इमरान ने एक पी.सी.ओ. बूथ से फ़ैयाज़ को फ़ोन किया कि वह उसके लिए काम शुरू कर चुका है, इस्लिए वह अब अपना पेट्रोल फूँकने की बजाय उसकी मोटर साइकिल वापस नहीं देगा....फ़ैयाज़ ने फ़ोन ही पर उसे गालियाँ बकीं....लेकिन इमरान हर गाली पर उसकी हौसला अफ़ज़ाई करता रहा...
उसके बाद वह मज़दूरों की उसी बस्ती की तरफ़ चला गया जहाँ ग़ज़ाली ठहरा हुआ था। उसने उसके कमरे का दरवाज़ा खुला हुआ देखा, कमरे में दाख़िल हुआ, लेकिन वहाँ सफ़ाई नज़र आयी, एक तिनका भी नहीं दिखाई दिया। पड़ोसियों में से एक ने, जो अपनी रात की ड्यूटी ख़त्म करके सुबह चार बजे वापस आया था, बताया कि ग़ज़ाली के कमरे के सामने एक बड़ी-सी वैन खड़ी हुई थी और उस पर ग़ज़ाली का सामान रखा जा रहा था.... यह वाक़या सुन कर एक बार फिर इमरान ख़ाली कमरे में वापस आ गया....और चारों तरफ़ हैरत से देखने लगा....और फिर अचानक दरवाज़े की तरफ़ मुड़ कर तेज़ी से झपटा। दूसरे पल में वह झुक कर सिगरेटों का एक पैकेट उठा रहा था.... लेकिन पैकेट ख़ाली था। वह उसे उलट-पलट कर देखने लगा।
फिर वह उसे रोशनी में देखने के लिए दरवाज़े के सामने आ गया। उस पर पेन्सिल से महीन अक्षरों में जगह-जगह कुछ लिखा हुआ था। ऐसा लग रहा था कि जैसे किसी ने काम के लिए कुछ लिखा हो, लेकिन यह किसी और भाषा में लिखा हुआ था जो इमरान की समझ में न आ सका.... वैसे उसका ख़याल था कि वह रूसी लिखावट भी हो सकती है। सारे अक्षर एक जैसे ही लग रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने जगह-जगह कोई एक ही चीज़ लिखी हो। इमरान ने पैकेट जेब में डाल लिया। कमरे में इसके अलावा उसे कुछ नहीं मिला। थोड़ी देर बाद वह यूनीवर्सिटी की तरफ़ जा रहा था। उसे उम्मीद थी कि प्रोफ़ेसर सईद जो पश्चिमी ज़बानों का माहिर था, इस पर ज़रूर रोशनी डाल सकेगा।
प्रोफ़ेसर सईद इमरान के दोस्तों में से था। उसने इमरान के ख़याल के मुताबिक ही बताया कि वह लिखावट रूसी थी और वह दरअसल किसी ‘‘आर्टामोनॉफ़’’ के दस्तख़त थे। यूनीवर्सिटी से वापसी पर इमरान सोच रहा था कि कुछ लोग बेकारी के पलों में यूँ ही काम के तौर पर अमूमन अपने ही दस्तख़त किया करते हैं। बस क़लम या पेन्सिल हाथ में होनी चाहिए। जो चीज़ भी सामने पड़ गयी, बस उस पर दस्तख़त हो रहे हैं।
फिर वह ग़ज़ाली के बारे में सोचने लगा। वह रूसी तो क्या, रूस से ताल्लुक़ रखने वाली किसी दूसरी रियासत का भी रहने वाला नहीं मालूम होता था। देखने के एतबार से वह अपनी ही तरफ़ का रहने वाला हो सकता था।
अब इमरान ने फ़ैयाज़ के दफ़्तर की राह ली....और वहाँ कुछ ज़्यादा गालियाँ उसका इन्तज़ार कर रही थीं। उसे देख कर फ़ैयाज़ आपे से बाहर हो गया।
‘‘उनको आता है मेरे प्यार पर ग़ुस्सा।’’ इमरान ने कान पर हाथ रख कर हाँक लगायी।
‘‘मैं धक्के दे कर बाहर निकलवा दूँगा समझे।’’
‘‘लोग यही समझेंगे तुम्हारी बीवी जल्द ही तलाक़ लेने वाली है। वैसे अगर तुम बाहर से आने वालों में से किसी आर्टामोनॉफ़ का पता लगा सको तो दीन और दुनिया का भला होगा।
‘‘बस, तुम चुपचाप यहाँ से चले जाओ, ख़ैरियत इसी में है।’’
‘‘अच्छा पेट्रोल का दाम ही दे दो, क्योंकि अब टंकी में थोड़ा ही रह गया है।’’
‘‘क्या?’’ फ़ैयाज़ झुँझला गया। ‘‘अब मोटर साइकिल को हाथ भी न लगाना।’’
‘‘हाथ सिर्फ़ हैंडिल पर रहेंगे। इसके अलावा अगर कहीं और लगाऊँ तो कटवा लेना। वैसे मैं आर्टामोनॉफ़ के मामले में संजीदा हूँ....! उसका ताल्लुक़ ग़ज़ाली की मौत से भी हो सकता है।’’
‘‘कौन ग़ज़ाली। क्या बक रहे हो?’’
‘‘वही ग़ज़ाली जिसकी लाश तुमने मुझे दिखाई थी।’’
फ़ैयाज़ कुर्सी से टेक लगा कर इमरान को घूरने लगा। फिर बुरा-सा मुँह बना कर बोला। ‘‘बेकार में मुझ पर रौब डालने की कोशिश न करो। तुम लेबोरेट्री से आ रहे हो....और वहीं से तुम्हें यह नाम मालूम हुआ है....मगर यह ज़रूरी नहीं कि वह अँगूठी मरने वाले ही की हो.... उसके कोट के अन्दर की जेब का अस्तर फटा हुआ था। हो सकता है उसने अँगूठी कभी जेब में डाली हो और वह सूराख़ से कोट के अस्तर और ऊपर के बीच में पहुँच गयी हो। अगर वह ख़ुद उसकी होती तो जेब में डाले रखने का क्या तुक हो सकता है? वैसे मैं लेबोरेट्री वालों से जवाब तलब करूँगा कि वह इस क़िस्म की इत्तला उन लोगों को क्यों देते हैं जो डिपार्टमेंट से ताल्लुक़ नहीं रखते।’’
‘‘उनसे यह भी पूछना कि उन्होंने मुझे मरने वाले के घर का पता भी क्यों बता दिया?’’
‘‘बेकार में बात बनाने की कोशिश न करो।’’
‘‘अँगूठी का क्या क़िस्सा है प्यारे फ़ैयाज़!’’ इमरान उसे चुमकार कर बोला।
फ़ैयाज़ कुछ पल उसे ग़ौर से देखता रहा फिर बोला। ‘‘क्या यह हक़ीक़त है कि तुम्हें यह नाम लेबोरेट्री से नहीं मालूम हुआ।
‘‘यह हक़ीक़त है। वैसे अगर तुम लेबोरेट्री इनचार्ज से झगड़ा ही करना चाहते हो तो मैं तुम्हें नहीं रोकूँगा, क्योंकि तुमने आज मुझे बहुत गालियाँ दी हैं और मैं इसके बदले में यक़ीनन यह चाहूँगा कि कोई तुम्हारे हाथ-पैर तोड़ कर रख दे।’’
‘‘फिर तुम्हें यह नाम कैसे मालूम हुआ?’’
‘‘बस हो गया। तुम फ़िलहाल इसकी परवाह न करो और यह हक़ीक़त है कि मैं उसके ठिकाने को भी जानता हूँ। अगर यक़ीन न आये तो मेरे साथ चलो। लाश की तस्वीरें शायद तैयार हो कर तुम्हारे पास आ गयी होंगी।’’
‘‘हाँ, आ गयी हैं। क्यों?’’
‘‘मैं उसके पड़ोसियों से तस्दीक़ करा दूँगा।’’
‘‘क्या तुम संजीदगी से बात कर रहे हो?’’
‘‘ओ....हो! क्या तुम यह समझते हो कि मैं यूँ ही में तुम्हारा पेट्रोल फूँकता फिर रहा हूँ। नहीं डियर! ऐसी बात नहीं.... चलो उठो। लेकिन लाश के चेहरे का क्लोज़ अप ज़रूर साथ ले लेना। ताकि तुम्हें इत्मीनान हो सके।’’
‘‘आख़िर तुमने किस तरह पता लगा लिया?’’
‘‘इलहाम हुआ था। तुम्हें इससे मतलब?’’
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