7 मई : गुरुवार
वो एक उम्रदराज़ शख़्स था जो उस रोज़ शिवाजी चौक, छत्रपति चैरिटेबल ट्रस्ट के ऑफ़िस में दूसरी बार पहुँचा था।
उस घड़ी सुबह के ग्यारह बजने को थे।
उसने ग्लास डोर ठेल कर ट्रस्ट के ऑफ़िस के भीतर कदम रखा तो पाया वहाँ वेटिंग एरिया में दो संजीदासूरत शख़्स पहले से विराजमान थे। उसकी आमद पर दोनों ने नए फरियादी की तरफ सिर उठाया और फिर इन्तज़ार करते, पशेमान होते दोनों अपने ख़यालों की दुनिया में खो गए।
नवागन्तुक रिसेप्शन पर पहुँचा।
आदत से मजबूर रिसैप्शनिस्ट पद् मा ने जानबूझकर सिर न उठाया।
रिसैप्शनिस्ट के ध्यानाकर्षण के इरादे से आगन्तुक हौले से खांसा।
कोई प्रतिक्रिया सामने न आई।
उसने हौले से टेबल पर दस्तक दी।
तुरन्त असर हुआ। तत्काल पद् मा ने सिर उठाया।
“ए!” – वो गुस्से से बोली – “क्या करता है? जुबान नहीं क्या मुँह में? टेबल काहे वास्ते नॉक करता है?”
“धीरे से किया।” – वो विनीत भाव से बोला – “सॉरी!”
“क्या माँगता है?”
“मैं फरियादी है।”
“इधर फरियादी ही आते हैं ये टेम!”
“तो फिर काहे वास्ते पूछा मैं क्या माँगता है?”
“जुबान नहीं लड़ाने का।”
“सॉरी!”
“ये फाॅर्म भरने का।”
“मैं भरा न पहले!”
“पहले कब?”
“जब पहली बार इधर आया।”
‘‘अभी दूसरी बार आया?’’
“हाँ। और तमीज़ से बात करने का, बाई, मैं तुम्हारे पिता की उम्र का है।”
वो हड़बड़ाई, फिर बोली – “अभी दूसरी बार आए?”
“हाँ।”
“पहली बार क्या जवाब मिला?”
“कोई जवाब न मिला। कोई मदद न मिली।”
“तो अभी इधर क्या करता है?”
आगन्तुक ने घूर कर उसे देखा।
“अभी इधर क्या करते हो?”
“फिर फरियाद करना माँगता है।”
“ऐसे तो पहले कोई नहीं आया!”
“मैं आया न!”
“नाम बोले तो?”
“हनुमन्तराव लोहकर।”
“वेट करो।”
“करता है, बाई।”
पद् मा ने बाजू के रैक से एक फाइल निकाल कर खोली। उसने कुछ क्षण उसके पन्ने पलटे।
“हाँ, है इधर तेरा . . . तुम्हारा फाॅर्म।” – फिर बोली – “पहले आठ अप्रैल को आए। बरोबर?
“हाँ, बाई, बरोबर।” – उसने तसदीक की।
“पड़ोसी से कोई लफड़ा किया था?”
“मैं नहीं किया था, पड़ोसी किया था।”
“ऐसीच बोलते सब। अपना मिस्टेक कोई नहीं मानता। बैठो उधर। नम्बर आए तो जाना।”
सहमति में सिर हिलाता लोहकर वेटिंग एरिया में जाकर एक कुर्सी पर बैठ गया।
प्रतीक्षा – नाजायज़ – शुरू हुई।
साढ़े ग्यारह बजने तक एक फरियादी और आ गया।
फिर पहले को पेश होने के लिए अन्दर बुलाया गया।
बारह बजे के करीब उसकी बारी आई।
वो पेश हुआ तो उसने पाया उसका पुराना फॉर्म भीतर पहुँच चुका हुआ था।
अनिल विनायक ने उसे पहचाना।
“लोहकर!” – वो बोला।
“हाँ, सर।” – लोहकर विनयशील स्वर में बोला।
“फिर आ गए?”
“मजबूरी लाई।”
“बैठो।”
“थैंक्यू, सर।”
“अब बोलो जो बोलना है।”
“सर, मैं पहली बार में बोला था कि मैं अपने मकान की पहली मंजिल पर किराए पर देने के लिए दो कमरे बनाना माँगता था क्योंकि पैसे की तंगी थी, यूँ किराए की रकम से थोड़ी मदद हो जाती। ऐसे कामों के लिए बैंक से कर्ज़ा मिलता है जो मैंने उठाया। पण पड़ोसी मेरे को तामीर करने नहीं देता था, बोलता था उसकी हवा रुकती थी . . .”
“ये सब तू पिछली बार बोला” – अहसान उतावले स्वर में बोला – “आगे बोल। कुछ नवां हुआ तो वो बोल!”
“सर, मैं पहले ऐसीच कमरे डालना माँगता था पण इस बार कमेटी से बाकायदा नक्शा पास कराया, लीगल कंस्ट्रक्शन की, फिर भी कमेटी का नोटिस आ गया। बोले जितने के लिए नक्शा पास, उससे ज्यास्ती बनाया जो कि गलत था। अभी हुक्म है ख़ुद तोड़ो वर्ना कमेटी आ के तोड़ेगी और तोड़ने का बिल देगी, जो चुकता करना पड़ेगा।”
“जितना ज़्यादा बनाया, उतना तोड़ दो।”
“नहीं ज़्यादा बनाया, सर। ज़्यादा बनाने लायक तो जगह ही नहीं है! पास नक्शे के मुताबिक बनाया।”
“फिर क्या प्रॉब्लम है? जब कमेटी वाले आएं तो दिखाना।”
“वो नहीं देखेंगे। मालूम मेरे को। वो आकर पहले अपनी कार्यवाही करेंगे, जब तमाम बेड़ा गर्क हो चुका होगा तो बोलेंगे – दिखाओ, क्या दिखाते हो? कागज चौकस पाएँगे – जो कि पाएँगे ही – तो हैरान होकर दिखाएँगे और मेरी अक्ल पर तरस खाते बोलेंगे – पहले क्यों नहीं दिखाए! कोर्ट का स्टे भी होगा तो तब तक नहीं देखेंगे जब तक तबाही मचा नहीं चुके होंगे। फिर बाकायदा अफ़सोस ज़ाहिर करते कहेंगे – पहले क्यों नहीं दिखाया! बड़ी से बड़ी हैसियत वाले लोग सरकारी अमले के हाथों यूँ खता खा चुके हैं, मेरी तो बिसात ही क्या है!”
“थाने जा। वहाँ से कार्यवाही ज़रूर होगी।”
“होगी बरोबर, सर। पर कब होगी? कमेटी की कार्यवाही हो चुकने के अगले दिन होगी या उससे अगले दिन होगी।”
“ख़ामख़ाह!”
“नहीं ख़ामख़ाह, सर। मिलीभगत में ऐसा ही होता है, ये क्या आप नहीं जानते या मैं नहीं जानता!”
“लम्बी-लम्बी मत छोड़। ज़रूर तेरे कागजात में कोई कमी है, कोई खामी है। कमेटी में जा।”
“जाता है, सर। धक्के खाता है, कोई नहीं सुनता। वैसे भी, सर, ऐसे मामलों में पहले नोटिस आता है, कोई नोटिस को नजरअंदाज़ करे तो आगे कार्यवाही होती है। मेरे को तो कोई नोटिस न आया! पूछने कमेटी के दफ़्तर गया तो जवाब मिला, भेजा। मैं बोला, डुप्लीकेट दो। या जो भेजा उसकी कॉपी दो। बोले, भेजेंगे। मैं बोला अभी दो। नहीं देते। एक ही रट सुनाते हैं – भेजेंगे। वकील के पास गया ताकि कमेटी की कार्यवाही पर कोर्ट से स्टे हासिल हो पाता। वकील बोला स्टे अप्लाई करने के वास्ते भी नोटिस की कॉपी माँगता है। पड़ोसी मेरे खिलाफ जिद ठाने है। सर, आप पड़ोसी को अक्ल दो, आपके तो एक इशारे पर वो बाज़ आ जाएगा।”
“जब कमेटी का मामला है तो उसमें पड़ोसी का क्या दखल है?”
“उसी का दखल है। कमेटी का स्टाफ़ उससे सैट है। उसे पुलिस की भी शह है। एक लोकल मवाली की भी शह है।”
“सब तुम्हारे िखलाफ हैं?”
“अब . . . है तो ऐसीच!”
“सुना!” – अहसान जोड़ीदार की तरफ घूमा – “कहता है, है तो ऐसीच!”
“पड़ोसी है।” – अनिल बोला – “पड़ोसी का पड़ोसी से लिहाज़ होता है। बात करो उससे।”
“सर, वो कोई बात सुनने को तैयार नहीं। उसकी एक ही जिद है, उसकी हवा रुकती है। सर, पड़ोसी” – वो अहसान की तरफ घूमा – “आपका जातभाई . . .”
“ख़बरदार!” – अहसान भड़कने को हुआ – “जात-पांत बीच में नहीं लाने का।”
“नहीं लाता, सर, पण पूछता है, बगल में हिन्दू का घर होता या मैं मुसलमान होता तो ये मसला खड़ा होता?”
दोनों एक-दूसरे का मुँह देखने लगे।
“कानूनी मामला है।” – फिर अहसान सख़्ती से बोला – “हम कुछ नहीं कर सकते।”
“आप कुछ नहीं कर सकते! यही सुना मैं?”
“हाँ।”
“जब कुछ कर ही नहीं सकते तो इधर क्यों बैठे हो?”
“क्या बकता है?”
“क्यों खोखली ड्रामेबाज़ी में अपना और पब्लिक का टाइम खराब करते हो?”
“स्टैण्ड अप” – अनिल अपने साथी के सुर में बोला – “एण्ड गैट आउट।”
फटकार सुन कर लोहकर ‘स्टैण्ड अप’ हुआ लेकिन ‘गेट आउट’ न हुआ।
“जब मेरे पड़ोसी जैसा एक आदतन फसादी आदमी, गुण्डा भीड़ू, लोगों को सांठ कर अपना मतलब निकाल सकता है” – अब वो भी गुस्से में तमतमा रहा था – “तो मैं भले लोगों के पास – जो कि आप हैं – फरियाद लगा कर अपना काम क्यों नहीं निकाल सकता? आप इतने हो-हल्ले के साथ ये दफ़्तर खोले हैं, जब किसी की कोई मदद करनी ही नहीं तो काहे वास्ते खोले हैं? ताला लगाओ, घर जाओ।”
“बद्तमीज़ी नहीं।”
“सच्ची बात बोलना बद्तमीज़ी है साला!”
“गाली भी नहीं। ख़ैरियत चाहता है तो निकल ले।”
“ख़ैरियत नहीं चाहता तो?”
“तो तेरा अंजाम बहुत बुरा होगा।”
“करना। पर पहले मेरे को मेरी बात मुकम्मल करने दो।”
“अभी हुई नहीं मुकम्मल?”
“नहीं हुई।”
“ठहर जा, साले हरामी।”
अहसान उठने को हुआ पर अनिल ने उसका कन्धा दबा कर उसे रोका।
“कर मुकम्मल!” – अनिल लोहकर से कदरन शान्त स्वर में बोला।
“तो सुनो। ये एक चौतरफा सताए हुए आदमी के दिल से निकलती आवाज़ है। तुम लोग झूठे हो, फरेबी हो, मक्कार हो। ये ठीया खोलकर बैठने के पीछे तुम्हारा असल मकसद कुछ और ही है जो मेरे जैसे आम आदमी के लिए समझना मुहाल है। लेकिन इतना मैं बराबर समझता हूँ कि तुम्हें यूँ मेरी तरह पशेमान और सताए हुए लोगों को उल्लू बनाने का अख़्तियार नहीं होना चाहिए। . . . सर, अहसान कुर्ला नाम है न आपका?”
अहसान ने जवाब न दिया – अनिल अभी भी उसका कंधा दबाए था।
“दाता!” – लोहकर के भड़के स्वर में तिरस्कार का पुट आया – “दाता कहते हैं लोग आपको! या ख़ुद आप अपने को! दाता आप जैसा होता है! क्या ये हमारे जैसे फरियादियों को अभिशाप है कि हम आपको दाता तसलीम करें! आप न दाता हैं, न हो सकते हैं।”
“तो क्या हूँ?” – बला का जब्त दिखाता अहसान बोला।
“मेरे से कहलवाना चाहते हैं?”
“कह! मौका है तेरे पास।”
“तू कोई मवाली है जो दाता या दाता का भड़वा बना यहाँ बैठा है। तेरा जोड़ीदार यूँ समझ कि जैसे नाग नाथ वैसे सांप नाथ। अहसान कुर्ला, तूने बढ़-बढ़ के मेरे से बद्जुबानी की, ऐसी बद्जुबानी करने वाले का मुँह तोड़ना चाहिए लेकिन मैं मजबूर हूँ इसलिए थोड़े में सब्र करता हूँ।”
मेज़ पर एक पीतल का फूलदान पड़ा था, लोहकर ने फूलदान उठाया और उसे पूरी ताकत से टेबल पर मारा।
टेबल टॉप के शीशे के परखच्चे उड़ गए।
“अब जाता हूँ।” – लोहकर बोला।
“अब कैसे जाता है, मादर . . .!”
अहसान बाज़ की तरह उस पर झपटा।
अमूमन ऐसे कामों के लिए वो प्यादों को बुलाता था लेकिन इस बार को इतना ज़्यादा भड़का हुआ था कि उसने ख़ुद ही उस काम को अंजाम दिया।
लोहकर पर लात घूंसों की बरसात होती रही जिसका वो विरोध भी न कर सका।
फिर उसकी चेतना लुप्त हो गई।
जब उसे होश आया तो उसने ख़ुद को एक टैक्सी में पाया।
टैक्सी उस घड़ी ऑन रोड नहीं थी, कहीं खड़ी थी।
“मैं कहाँ हूँ?” – वो कराहता-सा बोला।
“उधरीच है, बाप” – टैक्सी ड्राइवर बोला – “जिधर तुम जाना माँगता था।”
“किधर? बहुत मार लगी। याद नहीं मेरे को।”
“कूपर कम्पाउन्ड। इधर रहता है? कौन से मकान में? मैं पहुँचाता है।”
“नहीं, भाई।” – वो कातर भाव से बोला – “मैं इधर नहीं रहता। मैं तो ठाकुर द्वार ताड़वाडी रहता है।”
“तो कूपर कम्पाउन्ड जाना काहे वास्ते बोला?”
“बोले तो नीमबेहोशी में बड़बड़ाया। मैं . . . मैं कैब में कैसे पहुँच गया?”
“शिवाजी चौक पर ट्रस्ट के ऑफ़िस के बाहर फुटपाथ पर पड़ा था। अन्दर से एक चपरासी आया और रौब से बोला – ‘ये जिधर बोले, इसको पहुँचाने का – घर, हस्पताल, थाना, जिधर भी – भाड़ा ख़ुद देगा।’ उसने बेहोश भीड़ू को – बोले तो तुम्हेरे को – टैक्सी की बैक सीट पर लादने में मेरा हैल्प किया। मैं पूछा, क्या हुआ! चपरासी बोला – ‘पंखा ठीक करता था, सीढ़ी से गिर पड़ा। साहब की मेज का शीशा भी तोड़ दिया। साहब ज्यास्ती भाव खा गया। बोला, बाहर फेंको’।”
“ओह!”
“चपरासी बोला उसको ही तरस आया जो कैब बुलाया। वर्ना पता नहीं कब तक पड़ा होता फुटपाथ पर। मर भी गया होता तो कोई बड़ी बात न होती।”
“गरीब की जान मुश्किल से निकलती है। ये भी उसकी सज़ा है। आराम से मर जाए, बिना तड़पे मर जाए तो लोगबाग उसे पैसे वाला समझ लेते हैं।”
“गिरा सच में सीढ़ी से?”
“मेरे जिस्म को देख! साला कोई अंग नहीं है जो ठोका नहीं गया।”
“टेबल-टॉप के शीशे पर गिरा न?”
“तो बदन पर, शकल पर कई कट होते, मेरे कपड़ों पर भी शीशे के कट होते, उनसे ख़ून छलक रहा होता, कई जगह से तो बाकायदा बह रहा होता। ऐसा देखा कुछ?”
“नहीं।”
“मेरी पोशाक कहीं ख़ून से रंगी हो?”
“नहीं। बोले तो, सीढ़ी से नहीं गिरा तो क्या हुआ?”
“उधर शिवाजी चौक पर चैरिटेबल ट्रस्ट है न! मालूम?”
“मालूम। वहीं से तो तुम्हेरे को उठाया!”
“मेरे को उधर से चैरिटी मिला जिसने मुझे नहीं, मेरे सारे जिस्म को निहाल कर दिया, मालामाल कर दिया।”
“देवा रे! ट्रस्ट वालों ने मारा?”
“सबने नहीं, एकीच भीड़ू ने जो उधर का इंचार्ज था, जो राक्षस जैसी शक्ल और मिज़ाज वाला था। उस अकेले ने मारा। रूई का माफ़िक धुना। कमाल किया कोई हड्डी न तोड़ी। . . . पण में सब मैं तेरे को क्यों बताता है!”
“तुम बोलो।”
“कूपर कम्पाउन्ड आने को क्यों बोला? अभी मेरा मगज ठीक से काम नहीं करता। ठहरेगा तो याद आएगा।”
“तुम अभी पिराब्लम में, इस वास्ते मैं तुम्हेरे को कुछ याद दिलाता है। सुनने का। इधर कभी तुका चैरिटेबल ट्रस्ट होता था जिसे तुकाराम करके एक भीड़ू चलाता था जो पहले खतरनाक मवाली था पण फिर पता नहीं क्या हुआ था कि साधु स्वभाव भीड़ू बन गया था, गरीब-गुरबा की मदद करने वाला मसीहा बन गया था। उसकी मौत के बाद भी ट्रस्ट चलता रहा था, फिर एकाएक बन्द हो गया था और अभी भी बन्द है। वजह बोले तो नहीं मालूम। पण सुना है वही ट्रस्ट अब बदले नाम के साथ शिवाजी चौक पर चलता है और उसकी बाबत अफवाह है कि अब उसे कोई किसी ‘भाई’ के अंडर में चलने वाले मवाली लोग चलाते हैं।”
“ठीक सुना है। अभी नमूना मिला न!”
“अभी मैं तुम्हेरा क्या करे? इधर तो तुम बोला कि किसी मुगालते में आ गया। मैं ठाकुर द्वार पहुँचाए तेरे को?”
“लम्बा फासला है। सफर नहीं झेल पाऊँगा। फिर टैक्सी का इतना भाड़ा भरने का दम भी मेरे में नहीं है . . .”
“भाड़े की फिकर नहीं करने का। तुम मुसीबत में है, मैं तुम्हेरे से शिवाजी चौक से यहाँ तक भी चार्ज नहीं करेगा।”
“वो तो मैं देता है न!”
“अभी थोड़ा काबू में रहने का। तुका चैरिटेबल ट्रस्ट अभी भी बाएं बाजू मेरे को दिखाई दे रयेला है। शायद अभी भी उधर कोई मिलता हो। मैं जाके आता है।”
पाँच मिनट बाद वो वापिस लौटा तो विमल उसके साथ था।
इरफ़ान इत्तफ़ाक से कैब ले के अभी नहीं निकला था और शोहाब नाइट ड्यूटी की वजह से घर पर था।
तुका के घर में विमल और उन दोनों ने लोहकर को संभाला।
लोहकर को हल्दी मिला गर्म दूध पिलाया गया फिर हस्पताल का या वहीं फ़र्स्ट एड का आइडिया दिया गया लेकिन उसने सब नामंज़ूर किया।
इरफ़ान के इसरार पर उसने अपनी मुकम्मल आपबीती बयान की।
ये सुनकर विमल का बहुत ख़ून खौला कि उसको इतना ठोकने वाला इकलौता शख़्स अहसास कुर्ला था वर्ना ये काम वहाँ हमेशा मौजूद रहते प्यादों से भी कराया जा सकता था।
बकौल लोहकर, ये बात भी उसके नोटिस में आई थी कि उसके बाद जो फरियादी वहाँ पहुँचा था, उसे जान पड़ गया था कि उससे पहले का फरियादी – लोहकर – वहाँ किस अंजाम को पहुँचा था। नतीजतन इंसाफ़़ का तालिब वो फरियादी अपनी बारी आ गई जानकर भी वहाँ नहीं रुका था, ‘हेलमेट बाइक के हैंडल पर रह गया’ कह कर वो ऑफ़िस से बाहर गया था और कभी वापिस नहीं लौटा था।
उसकी दुर्दशा से विमल इतना द्रवित हुआ कि इरफ़ान, शोहाब को उसकी जगह सोहल दिखाई देने लगा।
“घर, बीवी को” – विमल बोला – “अपनी बाबत ख़बर पहुँचाने का जरिया है?”
“उसकी ज़रूरत नहीं।” – लोहकर क्षीण स्वर में बोला – “मैं नेशनल बैंक तारदेव ब्रांच में एकाउन्टेंट हूँ। शिवाजी चौक की बाबत मैं बीवी को बोल कर नहीं आया था। बड़ी ब्रांच है इसलिए बैंक में मेरे को आठ-साढ़े आठ बज जाना आम बात है और इसलिए नौ बजे तक मेरी वापिसी से बीवी निश्चिंत होती है।”
“बढ़िया! तब तक यहीं टिको, फिर ख़ुद ही घर जाने के काबिल हो जाओगे। नहीं?”
“हाँ।”
“ये दोनों” – विमल ने इरफ़ान, शोहाब की तरफ सिर के खम से इशारा किया – “अभी तुम्हारे से बहुत कुछ पूछेंगे। हर बात का जवाब देना। ऐसा करना तुम्हारे ही भले के लिए होगा इसलिए कोई कोताही न करना, किसी बात को टालना नहीं। ओके?”
“जी हाँ।”
विमल ने दोनों साथियों को समझाया कि क्या पूछना था।
शोहाब काबिल था, दानिशमन्द था, अधिकतर बातें तो वो बिना समझाए ही समझता था।
इरफ़ान ने उस सिलसिले में विक्टर से भी संपर्क किया।
सवाल-जवाब का सिलसिला शुरू हुआ तो विमल वहाँ न रुका, वो पीछे अपने बैडरूम में चला गया। ये फैसला वो पहले ही कर चुका था कि आगे उसने क्या करना था।
हासिल मालूमात के मुताबिक लोहकर के पड़ोसी का नाम अकबर अली खान था, परिवार में बीवी और तीन बच्चे थे जिनमें लड़की सबसे बड़ी थी – तेरह साल की थी – बाकी दो उसके उससे छोटे भाई थे। वो किसी काल सेंटर में मुलाज़िम था, शिफ्ट की नौकरी थी इसलिए वो पूरा हफ्ता वो रात नौ बजे तक घर पर था।
इलाके के जिस मवाली का वो करीबी बताया जाता था, उसका माँ का दिया नाम शायद ही कोई जानता था, हर कोई उसे ख़ैरू भाई कह के पुकारता था। इलाके का एक ढाबे जैसा रेस्टोरेंट उसका अड्डा था जहाँ वो अक्सर पाया जाता था।
उसकी बाबत इरफ़ान और विक्टर ने पता करना था।
विमल के साथ शोहाब था। उन्होंने पहले लोहकर को घर पहुँचाया था और फिर पड़ोस की कालबैल बजाई थी।
दरवाज़ा घर के मालिक ने खोला।
“अकबर!” – विमल बोला – “अकबर अली खान?”
“हाँ!” – वो संदिग्ध भाव से उन्हें घूरता बोला – “क्या है?”
“तुम्हारे से दो मिनट बात करनी है, ये है।”
“किस बाबत?”
“तुम्हारी हवा रुकती है, इस बाबत।”
“ओह! तो पड़ोसी के भड़वे हो! मेरे को कोई बात नहीं करनी। दफ़ा हो जाओ।”
उसने उनके मुँह पर दरवाज़ा बन्द करने की कोशिश की।
विमल के हाथ में गन प्रकट हुई, उसकी नाल से उसने अकबर की छाती को टहोका।
अकबर भड़कने को हुआ लेकिन उसकी विमल से निगाह मिली तो उसका दम निकल गया। विमल की आँखों में उसने ऐसी ज्वाला धधकती देखी कि उसका हाथ अपने आप ही दरवाज़े के पल्ले पर से हट गया और वो एक कदम पीछे सरक गया।
“सोशल काल है।” – शोहाब बोला – “कोई फौजदारी नहीं है।”
“गन-गन दिखाई।” – अकबर दबे स्वर में बोला – “ये फौजदारी नहीं है?”
“घर आए मेहमान को बेइज्जत किया, उसे भड़वा कहा, दफ़ा हो जाने को बोला, इससे बड़ी फौजदारी की बुनियाद बनती है पर भाई ने सब्र किया . . .”
“भ-भा . . . भाई!”
“. . . वर्ना दरवाज़ा उखाड़ के घर में दाखिल होता।”
“क . . . क्या माँगता है?”
“जानेगा न! ख़ुशामदीद बोलेगा तो जानेगा न!”
वो दरवाज़े पर से हट गया।
दोनों ‘शुक्रिया’ बोल के भीतर दाखिल हुए।
उसने उनके पीछे दरवाज़ा बन्द करने की कोशिश की।
“अभी न करो।” – शोहाब बोला – “कोई आने वाला है?”
“यहाँ!” – अकबर हड़बड़ाया – “मेरे पास?”
“हाँ।”
“कौन?”
“तुम्हारा ख़ास।”
“नाम बोले तो?”
“ख़ैरू भाई।”
“खै-ख़ैरू भाई! इधर आने वाला है?”
“बस, आया ही समझो।”
“किस वास्ते?”
“वो ख़ुद बोलेगा न!”
चेहरे पर दुविधा के भाव लिए उसने दरवाज़ा भिड़का दिया, बोल्ट न चढ़ाया।
विमल ने देखा वो एक बैठक में थे। पीछे एक चिक लगा दरवाज़ा था, जिसके पीछे, विमल की पैनी निगाह ने साफ परखा, कोई था।
“बैठ जाएँ, जनाब?” – विमल सविनय बोला।
“क्या!” – अकबर का ध्यान कहीं और था, वो हड़बड़ाया – “सॉरी! प्लीज़़! प्लीज़़!”
दोनों एक सोफ़े पर अगल-बगल बैठ गए। विमल के इशारे पर वो बाजू की एक सोफ़ाचेयर पर बैठा।
“तो” – विमल बोला, गन उसकी पोशाक में पहले ही कहीं गायब हो चुकी थी – “हवा रुकती है?”
“देखो!” – अकबर हिम्मत करके बोला – “ये मेरे और मेरे पड़ोसी के बीच का मामला है, इसमें किसी तीसरे को दखलअन्दाज़ नहीं होना चाहिए।”
“हम भी नहीं हो रहे। हो रहे होते तो पड़ोसी हमारे साथ होता।”
“साथ होता!”
“हाँ। लेकिन नहीं है इसलिए एक सिम्पल सवाल का जवाब दो।”
“पूछो।”
“तुम्हारे एक बाजू में लोहकर है, दूसरे बाजू में कौन है?”
“हाजी साहब हैं।”
“ओह! ख़ुदा के बन्दे हैं। अच्छी हैसियत होगी, इसी वजह से मकान तीन मंजिला है। क्या!”
“हाँ।”
“उससे हवा नहीं रुकती?”
अकबर पहलू बदलने लगा, उससे जवाब देते न बना।
“जातभाई का लिहाज़ किया, दूसरे के गले पड़ गए . . . जैसे पिछले जन्म का दुश्मन हो। ठीक!”
“मैं” – वो एकाएक भड़का – “किसी बात का जवाब देने को तैयार नहीं।”
“तुम्हारा और बेगम साहिब का बैडरूम तो अलग होगा बच्चों से?”
“हाँ।”
“हवा रुकने की शिकायत बेगम को भी है?”
वो फिर ख़ामोश हो गया।
“लगता है, नहीं है, तुम्हें ही है!”
उसने उत्तर न दिया।
“कल से बेगम बच्चों के साथ सोयेंगी।”
“क्यों भला?” – वो तमक कर बोला।
“कल तुम्हारे बैडरूम पर छत नहीं होगी, फिर हवा ही हवा होगी।”
वो बात विमल ने ऐसी संजीदगी से कही कि अकबर मुँह बाये उसे देखने लगा।
तभी एक किशोरी ने चिक हटाकर बैठक में कदम रखा और अकबर से मुख़ातिब हुई – “अब्बा, अम्मी पूछ रही हैं चाय बनाएं?”
“नहीं, बेटा” – जवाब विमल ने दिया – “चाय न बनाएं। अभी उन्हें एक और ज़रूरी काम मसरूफ़़ कर सकता है।”
किशोरी ने उलझनपूर्ण भाव से विमल को देखा।
“उन्हें बेवा होने की तैयारी करनी पड़ सकती है।”
किशोरी की समझ में तो कुछ न आया लेकिन चिक एकाएक हटी और एक महिला ने झपट कर बैठक में कदम रखा।
“बेगम!” – अकबर ने डपटा – “पर्दा . . .”
“जहन्नुम में गया पर्दा!” – वो भरे कंठ से बोली – “मुझे बेवा होने की वॉर्निंग मिल रही है और तुम्हें पर्दें की पड़ी है!”
अकबर के होंठ भिंचे।
“भाई जान!” – महिला विनयशील स्वर में विमल से मुख़ातिब हुई – “इन्हें कुछ न कहना। इल्तजा है आपसे। मैं बेवा होने का दुख भुगत सकती हूँ, मेरे बच्चे अनाथ हो जाएं, उनके सिर से बाप का साया उठ जाए, ये मेरे से नहीं देखा जाएगा . . .”
तभी मेन डोर खुला और इरफ़ान और विक्टर के साथ एक नए आदमी ने भीतर कदम रखा।
“ख़ैरू भाई।” – इरफ़ान बोला।
“सलाम अर्ज़ करता हूँ, जनाब।” – विमल पेशानी छूता मधुर स्वर में बोला – “तशरीफ फरमाइये।”
मवाली के मुँह में कुछ था जिसकी वजह से उसके जबड़े मशीन की तरह चल रहे थे। विमल पर अहसान-सा करता वो उससे परे दीवार से सटी एक सोफ़ा- चेयर पर बैठा।
“क्या माँगता है?” – वो रूखे स्वर में बोला – “क्यों मेरे को . . .”
जैसे जादू के ज़ोर से विमल के हाथ में गन फिर प्रकट हुई, उसने फायर किया।
गोली सनसनाती हुई मवाली के सिर के बालों को झुलसाती गुज़री।
उसके प्राण कांप गए, नेत्र ऐसे फैले जैसे कटोरियों से बाहर निकल पड़ेंगे।
“सॉरी!” – खेदप्रकाश करता विमल बोला – “पहली बार निशाना चूका। वान्दा नहीं। फिर ट्राई करता है।”
“नहीं, नहीं!” – वो यूँ दोनों हाथ सामने फैलाता बोला जैसा दोबारा गोली चली तो हाथों से ही रोक लेगा – “गोली मत चलाना!”
“क्यों भला? तू तो इलाके का बड़ा मवाली है! तेरे को तो मरने-जीने को हर वक्त तैयार होना चाहिए!”
“मैं कुछ नहीं है, बाप। अभी गोली मत चलाना।”
“मेरे को तेरी दादागिरी से कोई मतलब नहीं” – विमल एक-एक शब्द चबाता बोला – “लेकिन पड़ोस के घर की तरफ तूने निगाह उठाने की भी कोशिश की तो तू नहीं बचने का।”
“सब मंज़ूर मेरे को बाप, पण ये तो बोलो तुम हो कौन?”
विमल ने उसकी तरफ तवज्जो न दी, वो अपने मेजबान की तरफ घूमा।
“अब आपका क्या इरादा है, जनाब?” – फिर बोला – “बेगम साहिबा बेवा होने की तैयारी करें?”
उसने भयभीत भाव से ज़ोर से इंकार में सिर हिलाया।
“सोच लीजिए। चायस है आपके पास।”
“चा-चायस!”
“बीवी आपकी लम्बी उम्र की दुआ करे या . . .”
विमल ने शोहाब की तरफ देखा।
“या मौलवी” – शोहाब बोला – “तुम्हारी कब्र पर खड़ा होकर कलमा पढ़े?”
उसने कुछ कहना चाहा लेकिन उसके मुँह से बोल न फूटा, ख़ुश्क मुँह में जुबान तालू से लग गई।
“चाय की ज़रूरत नहीं, बहन जी” – विमल उसकी बीवी की तरफ घूमा – “आपके खाविंद अगर अपनी जुबान से फिर न गए तो आप का सुहाग सेफ़ है।”
“नहीं फिरेंगे।” – वो दृढ़ता से बोली।
“संकट की ये घड़ी टलते ही अगले दिन शेर हो जाएंगे, अपने जातभाइयों का मजमा इकट्ठा कर लेंगे जो इनके हक में इधर माइनाॅरिटी पर होते ज़ुल्मों की दुहाई देने लगेंगे और पहले से ज़्यादा ताकत बना के पड़ोसी का जीना दुश्वार करेंगे।”
“ये ऐसा कुछ नहीं करेंगे। ख़याल भी नहीं करेंगे ऐसा करने का। आपने मुझे बहन कहा, मेरा मान बढ़ाया, मैं आपको जुबान देती हूँ इस घड़ी के बाद इनको पड़ोसी लोहकर साहब से कोई शिकायत नहीं होगी। क्यों, जी! बोलते क्यों नहीं?”
बोलने की जगह अकबर ने सिर हिला कर हामी भरी।
“अगर आप अपनी जुबान से फिरे तो आपसे मैं कोई शिकायत नहीं करूँगी। मैं तीनों बच्चों को नीला थोथा खिला के ख़ुद भी खा लूंगी।”
“ख़बरदार, जो ऐसा ख़याल भी मन में लाई।” – अकबर तमक कर बोला।
“तो अपनी जुबान से बोलिए, आप पड़ोसी के साथ अमन-चैन से रहेंगे, उसकी ज़िन्दगी दुश्वार करने वाली कोई हरकत न ख़ुद करेंगे न” – उसने मवाली ख़ैरू भाई की ओर आँखें तरेरीं – “किसी को करने को बोलेंगे।”
“कसम खाता हूँ।”
“आमना के सिर पर हाथ रख कर कसम खाइए।”
उसने वो भी किया।
वो रोने लगी।
अकबर ने उठकर सबके सामने उसे गले से लगाया।
“आमना के अब्बा!” – उसका कंठ इतना रुँधा हुआ था कि वो बड़ी मुश्किल से बोल पाई – “मुझे आप पर फ़ख्र है।”
खाविन्द जज़्बाती हो रहा था, विमल को अंदेशा हुआ कि कहीं वो भी न रोने लगे।
“अब” – वो मवाली से संबोिधत हुआ – “आपका क्या इरादा है, जनाब?”
“ब-बोले तो?” – मवाली के मुँह से निकला।
“आपकी इनायत हो तो पड़ोसी अपनी तामीर मुकम्मल कर ले?”
“करे न! मैं कौन होता हूँ रोकने वाला।”
“पहले तो होते थे?”
“पहले कोई ख़ामख़याली थी जो अब दूर हो गई।”
“दूर रहेगी?”
“हाँ। बरोबर।”
“ये सोच के जवाब दे रहे हैं कि गन में अभी पाँच गोलियां और हैं! एक बार के चूके निशाने को मैं अभी पाँच बार दुरुस्त कर सकता हूँ! करूँ मैं?”
“नहीं! नहीं! हरगिज़ नहीं। प्लीज़़ करके बोलता है।”
“गुड! आई एम ग्लैड।”
“मैं एक सवाल पूछे, बाप?”
“पूछो।”
“तुम है कौन?”
“मैं! मैं मैं हूँ।”
“बाप, इस्टाइल सोहल वाला है बिल्कुल! बाप, बोले तो कहीं सोहल ही तो नहीं!”
“सोहल! वो कौन है?”
“वो है, अक्खे इन्डिया में जिसका दबदबा है, जलाल है, उसके बारे में कोई नहीं पूछता सोहल कौन है!”
“अरे, मैं मामूली भीड़ू . . .”
“इधर मेरी तरफ देख!” – इरफ़ान कर्कश स्वर में बोला।
मवाली ने सप्रयास उसकी तरफ गर्दन घुमाई।
“कभी सोहल को देखा? उससे मिला?”
“न-नहीं।”
“तो काहे वास्ते खाली-पीली बोम मारता है? ख़्वाब देखता है सोहल का रात में, जो दिन में सवाल करता है?”
मवाली ने बेचैनी से पहलू बदला।
“करने दे।” – विमल बोला – “मैं देता हूँ न जवाब!” – वो मवाली की ओर घूमा – “मैं मामूली आदमी हूँ, ख़ैरू भाई। मेरा खाली इतना ही दबदबा, जलाल है जितना तुमने अभी देखा। बोले तो, मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक।”
“यकीन नहीं आता।”
“क्यों भला?”
“जैसे गोली चलाई . . . मेरे को पक्की, निशाना नहीं चूका था। तुम जानबूझ कर चूकने दिया था, बाप! निशाना वहाँ लगा जहाँ लगना था। ये कमाल सोहल ही कर सकता था।”
“भीड़ू” – इरफ़ान एकाएक बोला – “बन्द कर सोहल-सोहल भजना। सोहल कब का मुम्बई छोड़ गया है।”
“सुना तो है ऐसा!”
“ठीक सुना है। बस कर अब।”
विमल उठ खड़ा हुआ। शोहाब भी उसके साथ उठा।
“जाता हूँ।” – विमल यूँ बोला जैसे अकबर की जगह उसकी बेगम से मुख़ातिब हो – “ईद की मुबारकबाद देने और रोटी-बोटी शेयर करने आऊँगा।”
“आप” – बेगम हैरानी से बोली – “हमारा बकरा खाएंगे?”
“मुझे कोई परहेज़ नहीं।”
“फिर तो ख़ुशामदीद। हम इन्तजार करेंगे उस मुबारक दिन का।”
“ज़रूर। अब जाता हूँ। आख़िरी दरख्वास्त के साथ।”
बेगम की भवें उठीं।
“शौहर पर काबू रखियेगा। मेरे पीठ फेरते ही कहीं मिज़ाज तब्दील न हो जाए! ख़यालात बदल न जाएं!”
“ऐसा नहीं होगा।” – वो दृढ़ता से बोली – “दो जहाँ का मालिक गवाह है, ऐसा नहीं होगा। क्यों, जी?” – उसने पति को कोहनी से टहोका – “ठीक कहा मैंने?”
अकबर ने सहमति में सिर हिलाया।
“हमारे यहाँ कहते हैं – हमसाया माँजाया।” – विमल बोला – “पड़ोसी, जैसे अपनी माँ ने जना हो। गलत कहते हैं?”
अकबर का सिर तत्काल इंकार में हिला।
“ख़ुदा हाफिज़!” – विमल बोला, फिर मवाली की तरफ घूमा – “ख़ुदा हाफिज़, ख़ैरू भाई, फिर मिलेंगे।”
‘फिर मिलेंगे’ उसने यूँ कहा जैसे वादा न हो, धमकी हो जो बराबर मवाली की समझ में आई, उसके सिर पर से न गुज़र गई। वो उछल कर खड़ा हुआ और बाअदब, अादाब बजाने लगा।
विमल ने उस पर दूसरी निगाह न डाली, वो साथियों के साथ वहाँ से रुख़सत हुआ।
“बहुत बढ़िया हैंडल किया!” – शोहाब बोला – “सच में सोहल बन के दिखा दिया!”
इरफ़ान की कैब में विमल और शोहाब सवार थे। विमल इरफ़ान के साथ आगे पैसेंजर सीट पर था, शोहाब पीछे था।
विक्टर और आकरे को ताड़ वाडी से ही रुख़सत कर दिया गया था।
विमल केवल मुस्कुराया।
“सबसे ज्यास्ती साइकालोजिकल असर गोली ने किया। इतनी एक्यूरेसी से चलाई कि . . .”
“अरे, मेरे को भी कुछ समझने देगा या नहीं!” – ड्राइविंग सीट पर से क्षण भर को पीछे गर्दन घुमाता इरफ़ान बोला – “क्या साइकल! क्या लो जी कल! क्या ए कुरेशी!”
“. . . प्राण कम्पा दिए ख़ैरू भाई के!”
“गोली ज़रा नीचे चली होती” – इरफ़ान बोला – “तो मगज बाहर पीछे दीवार पर बिखरा होता। महीनों सपने आएँगे अल्लामारे ख़ैरू भाई को। भाई! देखो तो!”
“गोली के असर से” – शोहाब बोला – “हमारा मेजबान मवाली से ज़्यादा डरा।”
“सब ठीक।” – विमल बोला – “अगरचे कि नतीजा भी ठीक निकले। पीठ पीछे सब मुकर गए तो इतना हाई-फाई ड्रामा बेमानी हो जाएगा।”
“नहीं मुकरेंगे।” – शोहाब पूरे विश्वास के साथ बोला।
“भेदिये लगायेंगे मालूम करने के लिए।” – इरफ़ान बोला।
“कोई ज़रूरत नहीं।” – विमल बोला – “कुछ उलटा हुआ तो लोहकर ही ख़बर करेगा। जिसने भुगतना होगा, उससे तो कुछ नहीं छुप सकता न!”
“ये भी ठीक है। अभी बोले तो, नीला थोथा कर के क्या बोली ख़ातून जो बोली, बच्चों को खिला देगी, ख़ुद खा लेगी?”
“कॉपर सल्फेट को बोलते हैं देसी जुबान में। इंडस्ट्री के लिए – मैटल, माईनिंग, पेंट, प्रिंटिग – बहुत काम का कैमिकल होता है, खेतीबाड़ी में भी खूब काम आता है, वैसे ज़हर होता है।”
“अल्लाह! बच्चों को ज़हर देने को बोल रही थी!”
“ख़ुद भी खाती!”
“तौबा! कर लेती ऐसा?”
“क्या पता! धमकी तो कारगर हुई! खाविंद तीर की तरह सीधा हो गया।”
“वो तो है!”
“नेकबख्त औरत थी। खाविन्द की ख़ैरख्वाह बीवियां ऐसी ही होती हैं।”
“और खाविन्द! अकबर खान को क्या बोलेगा? नालायक! नामाकूल! ढीठ! क्या?”
“गुमराह। असल में लविंग हसबैंड, डोटिंग फादर . . .”
“रुक, रुक। अभी वो जुबान बोलने का जो मेरे मगज में पड़ सके।”
“. . . बीवी का सगा, औलाद का ख़ैरख्वाह . . .”
“ये सब अकबर खान, जो अपनी हवा के लिए हमसाये की हवा खराब किए था, उसका जीना दुश्वार किए था?”
“ऐसी ही दुनिया है आज की। ऐसा ही मिज़ाज है दुनिया का। सच्चरित्रता, सद् भावना, रोज़मर्रा की फरेबी ज़िन्दगी की बद्कारियों, बद्चलनियों के पीछे यूँ छुप जाती हैं जैसे चमकीली चीज़ पर धुएं की परत चढ़ जाती है। परत को जरा खुरचो तो भीतर की चमक फिर नुमायां होने लगती है . . .”
इरफ़ान ने अर्थपूर्ण भाव से रियरव्यू मिरर के ज़रिए पीछे बैठे शोहाब से निगाह मिलाई।
शोहाब यूँ मुस्कराया जैसे समझ रहा हो जोड़ीदार के मन में क्या था।
“और?” – इरफ़ान विमल को तरह देता बोला।
विमल, जो जोड़ीदारों की खुफ़िया इशारेबाज़ी से बेख़बर था, अपनी ही धुन में बोलता रहा – “कितने मुलाहजों से बंधी है इंसानी ज़िन्दगी! फिर भी इंसान समझता है वो बन्धनमुक्त है, मनमानी कर सकता है।”
“और?”
“और कबीर दास कहते हैं – कुसल कुसल ही पूछते, जग में रहा न कोय; जरा मुई न भय मुआ, कुसल कहाँ ते होय।”
“और?”
“और क्या?”
“और मैं बोले तेरी इजाज़त से?”
“बोल, बिना इजाज़त बोल।”
“अभी तेरे में कबीर दास की रूह बिराजी हुई है, और पंडित भोजराज शास्त्री अपनी बारी के इंतजार में बेकल हैं, बेचैन हैं . . .”
“तू . . . तू मेरा मज़ाक उड़ा रहा है?”
“और तू हर की पौड़ी पहुँच भी चुका है, मेरे और शोहाब के पेटी-तबला ले के पहुँचने के इन्तज़ार में!”
“तू वाकई . . .”
बाकी अल्फाज़ विमल के मुँह में ही रह गए। कैब को इतनी ज़ोर की ब्रेक लगी कि बावजूद सीट बैल्ट, विमल का सिर सामने डैश बोर्ड से टकराने से बाल-बाल बचा।
“अरे, क्या करता है?” – विमल झल्लाया।
“सामने देख, बाप।” – इरफ़ान संजीदगी से बोला।
विमल ने हिदायत पर अमल किया तो पाया एक ‘फार्चूनर’ ने एक राहगीर को टक्कर मार दी थी।
“सरासर डिरेवर की गलती थी।” – इरफ़ान बोला – “खजूर को दिख रहा था भीड़ू सड़क पार कर रहा था कि गाड़ी से ठोक दिया! पीछू का साला रैड लाइट जम्प किया।”
“गिरा पड़ा है।” – विमल बोला – “उठाएँ।”
“छोड़ न बाप! ऐसे वाकये दिन में सौ बार होते हैं, दो सौ बार होते हैं। हमेरा कोई मतलब नहीं . . .।”
“तुम्हारा कोई मतलब नहीं।” – विमल के ज़ेहन में नीलम की आवाज़ गूंजी – “जो तुम देख रहे हो, वो और लोग भी देख रहे हैं। तुम चौधरी बनने की कोशिश न करो।”
विमल कैब में से निकला और फार्चूनर के सामने पहुँचा।
इरफ़ान ने भी कैब से उतरने की कोशिश की।
“अभी नहीं।” – शोहाब बोला – “अभी देख, क्या होता है?”
“पण . . .”
“अरे, थोड़ी देर तो देख! फिर दोनों आगे पहुँचते हैं।” – शोहाब एक क्षण ठिठका, फिर बोला – “अगर ज़रूरत पड़ी तो?”
“ओह!”
“अभी पड़ी बात मगज में!”
“हाँ। अभी पड़ी।”
विमल फार्चूनर की पैसेंजर साइड पर पहुँचा। उसने शीशे पर दस्तक देकर ड्राइवर का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया और उसे शीशा नीचे गिराने का इशारा किया।
ड्राइवर बाईस-तेईस साल का युवक था जो सूरत से ही धृष्ट और कुलच्छना लग रहा था।
अहसान-सा करते उसने शीशा नीचे गिराया।
“क्या है?” – फिर बोला।
“जिसे टक्कर मारी” – विमल बोला – “उसे नीचे दे देने में कसर न छोड़ी! उठा उसे।”
युवक ने अपनी तर्जनी उंगली ऊपर छत की तरफ उठाई।
“क्या मतलब?”
“वो उठाएगा। बाजू हट।”
“उसके माथे से ख़ून निकल रहा है!”
“हट न! बैक करने दे मेरे को।”
विमल ने घसीट कर उसे फार्चूनर से बाहर निकाला और ख़ामोशी से एक-डेढ़ मिनट उसे ठोका। उतने से ही युवक की हालत ऐसी बद् हो गई जैसे रोडरोलर से टकराया हो। वो सड़क पर ऐसा ढेर हुआ कि ख़ुद उठ भी न सका।
“इसे तो” – विमल ने घायल राहगीर की ओर इशारा किया – “मैं उठाऊंगा, अब तेरे को कौन उठाएगा?
“मैं एमपी का बेटा हूँ।” – अभी भी उठने की कोशिश करता, बुरी तरह से हाँफता वो बोला।
“बाज़ न आया तो लोग कहेंगे, एमपी का बेटा था।”
“कौन है तू जो इतना कड़क बोलता है?”
“फैंटम! दि घोस्ट हू वाॅक्स!”
हकबकाया-सा वो उठ के अपने पैरों पर खड़ा हुआ।
“उसे उठा और दो हज़ार रुपये दे। अपनी मलहम पट्टी वो ख़ुद करा लेगा।”
युवक ने उसके आदेश का पालन किया।
विमल वापिस लौटा।
“क्या देखा!”– शोहाब बोला – “ज़रूरत थी हमारी?”
इरफ़ान ने मंत्रमुग्ध भाव से इंकार में सिर हिलाया। फिर विमल करीब पहुँचा तो वो उससे मुख़ातिब हुआ – “बाप, अभी बोले तो जो किया, ठीक किया पण ऐसे पंगे न लिया कर।”
“नहीं ही लेता हूँ, यार” – विमल के स्वर से उदासी साफ़ झलकी – “पर नीलम याद आ गई, उसकी हुक्मउदूली का जी कर आया।”
इरफ़ान और शोहाब अवाक् एक-दूसरे का मुँह देखने लगे।
0 Comments