"यह सच है कि उस रात अपने अड्डे पर मिलने से पहले मैं ठाकुर निर्भयसिंह से कभी न मिली थी—हां, गुमटी में किए गए नरसंहार और बीस साल पहले दोनों डाकू दलों का सफाया करने के संबंध में उनका नाम जरूर सुना था।
मेरा आदर्श सुच्चाराम है।
और इसमें कोई शक नहीं कि मैं भी निर्भयसिंह से गुमटीवासियों और बंतासिंह जितनी नफरत करती थी—उनसे सुच्चाराम की मौत का बदला लेना चाहती थी।
उस रात जब भूल-भुलैया वाले सारे रास्ते पार करके वे मेरे अड्डे के बहुत नजदीक पहुंच गए तो मेरे साथियों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया—उनमें भी कुछ साथी उन्हें वहीं मार डालना चाहते थे, जबकि कुछ के दिमाग में यह सवाल उठा कि जिन रास्तों पर अच्छे-अच्छे धोखा खा जाते हैं, उन पर ये अजनबी इस तरह कैसे बढ़ रहा था, जैसे अक्सर आता-जाता रहा हो—यह सवाल जब उन्होंने ठाकुर साहब से पूछा तो उन्होंने इतना ही कहा कि फूलो से मिलना चाहते हैं और इस सवाल का जवाब उसी को देंगे।
कुछ साथियों ने जब मुझे खबर दी तो ये सुनकर दंग रह गई कि भूल-भुलैया वाले रास्ते को पार करने वाला ऐसा कौन अजनबी हो सकता है जिसे डाकू-दल में से कोई नहीं जानता—सो, उन्हें सख्त पहरे में अड्डे पर लाने का हुक्म लेकर वे लोग उन्हें ले आए।
शक्ल देखकर ऐसा जरूर लगा कि उन्हें पहले भी कहीं देखा है, मगर पहचान न सकी कि वह ठाकुर निर्भयसिंह हैं, क्योंकि निर्भयसिंह का मैंने सिर्फ फोटो ही देखा था। जब नाम पूछा तो उन्होंने अकेले में मुझसे चंद बातें करने की इच्छा जाहिर की। मैंने मान ली।
तन्हाई में पहुंचते ही उन्होंने कहा— 'हमारी शक्ल देखकर ऐसा जरूर लग रहा होगा फूलो, जैसे तुमने हमें कहीं देखा है। "
'हां।'
'तुमने हमें नहीं, सिर्फ हमारा फोटो देखा है।'
'क्या मतलब?'
उन्होंने एक झटके से कहा— 'हम सुच्चाराम के हत्यारे ठाकुर निर्भयसिंह हैं।'
'क...क्या?' बुरी तरह चौंककर मैंने होलस्टर से रिवॉल्वर निकाल लिया और गुस्से में भरी ट्रिगर अभी दबाने ही वाली थी कि बोले—'पहले पूरी बात सुन लो फूलो, उसके बाद जो तुम्हें अच्छा लगे, करना।'
'तू...तू यहां तक पहुंच कैसे गया कुत्ते?'
'यही तो सोचने वाली बात है।'
'मतलब?'
एक ठंडी सांस भरने के बाद उन्होंने कहा— 'मैं इस वक्त सिर्फ शक्ल से निर्भयसिंह हूं, मगर वास्तव में मेरा नाम सुच्चाराम है।'
'स...सुच्चाराम?'
'हां, मैं सुच्चाराम की आत्मा हूं और इस वक्त इस कुत्ते, मेरे हत्यारे निर्भयसिंह का जिस्म मेरे कब्जे में है और मैं इसके बीवी—बच्चों से बदला लेना चाहता हूं।'
मेरी खोपड़ी घूम गई। कुछ समझ में न आया।
हक्की-बक्की मैं ठाकुर निर्भयसिंह के चेहरे को देखती रह गई, जबकि हल्की-सी मुस्कान के साथ उन्होंने कहा—'तुम्हें मेरे कथन पर शायद यकीन नहीं आया फूलो?'
'म...मगर।'
मारे हैरत के मेरे मुंह से आवाज न निकल रही थी, जबकि उन्होंने आगे कहा— 'ये अड्डा, जहां इस वक्त तुम हो, आज से तीस साल पहले मेरा हुआ करता था—मैं सुच्चाराम ही हूं—क्या ये बात इससे साबित नहीं होती कि इन पहाड़ियों और भूल-भुलैया वाले रास्तों से मैं उतना ही परिचित हूं, जितनी तुम, बल्कि तुमसे भी कहीं ज्यादा।'
'त...तुम मुझे बेवकूफ बना रहे हो।'
'नहीं फूलो, मैं सच कह रहा हूं—इस बात के मैं और ढेर सारे प्रमाण दे सकता हूं कि मैं सुच्चाराम ही हूं।'
'कैसे प्रमाण?'
'तुम जानती हो कि निर्भयसिंह ने मुझे, मेरे गिरोह, मेरे बच्चे और मेरे घर को नेस्तनाबूद जरूर किया था, किंतु मेरे मकान पर—इस अड्डे पर उसने कभी कदम भी नहीं रखा, अतः वह इस अडडे की अंदरूनी भौगोलिक स्थिति से कभी वाकिफ नहीं हो सकता, जबकि मैं वाकिफ हूं। मैं तुम्हारे सामने इस अड्डे की समस्त भौगोलिक स्थिति बयान कर सकता हूं—सिर्फ इसलिए क्योंकि मैं निर्भयसिंह नहीं, उसके जिस्म में सुच्चाराम हूं।'
मैंने भौगोलिक स्थिति बयान करने के लिए कहा।
उन्होंने की।
इस हद तक कि मेरे छक्के छूट गए—वे अड्डे के उन गुप्त स्थानों के बारे में भी जानते थे, जिनके बारे में मेरे अलावा कोई नहीं जानता था। मैं हैरत से मुंह फाड़े उनकी तरफ देख ही रही थी कि उन्होंने सवाल किया— 'क्या तुम्हें अब भी यकीन नहीं आया?'
'क...क्या आपको कब्जा करने के लिए भी निर्भयसिंह का ही जिस्म मिला था?'
'हां।' एक झटके से, कुछ ऐसे अंदाज में कहा उन्होंने जैसे शेर गुर्राया हो—'मुझे इसी कुत्ते का जिस्म मिला, क्योंकि मैं इससे बदला लेना चाहता हूं—ऐसा भयंकर बदला कि दुनिया में पहले कभी किसी ने किसी से न लिया हो—इस सूअर के बच्चे ने मेरे घर को टाइमबम से उड़ा दिया फूलो! मेरे बीवी-बच्चे उसके मतलब में दबकर रह गए—इसने मुझे भी गोलियों से छलनी कर दिया—मैं मर गया, हां—इसके और दुनिया वालों की नजरों में सुच्चाराम मर गया, मगर नहीं—मैं मरा नहीं फूलो, मैं बदला लिए बिना नहीं मर सकता—इसने मेरा घर मलबे के ढेर में तबदील कर दिया, मेरे बच्चो को मार डाला—उनकी मौत का बदला लिए बिना सुच्चाराम मर नहीं सकता—इसलिए बिना जिस्म की मेरी रुह भटकती रही। प्रतिशोध की आग में सुलगता रहा मैं।'
यह सब कहते-कहते निर्भयसिंह का चेहरा इतना वीभत्स हो गया कि मुझे डर-सा लगने लगा—आंखें अंगारों की मानिंद दहक रही थीं। मैं अवाक् देख रही थी।
प्रतिशोध की आग में झुलसे वे कहते चले गए—'मैं मरा भले ही नहीं, मगर जिस दुनिया में पहुंच चुका था, उसके कुछ नियम होते हैं, रुहें किसी को परेशान तो कर सकती हैं मगर बिना शरीर धारण किए बदला नहीं ले सकतीं—बदला भी वैसा भयंकर, जैसा मैं चाहता था—निर्भयसिंह ने मेरे साथ गद्दारी की थी—धोखा किया था। आधे घंटे का कहकर बीस मिनट का टाइमबम लगाया था—इसी सबका बदला लेने के लिए मेरी रुह भटक रही थी —जीते-जागते इंसान के जिस्म पर कब्जा करना रुहों के वश में नहीं है, मगर मेरा मौका तब लगा जब डिक्की थाने में इसे सोता पाया—मैंने इसके जिस्म को अपने कब्जे में कर लिया—गुमटी में आकर ठाकुर शेरबहादुर और उसके परिवार की नृशंस हत्या की—वह मेरा दुश्मन था—उसी ने तो इस हरामजादे को मेरे घर का पता बताया था। मुझे गुमटी गांव के बच्चे-बच्चे से नफरत हो गई थी—अतः हर रात इस पापी के जिस्म पर कब्जा करके गुमटी में नरसंहार किया—हर रात अपना काम करके मैं इसे डिक्की थाने में सुला आता—सुबह उठने पर इसे कुछ याद न होता। याद तो तब होता जब अपनी जानकारी में इसने कुछ किया होता । इसे तो यही लगता कि रात को सोया था और अब नींद पूरी करके उठा है। ये कमीना क्या जान सकता था कि रात-भर इसके जिस्म को मैं कहां-कहां लिए फिरा।'
'म...मगर।' मैंने हिम्मत करके पूछा— 'इस काम के लिए आपने ठाकुर निर्भयसिंह का जिस्म ही क्यों चुना? जब आप सोते हुए किसी भी व्यक्ति के जिस्म पर कब्जा कर सकते थे तो ठाकुर निर्भयसिंह ही क्यों...?'
'हा...हा...हा! जरा-सा दिमाग लगाओगी तो समझोगी फूलो! दरअसल मैं अपने हत्यारे से ऐसा बदला लेना चाहता था कि दुनिया कांप उठे। मैंने सोचा कि गुमटी में नरसंहार करने के जुर्म में इस कुत्ते को फांसी पर चढ़ा दिया जाएगा। एस○ पी○ के रूप में जितनी ख्याति और इज्जत थी, वह सब धूल में मिल जाएगी।'
'ओह!'
'मैं ऐसा चाहता था मगर गुमटी के नामर्द गांव वालों ने इसकी शिकायत किसी से की ही नहीं और एक दिन यह गुमटी छोड़ गया। मैं छटपटाता रह गया। दरअसल रुहों की दुनिया के नियमों से बंधा मैं गुमटी से बाहर नहीं निकल सकता था—यह मेरी पहुंच से बाहर निकल गया—मैं यहीं, इसी इलाके में भटकता रह गया—मेरा प्रतिशोध पूरा नहीं हुआ था, सो मुक्ति न मिली—बीस साल से मैं यहीं भटक रहा हूं।'
'फिर?'
'सूअर के इस बच्चे की बदकिस्मती खींचकर इसे पुनः यहां ले आई—यह देखकर मैं झूम उठा कि इसके साथ इसकी बीवी, इसका बेटा, दामाद, बेटी और एक नाती भी था—असली प्रतिशोध लेने का दांव मेरा अब लगा था—जिसने मेरे बीवी-बच्चों को मार ड़ाला, उसके बीवी-बच्चे मेरी सीमा में थे, मगर मुझे इंतजार था इसके सोने का—जैसे ही ये बनवारी की झोंपड़ी में सोया, मैंने पुनः इसके जिस्म पर कब्जा जमा लिया। अदृश्य आत्मा के रूप में इन लोगों की प्राइवेट बातें सुनकर मैं इसके लड़के, नाती, बीवी, दामाद और इसके दोस्तों के बारे में वह सब जान गया जो खुद ये हरामजादा नहीं जानता—इतना मैं समझ चुका था कि अकेला चाहकर भी बदला नहीं ले सकता—सो, तेरी मदद लेने बनवारी की झोंपड़ी से निकल पड़ा—रास्ते में इसके लड़के ने मुझे रोकने की कोशिश की—मैंने ऐसा नाटक किया जैसे मैं निर्भयसिंह हूं और जब उसी की आवाज में उन सब रहस्यों से वाकिफ होने की बात कही, जिससे ये कमीना हरगिज वाकिफ नहीं है तो वह मेरी हत्या तक करने पर आमादा हो गया—मारना मैं भी उसे चाहता था मगर इतनी आसान मौत नहीं, इसीलिए गांव वालों के हुजूम से उसे बचने का मौका देकर मैं यहां, तेरे पास आया हूं।'
मेरा मस्तिष्क सांय-सांय कर रहा था। कुछ बोल न सकी।
वह दूर से दौड़कर आए किसी रीछ के समान हांफ रहा था। साहस करके मैंने पूछा— 'अ...अब आप मुझसे क्या चाहते हैं?'
'मदद।'
'कैसी मदद?'
'तू मुझे अपना आदर्श मानती है न?'
'हां।'
'मुझे अपने बीवी-बच्चे के दर्दनाक अंत का भयानक बदला लेना है। इसके बीवी-बच्चे के दिमाग की जड़ों को हिलाकर रख देना है—मेरे दिमाग में बदला लेने की एक स्कीम है। अगर तुम मदद करो तो मैं बदला ले सकता हूं।'
'अ...आप तो मेरे आदर्श हैं, मेरे सरदार हैं।'
'इसका मतलब, तुम तैयार हो?'
'आप हुक्म कीजिए, किस किस्म का बदला लेना चाहते हैं?'
'निर्भयसिंह के सभी सगे-संबंधियों के साथ गुमटी वालों को भी दुनिया के नक्शे से मिटा डालना मेरा उद्देश्य है और यह सारा काम मैं इसी कमीने के जिस्म से करना चाहता हूं—निर्भयसिंह बनकर, खुद को निर्भयसिंह कहकर जब मैं हरामजादे की बीवी को इसके बेटे, बेटी, दामाद और नाती के सामने बेइज्जत करूंगा, तो उनके दिमाग की जड़ें हिलकर रह जाएंगी। सोचेंगी कि ठाकुर निर्भयसिंह को ये हो क्या गया है?'
'फिर?'
'इससे ज्यादा महत्वपूर्ण ये है कि अपना उद्देश्य पूरा करने के बाद मैं खुद को निर्भयसिंह बताकर इस सूअर के बच्चे का जिस्म पुलिस के हवाले कर दूंगा—अदालत निर्भयसिंह को अपने बीवी-बच्चों का हत्यारा, बीस साल पहले गुमटी में किए गए नरसंहार और अब दुनिया के नक्शे से गुमटी का नाम मिटा देने का दोषी करार देकर इसकी उस सारी इज्जत को खाक में मिला देगी जो अपनी सारी जिंदगी में उसने कमाई है।'
'म...मगर उसके जुर्म में तो फांसी।'
'हां, फांसी—इस हरामजादे को फांसी के फंदे पर लटका देना ही तो मेरे प्रतिशोध की आखिरी कड़ी होगी।'
'क्या मतलब?'
'फांसी के फंदे पर झूलकर मैं नहीं मरूंगा फूलो। रुहें मरा नहीं करतीं, मुक्त होती हैं और इसके फांसी के फंदे पर झूलते ही मेरा प्रतिशोध पूरा हो जाएगा। मेरी भटकती रुह को सुकून मिल जाएगा। मरेगा ये हरामजादा निर्भयसिंह—मेरे बीवी-बच्चों का हत्यारा—यही मेरा प्रतिशोध होगा—निर्भयसिंह के बीवी-बच्चों की अपमान से भरी निर्मम मौत इसकी इज्जत का जनाजा और फिर, फांसी के फंदे से इसकी मौत।'
'यानि?'
'तुम किसी को नहीं बताओगी कि मैं निर्भयसिंह नहीं, बल्कि उसके जिस्म में सुच्चाराम हूं। अपने किसी साथी को भी नहीं, क्योंकि अगर ये राज कानून को पता लग गया तो शायद निर्भयसिंह के जिस्म को फांसी पर न लटकाया जाए और यदि ऐसा हो गया तो मेरा प्रतिशोध अधूरा रह जाएगा फूलो—यह राज तुम्हें गुप्त ही रखना होगा।'
'म...मै वही करूंगी, जो आप कहेंगे, मगर...।'
'मगर?'
'आपके रहते भला मैं गिरोह की सरदारी कैसे कर सकती हूं?'
'सरदारी हम करेंगे। तुम अपने साथियों को सिर्फ हुक्म दोगी—हम जानते हैं कि किसी में भी तुम्हारे हुक्म की वजह पूछने की ताकत नहीं है।'
¶¶
फूलवती चुप हो गई।
उसका बयान विजय, विकास सहित सभी ने स्तब्ध होकर सांस रोके सुना था। सभी इस कदर अवाक् रह गए कि तुरंत किसी के मुंह से बोल न फूटा। सभी हतप्रभ! उसका नाम विजय था, जिसने सबसे पहले स्वयं को निश्चित किया। बोला— "तो इस किस्से का मतलब ये हुआ रानी फूलवती कि सारी मुजरिमाना उखाड़-पछाड़ हमारे बापूजान ने नहीं, बल्कि उनके जिस्म के अंदर बैठे सुच्चाराम ने की थी?"
"हां।"
“मगर हमें पेड़ों पर लटकाकर रामकुमार से संबंधित जो कहानी सुनाई पड़ी थी?”
"वह सुच्चाराम ने खुद गढ़ी थी। अपने गिरोह के दूसरे सदस्यों की तरह रामकुमार के डाकू बनने की वजह सुच्चाराम खूब जानता था—सो, उसने वही वजह ठाकुर साहब से जोड़कर सुना दी ताकि तुम और सारा गांव उसे निर्भयसिंह समझे।"
"बीच में चार-पांच दिन क्या करता रहा?"
"एक मुखबिर से हमें तुम्हारे और बंतासिंह के बीच हुए गठजोड़ का पता लग गया था—उसी से निपटने के लिए सुच्चाराम ने तैयारी में चार दिन लगाए—योजना तैयार करके बल्ब, बैटरी, तार, स्विच और टेपों का इंतजाम डिक्की से किया—आज सुबह ही हमने बंता के अड्डे पर हमला करके घोड़े अपने कब्जे में कर लिए थे।"
"क्या पुलिस की मौजूदगी के बारे में तुम्हारे मुखबिरों ने खबर नहीं दी?"
"अगर दी होती तो हमारा गिरोह इस तरह बरबाद न होता, बल्कि पुलिस की भी वही गत बना दी होती जो बंतासिंह के गिरोह की बनाई ।"
"तुम्हारे मुखबिरों ने यह खबर नहीं दी कि हम कुछ लोगों को गुमटी से बाहर निकाल चुके हैं?"
"नहीं।"
"इसका मतलब, तुम्हारे मुखबिर कच्चे थे।"
फूलवती चुप रह गई।
"खैर!" विजय ने कहा— "अब, जबकि हम पूरे मामले को समझ चुके हैं—ये और बताओ रानी फूलवती कि बापूजान के जिस्म से चिपका सुच्चाराम इस वक्त कहां मिलेगा?"
"इस बारे में मैं कुछ नहीं कह सकती।"
"क्यों?"
"पहले तो जरूरी नहीं कि इतनी मार-काट के बाद वे जीवित बचे हों और बच भी गए तो इस बारे में क्या कह सकती हूं कि वे कहां होंगे—मैं तो यहां, आपके पास कैद हूं।"
"बच निकलने के बाद वह शायद अड्डे पर ही गया होगा।"
"मुमकिन है, मगर...।"
"मगर?"
"यदि सरदार सचमुच बच गए तो अब वे किसी के हाथ आने वाले नहीं, इस इलाके के चप्पे-चप्पे की जितनी भौगोलिक जानकारी उन्हें है, उतनी किसी को नहीं हो सकती। तुम लोगों के लाख सिर पटकने के बावजूद अब वे हाथ आने वाले नहीं हैं।"
विजय ने अपने विशिष्ट लहजे में कहा— "हम तुमसे यह नहीं पूछ रहे रानी फूलवती कि लाख सिर पटकने पर हम क्या कर सकते हैं और क्या नहीं—सवाल सिर्फ ये है कि यहां से दुम दबाकर भागने के बाद वह अड्डे पर ही गया होगा या और कहीं भी जा सकता है?"
"इस बारे में मैं क्या कह सकती हूं?"
"नहीं कह सकतीं तो हम सबको तुम्हें अपने अड्डे की सैर करानी होगी।"
"जरूर।" अचानक फूलवती के मुखड़े पर सौम्य मुस्कराहट उभर आई। विजय कुछ कहना ही चाहता था कि श्रीवास्तव बोला— "आप फिर वही भूल कर रहे हैं मिस्टर विजय, जो उन दो डाकुओं के गिरफ्तार होने पर की थी—आप शायद भूल रहे है कि मैंने...।"
"हमें सब याद है, प्यारे श्रीवास्तव कि तुमने क्या फरमाया था।" विजय ने उसकी बात पूरी होने से पहले ही कहा— "उन पहाड़ियों की जिस विशेषता का जिक्र तुमने किया था उसे हमने अपने सिर-आंखों पर लिया—इसलिए अड्डे पर हमला करके कामयाब होने के ख्वाब कभी नहीं बुने, किंतु अब हालात बदल चुके हैं—इस गिरोह के अधिकांश डाकू गुमटी की पहाड़ियों में मुंह फाड़े पड़े हैं—सो, उन विशिष्ट पहाड़ियों की खासियत का लाभ उठाकर हम पर कौन हमला करेगा? कौन छलावे की तरह प्रकट और गायब होगा?"
श्रीवास्तव को तर्क जमा, अतः चुप रह गया।
जबकि बजाज ने कहा— "फिर भी, उन पहाड़ियों के बीच भूल-भुलैया वाले इतने रास्ते हैं मिस्टर विजय कि अड्डे पर पहुंचना जरूरी नहीं।"
"जरूरी है जनाब एस ○ पी ○ ।"
"मैं समझा नहीं?"
"हमारे साथ रानी फूलवती है, दिलजला और उसके पास लाइटर है—ये तीनों हर हालत में हमें सुच्चाराम के अड्डे पर पहुंचा देंगे।"
¶¶
"अजीब मामला सामने आया है गुरु, यह बात तो हमने ख्वाब में भी नहीं सोची थी कि ठाकुर नाना के जिस्म से यह सबकुछ सुच्चाराम करा रहा है।"
"हमने पहले ही कहा था प्यारे कि अगर सबकुछ वैसा ही होता रहे जैसा हम सोचते हैं तो फिर जिंदगी का असली लुत्फ ही कहां आया। मगर हां, ये मानना पड़ेगा कि जैसी ढेकली हमने इस अभियान के मामले में खाई, वैसी पहले कभी न खाई थी।"
"क्या मतलब?"
"अक्सर यह होता है कि हम मामले की तह में पहले ही पहुंच जाते हैं, लेकिन इस मामले के व्यवहार में जमीन-आसमान जैसा अंतर हमें खटकता तो रहा, परंतु खटकने की सही वजह न पकड़ सके—उसी तरह यह सोचा जरूर कि बापूजान अपना काला चिट्ठा जानने की वजह से मारना तो चाहते हैं, किंतु माताजी को इतना अपमानित क्यों कर रहे हैं, परंतु सही वजह तक न पहुंच सके।"
ब्लैक ब्वॉय ने पूछा— "आपके और हम सबके सीक्रेट एजेंट होने के जिस रहस्य का वे जिक्र कर रहे थे, वह सिर्फ सुच्चाराम की रूह जानती है सर या ठाकुर साहब भी?"
"सुना नहीं तुमने, रूह से मुक्त होने के बाद बापूजान को कुछ पता नहीं रहता कि उन्होंने क्या किया, क्या कहा—वे तो सोकर उठा महसूस करते हैं। करने और कहने वाला सुच्चाराम होता है, बापू नहीं।"
"मगर सर, सुच्चाराम को कैसे पता लगा कि हम सीक्रेट एजेंट और आप...।"
"हम इंसानों की दुनिया में रहते हैं प्यारे, इसलिए रूहों के कायदे-कानून और उनके सोर्स से नावाकिफ हैं, मगर अध्ययन से जाना कि वे हमारे बीच अदृश्य रहकर, हमारे ही मुंह से बहुत-सी बातें सुनकर जान जाती हैं और हमें इल्म तक नहीं होता कि किसी ने कुछ सुना है।"
"ल...लेकिन गुरु, अब क्या होगा?"
"असल दिक्कत ये है प्यारे कि कानून भूत-प्रेतों को नहीं मानता।"
"इससे क्या होगा?"
"इससे होगा ये माई डियर दिलजले कि बापूजान पर गुमटी में बीस साल पूर्व किए नरसंहार और उस वक्त की हत्याओं का मुकदमा चलेगा—जब कानून भूत-प्रेत के अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं करता—तो जाहिर है कि वह इस तर्क को नहीं मानेगा कि यह सबकुछ बापूजान ने नहीं, बल्कि सुच्चाराम ने किया है।"
"जब हम सबके अलावा गुमटी गांव का बच्चा-बच्चा बयान देगा तो अदालत को मानना पड़ेगा गुरु—आज गुमटी वालों को दुख है कि उन्होंने ठाकुर साहब को दरिंदा समझा।"
"छोड़ो प्यारे, यह अदालत का मसला है और इससे अदालत में ही निपटना होगा। फिलहाल हमारे सामने समस्या उसे ढूंढकर गिरफ्तार करने की है।"
"हम अड्डे पर कब चल रहे हैं?"
"सुबह।" कहने के बाद विजय बोला— "कोई आ रहा है प्यारे, इसलिए राज की बातें बंद और आम बातें शुरू।"
अशरफ ने कमरे में कदम रखा। तीनों चुप।
¶¶
सुबह तक फोर्स को दो हिस्सों में बांट लिया गया।
पहला हिस्सा श्रीवास्तव के नेतृत्व में बंता और फूलो गिरोह के गिरफ्तार डाकुओं को साथ लिए डिक्की की तरफ रवाना हुआ। दूसरा फूलो के बताए रास्ते पर अड्डे की तरफ।
इस ग्रुप में फूलो, बजाज, विजय, विकास, अशरफ, विक्रम, नाहर, ब्लैक ब्वॉय के अलावा फोर्स के जवान भी थे। घोड़ों पर सवार ये काफिला सुबह के करीब दस बजे उन रमणीक पहाड़ियों में पहुंचा जहां बजाज ने कहा— "बस पुलिस सिर्फ इतना जानती है कि अड्डा इन पहाड़ियों में कहीं है।
"सही स्पॉट पर हमें रानी फूलवती ले जाएगी।" विजय बोला। फिर वे काफी देर तक चलने के बाद एक ऐसे स्थान पर पहुंचे, जिसके चारों तरफ खड़े पहाड़ करीब पचास गज ऊपर जाकर एक-दूसरे की तरफ झुके हुए थे—ठीक यूं जैसे चार नाग जमीन पर खड़े अपना फन चौड़ाए एक-दूसरे के मुंह को चाट रहे हों।
फूलवती ने बताया—"इस हॉल को ही हमारा मुख्य अड्डा कहा जाता है, यानि हम लोग यहीं बैठकर कोई योजना तैयार किया करते हैं।"
सभी ने हॉल को ध्यानपूर्वक देखा।
हॉल की दीवारों में जगह-जगह मोखले थे। विकास ने पूछा— "क्या ये मोखले पहाड़ के अंदर से होते हुए खुले आकाश के नीचे खुल जाते हैं?"
जवाब देने के लिए फूलो ने मुंह खोला ही था कि—
'धांय-धांय।'
एक साथ दो गोलियों की आवाज और विक्रम और नाहर की चीखों से सारा हॉल गूंज उठा—वे लहराकर जमीन पर गिरे। बाकी सबने फुर्ती से खुद को जमीन पर लिटा लिया—फूलो ने भागने की कोशिश की, किंतु उसके हाथों में पड़ीं हथकड़ियों से संबंधित जंजीर बजाज की बैल्ट से बंधी थी। सो भागने के प्रयास में वह मुंह के बल गिरी।
गोली विक्रम के कंधे में लगी थी तो नाहर की कमर में—पलक झपकते ही उनके हथियार हाथों में नजर आए—एक मोखले में सब-राइफल संभाले ठाकुर साहब लेटे नजर आए। विजय फुसफुसाया—"उसके जिस्म पर कोई गोली न चलाए।"
कई उंगलियां ट्रिगर दबाते-दबाते रह गईं।
मोखले से बाहर सब-राइफल, ठाकुर साहब के हाथ और उनकी गरदन से ऊपर का हिस्सा ही नजर आ रहा था। एकाएक वहां ठाकुर साहब की कठोर आवाज गूंजी—"शेर की मांद में घुस आने की बेवकूफी तुम लोगों ने आखिर कर ही दी। अब ये हॉल हमेशा के लिए तुम सबकी समाधि में तबदील हो जाएगा।"
जवाब में विजय ने भी चीखकर कहा— "लंबे समय तक तुमने हमें खूब बेवकूफ बनाया सुच्चाराम, मगर अब ये हंस के जिस्म से कव्वे वाली चाल नहीं चलेगी।"
"ओह! तो तुम यह भी जान गए हो?" मुंह के गुर्राहट निकली—"हमने नहीं सोचा था फूलो कि तू इतनी कमजोर निकलोगी। लानत है तुझ पर।"
"मैंने तो यह सोचकर इन्हें सबकुछ बता दिया था सरदार कि...।"
'धांय—धांय।' मोखले से झांक रही सब-राइफल से दो गोलियां निकलीं।
निशाना फूलवती थी, किंतु उससे पहले ही बजाज अपनी बैल्ट में बंधी जंजीर को जोर से झटका दे चुका था। अतः गोलियां चबूतरे से टकराकर छितरा गईं, जिसकी बैक में फूलवती का जिस्म था। उधर विजय के हाथ में दबे रिवॉल्वर ने खांसा।
गोली सीधी सब-राइफल पर लगी और सब-राइफल एक तेज झटके के साथ उसके हाथ से निकलकर जमीन पर आ गिरी। ऐसा होते ही ठाकुर साहब का जिस्म मोखले में वापस रेंगा। पलक झपकते ही गायब।
“तुम और झानझरोखे विक्रम—नाहर का ख्याल रखना काले लड़के।” कहने के बाद उसका जिस्म ठीक रबर की गेंद के समान हवा में उड़ता नजर आया—अगले पल समूची फोर्स के साथ बजाज ने भी उसे मोखले में गुम होते देखा।
उसके पीछे विकास। बजाज सोचने पर विवश हो गया कि ये लोग इंसान हैं या जिन्न?
अंधेरी और बेहद संकरी गुफा में विजय तेजी से रेंगता जा रहा था। गुफा ऐसी थी कि एक बार में सिर्फ एक व्यक्ति ही रेंगकर गुजर सकता था, वह भी प्रत्येक क्षण इस आशंका से ग्रस्त कि सुरंग के किसी स्थान पर कही फंस न जाए। दम घुटने लगे।
ठीक वैसी स्थिति जैसी अर्ध-कुमारी की गुफा में होती है। उस गुफा को यदि भक्त 'जय माता दी' का नारा लगाते अगाध श्रद्धा के बल पर पार कर जाते हैं तो इसमें विजय सिर्फ यह सोचकर रेंगता चला गया कि उससे आगे रेंगने वाले का जिस्म उससे विशाल है।
उसे ठाकुर साहब के जिस्म के रेंगने की आवाज आ रही थी। यदि ऐसा न होता तो अभी तक शायद भटक चुका होता, क्योंकि कई स्थानों पर सुरंग उसे कई भागों में विभक्त होती नजर आई थी—वह आहट का पीछा करता रहा, यह सोचता हुआ कि यदि गुफा में आने में उसने जरा भी देर की होती और यह आहट सुनाई न दे रही होती तो जाने ठाकुर साहब का जिस्म किस तरफ निकल जाता और वह स्वयं किस दिशा में?
करीब दस मिनट रेंगने के बाद विजय को सुरंग का एक सिरा नजर आया। ठाकुर साहब के जिस्म को उसने सिरे के पार कूदते देखा—एक चौड़ी और गैलरी जैसी गुफा में सुच्चाराम ठाकुर साहब के जिस्म को भगाए ले जा रहा था—संकरी गुफा के सिरे से विजय ने सीधी जंप उसके ऊपर लगाई।
सुच्चाराम के हलक से एक चीख निकली। एक-दूसरे से गुंथे दोनों के जिस्म पथरीली जमीन पर लुढ़क गए।
थोड़ा संभलते ही विजय ने कहा— "भागकर कहां जाते हो सुच्चा प्यारे! अब तुम हमारे चंगुल से बचकर नहीं निकल सकते।"
मगर विजय की समस्त आशाओं के विपरीत सुच्चा ने जाने कौन-सा दांव खेला कि विजय को पलभर के लिए अपना जिस्म हवा में लहराता नजर आया और फिर धम्म से पत्थर पर गिरा। सुच्चाराम ने झपटकर गुफा की दीवार पर लटका एक अजीब-सा हथियार उतार लिया—जी हां, कम-से-कम इस युग में उसे अजीब हथियार ही कहा जाएगा।
करीब दो फीट लंबी मजबूत जंजीर के एक सिरे पर फुटबॉल जितना बड़ा लोहे का ठोस गोला और इस लोहे के गोले की बाहरी बॉडी पर उभरे दो इंच लंबे, मोटे और नुकीले दांत। जंजीर का एक सिरा ठाकुर साहब के हाथ में।
कांटेदार गोला झूल रहा था।
विजय काफी फुर्ती के साथ उठकर वापस खड़ा हो गया था। चेहरे पर सख्ती और आंखों में आग लिए ठाकुर साहब की आंखों में सुच्चाराम अभी विजय को ही घूर रहा था कि संकरी गुफा के मोखले में हवा से लहराता विकास उसके जिस्म पर झपटा। सुच्चाराम ने बिजली की-सी गति से गोला हवा में घुमाया। कांटे विकास की कमर में धंसे और एक चीख के साथ वह गुफा की दीवार से टकराने के बाद जमीन पर गिरा—यही क्षण था जब विजय ने उनके जिस्म पर जंप लगाई।
ठाकुर साहब के हाथ में जहां खतरनाक किस्म का हथियार था वहीं विजय-विकास जेबों में रिवॉल्वर की मौजूदगी के बावजूद निहत्थे—अतः वे दो होने के बावजूद कमजोर पड़ रहे थे। सुच्चाराम की आत्मा ठाकुर साहब के जिस्म का इतनी फुर्ती के साथ इस्तेमाल कर रही थी कि विकास-विजय चकित थे। बार-बार कोशिश के बावजूद वे ठाकुर साहब के जिस्म को छू तक न सके—कांटेदार गोले की मार सहते-सहते उल्टे उनके जिस्म लहूलुहान हो गए थे—एक स्थिति ऐसी आई कि दोनों घात लगाने की-सी मुद्रा में खड़े रह गए।
उनके किसी भी हमले का सामना करने के लिए चौकस सुच्चाराम गुर्राया—"अपने आपको तुम दोनों बड़े सूरमा मानते हो। दुनिया के महान जासूसों में नाम है तुम्हारा। अब आओ, हमला करो मुझ पर—साले ठाकुर के पिल्लों, एक-एक की खाल खींचकर रख दूंगा।"
जाने क्या सोचकर विजय ने जेब से रिवॉल्वर निकाल लिया। विकास ने चीखकर कहा— "ये क्या कर रहे हो गुरु?"
विजय कुछ बोला नहीं। दृष्टि ठाकुर साहब के जिस्म पर स्थिर। ठाकुर साहब के होंठ मुस्कराने वाले अंदाज में फैले। बढ़ते-बढ़ते मुस्कान हंसी में बदली और हंसी बुलंद कहकहे में बदल गई।
सारी गुफा अट्टाहास से गूंज उठी।
दिल खोलकर हंसने के बाद उसने कहा— "चला गोली! गोली चला सूअर के बच्चे—ये प्रतिशोध भी बड़ा अजीब होगा—आत्माओं की दुनिया में अब मेरी ताकत इतनी बढ़ चुकी है कि किसी भी जिस्म पर कब्जा करने के लिए उसका सोता होना जरूरी नहीं। अब मैं जीते-जागते इंसान के जिस्म पर भी कब्जा कर सकता हूं—चाहूं तो इसी वक्त तुममें से किसी के जिस्म पर भी, किंतु नहीं, फिलहाल इस हरामजादे का जिस्म ही ठीक है—तू गोली चला, मैं नहीं—मेरे बीवी-बच्चो का हत्यारा ये कुत्ता निर्भयसिंह मरेगा—फिर मैं तेरे जिस्म पर कब्जा करूंगा—विकास तुझे मारेगा—हा-हा-हा—ये प्रतिशोध भी बड़ा खूबसूरत होगा—जब मैं विकास के जिस्म पर कब्जा करके हॉल में मौजूद लोगों पर हमला करूंगा तो वे विकास को मार देंगे—हा-हा-हा—इस तरह एक-एक करके मैं तुम्हारे ही हाथों से तुम सबको मार डालूंगा, मगर मैं...मैं नहीं मर सकता! बीस साल पहले ही मर चुके सुच्चाराम को अब भला तुम क्या मारोगे सूअर के पिल्लो—आत्मा को दुनिया की कोई ताकत नहीं मार सकती—हा-हा-हा—मरेगा वह जिसके जिस्म में मैं होऊंगा—हा-हा-हा।"
पैशाचिक कहकहे बुलंद होते चले गए।
विकास की तो बात ही क्या, विजय जैसी हस्ती का दिमाग चकरघिन्नी की तरह घूमकर रह गया—यदि सुच्चाराम ठीक कह रहा था तो सचमुच उसकी आत्मा पर काबू पाने का कोई रास्ता विजय को दूर-दूर तक नजर न आया।
बुलंद कहकहों के बाद सुच्चाराम ने ठाकुर साहब के जिस्म को विजय के सामने तानकर खड़ा कर दिया और ललकारा—"रुक क्यों गया सूअर के बच्चे! हिम्मत है तो गोली चला। आग भर दे इस हरामजादे निर्भयसिंह के जिस्म में।"
दोनों महारथियों की हालत अजीब हो गई। समझ में न आ रहा था कि क्या करें—अगर सुच्चाराम सचमुच उसी तरह शरीर बदल सकता था, जिस तरह कह रहा था तो आगे जो कुछ होने वाला था, उसकी कल्पना करके ही दोनों कांप गए।
यदि कहा जाए कि वे किंकर्त्तव्यविमूढ़-से खड़े थे तो गलत न होगा।
सुच्चाराम रह-रहकर उन्हें ललकार रहा था।
जब देखा कि दोनों में से कोई भी हमला नहीं कर रहा है तो कांटेदार गोला संभाले स्वयं विकास पर झपट पड़ा—विकास तो खैर हल्की-सी झुकाई देकर स्वयं को बचा गया, किंतु इसी क्षण विजय के हाथ में दबे रिवॉल्वर ने दो बार खांसा।
दोनों गोलियां ठाकुर साहब की टांगों पर लगीं।
एक चीख के साथ ठाकुर साहब गिरे।
गोला उनके हाथ से निकलकर दूर जा गिरा—विजय-विकास एकसाथ झपटकर उनके नजदीक पहुंचे—दर्द से बिलबिलाने के लक्षण ठाकुर साहब के चेहरे पर साफ नजर आ रहे थे।
किंतु उन्हीं के बीच होठों पर अत्यंत जहरीली मुस्कराहट उभरी, मुंह से आवाज—"और चला सूअर के बच्चे, ठाकुर निर्भयसिंह के जिस्म को छलनी कर दे—सिर्फ टांगों पर गोली चलाकर क्यों रह गया?"
उसकी बात पर कोई ध्यान दिए बिना विजय ने कहा— "इसे बांध दो दिलजले।"
"हा-हा-हा!" जख्मी ठाकुर साहब के मुंह से कहकहा उबल पड़ा—"हां, बांध लो! अपने बाप के जिस्म को तो तुम बांध सकतो हो, मगर मुझे नहीं। सुच्चाराम की आत्मा को बांधना दुनिया के किसी इंसान के वश में नहीं ।"
"अब ये गप्पबाजी नहीं चलेगी सुच्चा प्यारे!" उसे जकड़ते हुए विजय ने कहा— "बापूजान के जिस्म के अलावा तुम किसी को अपने कब्जे में नहीं कर सकते।"
जवाब में ठाकुर साहब के मुंह से पुनः बुलंद कहकहा उबला। उस वक्त विकास अपने मफलर से उनके हाथ बांधने की कोशिश कर रहा था कि एकदम कहकहे बंद—हैरतअंगेज तरीके से ठाकुर साहब के हाथ-पैर ढीले पड़ गए।
विकास ने घबराकर उनकी नब्ज टटोली—स्पंदन को महसूस करके राहत की सांस ली—दिमाग में यह धारणा बनी कि ठाकुर साहब बेहोश हो गए हैं। चेहरा ऊपर उठाकर विकास ने विजय की तरफ देखा ही था कि बिजली की-सी फुर्ती से विजय का घूंसा उसके जबड़े पर पड़ा।
चीख के साथ विकास उछलकर दूर जा गिरा।
विजय एक झटके से खड़ा हो चुका था।
मारे हैरत के विकास का बुरा हाल—आश्चर्य के सागर में डूबे लड़के के मुंह से निकला—"आपको क्या हो गया गुरु?"
"हा-हा-हा!" कुछ वैसा ही कहकहा इस बार विजय के मुंह से निकला जैसे कुछ देर पहले ठाकुर साहब के हलक से निकल रहा था—"गुरु नहीं बेवकूफ, सुच्चाराम बोल—द्स्यु सरदार सुच्चाराम। चाहूं तो इसी वक्त तुझसे भिड़ जाऊं, चाहे मैं तुझे मार डालूं या तू सूअर के बच्चे के इस जिस्म को खत्म कर दे—जीत हर हाल में सुच्चाराम की होनी है—जीतना तो मुझी को है, ताश-ताशकर—तड़पा-तड़पाकर तुम सबको एक-दूसरे से मरवाऊंगा, मगर पहला नंबर ठाकुर निर्भयसिंह का है। यह जिस्म-परिवर्तन तो मैंने सिर्फ अपना चमत्कार दिखाने के लिए किया है—यह साबित करने के लिए कि मैं गप्पबाजी नहीं कर रहा था। जो कहा है, वह कर सकता हूं।"
विकास हक्का-बक्का रह गया। काटो तो खून नहीं। दूर-दूर तक उसके दिमाग में ऐसी कोई तरकीब न आ सकी जिसमें सुच्चाराम के आत्मारूपी छलावे से निपटा जा सके और अभी उसके मुंह से एक शब्द भी न फूट सका था कि विजय के जरिए सुच्चाराम की आत्मा ने पुनः कहा— "मैं वापस ठाकुर निर्भयसिंह के जिस्म में लौट रहा हूं—इस सूअर के जिस्म को उस वक्त तक नहीं छोडूंगा जब तक इसका सारा खून पानी में तबदील नहीं हो जाता, धड़कनें रुक नहीं जातीं—हा-हा-हा।"
कहकहे लगाता विजय अचानक धड़ाम से गिरा।
अब कहकहे ठाकुर साहब के मुंह से उबलने लगे थे—हतप्रभ खड़ा विकास इस सारे चमत्कार को यूं देखता रहा जैसे मंत्रमुग्ध बच्चे जादूगर के कमाल देखते हैं।
जमीन पर पड़े विजय के जिस्म में हरकत हुई।
अगले पल वह इस तरह उठकर बैठ गया जैसे सोकर उठा हो। कुछ देर चकित अंदाज में चारों तरफ देखता रहा, फिर विकास से बोला— "ये क्या हुआ था प्यारे दिलजले! अच्छे भले बात करते समय हम सो कैसे गए?"
विकास जवाब दे तो कैसे?
जुबान तालू से चिपकी हुई थी, जबकि ठाकुर साहब के मुंह से उबलने वाले सुच्चाराम के कहकहे और बुलंद होते चले गए। उसने विकास से कहा— "बोलता क्यों नहीं बेटे, अपने गुरु को बता कि अचानक इसे नींद क्यों आ गई थी और नींद में इसने क्या किया? ”
विजय चकित।
उस वक्त तो और भी ज्यादा, जब विकास ने सबकुछ बताया। मारे हैरत के बुरा हाल हो गया—वह अच्छी तरह समझ चुका था कि कम-से-कम भौतिक शक्तियों के बल पर सुच्चाराम की आत्मा से छुटकारा नहीं पाया जा सकता। विजय के जीवन का शायद पहला मौका था जब उसने किसी मुजरिम के सामने शिकस्त के अंदाज में हाथ जोड़ दिए, बोला— "चाहते क्या हो सुच्चाराम जी, हम तुमसे हार गए।"
"हा-हा-हा—इतनी जल्दी?" ठाकुर साहब के मुंह से सुच्चाराम कह उठा—"इतनी जल्दी घुटने टेक दिए। वाह—क्या तुम सचमुच भारतीय सीक्रेट सर्विस के चीफ हो?"
"हम इंसानों पर विजय पा सकते हैं, आत्माओं पर नहीं।"
"चलो, भले ही देर से सही मगर इस हकीकत को तुमने समझा तो।"
विजय ने उसी तरह हाथ जोड़े कहा— "हमने पूरी तरह शिकस्त कबूल कर ली है। हमें माफ कर दीजिए सुच्चाराम जी।"
"माफ?"
"हां—किसी तरह हमें और बापूजान को बख्श दीजिए।"
"बख्श दूं?" एकाएक ठाकुर साहब के मुंह से निकलने वाली आवाज गुर्राहट में बदल गई—"इस सुअर के बच्चे को बख्श दूं जिसने मेरे घर के परखच्चे तक उड़ा दिए—इस हराजादे के बीवी-बच्चों को बख्श दूं जिसने मेरे बच्चों को मौत के घाट उतार दिया—नहीं, किसी कीमत पर नहीं बख्श सकता—मेरी आत्मा में सुलग रही प्रतिशोध की आग तुम्हारे माफी मांगने से शांत नहीं होगी—ये शांत होगी तुम सबको एक-एक करके तड़प-तड़पकर मरता देखकर—तेरे यूं हाथ जोड़कर माफी मांगने से सुच्चाराम पसीजने वाला नहीं है सूअर के बच्चे—मुझे तुम सबकी मौत चाहिए। सबसे पहले इस सूअर की जिसके जिस्म में इस वक्त हूं—मैं इसे तब तक नहीं छोडूंगा जब तक ये मर नहीं जाता—चाहे जहां ले जाओ इसे। मैं इसके जिस्म में ही रहूंगा और इस हालत में मेरी आत्मा इस इलाके की सीमाओं में बंधी रहने पर भी मजबूर नहीं।"
विजय का दिमाग जाम होकर रह गया—विकास बेचारे की समझ में तो काफी देर से कुछ नहीं आ रहा था। शायद ही वे कभी किसी अभियान के अंत में इतने लाचार हुए हों।
¶¶
जख्मी विक्रम और नाहर बेहोश हो चुके थे।
विकास और विजय ठाकुर साहब के जिस्म को संभाले हॉल में पहुंचे—उनके जिस्म में मौजूद सुच्चाराम ने कोई विरोध नहीं किया था। अगर यह कहा जाए तो शायद ज्यादा उचित होगा कि जिस जिस्म में वह था, वह जिस्म विरोध करने की स्थिति में ही नहीं था।
ब्लैक ब्वॉय, अशरफ और बजाज आदि के पूछने पर विजय ने वह सबकुछ बताया जो हुआ था। सुनकर सबके मुंह फटे-के-फटे रह गए, जबकि ठाकुर साहब के होंठों पर नृत्य़ कर रही थी—कटु मुस्कान।
किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि इन हालातों में क्या हो सकता है? क्या किया जा सकता है?
तीनों जख्मियों को प्राथमिक उपचार के बाद घोड़ों पर लादकर गुमटी लाया गया। गुमटीवासियों ने जब सारा किस्सा सुना तो उनके दिल ठाकुर निर्भयसिंह और उनके परिवार के प्रति सहानुभूति से भर गए—डिक्की होता हुआ यह काफिला राजनगर पहुंचा।
बजाज और फोर्स डिक्की में ही रह गई थी, हां—बजाज ने यह कहा था—"मैं विभागीय औपचारिकताएं पूरी करके शीघ्र ही राजनगर आऊंगा।"
जिस वक्त अस्पताल में ठाकुर साहब की टांगों में लगी गोलियों का इलाज शुरू किया गया, उस वक्त जहरीली मुस्कराहट के साथ सुच्चाराम ने कहा— "बहुत अच्छे। मेरा इलाज करवा रहे हो ताकि मैं फिर तुममे से किसी पर हमला कर सकूं—मजबूर होकर फिर तुम्हें इस सूअर के जिस्म को जख्मी करना होगा—मुझे यह देखना है कि ये सिलसिला कब तक चला सकते हो?"
देश के माने हुए ओझा और तांत्रिक बुलाए गए।
जैसे ही वे अनुष्ठान के शुरू करते, सुच्चाराम की आत्मा ठाकर साहब का जिस्म छोड़ देती और अनुष्ठान तुरंत बाद काबिज हो जाती—धुरंधर ओझाओं ने ठाकुर साहब को सुच्चाराम की आत्मा से निजात दिलाने के मामले में शिकस्त कबूल कर ली। उनका कहना था—"जब आत्मा टकराने के लिए तैयार नहीं यानि अनुष्ठान के वक्त रोगी के जिस्म से निकल जाती है तो सारी तंत्र-विधाएं बेकार हो जाती हैं।"
उधर!
¶¶
सरकारी वकील पुरजोर अंदाज में हलक फाड़कर चिल्ला रहा था—"मुलजिम के वकील मिस्टर अरोड़ा इस शहर के माने हुए वकील हैं मी लॉर्ड़, मगर इस केस के संबंध में जो कुछ उन्होंने कहा, उससे शंका होती है कि उन्होंने एल ○ एल ○ बी ○ को डिग्री हासिल भी की है या नहीं—जरा जांच की जाए कि जो वकालतनामा इन्होंने अदालत में दाखिल किया है, कहीं वह जाली तो नहीं?"
अदालत कक्ष में हंसी के फव्वारे फूट रहे पड़े।
कक्ष भीड़ से ठसाठस भरा था। बाहर गैलरी तक में खड़े लोग इस दिलचस्प मुकदमे की बहस सुनने के लिए एक-दूसरे पर गिरे जा रहे थे—अगली पंक्ति में ठाकुर साहब का पूरा परिवार, सीक्रेट सर्विस के सदस्य और बजाज सहित पुलिस विभाग के अनेक लोग बैठे थे—हंसी के फव्वारे थोड़े मद्धिम पड़े कि अरोड़ा ने सख्त विरोध किया— "ये मेरे पेशे पर व्यक्तिगत आरोप है मी लॉर्ड !"
अपना चश्मा दुरुस्त करने के बाद न्यायाधीश ने कहा— "आपको सिर्फ मौजूदा केस के संबंध में बोलना चाहिए मिस्टर गुप्ता!"
"मैं केस के संबंध में ही बोल रहा हूं मी लॉर्ड!" सरकारी वकील ने कहा— "उपरोक्त शब्द मैंने इसलिए कहे क्योंकि नहीं लगता कि मेरे अजीज दोस्त श्री अरोड़ा ने कभी कानून की किताबें पढ़ी हैं—इन्होंने कहा कि जो आरोप मुलजिम निर्भयसिंह पर लगाए गए, वे सब दरअसल सुच्चाराम की आत्मा ने किए हैं—हां, सुच्चाराम ने उन जुर्मों के लिए निर्भयसिंह के जिस्म का इस्तेमाल जरूर किया—क्यों अरोड़ा साहब, आपने यही कहा है न?
"हां।"
"मैं इनसे पूछना चाहता हूं मी लॉर्ड कि मेरे अजीज दोस्त आखिर रह किस दुनिया में रहे हैं—हम बीसवीं सदी के अंतिम छोर पर खड़े रूह को, आत्मा या भूत-प्रेत के अस्तित्व को मानें? क्या बीसवीं सदी का इससे बड़ा मजाक हो सकता है?”
अरोड़ा ने कहा— "मैंने अपने कथन की पुष्टि के लिए गुमटी के अनेक नागरिकों के अलावा विजय और मिस्टर बजाज जैसे पढ़े-लिखे लोगों की गवाही पेश की है और इन लोगों की गवाही को अदालत नजरअंदाज नहीं कर सकती मी लॉर्ड!"
"ये सारी गवाही झूठी हैं मी लॉर्ड़! खुद मुलजिम निर्भयसिंह ने इन्हें तैयार किया है—हुआ दरअसल ये कि जुनून में जो जुर्म मुलजिम ने किए, उनकी सजा से बचने का इसने ये नायाब तरीका निकाला कि गिरफ्तार होते ही खुद को किसी आत्मा की गिरफ्त में होने का नाटक करने लगा और जिन लोगों को प्रत्यक्षदर्शी गवाह कहा जा रहा है, ये लोग इसके नाटक के शिकार हो गए, मगर ये अदालत है और कानून ऐसे नाटकबाज मुलजिम के नाटक में नहीं फंस सकता।"
"क्या गुप्ताजी यह साबित कर सकते हैं मी लॉर्ड कि मेरे गवाहों ने अदालत में झूठ बोला है?"
"झूठ बोला नहीं, समझा है।" अपने अंतिम दो शब्दों पर जोर देने के बाद गुप्ता ने कहा— "दुनिया में आत्मा या भूत-प्रेत नाम की कोई चीज नहीं होती।"
"सवाल ये है मी लॉर्ड कि गुमटी में जो जुर्म हुए, वे निर्भयसिंह ने 'अपने' होशोहवास अथवा जानकारी में किए या किसी अदृश्य शक्ति के चंगुल में फंसने के तहत?"
"सवाल ये नहीं है।" गुप्ता गरजा—"और मिस्टर अरोड़ा बार-बार इसी सवाल को उछाल रहे हैं—इसलिए मुझे संदेह है कि इन्होंने कानून की किताबें पढ़ी भी है या नहीं—कानून की कोई भी किताब किसी अदृश्य शक्ति के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करती—कानून की एक भी धारा ऐसी नहीं जो यह मानती हो कि इस दुनिया में भूत-प्रेत नाम की कोई चीज कहीं है।"
"यह जरूरी नहीं है कि जिसे कानून नहीं मानता, वह हो ही नहीं मी लॉर्ड!"
"मगर अदालत में बहस कानून की धाराओं के तहत होती है जनाब ! ” गुप्ता ने व्यंग्य-सा कसा—"हालांकि मुझे पूरा यकीन है कि मुलजिम नाटक कर रहा है, मगर फिर भी कुछ देर के लिए मान लेता हूं कि निर्भयसिंह जुर्म करते वक्त और इस वक्त भी प्रेतग्रस्त हैं। तब...क्या मेरे काबिल दोस्त बता सकते हैं कि वे अपने मुवक्किल का बचाव कानून की कौन-सी धारा के तहत करेंगे?"
अरोड़ा चुप रहा।
कुछ देर की खामोशी के बाद न्यायाधीश महोदय ने स्वयं कहा— "अगर कोई मुलजिम को प्रेतग्रस्त मानता है तो यह उसका नितांत निजी मामला है, जिसका कानून या अदालत में चल रही बहस से कोई ताल्लुक नहीं—कोर्ट में यह बात बहस का मुद्दा नहीं बन सकती मिस्टर अरोड़ा कि मुलजिम प्रेतग्रस्त है या नहीं, क्योंकि कानून किसी अदृश्य शक्ति के अस्तित्व को मान्यता नहीं देता—अतः यह साबित करने के बावजूद आप मुलजिम को नहीं बचा सकते कि वह प्रेतग्रस्त है। अगर आप मुलजिम के बेगुनाह होने की कोई और दलील पेश कर सकते हैं तो कीजिए।"
"मैं फिर अपनी बात पर जोर देकर कहूंगा मी लॉर्ड कि कानून यदि अदृश्य शक्तियों के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता तो यह कानून की एक खामी है। कटघरे में खड़ा मुलजिम अदृश्य शक्ति के शिकंजे में है और यह अदृश्य शक्ति सुच्चाराम नामक उस डाकू की आत्मा है जिसे निर्भयसिंह ने मारा था—यह आत्मा आज निर्भयसिंह और उसके परिवार की सबसे बड़ी दुश्मन है—इसका उद्देश्य ये है कि जिस जिस्म को कब्जे में किए कटघरे में खड़ी है, अदालत उस जिस्म को फांसी के फंदे पर लटका दे—ऐसा होने पर इंसाफ नहीं होगा मी लॉर्ड—असल मुजरिम सुच्चासिंह की आत्मा है जो फांसी के फंदे पर झूलकर भी नहीं मरेगी—हां, ठाकुर निर्भयसिंह जरूर मारा जाएगा—कानून का मजाक उड़ाती हुई सुच्चाराम की आत्मा पुनः निर्भयसिंह के परिवार के किसी सदस्य को कब्जे में करके जुर्म करेगी और ऐसी ही कोई अदालत उस शरीर को भी फांसी पर चढ़ा देगी—इस तरह सुच्चाराम की आत्मा अदालत के जरिए कानून की खामी का लाभ उठाती हुई निर्भयसिंह के सारे परिवार को खत्म कर देगी। यही इस आत्मा का उद्देश्य है। मैं अदालत से यह कहना चाहता हूं कि कानून की इस खामी को भरते हुए सुच्चाराम की आत्मा को प्रतिशोध लेने से रोके—इस अन्याय और जुर्म में भागीदार न बने।"
"हम फिर कहेंगे मिस्टर अरोड़ा कि जिसके अस्तित्व को कानून स्वीकार ही नहीं करता, उसके चंगुल में किसी व्यक्ति के फंसे होने की बात अदालत नहीं माना सकती।"
"हा-हा-हा!" अब तक समूची अदालती कार्यवाही के बीच कटघरे में खड़े मंद-मंद मुस्करा रहे ठाकुर साहब के मुंह से कहकहा निकला—कहकहा भी ऐसा कि कक्ष में मौजूद हर व्यक्ति के जिस्म में सनसनी दौड़ गई, बोला— "मुझे नहीं मालूम था कि इस देश का कानून अदृश्य शक्तियों के अस्तित्व को नकारता है। अगर होता तो मैं इस बात को कभी छुपाने की कोशिश ही न करता कि इस सूअर का जिस्म मेरे कब्जे में है, मगर अब...अब मैं समझा चुका हूं कि ये कानून कितना पंगु है—यह जानने के बावजूद कि मैं हूं, मुझे स्वीकर नहीं करेगा, अतः खुलकर कह सकता हूं कि मैं वह चाहता हूं जो अरोड़ा ने कहा—निर्भयसिंह को फांसी पर चढ़ा दीजिए—रही मेरी बात। इस कानून में ऐसी कोई ताकत नहीं जो आत्मा को सजा दे सके।"
उसके चुप होते ही अरोड़ा चीखा—"आप देख रहे हैं मी लॉर्ड ! आप सुन रहे हैं न कि ये क्या कह रहा है?"
"ये सब नाटक है मी लॉर्ड !” जवाब में गुप्ता ने कहा— "मुलजिम निर्भयसिंह अदालत को धोखा देने के लिए प्रेतग्रस्त होने का नाटक कर रहा है।"
बहस काफी जमकर हुई, मगर अंत में।
न्यायाधीश महोदय ने फैसला पढ़ा—"केस की सुनवाई के दौरान हालांकि अदालत ने यह महसूस किया कि मुलजिम निर्भयसिंह किसी अदृश्य शक्ति के शिकंजे में है, मगर यह अनुभव चूंकि अदालत का नितांत व्यक्तिगत अऩुभव है और कानून की धाराओं से इसका कोई संबंध नहीं—अदालत चूंकि कानून से बंधी है और कानून किसी अदृश्य शक्ति के अस्तित्व को नहीं मानता, अतः बावजूद निजी अऩुभव के यह अदालत मुलजिम निर्भयसिंह को मुजरिम करार देती हुई ताजीराते हिंद दफा...।"
"ठ...ठहरिए।" एकाएक उर्मिलादेवी चीखती हुई अपनी कुर्सी से खड़ी हो गईं। न्यायाधीश महोदय के साथ सभी ने चौंककर उनकी तरफ देखा, जबकि दीवानगी के आलम में वे दौड़कर कटघरे में खड़े निर्भयसिंह के पैरों से जा लिपटीं, बोलीं—"इन्हें माफ कर दो सुच्चाराम, हम सबको माफ कर दो—आजाद कर दो इन्हें।"
कक्ष की छत की ओर चेहरा उठाकर निर्भयसिंह के मुंह से सुच्चाराम दरिंदे की तरह हंसा। एक जोरदार ठोकर मारकर उसने उर्मिलादेवी को दूर फेंका और गरजा—"इसे माफ कर दूं—इसे, जिसने मेरे घर के परखच्चे उड़ा दिए—मेरी बीवी-बच्चों को मौत के घाट उतार दिया। इसे माफ कर दूं?"
अचानक अपने स्थान से खड़ा होकर विकास दहाड़ उठा—"ऐसा नाना ने क्या किया था सुच्चाराम, जिसका तुम बदला ले रहे हो—उस वक्त ये ड्यूटी पर थे। सरकार ने इन्हें इस इलाके से डाकू—उन्मूलन करने भेजा था—तुम्हें और तुम्हारे साथिय़ों को मारकर इन्होंने क्या गुनाह किया—वह सबकुछ इन्होंने किसी व्यक्तिगत दुश्मनी की वजह से नहीं, बल्कि ड्यूटी के तहत किया था। क्या ड्यूटी निभाना गुनाह है?"
"मैं भी ठाकुर हूं—ड्यूटी मैं भी समझता हूं—सिद्धांत मुझे भी प्यारे हैं" सुच्चाराम कहता चला गया—"अगर इसने सिर्फ अपना फर्ज पूरा किया होता, मुझे और मेरे डाकू साथियों को मारा होता तो मैं इससे कोई बदला न लेता, क्योंकि अपनी ड्यूटी को पूरा करने वाले से ठाकुर होने के कारण सुच्चाराम को कभी शिकायत न रही—ठाकुर फर्ज और ड्यूटी को पूरा करने वाले की हमेशा केंद्र करता है—मगर मेरे मकान और बच्चों को नेस्तनाबूद करके इसने कौन-सी ड्यूटी पूरी की थी—तीस मिनट का टाइम बम लगाने के लिए कहकर इस सूअर ने कौन-सा फर्ज निभाया था?"
"वह सब उन्होंने नहीं किया।"
उसकी बात पर ध्यान दिए बिना सुच्चाराम कहता चला गया—"इसने मुझसे झूठ बोला, धोखा दिया मुझे—उसी धोखे की वजह से मेरे बच्चे मारे गए, मेरा घर खील-खील होकर बिखर गया—यह सब उसी का बदला है और उस सबका बदला लिए बिना मेरी आत्मा को मुक्ति नहीं मिलेगी।"
"अगर उस सबका बदला लेना चाहते हो तो ठाकुर साहब से नहीं, मुझसे लो सुच्चाराम।" एकाएक बजाज अपनी कर्सी से खड़ा होकर बोला— "सच्चाई ये है कि ठाकुर साहब न तुम्हारी बीवी-बच्चों को मारना चाहते थे, न तुम्हारे घर के परखचे उड़ाना—इनका उद्देश्य तो तुम्हें मारना भी नहीं था। ये तो तुम्हें जिंदा गिरफ्तार करना चाहते थे—तुम्हारा घर मेरी गलती से उड़ा, तुम्हारे बच्चे मेरी भूल से मारे गए, तुम्हारे मकान में टाइमबम फिट करने को इन्होंने मुझी को दिया—अपनी जानकारी में मैंने भरा भी तीस मिनट का ही, मगर जाने कैसे वह बीस मिनट में फट गया। शायद मेरी ही गलती से—टाइमबम के दस मिनट पहले फटने पर खुद ठाकुर साहब चकित रह गए थे।"
कटघरे में खड़े ठाकुर साहब की आंखों से सुच्चाराम उसे घूरता रह गया, जबकि बजाज ने आगे कहा— "संयोग से मैंने शादी नहीं की सुच्चाराम! न बीवी है, न बच्चे—मुझ अकेले को मारकर शायद तुम्हारा प्रतिशोध पूरा हो जाएगा।"
बजाज के चुप होते ही ठाकुर साहब का जिस्म कटघरे में धड़ाम से गिर गया।
अभा कोई कुछ समझ भी न पाया था कि सरकारी वकील मिस्टर गुप्ता ने झपटकर अपने दोनों हाथों से बजाज की गरदन पकड़ ली और मुंह से गुर्राहट निकली—"मैं तुझे जिंदा नहीं छोडूंगा हरामजादे! अफसोस कि यह हकीकत मैंने पहले नहीं जानी—ठाकुर बेचारा बेवजह सजा भुगतता रहा।"
बजाज के मुंह से गूं-गूं की आवाजें निकलने लगीं।
विजय, विकास और अरोड़ा के अलावा पुलिसमैन सहित उसे बचाने अनेक लोग झपटे—मगर जाने गुप्ता में इतनी ताकत कहां से आ गई थी कि एक ही झटके में उसने सबको दूर उछाल दिया—जब तक वे दुबारा उस पर झपटते तब तक बजाज लाश में बदल चुका था। न्यायाधीस महोदय चीखे—"इसे गिरफ्तार कर लो।"
अनेक लोगों ने उसे जकड़ लिया।
गुप्ता ने ठहाका लगाया। बोला— "तुम लोग फिर वही गलती कर रहे हो। मुझे नहीं, सरकारी वकील गुप्ता को पकड़ा तुमने—मैं इसके अंदर हूं—चाहूं तो हर बंधन के बावजूद निकलकर भाग सकता हूं—तुम लोग मुझे नहीं पकड़ सकते—मेरा प्रतिशोध पूरा हो गया है। मगर हां, जाने से पहले मैं इस अदालत में कुछ कहना चाहूंगा।"
हर तरफ सन्नाटा! मौत की-सी खामोशी।
आतंक और हैरत के मिश्रित भावों से भरी सैकड़ो आंखें गुप्ता पर स्थिर था। उन्हीं में से दो आंखें न्यायाधीश की भी थीं। बोले—"क्या कहना चाहते हो?"
"यह कत्ल मैंने ठाकुर निर्भयसिंह के जिस्म में रहकर इसलिए नहीं किया, क्योंकि विद्वान वकील लोग यह कह सकते हैं कि निर्भयसिंह ने बजाज को इसलिए मार डाला क्योंकि यह उस सारे ड्रामें पर पानी फेरे दे रहा था जो निर्भयसिंह अदालत में कर रहे थे।"
"क्या मतलब ?"
गुप्ता के मुंह से सुच्चाराम ने पूछा— "क्या बजाज से गुप्ता की कोई दुश्मनी थी?"
"नहीं।"
"फिर गुप्ता ने बजाज को क्यों मार डाला?"
"हम इस पहेली को समझे नहीं?"
"ये कोई पहेली नहीं जज साहब! बजाज को दरअसल गुप्ता ने मारा ही नहीं और मारेगा भी क्यों? गुप्ता बेचारे ने तो बजाज की शक्ल भी इस अदालत में देखी है। बजाज को मैंने मारा है और मैं गुप्ता नहीं, इसके जिस्म पर कब्जा करके बजाज की हत्या मैंने इस भरी अदालत में निर्भयसिंह को बेगुनाह साबित करने और कानून को यह समझाने के लिए की है कि वह अदृश्य शक्तियों के अस्तित्व को स्वीकारे।"
सब चुप, किसी के मुंह से बोल न निकला।
"अगर अब भी कानून के प्रहरियों ने कानून की किताबों से इस खामी को दूर नहीं किया तो प्रतिशोध की आग में सुलगती मुझ जैसी आत्माओं से किए जाने वाले जुल्मों के आरोप में निर्भयसिंह और गुप्ता जैसे जाने कितने बेगुनाहों को अदालतें सजा सुनाकर अन्याय करती रहेंगी—मेरा प्रतिशोध पूरा हो गया है। मुझे मुक्ति मिल गई। आत्माएं व्यर्थ कभी किसी को परेशान नहीं किया करतीं—अब मैं अपनी रुहानी दुनिया में लौट रहा हूं—फिर कभी किसी जिस्म पर कब्जा नहीं करूंगा।"
बस, इतना कहने के बाद गुप्ता का जिस्म एकाएक ढीला पड़ गया—उसे कब्जाए लोगों ने आश्चर्य के साथ गुप्ता को देखा। करीब आधे मिनट बाद गुप्ता के जिस्म में पुनः जीवन- सा दौड़ा और अगले ही पल उसने आंखें खोल दीं। अपनी स्थिति पर चकित होकर वह बोला— "अरे! मैं सो कैसे गया था और इन लोगों ने मुझे पकड़ क्यों रखा है?"
इससे पूर्व कि कोई जवाब देता, कटघरे में पड़े ठाकुर साहब के जिस्म में हरकत हुई, फिर वे ठीक इस तरह उठ बैठे जैसे लंबी नींद लेने के बाद उठे हों—खुद को अदालत के कटघरे में देखते ही वे चौंक पड़े। बोले—"अरे! गुमटी की झोंपड़ी से हम यहां अदालत में कैसे आ गए?"
सबसे ध्यानपूर्वक उन्हें न्यायाधीश महोदय देख रहे थे।
¶¶
फैसले वाले दिन अपने लंबे फैसले में न्यायाधीश ने कुछ यूं कहा— "भीड़ से खचाखच भरी अदालत के साथ जो कुछ मैंने अपनी आंखों से देखा, उसे फैसले में ज्यों-का-त्यों बयान करने के बाद इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि बजाज की हत्या या गुमटी में हुए नरसंहार के सिलसिले में गुप्ता या निर्भयसिंह को सजा देना अन्याय ही नहीं, जुर्म होगा—हालांकि कानून की धाराएं यह फैसला देने की इजाजत नहीं देतीं, परंतु मैं अपने विवेक से यह फैसला दे रहा हूं कि गुप्ता और निर्भयसिंह कतई बेगुनाह हैं और उन्हें बाइज्जत बरी किया जाता है।
साथ ही मैं कानून के प्रहरियों से दरख्वास्त करूंगा कि अदृश्य शक्तियों के इस कठोर सत्य के बावजूद कानून में मान्यता दें कि उन्हें हम सुच्चाराम की आत्मा की तरह कोई सजा देने में सक्षम नहीं हैं—जो कुछ इस अदालत में अपनी आंखों से देखा, उसे कानून की धाराओं में बंधे रहने की वजह से नकारा नहीं जा सकता और इस अदालत ने यह ऐतिहासिक फैसला इस उम्मीद के साथ दिया है कि कानून अदृश्य शक्तियों को स्वीकारेगा।"
समाप्त
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