12 दिसम्बर: गुरुवार

सुबह हाशमी के साथ मुबारक अली मॉडल टाउन पहुंचा।
उस घड़ी नौ बजे थे।
मेड आठ बजे ही वहां से चली गयी थी। विमल ने जबरन उसे प्रीपेड टैक्सी पर लाजपत नगर भेजा था जहां कि उसकी प्लेसमेंट एजेंसी थी।
‘‘तेरा फोन सुनते ही आया।’’ – मुबारक अली बोला।
‘‘शुक्रिया।’’
‘‘रात एक बजे घर लौटा था इसलिये हाशमी को टैक्सी चलाने के लिए साथ लाया। मैं सारा रास्ता आंखें बन्द करके ऊंघता बैठा।
‘‘अभी भी ऊंघ में है?’’
‘‘नहीं, अब चौकस है।’’
‘‘चाय पियेगा?’’
मुबारक अली ने फ्लैट में निगाह दौड़ाई।
‘‘वो बाई तो किधर दिखाई नहीं देता। चाय कौन बनायेगा?’’
‘‘मैं।’’
‘‘क्या बोला?’’
‘‘मेड चली गयी।’’
‘‘चली गयी? कहां चली गयी?’’
‘‘जहां से आई थी। अपनी एजेंसी में। मैंने उसे डिसमिस कर दिया।’’
‘‘अरे! क्यों?’’
‘‘अभी समझ जाओगे, बड़े मियां।’’
‘‘अरे, तेरा काम कैसे चलेगा?’’
‘‘वो भी अभी समझ जाओगे।’’
‘‘बहुत, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, खुफिया करके बातें करता है!’’
विमल ने जवाब न दिया, उसने हाथ में थमे ए-4 साइज के लिफाफे में से कुछ कागजात निकाले।
‘‘ये कुछ कागजात हैं तुम्हारे लिये जिन्हें मुकम्मल तौर पर समझने में अशरफ तुम्हारी मदद करता लेकिन अच्छा हुआ कि हाशमी साथ आया, ये इस काम को बेहतर अंजाम दे सकेगा।’’
‘‘हैं क्या ये कागजात?’’
‘‘ये’’ – विमल ने उसे एक कागज थमाया – ‘‘मेरी वसीयत है जिसके मुताबिक मेरी मौत के बाद इस कोठी के तुम मालिक हो।’’
‘‘क्या!’’ – मुबारक अली अचकचा कर बोला – ‘‘पागल हुआ है?’’
‘‘नहीं। वसीयत की ये भी एक शर्त होती है जो कि बाकायदा तहरीरी तौर पर दर्ज की जानी होती है कि वसीयत करने वाले ने अपने पूरे होशोहवास में वसीयत की।’’
‘‘इस पर मेरी तसवीर है। कहां से आयी?’’
‘‘आजकल वसीयत पर एग्जीक्यूटर के साथ-साथ बैनीफिशियेरी की तसवीर लगाना भी जरूरी हो गया है, इसलिये फौरी जरूरत पूरी करने के लिये तेरी मेरी एक सैल्फी जो मेरे मोबाइल में भी, उसमें से निकाली।’’
‘‘ओह!’’
‘‘वसीयत पर दो गवाहों की एनडोर्समेंट की जरूरत होती है जो कि बेहतर होता है कि बैनीफिशियेरी के रिश्तेदार न हो। एक गवाही मैंने फ्रान की करा ली है, दूसरी तुम लोग किसी वाकिफ की करा लेना।’’
‘‘अरे, चश्मा भांजे, समझ रहा है सब?’’
‘‘हां, मामू।’’ – हाशमी बोला।
‘‘पर’’ – मुबारक अली विमल से सम्बोधित हुआ – ‘‘वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, मतलब क्या हुआ इसका? किया क्यों तूने ये सब?’’
‘‘ये किरायेनामा है’’ – विमल ने दो प्रिंटिड शीट उसके सामने रखीं – ‘‘जो ये जाहिर करता है कि ये कोठी मैंने तुम्हें किराये पर दी है। इस पर मैंने साइन कर दिये है, तुम अपने कर लेना। कर लेते हो न?’’
‘‘उर्दू में कर लेता हूं।’’
‘‘चलेगा।’’
‘‘मेरे ख़याल से’’ – हाशमी बोला – ‘‘इस पर भी, लीज एग्रीमेंट पर भी, तसवीर जरूरी होती है! दोनों पार्टीज की।’’
‘‘अगर रजिस्टर करानी हो तो। जो मकान मालिक अपनी सिक्योरिटी के लिये कराता है ताकि किरायेदार तंग न कर सके, न्यूसेंस न बन सके। यहां ऐसी कोई बात नहीं है, क्योंकि ये मॉनिटेरी डील है ही नहीं, बेऐतबारी है ही नहीं, इसलिये रजिस्ट्री जरूरी नहीं।’’
‘‘ठीक।’’
‘‘खानापूरी के लिये इस में महाना किराये की एक रकम भी दर्ज है लेकिन वो बेमानी है क्योंकि अदा नहीं की जानी। ये एक रसमी कार्यवाही है ताकि तुम लोगों की यहां मौजूदगी पर कोई उंगली न उठे।’’
‘‘ठीक।’’
‘‘मास्टर बैडरूम की वॉर्डरोब में एक सेफ है जिस पर कोड नम्बर्ड लॉक है। ये’’ – विमल ने मुबारक अली की जगह हाशिमी को एक चिट थमाई – ‘‘उसका फोर-डिजिट कोड है।’’
‘‘सेफ में क्या है?’’ – मुबारक अली उत्सुक भाव से बोला।
‘‘बहुत रोकड़ा है। सब तुम्हारे हवाले है।’’
‘‘वो भी?’’ – मुबारक अली के नेत्र फैले।
‘‘हां।’’
‘‘लेकिन क्यों?’’
‘‘क्योंकि मुझे जरूरत नहीं।’’
‘‘लेकिन . . .’’
‘‘जरूरत पड़ेगी तो वापिस मांग लूंगा। अब हुज्जत नहीं।’’
मुबारक अली चेहरे पर अनिच्छापूर्ण भाव लिये ख़ामोश हुआ।
कुछ क्षण ख़ामोशी रही।
‘‘तू चाहता है’’ – फिर मुबारक अली बोला – ‘‘हम यहां रहें?’’
‘‘मैं चाहता हू कि कुछ अरसा ये कोठी आबाद दिखे। ऐसा होने के कुछ फायदे मेरी निगाह में हैं जो आइन्दा सामने आयेंगे।’’
‘‘लेकिन माजरा क्या है?’’
‘‘माजरा ये है कि मैं रहूं या न रहूं, ये कोठी, इसका सब तामझाम तुम्हारा है। आगे के लिये जो राह मैंने चुनी है उस पर सर पर कफन बान्धे बिना नहीं चला जा सकता। मैं खेत रहूं तो वसीयत काम में लाना, वाहे गुरु की मेहर की छतरी मेरे सिर पर बनी रहे तो उस सूरत में किरायेनामा काम आयेगा।’’
‘‘तू क्या करेगा?’’
‘‘अभी पता नहीं।’’
‘‘कहां जायेगा?’’
‘‘पता नहीं।’’
‘‘इस बात की तो, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, तसदीक कर कि मैदान छोड़कर नहीं भाग रहा।’’
विमल के चेहरे पर आक्रोश के भाव आये।
‘‘सुनते नहीं हो, बड़े मियां।’’ – वो जब्त करता बोला – ‘‘सुनते हो तो समझते नहीं हो, क्योंकि रात की थकावट की वजह से मगज भटक जाता है। अभी मैंने सर पर कफन बान्धने की बात कहीं जो नहीं लगता कि तुम्हारे मिजाज में आयी। कोई सर पर कफन बांध के मैदान छोड़ के भागता है?’’
मुबारक अली ने जोर से थूक निगली।
‘‘पुर्जा पुर्जा कट्ट मरे, कभी न छाड़े खेत सूरा सोही।’’
‘‘यानी कोई . . . कोई . . . अबे, तालीमयाफ्ता भांजे, बोलता क्यों नहीं क्या कहते हैं अंग्रेजी में!’’
‘‘स्ट्रेटेजी, मामू’’ – हाशमी बोला – ‘‘स्ट्रेटेजी।’’
‘‘हां। कोई सटरे . . . स्टरे . . . वो लगा रहा है जो हाशमी बोला?’’
‘‘हां।’’ – विमल बोला।
‘‘अशरफ को तो साथ रखेगा न!’’
‘‘नहीं, लेकिन मैं हमेशा इसके और अल्तमश के कान्टैक्ट में रहूंगा।’’
‘‘अच्छा!’’
‘‘हां।’’
‘‘इस बाबत थोड़ा और सोच लेता तो . . .’’
‘‘बहुत सोच लिया।’’
‘‘ठीक है, तू यही चाहता है तो . . . तो जा। तेरा अल्लाह वाली। लेकिन एक बात याद रखना। तू एक आवाज देगा, शाना-ब-शाना कोई भी लड़ाई लड़ने को तैयार मुबारक अली को अपने बाजू में खड़ा पायेगा। मैं और मेरे भांजे खुशी-खुशी शहीद हो जायेंगे तेरी ख़ातिर लेकिन, सरदार, तेरी आन, बान, शान पर आंच नहीं आने देंगे। ये एक सच्चे मुसलमान का तेरे से वादा है।’’
‘‘मैं मशकूर हूं। मैं जानता हूं, बाख़ूबी जानता हूं कि अपने मेहरबान साथियों के बिना मेरी कोई औकात न कभी थी, न कभी होगी। मैं अकेला सवा लाख हूं, ये कहने की बातें हैं, सजावटी बातें हैं, हौसलाअफजाह बातें हैं। हकीकत ये है कि अकेला चना कितना भी उछल ले, भाड़ नहीं फोड़ सकता।’’
‘‘तेरे पर ये बात लागू नहीं। है भी तो . . . देखेंगे।’’
‘‘जाता हूं।’’
जाने से पहले विमल मुबारक अली से गले लग के मिला।
ग्यारह बजे जस्सा मॉडल टाउन और आगे कोठी नम्बर डी-9 पर पहुंचा।
वो पिलर में लगी कॉल बैल बजाने लगा तो भीतर उसे अजीब नजारा दिखाई दिया।
दो नौजवान लड़के बरामदे में बैंत की कुर्सियों पर बैठे अख़बार बांच रहे थे।
वैसे ही चार फ्रंट यार्ड में फोल्डिंग चेयर्स पर बैठे धूप का आनन्द लेते जान पड़ते थे।
कोठी का मेन डोर खुला था और भीतर से हलचल की आवाजें आ रही थीं।
क्या माजरा था!
उसने पीछे हट कर गेट के बायें पिलर पर लगी काल बैल के बटन के नीचे लैटर बाक्स के शीशे पर लिखा नम्बर पढ़ा।
डी-9, मॉडल टाउन।
नहीं, किसी गलत जगह तो वो नहीं पहुंचा था!
‘‘कुछ चाहिये?’’
जस्से ने सिर उठाया।
एक नौजवान लड़का – अनीस, मुबारक अली के भांजों में से एक – आयरन गेट के पार खड़ा उससे सवाल कर रहा था।
‘‘नहीं।’’ – जस्सा हड़बड़ाया – ‘‘हां। जरा फ्रान से मिलना था।’’
‘‘वो कौन है?’’
‘‘यहां मेड है।’’
‘‘अच्छा वो! वो तो चली गयी!’’
‘‘चली गयी! कहां चली गयी?’’
‘‘क्या पता कहां चली गयी! आज सुबह काम छोड़के चली गयी।’’
‘‘वजह?’’
‘‘बोलती थी जिस घर में लेडीज न हों, सिर्फ मर्द हों, वो वहां काम नहीं कर सकती थी।’’
‘‘ओह! आप लोग कौन हैं?’’
‘‘हम किरायेदार हैं।’’
‘‘किरायेदार!’’
‘‘हां।’’
‘‘कोठी का मालिक कहां गया?’’
‘‘कौल साहब की हैदराबाद ट्रांसफर हो गयी है। वहीं होंगे। दिल्ली शायद ही कभी लौटें।’’
‘‘यूं एकाएक चले गये?’’
‘‘हां।’’
‘‘क्यों भला?’’
‘‘मर्जी उन की। हम कौन होते थे पूछने वाले!’’
‘‘कल तो अभी हरिद्वार गये थे . . .’’
‘‘अच्छा, मालूम है आपको! वाकिफ़ हैं आप कौल साहब के?’’
‘‘उन का साजोसामान?’’
‘‘जो साथ ले जा सकते थे ले गये, बाकी सब हमारे हवाले कर गये।’’
‘‘कमाल है! यूं आननफानन तो कोई नहीं जाता नयी पोस्टिंग पर!’’
‘‘कौल साहब गये न!’’
‘‘हूं। ठीक है, शुक्रिया।’’
जस्सा वहां से हटा।
बड़ी चोट हुई थी। अब न कौल को उसकी बीवी की तरह घर में घुसकर मारा जा सकता था और न मेड से कबूलवाया जा सकता था कि फिंगरप्रिंट्स के मामले में उसने क्या करतब किया था, क्यों करतब किया था।
वो डी-6 पर पहुंचा।
पिता पुत्र दोनों घर पर थे।
उसने पिछले रोज की अपनी भागदौड़ की रिपोर्ट पेश की।
‘‘हमारा पड़ोसी मशहूर इश्तिहारी मुजरिम सोहल!’’ – चिन्तामणि अविश्वासपूर्ण स्वर में बोला – ‘‘नामुमकिन!’’
‘‘क्यों नामुमकिन’’ – जस्सा बोला – ‘‘आप ही तो कहते थे कि पड़ोसी के ढोल में कोई बड़ी पोल थी!’’
‘‘हां, कहता था। लेकिन इतनी बड़ी पोल! कैसे हो सकता है! हम इतने ख़तरनाक गैंगस्टर की बीवी को इतनी आसानी से ख़त्म कर पाये, यही बात जाहिर करती है कि जो तुम कहते हो हो सकता है, वो नहीं हो सकता।’’
‘‘ठीक है’’ – जस्सा भुनभुनाया – ‘‘नहीं हो सकता तो नहीं हो सकता। नहीं हो सकता तो फिर तो यही हो सकता है कि एक नाम के दो शख़्स हैं, दोनों दो जुदा वक्तों पर गैलेक्सी के मुलाजिम थे और दोनों दो जुदा वक्तों पर आपके पड़ोस में – डी-9 में – रहते थे।’’
‘‘ये भी नहीं हो सकता।’’
‘‘आप तो मेरा दिमाग घुमाये दे रहे हैं, त्रिपाठी जी!’’
‘‘पड़ोसी सोहल था भी तो क्या?’’ – अरमान बोला – ‘‘हाथ से तो निकल गया न!’’
‘‘डर के भाग गया?’’
‘‘हो सकता है।’’
‘‘तो फिर वो सोहल कैसे हो सकता है? जिसकी रिप्यूट है कि शेर के जबड़े में हाथ डाल सकता है, वो डर के क्योंकर भाग गया?’’
किसी ने जवाब न दिया।
‘‘हमने इतने बड़े गैंगस्टर को धमकी जारी की!’’
‘‘नहीं की।’’ – चिन्तामणि झल्लाया – ‘‘वो सोहल नहीं हो सकता। वो सोहल होता तो उसका पलटवार फौरन होता और वो हम से झेला न जाता।’’
‘‘आप पिता-पुत्र एक फैसला कर लो’’ – जस्सा झल्लाया – ‘‘वो सोहल है या नहीं है।’’
‘‘जब तू कहता है कि पड़ोसी के फिंगरप्रिंट्स सोहल के फिंगरप्रिंट्स से नहीं मिलते . . .’’
‘‘नहीं मिलते। लेकिन साथ में ये भी तो कहता है कि मेड ने फिंगरप्रिंट्स के साथ कोई कलाकारी दिखाई हो सकती है जो वो मिल जाती जो मैं उससे कबुलवाता . . . कबुलवा के रहता। लेकिन . . . हाथ से निकल गयी साली।’’
‘‘और तेरे दस हजार रुपये भी गये।’’ – चिन्तामणि हंसा।
‘‘मेरे नहीं।’’
‘‘क्या बोला?’’
‘‘आप के गये। मैंने जो किया आप के लिये किया। वो रुपये आप मुझे लौटायेंगे।’’
‘‘गोयल साहब से मांगना।’’ – अरमान बोला – ‘‘ये उनका भी काम है। वो न दें तो पापा दे देंगे।’’
‘‘ठीक है। अब बोलो, आगे क्या करना है?’’
‘‘क्या करना है?’’ – चिन्तामणि बोला – आगे करने का जो रास्ता सोचा था, वो तो ब्लॉक हो गया। लेकिन’’ – वो एक क्षण ठिठका, फिर बोला – ‘‘एक काम मैं फिर भी करूंगा।’’
‘‘क्या?’’
‘‘गैलेक्सी के हैदराबाद आफिस से पता निकलवाऊंगा कि क्या एकान्टेंट अरविन्द कौल ने – हमारे पड़ोसी ने – वहां जायन किया है! गैलेक्सी का हैदराबाद में आफिस कहां है, ये नैट पर गैलेक्सी के वैब साइट से ही पता चल जायेगा।’’
‘‘वो वहां हुआ तो?’’
‘‘तो समझेंगे हमारी धमकी का ख़ौफ खा के दिल्ली से भाग गया।’’
‘‘न हुआ तो?’’
‘‘तो समझेंगे वो दिल्ली में ही कहीं है और पलटवार की कोई स्ट्रेटेजी सोच रहा है।’’
‘‘यानी पड़ोस छोड़ा, दिल्ली न छोड़ी!’’
‘‘हां।’’
‘‘गुड। अब ये भी फैसला कर ही डालिये कि वो सोहल है या नहीं है!’’
‘‘मेरी अक्ल यही कहती है कि नहीं है। वो मेड फिंगरप्रिंट्स के साथ कोई करतब तब कर सकती थी जबकि उसे ऐसी कोई हिदायत होती . . .’’
‘‘कैसे होती? नहीं हो सकती थी।’’
‘‘या उसे ही अपने एम्पलायर की हकीकत के बारे में कोई शक
होता . . .’’
‘‘कैसे होता? जब किसी को कभी शक नहीं हुआ तो मेड को कैसे होता?’’
‘‘या उसे तेरे पर कोई शक हुआ होता।’’
‘‘ऐसा होता तो वो मेरी मदद से ही इंकार कर देती। मेरे को गेट ही न खोलती।’’
‘‘फिर तेरे से दस हजार रुपये कैसे ऐंठती?’’
जस्सा चुप हो गया।
‘‘एक बात को तू नजरअन्दाज कर रहा है, जस्से। अगर हैडक्वॉर्टर में फिंगरप्रिंट्स मिलते पाये गये होते तो तेरे यार एसआई ने तेरे को उस बाबत ख़बर करने से पहले अपने आला अफसरों को खड़काया होता जिन्होंने पड़ोसी को गिरफ्तार करने के लिये एक बड़े पैमाने पर रेड आर्गेनाइज की होती। यानी जब पुलिस ही मानने को तैयार नहीं कि हमारा पड़ोसी सोहल है तो हम कैसे मान लें! अलबत्ता ये मैं अभी भी कहता हूं कि पड़ोसी के ढोल में कोई पोल है, जो वो ख़ुद को बताता है, वो उसके अलावा कुछ है।’’
‘‘क्या?’’
‘‘अब क्या बोलूं क्या! वो टिका होता तो बोलता क्या! तो कोई तरकीब सोचता उसके ढोल की पोल भांपने की।’’
‘‘लिहाजा आगे करने को कुछ नहीं है?’’
‘‘ऐसा ही जान पड़ता है।’’
‘‘हमारा लड़का सेफ है? इसका दोस्त अकील सैफी सेफ़ है?’’
चिन्तामणि सकपकाया।
‘‘एक बात की तरफ, पापा, मैं भी आपकी तवज्जो दिलाना चाहता हूं।’’ – अरमान बोला – ‘‘शायद मौजूदा डिसकशन में आपको उसकी कोई रैलेवैंस लगे।’’
चिन्तामणि की सवालिया निगाह अपने पुत्र की तरफ उठी।
‘‘मैंने आपकी तवज्जो ‘फैंटम’ की उंगली की अंगूठी की तरफ दिलाई थी जिस पर सिखों वाला ओम गुदा था। वैसी ही अंगूठी मैंने पड़ोसी के बायें हाथ की दूसरी उंगली में देखी थी। अब यहां मुद्दा उठ रहा है कि वो सोहल हो सकता है या नहीं! सोहल सिख है, सिख का वैसी ख़ास ओम वाली अंगूठी पहनना स्वाभाविक है, इसलिये पड़ोसी सोहल हो सकता है।’’
‘‘ये ग़लत लॉजिक है। ये दो में दो जोड़ कर बाइस जवाब निकाले जैसा काम है। ये ऐसी लॉजिक है जैसे कोई रमेश नहीं है, सुरेश नहीं है, गिरीश नहीं है, हरीश नहीं है, कैलाश नहीं है तो प्रकाश है।’’
‘‘आप सुनो तो!’’
‘‘सुन रहा हूं।’’
‘‘देखिये, पहली वारदात, जिसका शिकार अमित बना, उनत्तीस नवम्बर को हुई। दूसरी जिसका शिकार अशोक बना, चार दिन बाद तीन दिसम्बर को हुई। आज बारह दिसम्बर है। नौ दिन से शान्ति क्यों है?’’
‘‘क्योंकि’’ – जवाब जस्से ने दिया – ‘‘दो वारदातों के बाद अकील ख़बरदार है . . . जैसे कि तू ख़बरदार है।’’
‘‘यानी फैंटम का दांव नहीं लग रहा?’’
‘‘और क्या वजह हो सकती है?’’
‘‘है तो सही एक और वजह’’ – चिन्तामणि बोला – ‘‘जो हो सकती है!’’
‘‘क्या?’’
‘‘अरमान को शक है कि ‘फैंटम’, जिसने कि अमित और अशोक की दुरगत की, हमारा पड़ोसी है। एक मिनट के लिये फर्ज करो कि अरमान का शक सही है। सात दिसम्बर को पड़ोसी की बीवी ऊपर गयी। तब से वो बीवी की गति कराने में ही भागा फिर रहा है। ऐसे में तीसरी वारदात की तरफ तवज्जो देने का टाइम उसे कब को मिलता, भई?’’
‘‘यानी कि बीवी के साथ जो बीती, वो न बीती होती तो अब तक कुछ हो चुका होता! तीसरा कांड हो चुका होता!’’
‘‘मुमकिन है।’’
‘‘तो फिर फैसला इस बात पर छोड़िये कि आइन्दा चन्द दिनों में अगर तीसरा कांड होता है तो पड़ोसी दिल्ली में ही है वर्ना अपने बच्चे और अपने अंजाम से ख़ौफ खाकर भाग गया।’’
‘‘भई, है तो ये ख़ुदगर्जी की सोच कि हम अकील के साथ हादसा होने, या न होने, का इन्तजार करें लेकिन . . . ठीक है, यही करते हैं।’’
अकील सैफी दोस्त की बहन की शादी अटैंड कर के अशोक विहार से लौट रहा था और हमेशा की तरह अपनी ‘फिगो’ ख़ुद ड्राईव कर रहा था।
उस वक्त दस बजने को थे।
बारात लेट पहुंची थी वर्ना वो और एक घन्टा पहले घर लौट रहा होता।
लड़की की शादी थी इसलिये वहां घूंट का कोई प्रबन्ध नहीं था लेकिन फिर भी उसने घूंट लगया था। उस जैसे तीन मेहमान वहां और भी थे जो उस जैसे घूंट के रसिया थे, आपस में वाकिफ थे और एक के पास ब्लैक डॉग की बोतल थी। चारों ने कार में बैठ कर बोतल ख़ाली की थी।
दोस्त की मनुहार पर भी वो डिनर के लिये नहीं रुका था क्योंकि तब और देर हो जाती जो कि उन दिनों के हालात की रू में उसे मंजूर नहीं था।
तभी आगे सड़क पर उसे ख़ाकी वर्दी दिखाई दी।
उसने बाहर झांका तो पाया कि उस घड़ी वो रिंग रोड़ पर था। उसने वापिस आगे देखा तो पाया कि डंडा हिलाती, रुकने का इशारा करती पुलिसकर्मी महिला थी। उसके करीब तीन और लेडीज पुलिस और दो मर्द पुलिस वाले थे जो कोई आधी दर्जन लड़कियों को घेरे थे।
कार रोकते-रोकते उसे अहसास हुआ कि डंडे वाली, पीक कैप वाली, दो सितारों वाली सब-इन्स्पेक्टर थी, तीन औरतों में एक असिस्टेंट सब-इन्स्पेक्टर थी, दो हवलदार थीं और दोनों मर्द भी उनकी तरह तीन फीती वाले हवलदार थे। लड़कियां पांच थीं, नौजवान थीं माडर्न थीं और पांचों ने पल्लुओं से या किसी और तरीके से नाक और आंखों के संगम तक अपने मुंह ढ़ंके हुए थे। करीब एक पुलिस जीप खड़ी थी जो आधी बायीं ओर के ऊंचे फुटपाथ पर चढ़ी हुई थी।
डंडे वाली सब-इन्स्पेक्टर के इशारे पर उसने उसकी ओर का शीशा नीचे गिराया।
‘‘आई एम ऐस-आई- कमला रावत’’ – वो तनिक नीचे झुक कर कार में झांकती बोली – ‘‘पुलिस जीप का एक्सीडेंट हो गया है। आप को हमारी मदद करनी होगी।’’
‘‘क्या हुआ?’’
‘‘कुत्ता सड़क पर आ गया। उस को बचाने के चक्कर में जीप आउट ऑफ कन्ट्रोल हो गयी, ऊंचे फुटपाथ पर चढ़ गयी, अब वहां से हिलती नहीं।’’
‘‘क्या मदद चाहती हैं?’’
‘‘आप को हमें लिफ्ट देनी होगी।’’
‘‘मैडम, ये छोटी-सी गाड़ी है, इतने जने कहां समायेंगे इसमें?’’
‘‘सब को नहीं। सिर्फ मुझे और इस एक लड़की को।’’ – उसने सलवार सूट पहने एक लम्बी लड़की की ओर इशारा किया जिसने अपने दुपट्टे से मुंह ही नहीं सिर भी ढंका हुआ था, सिर्फ उसकी बड़ी-बड़ी, कजरारी आंखें बितर बितर बाहर झांकर रही थीं।
‘‘माजरा क्या है?’’
‘‘करीब एक रोस्टोरेंट है, इनफार्मर की टिप पर जहां रेड पड़ी तो ये सारी लड़कियां सॉलीसिटिंग में पकड़ी गयीं।’’
‘‘किस में?’’
‘‘सॉलीसिटिंग में।’’
‘‘आई डोंट अन्डरस्टैण्ड।’’
‘‘धन्धा कर रही थीं। ग्राहक पटा रही थीं।’’
‘‘ओह! ओह!’’
‘‘बड़े आर्गेनाइज्ड तरीके से ये कारोबार वहां चल रहा था। ये रिंग लीडर है, इसे फौरन आफिस पहुंचाये जाने का हुक्म हुआ है।’’
‘‘आफिस कहां है?’’
‘‘मथुरा रोड पर। आप किधर जा रहे हैं?’’
‘‘जा तो मैं उधर ही रहा हूं लेकिन सॉरी, मैं आपको लिफ़्रट नहीं दे सकता।’’
‘‘क्यों भला?’’
‘‘मेरे को जल्दी है। मेरी और भी प्राब्लम है . . .’’
‘‘कैसे आदमी हैं आप! जब हर, सिविलियन को हम कॉप विदाउट यूनीफार्म बोलते हैं तो आप हमारे साथ ऐसे पेश आयेंगे!’’
‘‘लेकिन . . .’’
‘‘जबकि आप ख़ुद कह रहे हैं कि आप भी उधर ही जा रहे हैं।’’
‘‘आप बैकअप कॉल कीजिये न!’’
‘‘किया है। इतनी समझ है मेरे में। बैकअप ने दूर से आना है। इस रिंग लीडर को फौरन भैरो रोड आफिस पहुंचाये जाने का हुक्म है।’’
‘‘अच्छा!’’
‘‘जी हां। नाओ, प्लीज।’’
‘‘ओके।’’
‘‘थैंक्यू।’’
सब-इन्स्पेक्टर ने दुपट्टा लपेटे लड़की को पिछली सीट पर धकेला और ख़ुद आगे अकील के साथ पैसेंजर सीट पर बैठ गयी।
‘‘शान्ता!’’ – वो अधिकारपूर्ण स्वर में बोली – पीछे सब सम्भालना।’’
‘‘यस, मैम।’’ – एऐसआई बोली, उसने तन कर सैल्यूट मारा।
‘‘प्लीज, मूव।’’ – ऐसआई अकील से बोली – ‘‘एण्ड स्टेप ऑन इट।’’
‘‘मैडम’’ – अकील कार को गियर में डालता बोला – ‘‘स्पीडिंग का चालान हो जायेगा।’’
‘‘नॉनसेंस! दिस इज ऐन इमरजेंसी। एण्ड आई एम ए पार्ट ऑफ दि सिस्टम दैट चालांस। मेरे होते चालान कैसे हो जायेगा?’’
‘‘फिर क्या बात है!’’ – अकील ने एक्सीलेटर पर दबाव बढ़ाया।
‘‘क्या नाम है?’’
‘‘अकील। अकील सैफी।’’
‘‘कहां से आ रहे थे?’’
‘‘अशोक विहार से। एक मैरिज अटेंड कर के।’’
‘‘ओह! मिस्टर सैफी, यू विल फाइन्ड ए मैंशन आफ युअर हैल्प इन टुमारोज न्यूजपेपर्स।’’
‘‘ग्रेट।’’
‘‘ए मैंशन ऐनीवे।’’
‘‘हम्म।’’
बाकी का रास्ता ख़ामोशी से कटा।
‘‘मथुरा रोड पर कहां?’’ – एकाएक अकील ने पूछा।
‘‘सुन्दरनगर आने दो, बोलती हूं।’’
‘‘आ ही गया समझो। . . . लो, आ गया।’’
‘‘पहली सड़क पर अन्दर।’’
‘‘पर मैंने तो सीधा जाना है!’’
‘‘मामूली डाइवर्जन है। जब इतनी हैल्प की है तो थोड़ी और में क्यों हुज्जत करते हो!’’
‘‘ओके।’’
‘‘दायें पार्क है। उसका परला सिरा आते ही रोकना।’’
अकील ने आदेश का पालन किया।
ऐसआई ने जिस इमारत के सामने कार रुकवाई, वो एकमंजिला थी, उसके सामने एक बड़ा-सा यार्ड था जिसमें अन्धेरा था और इमारत के भीतर भी मुश्किल से ही रोशनी का आभास मिल रहा था।
‘‘ये कैसा आफिस है?’’ – अकील तनिक सकपकाया-सा बोला – ‘‘अन्धेरा . . .’’
‘‘टाइम देखो। पौने ग्यारह बजने को हैं। इस वक्त क्या यहां जगमग होनी चाहिये?’’
‘‘ओह!’’ – वो आश्वस्त हुआ – ‘‘नाम क्या है आफिस का?’’
‘‘एन्टी-प्रास्टीच्यूशन ब्यूरो।’’
‘‘मैंने तो ऐसे किसी ब्यूरो का नाम कभी नहीं सुना!’’
‘‘बाकी तमाम ब्यूरोज का नाम सुना है?’’
‘‘ओह! कोई बोर्ड भी नहीं दिखाई दे रहा!’’
‘‘खुफिया आफिस है। बोला न!’’
‘‘हां, बोला तो सही!’’
‘‘इसीलिये तो रिहायशी इलाके में है!’’
‘‘ओह!’’
‘‘हार्न बजाओ।’’
‘‘हार्न बजाऊं? क्यों?’’
‘‘अरे, बजाओ तो!’’
उसने एक बार हार्न बजाया।
एक दरवाजा खुला, एक वर्दीधारी सिपाही बाहर निकला।
ऐसआई कार से बाहर निकल कर खड़ी हुई।
सिपाही की उसपर निगाह पड़ी तो उसने दौड़ कर गेट खोला।
ऐसआई ने दुपट्टे वाली को इशारा किया तो ख़ामोशी से वो भी कार से बाहर निकली।
‘‘मैडम को अन्दर ले के जा।’’ – उसने सिपाही को आदेश दिया।
तत्काल सिपाही दुपट्टे वाली के करीब आकर खड़ा हुआ। वो बिना हुज्जत उसके साथ हो ली।
‘‘आप भी आओ जरा।’’ – ऐसआई अकील से बोली।
‘‘मैं!’’ – अकील सकपकाया – ‘‘मैं किसलिये?’’
‘‘कल के पेपर्स में तुम्हारे मैंशन के साथ तुम्हारी तसवीर भी तो होनी चाहिए!’’
‘‘ओह! लेकिन तसवीर यहीं खींचो न! अपने मोबाइल से।’’
‘‘मोबाइल से ही खींचेंगे – रेगुलर कैमरा इस वक्त यहां कहां से आयेगा – लेकिन भीतर आफिस में, जहां मैं तुम्हारे साथ हाथ मिला रही होऊंगी और हमारी कैदी भी हम दोनों बीच फ्रेम में होगी। सिपाही फोटो खींच देगा।’’
वो हिचकिचाया।
‘‘बस, एक मिनट की जहमत है, फिर विद थैंक्स ऑफ दिल्ली पुलिस, अपनी राह लगना।’’
‘‘ओके।’’
दोनों भीतर पहुंचे।
वहां सिपाही और कैदी मौजूद थे और यूं अगल बगल खड़े थे जैसे दोस्त हों।
‘‘ये तो’’ – अकील बोला – ‘‘आफिस नहीं है!’’
‘‘आफिस इस कमरे के पीछे है’’ – ऐसआई बोली – ‘‘लेकिन हमारा काम यहीं हो जायेगा।’’
‘‘वॉट द हैल। आई एम लीविंग।’’
वो घूमने को हुआ तो जैसे फ्रीज हो गया। उसका निचला जबड़ा छाती तक लटक गया।
सिपाही के हाथ में गन थी जिसको वो मजबूती से उसकी तरफ ताने था।
कैदी लड़की ने अपने मुंह माथे से दुपट्टा खोल कर अपने गले में डाल लिया। अकील को देख कर वो बड़े चित्ताकर्षक भाव से मुस्करायी।
अकील के जेहन में बिजली-सी कौंधी। तमाम माजरा फौरन उसकी समझ में आ गया।
अल्लाह! कितनी आसानी से वो उस जाल में फंस गया था!
सिपाही विमल था, कैदी लड़की अपने जनाना मेकअप में अल्तमश थी और सब-इन्स्पेक्टर प्रियंका एकेए दिव्या थी जो अट्ठाइस नवम्बर गुरुवार को हाइड पार्क में ऐन्ट्री के लिये विमल ने ऐंगेज की थी, जो विमल से इतनी मुतासिर हुई थी कि सहज स्वाभाविक ढंग से उसकी फ्रेंड बन गयी थी। पीछे रिंग रोड पर की तमाम लड़कियां – दो हवलदार और एक एऐसआई और चार गिरफ्तार लड़कियां प्रियंका के रसूख से उस ड्रामें के लिये विमल को हासिल हुई थीं और दो हवलदार अशरफ और अनीस थे। जीप किराये की थी जिसपर ‘दिल्ली पुलिस’ के टैम्परेरी स्टिकर लगे हुए थे जोकि ड्रामा ख़त्म होते ही हटा दिये जाने वाले थे और पुलिस की वर्दियां भी किराये की थीं जो कि किनारी बाजार से हासिल की गयी थीं जहां कि ऐसी आइटम्स बड़ी सहूलियत से हमेशा उपलब्ध होती थीं।
वो कोठी हाशमी के एक दोस्त के पिता की थी जो कि पिछले दो साल से सपरिवार दुबई में था। हाशमी के पास कोठी की चाबी इसलिये थी क्योंकि वहां का बिजली, पानी, लैंडलाइन का बिल भरा जाना होता था, सालाना हाउसटैक्स भरा जाना होता था, कभी-कभार कोई चिट्ठी-पत्री आ जाती थी तो उसकी बाबत दुबई ख़बर करना होता था; कई बार तो ऐसी चिट्ठी को खोल के, स्कैन कर के बाई मेल दुबई भेजना होता था।
अल्तमश ने अपने फैशनेबल, स्टाइलिश हैण्डबैग में से अपना ख़ास सामान बरामद किया और ख़ामोशी से, तल्लीनता से उस्तरे की धार परखने लगा।’’
‘‘मैं जाती हूं।’’ – प्रियंका जल्दी से बोली।
‘‘हां।’’ – विमल बोला – ‘‘शुक्रिया अदा करने आऊंगा।’’
‘‘वो तुम कर चुके।’’
‘‘फिर भी आऊंगा।’’
‘‘आना। मुझे ख़ुशी होगी।’’
‘‘जो हुआ, जो तुमने किया, जो तुमने देखा, वो सब अभी भूल जाना है।’’
‘‘क्या हुआ? मुझे कुछ नहीं मालूम।’’
‘‘गुड। सखियों को भी समझा देना।’’
‘‘ओके। ऑल द बैस्ट।’’
वो चली गयी।
विमल अकील की तरफ वापिस घूमा।
तब तक अकील का चेहराफ़क्क पड़ चुका था, वो बार-बार अपने एकाएक सूख जाये होंठों पर जुबान फेर रहा था और बेचैनी से बार-बार पहलू बदल रहा था।
‘‘हल्लो, मिस्टर रेपिस्ट!’’ – विमल बोला।
‘‘नहीं, नहीं।’’ – वो व्याकुल भाव से बोला – ‘‘मैं नहीं . . .’’
‘‘आखिरी बार उस परमसुख को याद कर लो जिसके आगे तुम्हें दुनिया हेच लगती थी।’’
‘‘मैंने कुछ नहीं किया था, मैं पाक परवरदिगार की कसम खाकर कहता हूं मैंने कुछ नहीं किया था। मैं तो स्टियरिंग पर था, गाड़ी चला रहा था।’’
‘‘कार चलाते भी हाथ चला रहा था, कमीने! इसी वजह से दो बार एक्सीडेंट करने लगा था . . .’’
‘‘तु . . . तु . . . तुम्हें कैसे मालूम?’’
‘‘... और तब बाज आया था जब साथियों ने तसल्ली दी थी कि माल में तेरा हिस्सा कहीं भागा नहीं जा रहा था।’’
‘‘क-कैसे मालूम?’’
‘‘तो तेरी बारी आखिर में आयी? जब किसी और ने स्टियरिंग सम्भाला और तुझे बद्फेली के लिये आजाद किया?’’
‘‘वो . . . वो नौबत ही न आयी। कसमिया कहता हूं वो नौबत ही न आयी। पहले ही सिख लड़के हमारे पैरेलल अपनी जीप चलाने लगे और . . . और . . .’’
‘‘अगवा और सामूहिक बलात्कार की शिकार औरत को रफ्तार से दौड़ती कार से बाहर धकेल दिया गया।’’
‘‘हं-हां। लेकिन मेरी किसी काम में कोई शिरकत नहीं थी। मैं तो सिर्फ और सिर्फ गाड़ी चला रहा था।’’
‘‘एक हाथ से। दूसरा, जो हाथ आ जाये, उसे नोचने के लिये इस्तेमाल कर रहा था। इसी वजह से गाड़ी दो बार डिवाइडर से टकराई और उलटते बची।’’
‘‘क . . . कैसे मालूम? कहीं . . . कहीं . . .’’
तभी अशरफ और अनीस वहां पहुंचे। तब तक वो पुलिस के हवलदार की खाकी वर्दी त्याग चुके थे। उन्होंने निगाह दौड़ा कर हालात का जायजा लिया और फिर ख़ामोशी से एक तरफ खड़े हो गये।
‘‘इस बात का तुझे अफसोस है’’ – विमल बोला – ‘‘कि हाथ ही चला पाने का मौका तुझे मिला, आखिर में जो तेरी प्रॉमिस्ड बारी आनी थी, वो न आई। ठीक?’’
‘‘नहीं, नहीं ठीक।’’ – अकील ने अर्तनाद किया – ‘‘नहीं ठीक। नहीं ठीक। मैं फिर कहता हूं मैंने कुछ नहीं किया था।’’
‘‘तो दहशत में क्यों है? कांप क्यों रहा है? बार-बार पहलू क्यों बदल रहा है? बार-बार थूक क्यों निगल रहा है? जुबान क्यों लड़खड़ा रही है तेरी?’’
‘‘वो . . . वो . . .’’
‘‘क्योंकि सजा से डरता है। गुनाह से नहीं डरता, दिलेर पट्ठा, सजा से डरता है।’’
‘‘म-मेरे को कोई सजा . . . सजा देना जुल्म होगा।’’
‘‘तूने कुछ इसलिये न किया, हराम के तुख्म, क्योंकि मौका न लगा। मौका लगता तो क्या कुछ न करता!’’
‘‘जनाब’’ – अकील गिड़गिड़ाया – ‘‘जो काम हुआ नहीं, उसका जिक्र किसलिये?’’
‘‘सवाल करता है, कमीने!’’
उसके गले की घन्टी जोर से उछली लेकिन मुंह से बोल न फूटा।
‘‘ठीक है, तो उसका जिक्र करते हैं जो हुआ। उस रोज जो हुआ, तेरी आंखों के सामने हुआ तो क्या कहने की जरूरत है कि उसके होने में बराबर . . . बराबर तेरी हामी थी? तू बलात्कारियों में बलात्कारी था, सिर्फ इस फर्क के साथ कि तेरी बारी आखिर में आनी थी। अगवा में तेरी बराबर की शिरकत थी। अब इंकार कर इस बात से।’’
उसके मुंह से बोल न फूटा, उसने जोर से थूक निगली।
‘‘जुर्म करने में या जुर्म को अपनी शिरकत के तहत अपनी आंखों के सामने होने देने में न कानूनन कोई फर्क है, न अखलाकन कोई फर्क है। जुर्म करने के लिये उकसाना भी जुर्म करने जैसा ही गम्भीर अपराध है और इस वजह से यकीनन तू सजा का मुस्तहक है . . .’’
‘‘ल-लेकिन’’ – उसने डरते-डरते अल्तमश हाथ में थमे खुले उस्तरे पर निगाह डाली – ‘‘इतनी बड़ी सजा . . .’’
‘‘गम्भीर अपराध की गम्भीर सजा होती है। तू उसी सजा कर मुस्तहक है जो तेरे दो क्राइम पार्टनर्स को मिल चुकी है और अब तुझे मिलेगी। सूली पर टांग दिये जाने के काबिल हो तुम सब। लाइन में खड़ा कर के गोली से उड़ा दिये जाने के काबिल हो तुम सब। शुक्र मना शैतान के जने, कि तुझे ऐसी सजा से कहीं कम सजा मिलने जा रही है।’’
‘‘नहीं, नहीं।’’ – वो बिलखने लगा – ‘‘ये जुल्म न करना। जिस ख़ुदा को भी मानते हो मैं तुम्हें उसका सदका देता हूं, ये जुल्म न करना। ख़ुदा के वास्ते मुझे बख़्श दो। मुझे बर्बाद न करो। बस, एक बार . . . सिर्फ एक बार मेरी ख़ता माफ कर दो। मैं हाथ जोड़ता हूं, तुम्हारे पांव पड़ता हूं . . .’’
‘‘वो औरत भी हाथ जोड़ती होगी! पांव पड़ती होगी! ऐसे ही रोती गिड़गिड़ाती होगी। फरियाद करती होगी जुल्म न करो, बर्बाद न करो, बख़्श दो! तेरे पर उस मजलूम की दाद फरियाद का कोई असर हुआ था? उसकी रहम की इल्तिजा से तुम में से कौन पसीजा था? जवाब दे। जवाब दे, हरामजादे!’’
जवाब देने की जगह वो अपने एकाएक सूख आये होंठों पर सप्रयास जुबान फैरने लगा।
‘‘पसीजने की जगह’’ – विमल गर्जा – ‘‘मरने के लिये उसे चलती कार में से बाहर धकेल दिया। इत्तफाक से वो जिन्दा बच गयी, तकदीर से वो जिन्दा बच गयी, वर्ना तुम लोगों ने तो उसे मार डालने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी! आखिर मार भी डाला।’’
आखिरी फिकरा कहने विमल की आवाज भर्रा गयी।
अकील के नेत्र फैले।
‘‘देखो! कमीना, ऐसे बबुआ बनके दिखा रहा है जैसे कुछ ख़बर न हो! कहता है इसने कुछ नहीं किया, इसे बेवजह सजा मिलने जा रही है। ठीक कहता है ये?’’
‘‘नहीं!’’ – अल्तमश, अशरफ, अनीस तीनों सम्वेत् स्वरे में बोले।
‘‘जब इस पर मजलूम औरत की दाद फरियाद का असर न हुआ तो इसकी दाद फरियाद का कोई असर मेरे पर होना चाहिये?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘तो फिर इन्तजार किस बात का है?’’
पलक झपकते अशरफ और अनीस ने अकील को दायें बायें से जकड़ लिया। उसने चिल्लाने के लिये मुंह खोला तो विमल ने उसके मुंह में हलक तक नाल घुसेड़ दी।
अल्तमश ने उसके करीब पहुंच कर उसकी पतलून नीचे खींची तो वो उसके टखनों के गिर्द जा गिरी।
उसने बांस का स्प्रिंग एक्शन वाला चिमटा सम्भाला . . .
रात के एक बजे अकील की ‘फिगो’ किसी गश्त करती पुलिस को नीला गुम्बद के टर्नअबाउट लावारिस खड़ी मिली। उन्होंने भीतर झांका तो अकील को ड्राइविंग सीट पर स्टियरिंग के पीछे बेहोश पड़ा पाया। जब बेहोशी की वजह सामने आयी तो पुलिसियों को होश उड़ गये। तत्काल उसे एम्स के ट्रामा सेंटर में पहुंचाया गया।
13 दिसम्बर: शुक्रवार
सुबह नौ बजे अरमान अपने पिता के रूबरू हुआ।
चिन्तामणि ड्राईंगरूम में बैठा उस रोज का अख़बार पढ़ रहा था जो कि टाइम्स आफ इन्डिया था जो उनके यहां नियमित रूप से आता था।
उसने अख़बार पर सेे सिर उठा कर पुत्र की तरफ देखा तो उसे बहुत आन्दोलित पाया।
‘‘क्या हुआ?’’ – चिन्तामणि सशंक भाव से बोला।
‘‘अभी मालूम होता है।’’ – अरमान व्यग्र भाव से बोला – ‘‘आप उस अख़बार को दफा कीजिये और’’ – ‘‘उसने अपना, हाथ जिसमें अख़बार थमा था, पिता के सामने किया – ‘‘इसे पढ़िये।’’
‘‘ये’’ – चिन्तामणि सकपकाया – ‘‘कोई जुदा अख़बार है?’’
‘‘हां। एक्सप्रैस है, उसका लेट, लेट सिटी एडीशन है।’’
‘‘अच्छा! इसमें कोई ख़ास ख़बर है?’’
‘‘हां। ख़ास तो है ही, ऊपर से एक्सप्रैस के अलावा और किसी अख़बार में नहीं छपी। मुझे अमित ने फोन पर ख़बर की तो पता लगा। फौरन मार्केट से एक्सप्रैस मंगवाया।’’
‘‘ख़बर क्या है?’’
‘‘ख़ुद देखिये। फ्रंट पेज पर ही है।’’
चिन्तामणि ने पुत्र के हाथ से अख़बार लिया। मुखपृष्ठ पर निगाह पड़ते ही वो सीधा होकर बैठा। उसने जल्दी-जल्दी ख़बर पढ़ी।
‘‘तौबा!’’ – अख़बार एक ओर डालता चिन्तामणि बड़बड़ाया – ‘‘ये आदमी है कि प्रेत है?’’
‘‘प्रेत है।’’ – अरमान बोला – ‘‘ख़ुद कहता है। दि घोस्ट हू वाक्स।’’
‘‘वो मजाक की बात है।’’
‘‘थी। अब नहीं रही। अब क्या कहते हैं पड़ोसी के बारे में?’’
चिन्तामणि ने तुरन्त उत्तर न दिया।
‘‘आप हैदराबाद से कुछ पता करने वाले थे!’’
‘‘हां। लेकिन अभी उसमें टाइम है।’’
‘‘क्यों भला?’’
‘‘भई, ट्रांसफर पर जाने वाले को नयी जगह जॉयन करने के लिये एक हफ्ते का टाइम मिलता है। वो मियाद ख़त्म होने का इन्तजार करना जरूरी है।’’
‘‘कोई मियाद ख़त्म होने से पहले भी तो जॉयन कर सकता है?’’
‘‘कर सकता है। मैं इस बात का ध्यान रखूंगा।’’
‘‘पापा, कल जस्से ने आप से एक सवाल पूछा था जिसका आपने जवाब नहीं दिया था!’’
चिन्तामणि की भवें उठीं।
‘‘उसने पूछा था – ‘हमारा लड़का सेफ है? इसका दोस्त अकील सेफ है?’ जो ख़बर आपने अख़बार में पढ़ी, उसकी रू में अब क्या जवाब है आपका?’’
चिन्तामणि ने जवाब न दिया। उसकी पेशानी पर चिन्ता की लकीरें और गहन हुईं।
‘‘जस्से से पिछली मीटिंग में फैसला इस बात पर छोड़ा गया था कि आइन्दा चन्द दिनों में अगर तीसरा कांड हुआ तो पड़ोसी दिल्ली में वर्ना अपने बच्चे और अपने अंजाम से ख़ौफ खा के भाग गया। देखिये, इन्तजार भी न करना पड़ा। बात मुंह से निकली नहीं कि तीसरा कांड हो गया। अब क्या कहते हैं? शुरू कर दूं मैं अपने अंजाम का इन्तजार?’’
‘‘नहीं, नहीं। ख़बरदार जो ऐसी बात मुंह से निकाली।’’
‘‘जब से अख़बार पढ़ा है मेरे प्राण कांप रहे हैं।’’
‘‘मेरे अब कंपा दिये। लड़के, वो हरकत करते वक्त प्राण कांपे होते तो क्यों ये नौबत आती?’’
‘‘आप मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं; शर्मिंदा क्या, जलील कर रहे हैं। जब मैं आपके सामने सब कनफैस कर चुका, ख़ता माफ करवा चुका तो ये सब कहने की क्या जरूरत थी? ‘ये न होता तो वो भी न होता’ जैसी फैंसी बातें करने की क्या जरूरत थी? आप साफ कहिये आपके बस का कुछ नहीं है। आप अपने बेटे के आइन्दा होने वाले अंजाम को नहीं रोक सकते।’’
‘‘बस कर।’’
‘‘और अंजाम, अब जाहिर है कि, हो के रहेगा।’’
‘‘चुप कर। कुछ नहीं होगा।’’
‘‘आपके कह देने भर से?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘तो?’’
‘‘मेरे ख़याल से अब ऊपर बात करने का वक्त आ गया है। मैं आज ही बिग बॉस से सम्पर्क साधता हूं।’’
‘‘क्या फायदा होगा? वो आठ सौ मील दूर है।’’
‘‘उसकी विजिट ड्यू है, आजकल में आता ही होगा। मैं उसका इधर आने का प्रोग्राम भी कनफर्म करूंगा।’’
‘‘तब तक मेरा काम हो गया तो?’’
‘‘अरे, शुभ शुभ बोल। क्या जादू के जोर से हो जायेगा कुछ?’’
‘‘अकील के साथ जो हुआ, जादू के जोर से हुआ?’’
‘‘नहीं, उसकी नालायकी से हुआ। उसने एहतियात न बरती। गाफिल हो गया। ये सोच के गाफिल हो गया कि कुछ हुआ नहीं था तो कुछ होने वाला भी नहीं था। तू होशियार रहेगा, ख़बरदार रहेगा तो . . .’’
तभी बाहर शोर सा उठा। एक के बाद एकाएक जोर-जोर से हार्न बजने लगे।
‘‘गली से आवाजें आ रही हैं। देख, क्या हो रहा है?’’
सहमति से सिर हिलाता अरमान बाहर को बढ़ा।
‘‘मामू’’ – अशरफ बोला – ‘‘बाहर हमारे गेट पर कोई कार खड़ी कर गया।’’
मुबारक अली ने चाय के गिलास पर से सिर उठाया।
‘‘क्या बोला?’’ – वो भांजे को घूरता बोला।
‘‘बाहर किसी की कार खड़ी है?’’
‘‘किसकी?’’
‘‘मालूम किया है। छः नम्बर वालों की।’’
‘‘जा के बोलें कि हटायें’’ – अनीस बोला – ‘‘या खड़ी रहने दें, ख़ुद हटा लेंगे।’’
‘‘नालायक! नामाकूल!
अनीस हड़बड़ाया।
‘‘अबेे, नसीबमारो! घर के आगे कोई कचरा फेंक जाये तो मामू बतायेगा कि कचरे का क्या करना है?’’
‘‘समझ गये, मामू।’’ – अनीस बोला।
‘‘अब तो कम्बख़्तमारों, चौदह के चौदह यहां हो!’’
‘‘हां, मामू।’’ – अशरफ बोला – ‘‘अभी।’’
चौदह को लगना भी न पड़ा। दस भांजों ने बाहर खड़ी ‘वरना’ को सहज ही उठा लिया और ले जाकर छः नम्बर के सामने कोठी के समानान्तर खड़ी करने की जगह यूं लम्बवत् खड़ी किया कि सारी रास्ता ब्लॉक हो गया। ‘वरना’ के दोनों ओर सिर्फ इतनी जगह बची कि या वहां से पैदल गुजरा जा सकता था या कोई दोपहिया वाहन गुजर सकता था। थोड़ी ही देर में दोनों तरफ से आकर वहां कारें रुकने लगी थीं और हार्न पर हार्न बजने लगे थे।
अरमान गली में पहुंचा।
ये देख कर उसके छक्के छूट गये कि उसकी कार की वजह से वहां कोहराम मचा हुआ था।
वो लपक कर कार के करीब पहुंचा तो उसने पाया कि कार मजबूती से बन्द थी।
कमाल है! कैसे हुआ?
‘‘अरे, आपकी है?’’ – कोई अपनी कार से सिर निकाल कर बोला।
‘‘हां।’’ – अरमान भुनभुनाया।
‘‘तो हटाओ न! सारा रास्ता रुका पड़ा है।’’
‘‘कार ऐसे खड़ी करते हैं?’’ – कोई दूसरा बोला।
‘‘करके छोड़ जाते हैं?’’
‘‘सिविक सेंस तो है ही नहीं!’’
‘‘बाप की गली है न!’’
अरमान का पारा चढ़ने लगा।
‘‘मैंने नहीं की।’’ – वो चिल्लाया।
‘‘नौ नम्बर वालों ने की।’’ – गली का एक किशोर उसके पास आ के धीरे से बोला।
‘‘क-कैसे?’’
‘‘जहां खड़ी थी वहां से उठाई और ला के यहां रख दी।’’
‘‘उ-उठाई?’’
‘‘हां।’’
‘‘बा-बारह सौ किलो की कार! उ-उठाई?’’
‘‘हां।’’
‘‘अरे, अब हटाओ तो सही!’’ – कोई कार में से चिल्लाया – ‘‘गप्पें बाद में मार लेना।’’
‘‘कैसे हटाऊं?’’ – अरमान भी चिल्लाया – ‘‘सालो, जगह छोड़ोगे तो हटाऊँगा न! बैक करोगे तो हटाऊंगा न!’’
‘‘गाली देता है!’’
‘‘हां, देता है। जो उखाड़ना हो, उखाड़ लो।’’
कोई कुछ न बोला।
फिर कारें बैक होने लगीं।
तब तक चिन्तामणि भी बाहर निकल आया था।
‘‘क्या हुआ?’’ – उसने पूछा।
अरमान ने बताया।
चिन्तामणि ने सर्वेंट को आवाज दे कर भीतर से चाबी मंगाई और आगे अरमान को सौंपी। अरमान कार में आ बैठा।
चिन्तामणि ने नौ नम्बर की तरफ निगाह दौड़ाई तो वहां गेट पर कई जनों को खड़ा पाया।
दृढ़ता से वो उनके करीब पहुंचा।
ये देख कर वो हकबकाया कि जितने फासले से दिखाई दिये थे, वो तो उससे कहीं ज्यादा थे।
अरमान ने कार को सीधा किया और पूरी ढ़िठाई से ले जाकर नौ नम्बर के सामने ही खड़ा किया।
भांजे विरोध करने लगे तो मुबारक अली ने आंखें तरेर कर उन्हें चुप कर दिया।
‘‘ये’’ – चिन्तामणि सख़्ती से बोला – ‘‘आप लोगों ने किया?’’
तब तक अरमान भी कार से बाहर निकल आया था और पिता के पहलू में आ खड़ा हुआ था।
गली के तमाशाई पड़ोसी जो पहले कार के गिर्द जमा थे अब धीरे-धीरे वहां जमा होने लगे।
‘‘हां!’’ – मुबारक अली शान्ति से बोला।
‘‘क्यों?’’
‘‘घर के आगे कचरा पड़ा हो तो हटाना पड़ता है न!’’
‘‘ये . . . बारह लाख रुपये की कार . . . कचरा है?’’
‘‘हमारे लिये तो . . . है!’’
‘‘हो कौन तुम लोग?’’
‘‘किरायेदार हैं।’’
‘‘इतने जने?’’
‘‘ये हमारी, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, पिराब्लम है।’’
‘‘मकान मालिक कहाँ है?’’
‘‘हैदराबाद गया।’’
‘‘तो किराया किसे दोगे?’’
‘‘साल का एडवांस ले के गया। साल के बाद . . . देखेंगे।’’
‘‘ये शरीफों की कॉलोनी है, यहां शरीफ लोग बसते हैं . . .’’
‘‘मालूम। तभी तो इधर आये!’’
‘‘यहां धांधली नहीं चलेगी।’’
‘‘धांधली! किसने की?’’
‘‘तुम लोगों ने की। कार को उठा के बीच सड़क रख दिया . . .’’
‘‘वजह बताई न!’’
‘‘ये गुंडागर्दी है . . .’’
‘‘तो हम गुंडे हैं?
‘‘मालूम पड़ जायेगा। हम पुलिस रिपोर्ट दर्ज करायेंगे।’’
‘‘जरूर। लेकिन वहां वजह पूछी जाती है। वजह कहां है? नहीं है। लेकिन हम आपकी ख़ातिर, पड़ोस के मुलाहजे की ख़ातिर वजह, वो क्या कहते हैं, अंग्रेजी में, सप्लाई करने के लिये तैयार हैं।’’
‘‘क्या!’’
‘‘अभी मालूम होता है क्या।’’ – मुबारक अली अपने भांजों की तरफ घूमा – ‘‘तमाम शीशे तोड़ दो। कार को सिर से ऊपर उठाओ और छोड़ दो। सब काम अपने आप हो जायेगा। कोई कसर रह जाये तो फिर उठाना, फिर पटकना।’’
भांजों ने यूं हर्षनाद किया जैसे बिन मांगे मुराद मिल गयी हो।
‘‘ख़बरदार!’’ – चिन्तामणि चिल्लाया।
‘‘जब पुलिस आयेगी’’ – मुबारक अली बोला – ‘‘तो इनमें से दो-तीन का मुंह माथा फूटा होगा और ये बयान देंगे कि पहले तुम बाप-बेटे ने इन पर हमला किया और फिर जो कार पर बीती, उसकी नौबत आयी।’’
चिन्तामणि हकबकाया।
‘‘कुछ कायदा कानून हम भी जानते हैं।’’ – हाशमी आदतन अपनी संजीदा, धीर गम्भीर आवाज में बोला – ‘‘थाने फौजदारी का केस दर्ज होता है तो दोनों पार्टियों को अन्दर किया जाता है।’’
‘‘हमारा तो आना जाना लगा ही रहता है।’’ – अशरफ बोला – ‘‘तुम्हारा जुलूस निकल जायेगा।’’
‘‘बतौर मुजरिम’’ – हाशमी बोला – ‘‘कोर्ट में पेशी भी होगी। बेल भी लगेगी।’’
‘‘तू . . . तुम कौन हो?’’
‘‘हाशमी।’’
चिन्तामणि ने बाकियों की तरफ देखा।
‘‘अशरफ।’’
‘‘अली।’’
‘‘वली।’’
‘‘अनीस।’’
‘‘इकबाल।’’
‘‘रहमान।’’
‘‘इमरोज।’’
‘‘अहसान।’’
‘‘समद।’’
‘‘जाहिद।’’
‘‘मुश्ताक।’’
‘‘महमूद।’’
‘‘फारुख।’’
‘‘और मैं मुबारक अली। इन सब का मामू।’’
‘‘तो तुम्हीं सुनो। यहां तुम लोगों को कोई भी गुं . . . धांधली चलने नहीं दी जायेगी। मेरा सगा भाई इस इलाके का एमएलए है . . .’’
‘‘हमारा जातभाई -’’ हाशमी बोला – ‘‘शाहआजम खान इस कांस्टीच्यूएंसी में एमपी है जिसमें कि एमएलए की ये सीट आती है।’’
चिन्तामणि हड़बड़ाया।
‘‘और माइनारिटी कमीशन का मौजूदा चेयरमैन भी हमारा जातभाई है।’’
चिन्तामणि और हड़बड़ाया।
‘‘और बात बढ़ी तो शाही इमाम भी यहां होगा।’’
‘‘वो! वो क्यों?’’
‘‘अपनी जामा मस्जिद से पिछले जुम्मे की तकरीर ने उसने कहा था कि अगर किसी हिन्दू मेजॉरिटी वाले इलाके में मुसलमानों को तंग किया जाता था, नाजायज तरीकों से उन्हें दबाने की कोशिश की जाती थी? तो फौरन उसे ख़बर की जाये, वो सब काम छोड़ कर एक आवाज में वहां पहुंचेगा और कहरबरपा लोगों की ऐसी ख़बर लेगा कि वो पनाह मांग जायेंगे।’’
पिता पुत्र अवाव्फ़ एक दूसरे का मुंह देखने लगे।
‘‘आप अपने भाई को बुलाइये, हम अपने जातभाईयों को बुलाते हैं।’’
‘‘जरूरत नहीं।’’ – चिन्तामणि पस्त लहजे से बोला – ‘‘हम बात बढ़ाना नहीं चाहते।’’
‘‘हम ख़ुद बात नहीं बढ़ाना चाहते लेकिन . . .’’
मुबारक अली ने हाथ उठा कर उसे आगे बोलने से रोका।
‘‘जनाब’’ – फिर विनयशील लहजे से बोला – ‘‘हम अमनपसन्द लोग हैं, हम अमन से यहां रहना चाहते हैं लेकिन हमें कमजोर जान कर हमें कोई दबाने की कोशिश करेगा, हम पर हावी होने की कोशिश करेगा तो . . . तो हम चुप नहीं बैठेंगे। बस, इससे ज्यादा फिलहाल हम कुछ नहीं कहना चाहते।’’
‘‘आप कुछ कहना चाहते हों’’ – हाशमी भी मामू के लहजे से मैच करते लहजे में बोला – ‘‘तो कहिये।’’
‘‘मैं सिर्फ ये कहना चाहता हूं।’’ – चिन्तामणि बोला – ‘‘कि हमारी थोड़ी देर की पार्विंफ़ग प्राब्लम है, अगर थोड़ी देर ‘वरना’ यहां खड़ी रहे . . .’’
‘‘बेशक खड़ी रहे।’’ – मुबारक अली बोला – ‘‘जब तक मर्जी खड़ी रहे . . .’’
‘‘शुक्रिया।’’
‘‘... लेकिन आइन्दा कभी ऐसे गाड़ी खड़ी करें तो घन्टी बजा के ख़बर कर के जायें।’’
‘‘ओके। थैंक्यू।’’
‘‘आईये, एक प्याली चाय पीजिये।’’
‘‘नहीं, शुक्रिया। फिर कभी।’’
‘‘यू आर ऑलवेज वैलकम, सर।’’ – हाशमी बोला।
‘‘थैंक्यू।’’
पिता पुत्र वापिस लौटे।
‘‘मामू!’’ – पीछे अली बोला।
‘‘हां, बोल।’’ – मुबारक अली आदतन रुखाई से बोला।
‘‘मजा नहीं आया।’’
मुबारक अली बरबस मुस्कुराया, सप्रयास उसने अपनी मुस्कुराहट छुपाई।
‘‘तेरे को भी यही शिकायत होगी?’’ – वो वली से बोला।
‘‘हां, मामू।’’ – वली बोला – ‘‘है तो सही!’’
‘‘देखो तो अल्लाहमारों को! साला छाज तो बोले, छलनी भी बोले! अरे, दफान होवो, कम्बख्तों!’’
दोनों जानते थे वो नकली झिड़की थी, मीठी झिड़की थी।
‘‘बहुत किरकिरी हुई, पापा।’’ – रास्ते में अरमान दबे स्वर में बोला।
‘‘हां।’’ – पिता चिन्तित भाव से बोला – ‘‘पहली बार ऐसा हुआ है कि लोग तेरे बाप पर भारी पड़े हैं। और लोग भी कौन! साले दो टके के फटीचर लोग! लेबर क्लास!’’
‘‘थे भी तो कितने ही! पता नहीं उस छोटी-सी कोठी में इतने लोग कैसे समाते होंगे!’’
‘‘वो उन की प्राब्लम है लेकिन उनका एकाएक यहां आ बसना हमारी प्राब्लम है।’’
‘‘क्या ये भी पड़ोसी की कोई स्ट्रेटेजी हो सकती है?’’
‘‘कुछ भी हो सकता है। अगर वो सोहल था तो कुछ भी हो सकता है।’’
‘‘अब क्या होगा?’’
‘‘कुछ नहीं होगा। ऊपर वाला सब सम्भालेगा न! आखिर सब मेला तो उसी का है। हम तो महज रखवाले हैं। मैं आज ही नहीं, अभी उससे बात करूंगा।’’
‘‘मेरा क्या होगा?’’
‘‘कुछ नहीं होगा, लड़के, कुछ नहीं होगा। तू बस एहतियात बरत और फालतू की भटकन को काबू में रख।’’
‘‘वो तो तीस नवम्बर से ही काबू में है जबकि अमित की ट्रेजेडी की ख़बर लगी थी!’’
‘‘अच्छा है। और एहतियात बरत। और ख़बरदार रह। मेरी ऊपर बात हो हो जाने दे, सब ठीक हो जायेगा।’’
अरमान फिर न बोला।
लेकिन उसके चेहरे पर आश्वासन के भाव न आये।
सात बजे से काफी पहले विमल जनपथ पर फैब इन्डिया के सामने मौजूद था।
उसके साथ अशरफ और मुबारक अली थे और वो अशरफ की ‘असेंट’ पर वहां पहुंचे थे।
आते ही विमल अशरफ के साथ भीतर गया था तो उसने देवन नायर को भीतर मौजूद पाया था। उसने उसकी अशरफ को शिनाख़्त कराई थी और उसे पीछे छोड़कर ख़ुद शोरूम से बाहर निकल आया था।
अब वो मुबारक अली के साथ ‘असेंट’ में बैठा प्रतीक्षा कर रहा था।
सात बजने में पांच मिनट पर अशरफ वापिस लौटा।
‘‘एक नयी बात पता लगी है।’’ – वो कार में आगे बैठता पीछे घूम कर बोला – ‘‘अब वो कार पर ड्यूटी पर आता है।’’
‘‘क्या कहने!’’ – विमल बोला – ‘‘डेढ़ महीने से भी कम में इतनी तरक्की कर ली! कौन-सी कार?’’
‘‘ ‘होंडा अमेज’।’’
‘‘वो तो तकरीबन छः लाख की आती है!’’
‘‘शुरू पौने छः के करीब से होती है, साढ़े सात तक है।’’
‘‘इस ख़बर से तो मेरा शक यकीन में बदल गया कि उसने रिश्वत खाकर अपना बयान बदला था। अब मेरा काम कदरन आसान हो गया समझो। नयी है?’’
‘‘लगती तो है!’’
‘‘लगती तो है। यानी देखी तूने?’’
‘‘हां। इसी लाइन में पांचवी है। लाल रंग की है। ये भी पहचान है कि इस पार्विंफ़ग में कोई दूसरी ‘अमेज’ इत्तफाक से है ही नहीं।’’
‘‘कैसे जाना कौन-सी कार उसकी थी?’’
‘‘जिसको कार की बाबत जानने के लिये पटाया, उसी से जाना।’’
‘‘ओह!’’
वो ख़ामोशी से प्रतीक्षा करने लगे।
सात दस पर देवन नायर ने शोरूम से बाहर कदम रखा।
‘‘वो आ रहा है।’’ – अपनी ओर का दरवाजा खोलता विमल बोला – ‘‘मैं जाता हूं। मेरे पर निगाह रखना। खुफिया तरीके से। मैं इशारा करूंगा तो आना।’’
‘‘क्या इशारा?’’ – मुबारक अली बोला।
‘‘दरवाजा खोल के जोर से बन्द करूंगा।’’
‘‘ठीक है, जा।’’
विमल कार में निकला और टहलता, ठिठकता, लाल ‘अमेज’ की दिशा में बढ़ा।
नायर कार पर पहुंचा और ड्राइविंग सीट पर स्टियरिंग के पीछे जा बैठा।
विमल ने पैसेंजर साइड का दरवाजा खोला और उसके पहलू में जा बैठा।
‘‘वॉट द हैल!’’
‘‘हल्लो!’’ – विमल मीठे स्वर में बोला।
‘‘कौन हो तुम? और क्यों कार में घुस आये?’’
‘‘कमाल है! इतनी जल्दी भूल गये। देवन नायर ही हो न?’’
इसने भीतर की बत्ती जलाई।
‘‘ओह! इट्स यू!’’
‘‘शुक्र है, पहचाना।’’
‘‘नकली प्रैस रिपोर्टर!’’
‘‘वो भी।’’
‘‘अब क्या है?’’
‘‘तुम्हारे से दो मिनट बात करनी है।’’
‘‘मैंने कोई बात नहीं करनी।’’
‘‘अरे, नयी कार की बधाई तो ले लो!’’
‘‘नयी नहीं है।’’
‘‘लगती तो नयी है!’’
‘‘नहीं, नयी नहीं है। नाओ, प्लीज गैट आउट।’’
‘‘ये तो सुन लो कि नयी लगने जैसी क्यों ली, नयी क्यों न ली!’’
वो सकपकाया।
‘‘क्या मतलब है तुम्हारा?’’ – फिर भुनभुनाया।
‘‘शक्ल पहचानने के लिये भीतर की बत्ती जलाई थी, अब बन्द कर दें!’’
उसके जवाब दे पाने से पहले ही विमल ने हाथ बढ़ा कर भीतर की लाइट का स्विच ऑफ कर दिया।
‘‘नयी कार खरीदने पर’’ – वो भावहीन स्वर में बोला – पेमेंट चैक या ड्राफ्ट से अदा करनी पड़ती है, पैन देना पड़ता है। प्रूफ ऑफ रेजीडेंस और प्रूफ ऑफ आइडेन्टिटी तो देना पड़ता ही है। दो नम्बर के पैसे से ऐसी ख़रीद का तमलाई ये सब नहीं कर सकता। लेकिन सैकंडहैण्ड कार की ख़रीद में कैश पेमेंट भी चलती है और पैन वगैरह भी कोई नहीं मांगता। कार ट्रांसफर न करानी हो तो प्रूफ आफ रेजीडेंस और प्रूफ आफ आइडेन्टिटी का भी रोल नहीं होता।’’
‘‘पता नहीं क्या बक रहे हो!’’ – वो मुंह बिगाड़ कर बोला – ‘‘और दो नम्बर के पैसे से क्या मतलब है तुम्हारा।’’
‘‘साले! कमीने! कोर्ट में गवाही से फिरने के लिये रिश्वत क्या चैक से खायी थी?’’
वो बौखलाया, फिर गुस्से से बोला – ‘‘आइल कॉल दि पोलीस!’’
‘‘एण्ड आइल कॉल दि गॉड आफ डैथ। यमराज!’’
विमल ने रिवाल्वर की नाल उसकी पसलियों में खुभोई।
‘‘गॉड!’’ – वो भयभीत भाव से मुस्कराया – ‘‘पहले फेक रिपोर्टर! अब कारजैकर!’’
‘‘शट अप!’’
‘‘टेक इट। टेक इट। आई वोंट रिजिस्ट। बट लैट मी गैट डाउन।’’
विमल ने रिवाल्वर की नाल उसके मुंह में घुसेड़ दी।
उसकी घिग्घी बन्ध गयी।
‘‘तेरे और तेरी मौत के बीच एक सांस की दूरी है।’’ – विमल हिंसक भाव से गुर्राया – ‘‘तू चाहता है मैं वो दूरी दूर करूं?’’
उसकी आंखें आतंक से उबल पड़ीं, वो जोर-जोर से दायें-बायें गर्दन हिलाने लगा।
‘‘मैं गन हटाता हूं। लेकिन एक बात याद रखना। आगे तेरी जान ही बचेगी, सिर से मुसीबत नहीं टलेगी।’’
उसने गन की नाल वापिस खींच ली।
वो जोर-जोर से हांफने लगा।
‘‘मु-मुसीबत!’’ – फिर बोला।
‘‘हां। बड़ी मुसीबत।’’
‘‘म-मैं स-समझा नहीं।’’
‘‘क्यों कि अभी मैंने समझाया नहीं।’’
‘‘क्या कहना चाहते हो? क-कौन-सी मुसीबत की बात कर रहे हो?’’
‘‘जो तुम पर टूटने वाली है।’’
‘‘गॉड! क्यों मेरे पीछे पड़े हो? मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?’’
‘‘इंसाफ का बिगाड़ा – जो होने न दिया – मुल्क के कायदे कानून की खिल्ली उड़ाई। मुजरिमों का संवारा जो तुम्हारे गवाही से पलटने की वजह से, परजुरी की वजह से सजा पाने से बच गये। एक मासूम लड़की को सामूहिक बलात्कार का शिकार बनाने वाले, उसकी मौत की वजह बनने वाले खुल्ले छूट गये।’’
‘‘तु-तुम्हें . . . तुम्हें क्या?’’
‘‘है मुझे कुछ। कुबूल कर कि कोर्ट में अपनी रिकार्डिड गवाही से मुकरने के लिये मोटी रिश्वत खायी वर्ना यहीं मरा पड़ा होगा।’’
विमल ने फिर बेरहमी से उसकी पसलियों को गन की नाल से टहोका।
‘‘हं-हां।’’
‘‘क्या हां?’’
‘‘मु-मुझे मजबूर किया गया था।’’
‘‘कितनी!’’
‘‘तीस।’’
‘‘कार कितने की ली?’’
‘‘प-पांच।’’
‘‘रसीद कितने की?’’
‘‘त-तीन।’’
‘‘नयी है। दलाल ने डील करवायी? किसी और ने नयी ख़रीदी, तेरे को सैकण्डहैण्ड बता के बेची?’’
‘‘हं-हां।’’
‘‘और क्या एय्याशी की हराम के पैसे से?’’
‘‘न-नहीं की।’’
‘‘अभी करता?’’
‘‘तु-तुम . . . क-क्या चाहते हो?’’
‘‘तेरे को नया बयान देना होगा।’’
‘‘क-क्या . . . क्या नया बयान?’’
‘‘कुबूल करना होगा कि तूने तीस लाख रुपये रिश्वत खा के अपनी गवाही बदली थी।’’
‘‘हरगिज नहीं। दैट वुड बी ए सुइसिडल एक्ट। लेकिन . . .’’
‘‘क्या लेकिन?’’
‘‘जो पैसा बचा है, जानबख्शी के लिये वो मैं तुम्हारे साथ शेयर करने को तैयार हूं।’’
‘‘यानी जान से जाने को तैयार हो!’’
‘‘ऐसे कोई किसी को जान से नहीं मारता . . .’’
‘‘अच्छा! दिलेरी आ गयी?’’
‘‘... कोई यूं खून से हाथ नहीं रंगता। खून करना हंसी खेल नहीं। वो भी नाहक! बेवजह!’’
विमल ने गहरी सांस ली, असहाय भाव से गर्दन हिलायी, फिर कार का अपनी ओर का दरवाजा खोल कर जोर से बन्द किया।
मुबारक अली और अशरफ जैसे जादू के जोर से कार के करीब पहुंचे।
‘‘नहीं सुनता।’’ – विमल बोला – ‘‘प्लान टू आजमाना पड़ेगा।’’
दोनों ने सहमति में सिर हिलाया।
‘‘इसको होशियारी आ रही है। ये रास्ते में उछल कूद सकता है। इसके हाथ पीठ पीछे बांधने होंगे।’’
‘‘सामने बरामदे में कैमिस्ट शाप है।’’ – अशरफ बोला – ‘‘वहां से सर्जीकल टेप आराम से मिल जायेगा। वही लपेट देंगे।’’
‘‘गुड। ले के आ।’’
अशरफ चला गया।
‘‘इसे अपनी गाड़ी में ले के जायेंगे।’’ – पीछे विमल बोला – ‘‘बाद में हमें सहूलियत होगी।’’
‘‘ठीक है।’’ – मुबारक अली बोला – ‘‘मैं गाड़ी यहीं लाता हूं।’’
विमल ने सहमति में सिर हिलाया।
अशरफ सर्जीकल टेप के साथ लौटा। उसने नायर की दोनों कलाईयां जबरन पीठ पीछे कीं और उन पर टेप लपेट दिया।
‘‘मुंह पर भी चेप दूं?’’ – वो बोला।
विमल ने नायर की तरफ देखा।
‘‘नहीं।’’ – तत्काल वो बोला – ‘‘प्लीज। मैं चुप रहूंगा।’’
‘‘ओके।’’ – विमल बोला – ‘‘आजमाते हैं तेरी चुप।’’
‘‘ल-लेकिन प्लान बी क् -क्या है?’’
‘‘मालूम पड़ेगा न? जहां पहुंचेंगे, वहां मालूम पड़ेगा न!’’
‘‘कहां पहुंचेंगे?’’
‘‘ये भी मालूम पड़ेगा।’’
मुबारक अली ने ‘असैंट’ ला कर ‘अमेज’ के सामने खड़ी की और बाहर निकला। विमल के इशारे पर उन दोनों ने नायर को ‘असैंट’ की पैसेंजर सीट पर बिठाया, अशरफ ने स्टियरिंग सम्भाला, विमल और मुबारक अली पीछे बैठे।
कार पार्विंफ़ग से निकल कर रोड पर आयी और क्नॉट प्लेस से विपरीत दिशा में आगे बढ़ी। आगे मैरीडियन होटल के चौराहे से वो बायें अशोक रोड पर इन्डिया गेट की तरफ घूमी, उस की हैक्सागन से होती शेरशाह रोड पर दाखिल हुई तो एकाएक अशरफ बोला – ‘‘रोड ब्लॉक! अब वापिस भी नहीं घूम सकते।’’
विमल ने चिन्तित भाव से गर्दन हिलायी।
‘‘देखा जायेगा।’’ – मुबारक अली जोश से बोला।
‘‘ऐसे रोड ब्लॉक्स पर गम्भीर चैकिंग लेट नाइट में होती है। अभी तो आठ भी नहीं बजे! देख लेना गाड़ी सिर्फ स्लो करनी पड़ेगी ताकि पुलिसियों को तरीके से उसको ताड़ने का मौका मिल सके।’’
लेकिन ऐसा न हुआ। उन्हें रोका गया।
एक हवलदार के इशारे पर अशरफ गाड़ी साइड में लगाने लगा।
विमल ने धीरे से गन नायर के कोट की दायीं जेब में सरका दी।
‘‘डिकी खोलो।’’ – हवलदार ने आदेश दिया।
अरशद ने वो लिवर खींचा जिससे डिकी खुलती थी।
एक सिपाही ने पीछे जाकर डिकी के भीतर झांका, फिर ढक्कन नीचे गिरा दिया।
‘‘किधर से आ रहे हो’’ – हवलदार अशरफ से मुखातिब हुआ – ‘‘किधर जा रहे हो?’’
‘‘जनपथ से आ रहे हैं।’’ – अशरफ बोला – ‘‘सुन्दर नगर जा रहे हैं।’’
हवलदार ने विमल की तरफ देखा।
विमल ने सहमति में सिर हिला कर अशरफ के जवाब की तसदीक की।
‘‘कागजात सब चौकस हैं?’’ – हवलदार फिर अशरफ से बोला – ‘‘आर-सी-, इंश्योरेंस, पीयूसी, ड्राइविंग लाइसेंस?’’
‘‘जी हां।’’ – अशरफ बोला – ‘‘अभी दिखाता हूं।’’
‘‘हवलदार साहब!’’ – एकाएक नायर चिल्लाया – ‘‘ये लोग जबरदस्ती मुझे कहीं ले जा रहे हैं। मुझे छुड़ाइये।’’
हवलदार के नेत्र फैले।
‘‘प्लीज, मुझे छुड़ाइये।’’
‘‘ले जा रहे है न!’’ – विमल सहज भाव से बोला – ‘‘इसे पागलपन का दौरा पड़ता है, एकाएक वायलेंट हो उठता है। अभी आप पर भी झपट सकता है। इसीलिये हाथ पीठ पीछे बान्धने पड़े हैं। आप हुक्म कीजिये, मैं खोल देता हूं। फिर देखियेगा, काबू में करना मुहाल हो जायेगा।’’
हवलदार के चेहरे पर अनिश्चय के भाव आये।
‘‘हाथ देखिये इसके! रस्सी से नहीं बंधे हैं, सर्जिकल टेप से बन्धे हैं, डाक्टर की हिदायत पर हम हमेशा साथ रखते हैं। रस्सी खाल में गड़ती है, तकलीफ करती है, टेप से ऐसा नहीं होता।’’
‘‘ओह!’’ – हवलदार तनिक आश्वस्त हुआ – ‘‘ले जा कहां रहे हैं?’’
‘‘सुन्दर नगर में डाक्टर सेेनगुप्ता का नर्सिंग होम है, जो ऐसी ही दिमागी बीमारियों के विशेषज्ञ हैं। ये पहले से उनके ट्रीटमेंट में है। वो लोग ओवरनाइट इसे वहां रखेंगे, इंजेक्शन वग़ैरह देंगे, सुबह तक ठीक हो जायेगा, जैसे हमेशा होता है।’’
‘‘हूं। पहले भी ऐसे वहां रख गया?’’
‘‘हां, जी। कई बार।’’
‘‘ये झूठ बोल रहे हैं।’’ – नायर फिर चिल्लाया – ‘‘मैं पागल नहीं हूं।’’
‘‘ये हथियारबन्द है . . .’’
हवलदार के नेत्र फैले।
‘‘... इससे पूछिये क्यों है?’’
‘‘झूठ!’’ – नायर के स्वर में प्रबल विरोध का पुट आया – ‘‘मेरे पास गन नहीं है।’’
‘‘क्यों है?’’ – हवलदार ने पूछा।
‘‘क्योंकि जेहनी तौर पर बीमार है। समझता है इसकी जान को ख़तरा है। कोई अंजान लोग इसे मार डालना चाहते हैं। इसी वहम से मुब्तला इसके पास लाइसेंसशुदा गन है जो अमूमन ये अपने साथ रखता है।’’
‘‘झूठ! झूठ! मेरे पास गन का क्या काम! मैं एक मामूली आदमी . . .’’
‘‘देखा! मामूली आदमी बता रहा है अपने आप को! पौने दो लाख की गन आती है। मामूली आदमी रख सकता है?’’
हवलदार का सिर इंकार में हिला।
‘‘तलाशी ले।’’ – वो सिपाही को बोला।
सिपाही ने तलाशी ली, गन बरामद की।
हवलदार के नेत्र फैले।
‘‘ये . . . ये’’ – नायर हैरान होता हकलाया – ‘‘मेरी गन नहीं है।’’
‘‘तुम्हारी जेब से बरामद हुई है।’’
‘‘इन्हीं में से किसी ने रखी।’’
‘‘बड़ की मत हांको। सब हमारी निगाह में हैं। हमने किसी को ऐसा करते नहीं देखा।’’
‘‘हवलदार साहब, आप मेरा यकीन कीजिये, ये गन . . .’’
‘‘तुम कहते थे’’ – नायर को अनसुना करता हवलदार विमल ने बोला – ‘‘गन लाइसेंसशुदा है!’’
‘‘हां।’’ – विमल बोला – ‘‘लाइसेंस इसकी किसी जेब में ही कहीं होगा। मैं अभी बरामद करता हूं।’’
हवलदार ने पीछे जमा होते ट्रैफिक पर निगाह दौड़ाई।
‘‘जरूरत नहीं।’’ – वो बोला – ‘‘पहले ही बहुत वक्त ख़र्च हो गया। गन इसके पास होना ठीक नहीं। अभी आप रखिये, बाद में जो करना हो, कीजियेगा।’’
‘‘जी हां। जरूर।’’
‘‘गोलियां निकाल के।’’
‘‘जी हां। अभी।’’
विमल ने हवलदार के सामने चैम्बर ख़ाली किया।
‘‘जाइये।’’
अशरफ ने तत्काल कार आगे बढ़ाई।
‘‘हीरोपंती से बाज नहीं आया न!’’ – विमल पीछे से नायर की खोपड़ी पर धौल जमाता बोला।
‘‘ये जुल्म है!’’ – नायर कराहता-सा बोला।
‘‘अभी नहीं है। अभी नहीं देखा जुल्म तूने। आगे देखेगा।’’
‘‘लेकिन . . .’’
‘‘ख़ामोश बैठ! दोबारा आवाज निकाली तो जुबान खींच लूंगा।’’
नायर के जबड़े भिंच गये।
विमल गन के चैम्बर में गोलियां वापिस भरने लगा।
‘‘सर्जीकल टेप वाला इत्तफाक अच्छा हुआ।’’ – अशरफ हंसता हुआ बोला – हवलदार को उसकी वजह ने बहुत मुतमुईन किया था। खूब सूझी आप को! रस्सी बन्धी होती तो . . . उलटी पड़ जाती।’’
‘‘ऊपर वाले की मेहर हुई।’’ – विमल संजीदगी से बोला – ‘‘जो हमारी उस वक्त की मजबूरी हमारी एडवांटेज बन गयी।’’
कार मथुरा रोड होती सुन्दर नगर और आगे उस सुनसान कोठी पर पहुंची जो हाशमी ने दुबई शिफ्ट कर गये दोस्त के पिता की मिल्कियत थी।
कोठी पिछले रोज की तरह ही अन्धेरे में डूबी हुई थी।
अशरफ ने हौले से हार्न बजाया।
तत्काल दरवाजा खुला, रोशनी की एक आयत फ्रंट यार्ड में पड़ी जिसमें अनीस ने कदम रखा और गेट पर आकर उसे खोला।
सब भीतर दाखिल हुए।
‘‘ये’’ – नायर भयभीत भाव से बोला – ‘‘क्या है?’’
‘‘प्लान टू का वेन्यू है।’’ – विमल बोला।
‘‘ल-लेकिन . . .’’
‘‘भीतर चल के बोलना लेकिन। चल, आगे बढ़।’’
सब भीतर पहुंचे।
अनीस ने दरवाजा पूर्ववत् बन्द कर दिया।
‘‘बैठ।’’ – विमल बोला।
नायर झिझकता-सा एक सोफाचेयर पर बैठा।
विमल उसके सामने बैठ गया। अनीस पिछवाड़े में कहीं चला गया। मुबारक अली और अशरफ ने बैठने में कोई रुचि न दिखाई।
विमल ने गन निकाल कर हाथ में ली।
नायर ने जोर से थूक निगली, बेचैनी से पहलू बदला।
विमल ने गन सोफे पर अपने पहलू में रख ली।
नायर की जान में जान आयी।
विमल ने अपलक उसे देखा।
नायर तत्काल विचलित हुआ, उसकी निगाह दायें बायें भटकी।
‘‘झूठ के पांव नहीं होते।’’ – विमल शान्ति से बोला – ‘‘मैं तेरे से बार में पहली मुलाकात में भी समझ गया था कि तूने कोर्ट में अपनी गवाही से फिरने के लिये रिश्वत खायी थी।’’
‘‘क-कैसे?’’
‘‘जब तूने मेरा पेश किया हिन्दी में छपा विजिटिंग कार्ड पढ़ कर फौरन ऐतराज दर्ज कराया था कि वो मेरा कार्ड नहीं था; वो जनसत्ता के रिपोर्टर अरविन्द कौल का कार्ड नहीं था, वो तो किसी योगेश पाण्डेय का कार्ड था जो कि कहीं डिप्टी डायरेक्टर था। तूने कोर्ट में गवाही दी थी कि तुझे हिन्दी नहीं आती थी इसलिये तुझे नहीं मालूम था कि थाने में हिन्दी में लिखा जो बयान तूने साइन किया था, उसमें क्या दर्ज था! लेकिन हिन्दी तो तुझे बाखूबी आती थी। इकत्तीस अक्टूबर, गुरुवार शाम को जनपथ के बार में हिन्दी में छपा विजिटिंग कार्ड बांच के तूने ख़ुद साबित किया था कि हिन्दी तुझे आती थी। नहीं?’’
नायर ने जवाब देते न बना।
‘‘बहरहाल अब तो तू कुबूल कर ही चुका है कि तूने रिश्वत खाके बयान बदला और तेरी होंडा ‘अमेज’ इस बात की गवाह है कि हराम की कमाई से ऐश करना तू शुरू कर भी चुका है। केस का विवेचन अधिकारी सब-इन्स्पेक्टर जो थाने में तेरे से इतना कड़क पेश आ रहा था, वो भी रिश्वत खा कर ही तेरी तरफ से नर्म पड़ा था। उसने कितनी खायी थी?’’
‘‘बीस।’’
‘‘तुझे कैसे मालूम है?’’
‘‘आरोपी लड़कों में से एक अमित गोयल का पिता रघुनाथ गोयल बोला।’’
‘‘वो क्यों बोला?’’
‘‘क-क्योंकि . . . क्योंकि मैंने पचास मांगे थे . . .’’
‘‘शाबाश!’’
‘‘... बोला उसके उतने ही लगने थे क्योंकि एसआई भी बड़ा मुंह फाड़ेगा, बीसेक उसको भी देने होंगे।’’
‘‘तो एसआई ने बीस लिये होंगे?’’
‘‘हां।’’
‘‘अब आखिरी बार बोल रहा हूं, दरख़्वास्त कर के बोल रहा हूं, तेरे को कुबूल करना होगा कि तूने तीस लाख रुपये रिश्वत खा के अपनी गवाही बदली थी।’’
‘‘लेकिन क्यों? क्यों?’’
‘‘ताकि इंसाफ हो सके।’’
‘‘तुम्हें इंसाफ से क्या मतलब? तुम इंसाफ के ठेकेदार हो! हो भी तो आज इंसाफ सूझा जब कि उस वारदात को हुए डेढ़ महीना होने को आ रहा है?’’
‘‘जरूरत आज महसूस की।’’
‘‘किसकी जरूरत?’’
‘‘मेरी जरूरत।’’
‘‘तो यूं कहो न, तुम्हें इंसाफ से कोई लेना देना नहीं है, अपनी किसी जाती जरूरत के तहत इंसाफ की आड़ लेकर मेरे पर जुल्म ढ़ाना चाहते हो!’’
‘‘काफी सयानी बात कही!’’
‘‘जवाब दो।’’
‘‘मेरा जवाब है कि एक पंथ दो काज हों तो कोई हर्ज है?’’
‘‘है न हर्ज! तुम अपने काज के लिये मेरे को शहीद नहीं कर सकते।’’
‘‘तेरी वजह से मुल्क के कायदे कानून की नाक नीची हुई, तेरी वजह से इंसाफ के मंदिर में इंसाफ न हुआ। तेरी वजह से कातिल और बलात्कारी छुट्टे घूम रहे हैं। तू जिम्मेदार है कोर्ट से बिना गम्भीर सजा पाये उनकी रिहाई के लिये, अब तू ही उन के सजा पाने में निमित्त बनेगा जबकि कबूल करेगा कि तूने रिश्वत खाकर झूठी गवाही दी।’’
‘‘मैं ऐसा नहीं कर सकता। ऐसा करना ख़ुदकुशी करना होगा।’’
‘‘पहले भी बोला तू।’’
‘‘फिर बोलता हूं। आंखों देखी मक्खी कोई नहीं निगलता।’’
‘‘तू निगलेगा। अभी तू ख़ुद . . .’’
नायर आगे को यूं झुका जैसे फर्श पर से कुछ उठाने जा रहा हो, एकाएक जुस्त की सूरत में उसका जिस्म यूं उछला जैसे कोई स्प्रिंग खुला हो और उसने विमल के पहलू में पड़ी रिवाल्वर झपट ली।
‘‘ख़बरदार!’’ – वो फुर्ती से सीधा होता बोला – ‘‘हिले तो शूट कर दूंगा।’’
विमल ने असहाय भाव से गर्दन हिलाई।
‘‘अबे, खटमल!’’ – मुबारक अली गुर्राया – ‘‘तेरी ये मजाल! ठहर जा, साले . . .’’
नायर ने गन का घोड़ा खींचा।
गोली मुबारक अली के कान को हवा देती गुजरी और पीछे दीवार में धंस गयी।
आगे बढ़ने को तत्पर मुबारक अली थमक कर खड़ा हो गया। उसका मुंह खुले का खुला रह गया।
‘‘किडनैपिंग इज ए सीरियस क्राइम।’’ – नायर बोला – ‘‘मैं तुम सब को गिरफ्तार कराऊंगा।’’
कोई कुछ न बोला।
‘‘कार की चाबी’’ – वो अशरफ से बोला – ‘‘मेज पर रखो और पीछे हट जाओ।’’
अशरफ ने आदेश का पालन किया।
नायर ने सावधानी से आगे बढ़ कर चाबी उठा ली और बोला – ‘‘मैं जा रहा हूं। कोई मेरे पीछे आया तो गोली। किसी ने अपनी जगह से हिलने की कोिशश भी की तो . . .’’
हवा में सनसनाती कोई चीज आयी और नायर के गन वाले हाथ से टकराई। उसके मुंह से एक दर्दभरी सिसकारी निकली, गन उसके हाथ से निकल कर हवा में उछली जिसे अरशद ने हवा में ही लपक लिया।
पिछवाड़े के दरवाजे से अनीस ने भीतर कदम रखा।
‘‘मैं ऐन मौके पर आया।’’ – वो बोला।
‘‘हां।’’ – विमल बोला – ‘‘शुक्रिया।’’
‘‘सामने का नजारा देखा तो छक्के छूट गये। जो हाथ में आया, फेंक के मारा।’’
‘‘क्या? क्या हाथ में आया?’’
‘‘फूलदान। बिना फूलों का।’’
‘‘बढ़िया।’’
‘‘मैं ये बोलने आया था कि बाहर सब कुछ तैयार है। लकड़ियां सुलगाऊं या अभी ठहरूं?’’
‘‘अभी ठहर। एक बार और बात कर लें इस से।’’
‘‘ठीक है। मैं बाहर ही जाता हूं। जैसा करना हो, बोलना।’’
‘‘मैं भी चलता हूं।’’ – मुबारक अली बोला – ‘‘सब इन्तजाम दिखा मुझे।’’
दोनों वहां से रुख़सत हो गये।
पीछे अशरफ ने सबसे पहले नायर से कार की चाबी वापिस छीनी फिर उसे वापिस सोफे पर धकेल दिया।
‘‘मालिक ने साथ न दिया।’’ – विमल उदासीन भाव से बोला – ‘‘मालिक साथ न दे तो बड़ी से बड़ी होशियारी धरी रह जाती है।’’
नायर ने जवाब न दिया, उसके गले की घन्टी जोर से उछली।
‘‘बकर-मुसल्लम समझता है?’’ – विमल बदले स्वर में बोला।
उसने सप्रयास इंकार में सिर हिलाया।
‘‘मुर्ग-मुसल्लम! चिकन को लोहे की सीख में पिरो कर तन्दूर में तपाया जाता है, भुन जाता है तो खाया जाता है। समझता है?’’
उसका सिर सहमति में हिलाया।
‘‘ऐसे ही साबुत बकरा भूना जाता है। इस फर्क के साथ कि उसको तन्दूर में भूनना मुमकिन नहीं होता इसलिये उसके लिये खुले में अलाव जलाया जाता है। साबुत बकरे को मसाले लगा कर एक लम्बी, मजबूत सलाख पर पिरोया जाता है जिसके एक सिरे पर हैंडल होता है। उस सलाख को अलाव के आजूबाजू बने स्टैण्ड पर टांगा जाता है और सलाख को हैंडल से आग पर धीरे-धीरे तब तक घुमाया जाता है जब तक कि वो ऐन हमवार नहीं भून जाता। बीच-बीच में उस पर चिकनाई लगाई जाती है ताकि वो जले नहीं, भुने। यूं पकाये गये बकरे को बकर-मुसल्लम बोलते हैं। अब समझा?’’
‘‘हं-हां। लेकिन मुझे क्यों बता रहे हो?’’
‘‘उसी अंदाज से आज यहां मर्द-मुसल्लम पकाने का इन्तजाम किया गया है।’’
‘‘क-क्या?’’
विमल अशरफ की तरफ घूमा।
‘‘बता, भई।’’ – फिर बोला।
‘‘पहले तो ये सुन’’ – अशरफ तत्पर स्वर में बोला – ‘‘कि इस कोठी का बैकयार्ड फ्रंटयार्ड से भी बड़ा है और उसकी बाउन्ड्री वाल्स भी फ्रंट के मुकाबले में बहुत ऊंची हैं। बैकयार्ड में लकड़ियों का अलाव जलाने का इन्तजाम किया गया है। अलबत्ता मर्द-मुसल्लम के लिये दरकार हैंडल वाली लम्बी, मजबूत सलाख का इन्तजाम यहां नहीं हो सका है। उसकी जगह अलाव में ऊपर एक जाल बांधा जायेगा . . .’’
‘‘हैमौक से मिलता-जुलता।’’ – विमल बोला।
‘‘... जो जूट का होने की जगह लोहे की तारों से बुना गया होगा। उस जाल पर कपड़े उतरवा कर तुझे लिटाया जायेगा . . .’’
नायर के चेहरे का रंग उड़ गया।
‘‘... जाल में ऐसा इन्तजाम होगा कि वो ऊंचा नीचा किया जा सकता होगा ताकि आग की तपिश तेरी पसन्द के मुताबिक कन्ट्रोल की जा सके। आगे ख़ुद सोच।’’
उसका पहले से बदरंग चेहरा और बदरंग हुआ।
विमल ने संजीदगी से बोला – ‘‘रोस्ट करने से मिला-जुला नजारा होगा।’’
‘‘सालम बकरा’’ – विमल ने संजीदगी से बोला – ‘‘टोस्ट करने से मिला-जुला नजारा ही होगा।’’
‘‘तु . . . तु . . . तुम’’ – नायर बड़ी मुश्किल से बोल पाया – ‘‘ऐसा नहीं कर सकते।’’
‘‘अच्छा!’’
‘‘किसी को जिन्दा जलाना . . .’’
‘‘भूनना। बिना मेरिनेशन के।’’
‘‘गॉड! दिस वुड बी मर्डर!’’
‘‘अभी तू क्या करने जा रहा था? तेरी चलाई गोली जो पीछे दीवार में जाके लगी, उसके बड़े मियां की खोपड़ी में धंसने में कोई कसर रह गयी थी?’’
‘‘म-मेरा इरादा सिर्फ धमकाने का था।’’
‘‘तो गोली क्यों चलाई? गोली तेरा इरादा समझती थी? तेरे को गन हैंडल करने का कोई तजुर्बा नहीं था इसलिये गोली निशाने पर न लगी वर्ना तूने तो कोई कसर नहीं छोड़ी यहां लाश गिराने में!’’
नायर के मुंह से बोल न फूटा।
‘‘तो शुरू करें?’’
‘‘तु . . . तुम चाहते क-क्या हो?’’
‘‘देखो तो कंजर को! अभी इसकी समझ में ये ही नहीं पड़ा कि मैं चाहता क्या हूं!’’
‘‘ये रिहायशी इलाका है। मैं . . . मैं गला फाड़ के चिल्लाऊंगा।’’
‘‘मुंह खोल पायेगा तो चिल्लायेगा न! मर्द-मुसल्लम के मुंह में डेकोरेशन के लिये एक सेव भी तो होगा!’’
उसने बेचैनी से पहलू बदला।
‘‘हाथ पांव तार से बन्धे होंगे। खोलने के लिये जितना जोर लगायेगा, तार उतना ही चमड़ी में धंसेगी।’’
मुबारक अली लौटा।
‘‘सब तैयार है।’’ – वो बोला – ‘‘सिवाय जमूरे के। कपड़े ये ख़ुद उतारेगा या उधेड़ के उतारने पड़ेंगे?’’
‘‘ये कुछ नहीं करने वाला।’’ – विमल बोला – ‘‘सब कुछ हमें ही करना पड़ेगा। ये कुछ करने वाला बनता तो प्लान टू पर अमल करने के लिये हमें इसे यहां लाना ही न पड़ता।’’
‘‘ठीक! ये भी पूछ ले इससे कि जिस्म पर क्या पसन्द करेगा? घी! मक्खन! क्रीम! ऑलिव आयल! या कुछ और?’’
‘‘बोल, भई।’’
‘‘जलने की मुश्क’’ – नायर खोखले स्वर में बोला – ‘‘दूर-दूर तक जाती है।’’
‘‘अच्छा है न! दूर-दूर तक पता लगेगा कि कहां दावत है! इतना बार-बी-क्यू हम अकेले थोड़े ही खा सकेंगे! चार मेहमान और आ जायोंगे तो क्या बुरा होगा!’’
‘‘ये . . . ये कल्त होगा!’’
‘‘कम्माल है!’’ – मुबारक अली बोला – ‘‘कुर्बानी का बकरा कत्ल की दुहाई दे रहा है!’’
‘‘इसे अपनी तैयारी का नजारा कराओ’’ – विमल बोला – ‘‘तब शायद इसका मिजाज बदले।’’
‘‘ठीक! चल, भई।’’
नायर का एकाएक मुंह खुला। तजुर्बेकार मुबारक अली फौरन समझ गया कि वो चिल्लाने लगा था। उसने झपट कर उसका टेंटुआ दबाया।
निकलने को तैयार चीख गले में ही घुटके रह गयी।
विमल ने उसकी तरफ अपना रूमाल बढ़ाया।
मुबारक अली ने रूमाल का गोला बना कर उसे उसके मुंह में ठूंस दिया और ऊपर से ताजा ख़रीद सर्जीकल टेप चेप दिया। टेप से ही उसने पीठ पीछे उसकी कलाईयां बान्धीं और उसे बाहर को धकेला।
बैकयार्ड में एक जगह विवाह मंडप की तरह लोहे के चार पाइप गाड़े गये थे जिनके बीच बन्धा तारों का जाल तना हुआ था। जाल से कोई पांच फुट नीचे तीन गुणा छः की बैड पर लकड़ियां जल रही थीं और उनमें से निकलती लपटें ही बैकयार्ड में औनी पौनी रोशनी फैला रही थीं। जाल यूं बान्धा गया था कि उसे बिना खोले इंच-इंच कर के ऊपर या नीचे सरकाया जा सकता था।
‘‘साजन की शय्या!’’ – विमल व्यंग्यात्मक स्वर में बोला।
नायर का शरीर बुरी तरह से कांपा, उसके गले से घौं-घौं की घुटी हुई आवाज निकली।
मुबारक अली ने उसे आगे धकेला।
‘‘तुमने पूछा था’’ – विमल बोला – ‘‘ये जिस्म पर क्या पसन्द करेगा! मुझे जवाब सूझ गया है।’’
‘‘क्या?’’ – मुबारक अली सकपकाया-सा बोला।
‘‘घूंट का रसिया है। रोज जिस्म की विस्की से मालिश करता है। अन्दर की तरफ से। आज बाहर की तरफ से होगी।’’
नायर फिर तड़पता सा गले से घौं-घौं की आवाजें निकालने लगा।
‘‘लगता है कुछ कहना चाहता है।’’
‘‘ऐसा क्या?’’ – मुबारक अली ने पूछा।
नायर ने जोर-जोर से सहमति में सिर हिलाया।
‘‘क्या कहना चाहता है?’’ – विमल बोला – ‘‘ये कि हम ये नहीं कर सकते! ये कत्ल होगा! दिस वुड बी मर्डर!’’
उसने पुरजोर इंकार में सिर हिलाया।
‘‘पर ये तो तू कह चुका! दो-दो जुबानों में रह चुका! कुछ और कहना चाहता है?’’
उसका सिर ऊपर नीचे हिला।
‘‘हमारे को माफिक आने वाला कुछ कहना चाहता है?’’
उसका सिर फिर ऊपर नीचे हिला।
‘‘ऐतबार कर लें तेरा?’’
फिर हामी!
‘‘मत करो’’ – अनीस बोला – ‘‘पन्द्रह किलो लकड़ियां बेकार चली जायेंगी।’’
नायर की आंखें याचना से लबरेज हो उठीं।
‘‘एक बार आजमाते हैं।’’ – विमल निर्णायक भाव से बोला।
‘‘ठीक है। लेकिन ये फिर भी औंधी खोपड़ी से ही बोला तो मैं पन्द्रह किलो लकड़ियां और ले आऊंगा और उन पर मिट्टी का तेल भी छिड़कूंगा।’’
‘‘सुना!’’
नायर ने जल्दी-जल्दी ऊपर नीचे सिर हिलाया।
‘‘अक्ल आ गयी?’’
फिर हामी।
‘‘थोड़ा-सा नमूना तो दिखा दें!’’ – अनीस आशापूर्ण स्वर में बोला।
नायर की गर्दन मशीन की तरह दायें बायें फिरी।
‘‘जरूरत नहीं।’’ – विमल बोला – ‘‘मेरा दिल कहता है अब ये कोआपरेट करेगा। वापिस भीतर चलो।’’
सब – इस बार अनीस भी – भीतर पहुंचे।
नायर के मुंह पर चिपका टेप हटा के रूमाल निकाल दिया गया और कलाईयां भी खोल दी गयीं।
विमल के इशारे पर अनीस ने उसे पानी का एक गिलास थमाया जो वो बड़ी व्याग्रता से गटागट पी गया और हांफता-सा होंठों पर जुबान फेरने लगा।
‘‘और?’’ – विमल बोला।
‘‘न-नहीं।’’
‘‘इस केस का रीओपन होना जरूरी है। ऐसा तभी हो सकता है जब तू कबूल करे कि भारी दबाव में आ कर तू अपने ओरीजिनल बयान से मुकरा था।’’
‘‘ऐसा कुबूल करते ही मैं परजुरी के इलजाम में धर लिया जाऊंगा।’’
‘‘बराबर होगा ऐसा। लेकिन परजूरी की कोई बड़ी सजा नहीं होती। जान जाने से बड़ी कोई सजा नहीं होती। शुक्र मना कि तू मर्द-मुसल्लम बनने से बच गया।’’
वो ख़ामोश रहा।
‘‘फिर जरूरी भी नहीं कि तुझे सजा हो।’’
उसकी आंखों में आशा की चमक जागी।
‘‘ये बात तेरे क्रेडिट में जायेगी कि तूने ख़ुद अधिकारियों के सामने पेश हो के ये बात कबूली।’’
‘‘क-क्यों? क्यों कबूली? जब डेढ़ महीना खामोश रहा तो अब क्यों कबूली।’’
‘‘क्यों कि तेरी अन्तरात्मा ने तुझे अब धिक्कारा, क्योंकि झूठी गवाही देने के बाद से एक रात भी तू चैन की नींद न सो पाया। आखिर अन्तर्प्रेरणा के हवाले अपने अंजाम की परवाह छोड़ कर तू कानून के हवाले हो गया।’’
‘‘मैंने रिश्वत खायी।’’
‘‘तूने न खायी। रिश्वत तेरे पर थोपी गयी। तेरे उन लोगों की लाइन टो करने की गारन्टी के तौर पर जो तू न करता तो तुझे जान से मार दिये जाने की धमकी थी। तेरे बीवी बच्चों का बुरा हाल किये जाने की धमकी थी। ‘‘हैं न?’’
‘‘क-क्या?’’
‘‘सुन नहीं रहा कुछ। बीवी बच्चे। हैं न?’’
‘‘हां। बीवी है। दो बेटियां हैं। सात और दस साल की।’’
‘‘तुझे उन को उठवा दिये जान की धमकी मिली। मजबूरन तुझे अपनी गवाही से फिरना पड़ा।’’
‘‘प-पैसे का क्या होगा?’’
‘‘मालखाने में जमा कराना पड़ेगा।’’
‘‘प-पांच लाख मैंने कार खरीदने में ख़र्च किया!’’
‘‘बोलना पच्चीस ही मिले थे। कार का नाम न लेना। उसको कुछ दिनों के लिये कहीं – जैसी कनॉट प्लेस में पालिका पार्विंफ़ग में – खड़ी कर के भूल जाना और तब तक भूले रहना जब तक मामला ठण्डा न पड़ जाये।’’
‘‘अच्छा!’’
‘‘तू जरा होशियारी से काम लेगा – जो मैं जानता हूं कि तू मेरे कहे बिना भी लेगा – तो कोई बड़ी बात नहीं है कि केस को मजबूत बनाने के लिये पुलिस तेरे को वादामाफ गवाह बना ले।’’
‘‘ऐसा हो सकता है?’’
‘‘सरासर हो सकता है। वो तीन छोकरे जो तेरी वजह से बरी हो गये . . . उनके ख़िलाफ जब केस रीओपन होगा तो सरकारी पक्ष का दारोमदार फिर तेरी गवाही पर ही होगा जो इस बार तू सच्चाई और ईमानदारी से देगा तो उन लोगों को सजा हो के रहेगी।’’
‘‘आप चाहते हैं कि उन लोगों की सजा हो?’’
‘‘हां।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘ये बात मैं तेरे को नहीं समझा सकता। तू बस इतना समझ ले कि एक बहुत बड़ा पर्सनल प्रोजेक्ट मेरे सामने है जिसमें कामयाबी तभी मुमकिन है जब कि उन तीनों मे से एक को लम्बी सजा हो।’’
‘‘एक को?’’
‘‘एक को होगी तो यकीनन तीनों को होगी। जो जुर्म करता है उसे सजा होनी ही चाहिये। जो सजा से नहीं डरेगा, वो जुर्म से क्योंकर डरेगा! सजायें इसीलिये तजबीज की जाती हैं ताकि मुजरिमाना हरकतें करने वाले लोगों को अंजाम का डर सताये। किसी को कानून को साइडट्रैक करने की, उसकी खिल्ली उड़ाने की इजाजत नहीं दी जा सकती।’’
‘‘कानून इतना कमजोर क्यों है?’’
‘‘ये बहस का मुद्दा है। इस बाबत कुछ कहने का मेरा मुंह नहीं बनता लेकिन . . . कहता हूं। कानून कमजोर नहीं, मजबूर है। वो वही देखता है जो उसे दिखाया जाता है। कानून तफ्तीश करने नहीं जाता, तफ्तीश का नतीजा उसके सामने पेश किया जाता है। कानून मुजरिम को पकड़ने नहीं जाता, वो उसी को इंसाफ के तराजू में तोलता है जो उसके सामने पकड़ कर लाया जाता है। कानून का काम अपने जाती नतीजे निकालना भी नहीं होता। वो ये नहीं कह सकता कि उसका दिया गवाही देता है कि उसके सामने खड़ा शख़्स मुजरिम है इसलिये उसको सजा सुनाने के लिये उसके हक में या उसके खिलाफ किसी गवाह की, किसी गवाही की जरूरत नहीं थी। कितनी ही बार न्यायाधीश को पता होता है कि मुजरिम उसके सामने खड़ा है, लेकिन वो उसे सजा नहीं सुना सकता क्योंकि बियांड ऑल रीजनेबल डाउट्स उसको मुजरिम साबित न किया जा सका। इसलिये मुजरिम को सन्देह-लाभ देकर छोड़ना पड़ता है। कानून कहता है कि सौ गुनहगार भले ही सजा से बच जायें, एक बेगुनाह को सजा नहीं होनी चाहिये। इसीलिये कानून में मुजरिम के बैनीफिट आफ डाउट पाने का प्रावधान है। हमारा अदालती ढांचा ऐसा है कि कानून का कारोबार गवाहों से चलता है, इंसाफ का दारोमदार गवाहियों पर होता है। और गवाह, गवाहियां अक्सर कानून की आंखों में धूल झोंकने में कामयाब हो जाती हैं, ये तुम से बेहतर कौन जानता है!’’
नायर का सिर झुक गया।
‘‘फिर सारे गवाह रिश्वत खाकर ही तो परजुरी के लिये तैयार नहीं होते! और भी कितनी ही सामाजी वजुहात बन जाती हैं जो उनको अदालत में सच बोलने की शपथ ग्रहण की होने के बावजूद झूठ बोलने पर मजबूर करती हैं। इंसान बहुत से जज्बाती रिश्तों से बंधा होता है जिनकी वजह से झूठ बोलने पर मजबूर हो जाता है। मिसाल के तौर पर फर्ज करो एक पच्चीस साल के कड़क नौजवान पर, जिसके आगे कि अभी सारी जिन्दगी पड़ी है, डेलीब्रेट, कोल्डब्लडिड मर्डर का केस है और उसका अस्सी साल का दादा, जिसके कब्र में पांव है, कोर्ट में शपथ ग्रहण करके अपना इकबालिया बयान देता है कि कत्ल नौजवान ने नहीं, उसने किया था। क्यों देता है? क्योंकि वो जज्बाती रिश्तों में जकड़ा हुआ है, वो जज्बाती रिश्तों की वजह से झूठी गवाही देने पर मजबूर है। बहरहाल कोई जज्बात से मजबूर है, कोई लालच से मजबूर है – जैसे कि तुम।’’
कुछ क्षण ख़ामोशी रही।
‘‘मैंने आप की बात कुबूल की’’ – फिर नायर दबे स्वर में बोला – ‘‘थाने जाकर नया बयान दर्ज कराने की कोशिश की और मुझे डांट के भगा दिया गया तो?’’
‘‘ऐसा हो सकता है। पुलिस के पास बहुत काम होता है। आये दिन नये केस आते हैं इसलिये किसी पुराने केस का, जो सैटल भी हो चुका है, मुर्दा उखाड़ने से उन्हें परहेज को सकता है। फिर हो सकता है कि थाने में तुम्हारा वास्ता उसी सब-इन्स्पेक्टर से पड़े जिसने तुम्हारे साथ रिश्वत खायी। क्या नाम था उसका?’’
‘‘संजय सिंह ऐवाना।’’
‘‘वो तो कभी नहीं चाहेगा कि केस रीओपन हो। उसकी कोशिश तुम्हें डांट के भगा देने की हो सकती है। अपने बयान तुम्हें उस शख़्स का नाम – एक आरोपी के पिता का नाम – तो तुम्हें लेना पड़ेगा। तब उसको भी क्वेश्चनिंग के लिये तलब किया जायेगा। तब उसने अगर कुबूल किया कि उसने तुम्हें रिश्वत परोसी थी तो तभी तुमने अपना बयान बदला था, तो वो ये भी कह सकता है कि केस के विवेचन अधिकारी ने भी रिश्वत खाकर ही उस केस की फाइल क्लोज करके ठण्डे बस्ते में डाल दी थी।’’
‘‘तो?’’
‘‘तुम उस डिस्ट्रिक्ट के – जिसके अंडर तिलक नगर थाना आता है, डीसीपी को अपना बयान दोगे।’’
‘‘कोई मुझे उसके पास भी नहीं फटकने देगा।’’
‘‘एक बड़ा वकील तुम्हें उसके पास ले के जायेगा।’’
‘‘मैं किसी बड़ी वकील से वाकिफ नहीं।’’
‘‘उसका इन्तजाम मैं करूंगा। कल वो ही डीसीपी से तुम्हारे लिये अप्वायन्टमेंट लेगा और तुम्हें अपने साथ ले के जायेगा। तुम्हारे शोरूम में तुम्हें उसकी कॉल आयेगी। कॉल पर निगाह रखना और जहां वो बुलाये, वहां पहुंचना। ओके?’’
नायर ने सहमति में सिर हिलाया।
‘‘थैंक्यू।’’
‘‘और’’ – मुबारक अली कर्कश स्वर में बोला – ‘‘जो यहां बीती, उसको अभी, इसी मिनट भूल जाने का। क्या?’’
नायर के शरीर में सिर से पांव तक स्पष्ट झुरझुरी दौड़ी।
‘‘कोई भी श्यानपंती की तो इसने बख़्श दिया, मैं नहीं बख़्शूंगा। ये भी न समझना कि रातोंरात तू बीवी बच्चों समेत गायब हो जायेगा।’’
‘‘कैसे हो जाऊंगा!’’ – वो दयनीय भाव से बोला – ‘‘लगी लगाई नौकरी छोड़ के भाग जाऊंगा तो क्या भूख मरूंगा?’’
‘‘जब तक रिश्वत का शीराजा नहीं चुक जायेगा, तब तक नहीं भूखा मरेगा। वो नौबत आने तक तो कहीं और जा के कोई नयी नौकरी ढूंढ़ ही लेगा!’’
‘‘मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं।’’
‘‘न ही हो तो अच्छा है। तेरे लिये।’’
‘‘कल जो हुक्म होगा, जैसे हुक्म होगा, मैं उसको फॉलो करूंगा।’’
‘‘अपना ड्राइविंग लाइसेंस दिखा।’’
‘‘क्या?’’
‘‘अबे, कार चलाता है। क्या बिना ड्राइविंग लाइसेंस के चलाता है? लाइसेंस है या नहीं है तेरे पास?’’
‘‘है।’’
‘‘दिखा।’’
‘‘अगर मेरे घर का पता जानने के लिये देखना चाहते हो तो पता मैं वैसे ही बोल देता हूं।’’
‘‘बोल।’’
उसने मयूर विहार फेज वन का एक पता बोला।
जो मामू के बिना कहे अशरफ ने अपने मोबाइल पर नोट कर लिया।
‘‘अब’’ – नायर ने डरते-डरते विमल से पूछा – ‘‘मेरे लिये क्या हुक्म है?’’
‘‘जा सकते हो।’’ – विमल बोला।
नायर के चेहरे पर ऐसे भाव आये जैसे उसे अपने कानों पर विश्वास न हुआ हो। वो उछलकर अपने पैरों पर खड़ा हुआ, फिर यूं दरवाजे की तरफ बढ़ा जैसे किसी भी क्षण वापिस घसीट लिये जाने की आशंका हो।
‘‘एक बात बता।’’ – पीछे मुबारक अली संजीदगी से बोला।
विमल ने सवालिया निगाह उस पर डाली।
‘‘उसकी जिद न टूटती तो भुन जाने देता?’’
विमल ने इंकार में सिर हिलाया।
‘‘मेरा भी यही ख़याल था।’’ – मुबारक अली ने – जो कि ख़ुद दुर्दान्त हत्यारा था – स्पष्टतया चैन की सांस ली। – ‘‘तो क्या करता?’’
‘‘पता नहीं। बहरहाल अच्छा हुआ हमार ब्लफ चल गया, वक्त रहते उसकी हिम्मद दगा दे गयी।’’
‘‘ये जो ब्लफ कर के तू बोला वो दोनों तरफ से भी तो खेला जा सकता है!’’
‘‘मियां, वही कह रहे हो न, जो मैं समझ रहा हूं?’’
‘‘मुझे नहीं पता तू क्या समझ रहा है। जवाब दे। कल होगा वो अपने शोरूम में?’’
‘‘जवाब तुमने ख़ुद दे दिया। कल शोरूम में होगा तो ठीक वर्ना समझेंगे हमसे बड़ा ब्लफ का खिलाड़ी था।’’
‘‘बड़ा वकील कहां से आयेगा?’’
‘‘है एक बड़ा वकील गैलेक्सी के ऐनुअल रिटेनर पर . . .’’
‘‘किस पर?’’
‘‘सालाना फीस पर।’’
‘‘केस हो न हो, फीस चौकस?’’
‘‘हां।’’
‘‘ऐसा भी होता है?’’
‘‘कार्पोरेट वर्ल्ड में होता है।’’
‘‘उस को तू भी, वो क्या बोला तू अंग्रेजी में, री कर के टेन करेगा?’’
‘‘जरूरत नहीं पड़ेगी। गैलेक्सी की मालकिन शोभा शुक्ला सब सैट कर देंगी।’’
‘‘तेरे कहने पर?’’
‘‘हां। शोभा जी को मालूम है शुक्ला साहब को मेरी कितनी कद्र थी!’’
‘‘फिर क्या बात है!’’
‘‘मैं चलता हूं।’’ – विमल उठ खड़ा हुआ – ‘‘अब यहां कोई काम नहीं और मेरा तुम्हारा कोई साथ नहीं।’’
‘‘कहां जायेगा?’’
‘‘बोलूंगा। चलता हूं।’’
‘‘मैं छोड़ के आता हूं न?’’ – अशरफ बोला।
‘‘ताकि मेरे ठिकाने की बाबत मामू का सस्पेंस ख़त्म हो?’’
अशरफ खिसियाया-सा हंसा।
‘‘मामू ने इशारा कर दिया कोई!’’
वो परे देखने लगा।
‘‘तूने मामू और अनीस को ले के जाना है। यहां सब समेटने में हो सकता है अभी टाइम लगे। मेरे को सुन्दर नगर मार्केट से आराम से कैब मिल जायेगी। शब-ब-खैर।’’
‘‘शब-ब-खैर, सरदार।’’ – मुबारक अली भावपूर्ण स्वर में बोला – अल्लाह वाली।’’
देवन नायर ने ब्लफ न खेला, दग़ाबाजी न की। सुबह अपने निर्धारित ड्यूटी टाइम पर वो शोरूम में मौजूद था, उसने आते ही मैनेजर को बोल दिया था कि उसे एकाएक, खड़े पैर कहीं जाना पड़ सकता था।
दोपहर के करीब उसकी नयी दिल्ली डिस्ट्रिक्ट के, जिसमें कि तिलक मार्ग थाना आता था, डीसीपी के सामने पेशी हुई। नायर ने पूरी ईमानदारी के साथ अपना बयान दिया जिसका डीसीपी ने गम्भीर संज्ञान लिया। तत्काल पुलिस तन्त्रजाल हरकत में आया।
शाम तक बरी हुए तीनों आरोपियों को – अमित गोयल को विकास जिन्दल, केतन साहनी को – फिर गिरफ्तार कर लिया गया और रघुनाथ गोयल को क्वेश्चनिंग के लिये तिलक मार्ग थाने तलब किया गया।
वो अगली सुबह अपने वकील के साथ थाने पहुंचा तो एसएचओ के आफिस में पहले तो इसी बात पर भड़कने-कलपने लगा कि एक पागल के प्रलाप पर ख़ामख़ाह उसके बेटे को फिर गिरफ्तार कर लिया गया था। इसको उस बाबत सख्ती से चुप कराया गया और उससे दो टूक सवाल किया गया कि अपना बयान बदलने के लिये देवन नायर को उसने रिश्वत दी थी या नहीं।
राघुनाथ गोयल ने इस बात का पुरजोर विरोध किया जिसमें उसके वकील ने उसका पूरा-पूरा साथ दिया। रघुनाथ गोयल ने दावा किया कि वो देवन नायर से कभी नहीं मिला था, वो उसे जानता तक नहीं था, उसने तो बस एक बार उसकी शक्ल देखी थी जब कि वो अदालत में अपना बयान दे रहा था और ख़ुद वो अदालत में मौजूद था।
अपनी किसी स्ट्रेटेजी के तहत पुलिस ने रघुनाथ गोयल को ज्यादा न कुरेदा। उसे वार्न किया गया कि वो पुलिस को उपलब्ध रहे और चला जाने दिया गया।
उसी रोज विमल सिविल लाइंस जाकर कीमतराय सुखनानी से मिला, उसे गुड न्यूज दी कि उसकी मुराद पुरी होने का वक्त आ गया था, और प्रार्थना की कि वो अगले रोज सुबह दस बजे कोर्ट परिसर में कोर्ट नम्बर सात में जरूर हाजिरी भरे जहां कि विमल की लायी गुड न्यूज की पुष्टि होने की पूरी सम्भावना थी।
फिर वहीं उपलब्ध प्रिंटर की मदद से उसने विकी जेगर की मकतूला सुजाता सुखनानी को फोन में उपलब्ध तसवीर के ए-4 साइज के दो प्रिंट बनाये।
उन तसबीरों से लैस गैलेक्सी के वकील के साथ वो उस सरकारी वकील से मिला जिसने पुलिस की तरफ से रीओपंड केस में पेश होना था। विमल ने तसवीरें सरकारी वकील को सौंपीं और बताया कि वो क्योंकर इस्तेमाल में आ सकती थीं।
सरकारी वकील ने विमल का परिचय जाना चाहा तो विमल ने ख़ुद को कीमतराय सुखनानी का मुलाजिम बताया।
उन तसवीरों ने सरकारी वकील को बहुत खुश किया, उसने पुरजोर ऐलान किया कि अब उसके पास आरोपियों के ख़िलाफ बहुत मजबूत केस था।