प्रमोद के हाथों में हथकड़ियां पड़ी हुई थीं । जहां उसे उस समय बिठाया गया था, वहां आंसू गैस का धुंआ तो नहीं पहुंच रहा था लेकिन फिर भी प्रमोद की आंखें बुरी तरह जल रही थीं ।
"कमाल है, प्रमोद साहब !" - आत्माराम कह रहा था - "कहां-कहां नहीं पहुंच जाते हैं आप ?"
"मैं जोगेन्द्र को आत्मसमर्पण करने के लिए राजी करने की कोशिश कर रहा था । "
“और उसे छुपा कर भी आप रखे हुए थे?"
“नानसेन्स । अगर उसे मैंने छुपाया हुआ होता तो क्या मैं पुलिस को यहां बुलवाता ।"
"शायद आप बौखला गए थे । शायद जोगेन्द्र को पुलिस के हवाले करने में ही आपको अपनी भलाई दिखाई दे रही थी । "
"आपका खयाल गलत है । "
"कैसे ? मुझे तो अपना खयाल बड़ा दमदार लगता है । पहले आप ईस्टर्न ट्रेडिंग कम्पनी के गोदाम में पहुंचे तो जोगेन्द्र वहां मौजूद था । अब आप यहां पहुंचे तो जोगेन्द्र यहां मौजूद था ।”
“मैं पहले ही कह चुका हूं और कई बार कह चुका हूं कि जोगेन्द्र गोदाम में मौजूद था या नहीं, मुझे नहीं मालूम । मैं वहां जीवन गुप्ता के बुलावे पर गया था । अगर जोगेन्द्र वहां था तो यह महज इत्तफाक था ।"
" और यहां के बारे में क्या कहते हैं आप ? क्या आप यहां भी इत्तफाक से ही पहुंचे थे ?"
प्रमोद चुप रहा ।
"प्रमोद साहब, आप मेरी समझ के बाहर हैं । मैंने आप जैसा आदमी नहीं देखा। आपको परदेस से आए मुश्किल से चौबीस घन्टे हुए हैं और कैसी-कैसी हंगामाखेज घटनाओं के साथ आपने अपना वास्ता जोड़ लिया है। पुलिस को क्या-क्या चक्कर देने की कोशिश नहीं की आपने। उस चीनी छोकरी की ही मिसाल लीजिए, जो आपके कथनानुसार आपके चीनी, नौकर यांग टो द्वारा लाई नौकरानी थी । आपने उस छोकरी के मामले में मुझे खूब बेवकूफ बनाया था । मैंने तो उस पर तरस खाकर उसे चायना टाऊन तक लिफ्ट दे दी थी। मुझे तो बाद में यूं ही खयाल आ गया था कि जरा मैं भी उसकी गठरी में झांक कर देखूं। मैंने गठरी खुलवाई तो जानते हैं आप, उस गठरी में क्या निकला ?"
प्रमोद चुप रहा ।
"एक बेहद कीमती सैंडलों का जोड़ा जो उस कथित नौकरानी के एकदम सही नाप का था । कीमती स्टाकिंग्स । एक बढ़िया जनाना कोट। कोट में उस दर्जी का बिल्ला लगा हुआ था जिसने उसे सिया था । हमने उस दर्जी को तलाश करके, पूछताछ की तो मालूम हुआ कि वह कोट सुषमा ओबेराय का था । "
प्रमोद चुप रहा ।
'और सुनो । उस गठरी में एक पर्स था जिसमें कम से कम एक हजार रूपये थे और एक ड्राइविंग लाइसेंस था, जिस पर सो हा नाम लिखा हुआ था । नाम मुझे जाना-पहचाना लगा । फिर मुझे याद आया कि इस नाम की एक चीनी लड़की का सम्बन्ध जगन्नाथ की हत्या के उस केस से भी थी जिसमें आपने वर्तमान केस से भी ज्यादा गहरी टांग अड़ाई हुई थी । मुझे याद आया कि सो हा नाम की एक चीनी लड़की ने पुलिस स्टेशन पर यह झूठा बयान दिया था कि जगन्नाथ की हत्या उसने की थी। तब मैंने गौर से उस छोकरी की सूरत देखी। हालांकि मुझे एक नस्ल की तमाम विदेशी सूरतें एक जैसी लगती हैं लेकिन फिर भी मैंने उसे पहचान लिया । प्रमोद साहब, स्वयं को नौकरानी बताने वाली वह चीनी छोकरी निश्चय ही सो हा थी । "
"आपने गिरफ्तार कर लिया उसे ?"
"गिरफ्तार कर लिया तो नहीं कह सकता मैं । हां, उसे हिरासत में जरूर ले लिया गया है । क्या आप बता सकते हैं, उसके पास सुषमा का कोट कहां से आया ?”
"यह बात आप सो हा से ही पूछिये न ?”
“पूछेंगे, जरूर पूछेंगे, साहब, लेकिन सोचा, शायद आप भी पुलिस पर मेहरबान होने के मूड में हों । "
"इस वक्त मेरे दिमाग में इतनी उलझने हैं कि यह मेरा साथ नहीं दे रहा है । "
“आपका दिमाग और उलझन में ? आप जरूर मजाक कर रहे हैं । अजी साहब, आप कोई मामूली आदमी हैं ! आप तो कन्सन्ट्रेशन का आर्ट जानते हैं। आपको कोई छोटी-मोटी उलझन भला कैसे परेशान कर सकती है !"
प्रमोद चुप रहा ।
“इसलिए बरायमेहरबानी आप अपने चित्त को एकाग्र कीजिए और मेरे सावालों का जवाब देने की कोशिश कीजिए |"
"क्या पूछना चाहते हैं आप ?"
"सबसे पहले तो यही बताइये कि आपको कैसे पता लगा कि जोगेन्द्र यहां छुपा हुआ था ?"
प्रमोद ने बड़ी शराफत से सारी घटना कह सुनाई । उसने आत्माराम को बताया कि कैसे उसने वह रेस्टोरेन्ट तलाश किया जहां गोदाम से भाग कर जोगेन्द्र पहुंचा था, कैसे एक दोरंगी एम्बैसेडर पर एक महिला उसे लेने आई थी, कैसे उसने एम्बैसेडर की मालकिन वत्सला टण्डन के बारे में जाना था, कैसे नकली फोन कॉल करके उसने वत्सला को जोगेन्द्र के गुप्त स्थान की ओर भगाया था और स्वयं उसका पीछा किया था ।
"वाह !" - आत्माराम प्रशंसात्मक स्वर से बोला “आप तो पूरे जासूस हैं, साहब ! कमाल कर दिया आपने !”
प्रमोद चुप रहा ।
"आपकी इस बात पर मुझे विश्वास है, प्रमोद साहब" आत्माराम गम्भीरता से बोला "क्योंकि आपकी जानकारी के लिए खाने-पीने का जो सामान गोदाम से बरामद हुआ था, वह जिस दुकान से सप्लाई हुआ था हमने उसका पता लगा लिया था । दुकानदार के बयान के अनुसार वह सारा सामान वत्सला टण्डन ने ही खरीदा था । मुझे यह टण्डन मियां-बीवी दोनों ही रहस्यमय प्राणी लगते हैं। पिछली रात टण्डन अपने घर पर नहीं था । पूछताछ करने पर मालूम हुआ था कि कोई फोन काल आई थी जिसको सुनने के बाद ही वह वहां से चला गया था । हमने इस सन्दर्भ में कम्पनी के दूसरे पार्टनर सीताराम नरूला से बात की । आप जानते हैं सीताराम नरूला को ?"
"जानता हूं।"
“उसने बताया कि पिछली रात उसने टण्डन को फोन नहीं किया था लेकिन उसका खयाल था कि शायद जीवन गुप्ता ने उसे फोन किया था । नरूला ने बताया कि गुप्ता ने पिछली रात उसे भी फोन किया था । नरूला उस समय अपनी क्लब में कुछ दोस्तों के साथ रमी खेल रहा था । वहीं गुप्ता ने उसे फोन किया था। नरूला के कथनानुसार वह बहुत उत्तेजित था । उसने फोन पर कहा था कि वह गोदाम से बोल रहा है और ऐसा लगता था कि जैसे वहां कोई रहता रहा था । वह नरूला को फौरन गोदाम में बुला रहा था लेकिन नरूला गेम छोड़ कर जाने की स्थिति में नहीं था । वह लगातार जीत रहा था और उसके साथी उसे गेम छोड़ कर जाने नहीं दे रहे थे । मोटा गेम चल रहा था और सारे खिलाड़ी यह तय करके बैठे थे कि कम से कम बारह बजे तक गेम जरूर होगा । जो खिलाड़ी बारह बजे से पहले खेल छोड़ कर जाने की कोशिश करेगा उसे पांच सौ रूपये जुर्माना अदा करना होगा । नरूला वह जुर्माना भरने के मूड में नहीं था । उसने गुप्ता को कह दिया वह इस बारे में टण्डन से बात कर चुका था और वह गोदाम में आ रहा था । वास्तव में टण्डन ने ही गुप्ता तो आधे घण्टे तक जगह-जगह नरूला को फोन करता रहा था लेकिन उसे कहीं तलाश नहीं कर पाया था ।"
"फिर नरूला ने क्या किया ?"
"नरूला गेम छोड़ कर नहीं गया । जिस कमरे में गेम हो रहा था, उसी के एक कोने में फोन था । नरूला का वार्तालाप उन लोगों को भी सुनाई दे रहा था जो ताश में उसके साथी थे। उन्होंने हल्ला कर दिया कि वे उसे नहीं जाने देंगे । एक तो नरूला जीत रहा था, दूसरे वह पांच सौ रूपए जुर्माना नहीं भरना चाहता था इसलिए उसने गुप्ता को कह दिया कि वह गोदाम में नहीं आ सकता था । उसने गुप्ता को स्थिति समझाई तो गुप्ता ने कहा कि वह टण्डन को गोदाम में उसका इन्तजाम करने के लिए कह देगा और स्वयं क्लब आ जाएगा । अर्थात् वह नरूला से क्लब में ही बात कर लेगा । इस प्रकार नरूला को कहीं जाना नहीं पड़ेगा। नरूला ने यह बात सहर्ष स्वीकार कर ली । "
"गुप्ता वहां आया ?"
"हां । गुप्ता अपनी कार पर क्लब पहुंचा। उसने भीतर क्लब में जाने का उपक्रम नहीं किया । उसने कार का हार्न बजाया । नरूला ने बाहर आकर उससे बातचीत की। फिर नरूला वापिस आकर फिर ताश में जुट गया और गुप्ता वापिस गोदाम चला गया । यह सब कुछ गुप्ता के आपको फोन करने से दस या पन्द्रह मिनट पहले हुआ था । गुप्ता क्लब में नरूला से बात करके वापिस गोदाम पहुंचा होगा, टण्डन से मिला होगा, फिर आप से बात की होगी और फिर जब वह किसी और को फोन करने की कोशिश कर रहा था तो हत्यारे की गोली का शिकार हो गया होगा।"
" और आपकी निगाह में हत्यारा कौन होगा ?"
“हत्यारे या तो आप हैं या सुषमा ओबेराय है । या शायद जोगेन्द्र पास ने उल्टे पांव वापिस आकर गुप्ता को गोली मार दी ताकि वह पुलिस को उसके बारे में सूचना न दे सके । मेरे सहयोगियों को तो गुप्ता के खून का अपराधी भी जोगेन्द्र ही जंच रहा है, लेकिन मैं इस बारे में शत-प्रतिशत आश्वस्त नहीं हूं।"
“नरूला ने जो बातें बताई हैं, उनको सिद्ध करने के लिए वह कोई एलीबाई पेश कर सकता है ?"
"कोई एलीबाई ? हे भगवान ! भाई साहब, नरूला के साथ ताश खेलते सारे के सारे खिलाड़ी उसकी एलीबाई हैं । उन्हीं की वजह से तो नरूला गोदाम नहीं जा पाया और गुप्ता को क्लब आना पड़ा ।"
"रमी का वह खेल कब तक चला था ?"
"रात ढाई बजे तक ।"
“एक बात और बताइएगा, इन्स्पेक्टर साहब ?"
"पूछो।"
"गोदाम में राइटिंग टेबल के ब्लाटर पर मैंने चार ताजे बने उंगलियों के निशान देखे थे । लगता था किसी ने अपना धूल से हाथ वहां रख दिया था । वे निशान किसकी उंगलियों के थे ?"
"जीवन गुप्ता की" - की" - आत्माराम बोला - "वे उसके बायें हाथ की चारों उंगलियों के निशान थे ।"
" जहां तक मुझे याद है पहली उंगली का निशान काफी चौड़ा और स्पष्ट था और कनकी उंगली का निशान तो एक बिन्दी से जरा ही बड़ा है । "
“आपको ठीक याद है । "
"इसका मतलब यह हुआ कि गुप्ता अपना बायां हाथ ब्लाटर पर टेके इस प्रकार झुका खड़ा था कि उसका अधिकतर भार पहली दो उंगलियों और अंगूठे पर था ।"
"लेकिन वहां अंगूठे का निशान नहीं मिला था।”
"लेकिन उंगलियों पर इस प्रकार भार देकर अगर खड़ा हुआ जाए तो अंगूठा तो जरूर नीचे लगेगा ।”
" मैंने यह नहीं कहा कि अंगूठा नीचे नहीं लगा था । मैंने यह कहा था कि वहां अंगूठे का निशान नहीं मिला था । निशान वहां इसलिए बने थे क्योंकि गुप्ता की उंगलियों में कहीं से धूल लगी थी । लेकिन शायद अंगूठा किसी प्रकार धूल से अछूता बच गया था इसलिए उसका निशान ब्लाटर पर नहीं बना था ।”
"लेकिन जब चारों उंगलियों पर धूल लगी तो अंगूठा कैसे अछूता बच गया ?"
"मैं इस बारे में क्या कह सकता हूं" - आत्माराम हाथ फैलाकर बोला - “आप ही इस बारे में सोचिए, जरा कंसन्ट्रेट कीजिए और फिर कुछ मुझे भी बताइए । "
प्रमोद चुप रहा ।
***
प्रमोद और जोगेन्द्र दोनों को हवालात की एक ही कोठरी में बन्द किया गया था ।
" तुम्हें किस इल्जाम में गिरफ्तार किया गया है ?". जोगेन्द्र प्रमोद से पूछ रहा था ।
"पता नहीं ।" - प्रमोद बोला "अभी उन्होंने मुझ पर कोई इल्जाम नहीं लगाया है।"
"यह तो धांधली हुई । "
"हां । "
जोगेन्द्र ने एक नफरतभरी निगाह सीलनभरी कोठरी में चारों ओर दौड़ाई और फिर भरे स्वर से बोल - "इससे तो मर जाना अच्छा था । सालों ने चूहे की तरह लाकर इसमें बन्द कर दिया मुझे ।"
"अच्छा किया। इसी में तुम्हारी भलाई है ।"
"क्या भलाई है इसमें ? "
“अब हाईकोर्ट तुम्हारी अपील खारिज नहीं करेगा । अब शायद तुम बरी हो जाओ । बरी न भी हुए तो तुम्हारी फांसी की सजा तो रद्द हो ही जाएगी । तुम्हारे खिलाफ पुलिस का केस बहुत कमजोर है । वह हाईकोर्ट में नहीं टिक पाएगा । सैशन में भी तुम्हारे झूठ बोलने ने तुम्हें सजा दिलवाई है। तुम्हें सावंत के घर में दोबारा जाने के बारे में झूठ नहीं बोलना चाहिए था ।”
जोगेन्द्र चुप रहा । कितनी देर सन्नाटा छाया रहा ।
कितनी ही बार जोगेन्द्र ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला और फिर होंठ भींच लिए ।
“सुनो" - अन्त में जोगेन्द्र बोला- "मैं तुमसे कभी मिला नहीं था लेकिन फिर भी मैं तुम्हें कोई फरिश्ता समझता था । लेकिन फिर मुझे तुमसे नफरत हो गई क्योंकि तुम मेरे और सुषमा के बीच दीवार की तरह मौजूद थे। सुषमा पर तुम्हारा ऐसा जादू छाया हुआ था कि उसको तोड़ा नहीं जा सकता था । तुम्हारे व्यक्तित्व का सुषमा पर ऐसा प्रभाव था कि वह तुम्हारे साथ एकाएक हो चुकी थी । वह तुमसे झगड़ सकती थी, तुम उसे छोड़ कर जा सकते थे लेकिन तुम दोनों को विभक्त नहीं किया जा सकता था। तुम दोनों का व्यक्तित्व एक ही ताने-बाने में ऐसा बुना जा चुका था कि अलहदगी नामुमकिन थी ।”
" यानी कि तुम मुझसे ईर्ष्या करने लगे थे ?"
"बुरी तरह से । लेकिन अब मेरे मन में तुम्हारे प्रति कोई दुर्भावना नहीं । क्योंकि अब मन में ईर्ष्या या दुर्भावना रखने से मुझे कुछ हासिल नहीं होने वाला । सुषमा जब मेरी नहीं हो सकती तो फिर वह जिसके साथ उसकी मर्जी आए, गंठजोड़ करे ।"
"वह तुम्हारी क्यों नहीं हो सकती ?"
"मैं फांसी का सजा पाया अपराधी हूं। मेरा जीवन समाप्त हो चुका है ।”
"तुम गलत सोच रहे हो । मैंने तुम्हें पहले ही कहा है तुम बरी हो जाओगे ।"
"यह झूठा दिलासा है।"
"लेकिन..."
"छोड़ो। मैं इस बारे में बात नहीं करना चाहता । "
प्रमोद चुप रहा ।
फिर सन्नाटा छा गया ।
"हां, झूठ बोलकर गलती की थी मैंने।" - थोड़ी देर बाद जोगेन्द्र यूं धीरे से बोला जैसे वह अपने आपसे बातें कर रहा हो - "मैंने अपने वकील से झूठ बोला ।"
"वकील से झूठ बोलना डाक्टर से झूठ बोलने जैसा घातक होता है ।"
"मैं जानता हूं लेकिन फिर भी मैंने झूठ बोला । पता नहीं मैंने ऐसा क्यों किया ?"
प्रमोद चुप रहा ।
" और लोगों का खयाल है कि मैं हरि प्रकाश सावंत से जलता था । मैं सुषमा के पैसे के चक्कर में उससे द्वेष भाव रखता था । लेकिन यह एक सरासर गलत खयाल है। मैं सावंत को एक नेकनीयत इन्सान समझता था और उसे पसन्द करता था । जिस रोज सावंत की मौत हुई थी, उस रोज मैं उससे मिलने गया था। उस रोज सावंत बहुत परेशान था। उसकी सूरत से ही साफ जाहिर हो रहा था कि उसके मस्तिष्क पर कोई बोझ था । उसने मुझसे बात करके अपने दिल का बोझ हल्का करने का इरादा भी किया लेकिन बात उसके दिमाग से निकल नहीं पाई। पता नहीं क्यों वह इतना हिचकिचा रहा था । मैंने उससे पूछा भी कि क्या वह सुषमा की रकम की वजह से परेशान था ? क्या वह उसे कहीं बरबाद कर बैठा था ? वह बोला- नहीं, रकम एकदम सही-सलामत थी । फिर उसने मुझे बताया कि वह एक ऐसे बखेड़े में फंस गया था जिसमें से निकलने का कोई रास्ता नहीं था। मैं बहुत कोशिश करने के बावजूद भी उससे यह बात नहीं कुबुलवा पाया कि वास्तव में उसे क्य दुख था । लेकिन इतना मुझे अनुभव हो रहा था कि वह पस्ती की उस हद तक जा पहुंचा था जहां इसान को मौत की बांहों में ही निजात दिखाई देती है। प्रमोद, मुझे सावंत आत्महत्या करने को उतारू मालूम हो रहा था । "
“फिर ?”
"फिर मैंने सावंत को कहा कि मैं कहीं जा रहा था लेकिन मैं उल्टे पांव लौटकर वापिस आऊंगा । सावंत के घर से मैं सीधा सुषमा के फ्लैट पर पहुंचा। वहां सुषमा से मैंने चाउ कोह कोह की वह प्रतिमा ली जो उसके कथनानुसार तुमने उसे भेंटस्वरूप दी थी । तुमने चाउ कोह कोह का दर्शन सुषमा को समझाने की कोशिश की थी जो उसने बिना समझने की कोशिश किए एक रोज मेरे सामने दोहरा दिया था । मुझे वे बातें बहुत पसन्द आई थीं । मेरी निगाह में वे बातें इन्सान को एक सच्चा कर्मयोगी बनने की प्रेरणा देती थीं । चाउ कोह कोह का खच्चर की पूंछ की ओर मुंह करके बैठना ही जिन्दगी के फलसफे का मुकम्मल निचोड़ था । उस फलसफे से मैंने अपनी कठिन घड़ियों में कई बार राहत महसूस की थी। मैंने सोचा शायद चाउ कोह कोह की उस प्रतिमा के सन्दर्भ से मैं सावंत को जिन्दगी के एक नये नजरिये से दो चार करवा सकूं । शादय मैं उसके मन में यह बिठा सकूं कि आत्महनन से अधिक निरर्थक चीज इस संसार में कोई नहीं । भाग्य की कैसी विडम्बना है कि सावंत को आत्महत्या से रोकने के लिए मैंने जो कुछ किया, उसी की वजह से मुझे अपनी जान देनी पड़ रही है ।"
" ऐसा नहीं होगा । तुम जरूर बरी हो जाओगे।"
"मैं चाउ कोह कोह की प्रतिमा लेकर फिर सावंत के घर पहुंचा" - जोगेन्द्र यूं बोला जैसे उसने प्रमोद की बात सुनी ही न हो- "मैंने घर के सामने के दरवाजे पर जाकर दोबारा घण्टी बजाई लेकिन मुझे कोई जवाब नहीं मिला । मैंने दरवाजा खटखटाया । जवाब नदारद । मैं चिन्तित हो उठा । मैं घेरा काटकर घर के पिछवाड़े में पहुंचा। पिछवाड़े का दरवाजा खुला था । मैं उसे धकेल कर भीतर दाखिल हुआ । इमारत में मरघट का सा सन्नाटा छाया हुआ था । मैंने सावंत को आवाजें लगाई लेकिन कोई जवाब नहीं मिला । फिर मैं उसके कमरे में पहुंचा । वह वहां मरा पड़ा था । वह अपनी कुर्सी पर बैठा था । उसका सिर सामने मेज पर टिका हुआ था । उसकी कनपटी में गोली का जख्म दिखाई दे रहा था और उसमें से खून टपक-टपक कर फर्श पर इकट्ठा हो रहा था । मैंने यही सोचा कि उसने आत्महत्या कर ली थी। मैं उसके समीप पहुंचा । मैंने उसे कन्धों से पकड़ कर सीधा करने की कोशिश की। मेरे उस उपक्रम में लाश फर्श पर लुढक गई । और जिस कुर्सी पर वह बैठा था, वह पीछे को उलट गई उसी हड़बड़ाहट में चाउ कोह कोह की प्रतिमा भी मेरे हाथ से निकलकर वहीं गिर गई और मैंने उस ओर ध्यान नहीं दिया । मैं अपने आपको भारी मुसीबत में फंस गया पा रहा था। सामने का दरवाजा बन्द था और मैं पिछले दरवाजे से घर में घुसा था । मेरी ही एक मूर्खतापूर्ण हरकत की वजह से लाश फर्श पर लुढक गई थी । उस समय मुझे वहां से चुपचाप खिसक जाना ही समझदारी का काम लगा लेकिन अगर मैं वहां ठहरता और पुलिस को फोन कर देता तो शायद मेरी इतनी दुर्गति न होती जितनी वहां से भाग खड़े होने की वजह से हुई।"
"तुम्हारे खयाल से सावंत का कत्ल किसने किया ?"
"मैं इस बारे में कुछ नहीं कह सकता ।"
"कोई दुश्मन था उसका ?"
"मेरी जानकारी में तो नहीं था । "
"सावंत के घर का पिछवाड़े का दरवाजा, जिससे तुम भीतर घुसे थे, घर के कौन से भाग का था ?"
"किचन का ।"
"तुम किचन में से होकर सावंत के कमरे तक पहुंचे थे?"
“हां ।”
"किचन में क्या देखा था तुमने ?”
"क्या मतलब ?"
"क्या तुमने गैस के चूल्हे पर पानी की केतली चढी देखी थी ?"
"चूल्हे पर चढी पानी की केतली और ओवन में मौजूद सावंत की घड़ी का जिक्र मुकद्दमे के दौरान भी आया था लेकिन जहां तक मुझे याद है मैंने चूल्हे पर केतली रखी जरूर देखी थी लेकिन नीचे चूल्हा जल रहा था या नहीं, यह मुझे याद नहीं । और ओवन का दरवाजा खोलकर भीतर झांकने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था ।"
"केतली में से भाप निकल रही थी ?"
"नहीं।"
प्रमोद कुछ क्षण चुप रहा ।
"अब बताओ गोदाम में क्या हुआ था ?" - अन्त में उसने पूछा ।
"मैं उस बारे में कोई बात नहीं करना चाहता ।" - जोगेन्द्र दृढ स्वर में बोला ।
"क्यों ?"
"क्योंकि मैं उस शख्स का भेद नहीं खोलना चाहता जिसने मुझे वहां रखा था । मैं उसका अहसानमन्द हूं । मैं उसके लिए कोई समस्या नहीं खड़ी करना चाहता ।"
"तुम्हें बताने की जरूरत नहीं । मुझे मालूम है तुम्हें किसने गोदाम में रखा था ।"
"तुम्हें मालूम है ?" - जोगेन्द्र हैरानी से बोला ।
"हां । तुम्हें टण्डन की बीवी ने वहां रखा था । नेपियन हिल वाले बंगले पर भी तुम्हें वही लेकर गई थी।”
जोगेन्द्र ने गहरी सांस ली ।
"ओह मेरे मालिक !" - उसके मुंह से निकला ।
"अब बताओ गोदाम में क्या हुआ था ?"
"मुझे वत्सला टण्डन ने गोदाम की चाबी इस आश्वासन के साथ दी थी कि वहां कोई आता-जाता नहीं था और मैं बड़े इत्मीनान से वहां छुपा रह सकता था । फिर कल रात एकाएक घपला हो गया । मुझे एक कार के वहां पहुंचने की आवाज आई । फिर किसी ने चाबी लगाकर दरवाजे का ताला खोला ।"
"ताला खोला ? अगर तुम भीतर थे तो फिर ताला किसने बन्द किया था ?"
"मैंने ही । पहली बार जब मैं वहां पहुंचा था तो मैंने ताला खोला था । भीतर जाकर मैंने एक खिड़की खोल दी थी । मैंने दरवाजे को फिर पहले की तरह बाहर से ताला लगा दिया था और खिड़की के रास्ते भीतर घुस गया था।"
"आई सी । फिर ?”
"फिर कोई आदमी गोदाम में दाखिल हुआ। मैं खिड़की में से बाहर कूदा और वहां से भाग निकला । जिस वक्त मैं खिड़की की चौखट पर चढा था, उसी वक्त गोदाम में रोशनी हो गई थी। मैंने एक क्षण के लिए घूमकर पीछे देखा था तो मुझे दरवाजे की चौखट पर जीवन गुप्ता खड़ा दिखाई दिया था । वह हक्का-बक्का सा दरवाजे पर खड़ा था । मेरा खयाल है उसने मुझे पहचान लिया था ।"
"फिर वह टेलीफोन की ओर बढा था ? "
"मुझे नहीं मालूम । मैं फौरन वहां से निकल भागा था । मैंने दोबारा पीछे घूमकर नहीं देखा था ।"
“तब वक्त क्या हुआ था ?"
“अभी सवा दस नहीं बजे थे। दो-तीन मिनट कम थे|"
"गोदाम से तुम सीधे उस रेस्टोरेन्ट में पहुंचे थे जहां से तुमने वत्सला को फोन किया था ? "
"हां"
"तुम दोबारा गोदाम में तो नहीं लौटे थे ?"
"नहीं।"
" तुम्हें पुलिस की हिरासत से किसने छुड़वाया था ? हर्षकुमार ने ? "
"नहीं।"
"सुषमा ने ?"
"नहीं।"
"तो फिर किसने...?"
तभी कोठरी के ताले में चाबी लगने की आवाज आई।
प्रमोद फौरन चुप हो गया ।
कोठरी का लोहे का दरवाजा खुला । एक सन्तरी दरवाजे पर प्रकट हुआ।
"तुम में से प्रमोद कौन है ?" - सन्तरी ने पूछा ।
“मैं हूं।" - प्रमोद बोला ।
“चलो।”
"कहां ?"
"अरे, चलो न ।”
"शायद तुम रिहा किए जा रहे हो।" - जोगेन्द्र बोला ।
" या शायद किसी अलग कोठरी में बन्द करने के लिए ले जाया जा रहा हूं।" - प्रमोद बोला ।
जोगेन्द्र चुप रहा ।
प्रमोद सन्तरी के साथ हो लिया ।
***
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