लालसिंह सड़क पार करके घबराया सा बलराम गोरे के पास पहुँचा।
बलराम गोरे ने पीड़ा से भरा अपना कंधा थाम रखा था।
"ये...ये क्या हो गया बलराम?" लालसिंह बोला--- "तेरे कंधे को क्या हुआ?"
बलराम गोरे ने कठोर नजरों से लालसिंह को देखा।
"तेरा कंधा...।"
"तू भी उनके साथ मिला हुआ था?" बलराम गोरे ने भड़की आवाज में कहा।
"क्या?" लालसिंह चिंहुक पड़ा। उसे बलराम गोरे से ऐसे शब्दों की आशा नहीं थी।
"तू भी उनके साथ था...।"
"क्या बकवास करता है?" लालसिंह ने खुद को संभाला।
"कितने नोट लिए उनसे, वैन का लॉक स्विच ऑफ करने के लिए?"
"मैंने लिए?" लालसिंह के होंठ खुले।
"हाँ, तूने लिए। तू जब टक्कर होते ही मुझ पर गिरा, तभी तूने स्विच ऑफ किया।
लालसिंह समझ गया कि बलराम गोरे ऐसे ही हवा में हाथ मार रहा है।"
लालसिंह के चेहरे पर क्रोध नाच उठा।
"अब समझा कि वो लोग कैसे आसानी से वैन ले भागे...।" लालसिंह ने कड़वे स्वर में कहा।
"क्या मतलब?"
"तू ही उनसे मिला हुआ था। तूने ही लॉक का स्विच ऑफ किया। वो स्विच तेरी तरफ था।मेरी तरफ नहीं। ये वैन तेरी है, इस पर तेरा कंट्रोल है। उस स्विच को ऑन-ऑफ करने का मालिक तू ही है। मेरा उस स्विच से कोई मतलब नहीं। इस काम में तूने दस-बीस लाख रूपये तो लिए ही होंगे। क्यों बलराम, मैंने ठीक कहा ना?"
"तेरी ये हिम्मत कि तू मुझे ही...।"
"सच बात कहने में हिम्मत कैसी?" लालसिंह हाथ में दबे फोन से विनय गुप्ता का नम्बर मिलाता कह उठा--- "अभी तेरी करतूत के बारे में मैनेजर साहब को बताता हूँ। तूने ये भी नहीं सोचा कि जवाहर और रोमी भी वैन के भीतर हैं और तूने वैन को उन लोगों के हवाले कर दिया। मैंने अपनी आँखों से देखा कि वो आदमी कार से बाहर निकला और वैन के पास पहुँच कर उसने सीधे-सीधे दरवाजा खोल लिया। जैसे कि वो जानता था कि दरवाजा खुला मिल जायेगा उसे। दस-बीस लाख के लालच में तूने वैन में पड़ा 60 करोड़ रुपया हाथ से जाने दिया। जवाहर-रोमी खतरे में पड़े वो अलग...।"
"बकवास मत कर हरामी के... तूने ही...।"
"तेरे को मैंने कहा कि पुलिस को फोन करते हैं। जवाहर ने कहा। परन्तु तू नहीं माना। मैनेजर साहब को खबर करने से मुझे रोक दिया। क्योंकि तू उन लोगों से मिला हुआ था। दस-बीस लाख में तूने...।"
"मैं तेरी जान ले लूँगा...।" बलराम गोरे गला फाड़कर चीखा। कंधे का दर्द उसे परेशान कर रहा था, ऊपर से परेशान कर रही थी लालसिंह की बातें--- "तूने ही गड़बड़ की।"
"अभी मालूम हो जायेगा।" लालसिंह ने होंठ भींचकर फोन कान से लगाया। लालसिंह जानता था कि उसे खुद को बचाना है, वरना सारी उम्र जेल में ही बीत जायेगी। उधर से विनय गुप्ता का स्वर कानों में पड़ा---
"जल्दी पहुँच गए लालसिंह...।"
"कहीं नहीं पहुँचे!" लालसिंह फट पड़ा--- "नमकहराम बलराम गोरे ने वैन लुटवा दी। बलराम गोरे ने...।" कहता रहा लालसिंह। जो मन में आता, बोलता रहा।
और कंधा थामे नीचे बैठा बलराम गोरे उसे गालियाँ दिए जा रहा था।
◆◆◆
प्यारा, अपने कमरे से निकला और चाची के बगल के दरवाजे में जा घुसा।
सामने ही गिन्नी बैठी थी।
सिर के लम्बे बालों में कंघी कर रही थी। आँखों में काजल लगा था। आज तो नाक में नथ भी डाली थी, जो कि लश्कारा मार रही थी। वो बला की खूबसूरत लग रही थी। प्यारे का दिल जोरों से धड़क उठा।
गिन्नी उसे देखकर मुस्कुराई।
प्यारा भी मुस्कुराया और पास ही कुर्सी पर बैठ गया।
"तेरा क्या हाल है गिन्नी?"
"मैं तो ठीक हूँ...।" गिन्नी ने उसकी आँखों में झाँका--- "तू अपनी सुना।
"मैं तेरे को कैसा लगता हूँ। सच बताना।"
"अच्छा लगता है।"
"तू मेरे से शादी करेगी?" प्यारे ने प्यार से पूछा।
"मैं तो कर लूँ।" गिन्नी ने मुँह बनाया--- "लेकिन माँ के मन में जाने क्या है...।"
"चाची की बात छोड़। उसे सीधा करने का रास्ता है मेरे पास।"
"क्या?"
प्यारे ने दूसरे कमरे की तरफ झाँका और धीमे स्वर में गिन्नी से कह उठा---
"जो शादी के बाद करते हैं, वो सबकुछ पहले कर लेते हैं।"
"ये तू क्या कहता है? माँ मेरी हड्डियाँ तोड़ देगी।"
"चाची की तू फिक्र नहीं कर गिन्नी। जब बच्चा ठहर जायेगा, तब तो मेरी माँ मेरे पीछे दौड़ेगी कि मैं तेरे से शादी कर लूँ...।"
"लेकिन...।" गिन्नी हिचकिचाई।
"तेरे को मुझ पर भरोसा है?"
"हाँ... है तो सही।" गिन्नी ने धीमे स्वर में कहा।
"तो फिर ऐसा ही करते हैं...।" प्यारे ने धीमे और आग्रह भरे स्वर में कहा।
"तू मुझसे शादी करेगा ना?"
"पक्का?"
"कहीं ऐसा तो नहीं कि बाद में तू...।"
"कैसी बात करती है गिन्नी। मैं तेरे लिए तो अपनी जान भी दे सकता हूँ...।" प्यारे ने दिल पर हाथ रखकर कहा।
"एक बात बताऊँ तेरे को।" गिन्नी ने सिर आगे करके कहा।
"क्या?"
"आज सुबह लक्ष्मण आया था।"
"कौन लक्ष्मण?"
"वो जो सड़क के किनारे फुटपाथ पर स्कूटर ठीक करने का काम करता है।"
"अच्छा वो! हरामी है साला! काम-धाम करता नहीं। फुटपाथ पर बैठा आती-जाती लड़कियों को सीटी मारता रहता है।"
"मेरे को भी सीटी मारता है, जब मैं वहाँ से निकलती हूँ।"
"तू क्या बता रही थी?"
"सुबह लक्ष्मण आया। माँ उससे कह रही थी कि वो अगर एक लाख रुपया उसे देगा तो मेरी शादी उससे कर देगी।"
"चाची ने ऐसा कहा?"
"हाँ। तभी तो कहती हूँ कि पता नहीं, माँ के मन में क्या है।" गिन्नी ने भोले स्वर में कहा--- "लेकिन मैं लक्ष्मण को पसन्द नहीं करती। डरती हूँ कि कहीं माँ मेरी शादी उससे न कर दे।"
"तू फिक्र मत कर, मैं सब ठीक कर...।"
तभी चाची ने भीतर प्रवेश किया। प्यारे को देखकर वो ठिठकी और आँखें नचाकर बोली---
"वाह प्यारे! चुपके-चुपके गिन्नी से बात हो रही है...। मुझे तो खबर भी नहीं कि तू आया है...।"
"अभी तो आया हूँ चाची...।"
चाची टूटे से सोफे पर बैठते हुए कह उठी---
"अच्छा हुआ जो तू आ गया। मैं सोच ही रही थी कि तेरे से बात करूँ...।"
"क्या बात?"
"गिन्नी की शादी की।"
प्यारे ने गिन्नी को देखा, फिर चाची को देखा।
"कब कर रही है चाची, गिन्नी की शादी मेरे से?"
"रात बात की तेरे चाचा से...।"
"फिर?"
"तेरे चाचा का कहना है कि प्यारा अच्छा लड़का है, लेकिन कमाई का तो कोई रास्ता नहीं है उसके पास। शादी के बाद गिन्नी को क्या खिलायेगा...।"
"तू चिन्ता क्यों करती है चाची, मैं अपने हिस्से का भी गिन्नी को खिला दूँगा।"
"खर्चे बहुत होते हैं। कल को बच्चा होगा। उसके दूध का, बीमारी का... कई खर्चे और भी होंगे।"
"चाची, मैं कोई काम कर लूँगा।"
"तू काम करेगा तो दिन भर गिन्नी क्या करेगी?सारा दिन अकेली बैठी रहेगी ये तो...।"
प्यारे के चेहरे पर उलझन उभरी।
"तू कहना क्या चाहती है चाची? मैंने तो ठीक कहा है कि कोई काम कर...।"
"तेरे को काम की क्या जरूरत है? तू राजा बनकर, घर बैठकर खा...।"
"वो कैसे?"
"मैंने सोचा है कुछ...।"
"कह चाची। कहने में इतनी देर क्यों लगा रही है?"
"तू अपना घर बेचकर मेरे पास रहना शुरू कर दे। सारा पैसा मेरे को दे देना। जैसे तेरे चाचा देते हैं। तू घर के काम कर दिया करना और रोटी खाते रहना। गिन्नी हर वक्त तेरे पास रहेगी...।"
प्यारे ने गिन्नी को देखा।
उसे अपने को देखते पाकर, गिन्नी ने हौले से इंकार में सिर हिला दिया। उसे चाची के घर बेचने की बात बुरी लगी थी।
"मैं घर नहीं बेचूँगा।"
"क्यों?"
"जरूरत ही क्या है जो...।"
"तेरे को जरूरत नहीं, मेरे को तो जरूरत है।तू सारी उम्र मेरे घर में रहेगा तो अपने खाने का पैसा भी साथ ही लाएगा।"
"चाची, मैं गिन्नी के साथ अपने घर में ही रहूँगा।"
"ये क्या बात हुई?" चाची का चेहरा नाराजगी से भर उठा--- "मैं तेरे को घर बेचने को कह रही...।"
"मैं घर नहीं बेचूँगा। शादी के बाद वो घर गिन्नी के नाम कर दूँगा।"
"गिन्नी के क्यों, तू घर मेरे नाम कर दे। गिन्नी की माँ हूँ। बाहर की तो नहीं, जो...।"
"गिन्नी मेरी पत्नी होगी तो घर उसके नाम ही करूँगा चाची।"
चाची ने प्यारे को घूरा।
प्यारा अपनी बात पर अडिग दिखा।
एकाएक चाची मुस्कुरा पड़ी।
"तू सच में बहुत भोला है। मैं तो तेरा जुगाड़ भिड़ा रही हूँ कि तेरी जिन्दगी मजे से कटे। थोड़ा सा तो तेरे को किराया मिलता है, जोकि तेरे को ही पूरा नहीं पड़ता। गिन्नी का पेट कहाँ से भरेगा?"
"मैं कोई काम कर लूँगा।"
"काम करने के लिए पैसा चाहिए। नौकरी तो तेरे को कोई देगा नहीं। क्योंकि तू किसी लायक नहीं।"
"मैं कोई बढ़िया सा काम कर लूँगा।"
"ठीक है। पहले काम कर ले। पैरों पे खड़ा हो जा। उसके बाद मेरे पास आना।"
"तब तक तू गिन्नी का ब्याह किसी और के साथ नहीं करेगी?" प्यारे ने वादा ले लेना चाहा।
"बढ़िया रिश्ता मिला तो क्यों न करुँगी? तू क्या चाहता है कि मैं अपनी जवान लड़की को घर पर बिठाये रखूँ? तेरा क्या है, क्या पता तू अपने पैरों पर कभी खड़ा भी नहीं हो सके। तेरे को तो कहा है कि अपना मकान बेच दे। मेरे घर आकर ही रह ले। परन्तु तेरे को समझ नहीं आती मेरी बात। आज सुबह लक्ष्मण आया था। एक लाख देने को तैयार है कि अगर गिन्नी के साथ उसका ब्याह कर दूँ...।"
"लक्ष्मण तो आवारा है।"
"उसके पास नोट है प्यारे। पैसा सारी बुराइयाँ छिपा लेता है।" चाची ने मुँह बनाकर कहा--- "कल को जब वो सजा-धजा कर गिन्नी को, इसके साथ सड़क पर चलेगा तो तब तू सोचेगा कि तूने आज मेरी बात मान ली होती तो कितना अच्छा रहता...।"
प्यारा कुछ बेचैन हुआ।
गिन्नी को देखा। मन में सोचा कि गिन्नी कितनी खूबसूरत है।"
"लाखों में एक है गिन्नी...।"
"लाखों में एक तो तुम भी हो चाची।"
"मैं तो बेवकूफ थी। अपनी खूबसूरती का कभी फायदा उठाया ही नहीं। वरना कहाँ से कहाँ होती। महलों में रह रही होती।"
"चाचे को पता हैं तेरे ये ख्यालात?" प्यारे ने होंठ सिकोड़ कर कहा।
"तुझे क्या--- तू गिन्नी की तरफ ध्यान दे। वरना ये तेरे हाथों से फिसल जायेगी। कितने का होगा तेरा मकान?"
"पता नहीं...।"
"पाँच-सात का तो होगा ही...।"
"मैं सोच कर, कल बताऊँगा इस बारे में चाची।" प्यारा उठता हुआ कह उठा।
"चाय तो पीता जा। गिन्नी, प्यारे को चाय...।"
"रहने दे चाची। मन नहीं हैं।" कह कर प्यारा बाहर निकल गया।
चाची ने गिन्नी से कहा---
"कहीं प्यारा नाराज तो नहीं हो गया?"
"मुझे क्या पता...।" गिन्नी बोली।
"जा तू, प्यारे की टोह ले। उसे मकान बेचने पर राजी कर ले।" चाची बोली।
गिन्नी उठ खड़ी हुई।
"और सुन।" चाची ने गिन्नी को घूरा--- "कोई गलत काम मत करना। समझदार औरत वो होती है जो बातों-बातों में अपना काम निकाल लेती है। तू भी ऐसी बन जा। मर्दों को उँगलियों पे, इसी तरह नचाते हैं।"
"मुझे इन बातों की क्या समझ माँ...। वैसे तू मेरी शादी प्यारे से करने को तैयार है?"
"मैं पागल नहीं हूँ। लक्ष्मण से तेरा ब्याह करुँगी। वो पैसे वाला है। एक लाख नकद मुझे देने को तैयार है। प्यारे की तो इतनी भी हिम्मत नहीं हुई कि सगाई के लिए सोने की अंगूठी का इंतजाम कर सके।"चाची ने मुँह बनाकर कहा।
गिन्नी बिना कुछ कहे बाहर निकल गई।
◆◆◆
प्यारे को चाची की बात बहुत बुरी लगी थी। घर को तो वो अपने माँ-बाप की निशानी समझता था और चाची कहती है कि गिन्नी से शादी करने के लिए, घर बेचकर उसके घर पर आ जाये। पैसा सारा उसे दे दे।
आज प्यारे को पहली बार महसूस हुआ कि पैसा होना जरुरी है। ताकि चाची जैसे लोग दिल को तकलीफ देने वाली बातें न कर सकें। घर में आकर प्यारा कुर्सी पर आ बैठा था। चाची ने उसके और गिन्नी के ब्याह में अड़चन डाल दी थी। जब तक वो मकान बेचकर पैसे चाची को नहीं देगा, चाची ब्याह करने को तैयार नहीं होगी।
परन्तु प्यारे को विश्वास था कि गिन्नी उसकी, वो वाली बात मान जायेगी शादी से पहले माँ बनने वाली बात। फिर तो चाची उसके पीछे दौड़ेगी कि वो गिन्नी से शादी कर ले। मन-ही-मन प्यारे ने तय किया कि वो कोई काम भी करेगा। चाची ने ठीक ही तो कहा कि परिवार पालने के लिए, पैसे की जरूरत होती है।
तभी गिन्नी ने भीतर प्रवेश किया।
गिन्नी को देखते ही प्यारा फौरन खड़ा हो गया।
"गिन्नी...।"
"माँ की बात का बुरा मत मानना।" गिन्नी बोली--- "वो तेरे को घर बेचने को कह रही थी...।"
"मैं घर नहीं बेचूँगा।"
"मत बेच। मैंने तो नहीं कहा तेरे से।" गिन्नी मुस्कुरा पड़ी।
प्यारे ने आगे बढ़कर गिन्नी का हाथ थाम लिया। गिन्नी ने कोई एतराज नहीं किया।
"तेरे को अच्छा लगा कि मैंने तेरा हाथ पकड़ा?" प्यारे ने प्यार से कहा।
"हाँ। तू लक्ष्मण से बहुत अच्छा है। मैं तेरे से ब्याह करुँगी।" गिन्नी बोली।
"सच?"
"तेरी कसम।"
"ओह गिन्नी! तू कितनी अच्छी है...।" प्यारे का चेहरा खुशी से चमक उठा--- "देख, तेरी माँ सीधी तरह तो मानने वाली नहीं। एक ही रास्ता बचा है, जो तेरे को बता चुका हूँ। मैं तेरे पेट में बच्चा ठहरा देता हूँ।"
गिन्नी शरमा उठी।
"मंजूर है न तेरे को?"
"फिर तू मेरे से शादी करेगा न?"
"पागल नहीं हूँ जो तेरे से शादी न करूँ...। तेरे से शादी करने के लिए ही तो ये सबकुछ कर रहा हूँ। चल पीछे वाले कमरे में...।"
"क्यों?" गिन्नी के होंठों से निकला।
"वो सब करके बच्चा...।"
"माँ आ जायेगी। उसे पता है कि मैं तेरे पास आई हूँ...।"
"ओह! चाची दो-चार दिन के लिए कहीं बाहर भी नहीं जाती।" प्यारा झल्लाया।
गिन्नी शर्म से मुस्कुरा रही थी। वो कह उठी---
"मौसी के लड़के का ब्याह है। जल्दी ही...।"
"सच?" प्यारे खुश हो उठा।
"हाँ। लेकिन तब तो वो मेरे को साथ लेकर जायेगी।" गिन्नी ने कहा।
"सच?"
"हाँ। बहाना लगा दूँगी। अपने को बीमार कर लूँगी।"
"ओह गिन्नी! तू कितनी अच्छी है...।" प्यारे ने उसका हाथ दबाया--- "तू...तू...।"
"बस भी कर, अब मुझे जाने दे।" गिन्नी ने हाथ छुड़ाया।
"तो हमारा प्रोग्राम पक्का रहा?"
गिन्नी ने सहमति से सिर हिलाया और पलटकर बाहर चली गई।
प्यारे खुश था।
सब काम आसानी से हो गया। चाची शादी में जाये तो पीछे से रास्ता साफ। पत्ते सीधे पड़ रहे थे। खुशी से प्यारे के पाँव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। उसी वक्त सोनू आ धमका।
"बहुत सही वक्त पर आया तू। मुझे तेरी ही कमी महसूस हो रही थी।"प्यारा कह उठा।
"सब ठीक तो है?" सोनू ने प्यारे को देखा।
"गिन्नी पट गई।" प्यारा बोला--- "बच्चा ठहराने वाली बात तय हो गई है।"
"तय हो गई? तो क्या तूने उसे साफ-साफ कह दिया था?" सोनू हड़बड़ा उठा।
"हाँ तो...।"
"वो मान गई? उसने जूतियां नहीं मारीं तुझे...। चाची तेरे को ठोकने नहीं आई...।"
"क्या बात करता है! गिन्नी मुझे पसन्द करती है।"
सोनू अभी तक अटपटाया सा, प्यारे को देखे जा रहा था।
"क्या हुआ?"
"कुछ नहीं। तू आगे कह। मैं तो बाकी का ढाई सौ देने के चक्कर में राखी बंधवाने भी नहीं गया। तूने कुछ किया गिन्नी के साथ...?"
"अभी कहाँ! अभी तो बात ही पक्की हुई है। गिन्नी ने बताया कि चाची एक-दो दिन में शादी में जाने वाली है,तब...।"
"फिर तो गिन्नी भी साथ जायेगी।"
"वो कहती है बीमार होने का बहाना बनाकर घर पर रह लेगी।"
"समझदार है गिन्नी...।" सोनू ने सिर हिलाया।
प्यारा मुस्कुराया, फिर कह उठा---
"ये रास्ता तूने ही सुझाया है कि गिन्नी को बच्चा ठहरा दूँ, फिर तो चाची शादी करने को पीछे दौड़ेगी।"
"वो तो मुझे भगते की याद आ गई कि उसकी शादी ऐसे ही हुई थी।"
"भगता किस्मत वाला निकला। मैं आज भगते से मिलूँगा।"
"क्यों?"
"उससे पूछूँगा कि उसने बच्चा कैसे ठहराया। कोई तो फायदे की बात बताएगा जो मेरे काम आएगी।"
"ठीक है। बात करना उससे।"
"अमर सिंह ने तेरे को स्मैक दी कि नहीं?"
"दी होती तो दोनों एक साथ बैठकर मजा करते। कमीना तीन सौ पहले माँगता है।"
"किरायेदार नहीं लौटा गाँव से?"
"अभी कहाँ आएगा! हफ्ते के लिए कहकर गया है, पन्द्रह दिन से पहले नहीं आने वाला। तेरे किरायेदार ने नहीं दिए पैसे?"
"रात माँगे थे। बोलने लगा कि अभी तनख्वाह नहीं मिली।"
"ये सब ऐसे ही होते हैं।" प्यारे बोला--- "मैं अब कोई काम करूँगा सोनू...।"
"काम... क्यों?"
"गिन्नी से शादी हो जायेगी। खर्चे बढ़ जायेंगे। किराये से काम कैसे चलेगा?"
"तेरे को काम करने की क्या जरूरत है?तू मेरे घर में रहने आ जा। एक कमरा तेरे लिए खाली कर दूँगा।"
"तो अपने घर का क्या करूँगा?"
"किराये पर दे देना।"
"बात तो तेरी ठीक है। लेकिन काम तो करना ही पड़ेगा। कल को दो-तीन बच्चे हो गए तो काम कैसे चलेगा?"
"ठीक है। कर लेना काम। पहले गिन्नी से शादी कर ले।"
"तू भगते से मिलकर पूछ, शायद वो कोई बढ़िया टोटका बता दे, बच्चा ठहराने का...।"
"आज ही मिलूँगा। पूछूँगा उससे।"
◆◆◆
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