8 मई : शुक्रवार
सुबह नौ बजे के करीब मंगेश मोडक एमटीएनएल के लाइनमैन की खाकी वर्दी पहने और टूल बैग उठाए अंधेरी वैस्ट, लोखण्डवाला कम्पलैक्स में आदर्श अपार्टमेंट्स के पैंथाउस की कालबैल बजा रहा था।
वहाँ मारुति कार डीलर हीरा करनानी का आवास था।
एक अधेड़ नौकर ने दरवाज़ा खोला।
“टेलीफोन एक्सचेंज से आया।” – मोडक चहकता-सा बोला – “इधर लैंडलाइन का कम्पलेंट है। देखने का।”
“पण फोन तो ठीक है!” – नौकर बोला।
“मेरे पास कम्पलेंट!” – मोडक ने नौकर की नाक के आगे अपना डॉकेट लहराया – “नम्बर 268***74, डायल टोन नक्को!”
“अरे, चालू है फोन!”
“जब फ़ॉल्ट डॉकेट मिला तो देखने का। चालू है तो भी कनफर्म करने का। क्या!”
“लेकिन . . .”
“लेखू!” – पीछे कहीं से मालिक करनानी की आवाज़ आई – “आने दे। उसकी ड्यूटी है। चैक करने दे फोन उसे।”
नौकर ने बेमन से दरवाज़ा खोला और ‘मकैनिक’ को ड्राईंगरूम में लेकर गया जहाँ एक वाल कैबिनेट पर टेलीफोन रखा था।
करनानी ड्राईंगरूम में ही बैठा निगाह का चश्मा लगाए अख़बार पढ़ रहा था।
मोडक ने टूल बैग से पेचकस, प्लास बरामद किया और टेलीफोन के हवाले हुआ। जैसा उसे सिखाया-समझाया गया था, उसने फोन पर से रिसीवर उठा कर एक ओर रखा, फोन को उलटा किया और चार पेच खोलकर बेस प्लेट फोन से अलग की और नाहक भीतर कहीं पेचकस तो कहीं प्लास चलाने लगा।
उस दौरान नौकर लेखू उसके सिर पर खड़ा था और उसकी हर हरकत नोट कर रहा था।
मोडक ने बेस प्लेट फोन पर वापिस लगाई और रिसीवर के हवाले हुआ।
“लेखू!” – एकाएक करनानी उच्च स्वर में बोला – “मिस्त्री जी को कोई चाय-पानी पूछ।”
“हाँ, जी। अभी।” – नौकर बोला, फिर मोडक से सम्बोधित हुआ – “चाय पियेगा? साहब पूछ रहे हैं?”
“साहब की मेहरबानी।” – मोडक बोला – “पानी पिऊंगा। जल्दी ला दो तो तुम्हारी भी मेहरबानी।”
“लेखू, पानी ला पुटड़े के वास्ते।”
बेमन से नौकर मोडक के करीब से हटा और उसकी तरफ पीठ फेर कर भीतर कहीं आगे बढ़ गया।
मोडक ने फुर्ती से पहले माउथपीस खोला, बन्द किया फिर चूड़ी घुमा कर रिसीवर का ईयरपीस रिसीवर से अलग किया और भीतर एक ट्रांसमिटर सरका कर, उसके भीतर न हिलने का इन्तज़ाम करने लगा।
जब नौकर पानी लेकर आया, मोडक रिसीवर पर ईयरपीस वापिस चढ़ा रहा था। उसने रिसीवर वापिस क्रेडल पर रखा, पानी का गिलास थामा और बोला – “बढ़िया चल रहा है।”
“मैं पहले ही बोला . . .।” – नौकर ने कहना चाहा।
“मालूम! मालूम! पण महकमे से कम्पलेंट मिले तो अटेंड करना ज़रूरी।”
नौकर ख़ामोश हो गया।
मोडक ने जबरन पानी पिया और गिलास नौकर को थमाया तो उसके चेहरे पर ऐसे भाव आए जैसे मकैनिक से खाली गिलास थामने से उसकी हैसियत घट गई हो।
वो ट्रांसमिटर सैकण्डहैण्ड इलैक्ट्रॉनिक्स कम्पोनेंट्स की एक दुकान से खरीदा गया था – उसका भाई उसकी जेब में था – और एक तो यही पता नहीं था कि चलता भी था या नहीं, दूसरे चलता भी होता तो उसकी माॅनीटरिंग का कहीं कोई इन्तज़ाम तो था नहीं!
उसने पेचकस, प्लास टूल बैग के हवाले किए और मेन डोर की ओर बढ़ा। रास्ते में वो ठिठका, केवल एक क्षण को उसकी करनानी से निगाह मिली तो करनानी के होंठों पर एक धूर्त मुस्कुराहट आई, फिर फौरन उसने अख़बार मुँह के आगे कर लिया।
ऐन वही ड्रामा मोडक ने आदर्श से आधा किलोमीटर पर स्थित सूर्या अपार्टमेंट्स में किया जहाँ फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर माधव मेहता का आवास था।
अब उसकी लैंडलाइन के रिसीवर में भी एक मिनियेचर ट्रांसमिटर फिक्स था।
“गुस्ताखी की माफ़ी के साथ अर्ज़ है, अहसान भाई” – उमर सुलतान बोला – “कि ये किसी सिरे लगने वाला काम नहीं।”
वो शुक्रवार का दिन था जबकि शिवाजी चौक पर का ट्रस्ट का ऑफ़िस पब्लिक के लिए बन्द था। दोपहरबाद एक बजे का वक्त था जबकि बन्द ऑफ़िस में सिर्फ अहसान कुर्ला और अनिल विनायक मौजूद थे।
अहसान कुर्ला की भवें उठीं, उसने करीब बैठे, सदा मौजूद, अनिल विनायक की तरफ देखा।
अनिल ने अनभिज्ञता से कन्धे उचकाए।
उमर सुलतान अहसान कुर्ला का इसलिए ख़ास था, पर्सनल फ्रेंड था क्योंकि वो अहसान का मामाजाद भाई भी था। तरीके से पढ़ा-लिखा जहीन शख़्स था इसलिए जब वो कहता था कि काम किसी सिरे लगने वाला नहीं था तो यकीनन नहीं था। कोई दूसरा ये नतीजा पेश कर रहा होता तो अपनी आदत के मुताबिक अहसान उसके गले पड़ गया होता कि उसने ठीक से, तवज्जो से काम नहीं किया था। लेकिन सुलतान के काम में ऐसा नुक्स निकालने की कोई गुंजायश नहीं थी।
“पत्थरबाज़ी की वारदात के पहले के हफ्ते में” – सुलतान आगे बढ़ा – “अट्ठाइस फरियादी शिवाजी चौक पहुँचे थे जिनमें से चार वो हो सकते थे जिन्होंने पत्थरबाज़ी की थी और फिर हमारे प्यादों से बुरी तरह से मार खाई थी। उन अट्ठाइस फरियादियों का नाम पता – ज़ाहिर है कि – उनके भरे फार्मों से निकाला गया था। प्रॉब्लम यहीं से शुरू हो गई, अहसान भाई, कि वो अट्ठाइस पते खाली मुम्बई के नहीं थे, ठाणे, कल्याण, नवीं मुम्बई, पनवेल तक फैले हुए थे। एक तो अलीबाग का था।”
“अरे!” – अहसान के मुँह से निकला – “इतनी दूर का!”
“फिर भी मैं ख़ुद लगा, साथ में कई भीड़ू लगाए और सारे पतों को चैक किया। जो मालूम पड़ा वो ये था कि अट्ठाइस फरियादियों में से कुछ तो ऐसे थे जिन्होंने शिवाजी चौक से बाकायदा हमदर्दी और इमदाद हासिल की थी और बाकी भी नाउम्मीद तो थे लेकिन ट्रस्ट के खिलाफ नहीं थे। तकरीबन कहते थे कि कुछ अरसे बाद फरियाद लेकर फिर जाएंगे, इक्का-दुक्का ही थे जिन्होंने शिवाजी चौक से उम्मीद छोड़ दी थी।”
“अरे, ये बता” – अहसान उतावले स्वर में बोला – “वो पत्थरबाज़ हो सकते थे?”
“बिल्कुल नहीं।”
“वो चारों भी नहीं जो पत्थर बरसा गए?”
“वो चारों बाकियों में शामिल नहीं थे?”
“वजह?”
“मिले ही नहीं।”
“मिले नहीं! क्या मतलब?”
“इत्तफ़ाक से वो चारों ही धारावी में रहते थे – दो काला किला के इलाके में, एक लक्ष्मीबाग में और एक एक्रेजी में। लक्ष्मीबाग वाले की वहीं लक्ष्मीबाग में ही किरयाने की दुकान थी। उसकी बेटी की शादी के बाद की ससुराल वालों के साथ कोई प्रॉब्लम थी जो उसे शिवाजी चौक लेकर आई थी और जहाँ उसकी फरियाद की कोई माकूल सुनवाई नहीं हुई थी। नतीजतन बेटी ने ख़ुदकुशी कर ली थी और उस वारदात के बाद माँ-बाप हमेशा के लिए कहीं और शिफ्ट कर गए थे।”
“कहाँ?”
“मालूम नहीं। बाकी तीन की बाबत भी यही जवाब मिला। ये भी पता न लग सका कि इलाका छोड़ गए या शहर ही छोड़ गए।”
“ऐसे लोग इकट्ठे होकर गैंग कैसे खड़ा कर सकते हैं? वो भी हमारे खिलाफ! बिग बॉस के खिलाफ! शाह के खिलाफ!”
“नहीं कर सकते।”
“अब तू बोल, भई, क्या कहता है!” – अहसान अनिल विनायक की ओर घूमा – “सुलतान तेरी थ्योरी की तो धज्जियाँ उड़ाए दे रहा है! तू तो चार से चालीस, चालीस से चार सौ का आइडिया सरकाता था! यहाँ तो चार ही की ख़बर नहीं!”
अनिल ख़ामोश रहा।
“किन्होंने ताकत बना ली? किन्होंने किसी बड़े डॉन की सरपरस्ती हासिल कर ली? कौन है ऐसा डॉन तेरे तसव्वुर में जो उन चिन्दीचोरों की ख़ातिर – जो कि एक-दूसरे के ताल्लुक में भी नहीं जान पड़ते – शाह की मुखालफत में खड़ा होने का हौसला कर सकता है?”
अनिल के पास किसी बात का जवाब नहीं था।
“अब तू हाँ या न में जवाब दे कि चार तारीख वाला लूट का कारनामा पत्थरबाज़ों का था या नहीं था?”
“सुलतान की रिपोर्ट से तो” – अनिल दबे स्वर में बोला – “नहीं लगता था कि था!”
“मेरा सवाल सुलतान से नहीं, तेरे से है, खसम!”
वो बड़ा दुर्लभ मौका था जबकि अहसान अपने ‘ख़ास’ से खफ़ा था।
“जवाब के लिए सुलतान के फ़ील्ड वर्क की रिपोर्ट का हवाला तो ज़रूरी है न!”
“हो ज़रूरी। जवाब की दरकार तो तेरे से है!”
अनिल ने बेचैनी से पहलू बदला।
“मैंने साला” – अहसान भुनभुनाया – “सब आगे कुबेर भाई को बोल दिया, तेरी थ्योरी के लिए तेरी तारीफ भी कर दी, ऐसी धौंस से सब बयान किया जैसे पत्थरबाज़ों वाली थ्योरी के अलावा कोई दूसरी थ्योरी मुमकिन हो ही नहीं सकती थी। अब क्या जवाब दूँगा मैं? अब कुछ बोल तो सही!”
“वो सब आपस में मिले हुए हैं तो सुलतान भाई और इसके आदमियों को कहने के लिए स्टोरी उन्होंने पहले ही सैट की हो सकती है। आख़िर अन्देशा तो उन्हें था न, कि लूट की वारदात के हवाले से उनकी पड़ताल हो सकती थी?”
“सुलतान को गुमराह किया?”
“मुमकिन है।”
“सबने?”
“सब एकजुट हैं तो क्यों नहीं?”
“जो चार धारावी से गायब हैं? जो असली पत्थरमार थे?”
“उन्हीं लोगों की पनाह में कहीं होंगे जिन्होंने अहसान भाई को दीनहीन बन के दिखाया।”
“लूट की अगली वारदात के लिए तैयार होंगे?”
“क्या कहा जा सकता है!”
“जान लेंगे वारदात कहाँ करनी है?”
“पहली बार भी तो जान लिया था!”
“अरे खजूर, अगर उन लोगों का कोई गंठजोड़ बन भी गया है, जिसका कि अब सुलतान की रिपोर्ट के बाद यकीन नहीं, तो भी तू उन लोगों की सलाहियात को बहुत ज़्यादा करके आंक रहा है।”
अनिल ख़ामोश रहा।
“फिर भी तेरी अक्ल उन्हीं की तरफदार है तो सुलतान के साथ बैठ कर मशवरा कर कि इस बारे में और क्या किया जा सकता है! मेरे से पूछे तो एक तो ये किया जा सकता है कि जैसे पत्थरबाज़ी की वारदात से पहले के एक हफ्ते के फरियादियों को चैक किया, वैसे उस हफ्ते से पहले के एक और हफ्ते के फरियादियों को चैक किया जाए। क्या कहता है?”
अनिल ने सुलतान की तरफ देखा।
“टाइम ही ज़ाया होगा।” – सुलतान धीरे से बोला।
“होने दो। लेकिन जो करना हो, जल्दी करो। कुबेर भाई किसी भी वक्त जवाबदारी के लिए बुला सकता है। अनिल की थ्योरी बेदम निकली तो इसी बात पर मेरा ऐसा बैंड बजेगा कि मैं पनाह माँग जाऊँगा। समझे! तो ख़ुदा के वास्ते कुछ करो और जल्दी करो।”
दोनों के सिर सहमति में हिले।
रात ग्यारह बजे ही वसूली की नई टीम के कदम लोखण्डवाला काम्पलैक्स में पहले आदर्श अपार्टमेंट्स में पड़े।
इस बार पीछे कोई न ठहरा। तीनों लिफ्ट द्वारा पैंथाउस वाले फ्लोर पर पहुँचे। गनर हसन टकला और जोड़ीदार हरीश कोली पीछे ठहरे और अबरार बोगस घन्टी बजा कर भीतर गया जहाँ वसूली का पैकेट तैयार था और उसी के इन्तज़ार में कार डीलर हीरा करनानी ड्राई ंग रूम में अकेला मौजूद था।
पच्चीस लाख रुपये। दो हज़ार के नोटों में।
क्योंकि सिन्धी सेठ ज्वेलर कालसेकर से बड़ा व्यापारी था।
अबरार बोगस को रोकड़े के पैकेट के साथ रुख़सत करने के लिए करनानी उसके साथ मेन डोर तक आया। तब उसे बाहर मौजूद कोली और टकला दिखाई दिए।
“ये कौन हैं?” – करनानी ने संदिग्ध भाव से पूछा।
“मेरे साथी हैं।” – बोगस बोला।
“इधर क्या करते हैं?”
“साथ देते हैं। ये टेम रोकड़ा चौकस ले के जाने का न!”
“ये टेम, क्या मतलब?”
“मालूम पड़ेगा। जाता है। थैंक्यू – पहले नहीं बोला तो अब – बोल के।”
करनानी ने सिर को खम देकर ‘थैंक्यू’ कबूल किया और मेन डोर लॉक कर लिया। तीनों ख़ामोशी से लिफ्ट में सवार हुए और नीचे पहुँचे।
अगला पड़ाव सूर्या अपार्टमेंट्स था जहाँ गुजराती फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर माधव मेहता रहता था।
निर्विघ्न वहाँ से भी पैकेट प्राप्त हुआ।
फिर पच्चीस लाख रुपया।
अब दोनों पैकेट एक ऐसे बड़े बैग में थे जिसको पहियों पर भी लुढ़काया जा सकता था – जो ट्रॉली बैग कहलाता था – और हैंडल से भी थामा जा सकता था। ऊपर एक मोटी जिप थी जिसको ताला लगाने का भी इन्तज़ाम था।
अब उन्होंने वरली और आगे ओमप्रिया अपार्टमेंट्स पहुँचना था जहाँ बॉस कुबेर पुजारी का आवास था। इस बार भी उनके कब्ज़े में वैगन-आर थी जिसे कोली चला रहा था, बोगस उसकी बगल में पैसेंजर सीट पर था और बैग के साथ गनर टकला पिछली सीट पर बैठा था।
आधी रात के करीब निर्विघ्न वो आगे बढ़ रहे थे।
सारा रास्ता वो विवेकानन्द रोड पर थे जबकि खार के करीब उन्हें लोटस चौक पर ‘डाइवर्जन’ का बोर्ड दिखाई दिया। कोली ने कार बाएं, साउथ एवेन्यू पर मोड़ी।
पीछे किसी ने ख़ामोशी से डाइवर्जन का बोर्ड सड़क पर से हटा लिया।
आगे नारायण चौक से उन्होंने बाएं मुड़ना था लेकिन वहाँ ‘रोड क्लोज्ड फ़ॉर फोन केबल रिपेयर’ का बोर्ड खड़ा था। मजबूरन उन्हें चौक पार करके सीधा आगे बढ़ना पड़ा।
चौक पर से बोर्ड चुपचाप फिर गायब हो गया।
“पन्द्रह रोड पर चल।” – अबरार बोगस ने राय दी – “आगे फिर बाएं मुड़ेगा तो रामराव नायक मार्ग से वापिस विवेकानन्द रोड पहुँच जाएगा। तब डाइवर्जन पीछे रह जाएगा, आगे रोड क्लियर मिलेगी।”
कोली ने सहमति में सिर हिलाया।
आगे उस रोड का फर्स्ट रोड के साथ क्रासिंग था जहाँ से उन्होंने बाएं मुड़ना था।
आगे सिग्नल लाइट लाल मिली।
“निकल ले।” – अबरार बोगस बोला।
“नक्को!” – तत्काल हसन टकले ने ऐतराज़ किया – “रोकड़े का मामला है। पंगा नहीं माँगता।”
कोली ने कार रोक दी।
धड़ाम।
एक कार पीछे से आई और वैगन-आर से टकराई।
तत्काल तीनों उतरने को तैयार हुए।
“ख़बरदार! – बोगस गुर्राया – मैं देखता है!”
वो उतर कर पीछे पहुँचा। पीछे एक सान्त्रो थी जो वैगन-आर के साथ बुरी तरह से ठुकी थी। बोगस लपक कर उसकी ड्राइविंग सीट की ओर पहुँचा तो सान्त्रो ड्राइव करता इरफ़ान पहले ही चिल्ला पड़ा – “अन्धा है! आगे ग्रीन लाइट! फिर भी साला रोक दिया गाड़ी! अभी मैं क्या करता! इतना ब्रेक लगाया! साला पैडल पर खड़ा हो गया, फिर भी ठुक गई। तुम्हेरा मिस्टेक! खर्चा भरना पड़ेगा।”
“अरे, येड़ा है क्या!” – बोगस चिल्लाया – “साला गाड़ी रैड लाइट पर रोका बरोबर। तू साला कलर ब्लाइन्ड! रैड, ग्रीन में साला कोई फर्क हैइच नहीं तेरे को।”
“तूने यकायक ब्रेक लगाई।”
“साले, तेरे से ब्रेक नहीं लगी। पीछे से ठोक दी।”
“गाली देता है!”
“हाँ, देता है न! कर, क्या करता है?”
अबरार बोगस इस बात से भी शेर हो रहा था कि सान्त्रो में ड्राइवर के अलावा खाली एक ही भीड़ू था।
इरफ़ान आस्तीन चढ़ाने लगा। इससे पहले कि वो बाहर निकलता, हसन टकले ने विन्डो पैन सरका कर बोगस को तीखी आवाज़ लगाई।
“आता है।” – बोगस बोला।
“ख़बरदार!” – इरफ़ान सान्त्रो से बाहर निकला – “हिलने का नहीं इधर से।”
तब तक दूसरी तरफ से विक्टर भी निकल आया।
“बोले तो साला बहरा भी है।” – बोगस गुस्से से बोला – “मैं बोला न, आता है!”
“नहीं, इधरीच ठहर। साला मेरा इतना नुकसान किया सडन ब्रेक लगा कर। तेरा बाप देगा?”
“ठहर जा, साले!”
तभी एक जीप वहाँ पहुँची।
अबरार बोगस ठिठका। उसने देखा, जीप को एक सिपाही चला रहा था, उसके साथ पैसेंजर सीट पर एक तीन सितारों वाला इन्सपेक्टर मौजूद था। पीछे दो हवलदार बैठे दिखाई दे रहे थे।
पुलिस!
“क्या गलाटा है?” – इन्सपेक्टर, कर्कश स्वर में बोला – “आधी रात को फौजदारी करता है?”
“नहीं, बाप!” – बोगस हकलाता-सा बोला।
“मैं ख़ुद देखा। दूसरे भीड़ू पर जम्प मारने को तैयार था! ठोकने लगा था!”
“नहीं, बाप।”
“क्या नहीं, बाप? एक्सीडेंट कौन किया?”
“ये!” – बोगस ने इरफ़ान की तरफ मज़बूत उंगली उठाई – “रैड लाइट पर खड़ेली हमेरी कार को पीछे से ठोका . . .”
“बंडल!” – इरफ़ान ने तत्काल विरोध किया – “आगे हरी बत्ती थी, इसके डिरेवर ने फिर भी कार को फुल ब्रेक लगा दी। मैं साला क्या करता! गाड़ी स्पीड पर थी क्योंकि आगे हरी बत्ती। ये साला फिर भी रुक गया। मैं इतनी स्पीड पकड़े गाड़ी को काटता तो गाड़ी उलट जाती। पूरा फ़ोर्स से ब्रेक लगाया, पण नहीं रुकी, टकरा गई। सारा फ़्रंट पिचक गया। साला इतना बड़ा डैमेज! अभी ये देने में हुज्जत करता है।’’
“मैं काहे वास्ते देगा?” – बोगस गुस्से से बोला – “जो हुआ, इनका मिस्टेक से हुआ। ये भीड़ू लोग वैगन-आर को डैमेज किया, डैमेज ये भीड़ू लोग हमेरे को देने का। मैं बोले तो डिरेवर बेवड़ा . . .”
“शट अप!” – इन्सपेक्टर गर्जा।
बोगस फौरन ख़ामोश हुआ।
“उन दोनों को बाहर निकालो।” – उसने एक हवलदार को हुक्म दिया।
हवलदार जीप में से बाहर कूदा और लपक कर वैगन-आर के करीब पहुँचा।
“चलो, निकलो!” – वो रौब से बोला – “साहब का हुक्म सुना नहीं क्या?”
“पण, क्यों?” – पिछली सीट पर से हसन टकला बोला – “क्यों?”
“जुबान लड़ाता है?” – इन्सपेक्टर कड़क कर बोला।
“नहीं, बाप, पण . . .”
“सबको थाने चलने का। वहीं फैसला होगा एक्सीडेंट के वास्ते कौन ज़िम्मेदार! वहीं चैक होगा कि बेवड़ा कौन सा ड्राइवर! ये काम थाने में ही हो सकते हैं।”
“बाप, सुनो तो!”
“क्या सुने? जो सुनाना है, हवलदार को बोलने का। पहले बाहर निकलने का, फिर हवलदार को बोलने का।”
दोनों बाहर निकले। टकला बैग समेत। उसने बैग कोली को थमाया और हवलदार के कान में बोला – “गुलदस्ता देता है न! कुछ कर।”
“माथा फिरेला है?” – हवलदार भी फुसफुसाया – “तीन सितारों वाला फुल इन्सपेक्टर राह चलते तेरे से गुलदस्ता थामेगा!”
“तो फिर सुलह करा। मैं डैमेज देता है।”
“बोले तो मानता है एक्सीडेंट तेरा मिस्टेक?”
“नहीं। पण . . .”
“तो डैमेज काहे वास्ते देता है?”
“अभी देता है न! तू बात कर।”
“तू ऐसे अपना मिस्टेक को यस बोलेगा तो दूसरा पार्टी का जितना डैमेज हुआ, वो उससे फोर टाइम्स माँगेगा।”
“वांदा नहीं। तू बोल इन्सपेक्टर को।”
“वो नहीं सुनेगा। बहुत कड़कमिज़ाज है। उसने बोल दिया दोनों पार्टियों को थाने ले के चलने का तो चलने का।”
“कौन से थाने?”
“खार वैस्ट।”
“हम ‘भाई’ के भीड़ू हैं।”
“कौन से भाई के? नाम ले।”
“कुबेर पुजारी।”
“साहब!” – हवलदार उच्च स्वर से बोला – “ये किसी कुबेर पुजारी कर के ‘भाई’ का नाम लेता है . . .”
“अबे, धीरे।” – टकला बौखलाया-सा बोला – “धीरे।”
“कौन कुबेर पुजारी?” – इन्सपेक्टर ने पूछा – “कौन भाई?”
“सुना!” – हवलदार बोला।
“मैं काल लगाता है।”
“साहब, ये काल लगाना माँगता है।”
“लगाने दे।” – इन्सपेक्टर बोला – “पर जल्दी करे।”
टकले ने कुबेर पुजारी का नम्बर अपने मोबाइल पर पंच किया।
तत्काल उत्तर मिला – आख़िर उसे हाफ़ खोखा का इन्तज़ार था।
टकला माउथपीस में जल्दी-जल्दी बोला।
“गुलदस्ते का बोला?” – पुजारी ने सवाल किया।
“डायरेक्ट नहीं बोला। हवलदार की मार्फत हिन्ट दिया। इन्सपेक्टर बोला थाने चल के।”
“उसको मेरा नाम बोल।”
“बोला। बोलता है, कौन कुबेर पुजारी!”
“नवां भीड़ू होगा। नाम पूछ।”
“साहेब” – टकला उच्च स्वर में बोला – “नाम बोले तो? बॉस पूछता है।”
“कुलकर्णी।” – इन्सपेक्टर बोला – “अभी सब हिलते हो या घसीट के ले के चले?”
टकला फौरन वापिस फोन के हवाले हुआ।
“कुलकर्णी नाम बोला, बाप।” – टकला फोन में बोला।
“कभी नहीं सुना। नवां है। मेरी बात करा।”
“साहेब!” – टकला फिर उच्च स्वर में बोला – “बॉस बात करना माँगता है।”
“मेरे को नहीं माँगता।” – इन्सपेक्टर बोला – “लगता है तुम तीनों को इधर ही डंडा परेड माँगता है।”
“अभी, साहेब, अभी!” – टकले ने फरियाद की और फिर फोन में बोला – “बाप, नहीं माँगता। नक्की बोला बात करने को।”
“थाना कौन-सा है इनका?” – पूछा गया।
“खार वैस्ट बोला।”
“घबराने का नहीं। पहुँचता है।”
टकले ने फोन जेब के हवाले किया, वो जीप के करीब पहुँचा।
“पीछू गाड़ी का क्या होगा, साहेब?” – वो इन्सपेक्टर से बोला।
“हमेरी सान्त्रो का भी बोलने का, बाप?” – इरफ़ान बोला।
“अपनी-अपनी गाड़ी बन्द करो और जीप में बैठो।” – इन्सपेक्टर बोला – “और तू?”
“मैं?” – हरीश कोली हड़बड़ाया।
“हाँ। नाम बोले तो?”
“हरीश! कोली!”
“दो नाम तेरे?”
“नहीं, बाप। एकीच नाम। हरीश कोली!”
“बैग को गाड़ी में रख के गाड़ी लॉक कर। काहे वास्ते बोझा उठाता है? आख़िर थाने पहुँचेगी गाड़ी।”
“वान्दा नहीं, बाप। मैं संभालता है न!”
“कोई कीमती सामान बैग में?”
“नहीं, बाप। पण गाड़ी में नहीं छोड़ने का।”
“पुलिस निकाल लेगी?”
वो ख़ामोश रहा, पनाह माँगती निगाह से उसने टकले को देखा।
इससे पहले टकला कुछ बोल पाता, इन्सपेक्टर बोल पड़ा – “अभी पीछे एक हवलदार रुकता है फोटो निकालने के वास्ते। फिर टो ट्रक बुलाकर दोनों गाड़ी थाने पहुँचाने के वास्ते। अभी टाइम खराब नहीं करने का। चलो!”
जीप से पहले से बाहर हवलदार पीछे रुका।
सब लोग जीप में सवार हुए। इन्सपेक्टर और सिपाही फ़्रंट में पहले से थे। जीप में पीछे आमने-सामने दो बैंच सीट थीं, ऐसी बाएं – इन्सपेक्टर के पीछे वाली – सीट पर विक्टर और इरफ़ान के बीच हसन टकला बैठा था। बैठते ही उसने ऐतराज़ उठाया था और माँग की थी कि उसे उसके दो साथियों के साथ बैठने दिया जाए लेकिन किसी ने उसकी नहीं सुनी थी। नतीजातन अब उसके दो साथी हवलदार के साथ दूसरे बैंच पर थे और ख़ुद वो इरफ़ान और विक्टर के बीच सैंडविच्ड था।
ख़ामोशी से रास्ता कटने लगा।
“ये तो” – एकाएक टकला बोला – “थाने का रास्ता नहीं है!”
“ड्राइवर शाॅर्ट कट लेता है।” – हवलदार इत्मीनान से बोला।
“पण . . .”
“ख़ामोश बैठने का।” – हवलदार डपट कर बोला।
बेचैनी का अनुभव करता टकला ख़ामोश हो गया।
अब उसकी तरह उसके जोड़ीदार भी बेचैन दिखाई देने लगे थे।
“कोहनी चुभती है, भीड़ू” – एकाएक इरफ़ान बोला – “ठीक से बैठ।”
“मैं पीठ खुजाता है।” – टकला बोला।
“कोहनी हटा, तेरा पीठ में खुजाता है।”
इरफ़ान सच में ही उसकी पीठ खुजाने लगा। हाथ ऊपर से नीचे की तरफ फिरा तो मोटी शर्ट के नीचे पीठ की तरफ उसे उसकी पतलून की बैल्ट में खुंसी गन के हैंडल का अहसास हुआ।
“हाथ हटा।” – टकला गुस्से से बोला – “मैं बोला तेरे को पीठ खुजाने को?”
“मैं बोला।” – इरफ़ान बोला – “सोशल सर्विस मेरे को पसन्द।”
इससे पहले टकला जवाब में कुछ कहता, उसके चेहरे पर सख़्त हैरानी के भाव आए – इतने कि उसका निचला जबड़ा लटक गया।
“क्या हुआ तेरे को?” – इरफ़ान बोला।
“वो कार” – टकला बोला – “सान्त्रो! जो तू चला रहा था, जिससे तूने वैन ठोकी थी . . . पीछे आ रही है।” – एकाएक वो चिल्लाया – “इन्सपेक्टर साहेब, ये क्या हो रहा है? सान्त्रो को तो आपका हवलदार चला . . .”
इरफ़ान ने बड़ी सफ़ाई से उसकी पतलून के पीछे बैल्ट में खुंसी गन खींच ली और उसकी पसलियों में चुभोता उसके कान में बोला – “ख़बरदार! हिला तो गोली!”
अब बोगस और कोली भी आतंकित दिखाई देने लगे।
“धोखा!” – बोगस के मुँह से निकला – “पुलिस नकली!”
जीप की रफ्तार कम होने लगी, फिर वो एक सुनसान जगह पर रुकी।
सान्त्रो वहाँ पहुँची।
उसमें हवलदार के अलावा तीन जने और थे। चारों बाहर निकले और सावधानी से जीप के आजू-बाजू खड़े हो गए।
इन्सपेक्टर विमल था, सिपाही साटम था, जीप में सवार हवलदार मतकरी था और सांत्रो वहाँ तक चलाकर लाया हवलदार आकरे था।
“शुरू करो।” – विमल ने आदेश दिया।
आठ जनों ने तीन जनों को कार से बाहर घसीटा और ख़ामोशी से उन्हें रूई की तरह धुनना शुरू कर दिया।
उस दौरान वैगन-आर भी वहाँ पहुँच गई।
बाकी सब कुछ ऐन वैसे ही हुआ जैसे पहले सोमवार रात को कोलाबा में दो जनों के साथ हो चुका था।
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