख़त्म करना चाहते हैं! याद नहीं कि जब सोहल एकाएक मुम्बई से गायब हो गया था – जब अन्डरवर्ल्ड में चर्चे थे कि हमेशा के लिए मुम्बई छोड़ गया था – तो पीछे कूपर कम्पाउन्ड वालों का क्या हाल हुआ था! सोहल मुम्बई में ही बना रहा होता तो क्या हम जो है, तुका के चैरिटेबल ट्रस्ट को हाइजैक कर पाए होते? तो क्या सोहल के ख़ासुलख़ास में से कोई कैब चला रहा होता, कोई नौकरी कर रहा होता!”
हूँ! अब सारी बात का खुलासा ये हुआ कि सोहल दिल्ली से आए हकीम को भटका के ख़ुद हकीम बन जाएगा और क्योंकि हमें मालूम होगा कि हकीम सोहल है इसलिए हम रास्ते में कहीं उसे ऑफ कर देंगे।”
“रास्ते में नहीं, एयरपोर्ट पर ही। और हम नहीं, तू!”
“तू टॉप का स्नाइपर है। टैलीस्कोपिक साइट वाली किसी हाई फाई राइफल से जो है, सोहल को निशाना बना लेना तेरे लिए मामूली काम होगा।”
“मेरे लिए?”
“यकीनन। गैंग में शामिल होने से पहले तू जो है, स्नाइपर ही तो था, क्या भल गया!”
“निशाना दिन दहाड़े! भरी दोपहरी में!”
“तभी तो ये काम कदरन आसान होगा। एयरपोर्ट के सामने सड़क से पार एक कई मंजिला इमारत बन रही है जिसकी तामीर आजकल रुकी हुई है। वहाँ से तू बड़ी आसानी से सोहल को निशाना बना लेगा।”
“मैं सोहल को पहचानँगा कैसे?”
“गोटी, मगज से काम ले, मगज से। तूने जो है, सोहल को नहीं पहचानना, हकीम को पहचानना है – बल्कि हकीम को भी नहीं, उसकी शेरवानी को, उसकी कश्मीरी टोपी को, उसके काले चश्मे को, उसकी मोटी भवों को, दाढ़ी को पहचानना है। क्या प्रॉब्लम है?”
“ये गारन्टी है कि उसी घड़ी असली हकीम भी नमूदार नहीं हो जाएगा?”
“हाँ। गारन्टी है।”
“कौन करेगा ये काम? तुम खुद?”
“नहीं, मैं नहीं। मेरे को तो तेरे साथ होने का।”
“क्यों?”
“भई, तेरे को सोहल की शिनाख्त करवाऊँगा। तू शिनाख्त ख़ुद कर लेगा तो शिनाख्त की जो है तसदीक करूँगा।”
“असली हकीम को कौन हैंडल करेगा?”
“रोज़ी!”
गोटी सकपकाया।
“वो” – फिर बोला – “राज़ी हो जाएगी?”
“अरे, भूल गया कि राज़ी कराने वाला कौन होगा!”
“किसी भीड़ के मुकाबले में कोई बाई जो है वो भी रोज़ी जैसी जन्नत की हूर – इस काम को ज़्यादा कामयाबी से हैंडल कर सकती है।”
“तभी तक न, जब तक नकली हकीम – सोहल – ऑफ नहीं हो जाता! उसके बाद क्या होगा! हकीम की शाह से मुलाकात कैसे टलेगी जिसके लिए वो ख़ासतौर से मुम्बई आया होगा?”
“एयरपोर्ट पर जो है, रोज़ी के पास हकीम की मौजूदगी में ख़बर पहुँचेगी कि शाह को जो है, एकाएक दिल का दौरा पड़ गया था और अब वो एक नर्सिंग होम के आईसीसीय में ज़िन्दगी और मौत के बीच झला झल रहा था। बोले तो शाह को हकीम की किसी ख़िदमत की कोई ज़रूरत नहीं होगी। वापिसी की उसकी फ्लाइट के चैक इन का बक्त होगा तो रोज़ी जो है, बाइज्जत उसे एयरपोर्ट पर सी ऑफ कर के आएगी।”
“ये तो एक सिरे की, एयरपोर्ट वाले सिरे की कहानी हुई? असल में तो शाह को दिल का दौरा नहीं पड़ा होगा! वो तो जहाँ भी वो होगा, इन्तज़ार करता होगा हकीम की आमद का!”
गोटी ज़्यादा दिमाग वाला था। झाम को ये सवाल करना नहीं सूझा था।
“शाह के पर्सनल गार्ड्स हकीम को रिसीव करने के लिए एयरपोर्ट पर पहुँचे होंगे।” – गोटी बोला – “अराइवल गेट के करीब कहीं हकीम बना सोहल होगा जिसको हकीम के नाम का बोर्ड थामे गार्ड्स पेज कर रहे होंगे। उसके गार्ड्स के करीब पहुँचने से पहले वो मेरी राइफल की गोली का शिकार होगा तो क्या वो वाकया गार्ड्स से छुपा रहेगा?”
“छुपा रह सकता है।”
“क्या बोला?”
“वक्ती तौर पर तो यकीनन छुपा रह सकता है। देख, तू इस बात से जो है, बेख़बर नहीं होगा कि जब कोई फ्लाइट एयरपोर्ट पर लैंड करती है तो उसके बाद अराइवल गेट पर जो है, रश हो जाता है। दो तीन फ्लाइटें इकट्ठी पहँच जाएँ तो और भी ज़्यादा रश हो जाता है। ऐसे भीड़ वाले माहौल में कोई पैसेंजर एकाएक ढेर हो जाता है तो ज़रूरी नहीं कि वो गार्ड्स की तवज्जो का मरकज बने। उनकी तो मुकम्मल तवज्जो जो है, दिल्ली से आए अपने ख़ास मेहमान को पेज करने की तरफ होगी। अपने नाम का बोर्ड पढ़ कर जब कोई पैसेंजर जो है, उनके करीब नहीं पहुँचेगा तो गाई यही समझेंगे कि उनका मेहमान आया ही नहीं था, किसी वजह से उसकी फ्लाइट मिस हो गई थी या न आने की कोई और वजह बन गई थी। अराइवल के बाहर कहीं किसी को दिल का दौरा पड़ गया और वो जो है, वहीं ढेर हो गया तो गार्ड्स को उससे कुछ लेना-देना न होता। वो शाह को ख़बर करने वापिस लौट जाते कि उनका दिल्ली का मेहमान जो है, दोपहर की फ्लाइट से मुम्बई नहीं पहुंचा था।”
“क्यों नहीं पहुँचा था?”
“पहुँचा था लेकिन उसे वहाँ नहीं पहुँचने दिया गया था जहाँ उसने पहुँचना था। किसी ने जो है, इरादतन उसे गुमराह किया था कि मुम्बई में उसके मेज़बान को दिल का दौरा पड़ गया था, ज़िन्दगी और मौत के बीच झूलते मेज़बान को – शाह को- अब दिल्ली से आए हकीम की किन्हीं ख़ास ख़िदमात की जरूरत नहीं रही थी। किस्सा ख़त्म।”
“और जो स्नाइपर की बुलेट से मरा?”
“पुलिस की तफ्तीश से ऐसा कुछ साबित नहीं होगा कि वो जो है, दिल्ली से आया हकीम अकमल खान था। सच में तो वो प्लेन पैसेंजर था नहीं जो उसके पास प्लेन टिकट होता जिससे कि उसकी जो है, शिनाख़्त हो पाती।”
“आख़िर तो पता लगता कि उसकी दाढ़ी नकली थी, भवें नकली थीं और उसकी एक आँख में ऐसा कोई नुक्स नहीं था जिसको छुपाने के लिए काला चश्मा ज़रूरी होता!”
“लगता। और साथ ही देर-सवेर जो है, ये पता लगता कि वो सोहल था। कल मेरा ख़ास आदमी हरमेश नटके इसी बात की तसदीक के लिए एयरपोर्ट पर मौजूद होगा।”
“हूँ।”
“अब लाख रुपए का सवाल ये है कि तेरे पास हाई फाई स्नाइपर्स राइफल का जो है, कोई फौरी इन्तज़ाम है?”
“नहीं, लाख रुपए का सवाल ये है कि क्या मैं ये काम करने को तैयार हूँ!”
राजा सा'ब सकपकाया, उसने आहत भाव से गोटी की तरफ देखा। गोटी पर कोई प्रतिक्रिया दिखाई न दी।
“गोटी, मेरे को जो है, तेरे से ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी।”
“क्यों नहीं थी?”
“क्योंकि ये किसी एक जने का काम नहीं, हमारा काम है। सोहल अगर खल्लास होगा तो ये जो है, किसी एक जने के फायदे की बात होगी या पूरे गैंग के फायदे की बात होगी! मेरे को या झाम को या मेंडिस को स्नाइपर्स राइफल हैंडल करने का तेरे जैसा तर्जुबा होता तो क्या माकूल जवाब के लिए जो है, मैं तेरा मुँह देख रहा होता?”
“खफ़ा हो रहे हो?”
“नहीं, गिला कर रहा हूँ। ऊँट की लीद की ज़रूरत होगी तो पहाड़ पर जाकर हगेगा।”
गोटी हँसा। राजा सा'ब ने अपलक उसे देखा।
“स्टियर एसएसजी-69, मेड इन आस्ट्रिया। वज़न चार किलो। हज़ार गज़ तक मार करने वाली। पाँच राउन्ड वाली रोटरी मैगज़ीन। मील तक काम करने वाली टेलीस्कोपिक साइट। साइट, नाल, स्टॉक, मैगजीन, स्टैंड सब डिटैचेबल। सब पार्ट्स अलग-अलग खाँचों में एक बक्से में बन्द और बन्द बक्सा देखने में ब्रीफकेस जैसा क्या?”
“बढ़िया! गोटी तूने तो जो है, मेरे को फिक्र में डाल दिया था! मैं तो समझा था तू सच में ही मिजाज दिखा रहा था!”
गोटी हँसा।
“कल दस बजे निकलेंगे।” – फिर संजीदगी से बोला – “एयरपोर्ट के सामने की बनती इमारत के अलावा और भी बहुत कुछ चैक करना होगा। मसलन, उस इमारत और एयरपोर्ट के अराइवल गेट के बीच अगर हज़ार गज़ से ज़्यादा का फासला निकला तो मेरी आस्ट्रियन रायफल मुमकिन है किसी काम न आए।”
“इतना फासला नहीं है। मेरा अन्दाज़ा जो है, सात-आठ सौ गज का है।”
“पक्की बात?”
“हाँ। सौ टाँक।”
“वैसे दो हज़ार गज तक मार करने वाली स्नाइपर्स राइफल भी अन्डरवर्ल्ड में मिलती है। इतनी दमदार कि टैंक में छेद कर सकती है। बैरेट-82 कहलाती है और अमेरिका की प्रॉडक्ट है। एक्स्ट्रा लांग बैरल, दस राउन्ड डिटैचेबल मैगज़ीन लेकिन एक ख़ामी बरोबर।”
“क्या?”
“वज़न चौदह किलो।”
“उसकी ज़रूरत नहीं पड़ेगी। फासला जो है, सात-आठ सौ गज़ से ज्यास्ती हरगिज़ नहीं है।”
“बढ़िया। अब नम्बर टू का हुक्म हो तो ड्रिंक्स के लिए बाहर चलें?”
सहमति में सिर हिलाता राजा सा'ब तत्काल उठ खड़ा हुआ।