बहुत चौड़ी खाई थी वो।
उनसे मात्र दस-बारह कदमों की दूरी पर। खाई की गहराई पचास फीट के करीब थी। नीचे सांप-नाग-बिच्छू-अजगर के अलावा और भी कई तरह के जहरीले कीड़े नज़र आ रहे थे। उनकी फुंफकारें कानों में ऐसे पड़ रही थीं, जैसे तूफान की मध्यम सी आवाजें होती हैं।
और देवराज चौहान उसी खाई में पन्द्रह फीट नीचे हवा में लहरा रहा था। जैसे किसी अदृश्य शक्ति ने उसे बीच में ही थाम लिया हो। तलवार हाथ में ही दबी थी।
ऐसे में नीचे मौजूद अजगर और सांप-नागों में तीव्र हलचल पैदा हो गई थी। वो फन लपक-लपक कर ऊपर की तरफ आना चाहते थे। कई सांप-बिच्छू खाई की साइडों की दीवारों पर रेंगते हुए, कुछ ऊपर आये हुए थे। परन्तु वो खाई की दीवार के आधे से ज्यादा ऊंचे नहीं थे।
“देवराज चौहान...!” जगमोहन चीख उठा-“ये क्या हो गया?”
देवराज चौहान ने ऊपर देखा। उसके चेहरे पर परेशानी स्पष्ट नज़र आ रही थी।
“ये तो गया।” महाजन के होंठों से निकला।
“चुप कर।” जगमोहन गुर्रा उठा।
महाजन ने बोतल से एक साथ कई घूंट भरे।
“तुम...तुम बाहर नहीं आ सकते।” जगमोहन समझ नहीं पा रहा था कि ऐसी स्थिति में क्या कहे?
“मैं शायद कुछ भी नहीं कर सकता।” दांत भींचे देवराज चौहान कठोर स्वर में कह उठा-“किसी शक्तिशाली पंजे ने मेरा शरीर जकड़ रखा है। ऐसा महसूस हो रहा है मुझे...।”
“उस हरामजादे शैतान के अवतार ने बुरी तरह फंसा दिया।”
जगमोहन के होंठों से गुर्राहट निकली-“अगर देवराज चौहान नीचे गिरा तो नाग-अजगर उसे फौरन डंस लेंगे।”
“कोई रास्ता होता तो...।”
“तब भी हम कुछ नहीं कर सकते। तुमने सुना नहीं देवराज चौहान ने कहा है कि जैसे उसे किसी ताकतवर पंजे ने जकड़ रखा है। यानि कि पंजे के रूप में जो मायावी शक्ति है, वो हमें नजर नहीं आ रही।”
कहते हुए जगमोहन ने मोना चौधरी को देखा-“देवराज चौहान को कैसे बचाया जाये? कुछ सोचो। तुमने तो कहा था कि ये रास्ता साफ है तो फिर नागों-अजगरों से भरी खाई यहां कैसे आ गई?”
मोना चौधरी शांत निगाहों से देवराज चौहान को देख रही थी
“तुम कुछ कहती क्यों नहीं?” जगमोहन पुनः बोला।
“वो तलवार हमारे पास होती तो शायद हम कुछ कर सकते...।” महाजन ने चिन्तित स्वर में कहा।
मोना चौधरी ने देवराज चौहान पर से निगाहें हटाकर जगमोहन को देखा। उसी पल जगमोहन के देखते ही देखते मोना चौधरी के चेहरे पर कहर से भरी मुस्कान फैल गई।
जगमोहन चौंका।
“क्या हुआ?” उसके होंठों से निकला।
महाजन की नज़रें भी मोना चौधरी पर गईं तो चेहरे पर अजीब से भाव आ ठहरे।
“ये सब देखकर इसका दिमाग तो नहीं हिल...।”
“बेबी का दिमाग हिलने वालों में से नहीं है।” महाजन उलझन
में था-“तुम मुस्करा क्यों रही हो?”
मोना चौधरी हंसी।
“ये पागल हो गई लगती है महाजन...।”
तभी उन दोनों को लगा जैसे बिजली सी कौंधी हो। मात्र सेकेंड भर के लिये इसके साथ ही उन्हें अपने बदन पर चींटियां सी रेंगती महसूस हुईं। जहां मोना चौधरी खड़ी थी, वहां दो फीट की ऊंचाई के रूप में जिन्न बाधात खड़ा था और चेहरे पर फैली थी वो ही जहरीली मुस्कान।
“ये-ये तो वो ही जिन्न है जो-।”
जगमोहन अपने शब्द भी पूरे न कर सका और जिन्न बाधात ने वहीं खड़े-खड़े छलांग लगाई तो दूसरे ही क्षण वो खाई के उस तरफ नज़र आने लगा। वो दोनों इस तरफ खड़े थे। और खाई के बीच में अभी तक देवराज चौहान हवा में झूल रहा था।
“आया मजा...।” जिन्न बाधात बोला और साथ ही उसकी हंसी वहां गूंज उठी।
“धोखा...।” जगमोहन के होंठों से निकला।
“बेबी के रूप में जिन्न बाधात हमारे साथ था।” महाजन हक्का-बक्का था।
जिन्न बाधात खाई के दूसरी तरफ खड़ा मजे से उनकी हालत देख रहा था।
“मैं अपने बड़े रूप में नहीं आ सकता।” जिन्न बाधात कह
उठा-“ऊपर जगह नहीं है। इसलिये मेरे छोटे रूप को ही, तुम मनुष्यों को पसन्द करना होगा।”
“तुम तो वास्तव में बड़े कमीने हो।” महाजन ने घूंट भरा।
“ऐसा ही हूँ मैं। मालिक का हुक्म मानना मेरा धर्म है।” जिन्न बाधात हंस कर कह उठा-“देवराज चौहान लाल रोशनी वाले सही रास्ते में प्रवेश करने वाला था। इसलिये मैंने मोना चौधरी के रूप में सामने आकर इसके रास्ते में बाधा डाल दी। तिलस्म के ताले तक भी, तुम मनुष्यों को आसानी से...।”
“इसका मतलब तुमने झूठ कहा था कि हमारे साथी मर गये?” देवराज चौहान कह उठा।
सबकी निगाह देवराज चौहान पर गई।
“हां। वो झूठ था। झूठ न बोलता तो तुम मनुष्यों को रास्ते पर कैसे लाता।”
“ये अच्छी बात सुनने को मिली कि सब जिन्दा हैं।” जगमोहन ने राहत की सांस ली।
“तुम मेरे साथ क्या करना चाहते हो?” देवराज चौहान ने खाई में हवा में लटके पूछा।
“कुछ नहीं।” जिन्न बाधात ने सरल स्वर में कहा-“मैं तुम्हारी
जान नहीं लूंगा। हुक्म नहीं है।”
“तो फिर ये सब करने का क्या मतलब है?”
“तुमने तिलस्म में कैद इच्छाधारी नाग-नागिन को आजाद करवा दिया।” जिन्न बाधात ने शांत स्वर में कहा-“ये काम तुमने शक्तियों से भरी इस तलवार की ताकत से किया वरना यहां पर तो कुछ कर पाना तुम्हारे लिये सम्भव नहीं है। मैं तुमसे तलवार लेना चाहता हूं...।”
“तलवार?”
“हां। इस तलवार से तुम ऐसे कई काम कर चुके हो जो शैतान के अवतार को पसन्द नहीं आ रहे। तलवार मेरे हवाले कर दो और मौज करो। फिर किसी भी रास्ते पर जाना। रोकूंगा नहीं। बाधा नहीं डालूंगा। जिस खतरे में अब पड़े हो, उस खतरे से भी
बाहर निकल जाओगे।”
“तुमने कैसे सोच लिया कि मैं तुम्हें तलवार दे दूंगा।” देवराज चौहान ने तीखे स्वर में कहा।
“बहुत आसानी से सोच लिया।” जिन्न बाधात के चेहरे पर खतरनाक मुस्कान उभरी-“अगर तुम मुझे तलवार नहीं देते तो मेरी परछाई तुम्हें छोड़ देगी। तुम जहरीले नागों और अजगरों के बीच जा गिरोगे। वैसे भी वो सब तब से उतावले हो रहे हैं, जब से उन्होंने तुम्हें देखा है। नीचे गिरते ही उनके ज़हर से सेकेंडों में मर जाओगे। तब तुम्हारी तलवार बेकार में वहां पड़ी रहेगी। तुम्हारे साथी उसे हासिल नहीं कर सकेंगे। अब तुम समझदार हो कि तुम्हें तलवार मेरे हवाले कर देनी चाहिये। कम से कम इस वक्त अपनी जान तो बचा लो।”
देवराज चौहान ने होंठ भींच लिए।
जगमोहन और महाजन की गम्भीर-परेशान नज़रें मिलीं।
“सोच लो। सोच लो।” जिन्न बाधात हंसा-“अपनी जान बचाने के लिए तुम्हें मेरी बात माननी ही पड़ेगी।”
“अभी तो तुमने कहा था कि तुम्हारे पास मेरी जान लेने का हुक्म नहीं है।”
“वो तो अब भी कहता हूं...।”
“फिर मेरी जान के पीछे क्यों पड़े हो? क्यों मेरी जान...?”
“मैं तुम्हारी जान नहीं ले रहा। मैं तो तुम्हारे काम में बाधा डाल रहा हूं। तुम्हारी जान तिलस्म में मौजूद ये नाग-बिच्छू लेंगे।” जिन्न बाधात बोला।
“लेकिन यहां तक तो तुमने ही मुझे पहुंचाया।”
“तो क्या हो गया। बचने का मौका भी तो दे रहा हूं। तलवार मुझे दो और खुद को बचा लो। मेरी परछाई ने ही तुम्हें पकड़ रखा है। वरना सांपों के बीच गिरकर तुम कब के मर जाते।”
“अगर मैं तुम्हें तलवार न दूं तो?”
“तो सच में मेरी परछाई तुम्हें छोड़ देगी। तुम नीचे गिरोगे और सांप तुम्हें डंस लेंगे। इंकार करके देखो और उसी पल मेरी बात की सच्चाई जान लो।”
“ये जिन्न तो वास्तव में बहुत बड़ा हरामजादा है।” जगमोहन दांत भींचकर कह उठा।
“देवराज चौहान बुरी तरह फंस गया है।” महाजन ने होंठों पर जीभ फेरी।
देवराज चौहान अपनी पोजिशन बखूबी समझ रहा था। वो ऐसी स्थिति में नहीं था कि तलवार देने से इन्कार करके देखता कि जिन्न वास्तव में सच कह रहा है। और तलवार देने का मतलब था मौत से भरे इस तिलस्म में बे-हथियार हो जाना। जो भी हो, मुद्रानाथ की शक्तियों से भरी तलवार का उसे बहुत सहारा था। ये तलवार पास न होती तो अब तक जान गवां चुका होता।
जिन्न बाधात हंस पड़ा।
“अच्छी तरह सोच लो। तलवार मेरे हवाले करनी ही पड़ेगी। नहीं तो जान गंवाओगे।”
“तलवार इसे दे दो।” जगमोहन व्याकुलता से कह उठा।
“फिर भी क्या भरोसा कि ये अपनी बात पर खरा रहेगा।” महाजन भिंचे स्वर में बोला।
देवराज चौहान ने हाथ में थमी तलवार को देखा। चेहरे पर गम्भीरता और परेशानी नाच रही-थी। वो महसूस कर चुका था कि इस वक्त हालात उसके बस में नहीं हैं। आजमाने के लिये सिर्फ एक ही रास्ता नजर आया। वो ही किया देवराज चौहान ने।
“हे पवित्र शक्तियों से भरी तलवार! मुझे बचा।” देवराज चौहान बड़बड़ाया।
उसी पल देवराज चौहान को अपने शरीर में बदलाव महसूस हुआ।
जगमोहन और महाजन के देखते ही देखते देवराज चौहान का शरीर सिकुड़ कर पतला होता चला गया। दूसरे क्षण ही वहां छोटा सा सांप लहराता नजर आया। तलवार जाने कहां गायब हो गई थी। कुछ पल वो सांप यूं ही हवा में बल खाता रहा फिर देखते ही देखते, खाई में मौजूद अन्य सांप-नागों के बीच गिरता चला गया।
हक्के-बक्के से जगमोहन और महाजन ने खाई में देखा।
वहां पहले की तरह सांप-बिच्छू नाग-अजगर किसी ढेर की तरह दिखाई दिए।
“देव-देवराज चौहान कहां गया?” महाजन के होंठों से निकला।
जगमोहन के चेहरे पर एक रंग आ रहा था तो दूसरा जा रहा था।
“देवराज-देवराज चौहान सांप बनकर, सांपों में जा गिरा।”
जगमोहन के होंठों से निकला।
“ये कैसे हो सकता है?” परेशान से महाजन ने घूंट भरा।
“उस-उसने तलवार की शक्तियों का इस्तेमाल किया होगा।” जगमोहन ने महाजन को देखा।
“ओह! अवश्य ऐसा ही हुआ होगा।”
तभी उनकी निगाह जिन्न बाधात पर पड़ी।
जिन्न बाधात के चेहरे पर क्रोध के भाव नज़र आ रहे थे।
“बच गया।” जिन्न बाधात के होंठों से गुस्से से भरा स्वर निकला।
महाजन और जगमोहन की नज़रें मिलीं।
“मुझे मात दे गया ये मनुष्य। सब तलवार की शक्तियों का कमाल है। वरना मेरी बाधा को पार करना असम्भव होता है। देखूंगा इसे।” इन शब्दों के साथ ही एकाएक जिन्न बाधात वहां से गायब हो गया। धुएं की लकीर ही बाकी नज़र आती रही। फिर वो भी नज़र आनी बंद हो गई।
जगमोहन ने खाई की गहराई में देखा।
“अब क्या होगा?” जगमोहन बोला।
“क्या मतलब?”
“मैं देवराज चौहान की बात कर रहा हूं।” जगमोहन परेशान सा कह उठा-“वो सांप बन गया है। अब हम उससे कैसे मिलेंगे? वो असल रूप में कैसे आयेगा?”
“क्या मालूम...।” महाजन ने गहरी सांस ली।
“मैं, देवराज चौहान के बिना यहां से नहीं जाऊंगा।” जगमोहन दृढ़ स्वर में कह उठा।
“देवराज चौहान है कहां, जिसे साथ लेकर जाओगे।” महाजन ने उसे देखा-“वो तो सांप बन गया है।”
जगमोहन ने कुछ नहीं कहा। होंठ भींचे नीचे बैठ गया।
“क्या हुआ?”
“तुम जाओ।” जगमोहन व्याकुल गम्भीर स्वर में कह उठा-“मैं यहीं रहूंगा।”
“देवराज चौहान के इन्तजार में?”
“हां।”
“कोई जरूरी तो नहीं कि वो आये ही आये। क्या मालूम वो कैसे हालातों में जा पहुंचा है।”
“तभी तो कह रहा हूं कि तुम जाओ। मैं यहां से देवराज चौहान के बिना नहीं जाऊंगा।” कहते हुए जगमोहन के चेहरे पर दृढ़ता
भरी मुस्कान आ ठहरी-“शायद तुम यहां रुककर अपना वक्त बरबाद कर लो।”
बोतल थामे महाजन नीचे बैठ गया और शांत स्वर में बोला।
“मैंने कहां जाना है। यहां भी मौत है। यहां से जहां जाऊंगा। वहां भी मौत है। यहां कम से कम तुम्हारा साथ तो है। मौत के दरवाजे तक पहुंचते-पहुंचते, वक्त बातों में कट जायेगा।” जगमोहन कुछ नहीं बोला।
“तुम्हें भूख नहीं लगी?” महाजन ने पूछा।
“पहले तो लगी थी। जगमोहन ने गम्भीर स्वर में कहा-“अब
इच्छा नहीं है।”
महाजन अपने पेट पर हाथ फेर कर रह गया।
☐☐☐
दो घंटे बीत गये।
जगमोहन और महाजन वही बैठे रहे। उनके बीच कोई खास बातें नहीं हुई। न ही जिन्न बाधात दोबारा वहां आया। खाई के तले में नाग-सांप-बिच्छू-अजगर जैसे अपनी ही दुनिया में मस्त नज़र आ रहे थे। अजीब सी खामोशी वहां छाई हुई थी।
“ये भी तो हो सकता है कि सांप बनकर देवराज चौहान ऐसे हालातों में फंस गया हो कि दोबारा इन्सानी व्यक्तित्व में आ पाना उसके लिए सम्भव न हो पा रहा हो।” एकाएक महाजन ने कहा।
“कुछ भी हो सकता है।” जगमोहन के चेहरे पर गम्भीरता थी।
“तो फिर तुम कब तक यहां बैठे रहोगे?”
“जब तक देवराज चौहान नहीं आता।”
“वो आया ही नहीं तो?”
“वो ही तुम्हारी वाली बात।” जगमोहन मुस्करा पड़ा। “यहां तो
हर तरफ मौत ही मौत है। कभी भी, कहीं भी हमारे साथ कुछ भी हो सकता है। फिर यहां बैठकर मरने में क्या बुराई है।”
“कोई बुराई नहीं।” कहकर महाजन ने गहरी सांस ली-“लेकिन
खा-पीकर मरते तो आत्मा शांत रहती।”
“आत्मा की फिक्र मत करो। उसे कोई तकलीफ नहीं होगी।”
“क्या मतलब?” महाजन ने होंठ सिकोड़े।
“मोगा की बात भूल गये क्या। यहां की धरती पर जो मरेगा, उसकी आत्मा पर शैतान का अधिकार हो जायेगा। फिर उसे शैतान ही जन्म देगा। अपने कामों के लिए इस्तेमाल करेगा। ऐसी आत्मा को बहुत संभाल कर रखेगा। उसे हर तरह की तृप्ति देगा।”
इससे पहले कि महाजन कुछ कहता।
उनके कानों में मध्यम सी फुंफकार पड़ी।
दोनों की निगाहें तुरन्त घूमी।
खाई के किनारे से एक छोटे से पतले से, सांप को बाहर आते देखा। वो अभी आधा ही बाहर आया था। दोनों जल्दी से उठ खड़े हुए।
“जगमोहन!” महाजन के होंठों से निकला-“सांप अब बाहर
आने लगे हैं।”
लेकिन जगमोहन तो होंठ भींचे आंखें सिकोड़े सांप को देख
रहा था, जो धीरे-धीरे खाई से बाहर आता जा रहा था। एकाएक जगमोहन की आंखों में चमक नज़र आने लगी।
“महाजन! ये देवराज चौहान है।” जगमोहन ने एक-एक शब्द चबाकर कहा।
“क्या?” महाजन चौंका-“ये...ये देवराज चौहान है!”
“हां। ये देवराज चौहान ही है।” जगमोहन का स्वर पहले जैसा ही था-“खाई से सांप बाहर नहीं आ रहे, बल्कि एक यही सांप बाहर आया है। देवराज चौहान जब सांप बन गया था तो ऐसा ही सांप था, छोटा सा। पतला सा। ये-ये सांप ही देवराज चौहान है।”
कुछ कहने की अपेक्षा महाजन ने तगड़ा घूंट भरा।
सांप अब पूरा का पूरा खाई से बाहर आ चुका था और उसने बैठकर अपना मुंह ऊपर करके दोनों को चमक भरी आंखों से देखा।
महाजन दो कदम पीछे हटता कह उठा।
“पीछे हट जा। ये डस सकता है। जहरीला लगता है।”
“महाजन...।” जगमोहन ने अपनी जगह से हिलने की कोशिश
नहीं की। नज़रें सांप पर थीं-“ये देवराज चौहान ही है।”
“होगा लेकिन तू पीछे...।”
ठीक तभी सांप का आकार बड़ा होने लगा। आकार बड़ा होते-होते ही एकाएक वहां देवराज चौहान खड़ा नज़र आया। वो पसीने से भरा हुआ था। कपड़े भी पसीने से भीगे हुए थे। सिर के बाल गीले होकर माथे से चिपक रहे थे। तलवार हाथ में थमी थी।
जगमोहन का चेहरा प्रसन्नता से भर उठा।
महाजन हैरान था। लेकिन चेहरे पर मुस्कराहट आ ठहरी थी।
“मैं जानता था, खाई से बाहर आने वाले तुम ही हो।”
देवराज चौहान गहरी-गहरी सांसें ले रहा था। जैसे भारी मेहनत करके हटा हो।
“ठीक हो?” जगमोहन ने पूछा।
देवराज चौहान ने सहमति से सिर हिला दिया।
“ये सांप बनकर बाहर आ सकता है तो खाई में मौजूद बाकी सांप-नाग-बिच्छू बाहर क्यों नहीं आ रहे?” महाजन बोला।
“खाई को बीच में से मंत्रों द्वारा कील रखा है।” देवराज चौहान कह उठा-“नीचे से कोई भी उन मंत्रों की शक्ति को काटकर ऊपर तक नहीं आ सकता।” देवराज चौहान सांसों पर काबू पा चुका था।
“ओह!” महाजन ने सिर हिलाया-“इसका मतलब इस तलवार में मौजूद शक्तियां ही उन मंत्रों को काट सकी और तुम ऊपर तक आ गए।”
“हां। ठीक समझे...।” कहते हुए देवराज चौहान का चेहरा कठोर हो गया-“जिन्न बाधात ने वास्तव में मुझे बुरी तरह फंसा
दिया था। आओ यहां से चलें।”
“कहां?”
“उसी लाल रोशनी वाले रास्ते पर। मैं सही रास्ते पर बढ़ा था। तभी जिन्न बाधात ने मोना चौधरी के रूप में आकर हमें गलत रास्ते पर डाल दिया। वो भी माना था कि लाल रोशनी वाला रास्ता सही है।” देवराज चौहान के चेहरे पर दरिन्दगी आ ठहरी थी।
“जहां कहोगे, वहीं चलेंगे।” महाजन मुस्कराया-“खाने-पीने का इन्तजाम कर सकती है ये तलवार।”
“हो जायेगा। यहां से चलो। उसी कमरे में खाना खाते हैं। फिर
आगे बढ़ेंगे।” तीनों वापस उसी कमरे में पहुंचे।
सब कुछ वैसा ही था, जैसा वो छोड़कर गये थे। वो व्यक्ति भी
वहीं खड़ा था।
“हैरानी है कि आप लोग जिन्न बाधात के हाथों से जिन्दा बचकर आ गये।” वो कह उठा।
“उल्लू के पट्ठे तूने पहले क्यों नहीं बताया कि वो मोना चौधरी
नहीं जिन्न बाधात है।” जगमोहन ने उसे घूरा।
“मैंने तो तब भी कहा था कि...।”
“चुप कर...।” महाजन ने झल्लाकर कहा-“थाली के बैंगन
की तरह गोल-गोल बातें करता है।”
देवराज चौहान ने तलवार को देखा और बुदबुदा उठा।
“हे तलवार! खाने का इन्तजाम कर...।”
उसी पल कमरे में टेबल, तीन कुर्सियां और टेबल पर मौजूद खाने का तरह-तरह का सामान नज़र आने लगा। तीनों कुर्सियों पर जा बैठे। खाने की महक से सारा कमरा भर गया था।
“उससे भी पूछ ले खाना हो तो।” महाजन ने जगमोहन से कहा।
“वो...।” जगमोहन ने उस व्यक्ति को देखकर मुंह बनाया...। वो शैतान की धरती का है। कुत्ते-बिल्लियां खाने की आदत होगी उसे। ये खाना तो उसके लिए घास-फूस से ज्यादा महत्व नहीं रखता होगा।”
☐☐☐
खाना खाने के पश्चात तीनों लाल रोशनी वाले रास्ते में प्रवेश
कर गये। उनके कुर्सियों से उठते ही, कुर्सियां-टेबल एकाएक गायब हो गये और कमरा पहले की तरह नजर आने लगा था।
“यहां भी कोई मुसीबत न खड़ी हो हमारे लिये...।” जगमोहन बोला।
“मुसीबत तो अवश्य होगी।” महाजन कह उठा-“वो कैसी मुसीबत होगी, ये देखना है।”
कुछ कदम उठाने के बाद आगे धुंध आ गई थी। परन्तु उनके बढ़ते कदमों के साथ धुंध पीछे सरकती जा रही थी। देवराज चौहान तलवार संभाले सावधानी से आगे बढ़ रहा है।
“यहां भी धुंध हमारे कदम बढ़ाने के साथ पीछे हटती जा रही है।” देवराज चौहान किसी भी तरह के खतरे के प्रति पूरी तरह सचेत था।
“ऐसा होना तिलस्म की कोई चाल हो सकती है, आने वाले को फांसने के लिये...।” महाजन ने कहा।
तभी देवराज चौहान ठिठक गया।
जगमोहन और महाजन भी ठिठके।
धुंध एकाएक गायब हो गई थी। सामने दीवार थी। रास्ता बंद था। दीवार के पास ही लोहे की पुरानी जंग खाई सीढ़ियां ऊपर जाती नज़र आ रही थीं।
“रास्ता बंद...।” जगमोहन बोला।
“और सीढ़ियां कह रही हैं ऊपर चलो।” महाजन ने होंठ सिकोड़कर कहा।
देवराज चौहान ऊपर देख रहा था। जहां सीढ़ियां खत्म हो रही थीं। दस फीट ऊपर छत थी और सीढ़ियों की समाप्ति पर, छत के ऊपर जाने का रास्ता बना हुआ था।
“आओ...।” कहते हुए आगे बढ़कर देवराज चौहान ने सीढ़ी पर पांव रखा।
“ऊपर जाकर किसी परेशानी में पड़ सकते हैं।” जगमोहन बोला।
“रुकने से कुछ भी हासिल नहीं होगा।” देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा-“आगे बढ़ना ही होगा।”
“बात तो सही है।”
जगमोहन गहरी सांस लेकर रह गया।
देवराज चौहान धीरे-धीरे सीढ़ियां चढ़ने लगा। तलवार थामे वो सतर्क था। नज़रें ऊपर की ही तरफ थीं। पीछे महाजन और जगमोहन थे।
सीढ़ियां खत्म होते ही उन्होंने खुद को एक साफ से कमरे में पाया। कमरे में सिर्फ एक ही दरवाजा था जो कि इस वक्त बंद था।
“इस दरवाजे के पार हमारे लिए नई परेशानियां इन्तजार कर रही होंगी।” महाजन के होंठों से निकला।
जगमोहन ने देवराज चौहान को देखा।
देवराज चौहान आगे बढ़ा और बंद दरवाजे को खोला। ठण्डी हवा का झोंका उसके शरीर से टकराया। बाहर, हरे-भरे बाग का दृश्य नजर आया। फलदार पेड़ झूम रहे थे। मखमल की हरी घास किसी कालीन की तरह बिछी लग रही थी। लाल पत्थर के रास्ते बने कई दिशाओं में जा रहे थे।
“ये हम कहां आ गये?” महाजन कह उठा।
“खतरों का रंगीन महल कह लो इस जगह को।” जगमोहन के होंठ भिंच गये-“नई मुसीबत हमेशा नये रूप में, नई जगह ही आती है। ये खूबसूरत जगह, हमारी मौत की जगह भी हो सकती है।”
देवराज चौहान ने कदम उठाया और कमरे से निकलकर बाग में जा पहुंचा।
“चल भाई!” महाजन ने कहा और कदम आगे बढ़ा दिए।
दोनों कमरे से निकलकर, बाग में, देवराज चौहान के पास आ पहुंचे। देवराज चौहान की सोच भरी उलझी निगाह हर तरफ घूम रही थी। हरी घास के बीच बने, दूर तक जाते लाल पत्थरों के तीन फीट चौड़े रास्तों पर उसकी निगाह खास तौर पर जा रही थी। कुछ आगे लाल पत्थर का ही दस फीट गोलाई का फर्श बना हुआ था। उस फर्श से ही वो रास्ते बनकर कई दिशाओं में जा रहे थे। उन रास्तों की संख्या नौ थी।
“उन रास्तों की वजह से बाग की खूबसूरती और भी ज्यादा महसूस हो रही है।” महाजन ने कहा।
“वो रास्ते नहीं हैं।” देवराज चौहान ने होंठ भींचे कहा-“कुछ और ही हैं।”
“क्या, कुछ और?” महाजन ने देवराज चौहान को देखा।
“तिलस्म में हर चीज का कोई मतलब होता है। यहां लोग घूमने नहीं जाते के रास्ते बनाये जायें।” देवराज चौहान ने महाजन और जगमोहन को देखा-“ऐसे में यहां, इस तरह के रास्ते बनाये हुए हैं तो अवश्य इन रास्तों के साथ कोई खास बात जुड़ी होगी।”
“कैसी खास बात?” जगमोहन के माथे पर बल पड़े-“तुम
उलझन वाली बातें कर रहे हो।”
“मैं तो सिर्फ ये समझाना चाहता हूँ कि इन रास्तों में अवश्य
कोई रहस्य छिपा है। तिलस्म में जो रास्ता बनाया जाता है, वो सिर्फ फंसाने और भटकाने के लिये बनाया जाता है।” देवराज चौहान के चेहरे पर सख्ती नज़र आने लगी थी-“आओ, वहां चलकर देखते हैं।” कहने के साथ ही देवराज चौहान आगे बढ़ा-“हम जहां जाना चाहते हैं, वहां का रास्ता हमें उन्हीं रास्तों से ही मिलेगा।”
“हम तिलस्म के ताले तक पहुंचना चाहते हैं।” जगमोहन के
माथे पर बल नज़र आ रहे थे।
“उन्हीं रास्तों में से एक रास्ता अवश्य तिलस्म के ताले तक जा रहा है।”
तीनों उस तरफ बढ़ने लगे थे।
“क्या मालूम कौन सा रास्ता हमारे काम का है।” महाजन बोला।
“यही तो मालूम करना है।” देवराज चौहान के दांत भिंच गये थे।
मिनट भर में ही तीनों उस रास्ते के गोल चक्कर पर जा पहुंचे। जहां से वो नौ रास्ते निकल रहे थे।
☐☐☐
दस फीट के लाल पत्थर की गोलाई पर खड़े उन्होंने उन रास्तों को देखा। हर रास्ते के बीच बराबर का फासला था। दो-तीन मिनट तक वो वहीं खड़े आसपास देखते रहे।
“अब ये कैसे पता चलेगा कि हमें किस रास्ते पर जाना है?” जगमोहन ने कहा।
“इन नौ रास्तों में से एक रास्ता हमारे काम का है।” महाजन ने सोच भरे स्वर में कहा।
“सही रास्ता पहचानने की अवश्य कोई तरकीब होगी।” देवराज चौहान ने दृढ़ स्वर में कहा।
“तरकीब का पता कैसे चलेगा?”
“मालूम नहीं।” देवराज चौहान ने सोच भरे स्वर में कहा और
सिगरेट सुलगा ली।
तभी जगमोहन आगे बढ़ा और एक रास्ते पर दो कदम आगे
बढ़कर वापस लौट आया। ये हरकत उसने तीन-चार अन्यों रास्तों पर भी की।
“क्या कर रहा है?” महाजन ने पूछा।
“मुझे खुद नहीं पता कि मैं क्या कर रहा हूं।” जगमोहन ने गहरी सांस ली।
महाजन ने देवराज चौहान को देखा।
“अब क्या करें?”
“तुम ही बताओ।” देवराज चौहान कह उठा-“यहां कुछ करने को हो तो बताओ।”
“यही तो दिक्कत है कि...।” कहते हुए महाजन ठिठका फिर
बोला-“मेरे ख्याल में हमें किसी एक रास्ते पर चल देना चाहिये। इसके सिवाय हम कुछ कर भी नहीं सकते।”
“मैं तुम्हारी बात से सहमत हूं...।” जगमोहन कह उठा।
“आंखें बंद करो और...।” महाजन ने कहना चाहा।
“वो देखो।”
देवराज चौहान के शब्द कानों में पड़े।
दोनों ने उधर देखा, जिधर देवराज चौहान देख रहा था। देवराज चौहान की निगाहें आसमान की तरफ थीं। आसमान से कोई पंख फैलाता हुआ, इसी तरफ आता, नीचे उतर रहा था। अजीब सा था वो। कभी जानवर लगता तो कभी पक्षी। आकार में वो गाय की तरह था। रंग काला-भूरा लग रहा था।
“इतना बड़ा पक्षी!” महाजन के होंठों से निकला।
“असम्भव।” जगमोहन के दांत भिंच गये-“इतना बड़ा और भारी पक्षी आसमान में पंखों के दम पर उड़ ही नहीं सकता। लेकिन-लेकिन ये कैसे उड़ रहा है?”
“ये असली नहीं है। तिलस्म की विद्या के दम से इसे बनाया गया है।” देवराज चौहान ने सख्त स्वर में कहा-“लेकिन इसका
रूप-आकार वास्तव में डरा देने वाला है।”
“हमारी तरफ ही आ रहा है।” कहने के साथ ही महाजन ने दो घूंट भरे।
उसके पंख फैले होने की वजह से वह आकार में और भी बड़ा
लग रहा था। पंख भी अजीब सी तरह के थे। दाईं और बाईं तरफ चार-चार बड़े पंख थे। जो कि एक साथ न हिलकर, अजीब से ढंग से बारी-बारी हिल रहे थे। जैसे वो एक न होकर दो या दो से ज्यादा हों।
परन्तु वो एक ही था।
देखते ही देखते वो उनसे बीस कदमों की दूरी पर नीचे उतरकर खड़ा हो गया। धीरे-धीरे उसके पंख सिमटर चले गये। करीब से देखने पर उनके शरीरों में अजीब सी सिरहन दौड़ती चली गई।
वो वास्तव में बहुत भयानक दिख रहा था।
उसके शरीर का कोई हिस्सा तो स्याह काला था तो कोई हिस्सा पेड़ के तने के रंग की तरह था। शरीर पर एक-एक इंच लम्बे बाल थे। काली जगह काले बाल और भूरी जगह पर भूरे बाल। उसके हाथों में नाखून दो-दो इंच लम्बे और इंच भर चौड़े थे। हाथ-पैरों और चेहरे के मांस की परत झुर्रियों से भरी, बेहद भद्दी लग रही थी। उसके कान ऐसे लटक रहे थे, जैसे पेड़ का सूखा पत्ता मुरझाया सा नीचे को झुका हो। वो पांच फीट लम्बा था। चौड़ाई दो इन्सानों के बराबर थी। उसकी लाल सुर्ख चमकती आंखें इतनी छोटी थीं कि अगर वो सुर्खी के साथ चमक न रही होती तो शायद उनके होने का आभास भी न हो पाता।
उसके जमीन पर उतरते ही अपनी दोनों बांहें जोरों से आगे पीछे हिलाई और तीनों को बारी-बारी तसल्ली से सुर्खी भरी आंखों से देखा।
देवराज चौहान का चेहरा कठोर था। होंठ भिंचे हुए थे। तलवार
को मजबूती से संभाले, उस पर निगाहें टिकाये खड़ा था। महाजन और जगमोहन के चेहरे भी सख्त हुए पड़े थे। लेकिन उनकी आंखों में व्याकुलता-बेचैनी भरी पड़ी थी। हाव-भाव में गुस्सा था।
“कौन हो तुम?” देवराज चौहान ने दरिन्दगी भरे स्वर में पूछा।
जवाब में वो हंस पड़ा। हंसने पर उसका मुंह खुला तो बड़े और चौड़े दांत झलक उठे, जो कि पूरी तरह पीले थे। जीभ नज़र आई, जिसका रंग स्याह था। उसकी हंसी इतनी तीखी थी कि महसूस होने लगा जैसे चाकू की नोक किसी बर्तन पर रगड़ी जा रही हो।
“मुझसे पूछते हो कि कौन हूं मैं।” हंसी रोकते हुए वो कह उठा। उसकी आवाज में ऐसा तीखापन था कि वो मस्तिष्क में चुभती सी महसूस हुई-“मेरे घर में आकर, मुझसे पूछते हो, कौन हूँ मैं।”
“ये तुम्हारा घर है?” देवराज चौहान ने उसी लहजे में पूछा।
“हां। तिलस्म के इस हिस्से का मालिक हूं मैं।” जो भी यहां आ पहुंचता है, वो मुझसे टकराये बिना, तिलस्म के ताले तक नहीं पहुंच सकता-और मेरे से टकराने पर वो मर जाता है।
जब भी उसका मुंह खुलता तो महसूस होता जैसे उसके मुंह से तेज हवा निकल रही हो।
“मतलब कि तुम्हें मारकर ही तिलस्म के ताले तक पहुंचा जा सकता है।” देवराज चौहान बोला।
“हां। आओ-आओ।” वो पुनः हंस पड़ा-“मारो मुझे...।”
“अगर तुम मर गये तो तिलस्म के ताले तक पहुंचने का रास्ता हमें कौन बतायेगा?”
“रास्ता कौन बतायेगा।” उसने हंसी रोककर देवराज चौहान को खा जाने वाली नज़रों से घूरा-“तिलस्म के ताले तक पहुंचने का रास्ता, मेरी मौत के साथ खुद ही खुल जायेगा। किसी से पूछने की जरूरत नहीं पड़ेगी। वो रास्ता तब तक बंद रहेगा, जब तक मैं जिन्दा हूं और मुझे कोई मार नहीं सकता।” कहने के साथ ही वो अजीब से ढंग से उछलने लगा।
तभी देवराज चौहान, जगमोहन और महाजन जोरों से चौंके।
उनके सामने जो भी था। उसकी दो आंखें पीछे भी थीं। वैसी
ही छोटी-छोटी लाल सुर्ख आंखें। अगर वो सुर्खी से चमक न रही होतीं तो, सिर के पीछे भी आंखें होने का उन्हें पता नहीं चलता।
“इसकी तो पीछे भी आंखें हैं।” महाजन के होंठों से आश्चर्य
से भरे शब्द निकले।
“कितनी अजीब बात है!” जगमोहन ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।
“ये अजीब ही तरह का तिलस्मी दरिन्दा है, हम इसे कोई नाम
भी नहीं दे सकते।” देवराज चौहान के चेहरे पर कई तरह के भाव आ ठहरे थे।
एकाएक छलाँगें लगाता वो ठिठका और अजीब सी सीटी की तरह आवाज में चीखा। उसके बाद पुनः पहले की तरह खड़ा होकर उन्हें देखने लगा।
“तो तुम सब मेरा मुकाबला करोगे।” वो कह उठा।
“हम मुकाबला नहीं करना चाहते।” देवराज चौहान ने पहले वाले स्वर में कहा-“तुम हमें तिलस्म के ताले तक जाने का रास्ता दे दो। हमारा तुम्हारा क्या झगड़ा...।”
“मैं चाहकर भी तुम लोगों को तिलस्म के ताले तक जाने का रास्ता नहीं दे सकता।” उसने तीखेपन से भरी आवाज में कहा-“वो रास्ता मेरी जिन्दगी और मौत से जुड़ा है। जब तक मैं जिन्दा हूं। वो रास्ता बंद ही रहेगा। शैतान के अवतार ने यूं ही मुझे यहां का पहरेदार नहीं बनाया। रास्ते का तिलस्म उसने मेरी जिन्दगी और मौत के साथ बांध दिया। क्योंकि वो जानता है कि मैं बहुत ताकतवर हूं। कोई भी मेरा मुकाबला नहीं कर सकता। साथ ही मुझे अपनी जान बहुत प्यारी है। अपनी जान बचाने के लिये तो मैं खून की नदियां बहा सकता हूं।”
“उस्ताद जी!” महाजन ने हिम्मत करके कहा-“कोई बीच का रास्ता नहीं है?”
“बीच का रास्ता?”
“यही कि तुम्हारी जान भी सलामत रहे और हम भी तिलस्म तक पहुंच...।”
“ऐसा कोई रास्ता नहीं है। यहां पहुंच जाने वालों के लिये सिर्फ
मौत का रास्ता ही खुलता है। तुम लोगों ने जब तिलस्म के इस हिस्से में प्रवेश किया तो मैं गहरी नींद में था। किसी के तिलस्म में प्रवेश कर पाने का अहसास पाकर मैं फौरन यहां आ पहुंचा। अब तुम लोग मेरे हाथों मरोगे।” उसकी तीखी आवाज बेहद खतरनाक हो गई।
जगमोहन ने दांत भींचे देवराज चौहान को देखा।
“कुछ करो। तलवार का इस्तेमाल करो।” जगमोहन ने जल्दी से कहा-“ये तो हमें मार देगा।”
देवराज चौहान ने तलवार को देखा फिर होंठों ही होंठों में बुदबुदाया।
“हे तलवार! मेरे सामने जो भी खड़ा है, इसे खत्म कर।”
कुछ भी नहीं हुआ।
“हे तलवार!” देवराज चौहान पुनः बुदबुदाया-“मेरे सामने जो भी शह खड़ी है, इसे खत्म कर दे।”
कुछ नहीं हुआ।
“हे तलवार! तिलस्म के ताले तक पहुंचने का हमारे लिये रास्ता बना दे।”
सब कुछ वैसे ही रहा।
“हे तलवार! हमें सामने खड़ी शह से बचा।”
कुछ भी नहीं बदला।
देवराज चौहान गम्भीर नज़र आने लगा।
“क्या हुआ?” देवराज चौहान के चेहरे पर बदले भावों को देखकर जगमोहन ने बेचैनी से पूछा।
“तलवार में मौजूद शक्तियां हमारी सहायता नहीं कर रहीं।” कहते हुए देवराज चौहान के होंठ भिंच गये।
“ओह...!” महाजन परेशान-सा कह उठा।
तभी वो शह अपनी तीखी आवाज में जोरों से हंस पड़ी।
“यहां पर कोई भी, कैसी भी ताकत काम नहीं कर सकती।” वो कह उठा-“यहां सिर्फ जिस्म की ताकत ही चलेगी। यहां के तिलस्म को बनाया ही ऐसा गया है। जादुई-मायावी, तिलस्मी, सब ताकतें बेकार हैं।”
“ये नहीं हो सकता।” देवराज चौहान ने दांत भींचकर कहा।
“तुम्हारा मतलब कि मैं झूठ कह रहा हूं।” वो हंसी रोकते हुए बोला।
“हां। तुम शैतान के अवतार के बनाये मायावी इन्सान हो और...।”
“गलत।” उसने अपना खतरनाक सा हाथ उठाकर इंकार में हिलाया-“मैं सच में हूं। मैं एक नहीं दो हूं। शैतान के अवतार ने हम दोनों को एक कर दिया। तभी तो दूसरी तरफ भी आंखें हैं। चेहरा, हाथ-पांव एक कर दिये। तिलस्म के इस हिस्से की निगरानी रखनी थी, इसलिये, पंख लगा दिए गये। उसके बाद शैतान के अवतार ने अपनी तरफ मुझे सम्पूर्ण करके, मुझे बनाने और बिगाड़ने की माया को खत्म कर दिया। ताकि कभी भी मेरा रूप न बदला जा सके। जैसा मुझे बना दिया गया। अब ऐसा ही रहूंगा। मुझ में ताकत बहुत है। यही वजह है कि तिलस्म के हिस्से में ताकत के अलावा और किसी चीज का इस्तेमाल नहीं हो सकता। मुझे वो ही जीतेगा, जो मुझसे ज्यादा ताकतवर होगा। और मुझसे ज्यादा ताकतवर कोई दूसरा है नहीं। शैतान का अवतार भी इस बात को जानता है। तभी तो...।”
“मतलब कि तुम हमसे सीधे-सीधे मुकाबला करोगे। जादुई-
मायावी हथियारों का इस्तेमाल लड़ाई में नहीं होगा।”
“ठीक समझे। यहां तो शैतान का अवतार भी शैतानी ताकत
का इस्तेमाल नहीं कर सकता। तिलस्म के इस हिस्से को इस बात से बांधा गया है और खोलने की चाबी शैतान के अवतार ने जला दी है।”
देवराज चौहान, जगमोहन और महाजन की नज़रें मिलीं।
“हकीकत में तुम हो कौन?” जगमोहन की आंखें सिकुड़ीं।
“हम हाथी का जोड़ा है। कभी मैं हाथी होता था और साथ में मेरी साथी हथिनी। शैतान के अवतार ने हम दोनों को एक करके, हमें ये रूप देकर तिलस्म के इस हिस्से के पहरे पर बिठा दिया।”
“यानि कि तुममें हाथी की ताकत है।” महाजन के चेहरे पर अजीब-से भाव उभरे।
“दो हाथियों की। हथिनी की ताकत भी तो मेरे साथ जुड़ चुकी है।” वो मुस्कराया तो खतरनाक लगने लगा।
“ओह...!” महाजन की निगाह घूमी और देवराज चौहान पर जा टिकी-“इसकी बातें तो ये जाहिर करती हैं कि हमें दो हाथियों की ताकत का मुकाबला करना होगा।”
वो शह हंसी।
देवराज चौहान के चेहरे पर खतरनाक भाव दिखाई देने लगे थे। तलवार के हत्थे पर पकड़ मजबूत हो गई। आंखों में वहशी भाव नाच उठे।
“बहुत गुस्सा आ रहा है मुझ पर।” वो देवराज चौहान को देखकर हंसा-“अभी मरेगा तू। बोल पहला वार तू करेगा या मैं करूं। मेरी मान तो पहला वार तू ही कर ले। कहीं बाद में तेरे को वार करने का मौका ही न मिले। मौका कभी नहीं चूकना चाहिये। आ...।”
देवराज चौहान तलवार थामे खतरनाक किन्तु धीमे ढंग से उसकी तरफ बढ़ा।
जगमोहन और महाजन की नजरें मिलीं।
“हम क्या करें?” जगमोहन के होंठों से व्याकुल स्वर निकला।
“हमारे पास कोई हथियार नहीं है।” दांत भींचे महाजन ने घूंट
भरा-“खाली हाथ पास पहुंचे तो ये हमारी हालत भूसा भरने लायक बना देगा। रिवाल्वर वगैरह भी जाने कहां गिर चुके हैं।”
“मेरे पास चाकू है।” कहने के साथ ही जगमोहन ने जूतों में फंसा चाकू निकाल लिया।
चाकू छोटा था। तीन इंच का फल था उसका।
“बेवकूफी मत करना इस जरा से चाकू को लेकर उसके पास पहुंच जाने की।”
दोनों ने देखा, देवराज चौहान उससे तीन कदम पहले जा रुका था।
☐☐☐
वो हंसा। इस बार उसकी हंसी में भयानकता थी। आंखें और भी लाल सुर्ख हो गई थीं।
“रुक क्यों गया। चला तलवार। मार मुझे...।” उसकी आवाज
में अजीब-सी खरखराहट आ गई थी।
उसके शब्द पूरे भी नहीं हुए थे कि देवराज चौहान फौरन आगे
बढ़ा और तलवार उसके पेट में घुसेड़ दी। पूरी की पूरी तलवार उसके पेट में प्रवेश करती चली गई और पीठ वाले हिस्से से तलवार का थोड़ा सा हिस्सा बाहर नज़र आने लगा। जिस पर लगा खून चमकने लगा था।
तलवार के शरीर में प्रवेश करते ही उसके बदन को हल्का-सा झटका लगा। उसने तलवार के वार से बचने की चेष्टा नहीं की। वो वास्तव में हाथी की तरह अपनी जगह पर खड़ा रहा था। देवराज चौहान ने तलवार वापस खींचने की चेष्टा की, परन्तु सफल नहीं हो पाया।
वो हंस पड़ा।
“जो मुकाबले पर उतरे, उसका एक वार तो जरूर सहता हूं मैं।” उसने दोनों बांहें यूं ही दांयें-बांयें हिलाते हुए कहा-“ताकि मेरे मन में ये अफसोस न रहे कि जो मुकाबले पर उतरा, वो बिना मुकाबले के मर गया। एक वार भी नहीं कर सका। मिल गया तेरे को मौका। अब तैयार हो जा मरने के लिये...।”
देवराज चौहान ने पुनः तलवार खींचने की कोशिश की लेकिन तलवार बाहर नहीं निकली।
तभी उस शह का हाथ तलवार की मूठ पर आया। हाथ के नाखून देवराज चौहान के हाथ में लगे तो उसने जल्दी से हाथ पीछे खींच लिया। शह ने तलवार की मूठ पकड़ी और ऐसे बाहर निकाली, जैसे मक्खन में से बाल निकाला जाता है। उसकी इसी हरकत से देवराज चौहान को उसकी ताकत का पूरा अंदाजा हो गया।
फिर उसने तलवार एक तरफ उछाल दी।
“इतनी ताकत है मेरे पास कि तुम लोगों को मारने के लिये मुझे तलवार की जरूरत नहीं है।” उसने खतरनाक स्वर में कहा और कदम उठाया। देवराज चौहान की तरफ बढ़ा।
देवराज चौहान दांत भींचे पीछे हटने लगा।
महाजन और जगमोहन भी एक तरफ हो गये।
उसके चलने के अंदाज में हाथियों जैसा झूम के चलना झलक रहा था। मस्ता सा वो दोनों बांहें हिलाता देवराज चौहान की तरफ बढ़ रहा था। देवराज चौहान पीछे खिसकता जा रहा था कि तभी उसका पांव लाल पत्थर के रास्ते से टकराया। लाख कोशिशों के बाद भी खुद को संभाल न सका और नीचे जा गिरा।
“नहीं...।” जगमोहन के होंठों से हल्की-सी चीख निकली।
महाजन की आंखों में दहशत नाच उठी।
इससे पहले कि देवराज चौहान उठता, वो शह उसके सिर पर पहुंच गई। देवराज चौहान को खड़ा हो पाने का भी मौका नहीं मिला। शह ने नीचे झुक कर देवराज चौहान को टांग से पकड़ा और अपने से सिर से ऊंचा उठाते हुए हवा में घुमाकर छोड़ दिया।
हवा में लहराता देवराज चौहान कुछ दूर खूबसूरत फूलों की
क्यारी में जा गिरा।
जगमोहन और महाजन के चेहरों पर खौफ नज़र आने लगा।
“इसमें बहुत ताकत है।” महाजन के होंठों से निकला।
“ये वास्तव में हाथियों जैसी ताकत रखता है।” जगमोहन के
होंठों से निकला-“हम इसका मुकाबला नहीं कर सकते। देवराज चौहान को देखो, वो किस हाल में है।”
तब तक वो शह उन दोनों की तरफ पलट चुकी थी।
“तो अब तुम मुझ पर वार करोगे।” शह ने जगमोहन के हाथ में चाकू देखकर कहा-“आओ। वार करो।”
जगमोहन ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी। चेहरा फक्क था। चाकू जेब में रख लिया।
“ये तो मजाक कर रहा है। इसका ऐसा कोई इरादा नहीं है।” महाजन जल्दी से बोला।
“लेकिन मैं मजाक नहीं कर रहा।” कहने के साथ ही वो दोनों हाथ हिलाते, उनकी तरफ बढ़ा।
“भाग जगमोहन। ये हमें मार देगा।” महाजन चिल्लाया।
दोनों पलट कर भागे।
वो हंस पड़ा।
“बेवकूफ। कहां भागोगे। कितनी भी दूर हो जाओ। मैं उसी पल तुम्हारे पास पहुंच जाऊंगा।”
“लगता है, उससे बच नहीं पायेंगे।” भागते हुए जगमोहन चीखा।
“अभी तो भागता रह। उससे दूर हो जा।” दौड़ते हुए महाजन ने पलट कर पीछे देखा-“वो वहीं खड़ा है।”
उसके पास पंख हैं। उड़कर आ जायेगा।
दोनों दौड़ते जा रहे थे। बहुत दूर हो गये थे उससे। आगे पेड़
ही पेड़ थे।
“किसी घने पेड़ पर चढ़कर छिप जाते हैं।” महाजन बोला।
“लेकिन देवराज चौहान...।” जगमोहन ने कहना चाहा।
“उसके लिये तभी कुछ कर पायेगा, जब अपने को बचायेगा।” कहते हुए महाजन एक घने पेड़ के पास ठिठका। हाथ में थाम रखी बोतल से तगड़े घूंट भरे और बोतल को पैंट में फंसा कर पेड़ पर चढ़ने लगा।
यहां से वो शह नज़र नहीं आ रही थी।
“नीचे क्यों खड़ा है।” ऊपर चढ़ता महाजन हांफते हुए बोला-“ऊपर चढ़ आ।”
जगमोहन भी पेड़ पर चढ़ने लगा।
कुछ ही पलों में दोनों पेड़ के ऐसे घने हिस्से में जा छिपे जहां पत्तों ने बहु हद तक उन्हें पूरी तरह छिपा लिया था। यहां उन्होंने खुद को सुरक्षित महसूस किया। दोनों तेज-तेज सांसें ले रहे थे।
“बहुत ताकत है उसमें।” जगमोहन ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।
“हाँ।” महाजन ने उखड़ी सांसों को संभालते हुए कहा-“पूरी तलवार उसके शरीर में घुस गई। पीठ की तरफ से बाहर निकल आई लेकिन उसके चेहरे पर शिकन तक नहीं उभरी और-और देवराज चौहान को कैसे उठाकर फेंक दिया। वास्तव में उसने सच कहा है कि उसके पास ताकत है। हाथियों की सी ताकत। ये हमारी बेवकूफी होगी कि अगर हम उसका मुकाबला करें। हम उसका मुकाबला नहीं कर सकते।”
“मुकाबला तो करना ही पड़ेगा।” जगमोहन दरिन्दगी भरे स्वर
में कह उठा-“इसके अलावा हमारे पास दूसरा रास्ता नहीं। वापस जा नहीं सकते। आगे बढ़ने के लिये उसे खत्म करना पड़ेगा।”
“और उसे हम खत्म कर नहीं सकते।” महाजन ने सर्द स्वर
में कहा-“मतलब कि हमें ही मरना पड़ेगा।”
दोनों की नज़रें मिलीं।
दूसरे ही पल वो चिहुंक पड़े। दोनों के चेहरों के रंग बदले। नज़रें आसमान की तरफ गईं। पत्तों के बीच में से वो शह पेड़ों के ऊपर उड़ती-मंडराती नज़र आई।
“वो...वो...।” महाजन के होंठों से घबराहट भरी फुसफुसाहट निकली-“हमें ही ढूंढ रहा है।”
“तुम क्या समझते थे कि वो हमारा पीछा छोड़ देगा।” जगमोहन ने धीमे स्वर में वहशी भाव उभरे-“वो तब तक हमारा पीछा नहीं छोड़ेगा, जब तक कि हमें खत्म न कर दे। उसके पास जमीनी ताकत भी है और पंख होने की वजह से आसमानी ताकत भी है। वो तो उड़ान भरकर खुद को हमारे से बचा सकता है। लेकिन हम अपने बचाव में कुछ नहीं कर सकते।”
महाजन की निगाह ऊपर ही थी।
“वो हमें ढूंढ लेगा। इस जगह के हर जर्रे से वो वाकिफ है। ये उसकी जगह है।”
“हां।” महाजन ने गम्भीर-व्याकुल स्वर में कहा-“सच में हम इससे बच नहीं पायेंगे। वो-वो नीचे उतर रहा है। उस तरफ। क्या उसने हमें देख लिया होगा।”
“इन्तजार करो।” जगमोहन दांत भींचकर कह उठा।
दोनों दम साधे पेड़ पर, पत्तों के बीच बैठे रहे। निगाहें अब नीचे की तरफ हो गई थीं।
ज्यादा वक्त नहीं बीता कि उन्हें हल्की-सी आहट महसूस होने लगी। फिर वो आहट स्पष्ट हुई। साफ महसूस हुआ कि कोई इस तरफ आ रहा है।
चंद पल ही बीते होंगे कि नज़र आया। वो ही हाथी की तरह मस्तानी चाल। उसकी दोनों बांहें तेजी से आगे-पीछे हो रही थीं।
वो पेड़ के नीचे आकर रुका और हंस पड़ा। तेजी से हिलते हाथों को पेड़ के तने पर मारकर, मुंह से चीख जैसी आवाज निकाली।
महाजन और जगमोहन की घबराहट भरी नजरें मिलीं।
“तुम लोग मुझसे बच नहीं सकते।” उसके स्वर में अजीब-सी खुशी जैसे भाव थे-“ये मेरी जगह है मैं हूं तिलस्म के इस हिस्से का रखवाला। यहां कोई मुझसे नहीं बच सकता। मेरी ताकत का मुकाबला करने वाला कोई भी नहीं है।” कहने के साथ ही उसने दोनों हाथों से पेड़ के तने को थामा और तीव्र झटके के साथ पेड़ को उखाड़ा और दूर फेंक दिया।
जगमोहन और महाजन की चीखें गूंज उठीं।
उसके द्वारा फेंका गया पेड़ अन्य दो पेड़ों के बीच तीव्र झटके के साथ फंस गया था।
दोनों उछल कर नीचे गिरे और दूर लुढ़कते चले गये।
महाजन के कंधे पर चोट लगी। जगमोहन का अपना घुटना टूटता-सा महसूस हुआ।
“भाग ले।” महाजन कराहता हुआ उठा-“जब तक बच सकता है, बच ले।”
“मेरा घुटना। आह...।”
“भाड़ में गया घुटना। जल्दी कर, वो आ जायेगा।” महाजन ने जगमोहन को बांह पकड़ कर खींचा।
दोनों जैसे-तैसे वहां से एक तरफ को भागे।
“वो हमें नहीं छोड़ेगा।” जगमोहन गहरी-गहरी सांसें लेता कह उठा-“हम बच नहीं सकेंगे।”
“मैं भी जानता हूं ये बात।” महाजन दांत भींच कर बोला-“उसे तो छूना भी मौत को बुलावा देना है।”
“देवराज चौहान को देखते हैं। वो...।”
“उसे भी देख लेना। पहले अपनी हालत तो देख ले...।” महाजन ने पीछे देखा। वो शह नज़र नहीं आई।
“आ रहा है पीछे?”
“नहीं...।”
“उसका क्या है।” दांत भींचे जगमोहन ने कहा-“वो उड़कर आ जायेगा।”
दोनों तेजी से आगे बढ़ते जा रहे थे।
☐☐☐
उसने पेड़ उखाड़ कर फेंका कि उसी पल उसके होंठों से अजीब-सी गुर्राहट निकले। वो फुर्ती से पलटा तो चंद कदमों के फासले पर, तलवार थामे देवराज चौहान को अपनी तरफ बढ़ते पाया।
देवराज चौहान का चेहरा खून में डूबा भयानक सा लग रहा था। सिर-माथे में कही चोट लगी थी। वहीं से खून बहा था। एक तरफ से कमीज फट गई थी। तलवार, खून से सनी थी। ये खून उसी शह का था। आंखों में वहशी चमक थी। वो इस वक्त बेहद भयानक लग रहा था।
गहरी खामोशी वहां उभरी, फिर वो एकाएक तीखी सी आवाज में ठठाकर हंसने लगा।
“शैतान के अवतार ने मेरी साथी हाथिन की आंखें यूं ही सिर के पीछे की तरफ नहीं लगाईं। शैतान के अवतार ने बहुत सोच-समझ कर मुझे बनाया है। ये रूप दिया है। वो जानता था कि कभी ऐसा भी वक्त आ सकता है कि कोई धोखे से पीछे से मुझ पर वार कर दे। तभी तो उसने मुझे पीछे भी आंखें दे दी। तूने क्या सोचा कि पीछे से वार करके मुझे मार देगा। मैं तब भी नहीं मरता। मेरी बड़ी ताकत के सामने तेरे ये छोटे-छोटे वार मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते।”
कहते हुए वो हंस रहा था।
“तू अपने को हाथी कहता है।” देवराज चौहान के होंठों से
दरिन्दगी से भरी गुर्राहट निकली।
“हाथी मैं कभी था। अब सिर्फ हाथी की ताकत ही बची है
मेरे पास। शैतान के अवतार ने मेरा रूप बदल दिया। मेरी हाथिन को मेरे साथ रखा। मेरे लिये यही खुशी की बात है।”
“हाथी की ताकत को कभी भी बड़ा वार करके नहीं तोड़ा जा
सकता। छोटे-छोटे वार करके ही हाथी की जान धीरे-धीरे ली जाती है। छोटे-छोटे वार हाथी को पस्त कर देते हैं।” देवराज चौहान की आवाज में खूंखारता झलक उठी थी-“मैं जान गया हूं तू कैसे मरेगा।”
“कैसे?” वो पुनः हंसा।
तभी देवराज चौहान ने हल्की-सी छलांग के साथ अपने हाथ में पकड़ी तलवार को घुमाया तो तलवार की नोक उस शह के पेट में चीरा लगाती चली गई। देवराज चौहान पुनः पीछे जा खड़ा हुआ था।
उसके होंठों से कराह निकली। चीरे की जगह पर खून की रेखा नज़र आने लगी। उसके होंठों से तीखी-सी गुस्से से भरी आवाज निकली। उसने दोनों हाथ तेजी से आगे पीछे हिलाये।
“तू इस तरह मुझे मारेगा।” उसकी आवाज में गुस्सा भर आया। उसी पल देवराज चौहान पुनः उछला। इस बार पुनः उसने तलवार की नोक का ही इस्तेमाल किया। वार किया और उसकी गर्दन पर लहू की सुर्ख रेखा नज़र आने लगी। इसके साथ ही देवराज चौहान पीछे हट चुका था। उसकी आंखों में दृढ़ता भरी वहशी चमक दिखाई दे रही थी।
गले पर होने वाले वार से उसके होंठों से जोरों की आवाज निकली, जो कि दूर-दूर तक गई। उसके भद्दे हाथ गर्दन तक गये। फिर बांहें आगे-पीछे हिलने लगीं। उसकी आंखें अब खून की तरह सुर्ख नज़र आने लगी थीं। उसका सिर भी इधर-उधर घूमने के अंदाज में हिलने लगा था।
“मैं अपने दुश्मन को सिर्फ एक वार करने का मौका देता हूं।” उसकी तेज चीख जैसी आवाज गुस्से से भरी पड़ी थी-“तू दो और वार मुझ पर करने में कामयाब हो गया। अभी मरेगा...।” कहने के साथ ही जमीन को रौंदने वाले अंदाज में वो आगे बढ़ा। अपने हिलते हाथ देवराज चौहान की तरफ बढ़ाये।
देवराज चौहान उछल कर पीछे हो गया।
“तू मुझे नहीं मार सकता।” देवराज चौहान ने आग लगाने वाले स्वर में कहा।
“मैं तुझे मसल दूंगा। तू...।” वो आगे बढ़ा जा रहा था।
“तेरे में इतनी ताकत है ही नहीं कि तू मुझे मार सके।” देवराज चौहान पीछे हटता हुआ बोला।
“मेरे में ताकत नहीं है?” वो पागलों की तरह गुर्राया-“मुझ पर दो वार करके खुद को ताकतवर समझने लगा है। मैं तेरे को कुचल-कुचल कर मारूंगा। तू तो...।”
तभी देवराज चौहान उछला। हवा में ही रहकर उसने तलवार की नोक का वार उस पर किया और जमीन पर गिरते ही लुढ़कता चला गया फिर खुद को संभाला और तुरन्त खड़ा हो गया।
इस बार तलवार की नोक उसके कंधे में धंसी थी। उसने दोनों हाथ हिलाये थे, तलवार को पकड़ने के लिये, परन्तु सफल न हो पाया था। वार के साथ ही वो पलटा और देवराज चौहान पर झपट पड़ा। उसके मुंह से क्रोध से भरी सांसें निकल रही थीं। वो इस कदर गुस्से में आ चुका था कि कभी उसकी आंखें बंद होतीं तो कभी खुल जातीं। पांवों को वो जमीन पर पटक रहा था। देवराज चौहान पर झपटते रास्ते में पेड़ आया तो मुंह से अजीब-सी चीख निकालते हुए उसने दोनों हाथों से पेड़ का तना पकड़कर पेड़ को उखाड़ा और एक तरफ फेंक दिया।
देवराज चौहान फुर्ती से दूर हटकर, खुद को बचा गया था। उसके चेहरे पर चट्टान सी कठोरता नज़र आ रही थी। भिंचे दांत। वहशीपन से चमकती आंखें।
“तू मुझे नहीं मार सकता। मैं तेरे से ज्यादा ताकत वाला हूं।” देवराज चौहान ने पुनः उसे सुलगाया।
“मैं तुझे पांवों के नीचे कुचल-कुचल कर मारूंगा।” गुस्से से भरी चीख के साथ कहते हुए वो देवराज चौहान की तरफ दौड़ा। शरीर भारी होने की वजह से वो ज्यादा तेज नहीं दौड़ पा रहा था।
देवराज चौहान आसानी से खुद को उसकी पकड़ से दूर रखे
हुए था।
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जगमोहन और महाजन ने फूलों की क्यारी में देखा, जहां देवराज चौहान गिरा था।
“यहां तो कोई भी नहीं है।” महाजन के होंठों से निकला।
“कहां गया देवराज चौहान...?” जगमोहन की परेशान निगाहें दूर-दूर तक फिरने लगीं।
महाजन ने घूंट भरा।
“पक्का है ना कि देवराज चौहान यहीं गिरा था।” होंठ भींचे जगमोहन ने महाजन को देखा।
“तूने भी तो देखा था उसे यहां गिरते हुए...।”
“तो फिर कहां गया?”
“यहां से भाग कर कहीं छिप गया होगा। हमें भी यहां से दूर भाग कर कहीं छिप जाना चाहिये। आराम से सोचेंगे कि इस ताकतवर शह का मुकाबला कैसे करना है।” महाजन ने गम्भीर-व्याकुल स्वर में कहा-“निकल यहां से। वो दो हाथियों की ताकत वाला आ गया तो...।”
तभी उनके कानों में मध्यम सी चीख की आवाज पड़ी।
दोनों की नजरें मिलीं।
“ये उसी शह की चीख है।” जगमोहन के होंठों से निकला।
“उधर से आई है।” महाजन ने दूसरी तरफ देखा-“जहां पेड़ों झुरमुट हैं। जहां से हम भाग कर आये हैं।”
“महाजन...।” जगमोहन की आवाज में दरिन्दगी झलक उठी-“वो यूं ही नहीं चीखा होगा। उधर ही देवराज चौहान है। वो दोनों लड़ रहे हैं। तभी तो वो हमारे पीछे नहीं आया अभी तक।” कहने के साथ ही जगमोहन दौड़ा।
“वहां किधर जा रहा है।” महाजन के होंठों से निकला।
“उधर देवराज चौहान है।” जगमोहन दौड़ते हुए बोला।
“लेकिन हम उसकी सहायता नहीं कर...।”
“देवराज चौहान की मौत के बाद हमारी बारी होगी मरने की।” जगमोहन चिल्लाकर बोला-“ज्यादा देर यहां पर, उससे बचे नहीं रह सकते। ऐसे में भागने या छिपने का कोई फायदा नहीं।”
महाजन के चेहरे पर भी खतरनाक भाव आ ठहरे थे। निगाहें दौड़ते जगमोहन पर थीं जो पेड़ों के झुरमुट की तरफ दौड़ा जा रहा था। महाजन ने घूंट भरा और जगमोहन के पीछे दौड़ पड़ा।
अभी वो पेड़ों के पास पहुंचे ही थे कि उस खतरनाक शह की चीख पुनः कानों में पड़ी तो उन्हें इस बात का एहसास हो गया कि वो किस तरफ है। जगमोहन ने तेजी से उस तरफ बढ़ना चाहा तो पास पहुंच चुके महाजन ने जगमोहन की कलाई थाम ली।
जगमोहन ने खतरनाक निगाहों से महाजन को देखा।
“संभलकर। जल्दी मत करना।” महाजन फुसफुसाकर कान में बोला-“पहले देखो कि यहां क्या हो रहा है। जो हो रहा है, उसके बीच हमारे कुछ कर पाने की गुंजाईश है या नहीं।”
दोनों दबे पांव। बे-आहट आगे बढ़ने लगे।
कुछ ही क्षणों बाद उन्हें वहां का दृश्य नज़र आया। वो दम साधे ठिठक गये। पेड़ों के झुरमुट के बीच थोड़ी सी खाली जगह थी, जहां वो खतरनाक शह देवराज चौहान की तरफ बढ़ती नज़र आई और तलवार थामे देवराज चौहान पीछे हट रहा था।
“छिप कर रहो।” जगमोहन न भिंचे दांतों से कहा-“ये पीछे वाली आंखों से भी हमें देख सकता है।” कहने के साथ ही जगमोहन ने चाकू निकाला और उसका फल खोल लिया।
“इस जरा से चाकू का क्या करेगा?” महाजन के होंठों से निकला। नज़रें सामने थीं।
“पहाड़ खोदूंगा।” जगमोहन की आवाज से शरीर के जर्रे-जर्रे से मौत ही मौत झलक रही थी।
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पीछे हटते हुए देवराज चौहान की पीठ पेड़ के तने से जा लगी। वो खतरनाक शह, गुस्से से भरी झूमती हुई रुकी फिर आगे बढ़ने लगी थी। देवराज चौहान की वहशी चमक भरी आंखें उस पर टिकी रही। तने से हटकर-उसने पीछे होने की कोशिश नहीं की।
देवराज चौहान को रुके पाकर, उसके होंठों से अजीब-सी चीख भरी आवाज निकली। दोनों बांहों को उसने फैला लिया था। जैसे देवराज चौहान को बांहों में भींच लेगा।
वो अभी आठ-दस कदम दूर या कि शब्दों चबाते देवराज चौहान कह उठा।
“तू बहुत कमजोर है। दूसरों को यूं ही कहता है कि तेरे में ताकत है। अगर तेरे में ताकत होती तो अब तक तू मुझे मार चुका होता। अब तू मेरे हाथों मर जायेगा।”
“मैं तुझे कुचल दूंगा।” गुस्से से चीखते हुए वो पागलों की तरह आंखें बंद करके दौड़ा।
देवराज चौहान उसी पल नीचे झुका और तलवार वाला हाथ खास ढंग से घुमाया। तलवार की नोक उसकी छाती और पेट के हिस्से को गहराई तक काटती चली गई। इस के साथ ही देवराज चौहान ने अपनी जगह छोड़ दी। वेग से आता वो पेड़ से जा टकराया। एक तो तलवार की नोक का लम्बा-गहरा जख्म। साथ ही पेड़ से जा टकराना। पेड़ जोरों से झनझना उठा। उसके गले से तेज, तीखी आवाज निकली। दोनों हाथों से, गुस्से उसने पेड़ को झिंझोड़ा तो पेड़ उखड़ कर, एक तरफ लुढ़क गया। दोनों बांहों को जोरों से हिलाता वो पलटा तो देवराज चौहान को पन्द्रह कदमों की दूरी पर खड़े पाया। देवराज चौहान के चेहरे पर खतरनाक मुस्कराहट नाच रही थी।
“अब तो तेरे को विश्वास हो गया होगा कि तू मेरी ताकत का मुकाबला नहीं कर सकता।” देवराज चौहान ने हंस कर कहा-“मेरे सामने तू बहुत कमजोर है।”
“नहीं।” वो गुस्से में तड़प कर कहा उठा-“मैं कमजोर नहीं। मैं तेरे को मार दूंगा। मैं...।”
“मेरे को मारने के लिये ताकत चाहिये। जो तेरे पास नहीं है।”
“बहुत ताकत है मेरे पास। दो हाथियों की ताकत है और तू कहता है, मेरे पास ताकत नहीं।” वो पागल जैसा होकर, तड़पने के से ढंग से झूम रहा था-“ये मेरी ताकत...।” इसके साथ ही वो किसी पागल हाथी की तरह देवराज चौहान की तरफ दौड़ पड़ा। उसके दौड़ने से जमीन में हल्का सा कम्पन उभरा।
उसके पास पहंचने पर देवराज चौहान ने उस पर तलवार का वार करना चाहा-लेकिन वो तेजी से देवराज चौहान के सिर पर जा पहुंचा था। देवराज चौहान की फुर्ती इस बार काम नहीं आई। तलवार उसकी हिलती बांह से टकराई और हाथ से निकलकर पास ही जा गिरी। दूसरा हाथ देवराज चौहान से टकराया तो जोरों से लड़खड़ाकर वो नीचे जा गिरा।
देवराज चौहान ने तेजी से उठना चाहा परन्तु पागल हुई पड़ी शह अब उसे किसी भी रह का मौका देने को तैयार नहीं थी। उसने अपना पांव देवराज चौहान की छाती पर रख दिया। देवराज चौहान को ऐसा महसूस हुआ जैसे कोई पहाड़ उसकी छाती पर रख दिया गया हो। सांस रुकने सी लगी। चेहरा लाल हो उठा। आंखें फैलकर फटने को होने लगीं। दोनों हाथ तेजी से आगे-पीछे हिलने लगे। उसकी हंसी की अजीब-सी आवाज वहां दूर-दूर तक जा रही थी। इस दौरान कभी वो अपनी आंखें बंद कर लेता तो कभी खोल लेता। बहुत बड़ा दरिन्दा लग रहा था इस वक्त वो।
फिर उसने हंसी रोककर, देवराज चौहान को देखा।
“मुझमें बहुत ताकत है। कोई भी मुझसे जीत नहीं सकता।” उसकी आवाज में ऐसे भाव थे, कि पूरे शरीर में खौफ भरा कम्पन दौड़ रहा था-“मैंने तुझे कहा था कि मैं तेरे को कुचल-कुचल कर मारूंगा। देख ले अब तेरे को कुचल कर ही मार रहा...।”
अपने शब्द पूरे नहीं कर सका वो। सिर के पीछे लगी आंखों से उसने जगमोहन को देखा। जो कि चाकू थामे उस पर कूद रहा था। उसके पास वक्त नहीं था कि फुर्ती दिखाकर वो पीछे से कूदते जगमोहन पर काबू पा सकता। ऐसा कुछ करता भी तो देवराज चौहान की छाती से पांव हटाना पड़ता। वो एकाएक कोई फैसला नहीं ले पाया कि जगमोहन उसकी पीठ पर आ गिरा। एक हाथ में चाकू था तो दूसरी बांह उसके गले के आस पास लपेटकर, पीठ से चिपक सा गया था।
उसके होंठों से चीख जैसी आवाज निकली। बांहें हिलाईं। परन्तु पीठ पर चिपके होने की वजह से उसकी बांहें जगमोहन को कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकीं, तो उसने दोनों बांहों को पीछे की तरफ किया और पीठ पर चिपके जगमोहन के शरीर पर हाथ रख दिए। उंगलियों के नाखून जगमोहन को अपने बदन में चुभते से महसूस होने लगे।
वो सिर के पीछे मौजूद सुर्ख आंखों से उसे घूर रहा था।
नाखून शरीर में चुभने की वजह से जगमोहन के जिस्म में पीड़ा
की लहरें दौड़ने लगी थीं।
“हट जा मेरी पीठ से।” उसकी गुर्राती आवाज गूंजी-“वरना अभी खत्म कर दूंगा।”
जगमोहन के मौत से भरे चेहरे पर दरिन्दगी नाच उठी। हाथ में पकड़े चाकू को इस तरह उसने संभाल कर पकड़ा कि वो उसकी हरकत को न देख सके। फिर वो हाथ को ऊपर लाया और उस शह को समझने का मौका दिए बिना गोली से भी ज्यादा तेज रफ्तार से चाकू का फल उसकी आंख में घुसेड़ दिया। ये सब चंद ही पलों में हो गया।
आंख में चाकू का फल धंसते ही वो गला फाड़कर चीखा। जगमोहन ने पूरी शक्ति लगाकर चाकू का फल बाहर खींचा। वो तड़प कर इधर-उधर दौड़ने लगा। देवराज चौहान को कुचलना भूल गया था वो। जगमोहन अभी भी उसकी पीठ से चिपका हुआ था। वो बराबर चीख रहा था। उसकी चीख की आवाजों से वो सारी जगह थर्रा उठी थी। पीड़ा की वजह से उसकी आंखें बंद थी। जगमोहन ने पुनः खून से सना चाकू ऊपर किया और उसकी दूसरी बंद आंख में चाकू का फल घुसेड़ दिया।
ऐसा होते ही वो इस कदर चीखा कि जमीन कांपती सी महसूस हुई। तड़प कर वो नीचे जा गिरा। अगर वक्त रहते जगमोहन उसे छोड़कर पीछे न हट जाता तो उसके नीचे गिरते ही, उसके दबाव से वो कुचला जाता। जमीन पर पड़ा, तेज चीखों के साथ वो तड़प रहा था।
अचानक ही वहां भयानक सा माहौल पैदा हो गया था। पेड़ों की ओट से महाजन बाहर निकला। हाथ में कांच की टूटी बोतल थाम रखी थी। सावधानी से वो तड़पती उस शह के पास पहुंचा। पीड़ा की वजह से उसने आगे की आंखें बंद कर रखी थीं। महाजन ने हाथ को ऊपर उठाया और कांच की टूटी बोतल का शक्तिशाली वार उसके चेहरे पर किया। बोतल का नुकीला कांच उसके चेहरे के मांस में धंस गया। वो गला फाड़कर थर्रा देने वाले ढंग में चीखा और दोनों बांहों को गुस्से से हर तरफ घुमाया, परन्तु महाजन उछलकर पीछे हट चुका था। उस शह ने चेहरे में धंसी बोतल को पकड़कर दूर फेंक दिया।
जगमोहन एक तरफ खड़ा गहरी-गहरी सांसें ले रहा था।
छाती पर से उसका पांव हटते ही देवराज चौहान फौरन कई करवटें लेता चला गया था कि कहीं पुनः उसका पांव छाती पर न आ पड़े। साथ ही जल्दी से उठकर खड़ा हुआ। रुकी-उखड़ी सांसों को संभालने का प्रयत्न करने लगा। वो समझ चुका था कि जगमोहन ने क्या किया है।
देवराज चौहान ने नीचे पड़ी तलवार उठा ली थी और उखड़ी सांसों पर काबू पाता रहा। कुछ ही क्षणों बाद उसने खुद को वार करने के काबिल पाया। तब तक महाजन भी उसके चेहरे पर बोतल का वार कर चुका था। वो दरिन्दगी से भरी शह वास्तव में बुरे हाल में पहुंच गई थी।
तलवार संभाले देवराज चौहान सावधानी से आगे बढ़ने लगा। देवराज चौहान तलवार से, पूरी ताकत से उसकी गर्दन पर वार करना चाहता था। वो नीचे पड़ा था। गर्दन काटने में उसे सफलता मिल सकती थी।
वो अभी भी चीख रहा था। तड़प रहा था।
देवराज चौहान उसके करीब पहुंचा ही था कि एकाएक वो उछलकर खड़ा हो गया।
देवराज चौहान फुर्ती से पीछे हटता चला गया।
रह-रह कर वो चीख रहा था। क्रोध और पीड़ा में तड़पते उसने तीनों को देखा। महाजन की बोतल के वार से उसकी सामने की आंखें भी चली गई थीं। चार आंखों में मात्र एक आंख ही बची थी।
“मैं तुम लोगों को छोडूंगा नहीं। मेरी ताकत का कोई मुकाबला नहीं कर सकता। मेरी तीन आंखों को तुम लोगों ने बेकार कर दिया। बहुत थक गया हूं। कुछ देर आराम करने जा रहा हूं। उसके बाद आता हूं। तुम तीनों को कुचल कर मारने के लिए। तिलस्म के इस हिस्से से तुम लोग न तो वापस जा सकते हो और न ही आगे बढ़ सकते हो। आराम करके आता हूं मैं...।” गुस्से और चीख भरी आवाज में कहने के पश्चात उसने उड़ान भरने के लिए पर फैलाये।
इससे पहले कि वो पंखों का इस्तेमाल करके उड़ान भर पाता। उसी पल देवराज चौहान ने जिन्दगी और मौत की परवाह किए
बिना तलवार थामे उस पर छलांग लगा दी। वहशी भाव थे देवराज चौहान के चेहरे पर। उसकी इकलौती गुस्से से सुलगती आंख देवराज चौहान पर गई तो उसने हाथ आगे बढ़ा दिया। देवराज चौहान उसके फैले हाथ से टकराया और दूसरे ही पल उसका कंधा उस शह के पंजे की लौह गिरफ्त में था।
लेकिन इससे आगे वो कुछ भी नहीं कर पाया।
देवराज चौहान का तलवार वाला हाथ घूमा और दाईं तरफ के फैले उसके पंखों को तलवार की तेज धार काटती चली गई। उस तरफ के चारों पंख नीचे जा गिरे। पंख क्या कटे, ऐसा लगा जैसे उसके पांवों तले जलते अंगारे आ गये हों। वो गला फाड़कर चीख कर उछला। देवराज चौहान उसके हाथ से छूटकर दूर पेड़ की टहनियों से जा टकराया। तलवार हाथ से छूट गई। नीचे गिरा। खुद को संभाला और नीचे पड़ी तलवार को उठाकर, शह की तरफ देखा।
वो नीचे गिरी पड़ी थी। तड़प रही थी, परन्तु अब उसके तड़पने में भी दम नहीं था। जहां से पंख कटे थे, वहां से बहता खून जमीन को गीला कर रहा था। नीचे बिखरे पंख भी खून में सन रहे थे। तीनों आंखों से खून बह रहा था। चौथी बची आंख बंद थी। कभी वो तड़पता तो कभी लम्बी-लम्बी सांसें लेने लगता। तो कभी उसके गले से तीखी सी आवाज निकलती। वो अब बहुत हद तक शिथिल हो चुका था।
अजीब-सा भयानकता से भरा माहौल हुआ पड़ा था वहां।
तीनों की खूंखार शिकारी की सी निगाह उस खतरनाक शह पर थी।
“अब ये हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता।” महाजन गहरी सांस लेकर बोला-“दमखम बाकी नहीं बचा इसमें।”
“जब तक इसमें सांसें हैं।” जगमोहन दांत भींचकर बोला-“हम इसके प्रति लापरवाह नहीं हो सकते। तिलस्म में तो पल-पल में हालात बदलते हैं।”
“ये बात भी ठीक है।”
तभी देवराज चौहान मौत के घोड़े पर सवार उसके पास पहुंचा। उसने आहट पाकर आंख खोली। देवराज चौहान को पास खड़ा पाकर वो मुंह फाड़कर चीखा। उसने उठने की कोशिश की। कुछ उठा भी।
दांत भींचे देवराज चौहान ने तलवार पर दूसरा हाथ भी जभामा और तलवार को अपने सिर से ऊपर उठाया। उसकी लाल सुर्ख आंख में डर का समन्दर उभरा। तभी तलवार नीचे आई और उसके सिर को काटती हुई गर्दन तक जा पहुंची। खून के छींटे बिखरे।
देवराज चौहान ने तलवार को झटका देकर, कटे सिर के बीच में से निकाल लिया।
वो थोड़ा-सा उठा था। सिर बीच में से कटते ही पुनः नीचे गिर गया और तड़पने लगा। आंख उसकी बंद हो चुकी थी। उसकी तड़प में खास हिम्मत नहीं थी
देवराज चौहान पीछे हटता चला गया।
जगमोहन और महाजन होंठ भींचे, उसे नीचे पड़े देख रहे थे।
“अब ये नहीं बचेगा।” महाजन बोला।
“मुझे भी ऐसा ही लग रहा है।” जगमोहन के होंठ खुले।
“मरते-मरते ये कोई नया कारनामा न कर जाये।” महाजन ने जगमोहन को देखा।
जगमोहन होंठ भींच कर रह गया।
देवराज चौहान की मौत भरी निगाह उस शह पर टिकी थी। चेहरे और कपड़ों पर खून के छींटे नजर आ रहे थे। तलवार खून से सनी पड़ी थी।
अब उसका तड़पना बहुत कम हो गया था।
धीरे-धीरे उस शह के शरीर ने हरकत करनी बंद कर दी।
तीनों की निगाह उस पर टिकी थी। कुछ वक्त बीत गया।
“अब ये जिन्दा नहीं है।” देवराज चौहान ने शब्दों को चबाकर कहा।
“क्या मालूम...ये...।” जगमोहन ने कहना चाहा।
तभी जमीन में तीव्र कम्पन हुआ। वे लड़खड़ाये। रुक-रुक कर दो बार कम्पन हुआ फिर शांत पड़ गया सब कुछ। गहरा सन्नाटा छा गया वहां।
तीनों की निगाहें मिलीं।
“ये मर चुका है।” देवराज चौहान ने जगमोहन को देखा-“ये कम्पन तिलस्म टूटने का था। जो कि इसकी जिन्दगी और मौत के साथ बंधा था। ये ही बात इसने कही थी।”
“इसका मतलब कि तिलस्म के ताले तक पहुंचने का रास्ता खुल गया है।” महाजन कह उठा।
“इसने जो कहा, वो सच है तो, रास्ता अवश्य खुल गया होगा।” देवराज चौहान ने गम्भीरता से कहा।
“कहां है रास्ता?” जगमोहन ने हर तरफ नज़रें दौड़ाईं।
“रास्ता ढूंढना पड़ेगा।” कहने के साथ ही देवराज चौहान ने जमीन पर तलवार की नोक लगाई और बड़बड़ाया-“हे तलवार! हमें पानी चाहिये...।”
उसी पल जमीन से फव्वारे की तरह पानी फूट पड़ा।
“यहां का तिलस्म वास्तव में खत्म हो गया है।” देवराज चौहान की आवाज में राहत के भाव थे-“पहले इस तलवार की शक्तियों ने काम करना बंद कर दिया था। स्पष्ट है कि इसने जो कहा, वो सच था। इस की जिन्दगी और मौत के साथ ही यहां का तिलस्म बंधा था। यानि कि तिलस्म के आगे जाने का रास्ता जहां भी है, उसे जल्दी ही ढूंढना होगा।” कहने के पश्चात, जमीन से फूटते पानी से देवराज चौहान खून से सनी तलवार साफ करने लगा।
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