रात के बारह बज रहे थे। बंगले में पूरी तरह शांति छा चुकी थी। बाहर से पहरेदारों की यदा-कदा आवाज सुनाई दे जाती थी। बंगले में नाईट बल्ब रोशन थे।

देवली ने दरवाजा धकेल कर प्रेम के कमरे में प्रवेश किया और दरवाजा बंद करके सिटकनी लगा दी। फिर प्रेम के बेड के पास जा पहुँची।

"आ गयी तुम।" प्रेम की आवाज कानों में पड़ी।

"तुमने आने को कहा था तो क्यों न आती।" कहते हुए देवली ने उसके सिर के बालों में हाथ फेरा।

"आओ। मैं कब से तुम्हारे इंतजार में जल रहा था।"

"इतने व्याकुल हो मेरे लिए?" देवली हौले से हँसी।

"इससे भी ज्यादा।"

देवली ने अपने कपड़े उतारे और प्रेम के बगल में जा लेटी। प्रेम तो जैसे देवली को पास पाकर पागल सा हो उठा।

"मैं तुम्हें कुछ बताना चाहती हूँ प्रेम।"

"क्या?" प्रेम के हाथ उसके शरीर पर चल रहे थे।

"मैं तुम्हारे बच्चे की माँ बनने वाली हूँ।"

"क्या?" प्रेम के होंठों से हैरानी भरा स्वर निकला।

"क्या हुआ?"

"सच कह रही हो तुम?" प्रेम के स्वर में अविश्वास के भाव थे।

"हाँ! आज मुझे एहसास हुआ इस बात का कि...।"

"डॉक्टर से टेस्ट कराया?"

"नहीं। मुझे खुद ही इस बात का अहसास हो गया कि पेट में बच्चा आ ठहरा है। तुम्हें बच्चा चाहिए प्रेम?"

"हाँ!" प्रेम की आवाज में खुशी से भरा कंपन था, "मैं पिता बनना चाहता हूँ। परन्तु शनिका इसके लिए कभी तैयार नहीं हुई। वह हमेशा ही आजाद रहना चाहती थी, जबकि मैं चाहता था कि मेरा वारिस पैदा हो जाये।"

"मैं तुम्हें बच्चा दूँगी प्रेम।"

"ओह देवली! मैं कितना खुश हूँ आज। मैं तो...।"

"अपना वादा याद है न तुम्हें?"

"क्या?"

"शनिका की मौत के बाद तुम मुझे अपनी पत्नी बनाओगे और जो तुम्हारे पास है उसमें मुझे बराबर का भागीदार बनाओगे।"

"हाँ देवली। ऐसा ही होगा। मैं ऐसा ही करूँगा। अब तो तुम ही मेरी सब कुछ हो।" प्रेम ने देवली को भिंच लिया। देवली ने उसे चूमा।

"मैं एक बात तुम्हें और भी बताना चाहती हूँ प्रेम।"

"वह भी कहो।"

"आज शनिका के पोस्टर छपे हैं। चूड़ासिंह ने वह पोस्टर लगवाये हैं पूरे जैसलमेर में।"

"हाँ, शनिका ने बताया मुझे।"

"वह पोस्टर सच है।"

"क्या?" प्रेम चौंका।

"हाँ, वह सच हैं। शनिका दो महीने अमेरिका नहीं, मुम्बई लगाकर आयी है। वहाँ पर उसने अजय वालिया नाम के बिल्डर को अपने जाल में फँसाकर उससे शादी की फिर उसे बर्बाद कर दिया।"

"यह बात तुम्हें कैसे पता?" प्रेम के होंठों से निकला।

"यहाँ आने से पहले मैं शनिका पर नजर रख रही थी मुम्बई में।" देवली ने कहा।

प्रेम को इस वक़्त देवली ही अपनी सगी लग रही थी।

"शनिका नीच है।" प्रेम के दाँत भिंच गए, "लेकिन शनिका का अजय वालिया से क्या वास्ता?"

"दीपचन्द की खातिर यह सब किया शनिका ने। दीपचन्द उसका भाई बना हुआ है। दीपचन्द अपने बेटे राजन को बिल्डर बनाना चाहता था, परन्तु वालिया के होते हुए वह बढ़िया सौदे में हाथ नहीं डाल पा रहा था।"

"बहुत गलत किया शनिका ने।" प्रेम गुस्से से भर उठा, "जाने इससे मुझे छुटकारा कब मिलेगा।"

देवली खामोश रही।

"तुम्हारा आदमी कब मारेगा शनिका को?" प्रेम का स्वर एकाएक बेचैनी से भर गया।

"बहुत जल्द, पहला मौका मिलते ही।" देवली प्रेम के कान में फुसफुसाई।

"वह कर लेगा यह काम?"

"पक्का करेगा। घिसा हुआ है वह।"

"शनिका को मारने के बाद वह हमें ब्लैकमेल कर सकता है।" प्रेम ने आशंका जाहिर की।

"वह ऐसा कुछ नहीं करेगा। उसकी गारंटी मैं देती हूँ।"

"तुम किसी की गारंटी कैसे दे सकती हो?"

"क्योंकि उसकी भी कोई कमजोरी है जो मेरे हाथों में है।" देवली उसके गालों पर उँगली फेरती कह उठी।

"तुम नहीं जानती कि तुम्हारे आने से मुझे कितना सहारा मिला है।"

"मैं तुम्हें हमेशा इसी तरह प्यार दूँगी प्रेम।"

"ओह देवली! तुमने मेरी जिंदगी में रंग भर दिए। मैं हमेशा तुम्हारा अहसानमंद रहूँगा।"

"तुम्हें वारिस चाहिए। अगर लड़की हो गयी तो?"

"लड़का हो या लड़की, जो भी होगा वह मेरी दौलत का वारिस होगा। बच्चा तो बच्चा ही होता है देवली।"

"तुम कितने अच्छे हो। जानते हो शनिका पोस्टर लगने और ओमी के मरने से बहुत परेशान है।"

"उसकी बात मत करो। जाने क्यों उसे देखकर मुझे अपने से घृणा होने लगती है।"

"उसे अब ज्यादा देर तुम्हें नहीं देखना पड़ेगा।" देवली ने शांत स्वर में कहा, "वह मर जाएगी।"

"शनिका ने आज मुझसे कहा कि कहीं तुम्हारे साथ मेरा सम्बन्ध तो नहीं बन गया।" प्रेम बोला।

"यह बात शनिका ने मुझसे भी कही थी कि तुमने कोई गड़बड़ तो नहीं कि मेरे साथ।"

"फिर?"

"मैंने कहा दिया कि प्रेम साहब तो बहुत अच्छे इंसान हैं।"

"मैं अच्छा नहीं था। लेकिन तुमने मुझे अच्छा बना दिया देवली। तुम मेरे बच्चे को जन्म दोगी। कितना अच्छा लगेगा मुझे, जब मेरे बच्चे की आवाजें इस बंगले में गूँजेंगी। वह रोयेगा, हँसेगा, सबको तंग करेगा।"

"और तुम्हें पापा, पापा कहेगा।"

"ओह देवली!"

"प्रेम!"

■■■

शनिका अगले दिन सुबह आठ बजे उठी। रात ज्यादा पी लेने की वजह से सिर भारी हो रहा था। आँखें कुछ सूजी-सूजी सी थीं। उसने देवली को बुलाने के लिए बेल का स्विच दबा दिया। फिर वह उठी और बाथरूम में जाकर हाथ-मुँह धोया और शीशे में अपना चेहरा देखा। कई पलों तक चेहरा देखती रही फिर होंठों पर मुस्कान बिखर गई और बड़बड़ा उठी-

"ऊपर वाले ने मुझे फुर्सत में बनाया है। तभी मैं इतनी खूबसूरत हूँ।"

फिर बाथरूम से बाहर निकली और मोबाइल फोन चालू किया। रात उसने फोन बंद कर दिया था कि नींद न खराब हो। वह खिड़की पर पहुँची और पर्दा हटाकर बाहर देखने लगी। सूर्य की धूप आँखों में चुभी तो खिड़की से पीछे हट गई।

कुर्सी पर आ बैठी। चेहरे पर सोचें मंडराती स्पष्ट नजर आने लगी थीं।

वालिया ने ओमी को मार दिया था। चूड़ासिंह ने उसकी और वालिया की शादी के पोस्टर जैसलमेर में लगवा दिए थे।

दोनों बातों ने ही उसका मन खराब कर दिया था। चूड़ासिंह से तो वह निपट ही लेगी। परन्तु वालिया उसके लिए मुसीबत खड़ी कर सकता था। रात रामसिंह से कहा तो था कि वह वालिया को खत्म कर दे। परन्तु रामसिंह ओमी की तरह इन मामलों में ज्यादा एक्सपर्ट नहीं था। लेकिन वह हिम्मती था।

शनिका ने फोन उठाया और चूड़ासिंह के नम्बर मिलाए। बात हो गयी।

"कैसे हो चूड़ासिंह?" शनिका बोली।

"ओह रानी साहिबा! बहुत दिनों बाद आपकी आवाज सुनी।" चूड़ासिंह की आवाज कानों में पड़ी।

"वह पोस्टर लगवा कर तुमने अच्छा नहीं किया।"

"वह झूठे हैं तो कह दीजिए। अभी उतरवा देता हूँ।"

"मैं कहूँ झूठे हैं तो तुम मान लोगे?"

"कभी नहीं। मैंने अजय वालिया को समझा है। वह झूठ नहीं बोल रहा है।"

"वह झूठा है।"

"मैं नहीं मानता।"

"तुम्हें मेरे साथ ऐसा नहीं करना चाहिए था।" शनिका का स्वर शांत था।

"मैंने कुछ भी गलत नहीं किया। सच बात को ही सामने लाने की चेष्टा की है।" चूड़ासिंह की आवाज कानों में पड़ी, "मैंने जिन तस्वीरों के पोस्टर लगवायें हैं, उनके नेगेटिव्स मेरे पास हैं। इस बारे में कोई मुझे चुनौती नहीं दे सकता कि मैं झूठा हूँ।"

"वह सारे पोस्टर उतरवा दो चूड़ासिंह।"

"यह नहीं हो सकता।"

"तुम्हें अपने बच्चे प्यारे नहीं है, जीत प्यारी है।" शनिका का स्वर कठोर हो गया।

"बच्चे? कहाँ है?" चूड़ासिंह की आवाज तेज हो गयी।

"अभी तो तुम्हारे घर पर होंगे। अगर तुमने मेरी बात नहीं मानी तो वे जिंदा नहीं रहेंगे।"

"तुम... तुम मुझे धमकी दे रही हो।"

"स्पष्ट तौर पर समझा रही हूँ कि जो पोस्टर कल तुमने लगावाए थे, वे आज उतर जाने चाहिए। वरना अगले कुछ ही घण्टों में तुम्हारे घर पर कुछ लोग हमला बोलेंगे और तुम्हारे पूरे परिवार को मार दिया जाएगा। यह मत सोचना कि तुम बच्चों को वहाँ से निकालकर कहीं सुरक्षित रख लोगे। मेरे आदमी तुम्हारे घर पर नजर रख रख हैं।"

"यह तुम ठीक नहीं कर रही।" चूड़ासिंह की आवाज कमजोर हो गयी थी।

जवाब में शनिका हँसी और फोन बंद कर दिया। तभी देवली चाय के साथ भीतर आ पहुँची।

"गुड मॉर्निंग रानी साहिबा।"

"लाओ चाय दो। बहुत जरूरत महसूस हो रही है।"

शनिका ने चाय का प्याला थामकर घूँट भरा।

"कुछ देर पहले भँवरा आया था। आपको पूछ रहा था।" देवली बोली।

"अब पूछे तो कहना दस बजे यहाँ से चलेंगे।"

"जी।"

■■■

शनिका तब तैयार हो चुकी थी जब उसका फोन बजा।

"हेलो!"

"मैं हूँ।" जगत पाल की आवाज आई, "पहचान लिया होगा।"

"तुम!" शनिका ने गहरी साँस ली, "क्या चाहते हो?"

"पाँच करोड़।"

"इस बात का क्या भरोसा कि बाद में तुम अपना मुँह बन्द रखोगे। दोबारा कोई माँग नहीं रखोगे।"

"पैसा लेने के बाद मैं भूल जाऊँगा कि आपने और प्रेम साहब ने वामा को मारा था।"

"यह बात तुम सिर्फ जानते हो या कोई सबूत भी है?"

"सबूत है। मेरे पास तब की तस्वीर है, जब आप दोनों वामा को मार रहे थे।" जगत पाल की आवाज शनिका के कानों में पड़ रही थी।

"यकीन नहीं आता कि तब किसी ने तस्वीर ली होगी। उस वक़्त दूर-दूर तक कोई नहीं था।"

"तस्वीर और नेगेटिव्स आपको दे दूँगा।"

"इस बात को पाँच-छः साल बीत चुके हैं। तुमने इन सालों में कोई माँग क्यों नहीं रखी?"

"पैसे को जरूरत नहीं पड़ी।"

"अब पड़ गयी?"

"हाँ!" उधर से जगत पाल ने तीखे स्वर में कहा, "अगर तुम्हें सौदा नहीं करना तो तस्वीर पुलिस को दे देता हूँ।"

"फालतू बात मत करो। मैं तुम्हें पाँच करोड़ देने को तैयार हूँ।"

"आज ही।"

"हाँ...।" शनिका का चेहरा सख्त पड़ गया था।

"ठीक है। तुम सुनो, जब तुम बंगले से निकलोगी तो पाँच करोड़ साथ ही रख लेना।"

"मैं ऐसा ही करूँगी।"

"तुम चुनाव प्रचार करती रहो। मैं बीच में कभी भी तुम्हें फोन करके मिल लूँगा।"

"ठीक है, तुम्हारा नाम क्या है?"

"बेकार के सवाल मत करो। यह याद रखो कि मेरे साथ कोई चालाकी की तो मैं तुम्हें वामा की हत्या के मामले में पुलिस को बता दूँगा। तुम किसी भी सूरत में बच न सकोगी।"

"मैं यह मामला खत्म करना चाहती हूँ। कोई चालाकी नहीं करूँगी।"

"वक्त आने पर देखूँगा कि तुम कितनी समझदार हो। घर में रखा है पैसा?"

"रखा है और साथ लेकर ही निकलूँगी। इस बारे में निश्चिन्त रहो।"

उधर से जगत पाल ने फोन बंद कर दिया था। शनिका ने भी फोन बंद कर दिया। पास खड़ी देवली को देखा तो कह उठी-

"तू यहाँ खड़ी क्या कर रही है? नाश्ता लगा, जाना है मुझे।"

देवली तुरन्त बाहर निकल गयी। शनिका कुछ देर बैठी सोचती रही फिर कमरे का दरवाजा भीतर से बन्द किया और वार्डरोब की तरफ बढ़ गयी। वार्डरोब खोला और भीतर हाथ डालकर कुछ किया तो वह पूरा का पूरा वार्डरोब बे-आवाज सा एक तरफ सरकने लगा।

आधे मिनट में ही पूरा सरक गया।

पीछे दीवार में लोहे का छोटा सा दरवाजा दिखा। शनिका ने दरवाजा खोला और झुककर भीतर प्रवेश करते हुए वहाँ की लाइट जलाई। वह स्टोर जैसा छोटा कमरा था। कोई खिड़की नहीं थी। दीवारों के साथ लोहे के रैक लगे थे जिस पर सजा कर नोटों की गड्डियाँ रखी थीं। कुछ नीचे भी गिरी पड़ी थीं। हर तरफ नोट ही नोट नजर आ रहे थे। एक तरफ सोने के बड़े-बड़े बिस्कुट और हीरे-जेवरातों का सामान पड़ा था। बेशुमार दौलत थी वहाँ।

शनिका ने एक तरफ रखा मीडियम साइज का सूटकेस उठाकर खोला, नीचे रखा और हजार-हजार के नोटों की गड्डियाँ गिनकर उनमें रखने लगी। दस मिनट लगे उसे 1000 के नोटों की पाँच सौ गड्डियाँ सूटकेस में आ गयी। सूटकेस बन्द किया और उसे उठाकर बाहर कमरे में रख दिया। फिर लाइट ऑफ करके दरवाजा बंद किया और पुनः वार्डरोब के भीतर हाथ डाल कर किसी चीज को दबाया तो वार्डरोब सरकता हुआ धीरे-धीरे अपनी जगह पर वापस आने लगा।

■■■

अजय वालिया कल शाम के बाद से होटल के कमरे से बाहर नहीं निकला था। वह जानता था कि उसका बाहर निकलना ठीक नहीं है। शनिका के साथ उसकी तस्वीरों के पोस्टर लग गए थे। ऐसे में उसे कोई भी पहचान सकता था।

सुबह नाश्ता करने के बाद करीब ग्यारह बजे वह होटल के कमरे से निकला और खुले में आ गया। होटल से बाहर वह आगे बढ़ता चला गया। गालों पर तीन-चार दिन की शेव बढ़ी हुई थी, जो कि उसके लिए अच्छी बात थी, एकाएक उसे पहचान पाना सम्भव नहीं था।

वालिया के पास करने को कोई काम नहीं था। वह जानता था कि शनिका चैन से नहीं बैठेगी। ओमी की मौत के बारे में जानकर वह जल्द से जल्द उसे खत्म कर देना चाहेगी। कोई बड़ी बात नहीं कि उसकी तलाश में शनिका के आदमी दौड़े फिर रहे हों।

जल्दी ही उसे यकीन हो गया कि उसका पीछा किया जा रहा है।

पीछा करने वाला पैंतीस बरस का मूँछों वाला आदमी था। उसकी चाल-ढाल में दादा के भाव थे। वालिया को नहीं पता था कि वह कहाँ से उसके पीछे लगा है। वालिया को वह खतरनाक लगा। उसने शुक्र माना इस बात का कि इस वक्त वह भीड़ भरे बाजार में था। ऐसी जगह पर शायद उसपर हमला न हो।

वालिया ने जेब में पड़ी रिवॉल्वर टटोली। उसे कल का वक्त आ गया, जब ओमी को मारा था। इस सोच के साथ ही उसकी टाँगों में कंपन उभरा। आज फिर वैसा ही कुछ होने वाला है। कल तो किस्मत से वह बच गया था, आज कहीं पासा पलट न जाये। यह खुन-खराबा वालिया के लिए नया था। ऐसा वक्त उसने कभी नहीं बिताया था। परन्तु शनिका की वजह से उसके सामने हालात ऐसे थे कि वह पीछे नहीं हट सकता था। उसके पास आज अपनी जिंदगी के अलावा कुछ भी नहीं बचा था, जिसकी उसे चिंता हो, और जिंदगी से ज्यादा उसे चिंता थी शनिका को बर्बाद करने की, उसे जान से मार देने की।

बाजार में आगे बढ़ते-बढ़ते उसने एक निगाह पीछे मारी। पंद्रह कदम के फासले पर वह आदमी उसके पीछे था। इसी पल वालिया का फोन बजने लगा।

"हेलो!" वालिया ने बात की।

"कैसे हो अजय?" देवली की आवाज कानों में पड़ी।

"इस वक्त मुसीबत में हूँ।" वालिया बात करते-करते ठिठक गया।

पीछे आने वाला आदमी भी ठिठक कर इधर-उधर देखने लगा। वह अपने को व्यस्त दर्शा रहा था।

"कैसी मुसीबत?"

"मेरे पीछे कोई लगा हुआ है।"

"उसका हुलिया बताओ?"

वालिया ने उसका हुलिया बताया।

"वह रामसिंह है।" देवली का व्याकुल स्वर कानों में पड़ा, "शनिका ने उससे तुम्हें मारने को कहा है। रिवॉल्वर है तुम्हारे पास?"

"रिवॉल्वर तो है, परन्तु हिम्मत जवाब दे जाती है।" वालिया ने गहरी साँस ली।

"बहादुर बनो अजय। तुमने उसे नहीं मारा तो वह तुम्हें मार देगा। कहाँ हो इस वक्त?"

"बाजार में। अभी वह मुझ पर हमला नहीं कर रहा।"

"भीड़ में वह तुम्हें कुछ भी नहीं करेगा। जैसलमेर में उसे सब जानते हैं। वह फँसना नहीं चाहेगा।"

"आखिर मैं कब तक इस बाजार में रहूँगा। निकलना तो होगा ही मुझे यहाँ से।"

"वह अकेला है?"

"शायद!"

"हिम्मत से काम लो अजय। यह तुम्हारी जिंदगी और मौत का सवाल है। अगर तुम जरा भी चूके तो रामसिंह तुम्हें मार देगा और मैं नहीं चाहती कि तुम्हें कुछ हो। ठान लो कि तुमने रामसिंह को मार देना है।"

"मैं इतना घबराया हुआ नहीं हूँ कि तुम मुझे हौसला दो।" वालिया बोला।

"तुमने रामसिंह को मार देना है।" देवली की आवाज में तेजी आ गयी थी।

"देखूँगा।" वालिया पुनः आगे बढ़ने लगा, "तुम वहाँ पर क्या कर रही हो?"

"एक-दो दिन में तुम्हें पता चल जाएगा।"

"एक-दो दिन में क्या होगा?"

"शनिका शायद जिंदा न बचे।"

"उसे खत्म करना तुम्हारे लिए बहुत आसान है। तुम उसे जहर दे सकती हो खाने-पीने में।"

"तुम्हारा मतलब कि उसे आसान मौत दे दूँ।" वालिया के कानों में पड़ने वाले स्वर में खतरनाक भाव थे।

उसके होंठ भिंच गए।

"जहर से वह आसानी से मर जाएगी, जबकि मैं चाहती हूँ कि मरते हुए उसे कुछ तो तकलीफ हो। वैसे भी जहर दिया तो शक मुझपर ही आ सकता है। मैं किसी मामले से फँसना नहीं चाहती। वह यहाँ से जितनी दूर मरे उतना ही अच्छा है। चुनाव के इस वक्त में वह मरेगी तो ज्यादा ठीक रहेगा। हर कोई यही समझेगा कि वह चुनावी रंजिश में मारी गयी है।" देवली का स्वर कठोर था।

"अब बातें बन्द करो। मुझे रामसिंह को भी देखना है।"

"तुमने शनिका को अच्छा उलझा रखा है कि अभी तक वह मुझ पर किसी भी तरह का शक नहीं कर सकी।"

वालिया ने फोन बंद कर दिया।

■■■

रामसिंह, अजय वालिया के पीछे था। वह सुबह से ही होटलों को चेक करता फिर रहा था कि अजय वालिया किसी होटल में तो नहीं ठहरा। उसे इस बात का पूरा भरोसा था कि वालिया किसी होटल में ही ठहरा होगा और इसी भागदौड़ के बीच जब रामसिंह अपनी कार उस होटल के भीतर ले गया तो तभी वालिया को पैदल ही बाहर आते देखा।

एक ही नजर में रामसिंह, वालिया को पहचान गया था। चूंकि वालिया पैदल ही जा रहा था इसलिए रामसिंह ने अपनी कार को वहीं छोड़ा और पैदल ही उसके पीछे चल पड़ा। रामसिंह किसी ऐसे मौके की तलाश में था कि जहाँ वह वालिया को गोली मार सके। परन्तु अभी तक वालिया भीड़-भरी जगहों पर ही रहा था। रामसिंह को अधिकतर लोग पहचानते थे कि वह रानी साहिबा का आदमी है, इसलिए वह वालिया को इस तरह शूट करना चाहता था कि कोई उसे पहचान न सके। रामसिंह को इस बात का बहुत गुस्सा था कि कल इसने ओमी को मार दिया। जबकि ओमी उससे ज्यादा बेहतर था इन कामों के लिए।

रामसिंह बाजार में इस वक्त वालिया के पीछे था वालिया को ठिठक कर उसने फोन पर बातें करते देखा। इस दौरान कई बार उसे लगा कि वालिया को पीछा किये जाने का शक हो गया है जैसे।

रामसिंह सतर्क था क्योंकि अब आगे बाजार खत्म होने वाला था। सूर्य सिर पर चढ़ता जा रहा था। जैसलमेर की रेतीली धरती गर्म होती जा रही थी। बाजार के आगे मकानों की कतार शुरू हो रही थी और सड़क सीधी जा रही थी। रामसिंह ने वालिया को उसी सड़क पर आगे जाते देखा।

सड़क पर इक्का-दुक्का लोग ही आ-जा रहे थे। एक बैलगाड़ी भूसे भरे जा रही थी। ऐसी जगह पर पीछा जारी रखने का मतलब था कि वालिया को पता चल जाना कि उसका पीछा हो रहा है। यह विचार रामसिंह के मन में आ रहा था कि उसका फोन बजा। रामसिंह ने तुरंत फोन निकाल कर बात की।

"हेलो!"

"क्या कर रहे हो रामसिंह? अजय वालिया को मारा या नहीं?" शनिका की आवाज कानों में पड़ी।

"मैंने उसे ढूँढ लिया है। उसके पीछे हूँ मैं।" रामसिंह ने कहा।

"इसे खत्म करो और मुझे बताओ कि तुमने उसे मार दिया है।"

"जी रानी साहिबा।"

फोन बन्द हो गया। रामसिंह ने फोन जेब में डाल लिया। भूसे वाली बैलगाड़ी पास से निकल गयी थी। आगे वालिया जा रहा था। पंद्रह कदम पीछे रामसिंह था।

इस वक्त सड़क पर दूर तक कोई नहीं जा रहा था। रामसिंह को यह मौका अच्छा लगा कि गोली मार कर भागा जा सकता है। उसे कोई देख भी नहीं सकेगा। अगले ही पल रामसिंह हड़बड़ा सा उठा।

अजय वालिया एकाएक सड़क पर भाग खड़ा हुआ था। इसका मतलब वालिया को अपने पीछे होने के बारे में पता था। रामसिंह के दाँत भिंच गए। वह भी दौड़ा।

वालिया को दौड़ते-दौड़ते उसने एक गली में प्रवेश करते देखा। वालिया निगाहों से ओझल हो गया।

रामसिंह दौड़ता हुआ गली के मोड़ पर आकर ठिठका। वहाँ उसे वालिया न दिखा। भीतर जाती गली में दायें-बायें को गली निकली हुई थी।

रामसिंह भिंचे दाँतों धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा। रिवॉल्वर निकालकर हाथ में ले ली। वहाँ रहने वालों में से कोई भी नजर नहीं आ रहा था। रामसिंह सतर्क था। वह नहीं चाहता था कि वालिया बचकर निकल जाए। तभी पास के घर का दरवाजा खोले जाने का खड़का हुआ। रामसिंह हड़बड़ाया। हाथ में थमी रिवॉल्वर को उसने फौरन जेब में डाला।

उसी पल दरवाजा खुल गया। रामसिंह की निगाह उस तरफ उठी तो हड़बड़ा सा उठा। क्योंकि दरवाजा खोलकर बाहर निकलने वाला व्यक्ति सब इंस्पेक्टर भीमराव था। इस वक्त वह पायजामा पहने था। दोनों एक-दूसरे को जानते थे।

"काम था इधर, अब वापस जा रहा हूँ।" रामसिंह ने बताया।

"रानी साहिबा का चुनाव प्रचार कैसा चल रहा है?" भीमराव ने पूछा।

"ठीक है।" रामसिंह पलटता हुआ बोला। इसके होते हुए वह कुछ नहीं कर सकता था। अभी तो वालिया को भूलना ही होगा।

"भीतर आ जा। तेरे को चाय पिलाऊँ।"

"फिर आऊँगा। अभी जल्दी में हूँ।" कहकर रामसिंह सड़क की तरफ बढ़ गया। मन ही मन गुस्से में था कि वालिया हाथ से निकल गया। रानी साहिबा गुस्सा होंगी कि वह काम पूरा नहीं कर सका। मन ही मन उसने सोचा कि उसी होटल में जाकर वालिया का वहाँ पहुँचने का इंतजार करेगा। यही एक रास्ता है उसे फिर से पाने का।

धूप तेज होती जा रही थी। जमीन की रेत भी अब तपती जा रही थी। रामसिंह ने वापस जाने के लिए बाजार का रास्ता न चुनकर सुनसान भरा छोटा रास्ता चुना।

यहाँ इक्का-दुक्का ही मकान थे। रामसिंह आगे बढ़ता जा रहा था। बीच में थोड़ा सा सुनसान रेतीला रास्ता आया। धूप चुभ रही थी। पसीने की लकीरें चेहरे पर बह रही थी। रामसिंह ने जूते में रेत घुसी महसूस की कि एकाएक ठिठका और झुक कर जूते की तरफ हाथ बढ़ाये तो इसी पल उसे पीछे किसी के आने का अहसास हुआ। अगले ही पल रामसिंह बुरी तरह चौंका।

पीछे वालिया था। पाँच कदम दूर। वह जेब से रिवॉल्वर निकाल रहा था। रामसिंह को और तो कुछ सुझा नहीं, वह झुके-झुके ही पलटा और वालिया पर छलाँग लगा दी।

वालिया रिवॉल्वर निकाल चुका था परन्तु उसे इस्तेमाल का मौका नहीं मिला। रामसिंह उससे आ टकराया था। वालिया के पाँव उखड़ गए। वह पीछे को जा गिरा। रिवॉल्वर उसके हाथ से छूट गयी। इससे पहले कि वह सम्भल पाता, रामसिंह उसके ऊपर आ गिरा। वालिया के होंठों से चीख निकल गयी। 

रामसिंह ने उसके सिर के बाल पकड़े और उसके चेहरे पर घूँसा मारा।

वालिया पुनः चीखा। रेत के कण मुँह में चले गए।

"अच्छा हुआ जो तू मेरे पीछे आ गया।" रामसिंह ने दरिंदगी भरे स्वर में कहा।

"मैं तुझे मार दूँगा।" वालिया के चीखने में भय के भाव मौजूद थे।

रामसिंह ने अभी भी उसके सिर के बाल पकड़े हुए थे और दूसरे हाथ से रिवॉल्वर निकाली।

मौत के भय में फँसे वालिया ने उसकी रिवॉल्वर वाली बाँह पर झपट्टा मारा और उसे जमीन से लगा दिया। साथ ही पूरी ताकत लगाकर, खुद भी करवट ले ली। उसके ऊपर बैठे रामसिंह ने अपना हाथ आजाद कराना चाहा। परन्तु वालिया ने तो दोनों हाथ लगाकर उसकी रिवॉल्वर वाली कलाई को नीचे दबा रखा था कि कहीं रामसिंह उसे गोलों न मार दे। मौत के डर ने उसके भीतर ताकत भर दी थी।

रामसिंह ने दूसरे हाथ का घूँसा उसके सिर पर मारा। दो-तीन-चार बार मारा। परन्तु वालिया उसकी रिवॉल्वर वाली कलाई छोड़ने को तैयार नहीं था। वह मरना नहीं चाहता था। तभी वालिया ने रामसिंह की कलाई पर पूरी ताकत से काट खाया। रामसिंह गला फाड़कर चीखा। रिवॉल्वर उसके हाथ से छिटककर दूर जा गिरा। वालिया ने उसकी कलाई छोड़ी और अपने ऊपर चढ़े रामसिंह को पूरी ताकत से धक्का दिया। रामसिंह तीन कदम दूर जा गिरा। वालिया फुर्ती से उछलकर खड़ा हो गया। वह मुँह खोले हाँफ रहा था।

रामसिंह भी खड़ा हो चुका था। कलाई पर जहाँ वालिया ने काटा था वहाँ से खून बह रहा था। पीड़ा के निशान रामसिंह के चेहरे पर थे। धूप और गर्मी में दोनों का बुरा हाल था।

तभी वालिया ने कुछ दूर गिरी अपनी रिवॉल्वर देखी। वह रिवॉल्वर पाने के लिए दौड़ा।

तभी रामसिंह ने गुर्राते हुए उस पर छलाँग लगा दी। दोनों टकराये और नीचे जा गिरे। वालिया ने देखा रिवॉल्वर उससे जरा सी दूरी पर है। नीचे पड़े ही पड़े वह रिवॉल्वर पर झपटा तो रामसिंह ने उसकी टाँग पकड़ कर वापस खींचा। दोनों के शरीर-कपड़े रेत में भर चुके थे। लेकिन उन्हें इस वक़्त अपनी जान की परवाह थी। यही वह पल थे कि जी-तोड़ कोशिश करके उनमें से कोई एक अपनी जान बचा सकता था।

वालिया ने अगले ही पल जूते की ठोकर उसे मारी जो कि माथे पर जा लगी। रामसिंह चीखा।

वालिया ने लेटे ही लेटे छलाँग मारी और रिवॉल्वर के पास जा पहुँचा। रिवॉल्वर थामी, करवट ली कि तभी रामसिंह को अपने ऊपर छलाँग लगाते देखा। वालिया ने रिवॉल्वर सीधी की और ट्रिगर दबा दिया। गोली चलने की तेज आवाज उभरी और उसने रामसिंह की छाती में खून का धब्बा प्रकट होते देखा। रामसिंह उसके पाँवों के पास आ गिरा।

वालिया गहरी-गहरी साँसें लेने लगा। अभी तक वह मौत की दहशत में डूबा था। कई पलों तक वह अपने पाँवों के पास पड़े रामसिंह को देखता रहा। फिर आसपास देखा। यह सुनसान जगह थी, दूसरा कोई न दिखा।

वालिया उठा, साँसें पहले की अपेक्षा कुछ ठीक हुई थीं। उसने नीचे पड़े रामसिंह को सीधा किया। वह मर चुका था। गोली दिल के पास लगी थी। उसकी मौत शायद गोली लगते ही हो गयी थी।

वालिया ने रिवॉल्वर जेब में डाली और आगे बढ़ गया। उसकी टाँगें स्पष्ट रूप से काँप रही थीं।

उसने आज भी मौत को हरा दिया था।

■■■

शनिका खुली जीप में खड़ी मुस्कुराते हुए हाथ हिला रही थी। उसका छोटा सा काफिला भीड़ भरे बाजार से गुजर रहा था। दोनों तरफ लोग खड़े थे। दुकानदार भी बाहर आ गए थे। साथ में पैदल चल रहे कार्यकर्ता, शनिका को जीताने के लिए उसे वोट देने को कह रहे थे। हर तरफ गर्म माहौल था। धूप और गर्मी की वजह से बुरा हाल हो रहा था। शनिका का खूबसूरत चेहरा धूप में तप कर सिंदूरी हो रहा था।

भँवरा शनिका के पास ही नीचे बैठा था। साथ में दो लोग और भी थे। तभी एक आदमी दौड़ता हुआ पास आया और भँवरा के कान में कुछ कहा। भँवरा फौरन खड़े होकर शनिका के कान में बोला-

"चूड़ासिंह के आदमी कल लगाए पोस्टर उतार रहे हैं रानी साहिबा।"

"डर गया हरामी।" लोगों को देखकर मुस्कुराते हुए शनिका हाथ हिलाते धीमे स्वर में बोली।

"आपने उसे कुछ कहा था?"

"समझाया था। अच्छा हुआ कि समझ गया।" शनिका तीखे स्वर में बोली, "रामसिंह को फोन लगाकर पूछ कि क्या रहा है?"

भँवरा नीचे बैठा और फोन निकालकर रामसिंह का नम्बर मिलाने लगा। दो-तीन बार मिलाया। हर बाल बेल हुई परन्तु बात नहीं हुई।

"रानी साहिबा!" भँवरा कह उठा, "उधर बेल हो रही है पर रामसिंह बात नहीं कर रहा।"

शनिका के माथे पर बल पड़े। परन्तु हाथ हिलाते, उसके चेहरे पर मुस्कान छाई रही।

"मर तो नहीं गया हरामी। कल ओमी भी ऐसे ही मरा, फिर फोन लगा।"

भँवरा ने फिर कोशिश की। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।

"बात नहीं हो पा रही रानी साहिबा।"

कुछ देर में बाजार खत्म हो गया।

"पास के किसी पड़ाव पर चलो। मैं आराम करूँगी।" शनिका ने गंभीर स्वर में कहा।

भँवरा ने यही निर्देश दिए। शनिका जीप में सीट पर बैठ गयी।

"रामसिंह को कुछ हो न गया हो।" भँवरा बोला।

"मैंने तो उसे कहा था कि तेरे को साथ ले जाये। लेकिन माना कर दिया।" शनिका होंठ भींच कर रह गयी, "किसी को तो साथ ले लेता।"

भँवरा चुप रहा।

"हौरानी है कि वालिया जैसे साधारण आदमी ने कल ओमी को मार दिया और आज...।"

"अभी पक्का तो नहीं पता रामसिंह के बारे में।"

शनिका होंठ भींचकर रह गयी। काफिला पड़ाव पर जा पहुँचा था। शनिका तम्बू की छाया में जा बैठी। चेहरे पर पसीना था और वह कुछ बेचैन लग रही थी। तभी उसका फोन बजने लगे। शनिका ने घड़ी में वक्त देखा। शाम के चार बज रहे थे।

"हेलो!" शनिका ने बात की।

"नमस्कार रानी साहिबा! मैं पाँच करोड़ वाला। पहचान लिया क्या?" जगत पाल की आवाज कानों में पड़ी।

"कहो!" शनिका कि होंठ भिंच गए।

"मैंने अभी आपको बाजार में देखा। सच में खूबसूरती कहीं है तो वह आप में ही है।"

"काम की बात करो।"

"पैलेस होटल के बाहर मिलो। पाँच करोड़ के साथ। समझ गयी?" जगत पाल का स्वर कठोर हो गया था।

"पंद्रह मिनट में पहुँच जाऊँगी।"

"अकेली आना।"

"अकेली ही आऊँगी।"

"कोई चालाकी की तो तकलीफ तुम्हें ज्यादा होगी रानी साहिबा। मुझे तो सिर्फ पैसे न मिलने की चिंता होगी।"

"कोई चालाकी नहीं होगी। तुम तस्वीर-नेगेटिव्स लेकर आना।"

"चिंता मत कर। वे मेरे पास ही हैं। जल्दी पहुँच। अकेली।"

कहकर उधर से जगत पाल ने फोन बंद कर दिया था।

शनिका ने फोन बंद किया। चेहरे पर गंभीरता थी। उसने भँवरा को बुलाकर कहा-

"वह सूटकेस कहाँ है जो मैंने सुबह तेरे को रखने के लिए दिया था?"

"कार में है।"

"मुझे अभी पैलेस के बाहर किसी से मिलना है। वह सूटकेस उसे देना है।"

"जी...।"

"वहाँ मैं जिससे मिलूँ, उसे बाद में पकड़ लेना। समझ गए तुम?"

"जी हाँ। आप जब मुलाकात कर के चली जाएँगी तब मैं उसे पकडूँगा।"

"ठीक कहा। अपने साथ पाँच-सात आदमी भी ले लेना। तूने पूछा नहीं कि उसका करना क्या है।"

"हुक्म?"

"खत्म कर देना उसे। सूटकेस वापस ले आना।"

"बिल्कुल समझ गया।" भँवरा ने सिर हिलाया।

"इस काम के लिए मैं तुम्हें इनाम में दस लाख दूँगी।"

"सब आपका ही दिया हुआ है।"

"तू आदमी लेकर पहले वहाँ पहुँच। उसे पता न चले कि मैंने कोई चाल चली है। छिपकर वहाँ नजर रखना।"

भँवरा ने सिर हिलाया।

"रामसिंह से बात हुई?" 

"नहीं। फोन तो कई बार मिलाया परन्तु उधर बेल तो हो रही है पर कॉल कोई रिसीव नहीं कर रहा।"

"ठीक है। तुम्हें जी कहा है वह कर, जा।"

भँवरा वहाँ से चला गया।

■■■

शनिका कार पर पैलेस होटल के बाहर पहुँची और कार का इंजन बन्द करके बाहर निकली। गर्मी के मौसम के चार बज रहे थे। सिर पर सूर्य और नीचे रेत तप रही थी। गर्म हवा जैसे चेहरे को सुलगा रही थी। धूप आँखों को आधी से ज्यादा बन्द रहने को मजबूर कर रही थी।

शनिका की निगाह हर तरफ गयी। होटल के मुख्य गेट पर चहल-पहल थी। दो गाड़ियाँ अभी-अभी भीतर गयी थीं। एक बाहर निकली थी। दो हथियारबंद पहरेदार वहाँ मौजूद थे। परन्तु शनिका की निगाह तो उसे तलाश कर रही थी जिसने फोन करके उसे बुलाया था। 

पाँच मिनट बीत गए परन्तु किसी को उसने अपने आस-पास नहीं देखा। इस दौरन उसने भँवरे को एक जगह पर ओट में खड़े देखा। वक्त बिता और पाँच मिनट और बीत गए। फिर उसका फोन बजा।

"हेलो!" शनिका ने बात की।

"जानता तो पहले से ही था, परन्तु अब देख लिया कि तू बहुत हरामी है।" जगत पाल की तीखी आवाज कानों में पड़ी, "तेरी खूबसूरती की जरा सी तारीफ क्या कर दी, तूने तो मेरा गला काटने का इंतजाम कर लिया। अपने आदमी पहले ही भेज दिए।"

शनिका के होंठ भिंच गए।

"अब मैं पुलिस को देने जा रहा हूँ वे तस्वीर और नेगेटिव्स। तेरी बाकी की जिंदगी जेल में...।"

"मेरे पास पाँच करोड़ है सूटकेस में।"

"और आस-पास आदमी भी छिपे हैं, मेरी जान लेने के लिए।" जगत पाल का खा जाने वाला स्वर कानों में पड़ा।

"वे मैंने अपनी सुरक्षा के लिए भेजे थे।"

"साली फालतू की बात करती है।"

"वह आदमी तेरे को कुछ नहीं कहेंगे। तू आकर पाँच करोड़...।"

"पाँच करोड़ का लालच बार-बार मुझे मत दे।" जगत पाल जैसे उसके कानों में गुर्राया, "मैंने तेरे को अकेले आने को कहा था।"

"ठीक है, बोल कहाँ पहुँचूँ अकेले?"

"आज नहीं। अब तो कल मिलूँगा तेरे से। लास्ट वार्निंग, कल तूने कोई गड़बड़ की तो समझ तू वामा की हत्या के जुर्म में जेल गयी।"

"ऐसा नहीं होगा। मैं अकेले ही...।"

उधर से जगत पाल ने फोन बंद कर दिया था।

■■■

"देवली!" प्रेम ने मुस्कुराकर प्यार भरे स्वर में कहा, "जब से पता चला है कि तू मेरे बच्चे की माँ बनने वाली है तब से मन बेचैन हुआ पड़ा है। कहीं भी मन नहीं लग रहा।"

"तुम तो ऐसे कह रहे हो जैसे बच्चा तुम्हारे पेट में ठहरा हो।" देवली मुस्कुरा पड़ी।

"मैं चाहता हूँ दो बातें जल्दी से हो जायें। शनिका से छुटकारा और बच्चा जल्दी हो जाये।"

"बच्चा तो वक्त पर ही होगा। शनिका से अवश्य छुटकारा मिल जाएगा।"

"कब?"

"ज्यादा देर दूर नहीं रहना चाहती। बहुत काम है मुझे। तुम्हारी टाँगें लगवानी है। इस घर की सजावट बदलनी है। तुम्हारे काम-धंधों को भी देखना है। सब कुछ तो मुझे ही करना है।"

"हम दोनों मिल कर करेंगे।" प्रेम का स्वर उत्साह से भरा था।

"हाँ! हम दोनों मिलकर करेंगे।" देवली एकाएक कह उठी, "क्या तुम जानते हो कि शनिका अपना पैसा कहाँ रखती है?"

"क्यों पूछा?"

"वह मर जाये और हम यह नहीं जान सके कि उसने पैसा कहाँ रखा हुआ है।"

"जानता हूँ मैं। शनिका के बेडरूम में ही गुप्त जगह है। सब कुछ वह उसमें ही रखती है।" प्रेम कह उठा।

■■■

शनिका छः बजे लौट आयी थी। देवली उसके पास पहुँच गयी।

"आज आप बहुत थकी सी लग रही हैं।" देवली कह उठी।

"हाँ! आज बहुत थक गई।"

"आपका गिलास तैयार कर दूँ?"

"अभी नहीं। ठंडा पानी पिला।"

देवली ने एक तरफ मौजूद फ्रिज में से बोतल निकालकर गिलास में पानी डाला और शनिका के पास पहुँच गयी। शनिका ने पानी पिया कि तभी उसके फोन की बेल बजने लगी।

"हेलो!" शनिका ने बात की।

"नमस्कार रानी साहिबा!" ए०सी०पी० की आवाज कानों में पड़ी, "रामसिंह को किसी ने मार दिया।"

"क्या?" शनिका चौंकी। उसका अंदेशा ठीक साबित हुआ था।

"रामसिंह को भी ओमी की तरह गोली मारी गयी है। कहीं चूड़ासिंह तो यह सब नहीं कर रहा?"

"नहीं, वह नहीं।" शनिका के होंठों से निकला। चेहरा एकाएक कठोर होने लगा।

"तो आप जानती हैं कि वह कौन है?"

"हाँ! उसे देखना मेरा काम है। वह हरामी जल्दी मरेगा।"

"मुझे बताइए, उसे मैं कानून के लपेटे में ले लेता हूँ।" ए०सी०पी० आवाज कानों में आई।

"मैं देखूँगी उसे। वह मेरा शिकार है।" शनिका ने कहा और फोन बंद कर दिया।

पास खड़ी देवली की निगाह शनिका पर थी।

"क्या हुआ रानी साहिबा?"

शनिका के चेहरे पर क्रोध नजर आ रहा था।

"रामसिंह को मार दिया उस हरामी ने। अब बुरी मौत मारूँगी वालिया को। कल अपने सारे आदमी वालिया की तलाश में लगा लूँगी। अब तक तो उसे कमजोर समझती रही, इसी का फायदा उठाकर, उसने ओमी और रामसिंह को मार दिया।"

"वालिया कौन है रानी साहिबा?"

शनिका ने भिंचे दाँतों से देवली को देखा।

"तू जा। जब जरूरत होगी तो तुझे बुला लूँगी।"

"आज भी मुर्गा खायेंगी? हरिया को कह देती हूँ कि...।"

"कुछ नहीं चाहिये। निकल जा यहाँ से...।" शनिका क्रोध में और परेशानी में थी।

देवली कमरे से बाहर निकल गयी। शनिका उठी और साड़ी खोलकर एक तरफ रखी फिर गुस्से से भरी टहलने लगी। रह-रह कर आँखों के सामने वालिया का चेहरा नाच रहा था। अब उसे वालिया खतरनाक लगने लगा था। वालिया की वजह से उसके तीन खास आदमी मारे गए। वासु को उसने ही गलतफहमी में मरवा दिया था, और रामसिंह तथा ओमी को उसने ही मार दिया।

वालिया जैसलमेर में टिका हुआ है, उसे बर्बाद करने के लिए। वह जैसलमेर से जाने वाला नहीं। उसे खत्म करना जरूरी था।

भाड़ में गया चुनाव। कल से वह वालिया को तलाश करवाएगी और उसे खत्म करवाने के बाद ही चुनाव की तरफ ध्यान देगी। वालिया चुप नहीं बैठने वाला। वह अभी उसके खिलाफ बहुत कुछ करेगा।

तभी शनिका की सोचें थमी। उसका फोन बजने लगा।

"हेलो!" उसने बात की।

"बंगले पर पहुँच गयी रानी साहिबा?" जगत पाल की आवाज कानों में पड़ी।

"तुम!" शनिका ने अपने पर काबू पाया, "कहो?"

"गुस्से में हो?"

"तुम्हें जो बात कहनी है, वह कहो। तुमने तो कल मिलने को कहा था तो अब...।"

"मेरी माँ का फोन आया था अभी। वे बहुत बीमार है। मुझे उनके पास जाना पड़ रहा है।"

"ठीक है। जब वापस आओ तो मुझे बता देना।"
"बीमारी में खर्चा होगा। नोट लेकर जाऊँ तो ठीक रहेगा। तुम मुझसे अभी मिलो।"

"कहाँ?"

"बंगले से निकलो। पाँच करोड़ साथ में ले लेना। अकेले आना। किसी को खबर मत करना। इस बार चालाकी की तो तुम्हें महँगी पड़ेगी। मैं तुम पर नजर रख रहा हूँ। अगर मुझे सब ठीक लगा तो मैं तुम्हें फोन करके जगह बता दूँगा।"

"ठीक है।" शनिका ने गहरी साँस ली। वह भी इस मामले को खत्म कर देना चाहती थी।

"अकेले आना, कोई चालाकी नहीं। मेरी नजर है तुम पर।" इसके साथ ही उधर से जगत पाल ने फोन बंद कर दिया था।

शनिका ने भी फोन बंद करके रखा और टेबल की तरफ बढ़ गयी। दराज खोला और रिवॉल्वर निकाली। यह वही रिवॉल्वर थी जो उसने वालिया से हासिल की थी। शनिका के चेहरे पर दरिंदगी के भाव थे।

"तू जो भी है, आज मरेगा और नाम लगेगा वालिया का। पुलिस को तेरे पास से रिवॉल्वर मिलेगी वालिया की। और वह भी तो जैसलमेर में मौजूद है। ए०सी०पी० को फोन करके वालिया के बारे में मैं बताऊँगी। अब मेरे सारे काँटें साफ हो जायेंगे।" शनिका खतरनाक स्वर में बड़बड़ा उठी। चेहरे पर वहशी चमक आ ठहरी थी।

■■■

शनिका कार पर बंगले से निकली। वह खुद ही कार चला रही थी। पीछे वाली सीट पर पाँच करोड़ के नोटों वाला सूटकेस पड़ा था। उसका चेहरा इस समय सामान्य था। बंगले से बाहर निकलते ही उसने हर तरफ नजर घुमाई तो उसे पुरानी सी एक कार दिखाई दी, जो कि उसके पीछे आने लगी थी।

"तो उस कार में है मुझे फोन करने वाला।" शनिका बड़बड़ा उठी।

शाम के सात बजे रहे थे। अंधेरा घिरना आरंभ हो गया था। शनिका सड़कों पर कार चलाती रही। पीछे वाली कार बराबर उसके पीछे लगी रही।

दस मिनट बाद शनिका का फोन बजने लगा।

"हेलो!"

"मैं तुम्हारे पीछे हूँ।" जगत पाल की आवाज कानों में पड़ी।

"जानती हूँ।"

"मैंने खुद को छिपाने की चेष्टा नहीं की तभी तुम जान पाई हो कि मैं पीछे लगा हूँ।"

"अब बोलो।" शनिका ने कहा, "पाँच करोड़ मेरे पास है और मैं अकेली हूँ। बेहतर होगा कि हम ऐसी जगह पर मिले जहाँ कोई हमें देख न सके। चुनाव चल रहे हैं, इसलिए सावधानी बरतनी जरूरी है।"

"जैसा तुम चाहती हो वैसा ही होगा। मैं तुम्हारी कार को ओवरटेक कर रहा हूँ। तुम मेरे पीछे आती जाना।"

"क्या तुम अकेले हो? मैं ज्यादा लोगों की नजर में नहीं आना चाहती। मेरा अपना रुतबा है।"

"चिंता मत कर। मैं अकेला हूँ।" इसके साथ ही उधर से जगत पाल ने फोन बंद कर दिया था।

कार ड्राइव करती शनिका ने शीशे में पीछे आती कार को देखा। उसकी रफ्तार बढ़ गयी थी। अंधेरा शुरू हो चुका था। पीछे आती कार पास से निकली और उसकी कार को ओवरटेक कर गयी।

शनिका ने भरपूर चेष्टा की कि ड्राइविंग सीट पर बैठे व्यक्ति को देख सके। परन्तु कामयाब नहीं हो पाई। दिन की रोशनी लगभग लुप्त हो चुकी थी।

शनिका ने अपनी कार उसके कार के पीछे लगा दी। दोनों कारें मध्यम गति से आगे-पीछे चल रही थीं। जैसलमेर की रात को रोशनियाँ चमकने लगी थीं। पंद्रह मिनट बाद आगे वाली कार को उसने एक सुनसान रास्ते पर रुकते देखा।

अब तक अंधेरा पूरी तरह घिर चुका था। शनिका ने उसकी कार के पीछे अपनी कार ले जा रोकी। जगत पाल बाहर निकला। शनिका भी बाहर निकली। उसने साड़ी में फँसी रिवॉल्वर को टटोला। वह चाहती तो अभी जगत पाल को गोली मार सकती थी परन्तु पहले वह जान लेना चाहती थी कि वह है कौन।

जगत पाल, शनिका के पास पहुँचा।

"नोट दिखाओ?" वह बोला।

"कार की पीछे वाली सीट पर सूटकेस रखा है।"

जगत पाल ने शनिका की कार का पिछला दरवाजा खोला।

"वह तस्वीर और नेगेटिव्स?" शनिका ने टोका। अंधेरे में वह जगत पाल का चेहरा देखने की चेष्टा कर रही थी।

"चिंता मत कर। देकर जाऊँगा। उन्हें अपने पास रखकर क्या करूँगा।" जगत पाल हँसकर पिछले वाली सीट से सूटकेस बाहर निकालता कह उठा, "पहले जरा नोटों के दर्शन तो कर लूँ।"

शनिका उसे देखती रही। जगत पाल ने सूटकेस निकालकर उसे खोला। उसे नोटों से भरा पाकर उसने सूटकेस बन्द किया और अपनी कार की डिग्गी में रखा। इस दौरान शनिका जरा भी नहीं बोली थी। वह जगत पाल को देखने की चेष्टा करती रही।

जगत पाल ने शनिका को देखा।

"तस्वीर और नेगेटिव्स?" शनिका ने सपाट स्वर में कहा।

"एक बात तेरे को बताना चाहता हूँ।" जगत पाल ने कहा।

"बोल!"

"जब तूने और प्रेम ने वामा को मारा तो, वहाँ कोई भी नहीं था। तुम दोनों को ऐसा करते किसी ने नहीं देखा।"

शनिका ने आँखें सिकोड़ी। दाँत भिंच गए।

"तेरा मतलब कि तस्वीर और नेगेटिव्स का वजूद ही नहीं है।" शनिका कह उठी।

"ठीक समझी तुम।" जगत पाल ने दाँत फाड़े, "मैं तो मुफ्त में तेरे से नोट झाड़ रहा था।"

शनिका ने उसी पल फुर्ती से साड़ी में फँसी रिवॉल्वर निकाली और उसकी तरफ तान दी।

"मुफ्त में तो तू नोट नहीं ले सकता।"

"मैं जानता हूँ कि तू रिवॉल्वर जरूर साथ में लाएगी।" जगत पाल ने लापरवाही से कहा।

"कौन हो तुम?" शनिका का स्वर कठोर हो गया।

"रिवॉल्वर नीचे कर ले। मैं तेरे को तेरे काम की बहुत बातें बताऊँगा।"

"कौन हो तुम?"

"रिवॉल्वर नीचे रख अगर तू मेरे से कुछ जानना चाहती है।" जगत पाल ने मुस्कुरा कर कहा।

"क्या बतायेगा तू मुझे?"

"वालिया के बारे में। देवली के बारे में। जगत पाल के बारे में।"

शनिका चौंकी।

"देवली और जगत पाल? वही मुम्बई वाले?" उसके होंठों से निकला।

"हाँ! वही देवली, जो वालिया की रखैल थी और जगत पाल उससे मिलने आया करता था।"

"तुम... तुम वालिया को कैसे जानते हो?"

"तूने अभी तक रिवॉल्वर नीचे नहीं की।"

शनिका ने रिवॉल्वर वाला हाथ नीचे कर दिया।

"ऐसे नहीं, रिवॉल्वर को ठिकाने पर रख। जहाँ से निकाली थी। मैं तेरा दुश्मन नहीं।"

शनिका रिवॉल्वर को वापस साड़ी में फँसाती कह उठी-

"अब बता क्या मामला है?"

"बहुत बेचैन हो रही है जानने को?" जगत पाल मुस्कुराया, "तो सुन, तेरे यहाँ काम करने वाली मुन्नी नाम की जो युवती है वही असल में देवली है।"

"क्या?" शनिका ऐसे चौंकी जैसे साँप पर पाँव पड़ गया हो, "वह... वह देवली है?"

"सौ प्रतिशत!"

"वह वहाँ क्या कर रही है?" शनिका लगभग चीख ही पड़ी।

"तेरी ऐसी-तैसी फेरने के चक्कर में है। वालिया भी जैसलमेर में है। वह भी तेरा गला काटने का मौका ढूँढ रहा है।"

शनिका तेज-तेज साँसें लेने लगी।

"पानी पिलाऊँ?" जगत पाल ने व्यंग्य में कहा।

"और... और त... तुम कौन हो?"

"जगत पाल।" जगत पाल ने शांत स्वर में कहा और रिवॉल्वर निकाल ली, फिर हँसा, "दरअसल हम सब ही तेरे पर डंडा फेरने के चक्कर में हैं। देवली के कहने पर अब मैं तेरे को गोली मारने जा रहा हूँ। मैं उसके साथ कानपुर में रहना चाहता हूँ। कानपुर जाने की उसकी शर्त है कि पहले तेरे को टपका दूँ। इसलिए तेरे को...।"

"पागल हो तुम!" शनिका के होंठों से परेशानी भरा स्वर निकला।

"वह क्यों?"

"मैं तुम्हें मालामाल कर सकती हूँ  तुम मेरा साथ दो। उन दोनों से तुम्हें क्या मिलेगा?"

"मेरा थोड़े से ही काम चल जाता है।" जगत पाल ने खतरनाक स्वर में कहा, "मुझे ज्यादा नहीं चाहिए। तुमने सबसे बड़ी गलती की कि मुम्बई में एक बार भी मुझे या देवली को नहीं देखा। अगर देखा होता तो तुम देवली को देखते ही पहचान जाती कि...।"

"मुझे मत मारो। मैं तुम्हें नोट...।"

"मैंने देवली को अपने साथ कानपुर ले जाना है। इसलिए तेरे को मारना ही पड़ेगा।"

"मैं... मैं तुम्हारे साथ कानपुर चलूँगी।" शनिका जल्दी में कह उठी।

"तू?"

"हाँ मैं।"

"वहाँ मेरे साथ जाएगी, मेरी टाँगों पर बैठेगी। मेरा चुम्मा लेगी?"

"सब कुछ। तुम जो कहोगे मैं वही...।"

"हरामजादी। तेरी तो जात-पात ही पता नहीं लगती कि आखिर तू है क्या चीज।" जगत पाल गुर्रा उठा, "लेकिन इतना तो पक्का है कि तू बहुत ऊँची जात की है। तभी तो मेरी सारी बातें फौरन मान ली।"

यही वह पल थे कि जगत पाल को व्यस्त जानकर शनिका ने साड़ी में फँसी रिवॉल्वर फुर्ती से निकाली।

जगत पाल को तो पहले ही पता था कि शनिका रिवॉल्वर निकालेगी ही। उसी क्षण जगत पाल ने दाँत भींचकर दो बार ट्रिगर दबाया। गोलियाँ शनिका को जा लगीं। वह चीख भी न सकी। पीछे खड़ी अपनी कार से टकराई और नीचे गिरती चली गयी।

जगत पाल आगे बढ़ा और नीचे पड़ी कराहती शनिका के सिर से रिवॉल्वर की नाल टिकाकर पुनः ट्रिगर दबा दिया। तेज आवाज के साथ गोली उसके सिर में जा धँसी।

शनिका शांत पड़ गयी थी। अपनी तसल्ली कर लेने के पश्चात जगत पाल अपनी कार में जा बैठा और कार दौड़ा दी।

■■■

देवली उस वक्त शनिका के कमरे में थी। आठ के ऊपर का वक्त हुआ था। वह शनिका के आने का इंतजार कर रही थी। वह नहीं जानती थी कि शनिका कहाँ गयी है। जब वह कमरे में आई तो शनिका बाहर जाने को तैयार हो चुकी थी जाते वक्त इतना ही कहा कि घण्टे भर में आ जायेगी।

तभी देवली का फोन बजने लगा। देवली ने बात की। दूसरी तरफ जगत पाल था।

"तेरे को कहा था कि तू मुझे फोन नहीं करेगा। जब जरूरत होगी, मैं फोन करूँगी।" देवली तेज स्वर में बोली।

"मेरी जान, तेरे काम की फड़कती खबर है।"

"बोल।"

"कानपुर चलने के लिए सामान बाँध ले। तेरी रानी साहिबा तो ऊपर पहुँच गयी।"

"क्या?" देवली चौंकी, "तूने, तूने...।"

"निपटा दिया काम। दस मिनट पहले। पूरी तीन गोलियाँ कि कोई चांस न रहे बचने का।"

देवली ने गहरी लंबी साँस ली।

"कैसे किया?"

"उसे बुलाया और निपटा दिया। साथ में पाँच करोड़ भी लायी थी जो मेरे पास है।"

"तूने तो कमाल कर दिया जगतू।"

"तेरा जगतू कमाल ही करता है। अब कानपुर की तैयारी कर ले।"

"सब्र रख। साँस तो ले लेने दे। एक-दो दिन तो लगेंगे ही चलने में।"

"कल या फिर परसो?"

"कल तेरे से मिलकर बात करूँगी। तू मुझे फोन मत करना।"

"जो हुक्म। तेरी बात कभी टाली है क्या?"

देवली ने फोन काट दिया और उस कुर्सी पर जा बैठी जिसपर शनिका बैठा करती थी। चेहरे पर सोच के भाव नाच रहे थे।

फिर वह उठी और उस छोटी अलमारी के पास जा पहुँची जिसे कि बार का रूप दिया हुआ था। उसने गिलास उठाकर पैग बनाया और घूँट भरते हुए वापस कुर्सी पर आ बैठी। उसके चेहरे पर ऐसे भाव थे कि जैसे वह कोई फैसला ले लेना चाहती हो।

आधा घण्टा लगाकर देवली ने गिलास खाली किया। सिर में अब मस्ती चढ़ गई थी। शायद उसकी सोचों को भी कोई किनारा मिल गया था। उसने वालिया को फोन किया।

"हेलो!" वालिया की आवाज कानों में गयी।

"शनिका नहीं रही।" देवली धीमे स्वर में बोली।

"ओह! कैसे हुआ यह सब?" वालिया चौंकते हुए बोला।

"मेरे कहने पर उसे किसी ने खत्म कर दिया है। कुछ देर पहले ही।"

"कहाँ? बंगले में या...।"

"बाहर!"

"आसान मौत मर गयी वह।" अजय वालिया का भींचा स्वर कानों में पड़ा।

देवली कुछ नहीं बोली।

"अब तुम क्या करोगी?"

"मैं तुम्हें कल फोन करूँगी अजय।" कहकर देवली ने फोन बंद कर दिया।

■■■

देवली, प्रेम के पास पहुँची।

"तुम्हें इस वक़्त मेरे पास नहीं आना चाहिए।" प्रेम उसे देखते ही कह उठा, "शनिका जब बंगले में मौजूद हो तो...।"

"वह बंगले में नहीं है।" पास आकर देवली ने उसके सिर पर हाथ फेरा, "वह दुनिया में भी नहीं है।"

"नहीं है। क्या मतलब?" प्रेम की आँखें सिकुड़ी।

"जो तुम चाहते थे, वह काम हो गया हैं।" कहते हुए देवली ने झुककर प्रेम के गालों को चूमा।

"क्या?" प्रेम के चेहरे पर अविश्वास के भाव फैल गए, "श... शनिका मर गयी?"

"हाँ! मेरे आदमी ने उसे मार दिया।"

"नहीं।"

"यह सच है। पक्का सच।"

अगले ही पल प्रेम का चेहरा खुशी से भरने लगा।

"ओह देवली! अब हमारी दुनिया बस जाएगी। हम... हम...।"

"खुद को इतना खुश मत करो प्रेम। अभी तो शनिका की मौत की खबर आनी है। उसके बाद हमें कितने काम पूरे करने हैं।"

"ह... हाँ! बच्चा ठीक है तुम्हारे पेट में?"

"उसकी फिक्र मत करो।" देवली मुस्कुरायी, "वह मेरी जिम्मेदारी है। लेकिन मैं इस वक्त शनिका की मौत के बारे में सोच रही हूँ। उसे तीन गोलियाँ लगी हैं और मैं नहीं चाहती कि पुलिस तुम पर शक करे कि तुम्हारे इशारे पर उसे मारा गया है।"

"मेरे इशारे पर? भला पुलिस ऐसा कैसे सोच सकती है?"

"मत भूलो कि कल जैसलमेर में शनिका और अजय वालिया की शादी की तस्वीरों वाले पोस्टर लगे थे। पुलिस सोच सकती है कि उस बात से खार खाकर तुमने किसी के हाथों शनिका को मरवा दिया।"

"बकवास है। तुम इस बात की परवाह मत करो। पुलिस वही सच मानेगी जो मैं चाहूँगा।"

"लेकिन मुझे चिंता हो रही है। तुम मेरी चिन्ता कम कर दो।" बातों के दौरान देवली उसके सिर में हाथ फेर रही थी।

प्रेम ने देवली का हाथ थामा और प्यार से बोला-

"तुम्हारे लिये तो मैं अपनी जान भी दे सकता हूँ। कहो, तुम क्या चाहती हो देवली?"

देवली मुस्कुरायी, हाथ छुड़ाया और टेबल पर रखी कॉपी और पेन लाकर प्रेम को थमाया।

"यह क्या?"

"पूछो मत।" देवली नखरे वाले स्वर में मुस्कुराकर बोली, "जो मैं कहती हूँ वह लिखो।"

"क्या?"

"कुछ ऐसा लिखो कि जैसे तुम शनिका की मौत से बहुत दुखी हो और...।"

"लेकिन इन सब बातों का मतलब क्या...?"

"मतलब मत पूछो। क्या तुम मुझसे प्यार नहीं करते? मुझसे शादी नहीं करने वाले?"

"मैं तुम से शादी करूँगा देवली। मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ।"

"तो लिखो, जो मैं कहती हूँ। इसे तुम एक खेल समझ लो। मजाक समझ लो। परन्तु तुम लिखो कि शनिका की मौत से मैं परेशान हो गया हूँ। शनिका ही मेरी जिंदगी में सब कुछ थी। परन्तु उसकी मौत से मैं खुश भी हूँ क्योंकि अब मैं देवली से प्यार करने लगा था और मेरा बच्चा भी उसके पेट में पल रहा है। वही मेरा वारिस है। शनिका ने बच्चा पैदा करने में कभी दिलचस्पी नहीं दिखाई। जबकि मैं बच्चा चाहता था और वह मुझे देवली देगी। परन्तु शनिका की मौत मुझसे सही नहीं जा रही। बेशक उसके मरने से मैं खुश हूँ। मुझे अभी भी विश्वास नहीं हो रहा है कि शनिका नहीं रही। पागल कर दिया है शनिका की मौत ने मुझे। उसे इस तरह नहीं जाना चाहिए था मुझे अकेला छोड़कर। वह मेरी सब कुछ थी, परन्तु मैं खुश हूँ कि देवली मेरा वारिस पैदा करने जा रही है। जबकि मुझे हमेशा मेरी चिंता सताती थी कि मेरी इतनी बड़ी दौलत को कौन सम्भालेगा। अब उस चिंता से मैं मुक्त हो गया हूँ। परन्तु शनिका मर कर भी मेरा पीछा नहीं छोड़ रही। कभी-कभी लगता है कि वह मेरे सामने आती है और इशारे से मुझे बुला रही है।"

प्रेम ने लिखा जो देवली ने बोला।

जब लिख लिया तो देवली ने हँसकर उससे कॉपी-पेन ले लिया और वापस टेबल पर रख दिया।

"मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि आखिर यह सब तुमने मुझसे क्यों लिखवाया।?" प्रेम उलझन में कह उठा।

"दिल की बातें कागज पर उतारने से दिल हल्का होता है।" देवली ने पास आकर उसके गालों पर हाथ फेरा।

"हल्का?"

"तुम सोचो कि इस वक्त तुम्हारी जिंदगी में दो अहम बातें हुई हैं। एक तो यह कि मैं तुम्हारे बच्चे की माँ बनने वाली हूँ, दूसरी यह कि शनिका तुम्हारी जिंदगी में ग्रहण की तरह थी, जो कि हमेशा के लिए दूर हो गयी। इन दोनों बातों को तुमने कागज पर लिखा तो क्या तुम्हें नहीं लगता कि लिखने के बाद तुम्हारे दिल से बोझ हट गया है। कोई अनजाना सा बोझ...।"

"ह... हाँ! शायद ऐसा कुछ हुआ हो।" प्रेम कुछ समझा, कुछ नहीं समझा।

"मेरी माँ कहा करती थी कि मन में जो बात हो, उसे कागज पर लिखो, इससे मन का बोझ हल्का हो जाता है। वही मैंने तुम्हारे साथ किया। इस वक्त तुम जरूर खुद को हल्का महसूस कर रहे होगे।"

प्रेम को देवली की बात जँची तो नहीं परन्तु उसकी खुशी के लिए मुस्कुराकर बोला-

"सच में मैं लिखने के बाद हल्का महसूस कर रहा हूँ।"

प्रेम देवली का हाथ थामकर प्यार से कह उठा-

"हम जल्दी शादी कर लेंगे देवली।"

"जब तुम कहो।"

"महीने के भीतर ही।"

"इतनी भी जल्दी नहीं। लोग शक करेंगे। पुलिस भी शक...।"

"पुलिस की तुम फिक्र मत करो। सबसे पहले तो किसी डॉक्टर को बुलाओ कि तेरी टाँगें लगवाने का काम शुरू हो सके।"

"प्रेम...।" देवली मुस्कुरायी।

"हाँ!"

"तुम हर काम की बहुत जल्दी कर रहे हो। यह क्यों भूलते हो कि अभी पुलिस की तरफ से शनिका की मौत की खबर भी नहीं आयी।"

"ओह!"

"अभी शादी के बारे में, टाँगें लगवाने के बारे में, किसी भी बारे में कुछ भी मत सोचो। जैसे जिंदगी कट रही है, कटने दो। अगले दो-चार दिन तुम बहुत व्यस्त रहने वाले हो। उस बारे में सोचो। यह सोचो कि जब पुलिस आकर तुम्हें शनिका की हत्या की खबर देगी तब तुम्हें किस तरह दुखी होने का ड्रामा करना है। यह जरूरी बातें हैं तुम्हारे लिए।"

"तुम सही कहती हो कि मैं सच में जल्दबाजी कर रहा हूँ। मुझे अपनी खुशी दबानी चाहिए।" प्रेम मुस्कुराया।

"पुलिस के सामने तुमने शनिका की मौत को गंभीरता से लेना है और दुख जाहिर होना चाहिए तुम्हारे चेहरे पर।"

प्रेम ने सिर हिला दिया।

"माना कि पुलिस तुम्हारे दौलत के इशारों पर चलेगी, परन्तु दिखावा तो तुम्हें करना ही चाहिए।"

"मैं ऐसा ही करूँगा।"

"तुम्हारी पहली पत्नी वामा मारी गयी। अब दूसरी पत्नी शनिका की हत्या हो गयी। ऐसा कोई काम मत करो कि पुलिस को तुम पर शक करने का मौका मिले। तुम्हारी पत्नी शनिका की मौत की खबर आये तो तुम्हें भरपूर दुख दिखाना है।"

और रात साढ़े दस बजे पुलिस शनिका की हत्या की खबर देने आ गयी।

■■■

अगले चार दिन देवली के व्यस्तता में बीते। शनिका की मौत, क्रिया-कर्म, लोगों का आना-जाना। एक पल की फुर्सत भी न मिली देवली को।

पाँचवे दिन देवली कुछ फुर्सत में आई तो हरिया से कह उठी-

"मैं बाजार जा रही हूँ हरिया। एक-दो घण्टे में लौट आऊँगी।"

उसके बाद देवली पैदल ही बंगले से बाहर निकल आयी। उसने सबसे पहले जगत पाल को फोन किया।

"तू कहाँ मरी पड़ी है मेरी जान।" जगत पाल की आवाज कानों में पड़ी, "दो-दो दिन तेरा फोन नहीं आता।"

"मेरा प्यार जगतू नाराज हो रहा है।" देवली ने चलते-चलते मुस्कुराकर कहा।

"साली, सीधी तरह न चलो तो उठाकर ले जाऊँगा कानपुर।"

"बहुत तड़प रहा है मुझे कानपुर ले जाने के लिए।"

"इरादे क्या हैं तेरे?"

"नेक हैं। कल कानपुर चलूँगी तेरे साथ।"

"पक्का?"

"तेरी कसम, पक्का। और आज मैं तेरे से मिलूँगी। तेरी टाँगों पर बैठूँगी किसी सुनसान जगह।"

"कसम से। तू तो पागल कर देगी मुझे। तड़प रहा हूँ, जल्दी बता कि कब आएगी तू?"

"मुझे जहर की जरूरत है, जो कि लेने के बाद कम से कम घण्टे भर बाद असर करे।"

"जहर?"

"जब तू जहर का इंतजाम कर ले तो मुझे फोन करना। एक घण्टे में तेरे पास होऊँगी।"

"मैं अभी तेरे को फोन करता हूँ। इधर एक सपेरा है मेरी पहचान का। सुबह दो घण्टे उसी से बातें करता रहा। वह बता रहा था कि वह साँपों का जहर निकालकर, उसे बेचने का भी धन्धा करता है।" जगत पाल की आवाज आई।

"ऐसा जहर जो एक घण्टे बाद असर करे।

"ऐसा ही दूँगा। किसका शिकार करना है?"

"प्रेम का। वामा की मौत का बदला जो लेना है।"

"समझ गया। तेरे को आधे घण्टे में फोन करता हूँ।"

देवली जानती थी कि कानपुर जाने के चक्कर में जगत पाल जल्दी ही जहर का इंतजाम करेगा। वह पैदल ही बाजार की तरफ बढ़ती रही। पच्चीस मिनट लगे उसे बाजार पहुँचने में।

कुल मिलाकर एक घण्टे में जगत पाल का फोन आया।

"जहर ले लिया सपेरे से। बोल, कहाँ मिलती है?"

"मैं पीली ढाणी वाले बाजार में हूँ।"

"अभी पहुँचा। तू बाजार के बाहर वाइन शॉप वाली सड़क पर पहुँच। मैं दस मिनट में आया।"

जगत पाल कार में वहाँ पंद्रह मिनट में पहुँचा। देवली उसके इंतजार में खड़ी थी। उसने कार का दरवाजा खोला और भीतर बैठकर दरवाजा बंद किया।

जगत पाल बहुत खुश नजर आ रहा था। कार आगे बढ़ाता कह उठा-

"कल पक्का हम कानपुर चल रहे हैं न?"

"पक्का है। तुझे विश्वास नहीं आ रहा?"

"सच में नहीं आ रहा।" जगत पाल हँसा।

"बेवकूफ है तू।" देवली मुस्कुरायी।

"तूने बंगले पर रहकर क्या किया?"

"टोह ले रही थी। शनिका के बारे में मुझे विश्वास था कि तू उसे सम्भाल लेगा  परन्तु प्रेम को भी तो निपटाना है।"

"तू बोल उसे मैं ही...।"

"उसे मैं ही निपटा दूँगी। जहर दे।"

जगत पाल ने जेब से छोटी सी काँच की शीशी निकाल कर उसकी तरफ बढ़ाई। शीशी के भीतर गहरे भूरे रंग का तरल पदार्थ था जो कि दो-तीन बूँद ही था और वह शीशी के साथ लगकर सूख से रहा था।

"यह तो कम है।" शीशी थामती देवली कह उठी।

"मेरी जान सपेरे का कहना है कि यह जहर मात्रा में इतना है कि हाथी के दिल की धड़कन भी रोक दे। जो उसने बताया है वह सुन लो कि यह जहर शीशी में सूख जाएगा। जब इस्तेमाल करना हो तो शीशी में दो चम्मच पानी मिलाकर हिला देना। सारा जहर पानी में आ जायेगा और इस जहर वाले पानी को तुमने कैसे इस्तेमाल करना है, यह तुम जानो।" जगत पाल कहता जा रहा था, "सपेरा कहता है कि यह रेत में पाए जाने वाले खास जाति के साँप का जहर है, जिसे भी दिया जाएगा उसे स्वाद का भी पता नहीं चलेगा। क्योंकि स्वादहीन है यह। यह खामोशी से शरीर के भीतर ही भीतर असर करेगा और आधे घण्टे से एक घण्टे तक के वक्त में उसका हार्ट फेल हो जाएगा जिसे जहर दिया गया है। इस जहर का असर शरीर पर दिखाई नहीं देता और सपेरा दावा करता है कि पोस्टमार्टम करने पर डॉक्टर भी नहीं कह सकते कि उसे जहर दिया गया है।"

"शानदार। मुझे ऐसे ही जहर की जरूरत थी।" देवली ने जहर की शीशी मुट्ठी में पकड़ ली।

"आज तो तेरे चेहरे पर रौनक लग रही है।" जगत पाल हँसा।

"कल कानपुर जो चल रहे हैं।" देवली भी हँसी।

"हरामी है साली।"

"रिवॉल्वर मुझे दे दे।"

"क्यों?"

"मुझे वहाँ जरूरत पड़ सकती है। जहर से काम न हुआ तो रिवॉल्वर का इस्तेमाल करूँगी।"

"बंगले में गोली चलाएगी। इतने नौकर हैं कि फँस जाएगी।" जगत पाल कह उठा।

"बच्ची नहीं हूँ।" देवली ने मुँह बनाया, "रिवॉल्वर दे।"

"ले ले। नाराज क्यों होती है।" जगत पाल ने रिवॉल्वर निकालकर उसे दे दी।

"इसी से शनिका को मारा था?"

"हाँ! साली बहुत तेज थी। लेकिन मैं भी कम नहीं। पहुँचा दिया ऊपर।"

देवली रिवॉल्वर देखने लगी।

"वालिया से मिली?"

"नहीं। फोन पर एक-दो बार बात हुई। उसे बताया कि शनिका का काम कर दिया है।"

"सुनकर खुश तो हुआ होगा वह।"

"बहुत।"

"अब उससे मिलने का तो कोई प्रोग्राम नहीं?"

"जगतू, तेरे होते उससे अब क्या मिलना?"

"साली, बोत हरामी है तू।"

जगत पाल कार को जैसलमेर के बाहरी हिस्से में, सुनसान जगह पर ले आया था।

"यहाँ-कहाँ?" देवली मुस्कुरायी।

"तूने ही तो कहा था कि तू मेरी टाँगों पर बैठेगी। सुनसान जगह पर चलना है।" जगत पाल मुस्कुराकर बोला।

"भूला नहीं तू इस बात को।"

"अपने काम की बात क्यों भूलने लगा?"

जगत पाल ने अपनी कार को एक रेतीले टीले की छाँव में ले जा रोका। वहाँ कोई नहीं था। दूर-दूर तक वीरानी और गर्मी ही नजर आ रही थी। तेज हवा चलती तो रेत कण-कण बिखर कर उड़ने लगती थी। कार की छत भी तपने लगी थी।

जगत पाल ने इंजन बन्द किया और मुस्कुरा कर देवली को देखा।

"इतनी गर्मी में कुछ भी मन नहीं है।"

"बहाने मत बना मेरी जान। अब तो...।"

इसी पल देवली ने हाथ में थमी रिवॉल्वर जगत पाल की कमर से लगा दी।

जगत पाल के शब्द होंठों में ही रह गए थे। उसने चौंककर देवली को देखा।

देवली के पसीने से भरे चेहरे पर जहरीली मुस्कान थिरक रही थी।

"यह... यह तू मजाक कर रही है।" जगत पाल के होंठों से निकला।

"तेरे को पता है न जगतू कि जब रिवॉल्वर हाथ में हो तो मजाक नहीं चलता।" देवली का स्वर कड़वा था।

"तू...।"

तभी कार में गोली का तंज धमाका गूँजा। जगत पाल की आवाज फटती ही चली गयी। गोली उसके कमर में प्रवेश कर गयी थी।

देवली ने रिवॉल्वर उसकी कमर से हटाई और नाल को ठीक दिल वाले हिस्से पर रखकर ट्रिगर दबाया तो पुनः कानों को फाड़ देने वाला धमाका गूँजा। जगत पाल के शरीर को तीव्र झटका लगा और वह स्टेयरिंग पर लुढ़क गया।

देवली के दाँत भिंचे हुए थे। उसने रिवॉल्वर पर से अपनी उँगलियों के निशान साफ किये। फिर कार में से भी उँगलियों के निशानों को साफ किया और जहर की शीशी थामें बाहर निकली और जानलेवा धूप और गर्मी में पैदल ही वापस चल पड़ी।

कुछ आगे जाकर सहज होने पर उसने वालिया को फोन किया।

"कहाँ हो?" देवली मुस्कुरा पड़ी थी।

"होटल में। तुम्हारे फोन का इंतजार कर रहा था, लेकिन सोचा तुम व्यस्त होगी बंगले पर।"

"हाँ, व्यस्त हूँ। कल या परसों फुर्सत मिलेगी।"

"हमें मिले काफी देर हो गयी।"

"अभी मेरा काम बाकी है अजय। वामा की मौत में प्रेम भी था।"

"कितना वक्त लगेगा तुम्हें?"

"दो या तीन दिन।"

"प्रेम को मारने के चक्कर में तुम मत फँस जाना।"

"मैं नहीं फँसूंगी। तुम्हें एक काम करना है। तुम्हारे कमरे से दो कमरे छोड़कर, 206 नम्बर कमरे में जगत पाल नाम का आदमी ठहरा हुआ है उसे शनिका के आदमियों ने मार दिया था कल। तुम उस कमरे में जाओ। वहाँ तुम्हें पाँच करोड़ के नोटों से भरा एक सूटकेस मिलेगा। वह तुम अपने कमरे में ले आओ। तुम्हें ऐसा करते कोई देखे नहीं।"

"यह बात तुम्हें कैसे पता लगी कि उसके पास पाँच करोड़...।"

"शनिका के बंगले पर रह रही हूँ। ऐसी बातों की ही तो खबर रख रही हूँ।"

"समझा। यह काम अगर रात को करूँ तो ठीक रहेगा?" उधर से अजय वालिया ने पूछा।

"ठीक रहेगा। फोन बन्द करती हूँ। दो-तीन दिन में प्रेम का काम निपटा कर तुम्हें फोन करूँगी। शायद मिलूँ भी...।"

■■■

देवली बंगले पर पहुँचकर प्रेम से मिली। देवली के हाव-भाव से ऐसा जरा भी नहीं लग रहा था कि कुछ देर पहले वह हत्या करके आयी है। प्रेम उसे देखकर मुस्कुरा पड़ा।

"बाजार गयी थी। अपने लिए कुछ सामान लाना था।" देवली कह उठी।

"अब हमारी राह में कोई काँटा नहीं।" प्रेम कह उठा, "अब हम एक हैं।"

देवली ने उसके सिर के बालों में हाथ फेरा।

"बच्चा कैसा है?" प्रेम ने शरारत भरे स्वर में कहा।

"मेरे पेट में आराम कर रहा है।" देवली भी शरारत भरे स्वर में बोली, "चलो, अब मुझे वह जगह दिखाओ जहाँ शनिका पैसे रखती थी। अब मैं यहाँ की मालकिन हूँ। मुझे पता होना चाहिए कि कौन सी चीज कहाँ पड़ी है।"

"हाँ, हाँ, क्यों नहीं!"

देवली व्हील चेयर को धकेलती कमरे से बाहर निकली और शनिका वाले बेडरूम की तरफ चल पड़ी।

"आज मुझे कितना अच्छा लग रहा है।" प्रेम बोला।

"मुझे भी।"

"हम जल्दी ही शादी कर लेंगे।" प्रेम ने कहा।

"छः महीने बाद।"

दोनों शनिका वाले कमरे में पहुँचे।

"वह वार्डरोब खोलो। दायीं तरफ भीतर एक स्विच लगा है। उसे दबाओगी तो वार्डरोब एक तरफ सरक जाएगा। तब तुम्हें छोटा सा दरवाजा दिखाई देगा। उसे खोलकर भीतर जाओगी तो तुम्हारे पास बहुत बड़ी दौलत होगी।"

"देवली ने प्रेम के बताए अनुसार वैसा ही किया। उसने उस सारी दौलत को देखा। फिर सब कुछ बन्द करके, प्रेम की व्हील चेयर धकेलती कमरे से निकली और वापस प्रेम के कमरे में जा पहुँची और झुक कर प्रेम का गाल चूमते कह उठी-

"आज से तुम्हारे खाने-पीने का ध्यान मैं रखूँगी। तुमने क्या-क्या खाना है, इस बात का चार्ट बना दूँगी। मैं तुम्हें सेहतमंद देखना चाहता हूँ। कल मैं डॉक्टर को बुलाऊँगी, जो तुम्हारी नकली टाँगें लगाएगा।"

"तुम मेरा कितना ध्यान रखती हो।" प्रेम मुस्कुराकर प्यार से कह उठा।

"तुम्हारा ध्यान मैं नहीं रखूँगी तो कौन रखेगा?" देवली ने प्यार से प्रेम के गाल पर चपत लगाई।

■■■

दो दिन और बीत गए। जिंदगी पुराने ढर्रे पर चल पड़ी थी। बस शनिका नहीं थी। प्रेम बहुत खुश था देवली को करीब पाकर। देवली उसका बहुत ध्यान रख रही थी। दो दिन में प्रेम का चेहरा खिल उठा था। जैसे देवली के रूप में उसकी खुशियाँ लौट आयी हो।

उस वक्त सुबह के नौ बजे थे। प्रेम बेड पर बैठा नाश्ते का इंतजार कर रहा था कि देवली ने जूस का गिलास थामे भीतर प्रवेश किया।

"यह क्या?" प्रेम बोला।

"जूस।" पास पहुँचकर देवली गिलास उसकी तरफ बढ़ाती कह उठी, "आज नाश्ता नहीं मिलेगा। रोज-रोज भारी चीजें नहीं खाते। कभी पेट खाली भी रखते हैं। दोपहर को पेट भरकर खाना।"

प्रेम ने गिलास थामा और घूँट भरा।

"पूरा खत्म कर दो और गिलास मुझे वापस दो।"

प्रेम ने ऐसा ही किया।

देवली ने गिलास थामा और पास ही रख दिया। फिर कुर्सी पर बैठते कह उठी-

"मैं तुमसे कुछ सलाह लेना चाहती हूँ प्रेम।"

"क्या?"

"मैं अपने भविष्य का रास्ता चुनने की सोच रही हूँ। कई रास्ते हैं मेरे पास।" देवली मुस्कुराकर बोली, "मुझे तुम पर भरोसा है। तुम मुझे सही रास्ता दिखा सकते हो।"

"मैं समझा नहीं। तुम कैसा भविष्य का रास्ता चुनने को कह रही हो?"

"मेरे पेट में तुम्हारा बच्चा है प्रेम। एक रास्ता तो यह है कि सारी जिंदगी तुम्हारे साथ बिता दूँ।" देवली मुस्कुरा रही थी।

"यह तुम कैसी बातें कर रही हो?" प्रेम के माथे पर बल पड़े।

"सुनते रहो।" देवली ने गहरी साँस ली, "दूसरा रास्ता है कि बच्चा गिरा दूँ।

"नहीं, ऐसा मत करना।" प्रेम घबरा कर कह उठा।

"तीसरा रास्ता है कि तुम्हारी मौत के बाद, इस बच्चे के साथ तुम्हारी दौलत की मालकिन बनकर अकेले ही शान से जिंदगी बिता दूँ।" देवली हौले से हँसी।

प्रेम हक्का-बक्का सा देवली को देखता रह गया।

"चौथा रास्ता है कि तुम्हारी मौत के बाद इस बच्चे को जन्म दूँ और वालिया से शादी कर लूँ।"

"वालिया?"

"वही, जिससे शनिका ने शादी की थी मुम्बई में। तब मैं वालिया की रखैल हुआ करती थी।"

"रखैल? वालिया की...?" प्रेम के चेहरे के भाव देखने लायक थे।

"हाँ, अब मैं वालिया को पसंद करने लगी हूँ। वह शरीफ और अच्छा इंसान है।"

"तुम पागल हो गयी हो। कैसी बातें कर रही हो? तुम... तुम मेरे साथ शादी करने वाली हो, तुम... तुम...।"

"अभी पक्का नहीं सोचा प्रेम।"

"तुम्हें क्या हो गया है?" आहत भाव से प्रेम कह उठा।

"क्यों? मेरी बातें समझ में नहीं आ रही है क्या?" देवली हँसी।

"भगवान के लिए देवली, मुझसे ऐसा मजाक मत करो। कितनी कठिनता से मुझे खुशियाँ मिली हैं। मैं...।"

"तो तुम चाहते हो कि मैं अपनी बहन वामा के हत्यारे के साथ सारी जिंदगी बिता दूँ?" देवली गंभीर दिखी।

"मैं... मैं उसकी माफी माँग चुका हूँ। मुझे माफ़ भी कर दिया है तुमने।"

"मैंने तुम्हें कभी भी माफ नहीं किया प्रेम!"

"तुम... तुम मेरे साथ सोती रही हो। हमने कितनी बार प्यार किया है। हमने...।"

"वह करना जरूरी था। तुम जैसे प्यासे इंसान को पानी पिला कर ही विश्वास दिलाया जाता है। मैंने वही किया जो जरूरी था। अब तक तुमने मेरे बारे में जो महसूस किया वह मेरी गेम का हिस्सा था प्रेम।"

"तो तुम मेरे साथ गेम खेल रही थी?" अवाक सा प्रेम कह उठा।

"हाँ! सब कुछ सोचा-समझा हुआ था। तुम्हारे करीब आना, शनिका को रास्ते से हटाना और तुम्हारे बच्चे को जन्म देना।"

प्रेम ठगा सा देवली को देखने लगा। देवली मुस्कुरायी।

"आखिर... आखिर तुम चाहती क्या हो? तुमने यह सब क्यों किया?"

"अपनी बहन का बदला जो लेना था तुमसे। मैं वामा से बहुत प्यार करती थी।"

"तो इसके लिए बच्चे को जन्म देने की क्या जरूरत थी?"

"यह तुम्हारा वारिस बनेगा।"

"वारिस तो तब बनेगा जब मैं मर जाऊँ और मेरे मरने में बहुत वक्त बाकी है।" प्रेम के चेहरे पर गुस्सा नजर आया, "तुम्हें लेकर मैंने कितने सपने देखे थे। अपने मन की देवी मान लिया था तुम्हें, और तुम क्या निकली, सिर्फ एक रखैल।"

"और तुम क्या हो? अपनी पत्नी के हत्यारे। पहले वामा को मारा और अब शनिका को।"

"शनिका को तुमने मारा।"

"लेकिन तुम उसकी हत्या करने को रजामंद थे। सब कुछ पूछकर ही तो किया है।" देवली मीठे स्वर में कह रही थी।

प्रेम ने उसे घूरा और फिर कह उठा-

"तुम... तुम मजाक तो नहीं कर रही हो मेरे साथ?"

"नहीं! मैं गंभीर हूँ। इस वक्त तो मैं सिर्फ वक्त बिता रही हूँ।"

"वक्त? कैसा वक्त?"

देवली उसे देखती रही।

"आखिर क्या करना चाहती हो तुम?"

देवली एकाएक खिलखिला कर हँस पड़ी। प्रेम हैरानी से और परेशानी से उसे देखने लगा।

देवली ने हँसी रोकी और प्रेम से कह उठी-

"बुद्धू हो तुम। मैं तुमसे मजाक कर रही थी।"

"मजाक?" प्रेम की आँखें सिकुड़ी, "नहीं, यह मजाक नहीं था।"

"यह मजाक ही तो था।"

प्रेम इनकार में सिर हिलाते कह उठा-

"नहीं देवली, यह मजाक नहीं था। मैंने जो देखा, महसूस किया, वह मजाक नहीं हो सकता। तुम अब झूठ बोल रही हो।"

"लगता है तुम गंभीर हो गए प्रेम।" देवली गंभीर दिखने लगी।

"तुम... तुम कौन हो?" प्रेम उसे देखता कह उठा, "तुम...।"

"मैं देवली हूँ प्रेम। तुम्हें क्या हो गया है? मैंने जरा सा मजाक किया और तुम गंभीर हो गए। मुझे पहले पता होता कि मेरे मजाक को तुम इतनी गंभीरता से ले लोगे तो मैं तुमसे मजाक करती ही नहीं।"

"तुम सच कह रही हो। यह सब मजाक था?"

"हाँ प्रेम, तुम्हारी कसम।"

"ओह!" प्रेम ने गहरी साँस ली, "तुमने तो मेरी जान ही निकाल दी थी। लेकिन... लेकिन मुझे क्यों विश्वास नहीं हो रहा है कि तुम मजाक कर रही थी मेरे साथ? अब भी मुझे लगता है कि तुम, तुमने तब सब कुछ सही कहा था।"

"पागल हो जाऊँगी तुम्हारे साथ रहकर।" देवली झल्ला उठी।

प्रेम ने देवली को देखा। वह व्याकुल सा लगा।

"ठीक है। तुम्हें ऐसा लगता है तो मैं चली जाती हूँ। मैं...।"

"नहीं देवली। ऐसा मत कहो। तुम कहीं नहीं जाओगी। यहीं रहो मेरे पास।" प्रेम ने उसकी तरफ हाथ बढ़ाया।

देवली ने मुस्कुराकर उसका हाथ थाम लिया। फिर सिर आगे करके धीमे स्वर में कह उठी-

"एक बात बताऊँ?"

"क्या?" प्रेम ने देवली को देखा।

"मैंने जूस में तुम्हें जहर दे दिया है, तुम मरने वाले हो।"

प्रेम बुरी तरह बड़बड़ा उठा। उसने देवली को देखा। देवली मुस्कुरा रही थी। प्रेम भी मुस्कुरा पड़ा।

"मजाक कर रही हो?" प्रेम हँस पड़ा।

देवली भी हँस पड़ी। तभी प्रेम के चेहरे के रंग बदले। छाती में दर्द सा हुआ। हाथ दिल पर गया। फिर सब कुछ शांत पड़ता चला गया। आँखें बंद हो गयी थीं। दिल की धड़कने थम चुकी थीं। जहर ने अपना असर दिखा दिया था। चेहरा इस तरह शांत था कि जैसे प्रेम गहरी नींद में सो चुका हो। सब कुछ सामान्य सा तो लग रहा था।

"जहर दिया है, बताया भी।" देवली बड़बड़ाई, "ऊपर से कहता है कि मैं मजाक कर रही हूँ क्या।"

देवली कुर्सी से उठी और टेबल की तरफ बढ़ गयी। वहाँ से कॉपी और पैन निकालकर, कॉपी का वह पेज खोला जिसपर उसने कुछ दिन पहले प्रेम से लिखवाया था। उस कॉपी को प्रेम के हाथ के नीचे वही पेज को खोलकर रखा और पैन हाथ में थमा दिया। उसके बाद दरवाजे के पास जाकर ऊँचे स्वर में बोली-

"हरिया, हरिया! देखना तो अचानक मालिक को क्या हो गया है। कुछ बोल नहीं रहे।"

■■■

बंगले पर पुलिस ही पुलिस थी। जैसलमेर की बड़ी हस्ती की मौत जो हो गयी थी। जबकि कुछ दिन पहले ही शनिका की मौत हुई थी।

पुलिस के साथ आये डॉक्टर ने चेक करके बताया कि प्रेम की मौत हार्टफेल से हुई है। फिर भी पुलिस ने संदेह के दायरे में, प्रेम की मौत को लेते हुए उसके शरीर का पोस्टमार्टम करने का विचार ले लिया।

देवली ए०सी०पी० के पास पहुँची और कह उठी-

"ए०सी०पी० साहब, मैं प्रेम की साली देवली हूँ!"

"साली?"

"जी हाँ! प्रेम साहब की पहली पत्नी वामा की बड़ी बहन।"

"लेकिन हमें तो पता चला है कि आप यहाँ नौकरानी हैं।"

"आप ठीक कह रहे हैं। प्रेम साहब ने मुझे कह रखा था कि अभी मैं यह सच किसी को न बताऊँ। इसलिए कोई नहीं जानता कि मैं प्रेम साहब की साली हूँ। मेरे पास इस बात के ढेरों सबूत हैं कि मैं प्रेम साहब की पहली पत्नी वामा की बहन हूँ।"

"समझ गया। जब जरूरत पड़ेगी तो मैं आपको सबूत पेश करने को कह दूँगा।"

"लेकिन अब मेरे पेट में प्रेम साहब का बच्चा पल रहा है।" देवली बोली।

"ओह!" ए०सी०पी० ने गहरी निगाहों से देवली को देखा।

"मैं चाहती हूँ कि प्रेम साहब का डी०एन०ए० और ब्लड सैंपल के अलावा,जरूरत की हर चीज सुरक्षित रख ली जाए जिससे कि मैं यह साबित कर सकूँ कि मेरे बच्चे का पिता प्रेम ही है। मेरा बच्चा ही इस सारी दौलत का वारिस है।"

ए०सी०पी० मुस्कुराया।

"समझ गया। सब समझ गया। मुझे क्या मिलेगा आपका साथ देने के लिए?"

"मैं जो कह रही हूँ, वह शत-प्रतिशत सच है। फिर भी आप जो चाहते हैं वह आपको मिल जाएगा।"

"प्रेम साहब की जायदाद बहुत बड़ी है मैडम।"

"एक करोड़ आपको दूँगी। लेकिन सब काम हो जाने के बाद।" देवली ने कहा।

"मंजूर है। लेकिन पुलिस इस तरह किसी का डी०एन०ए० सुरक्षित नहीं रख सकती। इसके लिए आपको कोर्ट में अर्जी लगानी होगी। कुछ कानूनी कार्यवाही है, वह पूरी करनी पड़ेगी। लेकिन आपको परेशान होने की जरूरत नहीं। मैं अभी वकील को बुला देता हूँ। उससे फीस तय कर लीजिएगा। बाकी बातें मैं उसे समझा दूँगा।" ए०सी०पी० ने कहा।

"शुक्रिया!"

"शुक्रिया उस एक करोड़ को दीजिए। जो मुझे सही रास्ते पर ले आया।" ए०सी०पी० ने मुस्कुराकर कहा।

■■■

ढेड़ साल बाद।

उस दिन मौसम बहुत सुहावना था। गहरे काले बादल आसमान में छाए हुए थे। ठंडी हवा चल रही थी। दो दिन पहले ही रिम-झिम बरसात होकर थमी थी। बाजार में अच्छी-खासी रौनक थी।

देवराज चौहान और जगमोहन कल ही जैसलमेर में पहुँचे थे। थोड़ा सा काम था। आज उन्हें वापस जाना था परन्तु मौसम सुहावना हो जाने की वजह से जगमोहन ने एक दिन रुकने का इरादा कर लिया।

देवराज चौहान तो होटल में ही रहा परन्तु जगमोहन नहा-धोकर तैयार होकर बाहर आया और पास ही बाजार में टहलने निकल गया। सुहावने मौसम की वजह से उसका मन खुश था। बाजार में भी चहल-पहल बहुत थी।

तभी उसके कदम ठिठक गए। आँखों में हैरानी उभरी। वह धोखा नहीं खा रहा था। सामने अजय वालिया ही था। उसने गोद में सात-आठ महीने का बच्चा उठा रखा था। रह-रह कर बच्चे को चूम भी लेता था।

जगमोहन तेजी से आगे बढ़ा और वालिया के पास जा पहुँचा।

"तुम यहाँ?" जगमोहन कह उठा।

वालिया ने उसे देखा तो सकपका उठा।

"तुम?" अजय वालिया के होंठों से निकला 

"शुक्र है, तूने पहचान तो लिया।" जगमोहन ने उसे सिर से पाँव तक देखते हुए कहा, "ऐश हो रही है।"

"ऐश?" वालिया अभी तक इस बात को पचा नहीं पाया था कि जगमोहन से उसकी मुलाकात हो गयी है।

"और क्या! पैंटालून की पैंट पहन रखी है। सात-साढ़े सात हजार में आती है ऐसी पैंट। मैंने भी ले रखी है और ग्रे शेड कम्पनी की कमीज पहनी है जो कि साढ़े तीन हजार से कम नहीं है।" जगमोहन के होंठ सिकुड़ गए, "हमारी लुटिया डुबोकर खुद ऐश कर रहा है। 482 करोड़ की ठोक डाली हमारी। ऊपर से छः की छः जमीनें दान देकर, तू महादानी बन गया। उसके बाद तू गायब हो गया। डेढ़ साल बाद अब देखा तो तगड़ी ऐश में दिखा तू।"

"वह... वह...।"

"मेरे नोट निकाल।"

"नोट?"

"482 करोड़। तू यहाँ छिपकर ऐश कर रहा है। सोचा होगा कि हमसे मुलाकात नहीं होगी। देवराज चौहान भी है मेरे साथ।"

"देवराज चौहान?" वालिया के चेहरे पर हड़बड़ी के भाव उभरे। उसने आस-पास देखा, "कहाँ है?"

"होटल में। पहले यह बता कि तूने हमसे गड़बड़ कैसे की, कैसे मूर्ख बनाया?"

"गड़बड़? मूर्ख?" वालिया ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी, "मैंने ऐसा कुछ नहीं किया।

"देख, झूठ मत बोल।"

"मैं सच कह रहा हूँ।" वालिया घबराया सा लगा।

"तेरी हालत बता रही है, तू ऐश कर रहा है और...।"

तभी एक युवती पास आ पहुँची।

"मालिक, बच्चा मुझे दे दीजिए।"

"मालिक?" जगमोहन ने नौकरानी को देखा जो कि कीमती कपड़े पहने थी।

वालिया ने जल्दी से बच्चा नौकरानी को दिया।

"तुम जाओ!"

"मेम साहब आपको बुला रही हैं। छोटू के लिए उन्होंने कुछ कपड़े पसंद किये हैं।" नौकरानी बोली।

"तुम जाओ। आता हूँ।"

"तू मालिक बना घूम रहा है हमारी 482 करोड़ ठोंक कर।" जगमोहन ने समझने वाले ढंग से गर्दन हिलाई, "तू फिर से मालिक बन गया। शादी भी कर ली। बच्चा भी हो गया। और यह सब मेरे पैसे का चमत्कार है।"

"नहीं।" वालिया के होंठों से निकला।

"झूठ बोला तो गोली मार दूँगा।"

"तुम्हारा पैसा नहीं है यह। वो... वो सब तो बर्बाद हो गया था।" वालिया ने व्याकुलता से कहा।

"और ढेड़ साल में तू फिर से अमीर बन गया। तेरी लॉटरी निकल गयी।"

"यह... यह बात नहीं है। मैंने शादी कर ली।"

"वह तो सब करते हैं।"

"मेरी बीवी का बच्चा बहुत बड़ी अरबों की दौलत का वारिस है।"

"तेरी बीवी का बच्चा? सीधा क्यों नहीं कहता कि तेरा...।"

"वह मेरा बच्चा नहीं है।" वालिया उसकी बात काटकर कह उठा।

"तेरी बीवी का बच्चा, तेरा नहीं है?" जगमोहन कड़वे स्वर में बोला।

"नहीं! वह प्रेम का है।"

"और बीवी तेरी है वह?"

"ह... हाँ!"

"साले, बोत मारूँगा अगर मेरे सामने उड़ने की कोशिश...।"

"उड़ कहाँ रहा हूँ, सच कह रहा हूँ।" वालिया ने खीज भरे स्वर में कहा।

जगमोहन ने उसे घूरा।

"कसम से।" वालिया हड़बड़ाए स्वर में बोला, "सच कह रहा हूँ, मैंने देवली से शादी की है। शादी से पहले उसने प्रेम के बच्चे को जन्म दिया। जो कि कानूनी दाँव-पेंच के बाद प्रेम का वारिस घोषित हो गया। तब मैंने देवली से शादी कर ली। प्रेम का हार्टफेल हो गया था बच्चा पैदा होने से पहले ही। अब मैं, देवली और बच्चा प्रेम के उसी बंगले में रहते हैं। जब बच्चा 18 का हो जाएगा तो अपना सब कुछ वह सम्भाल लेगा। हम तो उसके ट्रस्टी बने हुए हैं।"

"तो यूँ कहो कि पतीले में दूध है, और तुम दोनों दूध के ऊपर मलाई चाट रहे हो। जब बच्चा 18 का हो जाएगा तो मलाई तो दूर, दूध भी दो-चार चम्मच ही बचेगा।"

वालिया सकपकाया।

"ला... निकाल।"

"क्या?"

"मेरा 482 करोड़।"

"मेरे पास कहाँ हैं। मैं तो फक्कड़ हूँ। देवली के पास भी नहीं है। जब तक बच्चा 18 का...।"

"मुझे बेवकूफ मत बना। 482 करोड़, 282 करोड़ या 182 करोड़ कुछ तो दे। 82 ही दे दे।"

"न... हीं है मेरे पास।"

"तू सीधी तरह नहीं मानेगा।" जगमोहन ने उसे घूरा।

"यकीन मानो जगमोहन, मेरे पास कुछ नहीं है जो राहत के तौर पर तुम्हें दे सकूँ।" वालिया ने विवश स्वर में कहा, "होता तो तुम्हें देने में खुशी होती। सोचता कि कुछ तो बोझ उतरा सिर से, परन्तु कुछ है ही नहीं देने को।"

जगमोहन उसे देखता रहा।

"कसम से कुछ नहीं है।" वालिया ने ढीले स्वर में कहा, "बस मौज-बहार है। खुला खाना-पीना है। बड़े बंगले में रहना है। बड़ी-बड़ी कारों में घूमना। नौकर-चाकर, जैसलमेर में इज्जत है। कमी किसी चीज की नहीं। परन्तु कैश जेब में नहीं है।"

"सच कहता है तू?"

"तेरी कसम, देवराज चौहान की कसम। तेरे से झूठ बोलकर मैंने मरना है क्या?"

तभी सामने की दुकान से देवली निकलकर पास आ पहुँची।

"मैं तुम्हारा इंतजार कर रही हूँ अजय। मैंने कुछ कपड़े पसन्द किये हैं, वह देखो और...।" कहते-कहते देवली जगमोहन को देखकर ठिठकी।

जगमोहन ने उसे देखकर गहरी साँस ली।

खूबसूरत, सजी हुई। होंठों पर लिपस्टिक। कानों में झुमके लटक रहे थे। चेहरे पर हल्का मेकअप था। माँग में सिंदूर की लम्बी रेखा नजर आ रही थी। इस सुहावने मौसम में पीले रेशम के कपड़े डाल रखे थे। चाँद का खूबसूरत टुकड़ा लग रही थी वह। ऐसा टुकड़ा जो चाँद से टूटकर धरती पर आ पहुँचा हो।

"द... देवली! इससे मिलो, यह जगमोहन है। म... मेरा पार्टनर था।" वालिया जल्दी से बोला।

"पार्टनर?" देवली की आँखों में उलझन के भाव उभरे।

"मुम्बई में, कंस्ट्रक्शन के काम में।"

"ओह!" देवली ने शराफत से जगमोहन को हाथ जोड़कर नमस्ते किया।

"इसका भी बहुत नुकसान हुआ था। 482 करोड़ लगा था, उन तबाह होने वाली इमारतों में।" वालिया बोला।

"सुनकर दुख हुआ।"

"अब यह कह रहा है कि इसे कुछ दूँ ताकि इसका नुकसान पूरा हो।" वालिया मुँह लटका कर बोला।

"दे दो...।" देवली ने सहज स्वर में कहा।

"कहाँ से दूँ?"

"मैंने सोचा तुम्हारे पास है। तुम देने जा रहे हो।" देवली ने गहरी साँस ली।

वालिया ने जगमोहन को देखा।

"कुछ होता तो मैं तुम्हें जरूर देता जगमोहन। तुम्हारा नुकसान तो मेरे पर बोझ है जैसे।" वालिया कह उठा।

जगमोहन के चेहरे के भाव से लग रहा था कि अगर उसके हाथ में डंडा होता तो वह उसे वालिया के सिर पर मारता।

"चलो भी।" देवली वालिया का बाँह पकड़कर दुकान की तरफ बढ़ी, "कपड़े पसन्द कर लो छोटू के। मैंने दो सूट पसंद किए हैं। तुम्हें भी वह पसंद आयेंगे।"

"मैं तुमने फिर मिलूँगा जगमोहन।" उधर देवली उसे दुकान की तरफ ले जा रही थी, "मुम्बई आऊँगा तुमसे मिलने।"

जगमोहन वहीं खड़ा वालिया को तब तक देखता रहा जब तक देवली उसे खींचती दुकान में नहीं ले गयी।

"तेरे तिलों का तेल खत्म हो गया वालिया। तू ऐश तो कर रहा है लेकिन तेरी ऐश में अब वह मजा नहीं जो पहले हुआ करता था। मुझे तो लगता है तेरी चाबी इस औरत के हाथ में है। तू फालतू कुत्ता बनकर रह गया लगता है।" जगमोहन बड़बड़ाया और पलटकर बाजार में आगे बढ़ता चला गया।

"यह कहाँ मिल गया तुझे?" दुकान के भीतर पाकर देवली ने वालिया से पूछा।

"वहीं मिला, जहाँ तुमने देखा था।" वालिया ने गहरी साँस ली।

"शक्ल से तो शरीफ लग रहा था। परन्तु हरामी लगा मुझे।" देवली बोली।

"वह जगमोहन है। खतरनाक आदमी। तुमने डकैती मास्टर देवराज चौहान का नाम तो सुना होगा?"

"देवराज चौहान? हाँ, अखबार में पढ़ा था। वह तो बहुत बड़ा डकैती मास्टर है।"

"यह जगमोहन उसी का साथी है। देवराज चौहान भी जैसलमेर में है। जगमोहन ने बताया था अभी।"

"अब हम किसी मुसीबत में नहीं फँसता चाहते। पहले ही बहुत कुछ सहा है। यहाँ से सीधा बंगले पर चलो। कुछ दिन बंगले से हम बाहर नहीं निकलेंगे। तब तक यह लोग जैसलमेर से चले जायेंगे।" देवली ने कहा।

"यह ठीक रहेगा।"

"अजय!" देवली ने वालिया का हाथ पकड़कर मुस्कुराकर कहा, "एक खुशखबरी तुम्हें बतानी है, सोचती हूँ, बता ही दूँ।"

"क्या?"

"मैं तुम्हारे बच्चे की माँ बनने वाली हूँ।"

"सच?" वालिया का चेहरा खुशी से भर गया, "मैं... मैं पिता बनूँगा। मेरा बच्चा जन्म लेगा।"

और देवली मुस्कुराते हुए वालिया के चेहरे को देखने लगी।

समाप्त