मुश्किल से पन्द्रह दिन बाद अक्तूबर के महीने में शहर से करीब सत्तर मील दूर एक कस्बे में चिमटा पीर बाबा की मजार पर, जिसकी मान्यता दूर–दूर तक फैली हुई थी, सालाना दस रोजा उर्स लगा ।
हजारों लोग कुनबे समेत शिरकत करने के लिये पहुँच गये । मन्नतें मांगने और पूरी हो चुकी मन्नतों का शुक्रिया अदा करने । उनमें सईद और हसन परिवार और उनके रिश्तेदार, दोस्त पड़ौसी वगैरा भी शामिल थे ।
जैसा कि लम्बी अवधि वाले मेलों में होता है हर तरफ ख़ुशी और बेफिक्री भरा माहौल था । दिन में पकाना, खाना घूमना और सोना और रात भर गानें और कव्वालियां सुनना । हालांकि तंबुओं में रहना, चूल्हों पर पकाना, जमीन में सोना वगैरा शहरी जिन्दगी के आदी लोगों के लिये खासा मुश्किल था, उस पर दूर से पानी भरकर लाना फारिग होने के लिये खेतों में जाना और औरतों का नहाने के लिये तंबुओं के बाहर लाइन में लगना भी अपने आपमें झंझट वाले काम थे । लेकिन वे सब मेहनतकश लोग थे, इसलिये ज्यादा परेशानी नहीं होती थी । सबसे बड़ी बात थी रोजाना की कामकाजी जिंदगी और छोटे–छोटे बंद कमरों की घुटन से दूर खुले आसमान के नीचे धूप और ताजा हवा और देहात का माहौल उन्हें दूर–दराज के अपने उन गाँवों की याद दिला देता था जिन्हें छोड़कर रोज़गार की तलाश में वे शहरों और महानगरों में जा बसे थे । पुराने परिचितों और रिश्तेदारों से मेले में अचानक मुलाकात एक नई खुशी और जोश भर देती थी ।
कुल मिलाकर जवानों और बच्चों के लिये वो सालाना उर्स खुशी बेफिक्री ओर मस्ती का दूसरा नाम था । उस जमाने में आधुनिक मनोरंजन के साधनों में सिर्फ सिनेमा और रेडियो थे । रेडियो तो काफी हद तक आम हो गया था लेकिन सिनेमा के बारे में आमतौर पर बुजुर्गों की राय अच्छी नहीं बन पायी थी । इसलिये इस तरह के मेलों की अपनी अलग और बहुत ज्यादा अहमियत थी आमतौर पर धार्मिक आस्था ओर विश्वास जुड़े होने के कारण ।
पहली रात तो वहां ठिकाना जमाने में गुजर गयी । लेकिन दूसरे रोज मेले में दोनों भाइयों ने दोनों बहनों को जा घेरा । बातचीत, गपशप और हंसी–मज़ाक ने उन्हें करीब ला दिया । बहनों की पसंद की कुछेक चीजों की खरीदारी भी उन्हें करा दी ।
क्योंकि सलमान पहले ही बड़ी बहन हसीना को अपनी पसंद बता चुका था । इसलिये अबरार ने खुशी से छोटी के साथ टांका भिड़ा लिया । वैसे भी बड़ा होने के नाते बड़ी ही उसके हिस्से में आनी थी ।
उसी रात दोनों भाई दोनों बहनों को ईंख के खेत में ले गये ।
अबरार और जैनब !
सलमान और हसीना ।
मौज...मजा...मस्ती ।
प्रकृति की खुली गोद में सहवास का अनुभव उन चारों के लिये बिल्कुल नया था । सख्त जमीन पर घास की चुभन के बावजूद बहनों को पहली बार पता चला असली आनन्द क्या होता है और भाइयों की जिन्दगी में भी इतना मजा देने वाली कोई लड़की पहले नहीं आयी थी ।
एक बार शुरू हुआ जिस्मानी ताल्लुकात का यह सिलसिला रोजाना रात में ही नहीं बल्कि दिन में भी मौका मिलने पर चलता रहा ।
उर्स खत्म हो गया ।
सब अपने–अपने घरों को लौट गये ।
यह सिलसिला मौके और सहूलियत के मुताबिक वहां भी जारी रहा । चुपचाप और किसी की जानकारी में आये बगैर ।
अबरार और जैनब और सलमान और हसीना एक–दूसरे के दीवाने होकर रह गये थे ।
फिर यह दीवानगी नया रंग ले आयी ।
दोनों बहनें गर्भ धारण कर चुकी थीं ।
बात छिपी नहीं रह सकी । दोनों बहनों के उभरते पेट ने असलियत जाहिर कर दी । मां–बाप ने बेटियों की खासी धुनायी की । जवाब में दोनों भाई उनके घर जा धमके और मां–बाप की पिटाई कर दी ।
खूब बवाल मचा ।
आखिरकार दोनों परिवारों के रिश्तेदार इकट्ठा हुये । बुजुर्गों ने सलाह दी बच्चों की शादी करा दी जाये ।
चार महीने बाद उनके निकाह पढ़वा दिये गये ।
सुहागरात के मौके पर दोनों जोड़ों में से कोई नहीं समझ सका हंसे या रोयें । आखिर में दोनों जोड़े अपने–अपने बिस्तर पर नशे में धुत्त होकर पड़ गये ।
वक्त गुजरने लगा ।
जीवन चक्र चलता रहा ।
जून के महीने में एक हफ्ते के अंदर दोनों बहनों ने एक–एक बेटे को जन्म दे दिया ।
अबरार और जैनब ने अपने बेटे का नाम फारूख रखा ओर सलमान और हसीना ने अपने बेटे को अनवर नाम दिया ।
इस तरह फारूख और अनवर की जिंदगियां शुरू हो गयीं । बचपन में उनकी परवरिश बस्ती के दूसरे बच्चों की तरह ही हुई । लेकिन आठ साल की उम्र तक उनके व्यवहार से असामान्यता प्रगट होने लगी । मिज़ाज में गर्मी और जिद और आदतों में तोड़–फोड़ । हमउम्र बच्चों पर हावी होना और उनसे सम्मान की अपेक्षा करना ।
अपनी उम्र के मुकाबले में उनके शरीर कहीं ज्यादा लम्बे–चौड़े और मजबूत थे । मिज़ाज ओर ज्यादा झगड़ालू होता गया । हालांकि जिस माहौल में वे पैदा हुये ओर बढ़ रहे थे, ऐसा होना असामान्य बात नहीं थी । लेकिन जल्दी ही जाहिर हो गया झगडालूपन और तोड़–फोड़ उनके अंदर बहुत ज्यादा गहराई तक था ।
उनकी दुष्टता में निर्दयता और घमण्ड का अत्यधिक समावेश था । उनकी हरकतों की वजह से उन्हें उस उम्र में ही गुण्डे–बदमाश कहा जाने लगा । उस दौर में जिस्मानी ताकत हौसलामंदी, सख्तजान और चुस्ती–फुर्ती खास खूबियों में शुमार होती थी । क़ाबिले–तारीफ कही जाती थीं । दोनों लड़के तेज दिमाग और स्पोर्टस में बहुत बढ़िया थे । हॉकी और बॉक्सिंग में विशेष रूप से चर्चित ।
1971 का साल हसन परिवार के लिये बड़ा ही मनहूस साबित हुआ ।
अब फारूख और अनवर की उम्र तेरह साल थी । डॉक पर काम करने वाले मज़दूरों की यूनियन दो गुटों में बँट गयी । दोनों गुटों में मनमुटाव इतना बढ़ा कि आये दिन उनके बीच मार–पीट और खून–ख़राबा होने लगा । ऐसी ही एक मार–कुटाई में अबरार और सलमान बुरी तरह जख्मी होकर अस्पताल पहुंच गये । उनके परिवारों को भी खत्म करने की धमकी दी गयी तो उन्होंने हिफाजतन दोनों बेटों को उनके नाना–नानी के पास राजस्थान भेज दिया–श्री गंगानगर के पास एक छोटे से कस्बे में ।
दोनों लड़कों के लिये वहां का माहौल और लोग सब अजनबी था । रोजमर्रा की जरूरी सहूलियात भी नहीं थीं, जिनके वे आदी थे । खान–पान, रहन–सहन, बोलबाल सब नया और अजीब ।
दोनों हर वक्त गुमसुम और मन ही मन कुढ़ते रहते । मुश्किल से चार दिन बाद उनकी कुढन गुस्से के रूप में उबलकर उस वक्त बाहर आयी जब अपने से ड्योढ़ी उम्र के चार लड़कों से उन्होंने मामूली–सी बात पर झगड़ा मोल ले लिया और उनकी इतनी तगड़ी धुनाई कर दी कि बात पुलिस तक पहुंच गयी ।
पुलिस वालों ने डरा–धमका कर और चेतावनी देकर दोनों को छोड़ दिया ।
इसका कोई असर उन दोनों पर नहीं हुआ ।
गाली–गलौज, झगड़ा और मारपीट में उन्हें मजा आता और वे रोजाना एक नया बखेड़ा खड़ा कर देते ।
उनकी हरकतों ने नाना–नानी और उनके पड़ोसियों की नाक में दम कर दिया । जीना दूभर हो गया । मज़बूरन नाना–नानी ने पहले खतों के जरिये उनके मां–बाप को उनकी हरकतों के बारे में बताया फिर एक के बाद एक तीन तार भेजे ।
तब तक अबरार और सलमान अस्पताल से ठीक होकर घर आ गये थे । यूनियन के गुटों के बीच सुलह की बात भी चल पड़ी थी खतरा टलने के आसार नजर आने लगे थे । लेकिन इकहत्तर की जंग शुरू हो चुकी थी । राजस्थान में भी पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय सेना ने मोर्चे संभाल लिये थे । ऐसे में अबरार और जैनब और सलमान और हसीना बेटों को वापस लाने के लिये एक सुबह उस कस्बे में पहुंच गये ।
अबरार और सलमान ने लड़कों की काफी खिंचाई की । उनकी पिटाई तक भी कर दी । दोनों लड़के अंदर ही अंदर गुस्से से उबलते हुये खून का घूँट पीकर रह गये ।
उन चारों ने अगले रोज वापस लौटना था । लेकिन उसी रात जब सारा क़स्बा गहरी नींद में सोया पड़ा था । अचानक हवाई हमले की चेतावनी का साइरन सुनकर जो जिस हाल में था, उठकर भाग लिया । इससे पहले कि सब लोग ऐसे वक्त के लिये खोदी गयी खाइयों में पहुंचकर सुरक्षित हो पाते पाकिस्तानी हवाई जहाज़ों ने सीमा के नज़दीकी उस कस्बे पर पहला हमला कर दिया ।
जल्दी ही भारतीय वायुसेना के जहाजों ने पाकिस्तानी बमवर्षक जहाजों को खदेड़ दिया ।
तब तक बेकसूर कस्बाई हताहत हो चुके थे । पैंतीस मर्द, औरत और बच्चे मारे गये और सत्ताईस बुरी तरह जख्मी हुये । मरने वाला में अबरार जैनब और सलमान थे । घायलों में हसीना शामिल थी । दोनों लड़के खाई तक पहुंच जाने की वजह से सही–सलामत रहे ।
इस घटना से लड़कों के मन में पैदा हुई कड़वाहट ने उनकी नस–नस में जहर भर दिया । इन्तकाम की आग भड़क उठी । वे भी उन्हें हताहत करना चाहते थे जो फारूख के मां–बाप और अनवर के बाप की मौत के लिये जिम्मेदार थे । लाशें उठ जाने और घायलों को अस्पतालों में पहुंचाने के बाद मस्जिद के इमाम ने मरने वालों की आत्मा की शान्ति और घायलों की जल्द सेहतयाबी के लिये दुआ करने के बाद कहने की गलती कर दी–अल्लाह की मर्जी के आगे किसी का बस नहीं चलता । अल्लाह की यही मर्जी थी...!
अगली रात दोनों लड़कों ने करीब सवा सौ साल पुरानी मस्जिद में तोड़–फोड़ करके आग लगा दी ओर भागकर खेतों में जा छिपे ।
उन दोनों शैतानों से पहले ही परेशान कस्बे वाले इसे बर्दाश्त नहीं कर सके । पुलिस आई ओर दोनों लड़कों को पकड़कर ले गयी ।
किशोर अपराधिक मामलों के न्यायालय में उन पर मुकदमा चलाया । कोई भी उनकी पैरवी के लिये सामने नहीं आया । आता भी कौन ? हसीना तो अस्पताल में पड़ी थी ।
सजा सुनाकर उन्हें किशोर सुधारगृह में भेज दिया गया । दोनों लड़कों न इसे अपने साथ कानून की ज़्यादती के तौर पर लिया और उन्हें कानून से नफरत हो गयी...।
बुनियादी बात थी, रंजीत ने सोचा, उनकी बैकग्राउंड और पाकिस्तानी बम । फिर जो भी होता गया उसे टाला या रोका नहीं जा सकता था, हिंसा के जोर पर ताकत हासिल करके दूसरों को सताकर आनंद उठाना, अंदर छिपी अनिश्चितताएं और असुरक्षा और ईर्ष्याभरी यौनिक घटनाएँ । लेकिन अब इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि दोषी कौन था–समाज या राजनीति या व्यक्ति विशेष । असलियत यह थी फारूख और अनवर हसन पूरे शैतान थे । इससे पहले कि और ज्यादा लोग उनकी शैतानियत के शिकार हों, उन्हें हमेशा के लिये दूर करना जरूरी था–समाज से या हो सके तो दुनिया से ही ।
रंजीत ने अपनी घड़ी पर निगाह डालकर गहरी सांस ली । काश एस० पी० वर्मा ने उसे भी मनोज तोमर के साथ भेजा होता ।
वह हसन भाइयों से मिलने को बेताब था ।
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