उपसंहार

देर रात गये एडवोकेट गुंजन शाह के आफिस में खुशगवार मीटिंग का माहौल था जिसमें खुद शाह के अलावा पीडी शेखर नवलानी, पत्रकार पंकज झालानी, सुष्मिता और जीतसिंह शामिल थे।
‘‘मुझे खुशी है’’—शाह सन्तुष्ट स्वर में बोला—‘‘कि इंसाफ की जीत हुई, कोर्ट में सत्यमेव जयते का परचम लहराया और उसमें मैं भी निमित्त था ।’’
‘‘आप ही निमित्त थे, शाह साहब ।’’—नवलानी बोला—‘‘आप न होते तो कुछ न होता ।’’
‘‘आप ही का जहूरा था’’—झालानी बोला—‘‘बाकी तो तमाम घास कूड़ा था ।’’
‘‘थैंक्यू! थैंक्यू!’’—शाह खुशी से दमकता बोला—‘‘मैडम सोमवार हैं लेकिन फिर भी मैं इन्हें बधाई देने से खुद को रोक नहीं सकता। कांग्रेच्यूलेशंस, मैडम मनीबैग्स!’’
सुष्मिता संकोचपूर्ण भाव से मुस्कराई।
‘‘जिस फैमिली का आप को बीवी का दर्जा न पाने देने के लिये एड़ी चोटी का जोर था वो अब जेल जाने से बचने के लिये कोई भी कम्प्रोमाइज करने के लिये तैयार है, आप के पाँव तक पकड़ने को तैयार हैं ।’’
‘‘सव्र्ड दैम राइट ।’’—नवलानी बोला—‘‘गुरूर का सिर नीचा, मगरूर का मँुह काला, जुल्म और जालिम का निकला दीवाला ।’’
‘‘भई, वाह! अपना पीडी तो शायरी करने लगा!’’
सब हँसे।
सुष्मिता और जीतसिंह भी। सुष्मिता झिझकती सी, जीतसिंह साथियों का साथ देने की जिम्मेदारी मान के।
बाजरिया नवलानी जीतसिंह बाकी की फीस अदा कर चुका था।
‘‘सर’’—सुष्मिता बोली—‘‘अब मैं आपकी फीस बहुत जल्द चुकता कर दूँगी ।’’
‘‘जरूरत नहीं ।’’—शाह बोला—‘‘समझो मेरी फीस मेरे को मिल चुकी ।’’
‘‘मिल चुकी!’’—सुष्मिता की भवें उठीं।
‘‘समझो भी तो बोला!’’
‘‘ओह! लेकिन...’’
‘‘नो लेकिन। अब फीस का नाम न लेना। माई डियर, डोंट ब्रेक युअर प्रेटी हैड ओवर पैटी मैटर्स ।’’
‘‘पैटी मैटर्स! दस लाख की फीस...’’
‘‘इन कैश आर इन काइन्ड बोला न मैं! फीस लायर और क्लायन्ट के बीच का मसला है, प्राइवेट मसला है, प्राइवेटली सैटल करेंगे न!’’
‘‘आप की माया आप ही जानें ।’’
‘आई एग्री विद यू वन हण्ड्रड पर्सेंट। मेरी माया मैं ही जानूँ ।’’
सुष्मिता खामोश हो गयी।
‘‘तो’’—झालानी बोला—‘‘मकतूल के मैनेजर देवकी नन्दन तिवारी की कोर्ट में सडन, अनएक्सपेक्विड हाजिरी से केस ने पलटा खाया!’’
‘‘माई डियर’’—शाह बोला—‘‘केस तो तभी पलटा खा चला था जब मैं मीरा किशनानी की परजुरी को एक्सपोज करने में कामयाब हो गया था लेकिन यूँ समझो कि तिवारी की अप्रत्याशित हाजिरी ने फैमिली के केस का किला ढाने में आखिरी, डिसाइडिंग वार किया था।’’
‘‘पहँुच कैसे गया कोर्ट में?’’
‘‘कहता है जब से उसे मुम्बई से पलायन कर जाने का हुक्म हुआ था, वो बेचैन था। इस सिलसिले में इन्स्पेक्टर देवताले की धमकी की तलवार उसके सिर पर लटकी हुई थी कि फौरन वो मुम्बई छोड़ कर गायब न हुआ तो उसका अंजाम बुरा होगा। अपना बुरा अंजाम वो नहीं चाहता था इसलिये हुक्म के मुताबिक नौकरी छोड़ गया, सिवरी का घर बार छोड़ गया लेकिन मुम्बई से कूच उसने न किया। कहता था छुप कर रहने लगा था लेकिन केस की हर डवैलपमेंट की जानकारी निकालने की अपनी कोशिश करता रहा था। पढ़ा लिखा, समझदार, तजुर्बेकार आदमी था इसलिये जानता था कि केस का सारा दारोमदार इस बात पर था कि उसके एम्पलायर ने, मकतूल पुरसूमल चंगुलानी ने, सुष्मिता से शादी की थी या नहीं की थी। वो शादी का गवाह था और मालिक का वफादार था लेकिन, कहता है कि, खामखाह कहीं भी, कभी भी उस बाबत मँुह फाड़ता तो अपनी मौत को दावत देता। वो मुनासिब मौके की ताड़ में था जो कि उसे तब मिला जब कि आज केस ट्रायल कोर्ट में लगा। वो शुरू से ही कोर्ट में मौजूद था, इस मजबूत इरादे के साथ मौजूद था कि उसने शादी के गवाह के तौर पर कोर्ट में पेश हो के रहना था। उसने गवाही दी और शादी को मोहरबन्द कर दिया। एक बार जज को शादी की बात कबूल होने की देर थी कि बाकी की बातें वैसे ही उथली, बनाई हुई, सुष्मिता पर प्रेशर बनाने के लिये गढ़ी हुई लगने लगीं। सुष्मिता बीवी साबित हो गयी तो उसके लिव-इन कम्पैनियन होने का कोई मतलब ही न रहा। इसी बात ने उस पर लगे चोरी के इलजाम की बुनियाद भी खिसका दी। जज ने फैमिली को भरपूर फटकार लगाई और हर मेम्बर पर परजुरी का, झूठी गवाही देने का, सुष्मिता के खिलाफ चोरी का नकली केस खड़ा करने का केस दर्ज करने का हुक्म सुनाया। उसने खुद मुम्बई के पुलिस कमिश्नर के लिये हुक्म सुनाया कि कोलाबा थाने के करप्ट एसएचओ चन्द्रकान्त देवताले को तुरन्त बर्खास्त किया जाये और उस पर विभागीय ही नहीं, कानूनी कार्यवाही भी शुरू की जाये ।’’
‘‘आपकी जानकारी के लिये’’—झालानी बोला—‘‘पुलिस की बड़ी किरकिरी हुई है, उन की छवि बुरी तरह से धूमिल हुई है कि महकमे के एक इन्स्पेक्टर ने बेगुनाह लोगों के खिलाफ कत्ल का झूठा केस खड़ा किया और, पुलिस का पीआरओ कहता है कि, हद तो तब कर दी जब कि एक सस्पैक्ट के खिलाफ—जीतसिंह के खिलाफ—बीस हजार रुपये के ईनाम की भी घोषणा करा दी ।’’—वो जीतसिंह की तरफ घूमा—‘‘निश्चिन्त हो जाओ। अब तुम्हारे खिलाफ कोई केस नहीं है...’’
जीतसिंह ने कृतज्ञ भाव से सहमति में गर्दन हिलाई।
‘‘...दिस इज राइट फ्राम हार्सिज माउथ ।’’
‘‘जी!’’
‘‘जायन्ट कमिश्नर ने खुद इस बाबत एक प्रैस नोट जारी किया है ।’’
‘‘ओह! लेकिन, साहब, कत्ल के राज पर तो अभी भी पर्दा पड़ा है!’’
‘‘नहीं पड़ा ।’’—शाह बोला—‘‘अब वो पर्दा उठ चुका है। जब तमाम पर्दे उड़ गये तो वो कैसे बचा रहता!’’
‘‘कौन था कातिल?’’
‘‘माई डियर’’—शाह झालानी से बोला—‘‘मैं बताऊँ या तुम बताओगे?’’
‘‘आप बताइये, सर ।’’—झालानी बोला—‘‘दरबार आपका है, शमयेमहफिल आप हैं, आप बताइये ।’’
‘‘आर्थर फिंच। लन्दन के उस कैसीनो का एनफोर्सर जिसका मकतूल का छोटा बेटा अशोक चंगुलानी छ: लाख डालर का, पाँच करोड़ रुपये का, कर्जाई था। ये एक अच्छा इत्तफाक साबित हुआ कि वक्त रहते मैंने उसकी गिरफ्तारी की जरूरत की दुहाई दी थी और ये और अच्छा इत्तफाक था कि पुलिस ने मेरी दुहाई पर अमल करने में वो कोताही नहीं दिखाई थी जिसकी कि वो आदी है। वो हाथ से निकल ही गया था जब कि पुलिस ने सहर एयरपोर्ट से उसे गिरफ्तार किया था। वो चैक-इन कर चुका था, बोर्डिंग पास हासिल कर चुका था, ब्रिटिश एयरवेज की फ्लाइट में जा कर बैठ चुका था जबकि पुलिस ने उसे थामा था ।’’
‘‘उसने अपना गुनाह कुबूल किया?’’—नवलानी ने पूछा।
‘‘न करने का कोई मतलब ही नहीं था, क्योंकि खुद अशोक चंगुलानी उसके खिलाफ अहम और मजबूत गवाह था ।’’
‘‘कत्ल का गवाह?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘वो कैसे?’’
‘‘फिंच ने खुद, अपनी जुबानी, अशोक के सामने कबूल किया था कि उसने उसके पिता का कत्ल किया था, कार इलाके के नोज कारजैकर्स के हवाले कर दी थी और मकतूल के पास जो स्टोर की सेल की रकम थी, उसे खुद डकार गया था। गिरफ्तारी के वक्त वो रकम उसके पास से बरामद हुई थी जो कि उसने पाउण्ड में—कोई सत्ताइस हजार पाउण्ड में—तब्दील कर ली हुई थी ।’’
‘‘उसने कत्ल क्यों किया?’’
‘क्योंकि कत्ल करना, अंग-भंग करना, उसका कारोबार था। सब्जेक्ट को फोर्स करना उसका बिजनेस था, इसीलिये एनफोर्सर कहलाता था। कैसीनो के बासिज की अशोक के मामले में उसे स्पष्ट हिदायत थी कि या तो वो वसूली करे या उसे इलीमिनेट कर दे। मुम्बई आकर फिंच को जब पता लगा था कि अशोक मल्टीमिलिनेयर बाप का बेटा था और उसका वारिस था तो उसे बेटे की जगह बाप का कत्ल करना ज्यादा मुफीद जान पड़ा था। एक कत्ल तो हुक्म के मुताबिक उसने करना ही था। बेटे का करता तो रकम हमेशा के लिये डूूब जाती, बाप का करता तो बेटा विरसे से इतना अमीर बन जाता कि आसानी से कर्जा चुका देता। यही उसने किया और जो किया, उसे बेटे से छुपाया भी नहीं क्योंकि अब उसे इन्तजार था अशोक के हाथ बाप की दौलत आने का और उसमें से कैसीनो के कर्ज की अदायगी का ।’’
‘‘लेकिन’’—सुष्मिता बोली—‘‘कत्ल तो घर के एक कीमती, एक्सक्लूसिव कटलरी सेट के एक नग से हुआ बताया जाता था! मर्डर वैपन तो उस सैट का एक कार्विंग नाइफ था। वो फिंच के हाथ कैसे लगा?’’
‘‘नहीं लगा ।’’—शाह बोल—‘‘ये महज इत्तफाक था कि जिस छुरी को फिंच ने मर्डर वैपन के तौर पर इस्तेमाल किया था, यानी इस काम के लिये जो हथियार उसके हाथ लगा था, वो चंगुलानी हाउसहोल्ड के फैंसी कटलरी सैट से मिलता जुलता था, इतना कि उसी का हिस्सा जान पड़ता था। लिहाजा जब पुलिस के जासूसों को पता चला कि हाउसहोल्ड के कटलरी सैट में से एक ऐन वैसा कार्विंग नाइफ गायब था तो उन्होंने सहज ही मर्डर वैपन को वो गायबशुदा नाइफ समझ लिया ।’’
‘‘लेकिन घर की कटलरी में से एक नग गायब तो था! अगर वो मर्डर वैपन नहीं था तो वो क्यों गायब था?’’
‘‘क्योंकि गायब किया गया। एक खास मकसद से गायब किया गया। तब गायब किया गया जब ये बात बाजरिया मीडिया आम हो गयी कि मर्डर वैपन कैसा था ।’’
‘‘आप का मतलब है’’—झालानी बोला—‘‘घर की कटलरी का नग कत्ल के बाद गायब किया गया था!’’
‘‘ऐग्जैक्टली। तभी तो मालूम पड़ता कि सिक्स्टी पीसि़ज कटलरी सैट का कौन सा नग गायब करना था!’’
‘‘किसने किया?’’
‘‘ये भी कोई पूछने की बात है! जाहिर है कि अशोक ने किया ।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘केस में पेच डालने के लिये। उसने सोचा—नाजायज सोचा लेकिन सोचा—कि मरने वाला तो मर गया, उसकी उस हरकत से अगर इलजाम किसी और पर—सुष्मिता पर—पास आन होता था तो क्या हर्ज था उस पर अमल करने में!’’
‘‘ओह!’’
‘‘अशोक ने’’—नवलानी ने पूछा—‘‘ये बात कबूल की है कि घर की छुरी उसने गायब थी?’’
‘‘हाँ, की है ।’’
‘‘फिर तो उसका अंजाम बुरा होगा। बाकी षड्यन्त्रकारियों से ज्यादा बुरा होगा ।’’
‘‘क्यों भला? वो घर का मालिक है, घर की एक शै उससे इधर उधर हो गयी तो क्यों बुरा होगा?’’
‘‘वो बोला क्यों नहीं कि आलायकत्ल घर की छुरी नहीं था?’’
‘‘क्यों कि किसी ने पूछा नहीं ।’’
‘‘ओह!’’
‘‘तुम पुलिस के किरदार को भूल रहे हो। जब वो पहले पैसे वाले के साथ थी—हमेशा समर्थ के साथ होती है—तो अब क्यों नहीं होगी! जब वो लोग ये सुझा सकते थे कि सुष्मिता को कैसे फंसाना है तो ये नहीं सुझा सकते कि अशोक को—बाकी फैमिली मेम्बर्स को—कैसे बचाना है!’’
‘‘ठीक!’’
‘‘इसी पर मुझे एक शेर याद आ रहा है ।’’—झालानी बोला—‘‘इजाजत हो तो अर्ज करूँ?’’
‘‘इजाजत है ।’’—शाह शाहाना लहजे में बोला।
‘‘पुलिस का फर्जेसरकारी क्यामेअम्न है लेकिन, इसी की ड्यूटियाँ चार और भी हैं गैरसरकारी। हिफाजत डाकुओं की, सरपरस्ती बद्माशों की, रिहाई मुजरिमों की, बेकसूरों की गिरफ्तारी ।’’
‘‘वाह!’’—शाह बोला—‘‘किस का है?’’
‘‘मालूम नहीं ।’’
‘‘बहरहाल, कोई और शंका जिस का समाधान जरूरी हो?’’
‘‘नो, सर ।’’
‘‘दैन आई प्रोपोज दैट दिस मीिंटग मे बी कनक्ल्युडिड आन ए हैपी नोट। इस मीिंटग का समापन सैलीब्रेट कर के किया जाये ।’’
‘‘वो कैसे, सर?’’
‘‘ये’’—शाह ने दराज में से एक बोतल निकाल कर मेज पर रखी—‘‘जानीवॉकर ब्लू लेबल की एक बोतल है जो किसी मुनासिब मौके के इन्तजार में एक अरसे से यहाँ कैद है। मेरा खयाल है वो मुनासिब मौका आज आखिर आ गया है। आज हम इसे इसकी कैद से आजाद कर सकते हैं। जो साहबान सैलीब्रेशन के हक में हों, बरायमेहरबानी हाथ खड़ा करें ।’’
पीडी और रिपोर्टर ने तत्काल, नि:संकोच हाथ सिर से ऊँचे खड़े किये।
जीतसिंह ने भारी हिचकिचाहट के साथ—आखिर बड़े लोगों की महफिल थी—हाथ खड़ा किया।
सुष्मिता संकोच की प्रतिर्मूित बनी सिर झुकाये बैठी रही।
‘‘माई डियर’’—वकील उससे मुखातिब हुआ—‘‘प्लीज लुक ऐट मी।’’
सुष्मिता ने सप्रयास सिर उठाया।
‘‘इसका मतलब क्या मैं ये लगाऊँ कि तुम गुंजन शाह की खुशी से खुश नहीं! तुम इसे सैलीब्रेशन का मुद्दा नहीं मानतीं कि गुंजन शाह ने एक मेजर कोर्ट केस में अपनी जीत दर्ज की है! एक मुसीबतजदा हसीना को मुसीबत से निकाला है!’’
वो खामोश रही।
‘‘जवाब दो ।’’
सुष्मिता ने दिया—हाथ उठा कर।
जीतसिंह अपने विट्ठलवाडी के फ्लैट में था, तभी नहा धो कर हटा था, जबकि दरवाजे पर दस्तक पड़ी।
उसने दरवाजा खोला।
सामने सुष्मिता खड़ी थी।
‘‘तुम!’’—उसके मँुह से निकला—‘‘यहाँ!’’
‘‘आखिर ।’’—वो भीतर दाखिल होती बोली।
‘‘कैसे जाना?’’
‘‘तुम्हारे दोस्त गाइलो से जाना ।’’
‘‘उसका पता कैसे जाना?’’
‘‘टैक्सी ड्राइवर है, और ड्राइवरों से दरयाफ्त किया, कोई उसे जानता निकल आया। मुझे एलैग्जेन्ड्रा सिनेमा के टैक्सी स्टैण्ड पर ले कर गया तो वहाँ गाइलो था। उसने मेरे को ये पता बताया ।’’
‘‘उसे ऐसा नहीं करना चाहिये था ।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘तुम्हें यहाँ नहीं आना चाहिये था ।’’
‘‘भई, क्यों?’’
‘‘अब तुम्हारी हैसियत है, तुम्हारा रुतबा है, समाजी शान है...’’
‘‘वो सब तो पहले भी था!’’
‘‘बराबर था। तभी बोला मेरे जैसे हल्के, टपोरी लोगों में विचरना तुम्हें शोभा नहीं देता ।’’
‘‘मुझे क्या शोभा देता है, क्या नहीं देता, ये मैं सोचूं तो कैसा रहे!’’
जीतसिंह खामोश रहा।
‘‘मैं बैठ जाऊँ तो कैसा रहे!’’
‘‘ओह! सॉरी!’’
उसने कुर्सी पेश की।
‘‘तुम भी बैठो ।’’
जीतसिंह उसके सामने एक दूसरी कुर्सी पर बैठ गया।
‘‘मैंने तुम्हें तलाश किया’’—वो बोली—‘‘क्यों कि चिंचपोकली तो तुम लौटते नहीं—तुम्हारे से मिलने आयी, तुम्हें कोई खुशी नहीं हुई?’’
‘‘बहुत हुई। चींटी के घर भगवती के पाँव पड़े, खुशी क्यों न होगी?’’
‘‘ये नहीं पूछोगे मैं यहाँ क्यों आई हूँ?’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘नहीं?’’
‘‘क्योंकि कि मैं जवाब सुनने की ताब नहीं ला सकता। जवाब सुनना मेरे पर भारी पड़ सकता है ।’’
‘‘ये तुम्हें बिना जवाब सुने मालूम है?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘तुम्हारा खयाल गलत हो सकता है ।’’
‘‘हो सकता है लेकिन सही हुआ तो...प्राब्लम होगी ।’’
‘‘किसे?’’
‘‘मेरे को ।’’
‘‘फैंसी बातें करना बहुत सीख गये हो ।’’
‘‘फैंसी नहीं, मानखेज। सोचने विचारे लायक ।’’
‘‘क्या कहना चाहते हो?’’
‘‘देखो, बड़े आदमी की बीवी होना रुतबे का काम है तो बड़े आदमी की विधवा होना भी कम रुतबे का काम नहीं। अब तो तुम्हारा वो दर्जा कनफर्म भी हो गया है। फैमिली मेम्बर्स को कोई छोटी मोटी सजा भी हो गयी तो फिर वो विरसे में शरीक नहीं रहेंगे। क्योंकि बड़ा वकील कहता है कि कानून किसी को अपने ही क्राइम से फायदा उठाने की इजाजत नहीं देता। अभी तुम्हारी एक चौथाई की मिल्कियत पक्की है, तब पूरे विरसे की मालकिन बन जाओगी। अब तुम्हारी स्वर्गवासी बहन के लोनावला के स्कूल में पढ़ते बच्चे वहीं पढ़ेंगे क्योंकि अब उन की मौसी साहिबा-ए-जायदाद है। नहीं?’’
उसने जवाब न दिया।
‘‘अपनी बहन की औलाद को एक टपोरी की, मवाली की छत्रछाया में पलती देखना तुम्हें पहले गवारा नहीं था तो अब भी क्योंकर होगा! लिहाजा मैं तुम्हारे लिये, तुम्हारे भले के लिये, तुम से दूर भला ।’’
उसने अवाक् जीतसिंह की तरफ देखा।
‘‘तुम्हारे काबिल मैं पहले भी नहीं था लेकिन अब तो बिल्कुल ही नहीं हूँ ।’’
उसकी भवें उठीं।
‘‘तुम्हारे से लौ लगाने के बाद से पाँच बार डकैती में शामिल हो चुका हूँ, तेरह बार खून कर चुका हूँ। ऐसी फितरत बन गयी है कि नाहक खून करता हूँ, किसी को भी गोली मार देता हूँ। वही खिलौना तोड़ डालने का जुनून मुझ पर हावी रहता है जो मुझे खास पसन्द हो। मेरा कोई भविष्य नहीं, कभी पकड़ा गया और एक खून का जुर्म भी साबित हो गया तो फाँसी। मैं नहीं चाहता कि तुम्हें दो बार विधवा होना पड़े, इस वास्ते...’’
वो खामोश हो गया।
कई क्षण बोझिल खामोशी में गुजरे।
‘‘वैसे भी’’—आखिर जीतसिंह ने ही खामोशी भंग की—‘‘तुम्हारी मेहरबानी से औरत से प्यार पाने वाली मेरे भीतर की मशीनरी कंडम हो चुकी है ।’’
‘‘दिस इज’’—एकाएक वो भड़की—‘‘नानसेंस! शियर नानसेंस!’’
‘‘क्यों भला?’’
‘‘तुम्हारे ऐसे खयालात थे तो मेरी खातिर शाह की फीस क्यों भरी?’’
‘‘कौन कहता है मैंने भरी?’’
‘‘कोई नहीं कहता। तुम कहो तुमने नहीं भरी! नहीं तुमने दो किस्तों में उसे दस लाख रुपये अदा किये! कह सकोगे?’’
‘‘वो जुदा मसला है ।’’
‘‘तुम तो कहते थे तुम्हारे पास सिर्फ अस्सी हजार रुपये थे! इतना पैसा कहाँ से आया?’’
‘‘सारे मुल्क के लोग मेरे लिये कमाते हैं, किसी से भी माँग लेता हूँ।’’
‘‘वो दे देता है?’’
‘‘हाँ। खाली उसे पता नहीं लगता कि मेरे को दिया। लेकिन वो जुदा मसला है ।’’
‘‘नहीं है जुदा मसला ।’’
‘‘मैं सिरफिरा हूँ, बहुतेरे काम खामखाह करता हूँ। आदी डू-गुडर हूँ। सबाब कमाने का जुनून सवार रहता है मेरे सिर पर ।’’
‘‘बकवास! हकीकत ये है—जिसकी कि तुम पर्दादारी करना चाहते हो—कि आज भी तुम मेरे से उतना ही प्यार करते हो जितना हमेशा करते थे ।’’
‘‘ये मेरा निजी मामला है ।’’
‘‘प्यार दो जनों में होता है। वो एक जने का निजी मामला कैसे हो सकता है!’’
‘‘दो जनों का मामला है, या था, तो उसकी किसी शाख पर तमन्ना का कोई फूल कभी क्यों न खिला? दो दिल क्यों न यूँ धड़के कि आवाज एक निकलती जान पड़ती? उल्फत का रिश्ता लाख नाजुक हो लेकिन ये तार टूटता बहुत मुश्किल से है। पर तुमने तो जुड़ने ही न दिया। वादाखिलाफी से गुरेज न किया। शादी कर ली। एक गरीब का दिल जूती से मसला और आगे निकल गयीं। बात खत्म हो गयी। तुम्हारी तरफ से तो यकीनन खत्म हो गयी। जीतसिंह का क्या था! हुआ, हुआ; न हुआ, न हुआ। जिस दो जहाँ के मालिक ने जमीं बनायी, आसमां बनाया, वो मेरी बिगड़ी तो न बना सका!’’
‘‘तुम्हारा गिला गलत है। अभी भी कोई देर नहीं हुई। मैं खामखाह यहाँ नहीं हूँ। किसी मकसद से आयी हूँ। उसे समझो ।’’
‘‘क्या समझूँ? ये कि तुम दो जहाँ के मालिक की जगह लेना चाहती हो? मेरी बिगड़ी तकदीर संवारना चाहती हो? ऐसा है तो अभी इन्तजार करो। क्योंकि दिल अभी पूरी तरह नहीं टूटा। एक वादाशिकन औरत की कोशिश तो भरपूर थी लेकिन पूरी तरह नहीं टूटा। अभी और इन्तजार करो। फिर आना ।’’
‘‘हे भगवान! क्यों तुम्हारी जिद है तुम अपनी राह नहीं बदलोगे?’’
‘‘कहाँ है जिद! बदली तो है राह! कभी मेरा मंसूबा तुम्हारी कीमत अदा कर के—बड़ी से बड़ी कीमत अदा कर के, जिस को मुकर्रर करने की तुम्हें खुली छूट थी...’’
‘‘मैं एक शरीफ औरत हूँ, कैसे मैं...’’
‘‘मुझे शराफत से नफरत है। सारी दुनिया की शरीफ औरतें मेरी दुश्मन हैं। कहीं कोई इंसानियत बाकी है तो वो गिरी हुई औरतों में है। तुम तो ऐसी नहीं हो! तुम तो क्लीन हो, कुलीन हो, भगवती हो, सती नारी हो ।’’
वो पल्लू में मँुह छुपा कर सुबकने लगी।
‘‘बहरहाल मैं कह रहा था कि कभी मेरा मंसूबा तुम्हारी कीमत अदा करके तुम्हें हासिल करने का था। चिंचपोकली से लेकर कोलाबा तक तुम्हारे लिये सोने की सड़क बनाने का था लेकिन अब वो बात बेमानी हो गयी है। अब तुम एक धनाढ्य विधवा हो, पहले ही सोना सोना हो, जो औकात तुम्हारी जीता जीते जी न बना सका, वो पुरसूमल ने मर के बना दी। अब मेरे उस राह पर चलते रहने की कोई कीमत नहीं। अब तुम मेरी कन्ट्रीब्यूशन की तलबगार नहीं। अफसोस है कि अब मैं तुम्हें खरीद नहीं सकता ।’’
‘‘मुफ्त में हासिल कर सकते हो ।’’
‘‘मेरे में हजार खामियाँ हैं लेकिन मैं मुफ्तखोरा नहीं ।’’
‘‘तो अब?’’
‘‘अब वही जो दो मुख्तलिफ राहों के राहियों का नसीबा होता है। तुम अपनी राह लगो, मुझे अपनी राह लगने दो ।’’
‘‘ये तुम्हारा आखिरी फैसला है?’’
‘‘ये मेरा इकलौता फैसला है। गुडबाई मिसेज सुष्मिता चंगुलानी। आमद का शुक्रिया। नाचीज के लिए कभी कोई सेवा हो तो निसंकोच बोलना। मेरा मुकाम फिर चिंचपोकली होगा क्यों कि अब तुम वहाँ नहीं होगी ।’’
‘‘मैं क्या कहने आई थी और क्या सुन के जा रही हूँ!’’
‘‘आइये, मिसेज चंगुलानी, आपको बाहर तक छोड़ के आऊँ ।’’
सिर झुकाये, भारी मन से, भारी कदमों से चलती वो वहाँ से रुखसत हुई।
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