शुरू-शुरू में बड़ा ही उलझन पूर्ण दृश्य था यह मेरे लिए। लाश बता रही थी राजदान साहब ने आत्महत्या की है। मगर रिवल्वर कहीं था नहीं। पहले मैंने सोचा कहीं कातिल हत्या करके इसे आत्महत्या तो सिद्ध नहीं करना चाहता था? फिर अपने ही बेवकूफाना ख्याल पर हंसी आ गई। अगर कोई हत्या को आत्महत्या बनाने के फेर में होता तो रिवाल्वर अपने साथ नहीं ले जाता बल्कि राजदान साहब के हाथों के बीच फंसा कर जाता। तब मुझे सूझा - ये मामला तो उल्टा है। पूरी तरह उल्टा । तुममें से किसी ने कहा भी था - -लोग कानून से बचने के लिए हत्या को आत्महत्या साबित करने की कोशिश करते हैं। भला आत्महत्या को हत्या साबित करने की बेवकूफी कौन और क्यों करेगा? जवाब उसी वक्त मैंने दिया भी था— 'शायद कोई राजदान साहब की हत्या के इल्जाम में किसी को फंसाना चाहता है।' कहने को कह तो दिया मैंने, आखिर मुंह फट आदमी हूं परन्तु कुछ सुलगते सवाल खुद ही मेरे दिमाग में टहल रहे थे। जैसे कोई क्यों करेगा ऐसा ? क्या फायदा होने वाला है उसे ? उस वक्त मैंने कहा था- 'कोई तुम्हें फंसाना चाहता है। इस वक्त बता दूं—तुम्हें चकता देने के लिए पूरी तरह उल्टी बात कही थी मैंने। उसी वक्त समझ गया था— 'असल में तुम किसी को फंसाने की कोशिश कर रहे हो।' इस समझ का कारण था, तुम्हारा वही – 'थे' । तुम्हारे द्वारा राजदान की मृत्यु से अंजान बनने की कोशिश और ये अप्राकृतिक मौत। मेरे लिए यह सब दो और दो जोड़कर चार बनाने जितना आसान था। अब सवाल रह गया था तो केवल ये कि तुम ऐसा कर क्यों रहे हो? फायदा क्या है तुम्हें? उस वक्त मैं बातें चाहे जो कर रहा था परन्तु असल में दिमाग इसी सवाल का जवाब चाहता था। उसके बाद तुमने लॉकर से जेवर गायब होने का नाटक शुरू किया। उस वक्त मैं यह दर्शाये रखने पर मजूबर था कि तुम्हारे नाटक को हकीकत समझ रहा हूं। वही करता रहा ”


“यानी तुम....


“बीच में मत बोलो देवांश बाबू। पहले मेरी भभक पूरी हो लेने दो उसक बाद जी भरकर अपनी भड़ास निकाल लेना।” कहने के बाद लम्बी सांस ली ठकरियाल ने और पुनः शुरू हो गया— “तुम्हारे नाटक को हकीकत समझने का नाटक मैं इसलिए करता रहा क्योंकि एक ही बात सीखी है पुलिस ट्रेनिंग के दरम्यान । यह कि केवल शक के आधार पर तुम किसी का कुछ नहीं बिगाड़ सकते। अगर किसी पर शक हो जाये तो उसे किसी भी हालत में उस पर जाहिर मत करो । इससे वह सतर्क हो जायेगा। वह आगे गलतियां न करके तुम्हारा रास्ता बंद कर सकता है। बल्कि ठीक इसके विपरीत ऐसा 'शो' करो जैसे वह तुम्हारे शक के दायरे से कोसों दूर है। वैसा ही — यह कहकर मैंने किया भी कि वह शख्स राजदान की हत्या कर ही नहीं सकता जिसे उनकी बीमारी के बारे में मालूम था। नतीजा वही हुआ जो होना चाहिए था। खुशियों के अनार छूट पड़े तुम्हारे दिलो-दिमागों में मेरा सिद्धान्त एकयूज़ पर तब हाथ डालने का है जब मेरे पास उसके खिलाफ इतने सुबूत हों कि वह किसी भी रास्ते से बचकर न निकल सके। वैसे ही सुबूत जुटाने की खातिर बाथरूम का दरवाजा उस तरफ से बंद करके यहां से फरार हुआ।”


इतना कहने के बाद ठकरियाल ने सिगरेट में एक लम्बा कश मारा।


अगर दिव्या और देवांश पहले ही अपना गुनाह कुबूल करने का निश्चय न कर चुके होते तो जितनी बातें ठकरियाल ने कही थीं उन्हें सुनकर छक्के छूट गये होते। मगर, जो पहले ही सरेण्डर का मन बना चुके थे उन्हें उसकी बाते उतना न डरा सकीं जितना उत्सुकता जरूर थी, उनके बगैर बताये ठकरियाल हकीकत जान कैसे गया? उसी उत्सुकता को शान्त करने की खातिर देवांश ने कहा—“तो इस वक्त तुम्हारे पास हमारे खिलाफ इतने सुबूत हैं कि हम किसी भी रास्ते से बचकर नहीं निकल सकते?” 


“कोशिश करके देखो।" ठकरिया के लहजे में चैलेंज सा था। 


“ऐसा कोई नहीं इरादा है हमरा।"


“फिर?”


“हम केवल यह जानने के लिए उत्सुक हैं, हमें इस कमरे में बंद करने के बाद तुमने किया क्या? कहां से जुटाये वे सुबूत जिनके बारे में तुम्हारा दावा है कि वे ‘अकाट्य' हैं। उन सुबूतों को हम देखना चाहेंगे।”


“मेरे ख्याल से अभी तक तुम्हें कई बार समझ जाना चाहिये था कि तुम्हें इस कमरे में बंद करके मैंने तुम्हारे कमरे चैक किए होंगे।” 


“ओह!”


“ठीक उसी तरह जिस तरह तुम मेरे सात बार बैल बजाये जाने के दरम्यान रिवॉल्वर और जेवर को छुपा रह थे । राजदान के खून से लथपथ कपड़े चेंज कर रहे थे।”


“तो तुम उस सब तक पहुंच गये?”


“जब उन कमरों तक पहुंचा तो सामान तक पहुंचान जरा भी मुश्किल नहीं था। बहरहाल, हड़बड़हट और जल्दी के कारण उस सारे सामान को दिव्या जी के कमरे में ‘छुपाया' नहीं जा सका था, बस डाल भर दिया गया वहां। वैसे भी तुम्हें मेरे वहां पहुंच जाने की उम्मीद नहीं होगी। सोचा होगा - मेरे जाने के बाद आराम से सामान से निपटा जा सकता है। वहां जेवर भी मौजूद हैं, वह रिवाल्वर भी जिसने राजदान साहब की ईहलीला समाप्त की और राजदान साहब के खून से सना देवांश बाबू का नाईट गाऊन इनके कमरे के वार्डरॉब में ठुसा पड़ा है। केवल देखा भर है मैंने उन सबको । हाथ लगाने की बेवकूफी नहीं की। और हां, शायद यहीं मेरा यह बता देना भी मुनासिब होगा मैडम दिव्या कि मुझे आपके ‘स्मोकर' होने का पता कैसे लगा। आपके बैड की दराज पर रखी एश्ट्रे में सिगरेटों के जो फिल्टर वाले टोटें पड़े हैं उनमें से कुछ पर लिपिस्टिक लगी है, कुछ पर नहीं। जाहिर है - जिन पर लगी है उन्हें आपने और वह पैकिट भी आपके कमरे से बरामद आप ही का है जिससे निकाली गई तीन सिगरेटें अभी भी हमारे हाथों में सुलग रही हैं।” इतना सब कहने के बाद ठकरियाल चुप हो गया। वह केवल चुप हो गया बल्कि ऐसी सांसें लेने लगा जैसे लगातार बोलता रहने के कारण थक गया हो।


देवांश ने शान्त स्वर में पूछा- “तुम कह चुको जो कहना था ?”


उसके ख्याल से वे बातें सुनने के बाद उनके होश उड़ जाने चाहिये थे। या तो उन्हें विरोध में चीखना-चिल्लाना चाहिये था या पैर पकड़ लेने चाहिए थे उसके। बख्श देने की भीख मांगते नजर आने चाहिए थे मगर, तभी आशाओं के विपरीत वे पूरी तरह सामान्य बने हुए थे। इसी बात पर हैरान था ठकरियाल । आज तक उसने जितने भी मुर्जरिम पकड़ थे, अंततः उसके पैरां में पड़कर गिड़गिड़ाते नजर आये थे। वैसी कोई प्रतिक्रिया उन पर नहीं हुई। इस पहेली को ठकरियाल सुलझा नहीं पा रहा था। देवांश ने पूछा- “अब हम भी कुछ कहें?”


“कहो।”


“जो तुमने जाना है, हम पहले ही वह सब बताने का निश्चय कर चुके हैं।”


“मतलब?” हौले से चौंका ठकरियाल ।


“इंस्पैक्टर! लालच में फंसकर हमने यह सब कर तो दिया मगर उस वक्त जब हमारी समझ में तुम बाथरूम के अंदर थे, दोनों ने ही ‘रिलाईज’ किया—जो हमने किया है या करना चाहते हैं वह गलत है। अभी तक हमारे किये से किसी को कोई नुकसान नहीं हुआ है। हमें लगा—अभी हमारे पास आत्मस्वीकारोक्ति का वक्त है। सो, हमने तुम्हें सब कुछ बता देने के लिए ही बाथरूम का दरवाजा खटखटाना शुरू किया था।”


उन्हें बहुत ध्यान से देखते ठकरियाल ने पूछा- “क्या बताना चाहते थे?”


“वहीं, जो तुमने अपने टेलेन्ट से खुद मालूम कर लिया ।”


दिव्या बोली-~-~~-“यह कि इन्होंने वास्तव में आत्महत्या की थी। वे हम हैं जिन्होंने आत्महत्या को हत्या का रंग देने की कोशिश की। रिवाल्वर और जेवर गायाब किये।”


जिस वक्त वे सब कह रहे थे उस वक्त ठकरियाल बारी-बारी से दोनों के चेहरों को बहुत ध्यान से देख रहा था। सचमुच उसे वे चेहरे पश्चाताप की अग्नि में सुलगते नजर आये और अब जाकर उसके दिमाग में उलझी यह पहेली भी सुलझ गई कि उसके मुंह से सब कुछ सुनने के बावजूद होश क्यों नहीं उड़ गये थे उनके।


स्पष्ट हो गया - - उनके सामान्य रहने का राज यही थी, वे सचमुच मानसिक रूप से आत्मसमर्पण करने को तैयार हो चुके थे। अच्छी तरह यह समझ जाने के बावजूद कि वे सच बोल रहे हैं, ठकरियाल ने कहा- “शानदार ड्रामा कर रहे हो ।”


“ड्रामा ?”


“जब तुमने यह देख लिया — पकड़े तो जा ही चुके हैं। बच निकलने का कोई रास्ता नहीं बचा है तो सबसे अच्छा फैसला यही है-—यह कहो, हम तो खुद ही सब कुछ बताने को तैयार थे। कम से कम सहानुभूति तो मिलेगी इंस्पैक्टर की।” 


“नहीं इंस्पैक्टर, ऐसा मत सोचो।" देवांश ने कहा – “सचमुच हम तुम्हें सब कुछ बताने का फैसला पहले ही कर चुके थे।" 


“कैसे विश्वास हो मुझे”


दोनां ने एक-दूसरे की तरफ देखा । जैसे पूछ रहे हो 'कैसे यकीन दिलाया जाये ठकरियाल को?' फिर वापस देवांश ने उसकी तरफ देखते हुए पूछा— “तुम्हीं बताओ, कैसे विश्वास करोगे?”


एक पल कुछ सोचा ठकरियालने, फिर जेब से 'ऐश्ट्रे' निकाला। यह वह ऐश्ट्रे थी जो दिव्या के कमरे में रखी रहती थी। इस वक्त वह खाली थी। सिगरेट का अंतिम सिरा उसने एश्ट्रे में कुचला और उसे सेन्टर टेबल पर रखता बोला— “मैंने केवल यह जाना है, तुमने आत्महत्या को हत्या बनने की कोशिश की। इसके लिए घटनास्थल से रिवॉल्वर गायब किया। जेवर हटाये। जहां तक मैं समझता - तुम यह स्टोरी प्लान्ट करना चाहते थे किसी ने जेवरों के लालच में राजदान की हत्या कर दी। अब सवाल ये रह जाते हैं, यह सब हुआ कैसे? अर्थात् वारदात की डिटेल क्या है और इस हत्या के जुर्म में तुम फंसाना किसे चाहते थे?... अगर यह सब मुझे जरा भी झूठ बोले बगैर बता दोगे तो समझुंगा तुम लोग वाकई गिल्टी हो ।”


“हम तैयार हैं।”


“हो जाओ शुरू।” कहने के साथ उसने जेब से एक और सिगरेट निकाल ली, उसे सुलगाने के बाद बोला – “अभी बता दूं, अपनी-अपनी सिगरेट खत्म होने पर इस ऐश्ट्रे में डालना, उसमें नहीं जो राजदान के सिगारों से भरी पड़ी है। बाद में यह एश्ट्रे यहां से हटा दी जायेगी।”

“क्यों न हम किसी और कमरे में चलकर बातें करें?”

सिगरेट एश्ट्रे में कुचलती दिव्या ने कहा।

“पहले ही कह चुका हूं मोहतरमा, आदमी को जिन्दा आदमी से डरना चाहिए। पता नहीं वह कब क्या कर डाले? चलन साला उल्टा है। लोग लाश से डरते हैं। उससे , जो चाहकर भी किसी का कुछ नहीं बिगाड़ सकती बल्कि... चाह भी नहीं सकती कुछ ।” फिर भी, अजीब सा लग रहा है मुझे।

“छोड़ो उसे । तुम उधर देखो ही मत।" अभी तक दिव्या को 'आप' कह रहा ठकरियाल 'तुम' पर उतर आया था। देवांश से बोला – “शुरू हो जाओ उस्ताद ।”

“सच्ची बात ये है इंस्पैक्टर कि लाश की वजह से मैं भी थोड़ी असुविधा महसूस कर रहा हूं। आगे की बातें हम कहीं और ही करें तो बेहतर होगा।"

“उस वक्त हम दोनों दिव्या के कमरे में इस बात पर विचार विमर्श कर रह थे कि भइया को अमेरिका ले जाने के लिए पैसों का प्रबन्ध कहां से करें जब इन्टरकॉम पर उन्होंने हमसे सम्पर्क स्थापित किया।" 

“उन्होंने से मतलब राजदान साहब से है न ?”

“जी।”

“काफी अच्छा टाईम चुना आपने राजदान साहब को अमेरिका ले जाने पर विचार विमर्श करने हेतु।" ठकरियाल के लहजे में छुपा व्यंग्य उनमें से किसी से छुप नहीं सका — “रात के करीब बारह और एक बजे के बीच का ।”

देवांश ने ऐसा जाहिर किया जैसे उसके व्यंग्य को समझ नहीं सका है। दरअसल ऐसा करना ही उसके लिए सुविधाजनक था। घटना के वक्त वह अपने कमरे में नहीं बल्कि दिव्या के बैडरूम में था, यह स्वीकार करना मजबूरी थी। अगर वह पहले ही न जान चुका होता कि ठकरियाल उस कमरे में रखी एश्ट्रे से उसके और दिव्या द्वारा पी गई सिगरेटों के टोटें बरामद कर चुका है तो निश्चित रूप से उसे वही कहना था कि उस वक्त दिव्या अपने कमरे और वह अपने कमरे में था क्योंकि रात के बारह और एक बजे के दरम्यान देवर का भाभी के कमरे में होना सचमुच संदिग्ध था परन्तु वर्तमान हालात में उसके वहां होने से मुकरने की कोई गुजाईश नहीं थी। सो, बोला – “तुम जो भी समझो, मगर वार्ता हम इसी सम्बन्ध में कर रहे थे।"

“उसके बाद?”

“भैया ने इन्टरकॉम के जरिये हमें यहां बुलाया"

“यानी वे जानते थे उस वक्त तुम अपने कमरे में नहीं बल्कि यहां हो, अपनी भाभी के पास?” 

“हां।”

"इस सम्बन्ध में कुछ पूछा नहीं उन्होंने?”

“नहीं।”

“मेरा मतलब यह नहीं पूछा, रात के उस वक्त तुम भाभी के बैडरूम में क्या कर रहे थे?” ठकरियाल को ‘क्रॉस’ करने का जैसे मौका मिल गया देवांश को। बोला – “एक ही बात कहूंगा इंस्पैक्टर, यह बात तुम्हें खटक सकती हैं क्योंकि हमारे सम्बन्धों को लेकर तुम्हारे दिलो-दिमाग में पहले ही से गन्दगी भरी है मगर भैया के लिए मेरा किसी भी वक्त भाभी के कमरे में होना खटकने की बात नहीं थी। उन्हें हम पर विश्वास था।"

“सो तो है।” ठकरियाल के लहजे में अब भी व्यंग्य था— “विश्वास तो वे तुम पर कानून की देवी की तरह आंखों पर पट्टी बांध कर करते थे। फिर भी, मैं समझता हूं यह एक साधारण बात थी कि राजदान साहब रात के उस वक्त तुम्हारे कमरे में होने का कारण पूछते और तुम इस दुविधा में फंस जाते क्या जवाब देते। क्योंकि यह तो उन्हें बताया नहीं जा सकता था कि तुम लोग उन्हें अमेरिका ले जाने पर विचार विमार्श कर रहे थे।”

“ठीक सोच रहे हो तुम। अगर वे पूछते तो सचमुच जवाब देना भरी पड़ जाता मगर इस सम्बन्ध में उन्होंने कुछ नहीं पूछा।” 

“आश्चर्य की बात है। " 

“वह कैसे?”

“स्वाभाविक सवाल नहीं पूछा उन्होंने ।”

“स्वाभाविक सवाल आदमी तब पूछता है जब सामान्य अवस्था में हो।” 

“अर्थात्?”

“भैया उस वक्त सामान्य मानसिक अवस्था में नहीं थे।” 

“फिर किस अवस्था में थे?"

जवाब देने से पहले एक पल के लिए रुका देवांश- दरअसल उसे अपने और दिव्या के सम्बन्धों को छुपाये रखकर राजदान द्वारा आत्महत्या करने की वारदात को बताना था। जिन सब का ठकरियाल को पता लग गया था उसकी रोशनी में यह काम बहुत ही मुश्किल नजर आ रहा था उसे । इसलिए, एक-एक शब्द को नाप-तौलकर बोला—“कमरे में घुसते ही हम दोनों चौंक पड़े। बल्कि यह कहा जाये तो ज्यादा मुनासिब होगा, पैरों तले से धरती खिसक गई हमारे। दृश्य ही ऐसा था।"

“क्या दृश्य था वह?”

“उनके हाथ में रिवाल्वर था। तुम समझ सकते हो, हमारी क्या हालत हुई होगी। एक पल के लिए तो हम जहां के तहां, अवाक् खड़े रह गये। जाम हो गये। जिस्म ही नहीं, दिमाग भी समझ न सका, आखिर क्या होने वाला है? तब, भैया ने बहुत ही दृढ़ स्वर में कहा—‘अब मैं इस नर्क को और नहीं भोग सकता, जा रहा हूं।' उनका इरादा भांपते ही मैं 'भैया' चीखता हुआ उनकी तरफ लपका मगर बचा नहीं सका उन्हें जब तक करीब पहुंचा तब तक नाल अपने मुंह में डालकर फायर कर चुके थे। एक पल का बल्कि... पल के भी शायद सौंवे हिस्से का खेल था वह। जहां का तहां खड़ा रह गया मैं। जो शख्स अभी-अभी जीवित था, वह अब नहीं था। पलक झपकते ही उनके फेस और सिर के चीथड़े उड़ चुके थे।"

ठकरियाल ने कहा—“आत्महत्या को हत्या का रंग देने की बात तुम्हारे दिमाग में कब और क्यों आई?... बंदे को जानने का हकदार समझते हो तो कर दो यह एहसान भी।”

इस सवाल का जवाब देवांश पहले ही तैयार कर चुका था अतः चालू हो गया— “जैसे ही हमारे दिमागों ने इस कठौर सच्चाई को स्वीकार कि भैया अब नहीं रहे और सुबह यहां पुलिस ही पुलिस होगी तो मैंने भाभी से कहा, जो उस वक्त अपने हाथों से चेहरा छुपाये रो रही थी— ‘भाभी, जो होना था - हो चुका है। और ... शायद ठीक ही किया भैया ने जरा उनेक प्वाईट ऑफ व्यू से भी सोचो-कब तक नर्क हो चली अपनी जिन्दगी से जूझते? आज नहीं तो कल, उन्हें मरना ही था।' दूसरी तरफ — उन्हें यह गम भी सता रहा था कि उनकी बीमारी हमें कर्जे में डुबोती चली जा रही है। सम्भव है— उन्हें यह भनक भी लग गई हो कि हम उन्हें अमेरिका ले जाने पर विचार कर रहे हैं। उन्होंने सोचा हो— यदि वे इंकार करेंगे तो हम मानेंगे नहीं और अगर हमने वह किया जो सोच रहे हैं तो पूरी तरह बरबाद हो जायेंगे। शायद हमें उस बरबादी से बचाने के लिए ही उन्होंने एड्स से मरने का इन्तजार करने की जगह गोली मारकर खुद को खत्म कर लिया।"

“यानी तुम जानते थे—काफी हद तक ठीक कहा तुमने । राजदान साहब को तुम्हारी भलाई के बारे में सोचने के अलावा और कुछ सूझता ही नहीं था।”

“मुझे लॉकर में रखे भाभी के जेवरों का ख्याल आया। मेरा एक्सपीरियेंस कहता था – सुबह जब पुलिस आयेगी तो अपनी कार्यवाई के दरम्यान या तो इस कमरे में मौजूद हर वस्तु को अपने कब्जे में ले लेगी अथवा सील कर देगी। उस अवस्था में, कोर्ट से ज्वेलरी रिलीज होने के तक हमें उससे महरूम होना पड़ सकता था। उससे - जो सचमुच हमारी अंतिम पूंजी है। हमने फैसला किया, वह ज्वेलरी हमें लॉकर से निकाल लेनी चाहिए। इस फैसले के साथ लॉकर खोला। उसमें से ज्वेलरी के साथ हमारे हाथ एक पॉलिसी भी लगी।” 

“पॉलिसी?” 

“भैया की बीमा पॉलिसी। "

“ओह।”

“पांच करोड़ की पॉलिसी है वह।"

“यानी राजदान साहब की मौत के बाद तुम लोगों की पौ बारह होने वाली है।” 

“अब नहीं।” दिव्या ने इस तरह कहा जैसे अभी रो देगी। 

“क्यों?”

“सुसाईड की अवस्था में बीमा कम्पनी क्लेम नहीं देगी।” देवांश ने कहा। 

“बात घुसी नहीं खोपड़ी में।... ऐसा क्यों?”

“इसी बात ने तो दिमाग खराब किया था हमारा। पॉलिसी के साथ भैया के हाथ के लिखे एक लेटर की कार्बन कॉपी भी लगी है। लेटर पर ड्रेट पड़ी हुई है। यह लेटर उन्होंने कल ही बीमा कम्पनी को लिखा है। उसमें लिखा है - अगर मैं सुसाईड कर लूं तो पॉलिसी का क्लेम किसी को न दिया जाये लेकिन यदि मैं स्वाभाविक मौत मर जाऊं अथवा कोई मेरा कत्ल कर दे तो क्लेम नोमिनी को दे दिया जाये जो कि मेरी पत्नी दिव्या है।"

“ये क्या बात हुई? ऐसा लेटर उन्होंने बीमा कम्पनी को क्यों लिखा?”