बुधवार : 27 मई
रात के नौ बजने को थे जब कि राजाराम का फोन आया।
‘‘खानसामे का फोन आ गया है ।’’—वो बोला—‘‘आज ही रात स्ट्राइक करना है। फौरन कहीं मिल ।’’
‘‘कहाँ?’’
‘‘तू कहाँ है?’’
‘‘तुम कहाँ हो?’’
‘‘दोनों बातें छोड़। आधे घण्टे में मेरे को चैम्बूर स्टेशन के सामने मिल ।’’
‘‘नहीं हो सकता ।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘एक तो मैं वहाँ से बहुत दूर हूँ, दूसरे, मेरी टूल किट मेरे पास नहीं है, किसी दूसरी जगह से उठानी पड़ेगी ।’’
‘‘यार, पास रखनी थी। तेरे को मालूम तो था हमने बहुत शार्ट नोटिस पर निकलना था।’’
‘‘तुम्हेरे को कुछ नहीं मालूम, बाप?’’
‘‘क्या कुछ नहीं मालूम?’’
जीतसिंह आगे बोलने ही लगा था कि उसने होंठ भींच लिये। मीडिया में जीतसिंह की गिरफ्तारी पर ईनाम की घोषणा थी, राजाराम उसे बद्रीनाथ के नाम से जानता था।
‘‘कुछ नहीं ।’’—वो जल्दी से बोला—‘चैम्बूर पहँुचता है। पण एक घण्टा लगेगा। ज्यास्ती लगता मालूम पड़ेगा तो फोन बजायेगा ।’’
‘‘अभी ज्यास्ती भी लग सकता है?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘अरे, अब खड़े पैर क्या पंगा डाल रहा है?’’
‘‘कोई पंगा नहीं। तुम बोला कि नहीं बोला कि स्ट्राइक करने का बैस्ट टेम एक और तीन के बीच! अभी बोलो क्या पिराब्लम है? किधर पंगा डाल रहा है मैं?’’
‘‘ठीक है, ठीक है। दस बजे तक पहँुच हर हाल में ।’’
लाइन कट गयी।
मिश्री ने सवाल करती निगाह जीतसिंह पर डाली।
‘‘अभी पाँच मिनट में मेरे को निकल लेने का, रात को नहीं लौटूँगा, कल सुबह भी न लौटा तो समझना हो गया काम ।’’
‘‘कोई’’—मिश्री ने नेत्र फैलाये—‘‘बड़ा पंगा लेने निकल रहा है?’’
‘‘बड़े से बड़ा। पण जाना जरूरी है ।’’
‘‘मैं किसी काम आ सकती हूँ?’’
जीतसिंह ने उस बात पर विचार किया।
उसका इरादा गाइलो को बुलाने का था लेकिन गाइलो—उसकी जानकारी के बिना—पुलिस की निगाह में हो सकता था। आखिर पुलिस वालों के बीच बहुत तरीकों से स्थापित था कि वो जीतसिंह का खास दोस्त था।
डेविड परदेसी उस वक्त पता नहीं कहाँ होता! खड़े पैर उसके पास पहँुचने की हालात में होता या न होता!
‘‘आ तो सकती है!’’—वो बोला।
‘‘बोल, कैसे?’’
‘‘ऐसा कर, तैयार हो के साथ चल। खूब सज के। यूँ कि जो देखे, बस तेरे को ही देखे, मेरी तरफ ध्यान न दे ।’’
‘‘मैं समझ गयी ।’’
‘‘समझ गयी तो तैयारी जल्दी कर। मैं भी करता हूँ ।’’
‘‘वो तो मै करती हूँ पण मेरे को क्या करने का? बाहर कैसे काम आने का?’’
‘‘मेरा कुछ खास—खास शिनाख्त वाला—सामान है जो कि कालबा देवी में विट्ठलवाडी के एक फिलेट में पड़ा है जो कि मैंने किराये पर लिया हुआ है...’’
‘‘फिर भी इधर है!’’
‘‘वो बात छोड़ तू। मैं उधर जा सकता होता तो इधर काहे को आता!’’
‘‘इस वास्ते तेरा खास सामान लेने उधर मेरे को जाने का?’’
‘‘अभी आयी बात समझ में ।’’
‘‘कोई टोकेगा नहीं?’’
‘‘नहीं। फिर चाबी दूँगा न मैं!’’
‘‘फिर भी किसी ने टोका तो?’’
‘‘तो बोलना तू मेरा भाभी...’’
‘‘भाभी!’’—वो निचला होंठ दबा कर हँसी—‘‘साला हरामी! भाभी के साथ राइड मारता है ।’’
‘‘...कुछ टेम उधरीच रहेगी ।’’
‘‘पुलिस का लफड़ा हुआ तो?’’
‘‘होगा तो वो रोड पर होगा। जरूरी नहीं है कि उन लोगों को मेरे उस नवें ठीये की खबर हो। फिर भी होगा तो कोई भीड़ू होगा सिपाही या हवलदार मेरी उधर आमद की थाने खबर करने के वास्ते। मेरे को उम्मीद नहीं वो तेरी तरफ तवज्जो देगा। उस बिल्डिंग में बहुत फिलेट है। हर किसी पर वाच न कोई रख सकता है, न रखने की जरूरत है ।’’
‘‘ठीक!’’
‘‘फिर मेरे को भी तो तेरे आस पास ही कहीं होने का। कोई लफड़ा होगा तो मैं सम्भालेगा न!’’
‘‘निकाल के क्या लाने का?’’
‘‘रास्ते में बोलूँगा। अभी टेम खोटी न कर। मेरे को तोड़ा टेम का ।’’
‘‘अभी ।’’
जीतसिंह चैम्बूर स्टेशन के सामने पहँुचा।
राजाराम पहले से वहाँ मौजूद था।
वहाँ तक भी जीतसिंह को मिश्री के जगमग साथ ने ही सुरक्षित पहँुचाया था। गनीमत थी कि कालबा देवी वाले फ्लैट से उसकी टूल किट निकाल लाने के काम में भी कोई अड़चन पेश नहीं आयी थी।
मिश्री रुखसत हो गयी तो लापरवाही से टहलता राजाराम उसके करीब पहँुचा।
‘‘कौन थी?’’—वो उत्सुक भाव से बोला।
‘‘नवीं फिल्म इस्टार!’’—जीतसिंह शुष्क स्वर में बोला—‘‘शाहरुख के साथ आ रही है ।’’
‘‘साला!’’—राजाराम दिखावटी हँसी हँसा—‘‘श्याना!’’
‘‘श्याना टेम पर पहँुचा। राजी?’’
‘‘हाँ। और बद्री, सेफ की टाइप की खबर मेरे पास पहँुच गयी है ।’’
‘‘बढ़िया। कैसी है?’’
‘‘थ्री-इन-वन। एक चाबी, तीन पोजीशंस पर काम करने वाली ।’’
‘‘ओह! ज्यास्ती टेम लगेगा। मैं पहले ही बोला ।’’
‘‘लगाना। टाइम होगा हमारे पास। पण खोल तो लेगा न!’’
जीतसिंह ने घूर कर उसे देखा।
‘‘सॉरी!’’—राजाराम हड़बड़ाया और जल्दी से बोला।
‘‘कारीगर की कारीगरी पर शक हो तो उसके साथ माथा नहीं फोड़ने का ।’’
‘‘मैं सॉरी बोला न, बद्री!’’
‘‘आगे कैसे चलने का?’’
‘‘गाड़ी है न! वैगन-आर ।’’
‘‘चलायेगा कौन?’’
‘‘मैं। चाहे तो तू चलाना ।’’
‘‘अभी इधर स्टेशन के सामने कोई काम हमें?’’
‘‘नहीं, चल रहे हैं। चल ।’’
डेढ़ बजे वो अपने गन्तव्य स्थल पर पहँुचे।
रात की ड्राइव ने उनकी उम्मीद से ज्यादा टाइम लिया था।
वहाँ पहली अड़चन पेश आयी।
सड़क पर लाठी खड़काता इधर से उधर, उधर से इधर नाइट वाचमैन फिरता था।
‘‘साला हरामी!’’—राजाराम बड़बड़ाया—‘‘खानसामा...वाचमैन का जिक्र न किया।’’
‘‘अब?’’—जीतसिंह बोला।
‘‘ये अड़चन तो है, लेकिन इतनी बड़ी अड़चन नहीं कि हम अपनी कोशिश से किनारा कर लें ।’’
‘‘क्या करोगे?’’
‘‘सोचने दे ।’’
कुछ क्षण खामोशी रही।
‘‘मेरे को इधर’’—आखिर वो बोला—‘‘सड़क के होटल की ओर वाले सिरे पर उतार और कार ले जा। कार को नेताजी के बंगले के फाटक से आगे निकाल कर दीवार के साथ सटा कर रोकना और चौकीदार पूछे तो बोलना बिगड़ गयी। उस को दिखाने को बाहर निकलना और हुड उठा कर भीतर झाँकने लगना, तारें-वारें छेड़ने लगना। वो तेरे पास टिका नहीं रहने वाला क्योंकि उसके लिये गश्त जरूरी। वो मेरी तरफ आयेगा तो मैं कुछ पूछताछ के बहाने उसको बातों में लगा लूँगा। पीछे तू कार की छत पर चढ़ कर कोशिश करेगा तो कंटीली तारों तक तेरे हाथ बराबर पहँुचेंगे। तू कटिंग प्लायर से तारों को काटना, अपनी टूल किट ऊपर पहँुचाना और ऊपर दीवार पर लेट जाना। वाचमैन वापिस गुजरेगा तो यही समझेगा तू कार छोड़कर चला गया। वो दूसरे सिरे की तरफ आगे निकल जायेगा तो मैं दौड़ कर आ कर कार पर चढ़ जाऊंगा और ऊपर दीवार पर तेरे पास पहँुच जाऊँगा। फौरन ऐसा न कर पाऊँ तो तू मेरे को ऊपर खींच लेना। क्या प्राब्लाम है?’’
‘‘दिखाई तो कोई नहीं देती!’’
‘‘हैइच नहीं। मैं उतरता हूँ, तू कार ले के जा ।’’
राजाराम कार से बाहर निकला तो जीतसिंह उसकी जगह ड्राइविंग सीट पर सरक आया।
जीतसिंह ने कार आगे बढ़ाई और बंगले के फाटक से कोई बीस-बाइस गज आगे ले जा कर रोकी।
वाचमैन उस वक्त उसके सामने की तरफ था और सड़क पर लाठी टकरा कर आवाज करता उधर ही आ रहा था। वो और करीब पहँुचा तो जीतसिंह ने उसको सुनाने के लिये चलते इंजन में इग्नीशन आन किया ताकि यूं पैदा हुई खर्र खर्र की आवाज दूर तक सुनाई देती। ऐसा उसने दो तीन बार किया और फिर इग्नीशन आफ कर दिया।
वाचमैन करीब आया और कार की ड्राइविंग साइड पर ठिठका।
‘‘क्या हुआ?’’—वो उत्सुक भाव से बोला।
‘‘बिगड़ गयी ।’’—अपने लहजे में परेशानी घोलता जीतसिंह बोला—‘‘इंजन पकड़ नहीं रहा ।’’
‘‘ओह!’’
जीतसिंह कार से बाहर निकला, सामने जाकर उसने बोनट उठाया।
‘‘आता है कुछ?’’—वो बोला।
‘‘मैं गरीब वाचमैन ।’’—वो खेदपूर्ण स्वर में बोला—‘‘मेरे को किधर से आयेगा!’’
‘‘निकल ले। मैं ही देखता है ।’’
सड़क पर लाठी ठोकता वो आगे बढ़ गया।
वो धुंधले अन्धेरे में गायब हो गया तो जीतसिंह ने बोनट गिराया, कार में से अपनी टूल किट और बड़ा कटिंग प्लायर निकाला और फुर्ती से कार पर चढ़ गया। टूल किट में से निकाल कर उसने हाथों पर सर्जीकल ग्लव्स जैसे पतले दस्ताने चढ़ा लिये। तारों में करंट था या नहीं, वो प्लायर के उन से छूते ही मालूम पड़ जाने वाला था लेकिन तब उसे करंट का कोई खतरा न होता क्योंकि प्लायर पर, जहाँ से कि वो पकड़ा जाता था, मोटा इंसुलेशन चढ़ा हुआ था। पतले दस्ताने करन्ट का झटका रोकने में सक्षम नहीं थे।
तारों में करंट नहीं था।
बड़ी सहूलियत से उसने तारें काट दीं और कटे हुए सिरे भीतर की तरफ लटका दिये। उसने प्लायर और टूल किट को दीवार के ऊपर रखा और फिर बड़ी सहूलियत से एक ही बार उचक कर दीवार पर चढ़ गया। वो दीवार पर औधे मँुह लेट गया, उसने भीतर की तरफ नीचे निगाह डाली तो अन्धेरे में उसे कुछ दिखाई न दिया। कम्पाउण्ड में कहीं किसी तरह की कोई आहट, कोई हरकत नहीं थी जो कि इस बात का सबूत था कि कुत्ते जहाँ पड़े थे, बेसुध पड़े थे। बंगले के सामने के दो कोनों में शेड लगे बल्ब जल रहे थे जिनकी रोशनी दीवार तक नहीं पहँुच रही थी। लिहाजा सर्वत्र शान्ति थी।
उसने सड़क की तरफ तवज्जो दी।
वाचमैन वापिस लौट रहा था।
जीतसिंह सांस रोके बिना हिले डुले उसके गुजर जाने की प्रतीक्षा करता रहा।
वाचमैन कार के पास आ कर ठिठका, उसने सिर झुका कर एक बार एक शीशे में से भीतर झांका और फिर आगे बढ़ गया।
वो कुछ कदम ही आगे बढ़ा था कि विपरीत दिशा से तेजी से लेकिन दबे पांव चलता राजाराम कार के करीब पहँुचा। कार की ओट में छुपा वो वाचमैन के और परे निकल जाने की प्रतीक्षा करता रहा, फिर फुर्ती से कार पर चढ़ गया।
जीतसिंह ने बड़ी सहूलियत से उसे चौड़ी दीवार पर अपने पहलू में खींच लिया। ऊपर पहँुचते ही राजाराम दीवार की परली तरफ लटक गया और फिर उसने दीवार पर से हाथ छोड़ दिये।
धप्प की हल्की सी आवाज जीतसिंह के कानों में पड़ी। उसे ये भी लगा जैसे राजाराम बुरी तरह से लड़खड़ाया हो और धराशाही होने से बचा हो।
जीतसिंह ने हाथ लटका कर उसे टूल किट थमाई और फिर उसी की तरह दीवार पर लटक कर वो नीचे कूदा।
तत्काल उसकी समझ में आया कि राजाराम क्यों लड़खड़ाया था, क्यों गिरने से बचा था।
नीचे गीली कच्ची जमीन थी जिसमें टखनों तक उसे अपने पांव धंसते महसूस हुए।
‘‘फूलों की क्यारियाँ हैं’’—राजाराम फुसफुसाया—‘‘लगता है हाल ही में पानी दिया गया। क्यारियों की बाबत भी न बताया साले ढक्कन ने। मिले सही, दुम ठोकता हूँ साले की! बद्री, क्यारियों में हमारे जूतों के गहरे निशान वापिसी में फिर बनेंगे। कामयाब होकर निकल पाये तो जूते फेंकने पड़ेंगे। याद रखना ।’’
‘‘मेरे नये जूते...’’
‘‘पचास लाख में जूते ही खरीदना। हजारों जोड़े आ जायेंगे ।’’
‘‘बाप, ये ऐसी बातें करने का टेम है!’’
‘‘जूते घास पर रगड़ के साफ करने का। इतना रगड़ के कि भीतर बंगले में कहीं मिट्टी के निशान न छूटें ।’’
दोनों ने बड़ी मेहनत से उस काम को अंजाम दिया।
फिर दबे पांव वो आगे बढ़े और उन्होंने वो पेड़ तलाश किया जिसकी इमारत की तरफ फैली एक डाल के करीब उन्हें पहली मंजिल की एक खिड़की खुली मिलने वाली थी।
वो नीम का विशाल पेड़ था जिस की एक ही डाल थी जो दीवार के करीब तक पहँुचती थी। दोनों आगे पीछे पेड़ पर चढ़े, उस डाल के सिरे पर पहँुचे तो नयी अड़चन सामने आयी।
डाल बन्द खिड़की से इतनी दूर थी कि उसे हाथ बढ़ा कर नहीं छुआ जा सकता था।
राजाराम ने सिर के ऊपर से एक लम्बी टहनी तोड़ी और डाल के सिरे पर बैठ कर खिड़की के शीशे के पल्लों के बीच की झिरी में टहनी फँसा कर उन्हें एक दूसरे से अलग किया और फिर बारी-बारी उन्हें अपनी तरफ खींचा। फिर जाली के पल्लों को उसने टहनी से धक्का दिया तो वो भी भीतर की तरफ खुल गये।
खिड़की तो खुल गयी लेकिन अब एक और समस्या मँुह बाये सामने खड़ी थी।
डाल और चौखट के बीच में इतना फासला था कि डाल से पाँव बढ़ा कर चौखट पर नहीं रखा जा सकता था।
‘‘लानत!—राजाराम भुनभुनाया—‘‘साँप काटे फ़जल हक को ।’’
‘‘कुत्ता!—जीतसिंह बोला—‘‘साँप इधर किधर से आयेगा!’’
‘‘मजाक छोड़! तू नौजवान है, तू डाल से चौखट पर जम्प लगा सकता है ।’’
‘‘तुम क्या करोगे?’’
‘‘मैं भी जम्प ही लगाऊँगा लेकिन गिरने लगा तो तू उधर से मुझे सम्भाल लेगा। नहीं?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘टूल किट मेरे को पकड़ा और तू आगे आ ।’’
जीतसिंह ने दोनों काम किये।
‘‘जम्प!’’
जीतसिंह ने सावधानी से जम्प लगाई। जिस कमरे की वो खिड़की थी, वो घुप्प अन्धेरा था, बाहर उस से जरा ही कम अन्धेरा था। चौखट आँखें फाड़-फाड़ कर देखने पर ही दिखाई दे पाती थी। लेकिन गनीमत थी, खैरियत थी, उसकी कोशिश में कोई पंगा न पड़ा। वो निर्विघ्न चौखट पर और आगे कमरे में पहँुच गया।
राजाराम ने बाँह को पूरी आगे निकाल कर टूल किट उसकी तरफ बढ़ाई जिसको थामने के लिये जीत सिंह को बाँह तो फैलानी ही पड़ी, खिड़की से आधा बाहर लटकना पड़ा।
फिर राजाराम ने जुस्त लगाई।
चौखट पर पाँव पड़ते ही वो थोड़ा लड़खड़ाया लेकिन जीतसिंह ने उसे सम्भाल लिया।
राजाराम नीचे फर्श पर उतरा और उसने दोनों खिड़कियों के पल्ले पीछे भिड़का दिये।
अब वो दोनों नेताजी के बंगले के भीतर थे।
राजाराम ने मोबाइल ऑन किया तो न होने जैसी रोशनी कमरे में हुई जिसके आसरे चलते वो परले सिरे पर मौजूद दरवाजे पर पहँुचे।
‘‘अब ये दरवाजा लाक्ड मिला’’—राजाराम फुसफुसाया—‘‘तो गोली मार दूँगा साले हरामी को ।’’
‘‘गोली! गन है तुम्हारे पास?’’
‘‘अरे, नहीं। मुहावरे के तौर पर कहा ।’’
‘‘गन का जिक्र आया, इस वास्ते बोलता हूँ। कोई हथियार हमारे पास होना चाहिये था।’’
‘‘कोई जरूरत नहीं। बिल्कुल नीट काम है ये। नीट और स्ट्रेट। कोई अनहोनी हो गयी, पकड़े गये, तो चोरी के गुनहगार होंगे। हथियार मतलब फौजदारी। खून खराबा। नहीं माँगता ।’’
‘‘बरोबर बोला, बाप ।’’
दरवाजा लाक्ड नहीं था।
दोनों ने खामोशी से बाहर गलियारे में कदम रखा जिस के सिरे पर सीढ़ियां थीं। रास्ते का अन्दाजा हो जाने पर राजाराम ने मोबाइल की न होने जैसी रोशनी आफ कर दी।
वो सिरे पर पहँुचे और दबे पाँव सीढ़ियां उतरने लगे।
‘‘आगे रास्ता मालूम?’’—जीतसिंह फुसफुसाया।
‘‘सब मालूम ।’’—राजाराम घुड़कता सा बोला—चुप रह!’’
वे नेता जी की स्टडी में पहँुचे।
वहाँ रोशनी बिना काम नहीं चल सकता था।
स्टडी में दो खिड़कियाँ थीं, जिन पर डबल पर्दे थे—बाहर वाला झीना और भीतरी भारी—राजाराम ने पर्दों को अच्छी तरह से व्यवस्थित किया, फिर से सुनिश्चित किया कि प्रवेश द्वार का पर्दा भी व्यवस्थित था।
‘खास’ बुकशैल्फ को अपनी जगह से सरकाने वाला बटन स्टडी की एग्जीक्यूटिव टेबल के नीचे कुर्सी वाली साइड में यूं लगा हुआ था जैसे काल बैल का बटन हो। राजाराम ने वो बटन दबाया तो एक बुकशैल्फ निशब्द एक बाजू सरक गया और पीछे से तीन गुणा चार फुट की एक सेफ नुमायां हुई।
जीतसिंह अपनी टूल किट के साथ सेफ के करीब सरक आया।
सेफ के थोड़ा परे एक सोफा था जिसके सेफ की ओर वाले पहलू में एक बड़े से गोल लैम्प शेड वाला पेडेस्टल लैम्प था। राजाराम ने आगे बढ़ कर उस लैम्प को ऑन किया, उसे उठाया और ले जाकर सेफ के करीब रख दिया। लैम्प की दीवार में फुटलाइट के साथ मौजूद सॉकेट के साथ जुडी लम्बी डोरी पूरी खिंच गयी लेकिन सेफ के करीब वांछित स्थान तक पहँुच गयी। लैम्प की रोशनी सेफ पर पड़ने लगी।
‘‘ट्यूब जलाना ठीक नहीं ।’’—राजाराम फुसफुसाया—‘‘इतनी रोशनी से काम कर लेगा?’’
‘‘कर लूँगा ।’’—जीतसिंह विश्वासपूर्ण स्वर में बोला।
‘‘शुरू हो जा ।’’
तत्काल जीतसिंह ने वो काम शुरू किया जिस में दुर्लभ महारत उसे खुदाई वरदान था।
आधे घण्टे में उसने सेफ खोल ली। उसने उसका भारी पल्ला खींचा और राजाराम के लिये थोड़ा एक बाजू सरका।
राजाराम उसके पहलू में आ खड़ा हुआ।
सेफ हजार हजार के नोटों से भरी हुई थी।
गड्डियों को मोटे तौर पर गिना गया तो वो दो सौ दस निकलीं।
दो करोड़ दस लाख रुपया।
‘‘दो सौ दस गड्डियाँ ।’’—जीतसिंह बोला तो उसके स्वर में व्यंग्य का पुट था।—‘‘हम दोनों की जेबों में आ ही जायेंगी!’’
‘‘पागल हुआ है! खानसामा आता ही होगा!’’
‘‘वो क्या करेगा? गठड़ी बना देगा ।’’
‘‘दो सूटकेस ले कर आयेगा ।’’
‘‘ओह! इन्तजाम में माहिर हो, बाप ।’’
राजाराम ने जवाब न दिया। उसने मोबाइल पर एक प्रीप्रोग्राम्ड नम्बर पंच किया और एक बार घन्टी बजते ही कनैक्शन काट दिया।
वो प्रतीक्षा करने लगा।
दो मिनट बाद स्टडी का दरवाजा हौले से खुला और एक कोई पचास साल के दुबले पतले व्यक्ति ने भीतर कदम रखा। अपने दोनों हाथों में वो दो खाली सूटकेस लटकाये था। उसने अपने पीछे दरवाजा भिड़काया, दो कदम आगे बढ़ा और ठिठक गया।
‘‘हो गया?’’ —वो फुसफुसाया।
‘‘तेरे को क्या दिखाई देता है?’’—राजाराम भुनभुनाया।
‘‘कमाल किया! कितना है?’’
‘‘दो करोड़ दस लाख। हजार हजार की दो सौ दस गड्डियाँ। गिनना होगा तेरे को!’’
नीमअन्धेरे में भी फ़जल हक की आँखें जुगनुओं की तरह चमकीं। उसने सूटकेसों को फर्श पर रखा और अधिकारपूर्ण स्वर में बोला—‘‘सत्तर निकाल कर मेज पर रखो ।’’
‘‘हमें अपना हिस्सा सूटकेसों में भरने दे, बाकी खुद निकालते रहना ।’’
‘‘जो बोला है करो, वर्ना...’’
‘‘वर्ना क्या?’’
‘‘खता खाओगे ।’’
‘‘ऐसा!’’
‘‘हाँ। चुटिकयों में जाग हो जायेगी ।’’
‘‘अरे, नहीं ।’’
‘‘करो, जो बोला ।’’
राजाराम ने गिन गिन कर गड्डियाँ निकाल कर मेज पर करीने से रखनी शुरू कीं।
‘‘ये’’—आखिर वो बोला—‘‘सत्तर। राजी!’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘अब सूटकेस इधर कर ।’’
फ़जल हक ने फासले से ही दोनों सूटकेस उन की तरफ धकेल दिये।
‘‘और अब मर ।’’
एकाएक राजाराम के हाथ में एक साइलेंसर लगी गन प्रकट हुई और उसने खानसामे को शूट कर दिया।
खानसामा निशब्द कार्पेट बिछे फर्श पर ढ़ेर हुआ।
जीतसिंह के नेत्र फट पड़े।
राजाराम आगे बढ़ा, उसके करीब पहँुचा, उसने झुक कर तसदीक की कि वो मर चुका था।
‘‘जेब में कार्डलैस बैल का पुश है ।’’—वो बोला—‘‘जाग करा सकता था ।’’
‘‘देवा! देवा!’’
राजाराम सीधा हुआ, उसकी तरफ घूमा।
‘‘मिलता है न!’’—फिर बोला।
‘‘क्या?’’
‘‘देवा ।’’
‘‘क्या! क्या बोला?’’
‘‘रूबरू। आमने सामने। अभी ।’’
राजाराम का गन वाला हाथ उठा।
‘‘नेता जी!’’—जीतसिंह उसके कन्धे पर से पीछे झांकता एकाएक तीखे स्वर में बोला—‘‘गोली न चलाना। मैने कुछ नहीं किया। जो किया इसने किया ।’’
राजाराम हँसा।
‘‘बच्चे’’—फिर बोला—‘‘ये पैंतरे बहुत पुराने हो चुके हैं। मैं पीछे नहीं झांकने वाला, क्योंकि मेरे को मालूम है मेरे पीछे कोई नहीं है ।’’
‘‘यानी गोली खा के मानोगे!’’
‘‘तू...तू गोली खा के मानेगा। तेरे पीछे जो बुकशैल्फ है, उसके पल्ले शीशे के हैं। उनमें रिफ्लेक्ट होता मेरे पीछे का तमाम नजारा मेरे को दिखाई दे रहा है। क्या!’’
पैडस्टल लैम्प की डोरी जीतसिंह के पाँव के बिल्कुल करीब थी, तब तक उसने उसमें अपने जूते की ठोकर उलझा ली थी, अब उसने एक झटके से पाँव वापिस खींचा।
पैडस्टल लैम्प उलट गया, उसका बल्ब टूट गया, कमरे में अन्धेरा छा गया।
जीतसिंह लड़खड़ाया, सन्तुलन सम्भालने के लिये उसका एक हाथ सामने फैला तो सेफ के खुले दरवाजे से टकराया, दरवाजा उसे आसरा देने की जगह बन्द होने लगा इसलिये वो और ज्यादा लड़खड़ाया और लगभग दोहरा हो गया। उसी वजह से वो गोली खाने से बच गया जिस के चलने की ‘पिट’ जैसी आवाज उसे तभी सुनाई दी। गोली पीछे कहीं दीवार से टकराई तो कदरन ऊँची आवाज हुई।
डोरी से उलझा, टेबल लैम्प से टकराता जीतसिंह धराशाही होने से बड़ी मुश्किल से बच पाया। उस कोशिश में उसका दूसरा हाथ मेज पर पड़ा तो नोटों की गड्डियों से टकराया और गड्डियाँ बिखरने लगीं जिन में से एक अनायास ही उसके हाथ में आ गयी।
राजाराम स्विच बोर्ड तलाश कर के कमरे में तीखी रोशनी कर सकता था लेकिन उसने उस घड़ी मोबाइल आन किया।
निपट अन्धकार में जीतसिंह को उसकी रौशनी बहुत तीखी लगी।
उसने मेज पर से एक पेपर वेट उठाया और खींच कर राजाराम को मारा।
पेपर वेट राजाराम के माथे से टकराया, उसके मँुह से एक घुटी हुई चीख निकली, मोबाइल उसके हाथ से निकल गया, उसने उसी हाथ से अपना माथा थाम लिया।
जीतसिंह बगूले की तरह एक खिड़की पर पहँुचा। उसने पर्दा इतनी जोर से खींचा कि वो उखड़ कर उसके ऊपर आ कर पड़ा। आतंकित भाव से उसने पर्दे से मुक्ति पायी, खिड़की के पट खोले और चौखट पर चढ़ कर बाहर छलांग लगा दी। उसके पाँव बाहर यार्ड की घास से ढंकी जमीन से टकराये, घुटने मुड़े, उसने एक लुढ़कनी खायी, सम्भला, उठा और सरपट फाटक की तरफ भागा।
फाटक पर भीतर से लोहे का भारी कुंडा लगा हुआ था, उस पर कोई ताला वगैरह नहीं था। कुंडा सरका कर उसने फाटक का एक पट महज इतना खोला कि वो उसमें से गुजर पाता। बाहर निकल कर उसने अपने पीछे फाटक बन्द किया और आगे उधर बढ़ा जिधर राजाराम की वैगन-आर खड़ी थी।
कार तक पहँुचने तक उसे वाचमैन के दर्शन न हुए।
वो कार में सवार हुआ, उसे स्टार्ट करके उसने उसे यू-टर्न दिया और उसे वहाँ से भगा दिया।
कार फाटक के आगे से गुजरी तो उसने उसे ऐन वैसे बन्द पाया जैसे वो उसे पीछे छोड़ कर गया था।
रात की उस घड़ी सड़क सुनसान थी इसलिये उसे यकीन था कोई उसके पीछे नहीं लगा हुआ था।
उसको राजाराम की दगाबाजी का उतना अफसोस नहीं जितना अपनी टूल किट पीछे रह जाने का था। लेकिन वो भी मुक्कमल नुकसान नहीं था क्योंकि संयोगवश हजार के नोटों की एक गड्डी उसके कब्जे में थी।
गुरुवार : 28 मई
पाँच बजने को थे जब जीतसिंह मुम्बई में, उसके साउथ एण्ड पर था।
उस वक्त सड़कों पर अधिकतर आवाजाही दूधवालों, अखबारवालों की थी।
थकान और नींद से भारी आँखों को जबरन खोले रखे कार चलाता वो धोबी तलाव और आगे जम्बूवाडी पहँुचा जहाँ कि गाइलो की चाल थी। चाल में गाइलो की खोली पहली मंजिल पर थी, जिसके बन्द दरवाजे के सामने के बरामदे के फर्श पर वो चटाई बिछाये सोया पड़ा था। गर्मी के मौसम में खोलियों के आगे लम्बे बरामदे में यूं सोने वाले वहाँ और भी थे।
जीतसिंह ने जबरन उसे जगाया।
वो उठ कर बैठा, आँखे मलते उसने जीतसिंह को देखा, पहचाना।
‘‘क्या है, यार ।’’—वो बोला और वापिस चटाई पर ढेर होने लगा।
जीतसिंह ने उसे बांह पकड़ कर सीधा किया और बैठने देने की जगह पैरों पर खड़ा कर दिया।
‘‘तगड़ा हो जा ।’’—वो सख्ती से बोला।
‘‘क्या...क्या हो जा?’’
‘‘होश में आ जा ।’’
‘‘है न मैं!’’
‘‘नहीं है। कहना मान। जरूरी बात है। मैं खामखाह तेरे को तंग करने नहीं आया। क्या!’’
तब उसने ऊंघना, झूमना बन्द किया और चौकस आँखें खोलीं।
‘‘क्या टाइम है?’’—फिर बोला।
‘‘पाँच ।’’
‘‘मैं दो बजे सोया ।’’
‘‘बेवडे अड्डे पर इतना टेम लगायेगा तो...’’
‘‘अरे, बेवड़ा अड्डा किधर इतना टेम खुलता है! साला चार पैसा भी कमाने का था कि नहीं कमाने का था! बेवड़ा क्या कोई मुक्त में पिलाता है! साला टैक्सी खींचा दो बजे तक ।’’
‘‘शाबाश! खोली में चल ।’’
दोनों भीतर दाखिल हुए। जीतसिंह ने खुद भीतर से कुंडी लगाई और बिजली का स्विच आन किया।
‘‘अभी बोल’’—गाइलो बोला—‘‘क्या है?’’
‘‘एक काम है बहुत अजेंट करके ।’’
‘‘ये टेम!’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘क्या?’’
‘‘वो भीड़ू याद तेरे को दादर में पैरामाउन्ट बार से तू जिसके पीछे लगा था? जो पहले वरली में किसी के घर गया था...’’
‘‘फिर लोअर परेल चेतना रेस्टोरेंट पहँुचा था! नाम राजाराम लोखण्डे!’’
‘‘यानी याद! फिर ये भी याद कि बाद में परदेसी उसके पीछे लगा था और जानकारी निकाला था कि वो घाटकोपर में होटल आनन्द में रहता था!’’
‘‘बरोबर!’’
‘‘रूम नम्बर छ: सौ पाँच ।’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘तेरे को अभी का अभी उधर पहँुचने का और इस राजाराम लोखण्डे पर वाच रखने का ।’’
‘‘वो ये टेम उधर है?’’
‘‘नहीं। उधर नहीं है लेकिन पहँुचेगा गारन्टी के साथ ।’’
‘‘कहाँ से?’’
‘‘लोनावला से। वो मेरे पीछे था। उसकी कार मैं ले आया। अब उसको सवारी का इन्तजाम भी करने का। और पिराब्लम भी हो सकता है...’’
‘‘इस्टोरी क्या है?’’
‘‘लम्बी है। अभी करने का टेम नहीं। गाइलो, जो मैं कह रहा हूँ, तू ये सोच के कर, और फुर्ती से कर, कि तकदीर ने अब कोई नयी मार न लगाई तो हमारे दिन फिरने वाले हैं।’’
‘‘ऐसा!’’
‘‘बरोबर। अभी डिटेल में जाने का टेम नहीं। बस, तू निकल ले ।’’
‘‘मैं तो जाता है पण परदेसी ज्यादा पास था घाटकोपर के। उसको बोलना था!’’
‘‘उसके पास तेरा माफिक टैक्सी किधर है! इन्तजाम में टेम खोटी करेगा। तब तक तो तू उधर होगा ।’’
‘‘ठीक ।’’
‘‘दूसरे, मेरे को उससे और काम है। वो एक टेम में दो काम नहीं कर सकता ।’’
‘‘कौन कर सकता है!’’
‘‘वहीच बोला। उसने मेरा काम कर दिया तो घाटकोपर मैं उसे साथ लेकर आऊँगा।’’
‘‘बोले तो, तेरे को आखिर उधरीच आने का!’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘इस्टोरी क्या है!’’
‘‘फिर वही पहँुच गया! बोलेगा न! अभी टेम खोटी न कर। निकल ले ।’’
‘‘जाता है ।’’
डेविड परदेसी धारावी ट्रांजिट कैम्प में रहता था।
जीतसिंह ने उसे भी सोते से जगाया।
‘‘क्या है?’’—वो सशंक भाव से बोला।
‘‘काम है बहुत जरूरी। वर्ना ये टेम न आया होता ।’’
‘‘हूँ। ढाबे पर जा ।’’
‘‘खुला होगा ये टेम?’’
‘‘हाँ। कभी बन्द होता हैइच नहीं। जा के चाय बोल, आता है ।’’
जीतसिंह अजमेर सिंह के ढाबे पर पहँुचा जो कि परदेसी का पक्का ठीया था। वो कहीं न मिलता हो तो वहाँ मिलता था, या वहाँ से उसकी खबर मिलती थी।
उस वक्त भी वहाँ चाय पीते, पाव खाते आठ दस लोग मौजूद थे।
जीतसिंह ने दो चाय का आर्डर दिया।
चाय आने तक परदेसी भी वहाँ पहँुच गया।
उसने लुंगी बनियान उतार कर जींस टी-शर्ट पहन ली थी, मँुह धो लिया था और बालों में कंघी फिरा ली थी।
वो जीतसिंह के सामने आकर बैठा तो जीतसिंह ने चाय का एक गिलास उसकी तरफ सरका दिया।
‘‘अब बोल’’—परदेसी बोला—‘‘क्या माँगता है अर्ली मार्निंग में!’’
‘‘पहले सुन क्या नहीं माँगता! उपदेश नहीं माँगता, लैक्चर नहीं माँगता, मेरे को मेरा भला बुरा समझना नहीं माँगता, सलाह नहीं माँगता कि मेरे को पंगे से दूर रहने का। उस्तुरा नहीं माँगता ।’’
‘‘मैं समझ गया, जीते!’’—उसने गहरी सांस ली और असहाय भाव से गर्दन हिलाई—‘‘गन माँगता है तेरे को ।’’
‘‘श्याना है ।’’
‘‘तू बाज नहीं आयेगा पंगे लेने से। अपनी हालत आ बैल मुझे मार जैसी करने से। तू बाज आ सकता हैइच नहीं ।’’
‘‘जब मालूम है तो हुज्जत क्यों करता है?’’
‘‘क्यों कि तेरा फिरेंड है, वैलविशर है ।’’
‘‘तो काम कर वैलविशर वाला। कर जो फिरेंड कहता है ।’’
‘‘अप्रैल में जो गन ली थी उसका क्या किया?’’
‘‘नक्की किया। तू ही बोला हॉट गन पास नहीं रखने का था ।’’
‘‘हूँ ।’’
‘‘मेरे पास हूँ का टेम भी नहीं है। अभी और बोले तो देसी कट्टा नहीं माँगता, तमंचा नहीं माँगता। विलायती माल माँगता है। साइलेंसर के साथ विलायती माल माँगता है ।’’
‘‘बहुत पैसा लगेगा। है?’’
‘‘हाँ ।’’—जीत सिंह ने उसे हजार के नोटों की गड्डी दिखाई।
‘‘हूँ ।’’—वो उठ खड़ा हुआ—‘‘आता है। इधरीच बैठना ।’’
‘‘मेरे को टेम का तोड़ा ।’’
‘‘अरे, मैं चाय छोड़ा कि नहीं छोड़ा! पी के जाता तो...’’
‘‘ठीक है, ठीक है ।’’
वो चला गया।
पीछे जीतसिंह ने एक सिग्रेट सुलगा लिया और विचारपूर्ण मुद्रा बनाये बैठा उसके छोटे-छोटे कश लगाने लगा।
परदेसी दस मिनट में लौटा।
‘‘रिवाल्वर’’—उसके सामने बैठता वो दबे स्वर में बोला—‘‘लाइट वेट। स्मिथ एण्ड वैसन। अड़तीस बोर। चार इंच का साइलेंसर। नम्बर रेती से घिस के साफ। पैंतालीस ।’’
‘‘वापिस कितने में लेगा?’’
‘‘साढ़े बाइस ।’’
‘‘आज ही वापिस करे तो!’’
‘‘साढ़े बाइस ।’’
‘‘राउन्ड कितने?’’
‘‘उसकी कपैसिटी जितने ।’’
‘‘छ:?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘ठीक है ।’’
जीतसिंह ने उसे पैंतालीस हजार रुपये सौंपे।
गुरुवार सुबह ट्रायल कोर्ट में सुष्मिता के केस की सुनवाई शुरू हुई।
उस केस में पब्लिक प्रासीक्यूटर एक उम्रदराज शख्स था जिसका नाम भुवनेश दीक्षित था। मालूम पड़ा कि पुलिस के पब्लिक प्रासीक्यूटर्स पैनल पर वो बहुत सीनियर था और कनविक्शन का उसका रिकार्ड बहुत आकर्षक था।
कोर्ट में उसने पहले जज को ब्रीफ करने के लिये सरकारी केस की रूपरेखा प्रस्तुत की और फिर मुलजिमा सुष्मिता के खिलाफ अपने गवाह के तौर पर सबसे पहले आलोक चंगुलानी को तलब किया।
मकतूल का बड़ा लड़का गवाह के कटघरे में खड़ा होकर शपथ ग्रहण कर चुका तो सरकारी वकील भुवनेश दीक्षित उससे सम्बोधित हुआ—‘‘आपका नाम आलोक चंगुलानी है और आप हत्प्राण पुरसूमल चंगुलानी के बड़े पुत्र हैं ।’’
‘‘जी हाँ ।’’—आलोक संजीदगी से बोला।
‘‘इंगलैंड में रहते हैं?’’
‘‘जी हाँ। मानचेस्टर में ।’’
‘‘क्या करते हैं?’’
‘‘सर्विस। कंटीनेंटल डिजाइंस एण्ड सिस्टम्स में पीआर एग्जीक्यूटिव हूँ ।’’
‘‘शादीशुदा हैं?’’
‘‘जी हाँ। तीन बच्चे हैं ।’’
‘‘कब से इंगलैंड में हैं?’’
‘‘नौ साल से ।’’
‘‘इण्डिया आते रहते हैं?’’
‘‘कभी कभार। नौकरी ऐसी है कि छुट्टी कम मिलती है। मर्जी से आना नहीं हो पाता।’’
‘‘मजबूरी से हुआ! पिता की मृत्यु पर आये! इतवार सुबह!’’
‘‘जी हाँ ।’’
‘‘योर ऑनर’’—गुंजन शाह बोला—‘‘ये लोकाचार चल रहा है। इन बातों का केस से कोई रिश्ता नहीं ।’’
‘‘थोड़ा धीरज रखिये, मिस्टर शाह’’—सरकारी वकील सरल स्वर में बोला—‘‘मैं अभी रिश्ता स्थापित करता हूँ ।’’
‘‘प्रोसीड ।’’—जज बोला।
‘‘मिस्टर आलोक चंगुलानी’’—सरकारी वकील फिर गवाह से सम्बोधित हुआ—‘‘आप की बाई फोन, बाई इण्टरनेट, बाई मेल, पिता से कम्यूनीकेशन तो रहती होगी!’’
‘‘जी हाँ। रेगुलर ।’’
‘‘आपकी तरफ कोई अहम बात हो, तो पिता को खबर करते होंगे? पिता की तरफ कोई अहम बात हो, वो आपको खबर करते होंगे?’’
‘‘जी हाँ ।’’
‘‘इंगलैंड में ही रहते छोटे बेटे को भी? कोलकाता रहती बेटी से भी?’’
‘‘जी हाँ ।’’
‘‘शादी को अहम बात मानते हैं?’’
‘‘अहमतरीन बात मानता हूँ। शादी इंसानी जिन्दगी का बहुत बड़ा वाकया होता है ।’’
‘‘ठीक। आप के पिता ने दोबारा शादी कर ली, आपको खबर की?’’
‘‘जी नहीं ।’’
‘‘छोटे भाई को? बहन को?’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘वजह?’’
‘‘वजह साफ है। जो काम हुआ ही नहीं, उसकी खबर करने के क्या मानी?’’
‘‘यानी कोई शादी नहीं हुई थी?’’
‘‘जी हाँ ।’’
‘‘हुई होती तो पिता आप लोगों को खबर करते?’’
‘‘यकीनन करते। क्यों न करते! ये कोई छुपने वाली बात थी! इनवाइट भले ही न करते लेकिन खबर तो करते! पहले करने का टाइम नहीं लगा था तो शादी के बाद करते।
‘‘ऐसी कोई खबर उन्होंने न की, इसका आपकी निगाह में एक ही मतलब है कि शादी का मुद्दा ही गलत है, बेबुनियाद है?’’
‘‘जी हाँ ।’’
‘मुलजिमा का दावा है कोई सात महीने पहले आपके पिता ने बाकायदा अग्नि के सातफेरे लेकर उससे शादी की थी!’’
‘‘दावा झूठा है। बेबुनियाद है। शरारती है। बल्कि ब्लैकमेल की बुनियाद बनाने की नाकाम कोशिश है...’’
‘‘आब्जेक्शन, योर ऑनर!’’—शाह बोला—‘‘दिस इज अज्यूिंमग दि फैक्ट्स नाट इन ईवीडेंस। गवाह गवाही नहीं दे रहा, विद्वेष की भावना से प्रेरित हो कर मेरे क्लायन्ट के चरित्र हनन की कोशिश कर रहा है। उसके खिलाफ स्ट्रिक्चर पास कर रहा है। फरमान जारी कर रहा है ।’’
‘‘आब्जेक्शन सस्टेंड ।’’—जज बोला—‘‘गवाह जिम्मेदारी से बयान दे। जो पूछा जाये उसका सटीक जवाब दे, उसमें अपनी जाती राय जोड़ने की कोशिश न करे। ब्लैकमेल वाले रिमार्क को रिकार्ड में दर्ज न किया जाये ।’’
‘‘तो’’—सरकारी वकील बोला—‘‘आपको यकीन है कि कोई शादी नहीं हुई थी?’’
‘‘जी हाँ ।’’—गवाह बोला।
‘‘मुलजिमा का दर्जा बीवी का नहीं था?’’
‘‘हरगिज नहीं था ।’’
‘‘तो क्या दर्जा था जिसके तहत मुलजिमा आपके पिता के घर में स्थापित थी?’’
‘‘लिव-इन कम्पैनियन का दर्जा था ।’’
‘‘मुलजिमा आपके पिता की लिव-इन कम्पैनियन थी?’’
‘‘जी हाँ। और ऐसा उसने खुद अपनी जुबानी कहा था। उसने कभी ये दावा नहीं किया था कि वो पापा की ब्याहता बीवी थी, मिसेज पुरसूमल चंगुलानी थी ।’’
‘‘जब मुलजिमा का ऐसा कोई दावा नहीं था तो उसे जबरदस्ती घर से क्यों निकाला जाना पड़ा था?’’
‘‘ये बात सरासर गलत है कि मुलजिमा को जबरदस्ती घर से निकाला जाना पड़ा था, कैसे भी निकाला जाना पड़ा था। हकीकत तो ये है कि मुलजिमा को तो खुद ही जल्दी थी घर से निकल जाने की। सोमवार सुबह पापा का अन्तिम संस्कार हुआ, शाम से पहले मुलजिमा घर छोड़ के चली गयी ।’’
‘‘जल्दी की वजह?’’
‘‘अब क्या कहूँ?’’
‘‘ये कोर्ट है, आप गवाह हैं, कहना तो पड़ेगा!’’
‘‘वो...बात ये है कि...उसकी जल्दबाजी की वजह से ही हमें उस पर शक हुआ था। हमारी बहन शोभा ने—जो हम दोनों भाइयों से बड़ी है—सब से पहले अन्देशा जाहिर किया था कि उस की जल्दबाजी में कोई भेद था। तब उसको बोला गया था कि वो अपना वो बैग, जो वो साथ ले जा रही थी, खोल कर दिखाये। ये सुनते ही वो भड़क गयी और उसने बाकायदा निकल लेने की कोशिश की। कोई रीजनेबल बात सुनने को तैयार ही नहीं थी, नतीजतन हमें जबरन उसे रोकना पड़ा। तब हमने उसके बैग की तलाशी ली तो पाया उसमें नकद दस लाख रुपये और नीलम की बेशकीमती अँगूठी थी जो कि पापा की थी...’’
‘‘ये झूठ है!’’—सुष्मिता एकाएक चिल्लाई—‘‘सरासर झूठ है...’’
‘‘आर्डर!’’—जज बोला—‘‘मुलजिमा को यूं बोलने की इजाजत नहीं है ।’’
‘‘लेकिन, सर...’’
‘‘काल मी योर ऑनर ।’’
‘‘...योर ऑनर, ये जो कहा जा रहा है...’’
‘‘डिफेंस काउसंल अपने क्लायन्ट को समझायें, खामोश करें, खामोश रहने को बोलें, वर्ना अदालत की अवमानना की कार्यवाही होगी। शी विल बी पनिश्ड फार कन्टैम्प्ट आफ कोर्ट ।’’
शाह ने सुष्मिता की पीठ थपथपा कर उसे आश्वासन दिया और खामोश रहने की राय दी।
‘‘प्रासीक्यूशन मे प्रोसीड ।’’—जज बोला।
‘‘प्लीज कन्टीन्यू, मिस्टर आलोक चंगुलानी ।’’—सरकारी वकील बोला।
‘‘उस बरामदी के बाद हो सकता है’’—आलोक सविनय बोला—‘‘हमारे व्यवहार में कोई तुर्शी आ गयी हो लेकिन तब हालात ही ऐसे बन गये थे, माहौल ही ऐसा था। हम चाहते तो उसी घड़ी इसको गिरफ्तार करा सकते थे लेकिन हमने इसका लिहाज किया कि ऐसा कोई कदम न उठाया। हमारे लिहाज की कद्र तो इसको हुई ही नहीं, अपनी खामी को छुपाने के लिये इसने हमारे खिलाफ प्रचार करना शुरू कर दिया कि हमने इसे धक्के मार के घर से निकाला, कोई सामान न उठाने दिया, चार कपड़े तक न ले जाने दिये, जिस्म के जेवर तक उतार लिये, और पता नहीं क्या क्या कहा! जब कि हकीकत ये है कि जिस बैग में से अँगूठी और रुपया बरामद हुआ था, वो ये अपने साथ ले के गयी थी। मुकर कर दिखाये इस बात से ।’’
‘‘दैट्स एनफ। आप सिर्फ हकीकत बयान कीजिये, उस पर किसी तरह का तबसरा न कीजिये वर्ना’’—सरकारी वकील ने एक धूर्त निगाह शाह की तरफ डाली—‘‘डिफेंस को शिकायत होगी ।’’
गवाह खामोश रहा।
‘‘इस वक्त मुलजिमा कत्ल के इलजाम में गिरफ्तार है, आप इस बारे में क्या कहते हैं?’’
‘‘वही जो कहना बनता है लेकिन मुझे अन्देशा है कि फिर तबसरा करने का इलजाम आयेगा ।’’
‘‘आप जो कहना चाहते हैं, कहिये। आप मुझे अपने अन्देशे पर पहँुचते दिखाई देंगे तो मैं आपको खबरदार करूँगा ।’’
‘‘हमारा—फैमिली का—मानना है कि जो हो रहा था, एक सुनियोजित, पूर्वनिर्धारित साजिश के तहत हो रहा था। ये औरत पापा की लिव-इन कम्पैनियन बनी ही अपने नापाक इरादों पर खरा उतरने के लिये थी ।’’
‘‘ये बनी थी लिव-इन कम्पैनियन, हत्प्राण ने नहीं बनाई थी?’’
‘‘सर, कोई भी खूबसूरत नौजवान औरत अपनी चतुराई से ऐसे हालात पैदा कर सकती है कि मर्द को लगे वो उस पर आशिक हुआ जब कि हकीकतन वो आशिक करवाया गया ।’’
‘‘आई सी। साजिश क्या थी?’’
‘‘पापा का माल हथियाना था। पहले कम्पैनियन बन के घरघुसरे वाला काम किया, फिर यार से कत्ल कराया और दावा ठोक दिया कि वो मकतूल की बेवा थी। हम लोग आकर दखलअन्दाज न हुये होते तो कोई बड़ी बात नहीं थी कि ये और इसका जोड़ीदार अपने नापाक इरादों में कामयाब हो भी गये होते! अगर हम...’’
‘‘आब्जेक्शन, योर ऑनर ।’’—शाह बोला—‘‘डिफेंस को गवाह के सैल्फअज्युम्ड ट्रिपल रोल से सख्त एतराज है। खुद ही इलजाम लगाया, खुद ही सुनवाई की और खुद ही फैसला सुना दिया। अगर ऐसा करना जायज है तो डिफेंस की राय है कि जल्लाद भी इन्हें ही मुकरर्र कर दिया जाये...’’
‘‘दैट बिल बी एनफ, मिस्टर शाह! युअर आब्जेक्शन इज सस्टेंड ।’’
‘‘थैंक्यू, योर ऑनर ।’’
‘‘योर ऑनर’’—सरकारी वकील बोला—‘‘ये कत्ल का केस है, इस कोर्ट में एक कत्ल के केस की सुनवाई हो रही है। माडस अप्रांडी को किसी को तो हाईलाइट करना ही होगा!’’
‘‘कोर्ट इस जरूरत को समझता है’’—जज बोला—‘‘लेकिन जरूरत की ओट में प्रोसीजर की बलि नहीं दी जा सकती। आप प्रोसीजर से सिद्ध कीजिये, स्थापित कीजिये कि ये एक कत्ल का केस है और मुलजिमा कत्ल के लिये जिम्मेदार है। आप इस गवाह को एक्सपर्ट विटनेस के तौर पर पेश करना चाहते हैं तो पहले ये स्थापित कीजिये कि क्योंकर ये एक्सपर्ट विटनेस है!’’
‘‘सारी, योर ऑनर, इस मामले में ये एक्सपर्ट विटनेस नहीं है ।’’
‘‘तो इस विटनेस को बिना किसी बुनियाद के, अपनी जाती सोच के तहत, मुलजिमा को कातिल करार देने का कोई अख्तियार नहीं है। जब तक इस बाबत विटनेस से स्पैसिफिक सवाल न किया जाये, इसे अपनी राय जाहिर करने का भी कोई अख्तियार नहीं है ।’’
‘‘आई अन्डरस्टैण्ड, योर आनर। दि विटनेस टू अन्डरस्टैड्स, योर आनर ।’’
‘‘प्रोसीड ।’’
‘‘योर आनर, यहाँ मैं प्रासीक्यूशन की कत्ल की थ्योरी की कि रू में अर्ज करना चाहता हूँ कि कत्ल के लिये तीन बातें जरूरी होती हैं—उद्देश्य, अवसर और हथियार। मुलजिमा के पास कत्ल का उद्देश्य बराबर था, कोई नौजवान लड़की खामखाह एक उम्रदाराज शख्स के हवाले नहीं हो जाती। और ऐसा करने की वजह—मकबूल वजह—यही थी कि ये अपने एक हमउम्र जोड़ीदार, अपने एक एक्स ब्वायफ्रेंड के साथ मिलीभगत से एक उम्रदराज, तनहा लेकिन मालदार शख्स का माल हड़पना चाहती थी। ये एक मजबूत, विश्वसनीय उद्देश्य है जिसको झुठलाया नहीं जा सकता। अवसर मुलजिमा ने जोड़ीदार को मुहैया कराया, उसे बाकायदा कोच किया कि मकतूल रात को स्टोर से किस वक्त घर लौटता था, कौन सा रूट पकड़ता था और कहाँ उस वारदात को अंजाम देना आसान था। कत्ल किसी जुदा उद्देश्य से किया गया—उस उद्देश्य से जो कि मैंने अभी बयान किया—लेकिन उस का कवर अप यूं किया गया जैसे ये कोई कारजैिंकग की वारदात हो। ये पुलिस के इनवैस्टिगेिंटग आफिसर्स को भटकाने का तरीका था कि वो इलाके में सक्रिय नोन कारजैकर्स की पड़ताल में लगे गुमराह हुए रहते और उन्हें असलियत की भनक ही न लगती। फैमिली ने साजिश को एक्सपोज न किया होता तो कोई बड़ी बात नहीं थी कि मुलजिमा और उसके एक्स ब्वायफ्रेंड की जोड़ी अपने नापाक इरादों में कामयाब हो गयी होती। तीसरा फैक्टर हथियार है जो कि चंगुलानी हाउसहोल्ड में उपलब्ध एक फैंसी, एक्सक्लूसिव कटलरी सैट का हिस्सा था, एक गोश्त काटने वाली छुरी थी, जो कि कार्विंग नाइफ कहलाती है, और जो मुलजिमा ने कातिल को मुहैया कराया क्योंकि हाउसहोल्ड का हिस्सा होने की वजह से ये सहूलियत उसे हासिल थी। योर ऑनर, ये है प्रासीक्यूशन के केस की समरी जिसकी बिना पर प्रासीक्यूशन मुलजिमा के लिये, और जुर्म में इसके जोड़ीदार के लिये, सख्त सजा की माँग करता है ।’’
‘‘कथित जोड़ीदार की क्या पोजीशन है?’’—जज ने पूछा—‘‘गिरफ्तार है?’’
‘‘फरार है, योर ऑनर। मुलजिमा की गिरफ्तारी ने उसे खबरदार कर दिया और वो पुलिस की गिरफ्त में आने से बच निकला। योर ऑनर, उसका फरार होना अपने आप में उसके गुनाह का सबूत है। क्यों वो शख्स अपने घर पर उपलब्ध नहीं, अपने धन्धे के ठीये पर उपलब्ध नहीं! क्योंकि खबरदार है, फरार है। कोई शरीफ भलामानस, कोई नेक शहरी तो ऐसे एकाएक कहीं गायब नहीं हो जाता!’’
जज ने तनिक हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया।
‘‘योर विटनेस!’’—सरकारी वकील बोला।
सहमति में सिर हिलाता गुंजन शाह उठ कर खड़ा हुआ।
‘‘तो’’—वो गवाह से मुखातिब हुआ—‘‘नौ साल से आप इंगलैंड में स्थापित हैं लेकिन इण्डिया आते रहते हैं?’’
‘‘जी हाँ ।’’
‘‘अभी मजबूरन आये—इतवार, सत्तरह तारीख की सुबह को—क्योंकि पिता जी का अक्समात देहान्त हो गया। ही गॉट मर्डर्ड, टु बी मोर प्रीसाइज?’’
‘‘जी हाँ ।’’
‘‘इससे पहले कब आना हुआ था?’’
‘‘इससे पहले!’’
‘‘हाँ। यही बोला मैं ने ।’’
‘‘ध्यान नहीं ।’’
‘‘ध्यान कीजिये। आप चौपले पर नहीं हैं, विटनेस स्टैण्ड पर हैं ।’’
‘‘अब्जेक्शन...’’—सरकारी वकील ने कहना चाहा।
‘‘ओवररूल्ड। गवाह जवाब दे ।’’
‘‘योर ऑनर, आई हैव नाट येट रेज्ड दि आब्जेक्शन ।’’
‘‘बट दि कोर्ट हैज गिवन इट्स रूिंलग। कोर्ट भी इस सवाल का जवाब सुनना चाहता है। गवाह जवाब दे ।’’
‘‘जहाँ तक मुझे याद पड़ता है’’—गवाह बोला—‘‘कोई तीन साल पहले ।’’
‘‘उसके बाद आप बारह दिन पहले सत्तरह मई वाले इतवार को मुम्बई आये?’’
‘‘जी हाँ ।’’
‘‘बीच में कोईफेरा न लगा?’’
‘‘जी नहीं ।’’
‘‘पिता ने आप को शादी की खबर न की?’’
‘‘जी हाँ ।’’
‘‘ऐसा तो नहीं कि खबर तो बराबर की लेकिन मौजूदा हालात में, केस की जो मौजूदा पोजीशन है, उसमें आपको खबर की होने की तसदीक करना मुनासिब न लगा!’’
‘‘नहीं, ऐसा नहीं है ।’’
‘‘जब आपने केस पकड़ा...’’
‘‘जी!’’
‘‘...जब मुलजिमा के बैग से नीलम की अँगूठी और दस लाख रुपया बरामद किया तो उस बरामदी के वक्त और कौन मौजूद था?’’
‘‘मेरा छोटा भाई अशोक मौजूद था, बहन शोभा मौजूद थी, उसका हसबैंड लेखूमल...आई मीन लेख मौजूद था ।’’
‘‘और कोई?’’
‘‘और कौन?’’
‘‘आप बताइये?’’
‘‘और कोई नहीं था ।’’
‘‘सुना है घर में एक मेड है, एक कुक है!’’
‘‘वो उस वक्त वहाँ नहीं थे ।’’
‘‘कहाँ थे?’’
‘‘कहीं भी थे, वहाँ नहीं थे। अब मुझे याद नहीं कहाँ थे!’’
‘‘और कोई?’’
‘‘मैंने बोला न...’’
‘‘मैं ने सुना बराबर। मेरे दो कान हैं, दोनों बराबर काम करते हैं, कोई बहरा नहीं है। आपको ऐसा लगता है तो बोलिये!’’
गवाह खामोश रहा।
‘‘उस घड़ी की हाजिरी के बारे में आप कुछ भूल रहे हैं ।’’
‘‘ऐसा नहीं है...’’
‘‘जल्दबाजी में जवाब न दीजिये, याद करने की कोशिश कीजिये ।’’
‘‘वो तो मैं कर रहा हूँ लेकिन...सॉरी, आई कैंट रिमेम्बर ।’’
‘‘ओके। आइल हैल्प यू। उस वक्त कोलाबा थाने का एसएचओ इन्स्पेक्टर चन्द्रकान्त देवताले वहाँ मौजूद था ।’’
‘‘ओह! वो!’’
‘‘या शायद आप पुलिस वालों को इंसानों में शुमार नहीं करते!’’
‘‘ऐसी कोई बात नहीं। इन्स्पेक्टर साहब इत्तफाक से वहाँ थे इसलिये उनकी वहाँ मौजूदगी मेरे जेहन से निकल गयी थी ।’’
‘‘क्या था इत्तफाक?’’
‘‘वो पापा के केस के इंचार्ज थे, उसकी तफ्तीश के सिलसिले में वहाँ थे ।’’
‘‘फैमिली और मुलजिमा के बीच जो बीती, इन्स्पेक्टर साहब की मौजूदगी में बीती?’’
‘‘हं-हाँ ।’’
‘‘मुलजिमा चोरी की कोशिश में रंगे हाथों पकड़ी गयी, उसके बैग में से चोरी का माल बरामद हुआ फिर भी इन्स्पेक्टर साहब दखलअन्दाज न हुए?’’
‘‘मैने पहले अर्ज किया न, हमने आपकी क्लायन्ट का लिहाज किया जो इस मामले में उस के खिलाफ कोई कदम न उठाया ।’’
‘‘लिहाज किया या चार्ज लगाने की कोशिश इसलिये न की क्योंकि उस सूरत में रपट दर्ज होती तो माल को मालखाने में जमा कराया जाना जरूरी होता। कैसे करते? ऐसा कोई माल तो असल में था ही नहीं!’’
‘‘जी! क्या फरमाया?’’
‘‘चोरी की, चोरी का माल बरामदी की कहानी फर्जी थी। ऐसे किसी माल का वजूद नहीं था—न नीलम की बेशकीमती अँगूठी का, न दस लाख की रकम का। कबूल कीजिये कि...’’
‘‘आब्जेक्टिड, योर ऑनर’’—सरकारी वकील बोला—‘‘डिफेंस अटर्नी तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर अपने मनमाफिक बनाने की कोशिश कर रहे हैं और गवाह को जुबान दे रहें है। ही इज ट्रार्इंग टु पुट हिज वर्डस इनटु विटनेसिज माउथ ।’’
‘‘आब्जेक्शन सस्टेंड। डिफेंस अटर्नी या अपनी स्टेटमेंट को रीफ्रेज करें या अपनी जिरह की दिशा बदलें ।’’
‘‘यस, योर आनर ।’’—शाह बोला—‘‘मिस्टर आलोक चंगुलानी, ये मेरे पास कुछ डाकूमेन्ट्स हैं जिनमें कुछ अहम जानकारी छुपी है जो मैं आपके साथ शेयर करना चाहता हूँ। ये जानकारी ये कहती है कि शनिवार नौ मई की ओमान एयरलाइन्स की मानचेस्टर-दुबई अर्ली मार्निंग फ्लाइट से आपकी दुबई की बुिंकग थी जहाँ कि आपने एक कान्फ्रेंस अटेंड की थी जो कि तीन दिन चली थी। उसी एयरलाइन्स की मुम्बई-मानचेस्टर लेट नाइट फ्लाइट से आपकी शुक्रवार पन्द्रह मई की वापिसी के लिये बुिंकग थी। से यस आर नो!’’
गवाह बेचैन दिखाई देने लगा, उसने पनाह मांगती निगाह से भुवनेश दीक्षित की तरफ देखा।
सरकारी वकील ने अनभिज्ञता से कन्धे उचकाये।
‘‘से यस आर नो!’’—शाह गर्जा।
‘‘य-यस ।’’
‘‘आपने वो फ्लाइट पकड़ी? वापिस मानचेस्टर गये?’’
‘‘हं-हाँ ।’’
‘‘कैसे पकड़ी? हवा में पकड़ी? जब जहाज दुबई से गुजर रहा था तो उड़ कर उस पर सवार हो गये!’’
‘‘आब्जेक्टिड, योर ऑनर, ऐज आग्यूमेंटेटिव...’’
‘‘ओवररूल्ड!’’—जज बोला।
‘‘ऐ...ऐसा कहीं होता है!’’—गवाह हकलाता सा बोला।
‘‘तो कैसा होता है? तो जैसा होता है, उसे कुबूल कीजिये। कबूल कीजिये पहले नहीं तो, और पहले नहीं तो, शुक्रवार पन्द्रह मई की शाम को आप मुम्बई में थे ।’’
‘‘हं-हाँ ।’’
‘‘लिहाजा आपने गलतबयानी की कि इतवार सत्तरह तारीख के पहले के तीन साल आपने मुम्बई में कदम नहीं रखा था!’’
‘‘मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था। वो अंजाने में हुआ। दुबई का ट्रिप आर्गेनाइज करते वक्त मेरा मुम्बई जाने का कोई इरादा नहीं था...’’
‘‘मैं यहीं आप को टोक रहा हूँ। इरादा नहीं था तो वापिसी के लिये मुम्बई से ओपन टिकट क्यों था?’’
‘‘कोई मुगलता है आपको। ओपन टिकट था लेकिन दुबई से था ।’’
‘‘क्यों था?’’
‘‘क्योंकि मेरा एम्पलायर ऐसा चाहता था। उसका इरादा खड़े पैर मुझे कहीं और भेजने का था जिस पर उसने अमल नहीं किया था। उस टिकट को दुबई की जगह मुम्बई से डिपार्चर के लिये कनवर्ट मैंने बाद में कराया था ।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘क्योंकि मेरा इरादा बन गया था कि जब इतना करीब आया हुआ था तो मैं पापा से मिलता चलूँ?’’
‘‘लिहाजा आप मुम्बई से होकर मानचेस्टर गये?’’
‘‘जी हाँ ।’’
‘‘मुम्बई कब पहँुचे? जवाब ये सोच के दीजियेगा कि मंगल को आप अपनी कांफ्रेंस से फारिग हो गये थे। मंगल से शुक्र तक आप कहाँ थे? दुबई में या मुम्बई में? दुबई में थे तो कब तक? मुम्बई में थे तो कब तक?’’
‘‘मैं बुधवार शाम को मुम्बई लौटा था ।’’
‘‘पिता से कब मिले थे?’’
‘‘उसी रोज ।’’
‘‘कहाँ?’’
‘‘लेिंमगटन रोड उन के डिपार्टमेंट स्टोर पर ।’’
‘‘वहाँ क्यों?’’
‘‘क्योंकि मुझे मालूम था कि उस वक्त वो वहाँ होते थे ।’’
‘‘स्टोर से पिता के साथ घर लौटे थे?’’
‘‘थोड़ी देर के लिये। फिर अपने होटल लौट गया था ।’’
‘‘आप मुम्बई में हों तो पिता के साथ नहीं ठहरते?’’
‘‘वहीं ठहरता हूँ—आखिर वो मेरा भी घर है—लेकिन मुम्बई में मुझे और भी काम थे। कुछ लोगों से मिलना था और मुलाकात की सहूलियत होटल में बेहतर थी ।’’
‘‘गुरुवार को?’’
‘‘गुरुवार को भी मेरी बिजीनेस अभी खत्म नहीं हुई थी इसलिये उस रोज मैं पापा से नहीं मिल पाया था, खाली दो बार फोन पर बात की थी। अलबत्ता गुरुवार को मैं फिर उनसे मिला था ।’’
‘‘कहाँ?’’
‘‘स्टोर। जहाँ कि मैं तीन चार घण्टे ठहरा था ।’’
‘‘गुरुवार को आप कोलाबा, तुलसी चैम्बर्स नहीं गये थे?’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘शाम तक शायद आप अपनी मसरूफियात से फारिग हो गये हों और गये हो! शाम सात बजे?’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘आपके पास तुलसी चैम्बर्स वाले फ्लैट की चाबी है?’’
‘‘सबके पास है। खुद पापा ने सबको मुहैया कराई ।’’
‘‘यानी कि वहाँ दाखिले की कोई प्राब्लम नहीं, भले ही घर पर कोई हो या न हो?’’
‘‘है तो ऐसा ही!’’
‘‘वहाँ एक फैंसी, बेशकीमती कटलरी सैट की मौजूदगी से आप वाकिफ हैं?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘कैसे वाकिफ हैं?’’
‘‘घर की चीज है। मैं घर का बन्दा हूँ ।’’
‘‘लेकिन रिहायश वहाँ आपकी नहीं है!’’
‘‘फिर भी वाकिफ हूँ। चंगुलानी हाउसहोल्ड की ट्रेडीशन है, मेहमान घर का हो या बाहर का, उसकी सर्विस में बैस्ट कटलरी, बैस्ट क्राकरी लगाई जाती है ।’’
‘‘इस वजह से आपको उस खास कटलरी सैट की खबर है?’’
‘‘जी हाँ ।’’
‘‘खबर है और एक तरह से आप भी उसके मालिक हैं?’’
‘‘आप कहते हैं तो...’’
‘‘मैं कहता हूँ ।’’
‘‘...तो यही समझ लीजिये ।’’
‘‘अपनी उस हैसियत में आप कटलरी का कोई एक नग—जैसे कि कार्विंग नाइफ—निकाल कर अपने कब्जे में कर लें तो ये मामूली बात ही कहलायेगी?’’
‘‘मैं ऐसा क्यों करूँगा?’’
‘‘आप समझिये कि ये एक हाइपॉथेटिकल सवाल है। एक काम है जो आप करें न करें, लेकिन कर सकते हैं। नो?’’
‘‘यस। लेकिन, जनाब, आप ये तीरदांजी अगर इसलिये कर रहे हैं कि कत्ल के लिये कातिल को आलायकत्ल मैंने मुहैया कराया तो मुझे आप की इस हरकत पर सख्त एतराज है ।’’
‘‘मेरे को भी, योर ऑनर ।’’—सरकारी वकील बोला।
‘‘अपने फाजिल दोस्त का एतराज मैं अपने सिर माथे लेता हूँ लेकिन इन सवालात के पीछे मेरा मकसद ये स्थापित करना था कि इन की स्टार तीन बातें—उद्देश्य, अवसर और हथियार, खास तौर से हथियार—मुलजिमा की कोई एक्सक्लूसिव टैरीटेरी नहीं। हथियार तक पहँुच हर उस शख्स की थी जिसके पास उस फ्लैट की चाबी थी। अवसर के खाते में जो बात मुलजिमा पर लागू होती है, वो हर फैमिली मेम्बर पर लागू होती है। कथित तौर पर मुलजिमा ने वो कार्विंग नाइफ—आलायकत्ल—वारदात को अंजाम देने के लिये अपने ब्वायफ्रेंड को मुहैया कराया। योर ऑनर, इसी लाइन आफ रिजनिंग पर ये क्यों नहीं कहा जा सकता कि ये काम किसी फैमिली मेम्बर ने किया—आलायकत्ल अपने एंगेज्ड सुपारी किलर को मुहैया कराया! मैं ये नहीं कहता—बिल्कुल नहीं कहता—कि किसी फैमिली मेम्बर ने ऐसा किया, मैं सिर्फ इस बात पर जोर देना चाहता हूँ कि कोई चाहता तो ऐसा कर बराबर सकता था। बाकी रहा ‘उद्देश्य’ तो उस के सिलसिले में मैं फिर गवाह से मुखातिब होना चाहता हूँ। आलोक जी, मैं आप पर कोई इलजाम नहीं लगा रहा, असलियत की तह तक पहँुचने के लिये महज एक सवाल कर रहा हूँ। डिफेंस को ऐसी स्ट्रांग इंडीकेशन है कि गुरुवार चौदह तारीख को शाम सात बजे कोई मिस्टीरियस विजिटर तुलसी चैम्बर्स में आपके पिता के आवास पर पहँुचा था। मेरा आप से सीधा सवाल है, क्या वो विजिटर आप थे?’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘उस रोज शाम सात बजे आप कहां थे?’’
‘‘अपने होटल में था और अपनी नौकरी के सिलसिले में एक शख्स से मिल रहा था। मैं उस शख्स को पेश कर सकता हूँ। मैं उसे अभी फोन कर के यहाँ तलब कर सकता हूँ। बल्कि मैं आपको उसका मोबाइल नम्बर बताता हूँ, आप खुद ऐसा कीजिये, ताकि आप को तसल्ली रहे कि मैं ने उसको कुछ सिखा पढ़ा नहीं दिया ।’’
‘‘पहले से सिखाया पढ़ाया हो?’’
‘‘मेरे को नहीं मालूम था यहाँ मेरे से क्या पूछा जाने वाला था। नहीं मालूम था मुझे अपने किस खास वक्त की, किस खास एक्शन की, किस खास मूवमेंट की कोई गवाही पेश करनी पड़नी थी ।’’
‘‘शायद आप ठीक कह रहे हैं...’’
‘‘शायद की कोई गुजायश नहीं, मैं यकीनी तौर पर ठीक कह रहा हूँ ।’’
‘‘...अब एक आखिरी सवाल। आपकी माली हालत कैसी है?’’
‘अच्छी है। कम्फर्टेबल है ।’’
‘‘किसी तरह का कोई मानीटेरी प्रेशर आप पर नहीं?’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘किसी एकमुश्त बड़ी रकम की दरकार नहीं?’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘ऐसी, कि समझते हों कि जो मालदार बाप से ही हासिल हो सकती थी?’’
‘‘मेरी कभी कोई ऐसी जरूरत नहीं बनी ।’’
‘‘खुदा न खास्ता बनती तो कहाँ जाते?’’
‘‘ये भी कोई पूछने की बात है! पापा के पास जाता ।’’
‘‘पिता से कभी कोई माली मदद हासिल न हुई?’’
‘‘हुई। कई बार हुई ।’’
‘‘बड़ी रकम वाली?’’
‘‘वो भी एक बार हुई। जब इंगलैंड में सैटल होना था। घर बनाना था। घर बसाना था।’’
‘‘कितनी?’’
‘‘पच्चीस हजार पाउन्ड ।’’
‘‘यानी कोई बीस लाख रुपया?’’
‘‘हाँ। और वो भी ऐसा इंतजाम किया कि रकम मुझे मानचेस्टर में मिली ।’’
‘‘यू हैड ए जनरस फादर ।’’
‘‘नो डाउट। आई मिस हिम आलरेडी। आई वुड लव टु किल हिज किलर’’—उसने आग्नेय नेत्रों से सुष्मिता की तरफ देखा—‘‘विद माई बेयर हैंड्स ।’’
‘‘मुझे इस गवाह से और कुछ नहीं पूछना ।’’
जीतसिंह को होटल में कमरा चौथी मंजिल पर मिला था।
वहाँ पहँुचते ही उसने छटी मंजिल का चक्कर लगाया था और पाया था कि छ: सौ पाँच फ्लोर के मिडल में था। वो आधुनिक, रेटिड होटल था जिस का दरवाजा की-कार्ड से खुलता था। वो बात उस के लिये सेट बैक थी लेकिन कमरे में दाखिला पाने की एक स्कीम उसके जेहन में थी।
परदेसी को वहाँ वो साथ लेकर आया था। वो अच्छी पर्सनैलिटी वाला, आदतन साफ सुथरा रहने वाला शख्स था इसलिये वो भीतर लॉबी में मौजूद था। गाइलो होटल के आयरन गेट के बाहर अपनी टैक्सी में बैठा हुआ था। उसने टैक्सी का हुड उठाया हुआ था जिससे लगता कि टैक्सी खराब थी ताकि कोई पैसेंजर आ के उसे चल देने को न बोलता।
दोनों राजाराम को पहचानते थे और दोनों को वहाँ एक ही काम था :
राजाराम के वहाँ पहँुचते ही जीतसिंह को खबर करना—खबरदार करना।
दस बजे जीतसिंह ने अपने फ्लोर पर हाउसकीपिंग की ट्राली घूमती देखी। मेड की ड्रेस पहने एक युवती कमरा-दर-कमरा फिरती लिनन, टावल्स बदल रही थी और रूम को, बाथरूम को संवार रही थी।
जीतसिंह ने एक ब्रीफकेस सम्भाला और चुपचाप कमरे से बाहर निकल आया।
साइलेंसर लगी गन फिलहाल ब्रीफकेस में थी।
सीढ़ियों के रास्ते वो छटी मंजिल पर पहँुचा।
ट्राली छ: सौ चार के आगे खड़ी थी।
वो प्रतीक्षा करता रहा।
उस दौरान कोई और कदम सीढ़ियों पर न पड़े अलबत्ता लिफ्ट की आवाजाही जारी रही।
आखिर मेड ने अपने मास्टर की-कार्ड से छ: सौ पाँच नम्बर का दरवाजा खोला। वो भीतर दाखिल हुई, कुछ क्षण बाद इस्तेमालशुदा शीट्स, गिलाफ, तौलिये सम्भाले बाहर निकली, उसने वो सब सामान एक हैम्पर के हवाले किया और नयी शीट्स वगैरह लेकर वापिस कमरे में गयी।
जीतसिंह ने कुछ क्षण इन्तजार किया और फिर सन्तुलित कदमों से चलता आगे बढ़ा।
उस घड़ी वो अपना वो काला सूट पहने था जो कभी उसे इन्स्पेक्टर गोविलकर मरहूम ने दिलाया था और चमड़े के ब्रीफकेस की जुगलबन्दी में उस में वो कोई बिजनेस एग्जीक्यूटिव जान पड़ रहा था। बड़े व्यस्त भाव से हाथ में की-कार्ड थामे हौले-होले सीटी बजाता वो छ: सौ पाँच में दाखिल हुआ। मेड उस घड़ी सिरहाने पर गिलास चढ़ा रही थी।
‘‘हल्लो!’’—बिना उस पर ठीक से निगाह डाले वो मधुर स्वर में बोला—‘‘गुड मार्निंग।’’
मेड ने उसके एक हाथ में की-कार्ड देखा तो सहज ही उसने सोच लिया कि वो उस रूम का आकूपेंट था। रोज मेड बदलती थीं, रोज आकूपेंट बदलते थे, ऊपर से उन का फेरा अमूमन आकूपेंट्स की गैरहाजिरी में लगता था, लिहाजा जो अधिकारपूर्ण एन्ट्री ले, वही आकूपेंट।
उसके होंठ स्वयमेव मुस्कराहट में फैले और वो मधुर स्वर में बोली—‘‘गुड मार्निंग, सर ।’’
उसने अपना ब्रीफकेस सोफे पर फेंका। कोट उतार कर उसके ऊपर उछाला और टाई ढीली करता सोफाचेयर पर ढेर हो गया।
‘‘ब्रेकफास्ट ज्यादा हो गया ।’’—जीतसिंह सहज भाव से बोला—‘‘थोड़ा रैस्ट करने को लौटा ।’’
वो मुस्कराई—जैसे जानती हो ब्रेकफास्ट ज्यादा हो जाना आम बात थी, क्योंकि चार्ज नहीं होता था, रूम रैंट में शामिल होता था।
‘‘मैं तुम्हारे काम में रुकावट तो नहीं?’’
‘‘नो, सर ।’’
‘‘है तो बाहर जाता है!’’
‘‘नाट एट आल, सर। मैं बस पाँच मिनट में फारिग, फिर आप आराम से रैस्ट कीजिये ।’’
‘‘यस। थैंक्यू ।’’
पाँच मिनट में मेड वहाँ से रुखसत हो गयी।
अब राजाराम के रूम का दरवाजा खुला था और जीतसिंह भीतर था।
सब ठीक चल रहा था—सिवाय एक सस्पेंस के :
राजाराम लौटेगा?
इन्तजार ही उस सवाल का जवाब था।
अगला गवाह दूसरा बेटा अशोक चंगुलानी था।
सरकारी वकील भुवनेश दीक्षित ने उस से भी तकरीब वही सवाल पूछे जो वो पहले बड़े बेटे से पूछ चुका था। उन सवालों से स्थापित हुआ कि वो भी नौ साल से इंगलैंड में था और लन्दन के बे़जवाटर नाम के इलाके में ‘टेस्ट आफ इण्डिया’ नाम का रेस्टोरेंट चलाता था। वहीं उसने एक लोकल ब्रिटिश लड़की से शादी की थी लेकिन शादी चल नहीं पायी थी, डेढ़ साल बाद तलाक हो गया था और तब से वो फिर सिंगल था।
मुलजिमा के बैग की तलाशी में दस लाख रुपये और नीलम की एक बेशकीमती अँगूठी की बरामदी की उसने भी तसदीक की। मुलजिमा मकतूल की विवाहिता बीवी थी, इस बात की उसने भी पुरजोर मुखालफत की।
‘‘योर विटनेस ।’’—आखिर सरकारी वकील गुंजन शाह से बोला।
‘‘थैंक्यू ।’’—शाह उठता हुआ बोला, फिर वो गवाह से मुखातिब हुआ—‘‘सब से पहले मेरा आप से भी यही सवाल हैं, इण्डिया आते रहते हैं?’’
‘‘मेरा भी आलोक वाला ही जवाब है ।’’—गवाह बोला—‘‘अमूमन नहीं। मैं तो अपने केटरिंगके बिजनेस में आलोक से भी ज्यादा बिजी हूँ। इण्डिया आने के लिये—लन्दन से बाहर कहीं भी जाने के लिये—रेस्टोरेंट बन्द करना पड़ता है, मैं अफोर्ड नहीं कर सकता ।’’
‘‘मौजूदा विजिट से पहले मुम्बई आप कब आये थे?’’
‘‘तभी जब आलोक आया था। तीन साल पहले ।’’
‘‘उसके साथ?’’
‘‘जी हाँ ।’’
‘‘मुम्बई आना हो तो आप दोनों भाई हमेशा ऐसे ही आते हैं? इकट्ठे? एक साथ?’’
‘‘नहीं। जरूरी नहीं। लेकिन तब इकट्ठे सफर करने का इत्तफाक हुआ था ।’’
‘‘आप इस बात की तसदीक करते हैं कि तुलसी चैम्बर्स वाले आप के पापा के फ्लैट की चाबी आप के पास भी है?’’
‘‘जी हाँ। पापा ने जब चाबी सब को दी तो मेरे को भी दी ।’’
‘‘हाउसहोल्ड में मौजूद फैंसी, कीमती एक्सक्लूसिव कटलरी सैट से भी वाकिफ हैं?’’
‘‘जी हाँ ।’’
‘‘उसके हर नग से?’’
‘‘जी हाँ ।’’
‘‘फिर तो जानते होंगे कि छुरी, कांटों, चम्मचों के अलावा उसमें एक गोश्त काटने वाली छुरी भी थी?’’
‘‘जी हाँ, जानता हूँ ।’’
‘‘वो छुरी सैट में से गायब है!’’
‘‘मैंने सुना है ऐसा ।’’
‘‘इसलिये गायब है कि वही छुरी आलायकत्ल थी, वही कत्ल के मौकायवारदात पर पाई गयी थी?’’
‘‘पुलिस का ऐसा ही खयाल है!’’
‘‘आपका अपना क्या खयाल है?’’
‘‘वही थी ।’’
‘‘वही थी या वैसी थी?’’
‘‘अगर पुलिस कहती है, वहीं थी तो वही थी; कहती है वैसी थी तो वैसी थी ।’’
‘‘लेकिन ज्यादा सम्भावना वही होने की है क्योंकि हाउसहोल्ड के खास कटलरी सैट में से वो खास छुरी गायब है!’’
‘‘जी हाँ ।’’
‘‘वो छुरी आपने वहाँ से गायब की थी?’’
‘‘आब्जेक्शन, योर ऑनर ।’’—सरकारी वकील ने तुरन्त एतराज किया—‘‘दिस इज...’’
‘‘मुझे जबाव देने से कोई ऐतराज नहीं ।’’—गवाह बोला।
‘‘सवाल आपके ऐतराज का नहीं है, सवाल इस बात का है कि डिफेंस का सवाल नाजायज है ।’’
‘‘अब्जेक्शन सस्टेंड ।’’—जज बोला।
‘‘आप जानते हैं’’—शाह ने नया सवाल किया—‘‘सुपारी किलर कौन होता है?’’
‘‘जी हाँ, जानता हूँ। ये इधर की, मुम्बईया टर्म है जिसका मतलब है पैसा देकर किराये का कातिल एंगेज करना ।’’
‘‘कैसे वाकिफ हैं आप इस टर्म से? कभी एंगेज किया सुपारी किलर? सुपारी दी कभी?’’
सरकारी वकील ने आब्जेक्शन के लिये मँुह खोला लेकिन गवाह पहले ही जवाब दे चुका था, इसलिये खामोश हो गया।
‘‘नहीं ।’’—गवाह बोला—‘‘मैं इस टर्म से इसलिये वाकिफ हूँ क्योंकि मूल रूप से मुम्बई का रहने वाला हूँ। इंगलैंड माइग्रेट करने से पहले के इक्कीस साल मैंने इसी शहर में गुजारे हैं ।’’
‘‘लिहाजा आपकी मौजूदा उम्र तीस साल है क्योंकि आपने फरमाया कि नौ साल से आप लन्दन में हैं!’’
‘‘जी हाँ ।’’
‘‘वैल सैटल्ड हैं? वैल फाइनांस्ड हैं?’’
‘‘क्या मतलब?’’
‘‘कोई माली दुश्वारी नहीं?’’
‘‘क्यों पूछते हैं?’’
‘‘सुना है आपकी तलाकशुदा बीवी ने डाइवोर्स सैटलमेंट में आपकी अच्छी चमड़ी उधेड़ी थी!’’
‘‘आब्जेक्टिड!’’—सरकारी वकील बोला—‘‘दिस इज अज्युमिंग दि फैक्ट नाट इन ईवीडेंस...’’
‘‘कौन सा फैक्ट इन ईवाडेंस नहीं है?’’—शाह चिड़ कर बोला—‘‘डाईवोर्स इन ईवीडेंस नहीं है? सैटलमैंट इन ईवीडेंस नहीं है? या इनका डाइवोर्सी वाला स्टेटस इन ईवाडेंस नहीं है?’’
‘‘...फरदर, डिफेंस शुड यूज सिविल लैग्वेंज वाइल इनटैरोगेिंटग विटनेस। ‘चमड़ी उधेड़ी’ या ‘अच्छी चमड़ी उधेड़ी’ इ़ज नाट ए सिविल लैंग्वेज ।’’
‘‘आई विल करैक्ट माईसैल्फ। अशोक जी, क्या ये सच नहीं है कि डाइवोर्स आपके लिये मेजर फाइनांशल सैट बैक था?’’
‘‘सच है ।’’
‘‘तलाक के बाद से किसी हद तक आपका आर्थिक पतन शुरू हुआ?’’
‘‘ऐसी ऊँच नीच किसी के साथ भी हो सकती है ।’’
‘‘आपके साथ ज्यादा हुई क्योंकि आप का बे़जवाटर का रेस्टोरेंट ‘टेस्ट आफ इण्डिया’ भी प्रॉफिट में नहीं चल रहा!’’
‘‘आपको क्या मालूम!’’
‘‘मेरी मालूमात का जो जरिया है, उसको आप पर उजागर करना मेरे लिये जरूरी नहीं। आई डोंट हैव टू रिवील माई सोर्स आफ इनफर्मेशन। अगर मेरी जानकारी गलत है तो मेरा मँुह पकड़िये—ये मुहावरा है मिस्टर दीक्षित, इसे भी अनसिविल लैंग्वेज करार न देने लगियेगा—अगर जो मैंने कहा है वो सच है तो हामी भरिये। अब जवाब दीजिये, आपके रेस्टोरेंट की बिजनेस के लिहाज से क्या पोजीशन है? वो मुनाफा कमा रहा है या एक अरसे से नुकसान में जा रहा है?’’
‘‘नुकसान में जा रहा है। लेकिन मैं फिर कहता हूँ, ऊँच नीच किसी भी कारोबार में हो सकती है। ऊँच नीच किसी के साथ भी हो सकती है ।’’
‘‘आप के साथ ऊँच कम है, नीच ज्यादा है, जिसकी एक और भी वजह है ।’’
‘‘और वजह?’’
‘‘आप गेम्बलर हैं ।’’
‘‘जी!’’
‘‘जुआ खेलते हैं ।’’
‘‘आब्जेक्टिड, योर ऑनर ।’’—सरकारी वकील उछल कर खड़ा हुआ—‘‘दिस इज ग्रेव इनसिनुएशन। दिस इज कैरेक्टर असासीनेशन। ये एक गैरजिम्मेदाराना तोहमत है जो इरादतन, शरारतन, विटेनस पर लगाई जा रही है ।’’
‘‘मिस्टर शाह’’—जज बोला—‘‘आप इस कान्टैक्स्ट में कुछ कहना चाहते है?’’
‘‘बहुत कुछ कहना चाहता हूँ योन ऑनर, अगरचे कि आप सुनने की जहमत फरमायें। मेरे बयान के न इरादे में कोई नुक्स है, न उसमें शरारत का कोई एलीमेंट है। ये मेरे पास एक प्रमाणिक रिपोर्ट है जो कि लन्दन की एक रजिस्टर्ड, इन्टरनेशनल प्राइवेट इनवैस्टिगेशन एजेन्सी ने जारी की है, जिसका सब्जेक्ट गवाह अशोक चंगुलानी, सन आफ पुससूमल चंगुलानी एज्ड थर्टी, प्रेसेंट रेजीडेंट आफ बे़जवाटर, लन्दन, है। ये रिपोर्ट प्रमाणिक तौर पर कहती है कि गवाह कम्पल्सिव गेम्बलर है, और गेम्बिंलग डेब्ट्स के तौर पर इस पर थोड़ा बहुत नहीं, छ: लाख पौंड का कर्जा है जो कि इण्डियन करेन्सी में पाँच करोड़ रुपया होता है ।’’
अदालत में सन्नाटा छा गया।
उस रहस्योद्घाटन ने गवाह के चेहरे का रंग उड़ा दिया, वो बेचैनी से पहलू बदलने लगा और बार-बार थूक निगलने लगा।
‘‘अब गवाह या तो इस बात को नकार कर दिखाये या फिर इस की हामी भरे, तसदीक करे ।’’
‘‘योर ऑनर’’—सरकारी वकील ने तीव्र प्रतिवाद किया—‘‘अगर ऐसा है भी तो मैं पूछता हूँ इसकी रेलेवेंस क्या है? गवाह मालदार है या कड़का है, फाइनांशल डिजास्टर है या फाइनांशियली वैल आफ है, कर्जाई है या नहीं है, इस बात का मौजूदा केस से क्या रिश्ता है?’’
‘‘बराबर रिश्ता है। पूरा पूरा रिश्ता है। मिस्टर पब्लिक प्रासीक्यूटर ने पिछली गवाही के दौरान अपनी फैंसी स्पीच में खुद कत्ल के उद्देश्य को हाईलाइट किया है कि वो मानीटैरी है, आर्थिक है, माली है, मोटा माल हथियाने के लिये उसे अंजाम दिया गया। माल हथियाने की नापाक कोशिश का इलजाम जैसे बकौल सरकारी वकील साहब, मुलजिमा पर आयद होता है, वैसे इस गवाह पर क्यों आयद नहीं होता जिसके सिर पर इतनी बड़ी देनदारी सवार है। अगर कत्ल की वजह ग्रीड हो सकती है तो नीड क्यों नहीं हो सकती? लन्दन की प्राइवेट इनवैस्टिगेशन एजेन्सी की इस रिपोर्ट में अभी ये तक दर्ज है कि लन्दन के जिस कैसीनो का ये गवाह कर्जाई है, उसके मालिकान ने वसूली के लिये इसके पीछे एनफोर्सर्स लगाये हुए हैं, जो अपने काम को अंजाम देने के लिये डिफाल्टर्स के हाथ-पाँव तोड़ देते हैं, उन्हें जान से मार देते हैं, वो गुम होने की कोशिश करें तो उन्हें पाताल से ढूँढ़ निकालते हैं। ऐसे मकड़जाल में फंसा मकड़ा, आप खुद विचार कीजिये, योर ऑनर, कि क्या नहीं कर सकता! किस हद तक नहीं पहँुच सकता! जब जान पर बनी हो तो जान बचाने के लिये जान लेने पर उतारू हो जाना क्या बड़ी बात है!’’
‘‘डिफेंस अटर्नी का बयान हवा हवाई है, योर ऑनर, और इसके अलावा कुछ नहीं है। कोई बेटा अपने बाप का कत्ल नहीं कर सकता ।’’
‘‘आपको क्या पता! कहीं गजट में छपा है! किसी कानून की किताब में दर्ज है! कभी कोई अखबार उठा के देखिये। रोज ऐसी खूनी वारदात होती हैं, नालायक, नाशुक्री औलाद एक बाप का क्या, सारे कुनबे का सफाया करती देखी पायी गयी है। आये दिन ऐसे वाकयात होते हैं जहाँ बेटा बाप का गला काटता है, भाई भाई का पेट फाड़ता है, क्या नया रह गया है इसमें! और फिर सौ बातों की एक बात ये है कि मैंने एक सम्भावना व्यक्त की है बस। मैंने कभी नहीं कहा कि गवाह ने अपने पिता का कत्ल किया या बाजरिया सुपारी किलर करवाया है, मैंने सिर्फ इतना कहा है कि ऐसा एक एक्सट्रीम स्टैप उठाने का तगड़ा, पहले से तैयारशुदा, उद्देश्य गवाह के पास उपलब्ध है। अगर सरकारी वकील साहब अपने ढंग से एक उद्देश्य को परिभाषित करके मेरे क्लायन्ट को क्रॉस पर टाँग सकते हैं तो मैं उससे कहीं तगड़े उद्देश्य को हाईलाइट करके कठघरे में खड़े गवाह की तरफ इलजाम लगाती उँगली क्यों नहीं उठा सकता जबकि मेरे पास गवाह के खिलाफ अभी और भी एम्यूनीशन है!’’
‘‘अभी और भी है?’’—सरकारी वकील के मँुह से निकला।
गवाह भी हकबकाया सा शाह का मँुह देखने लगा और बार-बार होंठों पर जुबान फेरने लगा।
‘‘जी हाँ। मुझे आगे बढ़ने दें तो पेश करूँ!’’
‘‘पब्लिक प्रासीक्यूटर मिस्टर दीक्षित से मेरा अनुरोध है’’—जज बोला—‘‘कि थोड़े अरसे के लिये वो अपनी आब्जेक्शंस को लगाम दें और मिस्टर शाह को अपनी बात मुकम्मल करने का मौका दें ।’’
‘‘यस, योर ऑनर ।’’—सरकारी वकील बोला—‘‘आफ कोर्स, योर ऑनर ।’’
‘‘थैंक्यू, योर ऑनर ।’’—शाह बोला, उसने अपने कागजात उलटे पलटे और उन में से तलाश करके एक शीट हाथ में थामी—‘‘योर ऑनर, ये एक स्टेटमेंट है, एक वर्तालाप की ट्रांस्क्रिप्शन है जो गुरुवार, चौदह तारीख को शाम सात बजे तुलसी चैम्बर्स में हत्प्राण पुरसूमल चंगुलानी के आवास पर पहँुचे एक मिस्टीरियस, सीक्रेट, विजिटर और हत्प्राण के बीच हुआ। वार्तालाप का एक श्रोता था जिसकी आगंतुक मेहमान को खबर नहीं थी, मेजबान को श्रोता की घर में मौजूदगी की खबर थी लेकिन ये खबर नहीं थी कि श्रोता जहाँ था, वहाँ वार्तालाप की आवाजें पहँुच रही थीं। ये वार्तालाप उस वक्त और तारीख के काफी बाद शुक्रवार बाईस तारीख को तहरीरी तौर पर कागज पर उतारा गया था। मेरे पास श्रोता की खुद अपने हाथ से लिखी मूल प्रतिलिपि भी है लेकिन ये उसकी कम्प्यूटर जनरेटिज ट्रांस्क्रिप्ट है जो कि मैं गवाह को पढ़ने के लिये सौंपना चाहता हूँ ।’’
‘‘ये कायदे के खिलाफ है ।’’—सरकारी वकील बोला—‘‘ऐसी ट्रांस्क्रिप्ट पहले कोर्ट के अवलोकनार्थ पेश की जानी चाहिये ।’’
‘‘मेरे पास कोर्ट के लिये भी कापी है, आप के लिये भी है। यूँ सामूहिक अवलोकन होगा तो समय की बचत होगी ।’’
कापियाँ कोर्ट क्लर्क को पेश की गयीं जो कि उसने आगे वितरित कीं।
उस दौरान—पाँच मिनट—कोर्ट की कार्यवाही गतिशून्य रही। तदोपरान्त शाह गवाह से सम्बोधित हुआ।
‘‘आपने’’—वो गम्भीरता से बोला—‘‘तहरीर पढ़ी?’’
‘‘एक मिनट ।’’—तत्काल सरकारी वकील उठ कर खड़ा हुआ—‘‘एक मिनट। मैं नहीं समझता कि इस तहरीर के सिलसिले में गवाह को किसी जवाबदारी की जरूरत है। इसको गवाह की जवाबतलबी का जरिया बनाने से पहले डिफेंस को इसकी प्रमाणिकता स्थापित करनी होगी ।’’
‘‘मैंने ने बोला न’’—शाह अप्रसन्न भाव से बोला—‘‘कि मेरे पास श्रोता की खुद अपने हाथ से लिखी मूल प्रतिलिपि है जो कि मैं पेश करने को तैयार हूँ ।’’
‘‘मूल प्रतिलिपि को भी प्रमाणिकता की जरूरत है। आप खुद कैसी भी टैक्स्ट तैयार कर लें, उस पर किसी खास सन्दर्भ का टैग लगा कर अदालत में पेश कर दें तो ऐसा तो नहीं हो सकता न! ऐसा तो नहीं होने दिया जा सकता न!’’
‘‘दिस इज प्रीपोस्चरस!’’—शाह भड़का—‘‘आप डिफेंस पर इलजाम लगा रहे हैं कि डिफेंस ने एक फर्जी स्क्रिप्ट तैयार कर ली!’’
‘‘नहीं ।’’—सरकारी वकील धीरज से बोला—‘‘मैं महज एक सम्भावना व्यक्त कर रहा हूँ कि ऐसा हो सकता है। ऐसा हुआ है या नहीं, ये जुदा मसला है। मेरा जोर इस बात पर है कि ऐसा हो सकता है। आई रिपीट, ऐसा हो सकता है ।’’
‘‘इसलिये क्या होना चाहिये?’’
‘‘इस टैक्स्ट के लेखक को इस की अन्डर ओथ प्रमाणिकता स्थापित करने के लिये कठघरे में पेश किया जाना चाहिये। आपको ऐसा करने के लिये टाइम दरकार होगा इसलिये मैं कोर्ट से प्रार्थना करता हूँ कि इस मुकदमे की कार्यवाही को आइन्दा किसी तारीख के लिये मुल्तवी किया जाये और तब तक मुलजिमा को पुलिस कस्टडी में रखे जाने का हुक्म सुनाया जाये ।’’
‘‘योर ऑनर, मैं सरकारी वकील साहब की कोर्ट से इस प्रार्थना की पुरजोर मुखालफत करता हूँ ।’’
‘‘क्यों?’’—सरकारी वकील ने हैरानी जाहिर की—‘‘मैं आपकी सहूलियत के लिये...’’
‘‘मेरी सहूलियत प्रासीक्यूशन की नवाजिश की मोहताज नहीं ।’’
‘‘लेकिन उस कथित श्रोता को पेश करने के लिये आप को टाइम तो चाहिये होगा!’’
‘‘नहीं चाहिये। क्योंकि श्रोता अभी, यहीं, इस अदालत में मौजूद है ।’’
‘‘अच्छा!’’
‘‘अच्छा बुरा नहीं मालूम मुझे। लेकिन ये हकीकत है ।’’
‘‘कौन है वो?’’
‘‘जो अभी कटघरे में पेश होगा। मैं गवाह से दरख्वास्त करता हूँ कि वो थोड़ी देर के लिये कटघरा छोड़ दे ताकि मैं दूसरे गवाह को पेश कर सकूँ। मिस्टर अशोक, प्लीज स्टैप डाउन ।’’
अशोक चंगुलानी कठघरे से निकल कर परे जा खड़ा हुआ।
‘‘इस स्क्रिप्ट की लेखिका कृपया आकर कटघरे में खड़ी हों और शपथ ग्रहण करें ।’’
सुष्मिता उठ कर खड़ी हुई।
‘‘ये है वो कथित श्रोता!’’—सरकारी वकील हैरानी से बोला।
‘‘हाँ ।’’—शाह बोला—‘‘कोई एतराज?’’
‘‘मुझे नहीं मालूम था कि...’’
‘‘नो प्राब्लम। अज्ञान को वरदान कहा गया है। आप खुशकिस्मत हैं, मिस्टर दीक्षित, जो आपको वरदान हासिल है ।’’
‘‘मिस्टर शाह’’—जज बोला—‘‘प्लीज, रिफ्रेन फ्राम पर्सनैलिटीज ।’’
‘‘आई बैग युअर पार्डन, योर ऑनर। अब मेरी दरख्वास्त है कि इस गवाह को कटघरे में आने को बोला जाये और शपथ दिलवाई जाये ।’’
दोनों काम हुए।
‘‘आप इस तहरीर से वाकिफ हैं?’’—शाह ने पूछा।
‘‘जी हाँ ।’’—सुष्मिता बोली।
‘‘कैसे वाकिफ हैं?’’
‘‘इस शीट पर जो कुछ भी दर्ज है, वो सब मैंने लिखा है। ये मेरा हैण्डराइिंटग है ।’’
‘‘ये आप की तहरीर की कम्प्यूटर जनरेटिड ट्रांस्क्रिप्ट है, बरायमेहरबानी मिलान करके देखिये कि दोनों में कोई फर्क है!’’
गवाह ने उस काम में पाँच मिनट लगाये।
‘‘कोई फर्क नहीं ।’’—फिर बोला।
‘‘आप सन्तुष्ट हैं कि जो कुछ ओरीजनल में दर्ज है, वही टाइपशुदा कापी में दर्ज है?’’
‘‘जी हाँ ।’’
‘‘गुरुवार चौदह तारीख को शाम सात बजे तुलसी चैम्बर्स में जो कुछ आपने सुना, ये उसकी कम्पलीट ट्रांस्क्रिप्ट है?’’
‘‘मैं ऐसा कोई दावा नहीं कर सकती। ये जो कुछ मैंने लिखा था, उस शाम के आठ दिन बाद लिखा था। इतने में बहुत मुमकिन है कुछ बातें मुझे भूल गयी हों ।’’
‘‘लिहाजा जो वार्तालाप उस शाम हुआ, वो मुकम्मल इसमें दर्ज नहीं, कम है?’’
‘‘मुकम्मल दर्ज तो हाथ के हाथ लिखने पर नहीं हो सकता, सर। टेप रिकार्डर का काम इंसानी याददाश्त कैसे कर सकती है!’’
‘‘वैरी वैल सैड। लिहाजा कम है!’’
‘‘जी हाँ, मेरे खयाल से तो ऐसा ही है ।’’
‘‘कोई इजाफा?’’
‘‘इजाफा क्या?’’
‘‘मूल वार्तालाप से ज्यादा हो सकती है आपकी तहरीर?’’
‘‘हरगिज नहीं। कम हो सकती है, ज्यादा नहीं हो सकती ।’’
‘‘दोनों डाकूमेंट्स को एंडोर्स कीजिये ।’’
‘‘जी!’’
‘‘सत्यापित कीजिये। दोनों पर अपने साइन कीजिये और तारीख डालिये ।’’
गवाह ने वैसा किया।
‘‘मिस्टर दीक्षित, अब आप सन्तुष्ट हैं कि अब कायदे के खिलाफ कुछ नहीं! अब प्रोसीजर की लाज रह गयी है?’’
‘‘जी हाँ ।’’—सरकारी वकील तल्ख लहजे से बोला—‘‘मेहरबानी है आपकी ।’’
‘‘आप गवाह से कुछ पूछना चाहते हैं?’’
‘‘जी, नहीं ।’’
‘‘थैंक्यू। मैडम, आप कटघरा छोड़ दीजिये और पिछले गवाह अशोक चंगुलानी को वापिस कटघरे में दाखिल होने दीजिये ।’’
अशोक चंगुलानी कटघरे में लौटा।
‘‘यू आर आलरेडी अन्डर ओथ, सो वुई कैन प्रोसीड ।’’
गवाह चुप रहा।
‘‘इस ट्रांस्क्रिप्ट को गौर से पढ़िये ।’’
उसने निर्देश का पालन किया।
‘‘अब जवाब दीजिये उस शाम तुलसी चैम्बर्स में स्थित अपने पिता के फ्लैट के कथित मिस्ट्री विजिटर आप थे?’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘सोच कर जवाब दीजिये। सच्चा जवाब दीजिये ।’’
‘‘सोच कर ही दिया है। सच्चा जवाब देने क लिये सोचना नहीं पड़ता, वो खुद-ब-खुद मँुह से निकलता है ।’’
‘‘इस तहरीर की हर बात आप की हालिया माली दुश्वारी की तरफ, फौरन कहीं से पैसा हासिल हो पाने की आपकी तलब की तरफ इशारा करती है ।’’
‘‘करती होगी...’’
‘‘करती है ।’’
‘‘ठीक है, करती है। लेकिन, जैसा कि आपने फरमाया, इशारा ही करती है न, कील ठोक कर अशोक चंगुलानी को तो सिंगल आउट नहीं करती!’’
‘‘कील ठोक कर नहीं करती लेकिन करती तो है!’’
‘‘कैसे करती है?’’
‘‘आपने थोड़ी देर पहले, इसी जगह खड़े होकर खुद अपनी जुबानी फरमाया कि कारोबार में ऊँच नीच किसी के साथ भी हो सकती है। ऐन यही फिकरा मिस्ट्री विजिटर की जुबानी उचरा गया इस तहरीर में भी दर्ज है ।’’
‘‘इत्तफाक है। ‘कारोबार में ऊँच नीच’ पर मेरा कापीराइट नहीं है ।’’
‘‘मकतूल ने विजिटर को इमोशनल ब्लैकमेलर ठहराया। इमोशनल ब्लैकमेल कोई अपना ही करता है ।’’
‘‘अपना मैं अकेला नही ।’’
‘‘इतनी बड़ी माली प्राब्लम और किसी की नहीं। पाँच करोड़ का देनदार और कोई नहीं ।’’
‘‘इत्तफाक है ।’’
‘‘सारे इत्तफाक आपके साथ ही होते हैं?’’
‘‘औरों के साथ भी होते हैं लेकिन सिंगल आउट आप मुझे कर रहे हैं ।’’
‘‘इस तहरीर के मुताबिक आप पहले भी बहुत बार अपने पिता से माली इमदाद हासिल कर चुके हैं...’’
‘‘ये वकीलों वाला पैंतरा है। आप मुझे जुबान दे रहे हैं। पहले ही ये मान के चल रहे हैं कि इस तहरीर का मिस्ट्री विजिटर मैं था। मैं फिर, फिर और फिर कहता हूँ कि मैं नहीं था ।’’
‘‘आप को कभी अपने पिता से कोई माली इमदाद हासिल न हुई?’’
‘‘हुई। कई बार हुई। माँ बाप का काम होता है आशीर्वाद देना। वो जुबानी भी होता है, माली भी होता है ।’’
‘‘जब ऐसी इमदाद पहले कई बार हासिल कर चुके हैं तो इस बार पिता का खयाल न आया?’’
‘‘आया। बराबर आया। लेकिन अपनी पोल खोलना, अपनी खास कमजोरी उजागर करना मंजूर न हुआ ।’’
‘‘मतलब?’’
‘‘पहले जब कभी भी मुझे पिता से माली इमदाद हासिल हुई, या जाती, समाजी जरूरतों के तहत हुई या कारोबार के लिये हुई। मेरे पर जुए का कर्जा था। किस मँुह से मैं पिता के सामने खड़े होकर कबूल करता कि मैं कम्पलसिव गेम्बलर था!’’
‘‘आप कहते हैं एनफोर्सस आपके पीछे हैं जो सब्जेक्ट को लूला लंगड़ा कर देते हैं, जान से मार देते हैं। ऐसी ‘मरता क्या न करता’ की स्थिति में भी आपको पिता की शरण में जाने से गुरेज था?’’
‘‘नहीं। मैं झूठ नहीं बोलूँगा, ये कदम उठाने के लिये मैं हिम्मत इकट्ठी कर रहा था। लेकिन जब तक वो नौबत आती, तब तक...तब तक...’’
उसका गला रुंध गया।
‘‘ट्रांस्क्रिप्ट में आपके पिता ने मिस्ट्री विजिटर को प्रोफेशनल बारोअर कहा। यानी आदतन माँग खड़ी करते रहने वाला बोला। आप ऐसे माँग खड़ी करते थे?’’
‘‘नहीं, कभी नहीं। मुझे पापा से जो माली इमदाद गाहे बगाहे हासिल हुई, उसकी बाबत कई बार तो मैंने अपनी जुबानी जिक्र भी नहीं किया था। आलोक को मेरी प्राब्लम की खबर होती थी और वो आगे पापा को खबर करता था और पापा बिना मेरे से पूछे’’—उसका गला फिर रुंध गया, आँखें सजल हो उठीं—‘‘बिना मेरी जुबान खुलवाये मेरी मदद करते थे। वकील साहब, लानत है आप पर जो आप समझते है कि मैं ऐसे देवतास्वरूप पिता का कत्ल कर सकता था ।’’
गवाह हिचकियां लेकर रोने लगा, उसकी आँखों से आँसुओं की गंगा जमना बह निकलीं।
कोर्ट में सन्नाटा छा गया।
कुछ क्षण खामोशी रही।
आखिर गवाह ने अपने जज्बात पर काबू किया और भर्राये कण्ठ से बोला—‘‘मैं शार्मिंदा हँ कि जज्बात की रौ में बह गया, बद्जुबानी कर बैठा, मैं आप से दिल से माफी माँगता हूँ ।’’
‘‘नैवर माइन्ड ।’’—शाह सहानुभूतिपूर्ण स्वर में बोला।
‘‘वकील साहब, इस ट्रांस्क्रिप्ट के सन्दर्भ में आपने इतनी बातें मेरे से कहीं, मेरे सिर थोपी, मुझे कोई एतराज नहीं, सिर्फ एक बात मेरे को कहने दीजिये, फरियाद के तौर पर कहने दीजिये—मैं आज तक अपने पिता के साथ बेअदबी से पेश नहीं आया, कितनी भी तल्खी हो, तुर्शी हो, खयालात में नाइत्तफाकी हो, कभी बेअदबी नहीं की। मैंने आज तक पिता को ‘ओल्डमैन’ कह कर नहीं पुकारा। इस वाहियात, इंसल्ंिटग सम्बोधन का कभी खयाल तक न आया। मिस्ट्री विजिटर ने पापा को ‘ओल्डमैन’ कह कर पुकारा, यही काफी सबूत है कि वो शख्स मैं नहीं था ।’’
‘‘तो कौन था?’’
‘‘मुझे नहीं मालूम ।’’
‘‘अपना कोई अन्दाजा बताइये!’’
‘‘नो!’’
‘‘चलिये, अब हम ये मान के चलते है कि इस ट्रांस्क्रिप्ट में दर्ज मिस्ट्री विजिटर आप नहीं थे...’’
‘‘थैंक्यू ।’’
‘‘...अब आप ये बताइये कि उस विजिट वाले दिन, यानी गुरुवार चौदह तारीख शाम को, आप कहाँ थे?’’
‘‘कहाँ था! दो हफ्ते पहले की बात आज याद करूँ?’’
‘‘जरूरी है। आप ही के हित में है। जब आप एक जगह नहीं थे तो किसी दूसरी जगह थे। एक जगह होने की जिम्मेदारी से बचने का बेहतरीन तरीका है आप ये बतायें कि वो दूसरी जगह कौन सी थी जहाँ कि आप थे!’’
उसके चेहरे पर अनिश्चय के भाव आये।
‘‘मैं आपको अन्धेरे में नहीं रखना चाहता ।’’—शाह फिर अपने कागजात में उलझा—‘‘ये एक स्थापित तथ्य है कि आप गुरुवार रात ग्यारह बजे की ब्रिटिश एयरवेज की मुम्बई-लन्दन फ्लाइट पर बुक थे। इसका क्या साफ, निर्विवाद ये मतलब नहीं कि उस रोज आप मुम्बई में थे?’’
वो खामोश रहा।
‘‘इस बात की भी दूसरे सिरे से तसदीक हुर्ह है कि जब उस फ्लाइट ने लन्दन, हीथ्रो एयरपोर्ट पर लैंड किया था, तब आप पैसेंजर्स में नहीं थे। वो नानस्टाप फ्लाइट थी इसलिये ये नहीं कहा जा सकता था कि आप इन बिटविन कहीं उतर गये थे। ब्रिटिश एयरवेज की उस फ्लाइट के रिकार्ड में आपकी सीट ‘नो शो’ दर्ज थी। यानी आप ने चैक इन नहीं किया था, बोर्डिंग पास हासिल नहीं किया था, फ्लाइट नहीं पकड़ी थी। यानी इस बात की पूरी-पूरी सम्भावना है कि गुरुवार रात ग्यारह बजे के बाद भी आप मुम्बई में ही थे। अब जवाब दीजिये!’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘क्या हाँ?’’
‘‘मैं तब मुम्बई में था ।’’
‘‘आये कब थे?’’
‘‘दो दिन पहले। मंगलवार सुबह ।’’
‘‘आमद की वजह?’’
वो फिर हिचकिचाया।
‘‘सोशल?’’—शाह पूर्ववत् जिद्भरे स्वर में बोला।
‘‘नहीं ।’’
‘‘कारोबारी?’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘तो!’’
‘‘लन्दन में मेरी जान को खतरा था। उस खतरे से दो चार होने की कोई जुगत करने के लिये यूँ समझिये कि मैं कुछ अरसे के लिये वहाँ से चुपचाप खिसक गया था ।’’
‘‘किस से जान को खतरा था?’’
‘‘कैसीनो के एनफोर्सर्स से। जो मैं लन्दन में टिका रहता तो यकीनी तौर पर मुझे जान से मार डालते ।’’
‘‘उन लोगों ने आप के खिलाफ यही कदम पहले क्यों न उठाया? देनदारी पाँच करोड़ तक क्यों पहँुच जाने दी?’’
‘‘क्योंकि मैं साहिबेजयादाद होने का भ्रम बनाये था। बे़जवाटर, लन्दन में जिस इमारत में मेरा रेस्टोरेंट था, मैं उसको अपनी मिल्कियत बताता था। मैंने उस इमारत के अपने नाम नकली कागजात तैयार किये हुए थे जिनको मैंने कैसीनो वालों को सौंपा हुआ था, जिनको कागजात पर कोई शक नहीं हुआ था और जो मुझे जेनुइन लैंडलार्ड समझते थे। उस इमारत की मार्केट प्राइस छ: लाख पाउण्ड से कहीं ज्यादा थी इसलिये उन्हें मेरे बढ़ते क्रेडिट से कोई परेशानी नहीं थी। क्रेडिट जब छ: लाख पौंड पर पहँुच गया तो उनका माथा ठनका, उन्होंने कागजात की बारीक छानबीन करवाई तो पता लगा वो जाली थे ।’’
‘‘आपने क्रेडिट इतना ऊँचा चला जाने दिया, आप को इस बाबत कोई अन्देशा नहीं था?’’
‘‘अन्देशा तो बराबर था लेकिन मैं हैबिचुअल गेम्बलर था और गेम्बलर्स लक पर भरोसा रखने वाला शख्स था। हमेशा सोचता था कि जुए में आज तकदीर पलटा खायेगी और मैं सब कवर कर लूँगा, रेस्टोरेंट आज चल पड़ेगा और मैं धीरे-धीरे कर्जा चुकाते चले जाने की पोजीशन में आ जाऊँगा। लेकिन तकदीर की मार कि कुछ भी न हुआ, तकदीर ने आखिर तक पलटा न खाया। आखिर में पोल खुली तो जैसे मेरे पर बिजली गिरी। मैं लन्दन में ही बना रहता तो वो लोग यकीनन मुझे मार डालते, क्योंकि कर्जा चुकाने का कोई जरिया तो मेरे पास था नहीं! मैं वक्त रहते लन्दन से न निकल गया होता तो वो मुझे निकलने भी न देते। वहाँ एक बार पकड़ा जाता तो टेम्स नदी में मेरी लाश तैरती पायी जाना महज वक्त की बात होता ।’’
‘‘आई सी। मंगलवार सुबह मुम्बई पहँुचने के बाद आपने क्या किया? आगे एजेन्डा क्या था आपका?’’
‘‘मैं पापा पर अपनी दुश्वारी उजागर करना चाहता था। एयरपोर्ट से सीधा मैं लेमिंगटन रोड उनके डिपार्टमेंट स्टोर पर गया था। वहाँ से मुझे मालूम हुआ था कि पापा किसी जरूरी काम से अलीबाग गये थे और रात तक लौट कर नहीं आने वाले थे। ये भी सम्भावना बताई गयी कि शायद न भी लौटते। तब रातगुजारी के लिये तुलसी चैम्बर्स जाने की जगह मुझे होटल में जाना बेहतर लगा। अगले रोज मैंने डिपार्टमेंट स्टोर से पता किया तो मालूम पड़ा कि लौट तो वो आये हुए थे लेकिन स्टोर पर आते ही कल्याण चले गये थे और लौटने के बारे में बोल कर गये थे कि वापिस स्टोर पर आने की जगह घर ही जायेंगे। तब दोपहर के करीब मैं कोलाबा पहँुचा। तुलसी चैम्बर्स जा कर मैंने फ्लैट की कॉलबैल बजाई तो कोई जवाब न मिला। तब अपनी चाबी से मेनडोर खोल कर मैं भीतर दाखिल हुआ...’’
‘‘फ्लैट में उन दिनों कोई और भी रहता था, इसकी आप को खबर थी?’’
वो फिर हिचकिचाया।
‘‘जवाब दीजिये!’’
‘‘खबर थी। खबर थी कि मुलजिमा वहाँ रहती थी लेकिन किस हैसियत से रहती थी, इस बात की खबर नहीं थी। बीवी वाली बात का तो हमें खयाल तक नहीं आया था। पहले मेहमान समझा था, फिर पापा के कत्...के साथ जो बीती, उसे सुन कर मुम्बई आये तो पता लगा कि लिव-इन कम्पैनियन थी ।’’
‘‘आगे?’’
‘‘फ्लैट पर तब वो नहीं थी। फ्लैट खाली था, वहाँ कोई नहीं था। वहाँ उस घड़ी खाली पड़े फ्लैट में मुझे कुछ शान्ति महसूस हुई थी, कुछ सुकून हासिल हुआ था। तब मेरे मन में खयाल आया था कि पापा के रूबरू होकर अपनी मुसीबत का रोना-रोने से बेहतर था कि मैं तमाम माजरा एक चिट्ठी में दर्ज करता और चिट्ठी वहाँ पापा के लिये छोड़ कर वापिस होटल में मुकाम पाता। पापा मेरे पर तरस खाते तो मुझे बुला लेते वर्ना जो मेरे साथ बीतती, मैं भुगतता ।’’
‘‘तो आपने चिट्ठी लिखी?’’
‘‘नौबत ही न आयी। कागज कलम लेकर बैठा ही था कि कालबैल बज उठी। मैंने सोचा मुलजिमा लौट आयी थी। जाकर मेनडोर खोला तो प्राण काँप गये। साक्षात यमराज की तरह मेरे सामने कैसीनो का एनफोर्सर खड़ा था ।’’
‘‘मुम्बई पहँुच गया!’’
‘‘तुलसी चैम्बर्स पहँुच गया। कितना नादान था मैं जो सोचे बैठा था कि थोड़े किये उन्हें मेरी खबर नहीं लगने वाली थी। तब मुझे पता लगा कि यूं ही मशहूर नहीं था कि कैसीनो के एकफोर्सर अपने सब्जेक्ट को पाताल से खोद निकालते थे ।’’
‘‘आप जानते थे उस शख्स को?’’
‘‘जी हाँ। अच्छी तरह से। उसका नाम आर्थर िंफच था। साढ़े छ: फुट से निकलते कद वाला, इतने लम्बे चौड़े जिस्म वाला शख्स था कि मैं उसके सामने सर्कस का बौना जोकर जान पड़ता था। वो कितना शक्तिशाली था, इसका अन्दाजा आप इससे लगा सकते हैं कि एक हाथ से थाम कर, बांह फैला कर वो मुझे जमीन से फुट ऊँचा उठा लेता था जबकि मेरा वजन अस्सी किलो है। दरवाजे पर उसने मुझे यूं ही थामा और पांव की ठोकर से पीछे दरवाजा बन्द करता मुझे भीतर ले के आया। भीतर मुझे हैरानी हुई कि उसने मुझे पटक न दिया, ले जा कर सोफे पर डाला। तब उसने मुझे बताया कि वो मेरी उधर की बैकग्राउण्ड की पूरी पड़ताल करके आया था और उसे मालूम था मेरा बाप फिल्दी रिच लोकल ट्रेडर था। इसी बात ने उसे वक्ती तौर पर पिघलाया था वर्ना वो जरूर मेरे हाथ पाँव तोड़ कर ही जाता। मैंने उससे झूठ बोला कि मैं रकम का इन्तजाम करने ही एकाएक मुम्बई आया था और गुरुवार की रात की वापिसी की मेरी टिकट बुक थी ।’’
‘‘थी?’’
‘‘आप को मालूम है थी। मैंने टिकट निकलवा ली थी लेकिन फिलहाल मेरा वापिसी का कोई इरादा नहीं था। उस टिकट को मैंने उसको गुमराह करने के लिये इस्तेमाल किया, उसे टिकट दिखा कर मैं बोला कि शुक्रवार दोपहर तक मैं यकीनी तौर पर रकम के साथ उसे कैसीनो में मिलूँगा। पापा की माली हैसियत की पड़ताल वो करके आया था, घर का वैभव देख कर उसे और भी यकीन हो गया कि बाजारिया पापा मैं रकम का इन्तजाम कर सकता था। नतीजतन मुझे आखिरी बार धमका कर वो वहाँ से चला गया ।’’
‘‘धमका कर?’’
‘‘जी हाँ। लेकिन मँुह जुबानी नहीं, जैसे कि अमूमन धमकाया जाता है। मेरे पिता की सम्पन्नता की नयी बात उसकी जानकारी में न आई होती तो धमकी की क्या शक्ल होती, मुझे बाकायदा समझा कर गया, उसका नमूना दे कर गया ।’’
‘‘क्या नमूना?’’
एकाएक गवाह ने अपनी शर्ट को अपनी पतलून में से खींचा और उसके दोनों सिरे पकड़ कर उसे सिर से ऊँचा किया। कोर्ट में ये देख कर सनसनी फैल गयी कि उसके सारे जिस्म पर मार के निशान थे और दार्इं ओर की पसलियों पर टेप चढ़ा हुआ था।
‘‘ये नमूना ।’’—वो कातर भाव से बोला—‘‘लोहे के बक्कल वाली बैल्ट से धुना। तीन पसलियाँ तोड़ दीं। मार के ऐसे ही निशान जांघों और नितम्बों पर भी हैं जो मैं दिखा नहीं सकता...’’
‘‘ये भी न दिखाइये ।’’—जज सख्ती से बोला—‘‘कमीज नीची कीजिये ।’’
गवाह ने आदेश का पालन किया।
‘‘जाती बार मुझे खास तौर से जता के गया ।’’—फिर बोला—‘‘कि ये लिहाज था कि उसने शक्ल का वैसा हाल नहीं किया था और कोई हड्डी नहीं तोड़ी थी ।’’
‘‘फिर?’’—शाह ने पूछा।
‘‘मेरी हालात बद् थी लेकिन मैं हस्पताल नहीं जा सकता था क्योंकि वो लोग मुझे मैडिकोलीगल केस बना देते जो कि मेरी परेशानी का बायस होता। बड़ी मुश्किल से मैं अपने होटल लौटा जहाँ मैंने दावा किया कि सीढ़ियों से गिर गया। होटल का अपना मैडीकल आफिसर था जिसने मुझे फस्र्ट एड दिया, मेरी टूटी पसलियाँ टेप कीं और कुछ ओरल मैडीसिंस दीं। मेरी माननीय जज साहब से और जनाबेहाजरीन से दरख्वास्त है कि अब आप लोग खुद फैसला करें कि क्या मैं अगले दिन फिर अपने पिता के फ्लैट पर पहँुचा हो सकता था! क्या मैं डिफेंस अटर्नी साहब का बयान किया तुलसी चैम्बर्स का गुरुवार शाम का मिस्ट्री विजिटर हो सकता था!’’
कोर्ट कई तरह की कानाफूसी से जीवन्त हुआ।
‘‘मैं ने फ्लोर वेटर्स, रूम सर्विस स्टाफ और फ्रन्ट डैस्क की सक्रिय मदद से होटल में ऐसा भ्रम बनाये रखने का इन्तजाम किया हुआ था कि मैं अपने कमरे में नहीं था, तभी मैं मुकम्मल आराम पा सकता था और आर्थर फिंच की, या उस जैसे किसी दूसरे राक्षस की, नयी विजिट से बचा रह सकता था। मैंने उससे वादा किया था कि शुक्रवार दोपहरबाद मैं रकम के साथ कैसीनो पहुँचूँगा, शुक्रवार को ये खबर उसे मुम्बई में ही मिल सकती थी कि ऐसा नहीं हुआ था, मैं कैसीनो नहीं पहँुचा था, मैं लन्दन ही नहीं पहँुचा था। फिर वो नये तरीके से मेरी तलाश करता तो मेरा अंजाम पहले से कहीं बुरा होता ।’’
गवाह एक क्षण ठिठका और फिर बोला—‘‘शनिवार रात को मुझे अपने पिता की खबर लग गयी थी लेकिन मैं जा कर उनके सिरहाने नहीं खड़ा हो सकता था। तब अभी न फिजीकली ये काम मेरे लिये मुमकिन था और न मेरी अक्ल गवाही दे रही थी कि मैं होटल से अकेले बाहर कदम रखूँ। इतवार सुबह मैं किसी तरह तुलसी चैम्बर्स पहँुचा और ये जाहिर करता फैमिली में शामिल हुआ कि तभी लन्दन से लौटा था। फैमिली के साथ जुड़े रहने पर मेरे को आर्थर िंफच से भी खतरा नहीं था क्योंकि मैं जानता था इतने लोगों के सामने वो मेरे पर हाथ नहीं डाल सकता था ।’’
‘‘वो शख्स—आर्थर िंफच—अब कहाँ है?’’
‘‘मुझे नहीं मालूम। लेकिन होगा मुम्बई में ही। एक ही तो काम है उसे मुम्बई में! मुझे जब भी अकेला पायेगा, बाज की तरह झपटेगा ।’’
‘‘योर ऑनर’’—शाह जज से सम्बोधित हुआ—‘‘मेरी प्रार्थना है कि कोर्ट संज्ञान ले कि इस शख्स के साथ फौजदारी हुई है और अभी और, पहले से ज्यादा गम्भीर, फौजदारी होने का अन्देशा है। इन हालात की रू में कथित आर्थर फिंच के खिलाफ इरादायेकत्ल की धारा के तहत केस दर्ज किया जाना बनता है। मेरी कोर्ट से प्रार्थना है कि उस शख्स को हिरासत में लिये जाने का हुक्म जारी किया जाये और उसके एकाएक मुल्क छोड़ जाने की कोशिश पर पाबन्दी लगाई जाये ।’’
‘‘अदालत पुलिस को एफआईआर दर्ज करने का हुक्म सुनाती है और एफआईआर के तहत आगामी कार्यवाही जल्द-अज-जल्द करने का हुक्म सुनाती है ।’’
‘‘थैंक्यू योर ऑनर ।’’
‘‘डिफेंस ने इस गवाह से और कुछ पूछना है?’’
‘‘नो, योर ऑनर। यू मे स्टेप डाउन, मिस्टर अशोक चंगुलानी ।’’
‘‘इट इज नाओ अप्रोचिंग लंच आवर ।’’—जज बोला—‘‘दि कोर्ट इज एडजंर्ड टिल टू पीएम ।’’
डेढ़ बजे के करीब जीतसिंह के मोबाइल की घण्टी बजी।
‘‘आ रहा है ।’’— उसे गाइलो की सस्पेंसभरी आवाज सुनाई दी।
‘‘साथ क्या ला रहा है?’’—इन्तजार से आजिज आते जा रहे जीतसिंह ने सतर्क भाव से पूछा।
‘‘सूटकेस ।’’
‘‘दो?’’
‘‘एक ।’’
एक सूटकेस! एक में तो इतनी बड़ी रकम नहीं आ सकती थी!
क्या माजरा था!
बाकी कहाँ छोड़ आया!
या सारी ही छोड़ आया, और सूटकेस बस सूटकेस ही था!
‘‘ठीक है ।’’
जीतसिंह ने मेड के जाते ही हाथों पर स्किन कलर के लेटेक्स रबड़ के दस्ताने चढ़ा लिये थे ताकि कहीं िंफगरप्रिंट्स न छूटते। उसने ब्रीफकेस में से साइलेंसर लगी रिवाल्वर निकाल कर हाथ में ले ली और कुर्सी पर सम्भल कर बैठ गया। खुला ब्रीफकेस उसने अपनी गोद में यूं रख लिया कि रिवाल्वर ढक्कन की ओट में आ जाती।
मोबाइल की घण्टी बजी।
‘‘आ रहा है ।’’—परदेसी बोला—‘‘लिफ्ट में सवार हो रहा है ।’’
‘‘ठीक ।’’
उसके कहने पर मेड तमाम बत्तियाँ बुझा के गयी थी इसलिये कमरे में नीमअन्धेरा था।
कमरे का दरवाजा खुला।
एक हाथ में सूटकेस—जो उसके उठाने के ढंग से ही लगता था बहुत भारी था—उठाये उसने भीतर कदम रखा, घूम कर अपने पीछे दरवाजा बन्द किया, दरवाजे के पास ही मेन स्विच का काम करने वाला स्लॉट था जिसमें उसने की-कार्ड डाला, कोई रोशनी न जली तो सकपकाया, फिर उसे एसी की ह-म-म की मद्धम आवाज सुनाई दी तो वो और सकपकाया।
एसी पहले से कैसे चल रहा था!
इससे पहले कि उस विसंगति का कोई अर्थ वो निकाल पाता, उसे पर्दा पड़ी खिड़की के पास सोफाचेयर पर बैठा जीतसिंह दिखाई दिया।
उसके हाथ से सूटकेस छूटते-छूटते बचा।
‘‘छोड़ने का नही ।’’—जीतसिंह सहज स्वर में बोला—‘‘हाथ में ही रखने का ।’’
‘‘क्-क्या!’’
‘‘सूटकेस। दूसरा हाथ मेरे को दिखाई देता रहे वर्ना गोली ।’’
‘‘ग-गोली!’’
जीतसिंह ने खाली हाथ से ब्रीफकेस का ढक्कन गिराया।
राजाराम के नेत्र फैले।
‘‘वैसीच है। खानसामा ढेर माडल। क्या!’’
राजाराम के गले की घण्टी उछली।
‘‘इ-इधर कैसे पहँुच गया!’’—वो बोला।
‘‘दरवाजा खुला था। भीतर आ के बैठा न अपने पार्टनर के रूम में!’’
‘‘प-पता कैसे जाना?’’
‘‘बड़ा आदमी है, भीड़ू, तू। छापे में पढ़ा। छापे में पढ़ा कि द़गाबाज, यारमार लोखण्डे इधर रहता था ।’’
राजाराम ने अपने सूखे होंठों पर जुबानफेरी।
अभी कोई और सवाल न हो तो मैं कुछ पूछे?’’
‘‘क्-क्या!’’
‘‘इधर बॉडीगार्ड नहीं माँगता?’’
‘‘न-नहीं ।’’
‘‘काहे को?’’
‘‘वो...बोले तो...होटल की सिक्योरिटी है न!’’
‘‘किसी काम तो न आयी!’’
उसने बेचैनी से पहलू बदला।
‘‘बाकी माल किधर रखा?’’
‘‘ब-बाकी माल?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘कहीं नहीं। बस, यही हाथ आया ।’’
‘‘बंडल!’’
‘‘भागते वक्त तेरी बॉडी के धक्के से सेफ का पल्ला बन्द हो गया था। सेफ में आटोमैटिक लॉक था। बन्द हो गयी। मैं तो वापिस नहीं खोल सकता था! जो रकम बाहर थी, वो इस सूटकेस में बन्द है ।’’
‘‘खानसामे का हिस्सा?’’
‘‘हाँ। आधा-आधा कर लेते हैं ।’’
‘‘अरे, मेरे हाथ में गन है, तू मेरे कब्जे में है। कुछ तो लिहाज कर ।’’
‘‘त-तो...तो...तू बोल ।’’
‘‘जीरो-पूरा कर लेते हैं ।’’
‘‘क्या!’’
‘‘जमा वो चन्द सांसें जो अभी बाकी हैं। वो भी मेरे को माँगता है। अभी ।’’
जीतसिंह ने गन का ट्रीगर खींचा।
लंच के बाद का पहला गवाह मरहूम की शादीशुदा बेटी शोभा अटलानी थी। सरकारी वकील ने उस से रूटीन सवाल पूछे जिन के दौरान गवाह ने तसदीक की कि पिता की मौत की खबर सुन कर आनन-फानन अगले रोज सुबह वो कोलकाता से मुम्बई पहँुची थी। मुलजिमा सुष्मिता के बैग की तलाशी उसके सामने हुई थी और उसके सामने उसमें से उसके स्वर्गवासी पिता की बेशकीमती अँगूठी और दस लाख रुपये बरामद हुए थे। घर में मौजूद फैंसी कटलरी सैट से वो बाखूबी वाकिफ थी। वो इस बात से भी वाकिफ थी उस सैट में से एक छुरी गायब थी और पुलिस ने इस बात की पूरी-पूरी सम्भावना व्यक्त की थी कि वही छुरी आलायकत्ल थी।
‘‘योर विटनेस ।’’—सरकारी वकील बोला।
शाह ने सहमति में सिर हिलाया। अपने स्थान से उठने से पहले कुछ क्षण वो अपलक गवाह को देखता रहा।
गवाह विचलित हो कर परे देखने लगी।
आखिर शाह उठा और गवाह के कठघरे पर पहँुचा।
‘‘आप के भाई साहबान’’—वो बोला—‘‘इंगलैंड में रहते हैं। कम्यूनीकेशन की क्या पोजीशन है?’’
‘‘फोन पर बात होती रहती है ।’’—गवाह बोली।
‘‘अक्सर?’’
‘‘अक्सर तो नहीं!’’
‘‘कभी किसी ने माली इमदाद की माँग की?’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘खास तौर से छोटे भाई ने?’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘पिता की मौत की खबर सुन कर इतवार सुबह मुम्बई आयीं?’’
‘‘जी हाँ ।’’
‘‘बच्चों के साथ?’’
‘‘जी नहीं। बच्चों को दादी के पास छोड़ कर ।’’
‘‘पति के साथ?’’
खामोशी छा गयी।
‘‘जवाब दीजिये। याद रखिये आप शपथ ग्रहण करके बयान दे रही हैं ।’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘अकेली आयीं?’’
‘‘जी हाँ ।’’
‘‘पति कहां थे?’’
‘‘सोमवार ग्यारह तारीख को मुम्बई और आगे पूना गये थे। इतवार सत्तरह तारीख की सुबह को मुझे तुलसी चैम्बर्स पिता के घर पर मिले थे, बीच में कहाँ थे, मुझे नहीं मालूम ।’’
‘‘आपकी राय में कत्ल के लिये मुलजिमा जिम्मेदार है?’’
‘‘बिलाशक ।’’
‘‘थैंक्यू। यू मे स्टेप डाउन ।’’
शोभा कटघरे में निकली और जा कर अपने परिवार के साथ बैठ गयी।
‘‘योर आनर’’—शाह बोला—‘‘यहाँ मैं डिफेंस विटनेस के तौर पर मैडम के पति लेखूमल अटलानी को तलब करना चाहता हूँ ।’’
‘‘आब्जेक्शन, योर ऑनर, मिस्टर अटलानी इज विटनेस फार प्रासीक्यूशन ।’’
‘‘ऐसा कोई रूल मेरी जानकारी में नहीं है कि प्रासीक्यूशन विटनेस को डिफेंस विटनेस के तौर पर तलब नहीं किया जा सकता ।’’
‘‘आप तलब करेंगे तो उसका दर्जा होस्टाइल विटनेस का होगा ।’’
‘‘मुझे कोई एतराज नहीं ।’’
‘‘ठीक है ।’’
‘‘मिस्टर अटलानी मे टेक दि स्टैण्ड ।’’—जज बोला।
अटलानी सालों के पास से उठा और जा कर गवाह के कटघरे में खड़ा हुआ।
कोर्ट क्लर्क उसके करीब पहँुचा।
‘‘गीता पर हाथ रख कर कहिये’’—क्लर्क लाल कपड़े में लिपटी गीता उसके सामने करता बोला—‘‘कि जो कहूँगा सच कहूँगा, सच के सिवाय कुछ नहीं कहूँगा ।’’
गवाह ने निर्देश का पालन किया।
‘‘योर ऑनर’’—शाह बोला—‘‘एज प्वायन्टिड आउट बाई प्रासीक्यूशन, दिस इज ए होस्टाइल विटनेस, सो आई विल हैव टु आस्क लीिंडग क्वेश्चंस ।’’
जज ने सहमति में सिर हिलाया।
‘‘मिस्टर अटलानी’’—शाह गवाह से सम्बोधित हुआ—‘‘आप चंगुलानी फैमिली के दामाद हैं, मकतूल की इकलौती बेटी के पति हैं, इस लिहाज से आप का दर्जा फैमिली मेम्बर का ही हुआ!’’
‘‘हुआ तो सही!’’—गवाह सहज भाव से बोला।
‘‘इस लिहाज से मकतूल का तुलसी चैम्बर्स वाला फ्लैट आप का भी घर हुआ!’’
‘‘जी हाँ ।’’
‘‘उसकी चाबी आप के पास भी है?’’
‘‘शोभा के पास है ।’’
‘‘लिहाजा पति पत्नी को एक ही चाबी मुहैया कराई गयी!’’
‘‘जी हाँ ।’’
‘‘जब आप मुम्बई में थे तो चाबी शोभा के पास—आपकी पत्नी के पास—थी?’’
‘‘मेरे पास थी। जब मैं मुम्बई के लिये रवाना हुआ था तो चाबी मैंने उस से ले ली थी ।’’
‘‘व्यवहारिक बात थी। चाबी मुम्बई में ही किसी काम की थी, कोलकाता में तो किसी काम की नहीं थी। नहीं?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘घर में एक फैंसी, कीमती, कटलरी सैट था जिसका कई बार अभी इस अदालत में जिक्र आया और जिस की बाबत गवाहों ने कबूल किया कि वो उसके वजूद से वाकिफ थे। आपकी क्या पोजीशन है?’’
‘‘मैं भी वाकिफ हूँ। मुझे कई बार वहाँ उस एक्सक्लूसिव कटलरी और वैसी ही एक्सक्लूसिव क्राकरी के साथ लंच, डिनर करने का मौका हासिल हुआ था ।’’
‘‘ग्रेट! आपने अभी अपनी पत्नी का बयान सुना?’’
‘‘जी हाँ ।’’
‘‘बकौल मैडम, आप सोमवार ग्यारह तारीख को मुम्बई आये थे और एयरपोर्ट से ही बाई रोड आगे पूना गये थे?’’
‘‘जी हाँ ।’’
‘‘कब लौटे थे?’’
‘‘बुधवार शाम को ।’’
‘‘उसके बाद?’’
‘‘उसके बाद क्या?’’
‘‘उसके बाद क्या शिड्यूल रहा था आप का?’’
‘‘उसके बाद क्या शिड्यूल रहना था! बुधवार शाम को मेरी वापिसी की फ्लाइट थी ।’’
‘‘उस ट्रिप में आप का जो काम था, पूना में था?’’
‘‘जी हाँ ।’’
‘‘मुम्बई में कोई काम नहीं था?’’
‘‘ऐसा ही था ।’’
‘‘लेकिन कोलकाता तो आप लौटे नहीं!’’
‘‘जी!’’
‘‘लगता है अपनी पत्नी के बयान की तरफ आपकी तवज्जो नहीं थी ।’’
‘‘क्या कहना चाहते हैं?’’
‘‘यही कि बकौल मिसेज अटलानी सोमवार ग्यारह तारीख को आप घर से निकले थे और इतवार सत्तरह तारीख की सुबह को, यानी अपने ससुर साहब की मौत के एक दिन बाद, पत्नी को उसके पिता के घर मिले थे, बीच में आप कहाँ थे, पत्नी ने कहा उसको नहीं मालूम। लिहाजा बुध और शनि के बीच आप कोलकाता अपने घर तो न हुए!’’
गवाह खामोश रहा।
‘‘आपने फरमाया आपकी बुधवार शाम की कोलकाता की फ्लाइट थी। वो फ्लाइट आपने पकड़ी तो कोलकाता पहँुच कर आप कहाँ गायब हो गये? घर न गये तो कहां गये?’’
‘‘आब्जेक्शन, योर ऑनर!’’—सरकारी वकील बोल—‘‘दिस इज ए लीिंडग क्वेश्चन ।’’
‘‘आफकोर्स इट इज। इट इज बिकाज आई समफेिंसग ए होस्टाइल विटनेस ।’’
‘‘ओवररूल्ड!’’—जज बोला।
‘‘जबाव दीजिये, मिस्टर अटलानी ।’’—शाह बोला।
गवाह खामोश रहा, उसकी शक्ल से साफ जाहिर हो रहा था कि उस से जवाब देते नहीं बन रहा था।
‘‘इजाजत दें तो मैं आपकी कोई मदद करूँ जवाब देने में?’’
गवाह की भवें उठीं।
‘‘बुधवार की अपनी वापिसी की फ्लाइट पर आपका बड़ा जोर है लेकिन ऐसा आपने एक बार भी नहीं कहा कि आपने वो फ्लाइट पकड़ी थी और उसे पकड़ कर कोलकाता गये थे। हकीकत ये है कि आपने अपनी टिकट एक्सटेंड करा ली थी। यानी आप कोलकाता नहीं गये थे। यानी तब से आप मुम्बई में ही हैं। हाँ या न में जवाब दीजिये!’’
बड़ी मुश्किल से उसका सिर सहमति में हिला।
‘‘अपनी हामी की रू में अब आप इस इलजाम से भी नहीं बच सकते कि गुरुवार शाम के तुलसी चैम्बर्स के मिस्ट्री विजिटर आप थे। नहीं थे तो कहिये आप नहीं थे ।’’
वो खामोश रहा।
‘‘मिस्टर अटलानी, आपकी खामोशी को आप की हामी तसलीम किया जायेगा ।’’
वो फिर भी खामोश रहा।
‘‘ये एक स्थापित तथ्य है—मामूली पूछताछ से जो स्थापित हो गया था—कि आप के होजियरी बिजनेस का फाइनांसर आप का ससुरा था। ओरीजिनल फाइनांिंसग के बावजूद आप गाहे बगाहे उस से माली इमदाद माँगते रहते थे। आप का ये रिकार्ड ही इस बात की तरफ मजबूत इशारा है कि गुरुवार चौदह तारीख शाम सात बजे के अपने ससुरे के घर के मिस्ट्री विजिटर आप थे। आप वो शख्स थे जिस को फटकार की तरह बोला गया था कि मकतूल पहले ही आपकी बहुत मदद कर चुका था। आप वो शख्स थे जिसने ससुरे से मदद माँगने को अपना कारोबार बना लिया हुआ था। आप वो शख्स थे जिसकी फैली झोली का कोई ओर छोर ही नहीं था। आप को ऐन दुरुस्त टाइटल से नवाजा गया था कि आप इमोशनल ब्लैकमेलर थे। ये आप का नारा था कि करोबार में ऊँच नीच किसी के साथ भी हो सकती है। कोई उद्यण्ड दामाद ही—जो कि आप थे—अपने ससुरे को ‘ओल्डमैन’ के इनसिंल्टग टाइटल में पुकार सकता था ।’’
‘‘इतने से मैं कातिल हो गया’’—गवाह एकाएक फट पड़ा—‘‘कि मैंने अपने ससुरे के साथ बद्जुबानी की!’’
‘‘लेख जी, ये सवाल कर के आप कबूल कर रहे हैं कि मिस्ट्री विजिटर आप थे ।’’
‘‘हाँ, मैं था। था मैं। लेकिन इतने से मैं कातिल कैसे साबित हो गया?’’
‘‘आखिर में जो धमकी जारी करके गये, वो और क्या कहती है? ‘एक बार तो आऊँगा, ओल्डमैन, ए बात तो आऊँगा’, क्या मतलब है इसका? ये पूछे जाने पर ‘क्या करने आओगे’ क्या मतलब है ये कहने का ‘मालूम पड़ेगा’? ये कोरी धमकी नहीं तो और क्या है? ससुरे ने आप को राय दी ‘किचन से छुरी ले कर आ और उसे मेरे कलेजे में उतार दे’, ये उस राय पर अमल करने का मंसूबा नहीं तो और क्या है?’’
‘‘योर ऑनर! योर ऑनर!’’—सरकारी वकील चिल्लाया—‘‘मिस्टर शाह इज क्रािंसग आल लिमिट्स। गवाह को बाकायदा धमकाया जा रहा है। उसे परेशान करके, हलकान कर के मजबूर किया जा रहा है कि वो इनका मनमाफिक जवाब दे। आई स्ट्रांगली आब्जेक्ट...’’
‘‘आब्जेक्ट करने से पहले’’—जज बोला—‘‘आप गवाह की एक बार शक्ल देख लें तो बेहतर होगा। देखें और महसूस करें कि जो बात जुबान नहीं कर रही है, वो गवाह की शक्ल पर लिखी साफ पढ़ी जा रही है ।’’
सरकारी वकील को झटका सा लगा। मँुह बाये उसने गवाह की तरफ देखा। तत्काल उसके चेहरे पर गहन वितृष्णा के भाव आये।
‘‘वकील साहब ने जो कुछ फरमाया’’—गवाह धीमे किन्तु सन्तुलित स्वर में बोला—‘‘मैं उसकी हामी भरता हैं, उन की हर तोहमत की तसदीक करता हूँ लेकिन कत्ल मैंने नहीं किया। ये जितना मर्जी हो हल्ला कर लें, जितने मर्जी थियेट्रिकल इफेक्ट्स पैदा कर लें, जितनी मर्जी अपनी पावर आफ ओरेटरी को धार दे लें, मुझे कातिल साबित नहीं कर पायेंगे—सात जन्म कातिल साबित नहीं कर पायेंगे क्योंकि कातिल मैं नहीं हूँ, नहीं हूँ, नहीं हूँ। मैं बद्जुबान हूँ, झगड़ालू हूँ, शरारती हूँ, खुन्दकी हूँ, लालची हूँ, इमोशनल ब्लैकमेलर हूँ, प्रोफेशनल बारोआर हूँ, और भी जो डिफेंस के वकील साहब कहें, सब हूँ, लेकिन कातिल नहीं हूँ। मैंने अपने ससुरे का कत्ल नहीं किया। कितनी भी इलजाम लगाती उंगलियाँ मेरी तरफ उठाई जायें, कितने भी पारिस्थितिजन्य सबूत मेरे खिलाफ खड़े किये जायें, यहाँ कठघरे में खड़ा करके कितना भी मुझे जलील किया जाये, कोई माई का लाल मुझे कातिल साबित नहीं कर सकता, क्योंकि कातिल मैं नहीं हूँ, क्योंकि मैने कत्ल नहीं किया। इसके सिवाय मुझे और कुछ नहीं कहना। अब मेरी जुबान को ताला है। खामोश रहने की बिना पर वकील साहब मुझे सूली पर चढ़वा सकते हैं तो मैं खुशी-खुशी सूली चढ़ने को तैयार हूँ। अब मैं खामोश हूँ ।’’
उसने इतने जोर से अपने जबड़े भींचे कि दान्तों के आपस में टकराने की आवाज कोर्ट में साफ सुनाई दी।
‘‘मुझे इस गवाह से और कुछ नहीं पूछना ।’’—शाह बोला।
जीतसिंह कमाठीपुरा पहँुचा।
मिश्री अपने घर पर मौजूद थी।
‘‘आ, रे’’—उसे देखते ही वो बोली—‘‘मेरे को तो तेरी फिक्र हो गयी थी ।’’
जीतसिंह मुस्कराया और सोफे पर उसके सामने बैठा। सूटकेस उसने सामने सेंटर टेबल पर रखा।
‘‘क्या हुआ?’’—मिश्री उत्सुक भाव से बोली।
‘‘रात जान जाते-जाते बची लेकिन आखिर जीत गया जीता। पहली बार जिन्दगी में नाम सार्थक हुआ ।’’
‘‘बढ़िया। अभी बोले तो क्या जीता जीता?’’
‘‘वही दिखाने आया हूँ ।’’
उसने सूटकेस का ढक्कन उठाया।
‘‘हाय, दैय्या!’’—मिश्री के मँुह से सिसकारी निकली, उसके नेत्र फैले—‘‘इतना पैसा!’’
जीतसिंह हौले से हँसा।
‘‘कि-कितना...कितना है?’’
‘‘सत्तर में एक कम ।’’
‘‘सत्तर करोड़ में!’’
‘‘पगली! सत्तर करोड़ इस सूटकेस में तो क्या, बोरे में भी नहीं आयेगा। लाख। सत्तर लाख में एक लाख कम। उनहत्तर लाख!’’
‘‘देवा! मेरे को क्यों दिखा रहा है?’’
‘‘तू जो चाहे ले ले ।’’
‘‘मैं जो चाहे ले लूँ?’’—उसके स्वर में स्पष्ट अविश्वास का पुट था।
‘‘हाँ ।’’
‘‘बोम तो नहीं मारता?’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘चाहे सब ले लूँ?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘मैं ले भी लूँगी!’’
‘‘वान्दा नहीं। पूरा रोकड़ा लाया किस लिये? मेरे मन में कोई भेद होता तो आधा लाता, एक चौथाई लाता, न ही लाता। बोलता, जीता कुछ न जीता। क्या!’’
वो रोने लगी।
‘‘काहे को!’’—जीतसिंह ने बड़े अनुराग से उसकी पीठ थपथपाई—‘‘काहे को रोती है?’’
‘‘ताजिन्दगी किसी मर्द ने मेरी कभी इतनी कद्र नहीं की। न धन्धे पर बैठने से पहले, न बाद में। जीते, कौन बोला तेरे को खोटा सिक्का? तू तो खरा सोना है, रे!’’
‘‘मैं!’’—जीतसिंह खोखली हँसी हँसा—‘‘सोना! खरा! क्या बात करती है! मैं साला चिंचपोकली के गटर का मैला...’’
‘‘फेंक नहीं, फेंक नहीं। तू वहीच है जो मैं बोली। जिस औरत ने तेरे से दगा किया, उसका नसीब फूटा था जो तू उसे हासिल न हुआ ।’’
‘‘होता तो अब तक कब की विधवा हो गयी होती। मैं साला मवाली! मवाली की जोरू विधवा ही मरती है ।’’
‘‘बोला न, फेंक नहीं। बकवास भी मत कर। तेरी तो चार घड़ी की सुहागन बनना भी फख्र की बात है, रे। उसी के नसीब में लोचा जो तेरे साथ धोखा किया। अच्छा होता फुंकने की जगह फूंक देता ।’’
जीतसिंह पहले ही इंकार में सिर हिलाने लगा।
‘‘जिस से मुहब्बत हो, उसका बुरा नहीं चाहा जाता ।’’—वो बोला।
‘‘साला ढक्कन! बोले तो तू किसी हमदर्दी के काबिल हैइच नहीं ।’’
‘‘है न! तभी तो इधर है ।’’
मिश्री ने उसे अपने अंक में भर लिया।
जीतसिंह ने एतराज न किया।
कुछ क्षण बाद मिश्री खुद ही उससे अलग हो गयी।
‘‘अभी बोल’’—जीतसिंह बोला—‘‘क्या बोलती है!’’
‘‘मेरे को कुछ नहीं माँगता ।’’—वो भर्राये कण्ठ से बोली—‘‘अभी मेरी कोई जरूरत नहीं अटकी हुई। जब अटके तो देना ।’’
‘‘वो तो होगा न बराबर, पण अभी...’’
‘‘नहीं माँगता ।’’
‘‘पण...’’
‘‘तू जिद करेगा तो मेरे को लगेगा मैं जो तेरा हैल्प किया तू उसकी फीस भरता है ।’’
‘‘अरे, नहीं! आपसदारी में कभी ऐसा होता है!’’
‘‘मानता है न नहीं होता!’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘तो क्यों जिद करता है? अभी मेरे को नहीं माँगता तेरा रोकड़ा। जब माँगता होयेंगा तो देना। अभी नक्की कर ।’’
‘‘ठीक है ।’’
अगला गवाह मीरा किशनानी थी।
सब को मालूम था कि उस का पति हीरानन्द किशनानी मुम्बई पुलिस हैडक्वार्टर में इन्स्पेक्टर की ड्यूटी करता था इसलिये हर कोई उससे और गवाहों से जुदा ही तरीके से पेश आ रहा था।
सरकारी वकील ने उससे रूटीन सवाल पूछे जिसके उसने रूटीन जवाब दिये। उसने कबूल किया कि वो सुष्मिता की सहेली थी और उसकी शादी से पहले से उसे जानती थी क्योंकि दोनों चार्टर्ड एकाउन्टेंट्स की एक ही फर्म में नौकरी करती थीं।
लेकिन सरकारी वकील का ज्यादा जोर उस गवाह के माध्यम से ये स्थापित करने पर था कि शादी से पहले सुष्मिता की जीतसिंह नाम के टपोरी, बेहैसियत शख्स से आशनाई थी जो कि चिंचपोकली में उसके पड़ोस में रहता था और ताला-चाबी का मामूली कारीगर था।
फिर उसने गवाह को डिफेंस के हवाले किया।
सँजीदासूरत गुंजन शाह सप्रयास उठ कर खड़ा हुआ।
‘‘योर ऑनर’’—वो बोला—‘‘गवाह को क्रासक्वेश्चन करने से पहले जरूरी है कि मैं मुलजिमा को फिर से एक बार कटघरे में बुलाऊँ ।’’
‘‘क्यों जरूरी है?’’—जज तनिक अप्रसन्न भाव से बोला।
‘‘क्योंकि उसकी अतिरिक्त गवाही के बिना प्रासीक्यूशन की इस धारणा को, बल्कि दावे को, नहीं नकारा जा सकता कि मुलजिमा की जीतसिंह नाम के टपोरी छोकरे से आशनाई थी ।’’
‘‘ये जीतसिंह वही शख्स है न जो अक्यूज्ड के साथ को-अक्यूज्ड है?’’
‘‘वही शख्स है, योर ऑनर। वो उपलब्ध होता तो मैं उसे गवाही के लिये बुलाता लेकिन मेरा काम उसके बिना भी हो सकता है क्योंकि आशनाई में दो जनों का दखल होता है और दूसरा जना मुलजिमा सुष्मिता को बताया जा रहा है ।’’
‘‘ओके। परमिशन ग्रान्टिड ।’’
सुष्मिता आकर कटघरे में खड़ी हुई।
‘‘आप शपथ ग्रहण पहले ही कर चुकी हैं इसलिये मैं सीधे अपने मुद्दे पर आता हूँ। आप जीतसिंह नाम के शख्स से वाकिफ हैं क्योंकि चिचंपोकली में वो आप के पड़ोस में रहता था?’’
‘‘जी हाँ ।’’
‘‘मामूली वाकफियत थी, दोस्ती थी या गहरी दोस्ती थी?’’
‘‘मामूली वाकफियत थी जो कि एक पड़ोसी की दूसरे पड़ोसी से होती है, जो कि मुहल्लेदारी में होनी आम, सहज, स्वाभाविक बात थी ।’’
‘‘दोस्ती से आगे और कुछ नहीं था?’’
‘‘और क्या?’’
‘मुहब्बत! अफेयर! सरकारी वकील साहब वाला लफ्ज इस्तेमाल करूँ तो आशनाई!’’
‘‘ऐसी कोई बात नहीं थी। थी तो मेरी तरफ से नहीं थी। जीतसिंह अच्छा लड़का था, मिलनसार था, बस्ती में सब लोग उसको पसन्द करते थे इसलिए हम दो बहनें उसको पसन्द करती थी। बस, और कोई बात नहीं थी। कम से कम मेरी तरफ से नहीं थी?’’
‘‘ऐसा आपने एक ही सांस में दूसरी बार कहा। तो किसकी तरफ से थी!’’
‘‘शायद उसकी तरफ से थी ।’’
‘‘शायद!’’
‘‘मैं शायद ही कह सकती हूँ। मैं उसके दिल में तो नहीं झांक सकती थी न, जो जान पाती कि उसके दिल में क्या था!’’—वो एक क्षण ठिठकी फिर संकोचपूर्ण स्वर में बोली—‘‘फिर भी कई बार मेरे को लगा था कि वो लड़का मेरे से एकतरफा मुहब्बत करता था ।’’
‘‘जिस में आपकी कोई पार्टीसिपेशन नहीं थी?’’
‘‘मेरी पार्टीसिपेशन होती तो वो एकतरफा मुहब्बत कैसे कहलाती!’’
‘‘कोई एनकरेजमेंट भी नहीं थी?’’
‘‘जी नहीं। वो बेमेल सिलसिला था जिसमें मेरी एनकरेजमेंट का कोई सवाल नहीं पैदा होता था। सच पूछें तो वो भी इस बात को जानता था, समझता था कि वो मेरे काबिल नहीं था। मेरे को लगता था कि बिना किसी हासिल की उम्मीद के वो अपनी एकतरफा मुहब्बत से खुश था जब कि बाखूबी जानता था कि उस एकतरफा मुहब्बत का कोई भविष्य नहीं था ।’’
‘‘कभी इजहार न किया?’’
‘‘जी नहीं ।’’
‘‘कभी कोई हिंट तक न छोड़ा?’’
‘‘जी नहीं ।’’
‘‘ऐसी मुहब्बत—जिसमें दूसरी तरफ से कोई पार्टीसिफेशन न हो, कोई एनकरेजमेंट न हो—तो कोई किसी से भी कर सकता है। मेरी उम्र तो नहीं है लेकिन मैं कैटरीना कैफ पर दिल रखने लगूँ, मन ही मन प्रियंका चोपड़ा की पूजा करने लगूं तो कैसे मेरी उस हरकत के लिये उन देवियों को जिम्मेदार ठहराया जायेगा जो कि मेरे जज्बात से वाकिफ भी नहीं होंगी! आपके केस में खाली इतना कहा जायेगा कि आप अन्दाजन, औना पौना दूसरी पार्टी के आपके लिये जज्बात से वाकिफ थीं लेकिन वो जज्बात, अनइनवाइटिड अटेंशन आप पर कोई बन्दिश नहीं थी। नो?’’
‘‘यस ।’’
‘‘ये प्वायन्ट नोट किया जाये, योर ऑनर, कि सरकारी वकील साहब का ये दावा गलत है, नाजायज है, बेबुनियाद है कि मुलजिमा की जीतसिंह नाम के किसी शख्स से आशनाई थी। ये मुलजिमा के चरित्र हनन की कोशिश है जिसकी डिफेंस पुरजोर मुखालफत करता है ।’’
‘‘आशनाई वाली बात’’—जज बोला—‘‘रिकार्ड से खारिज कर दी जाये ।’’
‘‘थैंक्यू, योर ऑनर! मैडम, यू मे स्टैप डाउन ।’’
कटघरे में सुष्मिता की जगह मीरा ने ली।
‘‘मैडम’’—शाह बोला—‘‘मेरा पहला सवाल ये है कि अभी भी आपका दावा है कि जीतसिंह मुलजिमा का आशिक था? जवाब ये सोच कर दीजियेगा कि आपके दावे को सिरे से नकारने के लिये एक पार्टी कोर्ट में हाजिर है। वो यकीनन आपका मँुह पकड़ेगी ।’’
‘‘एकतरफा आशिकी की तो आपने खुद हामी भरी है!’’
‘‘तो वो आशिकी एकतरफा थी?’’
‘‘आप कहते हैं तो...’’
‘‘आप क्या कहती है? ध्यान रखिये गवाह के कटघरे में आप हैं, मैं नहीं ।’’
‘‘हाँ, शायद एकतरफा ही थी ।’’
‘‘शायद!’’
‘‘अब मैं कोई गारन्टी तो जारी कर नहीं सकती!’’
‘‘मैडम, आप निहायत खूबसूरत हैं। माई काम्पलीमेंट्स टु यू ।’’
‘‘थैंक्यू ।’’—मीरा शुष्क स्वर में बोली।
‘‘आपके किसी नौजवान पड़ोसी का आप पर दिल आ जाये लेकिन अपने जज्बात का इजहार वो आप पर न करे तो आप क्या करेंगी? क्या कहेंगी?’’
‘‘योर ऑनर, योर ऑनर’’—सरकारी वकील भड़का—‘‘दिस इज हाईली इररेगुलर। दिस इज अनसिविल इनसिनुएशन ।’’
‘‘आई हैव ओनली पुट अप ऐ हाईपॉथेटिकल क्वेश्चन ।’’
‘‘हाईपॉथेकिल क्वेश्चन को भी आप कैरेक्टर असासीनेशन का, छींटाकशी का जरिया नहीं बना सकते ।’’
‘‘आई ओनली वान्टिड को इलस्ट्रेट ए प्वायन्ट ।’’
‘‘नो! दि प्रासीक्यूशन विल नाट हैव इट। विल नाट अलाओ इट। योर ऑनर, वुई स्ट्राँगली आब्जेक्ट...’’
‘‘ओके। ओके। कीप युअर शर्ट आन, मिस्टर दीक्षित। आईल विदड्रा माई क्वेश्चन ।’’
‘‘प्लीज डू इट नाओ ।’’
‘‘योर आनर, आई विदड्रा दि क्वेश्चन टू विच प्रासीक्यूशन आब्जेक्टिड ।’’
‘‘सो इट बी नोटिड ।’’—जज बोला—‘‘एण्ड यू मे आलसो चेंज दि कोर्स आफ युअर क्वेश्चिंनग, मिस्टर शाह ।’’
‘‘यस योर ऑनर। आफ कोर्स, योर ऑनर। तो, मैडम...’’
‘‘जज साहब’’—मीरा बोली—‘‘इस सिलसिले में मैं कुछ कहना चाहती हूँ ।’’
‘‘किस सिलसिले में?’’—जज की भवें तनी।
‘‘आशनाई के सिलसिले में। जो थी या नहीं थी, उसके सिलसिले में ।’’
‘‘कहिये ।’’
‘‘जब की ये बात है, तब सुष्मिता और जीतसिंह में एक और भी बांड स्थापित था जो आशनाई से भी ज्यादा मजबूत था। सुष्मिता की बड़ी बहन अष्मिता, तीन बच्चों की माँ, कैंसर से मर रही थी, जर्मनी में इलाज के लिये तीन महीने के फिक्सड टाइम में दस लाख रुपये की दरकार थी। मुझे सुष्मिता ने खुद बताया था—मेरे को वो टाइम तक याद है, दिसम्बर का महीना था, बाइस तारीख थी, सोमवार का दिन था—कि वक्त रहते वो रकम मुहैया कराने का बीड़ा जीतसिंह ने उठाया था। बदले में मुलजिमा ने घोषणा की थी कि अगर जीतसिंह की वजह से उसकी बहन बच गयी तो वो उसके पाँव धो धो के पियेगी। ये आशनाई नहीं तो और क्या है!’’
‘‘पिये पाँव धो धो के?’’—शाह ने पूछा।
‘‘नहीं, क्योंकि नौबत न आयी। क्योंकि बहन पहले ही मर गयी और मुलजिमा ने पहले ही मकतूल से...लिव-इन कम्पैनियन का रिश्ता जोड़ लिया। यहाँ गौरतलब बात ये है कि दस लाख रुपयों की—जिनका इन्तजाम करने में जीतसिंह डैडलाइन के आखिरी दिन कामयाब हो गया था—तब कोई जरूरत बाकी नहीं रही थी लेकिन वो रुपया जीतसिंह ने तब भी मुलजिमा को तुलसी चैम्बर्स वाले फ्लैट में पहँुचाया था। बाद में तीस लाख रुपया और भी छोड़ कर गया था। क्या मतलब हुआ ऐसी रकमें पेश करने का!’’
‘‘आप ज्यादा सयानी हैं, आप बताइये। यही कहिये कि उस रकम की मुलजिमा की माँग थी। जरूरत थी जिस की पूर्ति यार ने—आई रिपीर्ट फार युअर बैनीफिट—यार ने की थी!’’
वो खामोश रही।
‘‘ऐसी बातों का कोई मतलब नहीं। उन का मौजूदा केस से कोई रिश्ता नहीं। न इससे आशिकी साबित होती है। आशिकी का रिश्ता दिल से होता है—दो दिलों से होता है—भौतिक पदार्थों से नही। आप नजूमी नहीं हैं जो जान सके कि अगर किया था तो क्यों जीतसिंह ने ऐसा किया था। जब वो अवेलेबल होगा तो खुद इस मुद्दे पर कोई रोशनी डालेगा। अगर उन रकमों की अदायगी का शादी हुई या नहीं हुई वाले मसले से कोई रिश्ता है तो बोलिये, कत्ल से कोई रिश्ता है तो बोलिये वर्ना जो कुछ आपने कहा वो बेमानी है, इररेलेवेंट है, इममैटीरियल है। आप कीजिये ऐसा कोई दावा!’’
‘‘म-मैं...नहीं कर सकती ।’’
‘‘तो ऐसी इशारेबाजी बन्द कीजिये जो मुलजिमा के चरित्र पर लांछन लगाती हो। कैसी सखी हैं आप जो मुलजिमा की मिट्टी खराब करने पर तुली हैं! ऐसे तो कोई किसी के खिलाफ नहीं हो जाता! ये तो वही मसल हुई कि जिन पर तकिया था वही पत्ते हवा देने लगे ।’’
मीरा ने अहसान सा करते हुए सहमति में सिर हिलाया।
सरकारी वकील ने ऑब्जेक्शन के लिये मँुह खोला लेकिन फिर कुछ सोच कर खामोश हो गया।
‘‘अब, मैडम, इजाजत हो तो मैं अपनी लाइन आफ क्वेश्चिंनग पर आऊँ?’’
मीरा ने फिर अहसान सा करते हुए सहमति में सिर हिलाया—आखिर पुलिस अफसर की बीवी थी।
‘‘आप कहाँ रहती हैं?’’
उसने सिवरी का एक पता बयान किया।
‘‘कोलाबा से वाकिफ हैं?’’
‘‘मामूली तौर पर ।’’
‘‘तुलसी चैम्बर्स सखी से मिलने जाती थीं तो वाकिफ ही होंगी!’’
‘‘बस, इसी वजह से वाकिफ हूँ। इसी वजह से मामूली तौर पर बोला ।’’
‘‘वहाँ के आर्य समाज मन्दिर से?’’
‘‘मुझे ठीक से नहीं मालूम कहां है! एक बार टैक्सी वाला रास्ता भटक गया था तो उस के सामने से गुजरी थी ।’’
‘‘भीतर कभी नहीं गयीं?’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘कभी वहाँ के कश्मीरी पण्डित से आमना-सामना न हुआ?’’
‘‘नहीं, कभी नहीं ।’’
‘‘मुलजिमा कहती है उसकी उस मन्दिर में शादी हुई थी!’’
‘‘गलत कहती है ।’’
‘‘आपको क्या मालूम! आप तो कभी उस मन्दिर में गयी नहीं!’’
‘‘वो बतौर शादी का गवाह मेरा नाम लेती है। मैं ऐसी गवाह कभी नहीं बनी तो मेरे को क्यों नहीं मालूम?’’
‘‘आप परजुरी का मतलब समझती हैं?’’
‘‘समझती हूँ। मैं एक पुलिस आफिसर की बीवी हूँ ।’’
‘‘फिर तो ये भी समझती होंगी कि परजुरी की, झूठी गवाही की, सजा होती है!’’
‘‘समझती हूँ लेकिन ये सब मुझे क्यों बता रहे है आप...’’
‘‘टाइम पास कर रहे हैं ।’’—सरकारी वकील यूं दबे स्वर में बोला कि बात गुंजन शाह के कान तक ही पहँुच पाती—‘‘कुछ सूझ नहीं रहा, इसलिये ।’’
‘‘...अगर आप समझते हैं कि मेरी गवाही झूठी है तो साफ ऐसा कहिये ।’’
‘‘आप मेरे से जिरह कर रही हैं? मेरा काम कर रही हैं? मुझे जुबान दे रही हैं?’’
वो खामोश रही।
उसकी खामोशी के दौरान कोर्ट के प्रवेशद्वार के करीब नवलानी प्रकट हुआ। शाह की उससे निगाह मिली तो उसने सिर्फ एक बार सहमति में सिर हिलाया।
जवाब में शाह का सिर भी—सन्तुष्टिपूर्ण भाव से—सहमति में हिला। फिर वो वापिस अपने गवाह की तरफ आकर्षित हुआ।
‘‘तो आपने फरमाया कि आप कोलाबा के आर्य समाज मन्दिर के कश्मीरी पण्डित से वाकिफ नहीं। ऐसा हो सकता है क्योंकि आप ने ये भी कहा कि आप कभी मन्दिर के भीतर नहीं गयीं। अब मेरा सवाल है...एक्सक्यूज मी...मुझे दर्शकों में कोई वाकिफ चेहरा दिखाई दे रहा है ।’’—शाह ने कठघरे में खड़ी मीरा की तरफ पीठ फेर कर दर्शकों की भीड़ का रुख किया और बोला—‘‘आप, प्लीज, जरा खड़े हो जाइये ।’’
सफेद धोती-कुर्ता, सफेद पगड़ी, तिलकधारी एक कोई पचपन साल का क्लीनशेव्ड व्यक्ति उठ कर अपने पैरों पर खड़ा हुआ।
‘‘ये’’—शाह ने घोषणा की—‘‘कश्मीरी पण्डित हैं...’’
‘‘बिल्कुल झूठ!’’—मीरा ने विरोध किया—‘‘ये वो पण्डित नहीं है जिसने शादी...’’
एकाएक वो खामोश हुई, उसने अपने होंठ काटे।
‘‘अपना फिकरा मुकम्मल कीजिये, मैडम,’’—शाह बोला—‘‘कहिये कि ये वो पण्डित नहीं है जिसने शादी करवाई थी ताकि मैं...’’
‘‘दिस इज आल ग्रैडस्टैण्ड!’’—सरकारी वकील गुस्से से बोला—‘‘थियेट्रिकल्स! इस का कोई मतलब नहीं ।’’
‘‘किस का कोई मतलब नहीं? क्या गलत है कहीं? मैंने कहा ये कश्मीरी पण्डित हैं, असल में आपको क्या दिखाई देता है? कश्मीरी मौलवी हैं? कश्मीरी पादरी हैं? कश्मीरी ग्रन्थी हैं?’’
‘‘अगर ये कोलाबा के आर्य समाज मन्दिर के कश्मीरी पण्डित हैं...’’
‘‘किसने कहा? मैं ने कहा ये कश्मीरी पण्डित हैं। क्या नुक्स है इसमें? आप दावा कीजिये ये कश्मीरी नहीं हैं या पण्डित नहीं हैं! कहिये कि कश्मीरी नहीं, हिमाचली पण्डित हैं, पंजाबी पण्डित हैं, गुजराती पण्डित हैं। कहिये कि कश्मीरी पण्डित नहीं, कश्मीरी मुसलमान हैं, कश्मीरी सिख हैं, कश्मीरी ईसाई हैं। मैंने ये तो कभी नहीं कहा कि ये कोलाबा के आर्य समाज मन्दिर के कश्मीरी पण्डित हैं! लेकिन ‘कश्मीरी पण्डित’ टाइटल का असर अपने गवाह पर देखिये क्या हुआ है! गवाह ने तत्काल विरोध किया कि ये वो कश्मीरी पण्डित नहीं हैं जिन्होंने शादी करवाई थी ।’’
‘‘इतना कुछ गवाह ने नहीं कहा ।’’
‘‘जो कहा, उससे यही मतलब निकलता है। कोई दूसरा मतलब दिखाइये निकाल कर!’’
सरकारी वकील से जवाब देते न बना।
‘‘गवाह के सडन, साइकॉलोजीकल आउटबस्ट का साफ मतलब है कि इन्होंने अभी थोड़ी देर पहले अपने बयान में झूठ बोला कि इन्होंने कभी कोलाबा के आर्य समाज मन्दिर के पण्डित की सूरत नहीं देखी थी। ये कहती हैं इनका कभी उस पण्डित से आमना सामना नहीं हुआ था, फिर ये कैसे कहती हैं कि ये वो कश्मीरी पण्डित नहीं जिसने शादी करवाई थी...’’
‘‘मैं फिर कहता हूँ गवाह ने मुकम्मल तौर पर ऐसा नहीं कहा था ।’’
‘‘जितना कहा था, जो मुकम्मल तौर से कहा जाता, उसकी सैंस कनवे करने के लिये वो भी कम नहीं था। इन्होंने कहा ‘ये वो पण्डित नहीं है जिसने शादी...’। आप अब कहिये अपने गवाह से कि वो अपने फिकरे को मुकम्मल करे। कैसे भी मुकम्मल करे। मैं चैलेंज करता हूँ कि कैसे भी अपने अधूरे फिकरे को यूँ मुकम्मल करके दिखाये कि मतलब वो न निकले जो अधूरे फिकरे से निकल रहा है। कम आन! आई डेयर यू एण्ड युअर विटनेस!’’
कोर्ट में सन्नाटा छा गया।
‘‘इसीलिये कहा गया है’’—शाह गर्जा—‘‘कि झूठ के पाँव नहीं होते और सच का जादू सिर पर चढ़ के बोलता है। योर ऑनर, आई सबमिट कि ये गवाह झूठा है। अगर शादी की बाबत एक गवाह झूठा है तो आप खुद ही फैसला कीजिये कि बाकी गवाह सच्चे कैसे हो सकते हैं...’’
एकाएक दर्शकों की आखिरी कतार में से एक धीर गम्भीर, सिर से गंजा वयोवृद्ध व्यक्ति उठ कर खड़ा हुआ।
‘‘योर ऑनर’’—वो बोला—‘‘मेरा नाम देवकी नन्दन तिवारी है। पुरसूमल चंगुलानी साहब की जिन्दगी में मैं उनके लेमिंगटन रोड पर स्थित डिपार्टमेंट स्टोर का मैनेजर था। सेठ जी के हुक्म पर मैं उनकी शादी का गवाह था जो कि पिछले साल बुधवार बाइस अक्टूबर को कोलाबा के आर्य समाज मन्दिर में वधु की सखी मीरा किशनानी—जो कि इस वक्त गवाह के कटघरे में खड़ी है—और फोटोग्राफर संतोष वाजपेयी की मौजदूगी में हुई थी। मेरी प्रार्थना है कि इस कोर्ट में शादी की बाबत मेरे को शपथ ग्रहण करा के मेरा बयान दर्ज किया जाये ।’’
बयान तो अभी दर्ज होता लेकिन प्रासीक्यूशन का केस उसी क्षण, उतने से ही ढेर हो गया। गवाह के कटघरे में खड़ी मीरा किशनानी के चेहरे पर हवाईयाँ उड़ने लगीं, चंगुलानी परिवार के सदस्यों के चेहरों पर राख पुती दिखाई देने लगी। पब्लिक प्रासीक्यूटर भुवनेश दीक्षित यूँ अपनी कुर्सी पर ढेर हुआ जैसे उसकी टाँगें उसके शरीर का वजन सम्भालने में सक्षम न रही हों। इन्स्पेक्टर चन्द्रकान्त देवताले का भी बाकी षड्यन्त्रकारियों से मिलता-जुलता ही हाल हुआ।
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