“फांसी के फंदे की नौवत कहां से आ जायेगी?" दिव्या कहती चली गयी- “असल में देखो तो किया ही क्या है हमने? कत्ल तो कर नहीं दिया गया राजदान का । "
“इसके बावजूद अगर भविष्य में यही साबित हो गया तो ?”
“ए- ऐसा कैसे साबित हो जायेगा?" हकला गई दिव्या।
“होने को तो पता नहीं कब क्या हो जाये लेकिन मेरे ख्याल से वही साबित हो जाना कम खतरनाक नहीं होगा जो हमने किया है या करने वाले हैं।” देवांश मानो अपनी ही सोचो से बुरी तरह डर चुका था - " -“सोचो दिव्या - एक आदमी आत्महत्या करता है। हम घटनास्थल पर मौजूद सबूतों से छेड़छाड़ करके उसे हत्या साबित करने की कोशिश करते हैं। हमारा मकसद उस हत्या के इल्जाम में किसी बेगुनाह को फंसाना है। क्या ये छोटा जुर्म है? मेरे ख्याल से तो किसी की हत्या करने जितना ही बड़ा गुनाह ये। फांसी नहीं तो उम्र कैद जरूर हो जायेगी हमें ।”
“तब, जबकि यह सब किसी को पता लगेगा।" दिव्या ने कहा- “तुम भूल रहे हो ऐसी कोई संभावना नहीं है। सॉलिड स्कीम बनाई है हमने। वही होगा जो हमने सोचा है।"
"मैंने बड़ी-बड़ी स्कीमों को धराशायी होते देखा है।"
“देव! संभालो खुद को। जरूरत से ज्यादा डर गये हो तुम"
“मैंने पहले ही कहा था-बात की खाल में न खुद घुसो, न मुझे घुसने दो। अब जबकि मेरा दिमाग प्वाईंट पर गौर कर चुका है तो इसी नतीजे पर पहुंचा हूं, हम जो भी कर रहे हैं, अपने नहीं - राजदान के प्लान के मुताबिक कर रहे हैं। और तो और सुसाईड के ठीक दो मिनट बाद ठकरियाल का यहां पहुंच जाना तक राजदान के प्लान का हिस्सा है। खुद ठकरियाल के मुंह से सुन चुकी हो तुम एक बजे आने के लिए उसे राजदान ने कहा था। साफ जाहिर है- यहां जो कुछ जो रहा है, हमारे प्लान के मुताबिक नहीं बल्कि उस शख्स के प्लान के मुताबिक हो रहा है जिसकी इस वक्त यहां लाश पड़ी है। मुझे तो लगता है - हम सोच तक भी सिर्फ और सिर्फ वही रहे हैं जो मरने से पूर्व राजदान चाहता था कि उसकी बात के बाद सोचें।”
पहली बार दिव्या के चेहरे पर भी खौफ के वैसे ही भाव उभरे जैसे देवांश के चेहरे पर काफी पहले काबिज हो चुके थे। बोली-“तुम तो मुझें भी डराये दे रहे हो देव । प्लीज - हौंसला बनाये रखो, ऐसी बातें मत करो।”
“एक रिक्वेस्ट करना चाहता हूं तुमसे।"
“रिक्वेस्ट?”
“लालच के भूत को अपने दिमाग से निकाल फैंको । वही मत करो जो मरने से पूर्व राजदान समझता था कि हम करेंगे।"
“पांच करोड़ के बगैर हमारी जिन्दगी।"
“जो खुश रहते हैं, उन सभी के पास पांच करोड़ नहीं होते दिव्या ।” उसकी बात काट कर देवांश भावुक स्वर में कह उठा- "मैं तुम्हें उतने ऐशो-आराम के साथ रखने का वादा तो नहीं कर सकता जितने ऐशो-आराम में अब तक रही हो मगर इतना वादा जरूर कर सकता हूं - खुश रखूंगा, प्यार से रखूंगा। मेहनत करूंगा मैं कोशिश करूंगा बिजनेस के उस 'क्राईसेज' से निकलने की जिसको वजह से आज हमारी आर्थिक स्थिति ‘ये’ है। वक्त बदलते देर नहीं लगती - क्या पता कल मैं गिरवी रखी गई हर चीज को छुड़ा लूं। कर्ज भी चुका दूं रामभाई शाह जैसे लोगों का और मान लो ऐसा कुछ नहीं कर पाता । तब भी, अगर मेरा विश्वास तुममें और तुम्हारा विश्वास मुझमें बना रहा अभावों में भी, झोंपड़ी में भी हम अपनी बाकी जिन्दगी हंसते गाते बिता सकते हैं करोड़ो लोग बिता रहे हैं। लेकिन अगर हम लालच नहीं छोड़ पाये।उसी रास्ते पर बढ़ चले जिस पर पहला कदम रख चुके हैं तो जाने क्यों, मुझे विश्वास हो चला है- या तो फांसी के फंदे पर लटकना पड़ेगा या बाकी जिन्दगी जेल में एड़िया रगड़ते-रगड़ते गुजरेगी। हम दोनों के लिए इसी सबका इन्तजाम कर गया है राजदान ।”
“ल-लेकिन”
“पता नहीं कहां अटकी हुई हो तुम ।" एक बार फिर देवांश ने उसे बोलने का मौका नहीं दिया - “इस रास्ते पर मुझे हम दोनों की बरबादी साफ नजर आ रही है।"
“क्या ठकरियाल हमें माफ कर देगा?” दिव्या ने शंका जाहिर की।
झूम उठा देवांश । दिव्या के छोटे से वाक्य से जाहिर था वह कन्विंस हो गई। अब का है तो केवल यह ठकरियाल का रुख क्या होगा? उत्साह से भरा देवांश कह उठा - “उसकी तुम चिन्ता मत करो। मैं मना लूंगा। भले ही उसके पैर पकड़ने पड़े। वैसे ही अब तक हमने जो कुछ किया है उससे किसी का कोई नुकसान नहीं हुआ है। बड़ी आसानी से लौटाया जा सकता है उस सबको हम उसे रिवाल्वर और जेवर बराबद करा देंगे। दुनिया के सामने वही आयेगा जो सच है अर्थात् आत्माहत्या कर ली है राजदान ने । ठकरियाल से कहेंगे - पांच करोड़ ने कुछ देर के लिए हमारी बुद्धि खराब कर दी थी। उसी कारण रिवाल्वर और जेवर घटनास्थल से हटा दिये थे परन्तु वक़्त रहते अक्ल आ गई है।' ठकरियाल ऐसा आदमी नहीं है जो इतने सबके बाद हमारा अहित चाहे।
दिव्या बस इतना ही कह सकी-“जैसा तुम चाहो।”
“आओ मेरे साथ ।” वह उसका हाथ पकड़कर तीन-चार कदमों में ही बाथरूम के दरवाजे पर पहुंच गया। दस्तक दी।
पुकारा ठकरियाल को ।
मगर !
अंदर कोई प्रतिक्रिया नहीं।
देवांश ने कुछ और जोर से दरवाजा पीटा। थोड़ी ऊंची आवाज में कहा- “बाहर आ जाओ इंस्पेक्टर । अब किसी इन्वेस्टिगेशन की जरूरत नहीं है। हम सब कुछ बताने को तैयार है।”
देवांश की आवाज में कोई लोच, कोई कंपकपाहट नहीं थी। बल्कि एक अजीब किस्म की दृढ़ता थी । वह, जो हर सच्चे और तनावहीन आदमी की आवाज में होती है। झूठे और तनावग्रस्त आदमी के मुंह से कभी वैसी आत्मविश्वास भरी आवाज नहीं निकल पाती। परन्तु !
जवाब में बाथरूम के अंदर से इस बार भी कोई आवाज नहीं उभरी।
सन्नाटा छाया रहा।
दिव्या और देवांश ने एक-दूसरे की तरफ देखा ।
चारों आंखों में एक ही सवाल था - "क्या चक्कर है? बोल क्यों नहीं रहा ठकरियाल?”
“इंस्पैक्टर! इंस्पैक्टर!” पुकारने के साथ देवांश ने जोर से दरवाजा भड़भड़ाया।
जवाब अब भी नदारद ।
“अरे! कहाँ गया ये? खोल क्यों नहीं रहा?” बड़बड़ाने के साथ जो उसने चीख-चीखकर ठकरियाल को पुकारने ओर दरवाजा पीटने का शुरू किया तो दो मिनट तक लगातार चलता रहा।
पूरी तरह सन्नाटा छाया रहा दूसरी तरफ।
जैसे कोई था ही नहीं ।
दिव्या और देवांश के जो चेहरे कुछ देर पहले पूरी तरह तनावमुक्त हो चुके थे उनकी नसें पुनः तन गईं। अजीब सी दहशत काबिज होती चली गई उन पर ।
दिल धाड़-धाड़ की आवाज के साथ पसलियों से सिर टकराने लगे थे।
दिमाग में अनेक सवाल पूरे जोर-शोर से कुश्तियां लड़ने लगे।
कहां चला गया ठकरियाल?
क्या चक्कर है ये?
किस फिराक में है वह?
क्या उसने किसी षडयंत्र के तहत बाथरूम का दरवाजा उस तरफ से बंद किया था ?
उसकी इस अजीबो-गरीब हरकत के पीछे कहीं राजदान ही की तो कोई साजिश नहीं है?
व्ह कर कया रहा है अंदर?
खोल क्यों नहीं रहा दरवाजा?
इस किस्म के सैकड़ों सवालों ने दिव्या और देवांश को मानों पागल करके रख दिया। चेहरों पर हवाइया उड़ने लगीं। रंग पीले। जहन में ख्याल-क्या ये किसी जाल में फंस चुके हैं।
जब कुछ समझ में नहीं आया तो दिव्या का हाथ पकड़कर देवांश कमरे के मुख्य दरवाजे की तरफ लपका। उसकी तरफ जो गैलरी में खुलता था। जिसके जरिए वे वहां आये थे ओर उस वक्त तो उनके रहे- सहे होश भी फाख्ता हो गये जब उस दरवाजे को भी गैलरी की तरफ से बंद पाया।
पता नहीं उसे कब और किसने बंद कर दिया था।
कुछ देर के लिए तो अवाक् रह गये वे ।
काटो तो खून नहीं ।
दिमाग जाम होकर रह गया था।
क्या हो गया ये?
कैसे हो गया?
हुआ क्यों है?
चेतना लौटी तो दरवाजा पीटना शुरू किया। हलक फाड़-फाड़कर वे ठकरियाल को पुकार रहे थे।
मगर! जवाब में कहीं से कोई आवाज नहीं उभरी।
अपने ही द्वारा पैदा की जाने वाली आवाजें घूम-घामकर वापस उनके कानों तक पहुंच रही थीं। ऐसा लगता था-जैसे ठकरियाल विला में कभी आया ही नहीं था। अब तो कमरे में पड़ी राजदान की लाश भी उन्हें डराने लगी थी। सारे कमरे में यूं फड़फड़ाते फिर रहे थे वे जैसे अचानक पिंजरे में जा फंसी चिड़िया फड़फड़ाता करती हैं।
पगलाया सा देवांश उस वक्त चौथी या पांचवी बार कमरे के मुख्य द्वार पर अपने कंधे का हमला करने के लिए लपका था जब अचानक एक झटके से दरवाजा खुल गया।
झोंक में वह गैलरी में काफी दूर तक लड़खड़ाता चला गया।
गनीमत रही, गिरा नहीं।
संभलकर पलटा।
नजर दरवाजे के नजदीक खड़े ठकरियाल पर पड़ी।
उधर, दिव्या भी ठकरियाल ही को देख रही थी। आंखों में खौफ था उसकी। चेहरे पर आतंक ही आतंक। ऐसी दहशत जैसे गैस चेम्बर में फंसे व्यक्ति के चेहरे पर होती है। कुछ कहते नहीं बन पड़ रहा था उस पर कोशिश के बावजूद मुंह से आवाज नहीं निकाल पाई। लगभग ऐसी ही, बल्कि इससे भी बदतर अवस्था देवांश की थी। डरा हुआ होने के साथ मेहनत करने के कारण वह हांफ रहा था। अपने हमलों से दरवाजे को इस अवस्था में पहुंचा चुका था कि ठकरियाल ऐन टाईम पर खोल न देता तो शायद इस बार टूटकर गैलरी के फर्श पर जा गिरता। जब काफी देर तक भी कोशिश के बावजूद के बावजूद अपने मुंह से आवाज न निकाल सका, हांफता हुआ ठकरियाल की तरफ केवल देखता भर रहा तो ठकरियाल ने कहा-“हो क्या गया है तुम्हें? क्यों कुश्ती लड़ रहे थे दरवाजे से?”
“क-कहां चले गये थे तुम?” दहशत युक्त स्वर में चीख पड़ा देवांश और पुनः सांस के मरीज की मानिन्द हांफने लगा। जवाब ठकरियाल ने मुंह से नही, केवल होठों से दिया।
भद्दे होठों पर रहस्या मुस्कान बिखेरकर ।
देवांश को लगा–सामने दैत्य खड़ा मुस्करा रहा है।
देवांश को ही क्यों? दिव्या को भी ऐसा ही लगा था। ऐसा- जैसे अभी वह अपने लम्बे-लम्बे दांत किटकिटाता उसकी तरफ बढ़ेगा और उसे यूं चबा जायेगा जैसे मगरमच्छ छोटी-छोटी मछलियां को चबा जाता है।
खुद को दहशत की ज्यादती से आजाद करने की मंशा से वह चीख पड़ी-“जवाब क्यों नहीं दे रहे इंस्पैक्टर? कहां चले गये थे तुम?”
“म-मैं? मैं तो यहीं था। तुम लोग इतने हलकान क्यों हो रहे हो?”
“कहां थे यहां? कितना चीखे हम? कितना पुकारा तुम्हें?" कितना पीटा ये बाथरूम का दरवाजा!"देवांश चीखता चला गया-“पलटकर कहीं से भी तुम्हारी आवाज नहीं आई।”
ठकरियाल का मुस्कान गहरी हो गयी–“यानी अंजाने में मैंने रिवेंज ले लिया?”
“र-रिवेंज?”
“यह रिवेंज नहीं तो और क्या हुआ?” ठकरियाल हंस रहा था -“मैं कॉलबेल बजा रहा था, तुम लोगों ने एक साल बाद दरवाजा खोला। उतना टाइम तो शायद मैंने अब भी नहीं लिया। लेकिन हलकान जरूरत से ज्यादा हो रहे हो।”
“हलकान न हो तो क्या करें? यहां जान निकली जा रही थी, तुम्हें मजाक सूझ रहा है। अचानक हमें इस कमरे में बंद कर गये तुम। एक लाश के साथ।"
“मेरी समझ में नहीं आता, लोग लाश से इतना डरते क्यों है?" ठकरियाल उनकी अवस्था का मजा लूटता नजर आ रहा था-“जबकि जानते हैं, उठकर टहलना तो दूर, लाश पलकें तक नहीं झपका सकती।”
“हम लाश से नहीं डरे थे।”
“फिर?”
“हरकत से डर गये तुम्हारी।”
“मेरी हरकत से? मैंने ऐसा क्या कर दिया?”
“किया ही नहीं कुछ! पहले बाथरूम अंदर से बंद किया। खिड़की के रास्ते लॉन में पहुंचे। लॉन से मुख्य दरवाजे पर। खुला हुआ वह था ही । विला के अंदर आ गये। वहां से गैलरी में और फिर, यह दरवाजा भी गैलरी की तरफ से इस तरह बंद कर दिया कि कमरे में मौजूद होने के बावजूद हमें भनक तक नहीं लगी।"
“कुछ भी कहो देवांश बाबू, हो कमाल की चीज। मेरे बगैर
बताये सब कुछ समझ गये। वह सब कुछ जो मैंने किया?”
“मगर किया क्यों? दिव्या चीख पड़ी-“क्या मिला हमें डराकर?”
ठकरियाल ने अजीब प्रस्ताव रखा-“क्यों न हम लोग आराम से बैठकर बातें करें ?"
अभी दोनों में से कोई कुछ कह भी नहीं पाया था कि “आओ” कहता हुआ ठकरियाल कमरे के अंदर प्रविष्ट हो गया। उसने यह देखने जानने की कतई कोशिश नहीं की वे उसके पीछे आ रहे हैं या नहीं? या जैसे जानता हो—उन्हें आना ही पड़ेगा।
कालीन पर बिखरे खून से बचता हुआ ठकरियाल धड़ाम से एक सोफा चेयर पर जा गिरा। साथ ही उनसे बोला-“बैठो! मगर ध्यान से। खून पर पैर न पड़ पाये। जवाब देना भारी पड़ जायेगा।"
न वे बैठ सके, न कुछ बोल सके। बस ठिठके से खड़े केवल देखते रहे ठकरियाल को। उस ठकरियाल को जिसने कुछ देर इंतजार करने के बाद इस बार सामने पड़े सोफे की तरफ इशारा करते हुए हुक्म सा दिया-“वहां बैठ जाओ।”
उसकी आवाज में ऐसा कुछ था कि दोनों में से कोई विरोध न कर सका।
इच्छा न होने के बावजूद सोफे पर बैठ गये। राजदान की लाश उनके बेहद नजदीक सोफा चेयर पर लुढ़की पड़ी थी। ठकरियाल ने अपनी जेब में हाथ डालकर सिगरेट का पैकिट निकाला। एक सिगरेट खुद निकालकर होठों पर लटकाने के साथ पैकेट देवांश की तरफ बढ़ाता बोला-“इस वक्त तुम्हें इसकी सख्त जरूरत है।" पैकेट उसी के ब्रांड की सिगरेट का था।
देवांश को लगा-सचमुच उसे एक सिगरेट की सख्त जरूरत है। सो, हाथ बढ़ाकर सिगरेट निकाल ली।
“और आपको भी।” कहने के साथ ठकरियाल ने पैकिट दिव्या की तरफ बढ़ा दिया।
बुरी तरह बौखला गई दिव्या । बोली-“म-मैं-मैं सिगरेट नहीं पीती।”
“झूठ बोल रही हैं आप।” बड़े ही विश्वास भरे स्वर में कहा ठकरियाल ने।
पलक झपकते ही दिव्या का चेहरा ऐसा हो गया जैसे एक ही झटके में सारा खून निचोड़ लिया गया हो। कॉन्फिडेंस भरी मुस्कान के साथ ठकरियाल ने कहा-“मैं न केवल यह जानता हूं आप स्मोकिंग करती है बल्कि यह भी जानता हूं आपका ब्राण्ड भी यही है!। शर्माईये मत! लीजिए।”
सहमी हुई नजरों से दिव्या ने देवांश की तरफ देखा।
“दिव्या जी तुम्हारी परमीशन चाहती हैं देवाश बाबू " ठकरियाल ने गर्म लोहे पर चोट की-“अब इस नाटक का कोई फायदा नहीं। मैंने कहा मैं जानता हूं तो समझ लो वास्तव में जानता हूं। इनसे कहो-सिगरेट ले लें ताकि बात आगे बढ़े।” खुद देवांश के होश फाख्ता थे।
दिव्या का हाथ पैकिट की तरफ । वह सौ साल की बूढ़ी के हाथ की मानिंद कांप रहा था। नजरें तो मिला ही नहीं पा रही थी ठकरियाल से। जब वह सिगरेट ले चुकी तो ठकरियाल ने पैकिट वापस जेब में रख लिया।
पहले अपनी सिगरेट सुलगाई फिर जलती हुई तीली लेकर उठा देवांश और दिव्या की सिगरेटे सुलगाने के बाद वापस अपनी सोफा चेयर पर आकर बैठ गया।
पहला कश लगाने के साथ देवांश ने कहा- "इंस्पेक्टर! हम तुमसे कुछ कहना चाहत हैं।”
“पहले मैं।” ठकरियाल बोला-“मुझे भी बहुत कुछ कहना है तुम दोनों से।”
देवांश ने दिव्या की तरफ देखा । जैसे पूछ रहा हो- “पहले इसे बोलने का मौका दिया जाये या वह कह दिया जाये जो कहने का वे निश्चय कर चुके हैं?”
दिव्या ने एक नजर उस पर डालने के बाद सीधे ठकरियाल से कहा- “सबसे पहले यह जानना चाहते हैं, तुमने हमें इस कमरे में क्यों बंद किया?”
“उस पर भी आऊंगा लेकिन थोड़ा घूमकर।” “मतलब?”
“पहले वो सुनो जो मैं कहना चाहता हूं।" “क्या कहना चाहते हो?”
“एक नम्बर के मूर्ख हो तुम।"
“क-क्या मतलब?” दोनों एक साथ हकला उठे।
“खास तौर पर तुम ।” ठकरियाल की आंखें देवांश पर जम गई ।
हालत खराब हो गई देवांश की । काटो तो खून नहीं । हलक से हकलाहट निकली- “म-मतलब क्या है तुम्हारा ?”
“सीरियल देखते हो जासूसी ?"
“ह-हां ।”
“उपन्यास पढ़ते हो ?”
“पढ़ता तो हूं।” “किसके?”
“वेद प्रकाश शर्मा के।”
“इसके बावजूद तुमने इस बात पर गौर नहीं किया कि मैंने अब तक वह नहीं किया जो कोई भी पुलिस इंस्पैक्टर घटनास्थल पर पहुंचने के बाद सबसे पहले करता है।"
“ज-जी?”
“जवाब दो! घटनास्थल पर लाश पाते ही इंस्पेक्टर क्या-क्या करता है ?”
“अपने थाने फोन करता है। अफसरान को फोन करके वारदात की सूचना देता है। पोस्टमार्टम पर फिंगर प्रिंन्टस डिपार्टमेंट के लोगों को बुलाता है। जरूरत पड़े तो डॉग स्कें
“मैंने इसमें से कुछ किया?" ठकरियाल ने उसकी बात काटी।
“नहीं।"
“क्यों नहीं किया? सोचो!”
चकराकर रह गया देवांश। T
देवांश समझ नहीं पा रहा था–वह कहना क्या चाहता है। सूनी सूनी आंखों से ठकरियाल की तरफ देखता रहने से ज्यादा वह कुछ नहीं कर सका। ठकरियाल ने एक गहरा कश लगाने के बाद कहा- “खैर ! मुझे लगता है तुम नहीं सोच पाओगे। इतना सोचने की क्षमता होती तो वह बेवकूफी करते ही नहीं जिसने मेरी सोई पड़ी दिमाग की नसों को जगा दिया।”
अधीर हो उठा देवांश । लगभग चीखकर पूछा- “अ-आखिर क्या कहना चाहते हो तुम?"
“मेरे लिए विला का दरवाजा खोलने के कुछ ही देर बाद तुमने कहा था- ' -'कमाल है।... मैं यह सोचकर हैरान हूं कि भैया तुम्हें ऐसी क्या बात बताना चाहते थे।' गौर करो— 'थे' थे कहा था तुमने । जिसने उसी क्षण मुझे बता दिया था अब राजदान इस दुनिया में नहीं है और यह बात तुम्हारी नॉलिज में है। न होती तो तुम ‘थे' नहीं हैं' कहते । परन्तु, जाहिर है तुम... बल्कि तुम दोनों ऐसा कर रहे थे जैसे राजदान के ‘है’ से ‘थे' हो जाने की जानकारी न हो और यही बात मेरे सिरदर्द का कारण बन गई। जो शख्स एड्स का मरीज था। किसी भी क्षण मर सकता था। वह अगर मर भी गया था तो तुम लोग छुपा क्यों रहे थे? यही जानना चाहता था मैं। आखिर क्या सस्पैंस है ये? अगर उस वक्त की मेरी कुछ बातों पर गौर करो तो तुम पाओगे थोड़ी व्यर्थ की सी नजर आने वाली बातें कर रहा था मैं। लम्बी खींच रहा था छोटी बातों को । एकाध बार राजदान की रामनाम सत्य हो जाने वाली बात भी की। उद्देश्य सबका एक ही था – यह जानना, तुम लोग राजदान की मौत से अंजान क्यों बन रहे हो? अगर 'है' की जगह 'थे' नहीं कहा होता मैं तुम्हारे देर से दरवाजा खोलने की वजह ‘नींद’ समझ सकता था परन्तु उस ‘थे' की रोशनी में वह देर भी खटकने लगी थी और जब कोई बात मुझे खटकने लगती है तो दिमाग अटककर रह जाता है। वही हुआ मुझे उसी वक्त पूरा विश्वास हो गया, राजदान के अंत के पीछे कोई राज है और वह राज क्या है, इस पर से पर्दा उठा मेरे इस कमरे के दरवाजे पर पहुंचते ही । स्वाभाविक मौत नहीं थी यह। एड्स से नहीं मरे थे राजदान साहब।
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