अगली सुबह ।

टेलीफोन की घंटी की आवाज ने गहरी नींद में सोए पड़े । अजय को जगा दिया ।

उसने पास ही मेज पर रखा टेलीफोन उपकरण का रिसीवर उठा लिया ।

–'यस ?'

–'मंजुला सक्सेना बोल रही हूँ, अजय ।' दूसरी ओर से उत्तेजित स्वर में कहा गया–'मैं तुमसे मिलना चाहती हूँ ।'

–'कोई खास बात है ?'

–'हां, मुझे एक नई जानकारी मिली है ।'

–'क्या ?'

–'यह मैं फोन पर नहीं बता सकती । मुझे एक बात कनफर्म करनी है । फिर तुमसे मिलने आऊंगी ।'

–'किस वक्त ?'

–'यह मैं दोबारा फोन करके बता दूंगी ।'

–'ठीक है । मैं इन्तजार करूंगा ।'

दूसरी ओर से सम्बन्ध विच्छेद कर दिया गया ।

अजय ने रिसीवर यथा स्थान रखकर अपनी रिस्टवाच उठाई । वो सवा नौ बजने की सूचना दे रही थी ।

वह रात में नीलम को उसके आवास पर पहुंचाने के बाद काफी देर से वापस लौटा था । अगर मंजुला का फोन नहीं आया होता तो उसने कम से कम तीन घंटे और सोना था ।

मंजुला के फोन ने एक ओर जहां उसकी नींद में खलल डाल दिया था । वहीं दूसरी ओर वह उत्सुक भी कम नहीं था । लेकिन साथ ही एक समस्या भी उत्पन्न हो गई । दोबारा मंजुला का फोन आने तक अपने होटल के कमरे से बाहर कहीं वह नहीं जा सकता । और क्योंकि उसने कोई निश्चित समय नहीं बताया था । इसका मतलब था उसका फोन आने में दस मिनट भी लग सकते थे और दस घंटे भी । अजय ने कुछ देर सोचा फिर विशाल गढ़ टाइम्स फोन किया । उसे बताया गया मिस मंजुला सक्सेना ऑफिस में नहीं थी । उसने कुछ देर पहले फोन करके इत्तिला दी थी वह एक हफ्ते के लिये बाहर जा रही है । अजय ने मंजुला के घर का पता पूछा तो जवाब में कहा गया अपने स्टाफ के बारे में किसी को पर्सनल इनफार्मेशन देना 'विशालगढ़ टाइम्स' की पॉलीसी के खिलाफ है ।

अजय ने फोन डिस्कनेक्ट करके, 'थंडर' के स्थानीय ऑफिस का नम्बर डायल किया ।

नीलम से सम्बन्ध स्थापित होने पर उसने पूछा–'मंजुला सक्सेना के घर का फोन नम्बर है तुम्हारे पास ?'

–'तुम्हें उसकी क्या जरूरत आ पड़ी ?' नीलम ने जानना चाहा ।

–'थोड़ी देर पहले उसने फोन किया था । उसी सिलसिले में मैं उससे कुछ पूछना चाहता हूँ ।'

–'होल्ड करो । अभी बताती हैं ।' दूसरी ओर से कहा गया, फिर लाइन पर मौन व्याप्त गया और फिर नम्बर बताने के बाद नीलम द्वारा कहा गया–'मैं आज शाम करीब आठ बजे आऊंगी ।'

–'ठीक है । मैं इन्तजार करूंगा ।'

अजय ने फोन डिस्कनेक्ट करने के बाद नीलम द्वारा बताया गया नम्बर डायल किया ।

सम्बन्ध स्थापित होने पर लाइन पर एक नारी स्वर उभरा ।

–'दीन शा आनसरिंग सर्विस ।

अजय चकराया ।

–'यह मिस मंजुला सक्सेना के घर का फोन नम्बर नहीं है ?' उसने पूछा ।

–'नो, सर । यह मिस सक्सेना की आनसरिंग सर्विस है । आप कोई मैसेज देना चाहते हैं ?'

–'हां, उसे कब तक मैसेज मिल जाएगा ?'

–'आमतौर से वह हर तीन घंटे बाद फोन किया करती है । उसने पंद्रह मिनट पहले फोन किया था । अब करीब बारह बजे करेगी ।'

–'उससे कहिए होटल सिद्धार्थ में अजय कुमार को फोन कर ले ।'

–'मैसेज पास कर दिया जाएगा ।'

अजय सम्बन्ध विच्छेद करके पुन: सोने की कोशिश करने लगा ।'

कोशिश कामयाब हो गई । जल्दी ही उसके धीमे खर्राटे कमरे में उभरने लगे ।

* * * * * *

मध्यम वर्गीय कॉलोनी की एक बहुमंजिला इमारत के अपार्टमेंट में खिड़की के पास कुर्सी में पसरा बद्री प्रसाद सोनी बाहर फैलते शाम के धुंधलके को देख रहा था ।

उसके चेहरे पर गहन विचारपूर्ण भाव थे वह अपने किए सौदे के बारे में सोच रहा था । बीस लाख की फिरौती की रकम के नोट उसने पाँच लाख रुपये में बेच दिए थे । उस वक्त उसे अपना यह सौदा बिल्कुल सही लगा । क्योंकि पांच लाख रुपए के वे नोट एकदम 'क्लीन' थे । जबकि फिरौती की रकम के नोटों के बारे में यकीनी तौर पर यह जानने का कोई साधन उसके पास नहीं था कि वे भी 'क्लीन' थे या नहीं । लेकिन अब उसे लग रहा था वो सौदा करके उसने बड़ी भारी बेवकूफी की थी । और अपनी उस बेवकूफी पर वह खुद को बुरी तरह कोस रहा था ।

फिरौती की रकम बेचे हुये उसे महीना भर से ज्यादा हो गया था । खरीदार के बारे में जितनी जानकारी उसे थी । उसके आधार पर वह दावे के साथ कह सकता कि ऐसे मामलों में माहिर और सम्पन्न उस आदमी ने दस–बारह दिन से ज्यादा वो रकम अपने पास नहीं रखनी थी । उस रकम का एक बड़ा हिस्सा सम्भवतया सर्कुलेशन में आ भी चुका था ।

बद्री हर रात टकरु से सभी उपलब्ध अखबार मंगाता था और बड़े ध्यान से हर एक अखबार को शुरू से आखिर तक पढ़ता था इस उम्मीद में कि शायद फिरौती की रकम पकड़ी जाने का कोई सुराग मिल जाये और जब ऐसा कोई सुराग उसे नहीं मिलता तो उसके दिमाग में बस एक ही बात आती थी ज्यादा होशियारी दिखाने के चक्कर में पंद्रह लाख रुपये की चपत खा बैठा ।

चन्दन मित्रा के अपहरण की योजना उसने बनाई, अपहरण करने का सारा रिस्क भी उसी ने लिया और चन्दन मित्रा के माँ–बाप से फिरौती की रकम वसूलने के तमाम खतरे भी उसी ने उठाए । और बदले में उसके हाथ आये सिर्फ पाँच लाख रुपए । जबकि फिरौती की रकम खरीदने वाला बिना कुछ करेधरे ही पन्द्रह लाख का मालिक बन गया था ।

यह सोचकर बद्री का रोम–रोम गुस्से से कांपने लगता था...।

सहसा, दस्तक की आवाज सुनकर उसका विचार प्रवाह छिन्न–भिन्न हो गया ।

उसने उठकर दरवाजा खोला ।

आगंतुक टकरु था ।

उसने कमरे में आकर, बगल में दबे कोई दर्जन भर अखबार मेज पर डाल दिए ।

भारी कंधों और मजबूत कसरती जिस्म वाले लंबे–चौड़े टकरु की उम्र करीब चालीस वर्ष थी । उसके कान मुड़े–तुड़े से थे और नाक चपटी । भवों और माथे पर जगह–जगह मौजूद पुराने जख्मों के निशान उसकी जवानी के शुरुआती दौर की नाकामयाबी के सबूत थे ।

वह पेशेवर बॉक्सर रह चुका था ।  टकरु नाम भी उसे बॉक्सिंग रिंग से ही मिला था । वह बढ़िया बॉक्सर था । लेकिन उसे हारने से चिढ़ थी । जब भी उसे लगता हारने वाला था तो वह अपने प्रतिद्वंद्वी के चेहरे पर घूंसों की बजाय सर की टक्कर दे मारता था । उसकी इसी आदत की वजह से उसे टकरु कहा जाने लगा । इस आदत के कारण कई बार उसे न सिर्फ चेतावनी दी गई थी बल्कि उस पर जुर्माना तक भी किया गया । मगर वह अपनी इस हरकत से बाज नहीं आया । फिर चैम्पियनशिप के मुकाबले के सेमीफाइनल में जब उसने अपने प्रतिद्वंद्वी की आँख पर टक्कर मारकर उसे बुरी तरह जख्मी कर दिया तो टकरु को हमेशा के लिए डिसक्वालिफाई कर दिया गया । इस तरह उसका बॉक्सिंग कैरियर तो खत्म हो गया लेकिन उसके साथ टकरु नाम उसी तरह चिपका रहा ।

टकरु फ्रिज से व्हिस्की की बोतल निकालकर काउच पर बैठ गया । बोतल से ही व्हिस्की के छोटे–छोटे घूँट लेने लगा ।

बद्री उसके लाए अखबारों का एक–एक करके बारीकी से अध्ययन करता रहा ।

अंत में, जब उसको तसल्ली हो गई कि फिरौती की रकम का कहीं कोई जिक्र नहीं था तो उसने अखबार समेट कर एक तरफ पटक दिए ।

–'उस हरामजादे ने हमें बेवकूफ बनाया था ।' वह विष भरे स्वर में बोला–'फिरौती की रकम के वे नोट एकदम क्लीन थे । उन पर किसी तरह की कोई निशानदेही नहीं की गई थी । और उस कमीने ने चवन्नी फी रुपए के हिसाब से हमसे वो सारी रकम ठग ली ।'

टकरु ने बोतल से तगड़ा घूँट लिया ।

–'हम जिस तरह रह रहे हैं क्या यह ठीक नहीं है ?' वह दार्शनिकी अंदाज में बोला–'अगर वो रकम हमारे पास होती तो कम से कम साल भर तक हम उसे छूने की हिम्मत भी नहीं कर सकते थे । और डर सताता रहता सो अलग । इससे भी बड़ी बात थी । बीस लाख पल्ले में होते हुए भी हम न तो ढंग का खा–पी सकते थे और न ही पहन सकते थे । ऐश और मौज–मस्ती करना तो दरकिनार रहा । उसका ख्वाब भी हम नहीं ले सकते थे ।' उसने सुसज्जित अपार्टमेंट में संतुष्टि पूर्ण निगाहें घुमाई जहाँ तक मेरा सवाल है, बीस लाख पल्ले में होते हुए भी भूखों मरने से इस पांच लाख में ऐश करके खुश हूँ ।'

बद्री ने कड़ी निगाहों से उसे घूरा ।

–'लाओ, बोतल मुझे दो ।'

टकरु ने बोतल उसे दे दी ।

बद्री ने एक गिलास में व्हिस्की डालकर बोतल जोर से मेज़ पर रख दी ।

–'बीस की जगह पांच लाख पाकर तुम्ही खुश हो सकते हो । मैं नहीं हो सकता ।' वह बोला–'तुम समझते हो पाँच लाख रुपये हमें जिंदगी भर के लिए काफी होंगे ? जिस तरह खुला खर्च हम कर रहे हैं । उससे यह रकम दो साल में ही खत्म हो जायेगी ।'

–'वो बाद की बात है । जब तक पैसा हमारे पास है हमें जी भरकर मौज लेनी चाहिए ।' टकरु लापरवाही से बोला–'आओ, मारिया के ठिकाने पर चलते हैं । मैंने सुना है उसके यहां कुछ नई छोकरियाँ आई हैं–एकदम फिल्मी हिरोइनों जैसी ।'

–'तुम्हें उससे क्या फर्क पड़ता है ? तुमने तो उस मुटल्ली रोजी का ही पहलू आबाद करना है । तुम हमेशा यही करते हो । पता नहीं, उसने क्या जादू कर रखा है तुम पर ?'

टकरु बड़े ही कुत्सित भाव से मुस्कराया ।

–'रोजी की सबसे बड़ी तारीफ है–उसके साथ जो चाहो जैसा चाहो कर सकते हो । वह हर तरह से पूरा मजा देती है । खैर, मैं अपनी नहीं तुम्हारी बात कर रहा हूँ । क्योंकि तुम्हें वैरायटी पसंद है ।'

बद्री ने गिलास खाली करके हाथ के पृष्ठ भाग से मुंह पोंछा ।

–'तुम फिल्मी हिरोइनों की बातें करते हो ।' वह बोला–'जबकि उस चकले में मुझे तो एक्स्ट्राओं के ग्रेड के ऊपर की कोई चीज कभी नजर नहीं आयी ।'

–'छोड़ो यार । हमने कौन सा उनमें से किसी के साथ फेरे डालने हैं । थोड़ी देर दिल बहलाना और मस्ती मारना ही तो होता है । और इस काम के लिए वे लड़कियां बुरी नहीं है ।'

–'ठीक कहते हो । बुरे काम के लिए कोई बुराई उनमें नहीं है । वैसे भी, यहा बंद पड़े–पड़े मैं ऊब गया हूँ, बद्री ने कहा, फिर चारों ओर घूमती उसकी निगाहें अखबारों पर जम गई–'मेरी मत मारी गई थी जो समझ बैठा कि चन्दन मित्रा के मां–बाप ने जरूर पुलिस की मदद ली होगी और उन लोगों ने फिरौती की रकम के नोटों पर निशानदेही कर दी होगी ।'

–'हो सकता है, वाकई ऐसा ही हुआ था ।'

–'मैं नहीं मानता ।'

–'तुम सिर्फ इसलिए नहीं मान रहे क्योंकि वो रकम पकड़ी जाने को कोई खबर अखबार में नहीं छपी । इसकी वजह यह भी तो हो सकती है हमारे खरीददार ने अभी उसे सरकुलेट कराना शुरू ही नहीं किया है ।'

–'नहीं, उस जैसे आदमी इस तरह की रकम को ज्यादा देर अपने पास नहीं रखा करते । उसने अपने सोर्सेज के जरिए जरूर धीरे–धीरे रकम को सरकुलेट करना शुरू कर दिया होगा । यह देखने के लिए कि नोट पकड़े तो नहीं जाते हैं ।'

–'और क्योंकि अखबारों में उनके बारे में कुछ नहीं छपा है । इसलिए जाहिर है वे अभी पकड़े नहीं गए हैं ?'

–'या तो पकड़े नहीं गए और अगर पकड़े गए हैं तो –पुलिस जान बूझकर किसी खास वजह से इस बात को छिपा रही है । या फिर वे नोट वाकई एकदम क्लीन हैं । इसलिए उनकी ओर कोई ध्यान दे ही नहीं रहा ।

टकरु खड़ा हो गया ।

–''असलियत जो भी है जल्दी सामने आ जाएगी ।' टकरु खड़ा होकर बद्री से बोला–'अब और वक्त जाया मत करो । मुझे रोजी की तलब सता रही है ।'

–'ओके ।'

बद्री खड़ा हो गया ।

अपना मनपसंद ब्राउन सूट पहनने के बाद आदतन अपनी जेब में रिवाल्वर रखते समय उसे याद आया कि इस इमारत में रहने वालों और मारिया के चकले में उसकी इमेज एक खाते पीते 'शरीफ' आदमी की है । और ऐसे किसी आदमी का हथियारबंद नजर आना शक का बायस बन सकता है । लेकिन बरसों पुरानी आदत से यूं एकाएक छुटकारा पाना भी आसान नहीं था । उसने न चाहते हुए रिवाल्वर जेब में डाल ली ।

टकरु सहित बाहर आकर उसने प्रवेश द्वार लॉक किया और दोनों लिफ्ट की ओर बढ़ गए ।

नीचे पहुंचकर लॉबी से गुजरते समय बद्री तनिक चौंका ।

साँवली रंगत और गठीले जिस्म वाला एक कोई पैंतीसेक वर्षीय आदमी कुर्सी में धंसा अखबार पढ़ रहा था । उसके चेहरे पर हल्के चेचक के निशान थे ।

प्रगट में सामान्य बना और इमारत के प्रवेश द्वार की ओर जाता बद्री मन ही मन सोच रहा था । उस आदमी को पहले भी कहीं उसने देखा था । लेकिन यह याद नहीं आ सका कहाँ देखा था ।

इमारत से निकलकर टैक्सी स्टैंड की ओर जाते हुए भी वह उसी आदमी के बारे में सोच रहा था ।

–'लॉबी में बैठे उस आदमी को देखा था तुमने ? अंत में, उसने टकरु से पूछा ।

टकरु, मारिया के चकले और रोजी के ख्यालों में खोया हुआ था ।

–'किस आदमी की बातें कर रहे हो ?' उसने पूछा ।

–'चेहरे पर चेचक के निशानों वाला वही आदमी जो लॉबी में बैठा अखबार पढ़ रहा था । बद्री बोला–'ऐसा लगता है उसे पहले भी कहीं देखा है ।'

–'इसी इमारत में रहता होगा या फिर अक्सर यहां आता रहता होगा । टकरु लापरवाही से बोला–'और तुमने लिफ्ट में आते–जाते उसे देखा होगा ।'

–'ऐसा ही लगता है ।'

बद्री ने कह तो दिया । लेकिन उसे लगभग पूरा यकीन था उस आदमी को उसने किसी दूसरी जगह और सरासर जुदा हालात में कहीं देखा था । वह चाहकर भी उसे अपने दिमाग से नहीं निकाल पाया । उसे लग रहा था वह किसी खास मकसद से, जिसका ताल्लुक सिर्फ उसी से था, इमारत की लॉबी में मौजूद था ।

टैक्सी में सवार होकर मारिया के चकले की ओर जाते । समय भी वह उसी के बारे में सोच रहा था ।

चेहरे पर चेचक के दागों वाला वह आदमी मदन था ।