केसरसिंह की आंखों में नींद कहां ?
रात भर वह पागलों की तरह महल में कभी इधर जाता तो कभी उधर । जाने कितने चक्कर शयनकक्ष के दरवाजे तक लगाये, जिसके भीतर हाकिम उसकी फूल सी बेटी के साथ मौजूद था । वह इस वक्त सब कुछ जला डालने का हौसला रखता था, परंतु हाकिम से टकराने की कोशिश करना भी मौत को दावत देना था और जानबूझकर मौत को गले लगाने में कोई समझदारी नहीं थी ।
मन ही मन वह तय कर चुका था कि दालू को तबाह करके ही रहेगा । अपने प्रति दालू से उसे यह कभी भी आशा नहीं रही थी वह उसके साथ ऐसा व्यवहार करेगा ? कम से कम उसे हाकिम से जाकर बात तो करनी चाहिए थी वो उसकी बेटी को छोड़ दे । लेकिन वो तो लालच के घोड़े पर सवार था कि मिन्नो उससे नगरी वापस न ले ले । उसका सिक्का चलता रहे और सिक्का तभी चल सकता था जब हाकिम मिन्नो को खत्म कर दे । उसकी बेटी बेशक उसके लालच की भेंट चढ़ जाये। कोई परवाह नहीं ।
केसरसिंह रात भर सुलगता रहा ।
अगले दिन सुबह केसर सिंह को खबर मिली कि हाकिम शयनकक्ष से बाहर आकर नहाने के लिए चला गया है । खबर पाते ही केसर सिंह शयनकक्ष की तरफ दौड़ा । चेहरे पर बदहवासी थी । रात भर जागते और तड़पते रहने से उसकी आंखें लाल सुर्ख हुई पड़ी थी । चेहरा सैकड़ों भावों से भरा पड़ा था ।
शयनकक्ष में पहुंचते ही ठिठक गया । कदम जड़ होकर रह गये । आंखें दहशत से फटी-की-फटी रह गई । चेहरा जैसे भूचाल के दौरों से गुजरने लगा ।
उसकी बेटी बेड पर ही मौजूद थी, परंतु मृत अवस्था में । शरीर की ये हालत थी जैसी किसी जंगली जानवर ने उसे झिझोड़ दिया हो । बदन पर एक भी कपड़ा नहीं था । शरीर जगह-जगह से नुचा पड़ा था । आंखें फटी हुई खुली छत की तरह थी। दोनों टांगे टूट कर बेहतरकीबी से झूल रही थी और हर जगह लहू ही लहू नजर आ रहा था ।
वहशीपन का नंगा नाच ठोक-बजाकर खेला गया था । यह तो स्पष्ट नजर आ रहा था । उसका एक स्तन दांतो से ऐसे चबा-चबाकर काट दिया गया था कि वो मात्र मांस लोथड़ा नजर आ रहा था।
बेजान सा खड़ा केसरसिंह अपनी बेटी की हुई हालत देखता रहा ।
जाने कितना वक्त बीत गया ।
कदमों की आहट से वो तरह-तरह की सोचों से बाहर निकला ।
हाकिम और दालू ने भीतर प्रवेश किया था ।
केसरसिंह ने खाली-खाली निगाहों से दोनों को देखा ।
हाकिम मुस्कुराया ।
"रात को उसने बताया कि ये तुम्हारी बेटी थी।" हाकिम हंसकर कह उठा--- "खैर, जो भी हो लाजवाब थी । बहुत मजा आया । बहुत दम-खम था । पूरी तरह मुझे सहा। तृप्ती हो गई मेरी । जो कि किसी भी दूसरी से नहीं हो सकी थी । मानना पड़ेगा, तुम्हारे खून में गर्मी है केसरसिंह । तुम्हारी और बेटी भी है क्या ?"
बुत से बने केसरसिंह के होंठ हिले ।
"एक ही बेटी थी ।"
"खैर, मैंने तो सोचा था, दूसरी होती तो आज की रात भी मजे से बीतती ।" हाकिम जोरो से हंस पड़ा ।
केसरसिंह आगे बढ़ा । अपनी बेटी के शरीर को समेटकर बांहों में उठाकर संभाला । फिर दालू की तरफ देखा । जो शांत निगाहों से केसरसिंह को देख रहा था । चेहरे पर कोई दुख-दर्द का भाव नहीं था ।
"मैं अपनी बेटी को अग्नि के हवाले करके हाजिर होता हूं।" केसर सिंह की आवाज में अब कोई दुख नहीं था । ये सब देखकर शायद वो दुख की सारी सीमाएं पार कर चुका था ।
"ठीक है ।" दालू ने सिर हिलाया--- "मिन्नो की खबर नहीं आई क्या ?"
"नहीं ।" केसरसिंह के होंठ हिले ।
"बहुत देर हो रही है केसरे । मिन्नो का अब इस तरह ज्यादा देर खुले में रहना ठीक नहीं।"
"वो ज्यादा देर छिपी नहीं रह सकती, बहुत जल्द सामने आयेगी ।" केसरसिंह ने कहा और पलट कर दोनों बांहों से अपनी बेटी का नग्न शरीर उठाये शयनकक्ष से बाहर निकलता चला गया ।
महल के रास्ते से वो गुजरता हुआ बाहर की तरफ बढ़ा । रास्ते में मिलने वाले सेवक, सेविकाएं सब जान चुके थे कि रात हाकिम के साथ केसरसिंह की बेटी थी । देखने वाले लाश की हालत देखकर सहम जाते । किसी के मुंह से दुख के दो शब्द भी नहीं निकल रहे थे ।
सामने वाला सिर झुका कर खड़ा हो जाता।
केसरसिंह ने किसी को भी देखने की कोशिश नहीं की । उसकी निगाहें अपनी बेटी की क्षत-विझित लाश से ही नहीं हट रही थी।
उस दिन केसरसिंह को दो शरीरों को अग्नि के हवाले करना पड़ा । एक अपनी बेटी मीरा को और दूसरी पत्नी रूपवती को । केसरसिंह के घर पहुंचने से पहले ही रूपदेवी को अपनी बेटी की मौत का समाचार मिल गया था। इससे पहले कि केसरसिंह घर पहुंचता, रूपदेवी ने स्वयं अपनी जान देकर आत्महत्या कर ली ।
रूपदेवी ने अपना कहा पूरा किया कि अगर उसकी बेटी को कुछ हो गया तो वो उसका मरा मुंह देखेगा ।
अग्नि देते समय केसरसिंह का एक भी आंसू नहीं निकला था । वो पत्थर बन चुका था । चेहरे पर किसी तरह का भाव नहीं था । परंतु आंखों में उन दोनों चिताओं से भी ज्यादा क्रोध की लपटें भरी पड़ी थी । चिता की आग तो कुछ घंटे में ही बुझ जानी थी परंतु जो आग दिल में लग चुकी थी वो बुझने वाली नहीं थी।
इन सब कामों से फुर्सत पाकर केसरसिंह सामान्य अवस्था में पुनः दालू की सेवा में पहुंच गया।
■■■
तब आधी रात हो रही थी जब मोना चौधरी ने वो किताब पूरी पढ़कर खत्म की । किताब में मात्र तीस पृष्ठ ही थे, परंतु उसमें लिखे गहरे शब्दों का मतलब निकालने में काफी वक्त लगा । अब मोना चौधरी अच्छी तरह जान चुकी थी कि अमरत्व प्राप्त हाकिम को कैसे खत्म किया जा सकता है । जान लेने पर भी हाकिम को खत्म कर पाना आसान काम नहीं था।
मोना चौधरी इस वक्त उसी किताबों वाले कमरे में कुर्सी पर बैठी थी । किताब उसने टेबल पर रख दी थी । चेहरे पर सोच के भाव थे । कमरे की सफाई इस तरह हो चुकी थी, जैसे वहां की सफाई बराबर होती रही हो ।
करीब घंटा भर मोना चौधरी गहरी सोच में डूबी रही ।
उसके बाद वो कुर्सी से उठी और दरवाजे की तरफ बढ़ी । दरवाजा पार करते ही ठिठकी । बाहर कीरतलाल मौजूद था । मोना चौधरी ने उसे देखा ।
"मुझे बताओ देवी, किसी चीज की आवश्यकता है ?" कीरतलाल सिर झुकाकर बोला।
"बाकी सब क्या कर रहे हैं ?" मोना चौधरी ने पूछा ।
"कुछ सो रहे हैं, कुछ जाग रहे हैं ।" कीरतलाल ने कहा ।
"मुझे देवराज चौहान से काम है ।"
"देवा को मैं अभी खबर करता हूं ।" कहने के साथ ही कीरतलाल वहां से चला गया।
मोना चौधरी चेहरे पर सोच के भाव समेटे पलटी और कमरे में पहुंचकर पीठ पर हाथ रखे टहलने लगी । रह-रहकर उसके होंठ भिंच रहे थे ।
पांच मिनट पश्चात ही देवराज चौहान ने भीतर प्रवेश किया ।
"नींद में थे ?" मोना चौधरी होठों पर मुस्कान नहीं ला सकी ।
"नहीं । बातें हो रही थी । तुम कहो, किताब पढ़ ली ?" देवराज चौहान की निगाह टेबल पर मौजूद किताब पर गई । उसके बाद पुनः मोना चौधरी को देखने लगा ।
"हां और मालूम हो चुका है कि अमरत्व प्राप्त हाकिम को कैसे खत्म किया जा सकता है ।"
"कैसे ?"
"बैठकर बातें करते हैं ।"
देवराज चौहान और मोना चौधरी कुर्सियों पर जा बैठे ।
"हाकिम को देवताओं ने जो अमृत दिया था वो हाकिम की दाईं आंख में मौजूद है ।" मोना चौधरी ने गंभीर स्वर में कहा--- "गुरुवर की किताब के मुताबिक उस अमृत के असर से हाकिम तभी मुक्त हो सकता है, जब उसकी दाईं आंख फोड़कर उसमें रक्त की एक बूंद डाल दी जाये। ऐसा करने से अमृत अशुद्ध हो जायेगा । प्रभावहीन हो जायेगा और तब हाकिम को खत्म करना कठिन नहीं होगा।"
"ये तो कोई कठिन काम नहीं है ।" देवराज चौहान कह उठा ।
"गलत कह रहे हो ! ये ही सबसे कठिन काम है ।" मोना चौधरी सिर हिला कर बोली--- "किताब के मुताबिक हाकिम जब खुद को खतरे में पाता है तो अपने गिर्द तिलस्मी दीवारें खड़ी करके सुरक्षित कर लेता है । तिलस्मी दीवारों से हमारा वास्ता तिलस्म में पड़ चुका है ।"
"हां ।"
"खुद को तिलस्मी दीवारों के आवरण में रखकर वो सामने वाले को आसानी से खत्म कर सकता है ।"
देवराज चौहान के होंठ सिकुड़ गये ।
"हाकिम इस बात का खास ध्यान रखता है कि उसकी दाईं आंख को क्षति न पहुंचे । ऐसे में उसकी दाईं आंख फोड़कर उसमें रक्त की बूंद टपकाना एक असंभव काम है ।"
देवराज चौहान की निगाहें मोना चौधरी पर रही।
"लेकिन...।" मोना चौधरी के होंठ भिंच गये--- "मुझे तिलस्म का पूर्ण ज्ञान है । ऐसे में मैं हाकिम के तिलस्म को काटकर उसकी आंख में मौजूद अमृत को खत्म करने की कोशिश कर सकती हूं । परंतु यकीन के साथ नहीं कह सकती कि सफल रहूंगी, क्योंकि हाकिम के सामने मेरी विद्या कुछ भी नहीं है । उसके पास पचासों ढंग हैं सामने वाले को खत्म करने के लिए।"
देवराज चौहान की आंखों में सिकुड़न पैदा हुई ।
"मैं समझा नहीं कि तुम कहना क्या चाहती हो ?"
"यह कि हाकिम को अमृत से मुक्त करने की सोचना आसान है और इस पर काम करना असंभव । इस बात का पूरा खतरा है कि विजयी हाकिम ही रहे।" मोना चौधरी अपने शब्दों पर जोर देकर कह उठी--- "लेकिन हाकिम को खत्म करने से हमारी समस्या हल नहीं होगी ।"
"वो कैसे ?"
"जिस तरह हाकिम हमारे लिए समस्या है, उसी तरह दालू भी समस्या है । इस बात को हमेशा याद रखना है कि दालू के पास शक्तियों से भरपूर वो ताज है, जिसकी ताकत के दम पर वो पूरी नगरी को भस्म कर सकता है। हाकिम पर अगर हमने विजयी पा भी ली तो तब दालू तिलस्मी ताज की शक्तियों के साथ हमारे सामने आ जायेगा । इसके अलावा उसके पास तब कोई रास्ता नहीं होगा । तब वो गुस्से में हमें ही क्या पूरी नगरी को तबाह कर सकता है।"
देवराज चौहान ने गहरी निगाहों से मोना चौधरी को देखा ।
मोना चौधरी की निगाह देवराज चौहान पर ही थी ।
"तुम जो कहना चाहती हो, वो अभी भी नहीं कह रही ।" देवराज चौहान का स्वर शांत था ।
मोना चौधरी ने बेचैनी से पहलू बदला।
"इस सारे काम में दिक्कत आ रही है कि तुम तिलस्मी विद्या से अनजान हो ।"
"तुम जो कहना चाहती हो, कहो । दिक्कत को मैं देख लूंगा ।" देवराज चौहान की आवाज में तीखापन आ गया--- "जब तक सवाल न मालूम हो तो उसका उत्तर कैसे निकाला जायेगा ।"
"अगर तुम तिलस्मी विद्या के ज्ञानी होते तो हम एक साथ हाकिम और दालू को घेरने की कोशिश कर सकते थे । हममें से एक हाकिम को संभालने की चेष्टा करता तो दूसरा दालू को।"
"दालू को कैसे ?"
"जहां उसने तिलस्मी ताज रखा है, उस पर कब्जा जमाना ।"
"ये काम तो अभी भी हो सकता है ।"
"कैसे ?"
"तुम तिलस्मी विद्या जानती हो । ऐसे में तुम उससे मुकाबला करने की कोशिश कर सकती हो और मैं ठीक उसी वक्त दालू के पास मौजूद ताज को पाने की कोशिश करूंगा ।" देवराज चौहान ने कहा ।
"नहीं, ये नहीं हो सकता ।" मोना चौधरी के होंठों से निकला ।
"क्यों नहीं हो सकता ।"
"इसलिए कि दालू ने वो ताज तिलस्मी ताज सख्त पहरे में रखा है । तिलस्म के रंग-ढंग से तुम दो-चार हो ही चुके हो । ऐसे तिलस्मी पहरे को पार करके तुम ताज तक नहीं पहुंच सकते ।"
मोना चौधरी वास्तव में ठीक कह रही थी ।
उनके बीच कुछ पलों तक खामोशी रही ।
"इसका मतलब मैं हाकिम की लड़ाई में या दालू की लड़ाई में तुम्हारा कोई साथ नहीं दे सकता ।"
"दे सकते हो । सिर्फ एक ही रास्ता है, जो तुम्हें मौत के मुंह तक ले जायेगा ।" कहते हुए मोना चौधरी के चेहरे पर अजीब सी मुस्कान बिखर गई ।
"मौत का डर मुझे मत दिखाओ । बात बोलो ।" देवराज चौहान का स्वर शांत था ।
"मैं तुम्हें तिलस्मी विद्या के कुछ मंत्र बता दूंगी । एक मंत्र से तुम हाकिम की उस तिलस्मी दीवार को तोड़ सकते हो । दूसरे मंत्र से अपने गिर्द तिलस्मी दीवार खड़ी कर सकते हो। मेरे बताये मंत्रों से सिर्फ तुम्हारा इतना ही फायदा होगा और तुम्हें हाकिम की आंख में मौजूद अमृत को अशुद्ध करना होगा। हाकिम को समाप्त करना होगा।" मोना चौधरी बेहद गंभीर थी ।
"और तुम क्या करोगी ?"
तभी बांकेलाल राठौर ने भीतर प्रवेश किया ।
दोनों की निगाहें उसकी तरफ उठी।
"अंम सोचो कि देखो तो आध्धी रातों को कमरों में का करो हो ?" बांकेलाल राठौर का हाथ मूंछ पर पहुंच गया--- "करो हो, करो हो । अंम फिर आयो ।" कहने के साथ ही पलट कर बाहर निकल गया ।
देवराज चौहान और मोना चौधरी की नजरें मिली ।
मोना चौधरी बोली ।
"जब तुम हाकिम से टक्कर ले रहे होगे, तब मैं तिलस्मी ताज को पाने की कोशिश करूंगी ।"
देवराज चौहान बरबस ही मुस्कुरा पड़ा ।
"क्या हुआ ?"
"हमारे बीच अहम मसला तो ताज का ही है, हाकिम का नहीं ।" देवराज चौहान ने कहा ।
"तुम मुझे गलत समझ रहे हो । मैं कोई चालाकी नहीं कर रही । हाकिम और दालू दो दुश्मन हैं इस वक्त हमारे सामने । हम दोनों दुश्मनों पर एक साथ धावा बोलना चाहते हैं कि वे एक-दूसरे की सहायता न कर सकें । हम पर भारी न पड़ सकें ।" मोना चौधरी ने शांत स्वर में कहा--- "रही बात ताज की तो इसके बारे में हममें पहले भी तय हो चुका है कि जब ताज सामने आयेगा तो बीच में रखकर आपस में फैसला कर लेंगे कि उस पर किसका हक है ।" यह जानने के लिए पढ़ें अनिल मोहन का पूर्व प्रकाशित उपन्यास "ताज के दावेदार ।"
देवराज चौहान ने सोच भरे ढंग से सिर हिलाया ।
"ठीक है, लेकिन हाकिम से शायद मैं पक्का न ले पाऊं, इसकी सबसे बड़ी एकमात्र वजह है तिलस्मी विद्या। जिसके दम पर वो मुझे बेबस कर सकता है ।" देवराज चौहान ने कहा ।
"तुम ठीक कहते हो । तुम्हारी इस बात से इत्तेफाक है मुझे ।"मोना चौधरी व्याकुल स्वर में कह उठी--- "लेकिन हमारे पास कोई भी रास्ता भी तो नहीं ।"
"शुभसिंह तिलस्मी विद्या जानता...।"
"नहीं, उसकी तिलस्मी विद्या उच्च कोटि की नहीं है कि हाकिम का मुकाबला कर सके । हाकिम एक-दो मंत्रों में ही शुभसिंह को समाप्त कर देगा ।" मोना चौधरी सिर हिलाकर कह उठी ।
"खैर ।" देवराज चौहान ने कहा--- "तिलस्मी विद्या के मुद्दे को यहीं रहने दो। पहले यह बताओ कि हाकिम और दालू पर कहां हाथ डालना है। यूं कि तुम इन हालातों से ज्यादा वाकिफ हो । इसलिए इस बारे में तुम ही सही फैसला कर सकती हो ।"
"हाकिम, नीली पहाड़ी में स्थित दालू के महल में ही मौजूद होगा । उसे वहां से बाहर निकालने के लिए कोई तरकीब लगानी होगी और जब सामने आयेगा...।"
"एक मिनट ।" देवराज चौहान ने टोका--- "तुम तिलस्मी ताज लेने कहां जाओगी ?"
"दालू के महल में। वो ताज उसने पक्का वहीं-कहीं रखा होगा ।" मोना चौधरी होंठ भींचकर कह उठी ।
दो पलों के लिए देवराज चौहान चुप रहकर कह उठा ।
"हमारे पास अभी इस बात की पक्की खबर नहीं है कि हाकिम नगरी में आ गया है ।"
"तो ?"
"शुभ सिंह को भेजो कि वो हाकिम के बारे में पक्की खबर ला सके । उसके बाद मैं देखूंगा कि काम कैसे करना है ।" देवराज चौहान सोच भरे स्वर में कह उठा।
"तुम देखोगे कि काम कैसे करना है ?" मोना चौधरी उलझन भरे स्वर में बोली ।
"हां, क्योंकि हाकिम और तिलस्मी ताज दोनों ही एक ही जगह दालू के महल में मौजूद हैं। ऐसे में हाकिम को वहां से बाहर निकालने की क्या जरूरत है । हमारा ही वहां जाना ठीक रहेगा ।"
"पागल तो नहीं हो गये तुम...।" मोना चौधरी के होठों से निकला--- "दालू के महल में प्रवेश कर के हम जिंदा नहीं बच सकते। वहां कदम-कदम पर उसके सेवक हैं । सुरक्षा का तगड़ा प्रबंध ।"
"मुझे सोचने दो ।" देवराज चौहान उठता हुआ बोला--- "तुम शुभसिंह को भेजो कि वो हाकिम की खबर ला सकें।"
दोनों कई पलों तक एक-दूसरे को देखते रहे ।
"मैं मानती हूं कि तुम सबसे बड़े डकैतीबाज हो । रास्ता न होने पर रास्ता निकाल लेते हो । जगह न होने पर जगह बनाना जानते हो । लेकिन ये डकैती का मामला नहीं है । हमारी टक्कर सामान्य लोगों से न होकर तिलस्मी विद्या में माहिर कई शक्तियों के मालिकों के साथ है । जो हाथों, रिवॉल्वरों से नहीं, मंत्रों और तिलस्म से लड़ते हैं । इसलिए...।"
"मुझे सोचने का वक्त तो दो ।" देवराज चौहान ने मुस्कुरा कर कहा और बाहर निकल गया ।
चेहरे पर सोच के भाव समेटे मोना चौधरी उठी और बाहर निकली ।
कीरतलाल से सामना हुआ ।
"शुभ सिंह कहां है ?"
"नीचे हॉल में है देवी, में अभी बुलाता हूं ।"
"बुलाने की जरूरत नहीं । मैं खुद ही मिल लूंगी ।" मोना चौधरी आगे बढ़ गई । नीचे हॉल में जाकर मोना चौधरी ने शुभसिंह से बात की और उसी समय उसे नगरी की तरफ भेज दिया । इस वक्त रात के तीन बज रहे थे ।
■■■
देवराज चौहान और जगमोहन में बात हुई ।
जगमोहन सारे हालातों से वाकिफ हुआ । देवराज चौहान से बोला ।
"तूने क्या फैसला किया ?"
"मोना चौधरी चाहती है कि मैं अपने तौर पर दालू से निपटूं । ये बाद की बात है कि हाकिम से मुकाबला करने में मैं सफल होता हूं या नहीं और तब वो दालू की हिफाजत में मौजूद तिलस्मी पहरे में रखे तिलस्मी ताज को पाने के लिए दालू के महल में जायेगी । ताकि हाकिम को हराने की सुनकर दालू हम पर ताज की शक्तियां इस्तेमाल करने की कोशिश न कर सके ।" देवराज चौहान ने कहा ।
"तो...।"
"जबकि मेरे ख्याल में हमें दालू के महल पर ही धावा बोलना चाहिये ।" देवराज चौहान गंभीर था--- "क्योंकि हाकिम, दालू ताज सब कुछ वहीं मौजूद थे । वहां हालातों को आसानी से बस में किया जा सकता है ।"
"शायद ऐसा करना ठीक न हो ।" जगमोहन ने सोच भरे स्वर में कहा ।
"क्यों ?"
"महल में दालू के आदमी और पूरी ताकत मौजूद होगी । ऐसे में..।"
"यही मैं कहना चाहता हूं कि महल में वो निश्चिन्त होगा कि कोई उसका बाल भी बांका नहीं कर सकता । यही विश्वास उसे ले डूबेगा । हाकिम भी वही लापरवाही से मौजूद होगा । इस बात का फायदा उठाया जा सकता है ।" देवराज चौहान ने जगमोहन को देखा ।
जगमोहन कुछ व्याकुल सा हुआ ।
"लेकिन महल में प्रवेश करते ही, दालू को हमारी खबर हो जायेगी ।"
"वो कैसे ?"
"वहां उसके पहरेदार, नौकर वगैरह होंगे । जो हमें पहचान लेंगे । दालू खुद को सुरक्षित रखकर हम पर सफल वार कर सकता है। हाकिम महल में हमें आसानी से। घेर सकता है ।" जगमोहन ने कहा ।
"ये समस्या अवश्य है । लेकिन इसका कोई न कोई रास्ता तो निकालना ही होगा । हाकिम और दालू को आनन-फानन घेर कर ही खत्म किया जा सकता है । अगर उन्हें मौका मिला तो वो हमें नहीं छोड़ेंगे । सीधी और स्पष्ट बात है कि हाकिम या दालू को ललकार कर खत्म नहीं किया जा सकता । इसमें चालाकी की जरूरत है ।"
जगमोहन देवराज चौहान को देखे जा रहा था ।
"सबसे पहली बात तो यह है कि दालू के महल में ही प्रवेश नहीं किया जा सकता।" जगमोहन बोला ।
"क्यों ?"
"सुना है दालू का महल नीली पहाड़ी में है और वो पहाड़ी तिलस्मी घेरे में सुरक्षित रहती है । ऐसे में उसके महल में प्रवेश कर पाना भी संभव नहीं होगा ।" जगमोहन ने देवराज चौहान को देखा ।
"मोना तिलस्म से वाकिफ है । तिलस्म जहां भी आयेगा उससे वही निपटेगी। लेकिन पहले पक्का मालूम तो हो कि हाकिम आ चुका है या नहीं । यह मालूम करने सुबह शुभसिंह गया है । तब तक मैं सोचता हूं कि दालू के महल में कैसे प्रवेश किया जा सकता है ।"
"मतलब कि ये बात तुमने तय कर ली है कि दालू के महल में चुपके से प्रवेश करके हाकिम को और उसे घेरना है ।" जगमोहन के चेहरे पर सोच के भाव उभरे।
"हां, हाकिम और दालू को महल से बाहर निकालने की अपेक्षा अचानक महल में ही उनके सिर पर पहुंच जाएं तो जीत की संभावना बढ़ जाएगी ।" देवराज चौहान ने कहा ।
"मुझे ये बात इतनी आसान नहीं लगी ।" जगमोहन ने गहरी सांस ली ।
■■■
सुबह हो गई, शुभसिंह नहीं लौटा।
सब नहा-धोकर फारिग हुए । तब नौ बज रहे थे जब शुभसिंह लौटा तो वो सीधा मोना चौधरी के पास पहुंचा । चेहरे पर परेशानी और उलझन के भाव स्पष्ट नजर आ रहे थे ।
"क्या बात है शुभसिंह, आने में बहुत देर लगा दी ।" मोना चौधरी ने पूछा ।
"खबर ही कुछ ऐसी मिल गई थी रुक कर पूरी बात जानने को मजबूर हो गया ।" शुभसिंह बोला ।
"तुम तो हाकिम के बारे में जानने गये थे ।"
"हां देवी ! हाकिम आ चुका है और दालू के महल में मौजूद है ।" शुभसिंह ने बताया--- "अब तक वो कई आदमियों का खून पी चुका है । चार युवतियां उसकी बर्बरता का शिकार हो चुकी हैं । जिसमें से इस रात ही उसकी बर्बरता का शिकार बनी जो कि केसरसिंह की ही बेटी थी।"
"केसरसिंह ?"
"हां देवी, केसरसिंह, दालू का सबसे खास आदमी है । मैं हैरत और उलझन में हूं कि हाकिम ने केसरसिंह की बेटी के साथ बुरा व्यवहार किया और वो मर गई । ये सुनकर उसकी पत्नी रूपदेवी ने आत्महत्या कर ली । परंतु केसरसिंह ने हाकिम या दालू के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया । इस वक्त अपनी बेटी और पत्नी को अग्नि के हवाले करने की तैयारी कर रहा है चेहरे पर कोई दुख की छाया नहीं। लेकिन मैंने महसूस किया कि केसरसिंह की आंखों में आग धधक रही है । मैं जानता हूं वो यूं चुप रहने वाला नहीं । बहुत खतरनाक योद्धा है। केसरसिंह यह सब खामोशी से बर्दाश्त नहीं करेगा।"
मोना चौधरी के चेहरे पर सोच के भाव उभरे ।
"आगे खबर ये कि दालू और गुलाबलाल के आदमी आपको तलाश कर रहे हैं कि आपको खत्म किया जा सके । इसलिए सब महल में ही रहें। किसी को यहां पर हमारी मौजूदगी की खबर न हो ।" शुभसिंह बोला।
मोना चौधरी ने शुभसिंह को देखा ।
"देवी ।" शुभसिंह पुनः बोला--- "उस किताब में दर्ज हाकिम की मौत का तरीका पढ़ लिया होगा । अगर तुम ठीक समझो तो हाकिम को फौरन खत्म करने की क्रिया को अंजाम दे देना चाहिये ।"
"शुभसिंह ।" मोना चौधरी कह उठी--- "अगर केसरसिंह हमारे पक्ष में हो जाये तो हाकिम और दालू का मुकाबला करने में आसानी हो सकती है । तुम्हारा क्या ख्याल है?"
"तुम ठीक कह रही हो देवी ।"
"जाकर केसरसिंह से बात करो । वो अभी नगरी में ही होगा।" मोना चौधरी के लहजे में आदेश के भाव थे ।
"जैसी देवी की इच्छा ।" कहने के साथ ही शुभसिंह बाहर निकलता चला गया ।
■■■
देवराज चौहान और मोना चौधरी की बात हुई। शभुसिंह की बातों का ब्यौरा बताकर कहा।
"केसरसिंह, दालू का खास आदमी है । उसकी बेटी को हाकिम ने रात भर अपने कमरे में बंद कर रखा और सुबह होने पर उसे अपनी बेटी की लाश देखने को मिली। केसरसिंह ने अपने मुंह से तो कुछ नहीं कहा, परंतु उसका मन अवश्य दालू के खिलाफ हो गया होगा । अगर वो हमारे साथ मिल जाये तो इस लड़ाई में हमें काफी सहारा मिल सकता है ।"
"कोई जरूरी तो नहीं कि केसरसिंह हमारा साथ दे दे ।" देवराज चौहान ने कहा ।
"फिर भी कोशिश करने में क्या हर्ज है ।" शुभसिंह, केसरसिंह से बात करने ही गया है।"
देवराज चौहान सिर हिलाकर रह गया ।
वहां मौजूद सब हालातों से वाकिफ होते जा रहे थे ।
उसकी बातों के दरम्यान ही बांकेलाल राठौर पास आया और दोनों को देखकर बोला।
"कल्ले कल्ले का बातें होवै । कोई शादी-ब्याहो की बात हौवे तो हमको बता दयो । यां पे म्हारे से बढ़िया पंडितों न मिल्लो हो । मन्ने ब्याह न किया तो किया हो गयो । ब्याहो बोत करायो।"
देवराज चौहान मुस्कुराया ।
मोना चौधरी बांकेलाल राठौर को घूर कर रह गई ।
बांकेलाल राठौर ने मूंछ उमेठी और आगे बढ़ गया ।
मोना चौधरी ने देवराज चौहान को देखा ।
"तुमने क्या सोचा है कि हाकिम और दालू का मुकाबला कैसे करना है ?" मोना चौधरी ने पूछा ।
"पहले शुभसिंह को केसरसिंह से बात कर आने दो। उसके बाद अपनी योजना बताऊंगा।"
■■■
सारे इकट्ठे बैठे बातों में व्यस्त थे ।
"बाप ।" एकाएक रुस्तम राव ने जगमोहन को देखा--- "अब मामला किधर हो जाएला है। हाकिम को खत्म करने की तरकीब मालूम होएला तो हाकिम नक्की करो बाप ।"
"उसी के बारे में सोच-विचार हो रहा है ।" जगमोहन ने कहा ।
"हाकिम से टक्कर लेना आसान नहीं है ।" महाजन गंभीर स्वर में कह उठा--- "सोच समझकर कदम उठाने की जरूरत है । हमारा उठाया एक भी गलत कदम सब कुछ तबाह कर देगा । हाकिम को हरा दिया तो दालू तिलस्मी ताज लेकर सामने आ जायेगा । ये लड़ाई बहुत ही खतरनाक और नाजुक है । इसमें चालबाजियों की जरूरत है।"
"हाकिम और दालू की ताकत के सामने हम नहीं ठहर सकते ।" सोहनलाल बोला ।
बांकेलाल राठौर का हाथ मूंछ पर जा पहुंचा।
"वड के रख दांगे ।"
"इस वक्त सवाल यह है कि हाकिम को खुले में लाकर उसे पकड़ा जाये या दालू के महल में ही जाकर उन पर धावा बोला जाये ।" पारसनाथ ने अपने खुरदरे चेहरे पर हाथ फेरा--- "और दालू के महल में प्रवेश करके कुछ देर भी सुरक्षित नहीं रहा जा सकता । वहां पर दालू के अपने ही पहरे हैं ।"
सब एक-दूसरे को देखने लगे।
"यो मामला तो देवराज चौहान और मोना चौधरी ही निपटायो ।"
"सेंध लगाने के मामले में तो देवराज चौहान नंबर वन है ।" महाजन के होठों से निकला--- "दालू के महल में पहुंचने का रास्ता वो निकाल सकता है ।"
"नहीं ।" जगमोहन कह उठा--- "ये सामान्य काम नहीं है, जो देवराज चौहान कर सके। ये तिलस्मी ताकतों का खेल है । अदृश्य शक्तियों से सामना है । इसलिए देवराज चौहान ये काम नहीं कर सकता।"
"जगमोहन ठीको ही तो कहो हो ।"
"हां बाप, ये मामला तो अटकेला है ।"
महाजन गहरी सांस लेकर रह गया ।
चंद कदम के फासले पर देवराज चौहान फर्श पर लेटा, उनकी बातें सुन रहा था । परंतु उनकी बातों में दखल देने की उसने कोई कोशिश नहीं की । चेहरे पर सोच के भाव थे ।
कर्मपाल सिंह ने पाली के कान में कहा ।
"हम यहां से निकलेंगे कैसे ?"
"मालूम नहीं ।" पाली बोला--- "ये सब मामले निपटे तो इस बारे में बात की जाये ।"
"मैं तो जल्द से जल्द मुंबई पहुंचना चाहता हूं ।"
"मुझे तो ये सब सपना लग रहा है ।" पाली गहरी सांस लेकर कह उठा ।
मोना चौधरी किताबों वाले कमरे में थी।
महाजन कुछ दूर मौजूद देवराज चौहान से बोला।
"देवराज चौहान, कुछ तय किया कि हाकिम से कैसे मुकाबला करना है ?"
देवराज चौहान ने महाजन को देखा और शांत स्वर में कह उठा।
"जब तक सारे हालात सामने न हों, कुछ भी तय नहीं किया जा सकता ।"
"किसी चीज की कमी बची है, जानकारी में ?" महाजन पुनः बोला ।
"मोना चौधरी से जान लो ।" कहकर देवराज चौहान ने आंखें बंद कर ली ।
दो पलों की सोच के बाद महाजन उठा और उस कमरे की तरफ बढ़ गया, जहां मोना चौधरी मौजूद थी । चेहरे पर उलझन नाच रही थी।
■■■
सबको शुभसिंह का इंतजार था ।
शुभसिंह दोपहर बाद लौटा ।
"देवी !" शुभसिंह ने कहा--- "मैं केसरसिंह से बात कर पाने में नाकाम रहा ।"
"क्यों ?"
"बेटी और पत्नी को अग्नि देते समय और उसके बाद भी उसके साथ कुछ ऐसे लोग मौजूद थे जो दालू कि सेवा में है । ऐसे में मेरा सामने जाना ठीक नहीं था। क्योंकि दालू और गुलाबलाल के आदमी मेरी जान लेने के लिए भटक रहे हैं । सामने जाने पर झगड़ा होता।"
"अब केसर सिंह कहां है ?" मोना चौधरी ने सोच भरे स्वर में पूछा।
"फुर्सत पाते ही केसर सिंह पुनः दालू की सेवा में पहुंच गया है । जो कि मेरे लिए और भी हैरत कर देने वाली बात है कि केसरसिंह ने दालू के खिलाफ विद्रोह क्यों नहीं किया । वो तो इस तरह चुप रहने वाला नहीं ।"
मोना चौधरी ने देवराज चौहान को देखा ।
देवराज चौहान शांत स्वर में कह उठा ।
"अब हमें अपनी योजना तैयारी करनी चाहिये। जो जानकारी सामने हैं, उसे ही मद्देनजर रखकर और योजना मैं तैयार करूंगा, दालू के महल में प्रवेश करने की । इसके लिए जरूरी है कि मुझे नीली पहाड़ी की जगह के प्रवेश के बारे में पूरा नक्शा समझाया जाये।"
"मैं समझा दूंगी, वहां के बारे में ।" मोना चौधरी ने गंभीर स्वर में कहा।
"तुम नीली पहाड़ी पर फैले तिलस्म पर काबू पा सकती हो ?" देवराज चौहान ने पूछा ।
"आसानी से ।"
"ठीक है । मैं शीघ्र ही योजना तैयार करता हूं । तुम मुझे नीली पहाड़ी का खुलासा हाल बताओ ।" देवराज चौहान के चेहरे पर सोच के भाव नाच रहे थे।
"महाजन।" मोना चौधरी ने कहा और त्रिवेणी को देखा--- "तुम भी दोनों हमारे साथ आओ, क्योंकि पूर्वजन्म की यादें तुम दोनों के जेहन में हैं। कोई बात भूल जाऊं तो वो तुम लोग बता सकते हो ।"
दोनों ने सिर हिलाया।
"देवी ।" शुभसिंह कह उठा--- "इस मामले में मेरी सेवा की जरूरत है ?"
"हां, तुम और कीरतलाल-प्रतापसिंह के साथ आओ, किताबों वाले कमरे में ।"
देवराज चौहान, मोना चौधरी, महाजन, रूस्तम राव, शुभसिंह, कीरतलाल और प्रताप सिंह किताबों वाले कमरे की तरफ बढ़ गये ।
बांकेलाल राठौर कह उठा।
"अंम का यां मक्खी मारने वास्ते बैठो हो को ?"
"फिक्र मत कर ।" सोहनलाल मुस्कुराया--- "योजना बनकर हमारे सामने ही आनी है ।"
योजना बनाने के दौरान जितने कम लोग पास में हो, उतना ही अच्छा रहता है ।" जगमोहन कह उठा--- "वैसे भी इस वक्त देवराज चौहान नीली पहाड़ी के हालातों की जानकारी ले रहा है । पहाड़ी के भीतर महल में कैसे प्रवेश करना है । भीतर क्या करना है । यह तो देवराज चौहान बाद में ही तय करेगा ।"
पारसनाथ अपने खुरदरे चेहरे पर हाथ फेरता हुआ सोच में डूबा रहा।
■■■
वे सब किताबों वाले कमरे में कुर्सियों पर बैठे थे ।
देवराज चौहान, मोना चौधरी, महाजन, रूस्तम राव, शुभसिंह, कीरतलाल और प्रतापसिंह सबके चेहरों पर गंभीरता थी।
मोना चौधरी देवराज चौहान को देख कर कह उठी ।
"तो यह बात तुम तय कर चुके हो कि हम दालू के महल में प्रवेश करके ही हरकत में आयेंगे ।"
"हां, मेरा तो यही इरादा है ।" देवराज चौहान ने कहा--- "अगर तुम्हारी कोई सोच हो तो कहो ।"
"मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा कि क्या किया जाये । कैसे हाकिम के साथ-साथ दालू से भी निपटा जाये। किसी एक पर विजय पा ली तो, दूसरा फौरन हम पर कामयाबी से संभाल कर वार कर सकता है। मैं चाहती हूं कि काम इस तरह किया जाये कि दूसरे को कुछ भी करने का मौका न मिले ।" मोना चौधरी बोली--- "अगर तुम तिलस्म से वाकिफ होते तो शायद सारा काम आसानी से हो जाता।"
"मतलब कि तुम्हारे पास इस बात की कोई योजना नहीं कि हाकिम और दालू से मुकाबला कैसे करना है ।"
मोना चौधरी ने इनकार में सिर हिलाया।
"नहीं, कोई योजना नहीं। क्योंकि हाकिम और दालू से एक साथ निपटना है और वो दोनों इस लड़ाई में तिलस्मी और कई तरह की शक्तियों से भरे वार करेंगे। जिनका मुकाबला शायद हम लोग ना कर सकें ।"
"तो योजना मैं बना दूं, तुम्हें कोई एतराज नहीं ?"
"नहीं, मुझे कोई एतराज नहीं ।"
देवराज चौहान ने सबके चेहरों पर निगाह मारी, फिर गंभीर स्वर में बोला ।
"कोई जरूरी नहीं कि हाकिम और दालू तक पहुंचने की मैं जो योजना बनाऊं वो सफल ही रहे । दुनिया में कोई भी योजना फुलप्रूफ नहीं होती । योजना की कोई न कोई डोर हमेशा ढीली रह जाती है। और वो डोर किस्मत की ऊपर होती है कि जो होगा देखा जायेगा । वैसे भी यहां के हालातों और पृथ्वी के हालातों में बहुत फर्क है । इसलिए इस काम में सफलता हाथ लगती है या असफलता ये अंत में ही मालूम होगा ।"
मोना चौधरी के होठों पर शांत मुस्कान उभरी।
"बाप जो होएला, देखेला । तुम बात आगे बढ़ाएला ।"
"तुम मुझे नीली पहाड़ी के बारे में बताओ जिसके भीतर दालू का महल है ।" देवराज चौहान ने माना चौधरी से कहा--- "एक बार में सब कुछ बता दो, ताकि मुझे समझने में आसानी हो ।"
"शुभसिंह ।"
"हां देवी।"
"देवराज चौहान की बात का जवाब दो ।" मोना चौधरी ने कहा ।
शुभसिंह ने सहमति से सिर हिलाया, फिर बोला ।
"नीली पहाड़ी बहुत विशाल और फैली हुई है । दालू ने ताज की शक्तियों के दम पर उस पहाड़ी को नीला रंग दे रखा है । दूर से वो पहाड़ नजर आता है सीधा-सीधा उस पहाड़ पर नहीं चढ़ा जा सकता, क्योंकि उस पर तिलस्मी चादर बिछा रखी है । दालू की तरफ से दिया गया तिलस्मी खंजर जिसके पास होता है वही नीले पहाड़ पर मौजूद तिलस्मी चादर को भेदकर भीतर जा सकता है । या फिर वो जा सकता है जो तिलस्मी विद्या में विद्वान हो और उस चादर के तिलस्म को तोड़ सके ।"
देवराज चौहान ने मोना चौधरी से कहा ।
"तुम उस तिलस्मी चादर में से रास्ता बना सकती हो ?"
"हां, तिलस्म की हर चीज का मुकाबला मैं कर सकती हूं ।" मोना चौधरी बोली ।
देवराज चौहान ने शुभसिंह पर निगाहें टिका दी ।
शुभसिंह ने पुनः कहना शुरु किया ।
"उस पहाड़ के भीतर जाने के चौदह रास्ते हैं । खास-खास जगह के इन रास्तों को वही जानते हैं जिनका महल के भीतर आना-जाना रहा हो । पहाड़ के ठीक ऊपर के हिस्से में इस तरह खाली जगह है, जैसे प्याले का खुला मुंह होता है । वहां से भरपूर धूप-हवा भीतर आती है, परंतु कोई जीवित वस्तु, व्यक्ति भीतर तक नहीं जा सकता। जिसमें किसी प्रकार की जान हो क्योंकि जीवित वस्तु के नाम पर उस खुली जगह में तिलस्म पढ़कर रोक लगा रखी है । स्पष्ट है कि महल के भीतर सीधे-सीधे नहीं जाया जा सकता ।"
मोना चौधरी नीले पहाड़ पर बिछे तिलस्म को तोड़ सकती है और हम भीतर जा सकते हैं ।" देवराज चौहान ने सोच भरे अंदाज में शुभसिंह से पूछा ।
"हां।"
उस नीले पहाड़ के महल में प्रवेश करने के चौदह रास्ते हैं ?"
शुभसिंह ने सिर हिलाया ।
"अब तुम उन रास्तों के बारे में बताओ कि वह कैसे हैं और भीतर जाने पर कैसे-कैसे हालात पैदा होते हैं ।" देवराज चौहान ने कहा--- "या फिर उन रास्तों के बारे में बताओ, जहां से खामोशी से भीतर प्रवेश किया जा सकता है और ज्यादा से ज्यादा देर तक महल वालों को इस बात की खबर न हो सके कि कोई भीतर आ गया है ।"
शुभसिंह के चेहरे पर सोच के भाव उभरे।
सबकी नजरें शुभसिंह के चेहरे पर थी।
"ऐसा कोई रास्ता नहीं है ।" शुभसिंह ने कुछ खामोशी के पश्चात कहा ।
देवराज चौहान ने समझने वाले ढंग में सिर हिलाया ।
"तो भीतर रास्तों में प्रवेश करने के बाद क्या होता है ?" देवराज चौहान ने पूछा ।
"पहाड़ के दरवाजे से भीतर प्रवेश करने पर हम खुद को महल में मौजूद पायेंगे । आगे महल के रास्ते इधर-उधर जाते दिखाई देते हैं । वहां महल के सेवक भी मिलेंगे और महल के रक्षक भी जो हथियारों के साथ होंगे । वह लोग जल्द ही हमें देख लेंगे और हमारे आने की खबर तुरंत फैल जायेगी। तब उनका मुकाबला करना पड़ेगा ।"
"मतलब कि महल के रखवालों से हमारी टक्कर अवश्य होगी ।" देवराज चौहान ने पूछा।
"हां ।
"कोई ऐसा रास्ता हो कि जिसके द्वारा बिना खून-खराबे के हाकिम और दालू तक पहुंचा जा सके ।"
"नहीं । क्योंकि हाकिम और दालू शयनकक्ष या बैठक तक ही सीमित रहते होंगे । जो कि महल के बीचो-बीच वाले हिस्से में मौजूद है । बिना किसी की निगाहों में आये बिना महल के भीतर पहुंच पाना असंभव है। वैसे हाकिम यदा-कदा युवतियों के लिए नगरी में जाता है । हाकिम को नगरी में घेरा...।"
"नहीं ।" मोना चौधरी कह उठी--- "दोनों को एक ही वक्त पर घेरना है ताकि वे एक-दूसरे की सहायता न कर सकें और शुभसिंह तो महल के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी दो। जब सलाह देने का वक्त आये तो तब सलाह देना ।"
"ठीक है देवी ।"
शुभसिंह बारीकी से महल के बारे में छोटी से छोटी जानकारी देने लगा ।
■■■
दोपहर बाद केसरसिंह सामान्य अवस्था में दालू की सेवा में हाजिर हो गया ।
"आ केसरे ।" दालू उसे देख कर कह उठा--- "बेटी को अग्नि के हवाले कर दिया ?"
"जी ।"
"सुना है तुम्हारी पत्नी ने अपनी जान दे दी ।"
"जी ।"
"जो भी हुआ मुझे अफसोस है । हाकिम के मामले में मैं कुछ नहीं कर सकता ।" दालू की आवाज में किसी तरह का भाव नहीं था--- "लेकिन तुम फिक्र मत करो । नगरी की जो भी सुंदर युवती तुम्हें पसंद हो । उससे ब्याह कर लो । तुम्हें कोई इनकार नहीं करेगा । यह मेरी आज्ञा है, नगरी वालों के लिये ।"
"जी, मैं ऐसा ही करूंगा ।" केसरसिंह ने मुस्कुराकर दालू को देखा।
कुछ क्षण उनके बीच खामोशी रही ।
"केसरसिंह।" दालू ने कहा--- "कितनी हैरत की बात है कि हमारे और गुलाबलाल के आदमी नगरी में जगह-जगह फैले मिन्नो, देवा और भी जाने कितने मनुष्य हैं, उन्हें तलाश कर रहे हैं और उनकी कोई खबर भी नहीं मिल पाई । इस बात को चौबीस घंटे होने को आ रहे हैं ।"
"मैं स्वयं इसी उलझन में हूं कि उनकी खबर क्यों नहीं मिल रही । केसरसिंह ने कहा--- "जबकि अब तक तो सारा किस्सा ही खत्म हो जाना चाहिए । नगरी में भला कोई इस तरह इतनी देर कैसे छिपा रह सकता है ।"
"कहीं पेशीराम ने तो उन्हें पनाह नहीं दे रखी ?" दालू कह उठा ।
"नहीं, पेशीराम नगरी की एकांत जगह पर रहता है । वो अपनी बेटी लाडो के साथ उस जगह को छोड़कर कहीं छिप गया है । उसके सेवक अवश्य वहां मौजूद हैं, जिन्हें पेशीराम की कोई खबर नहीं है ।" शुभसिंह कह रहा था--- "पेशीराम को इस वक्त अपनी और अपनी बेटी की पड़ी होगी । ऐसे में वो भला उन लोगों को कहां छिपा सकेगा ।"
"केसरसिंह मिन्नो की तलाश और तेज कर दो । जो आदमी महल में हो, सेवकों को छोड़कर उन्हें इस काम पर भेज दो । बहुत देर होती जा रही है । कहीं इस दौरान मिन्नो हमारे खिलाफ कोई चाल न चल दे।"
"ऐसा नहीं होगा, मैं अभी बाकी के आदमी भी मिन्नो की तलाश में लगा देता हूं ।"
दालू से अलग होते ही। खबर मिली कि उसका एक आदमी बैठक में उसका इंतजार कर रहा है । केसरसिंह वहां जा पहुंचा तो रोशन लाल को वहां मौजूद पाया ।
दोनों की निगाहें मिली ।
"तुम्हारी बेटी और पत्नी के बारे में सुनकर बहुत अफसोस हुआ केसरसिंह ।" रोशनलाल बोला ।
"मुझे भी अफसोस हुआ ।"
"हाकिम को ऐसा नहीं करना चाहिये था और दालू को चाहिये था कि उसे रोके ।"
"काम की बात करो ।" केसरसिंह ने शांत स्वर में कहा।
"आज मैंने शुभसिंह को नगरी में देखा । मिली खबरों के मुताबिक शुभसिंह, दालू और गुलाबसिंह के आदमियों की हत्या तिलस्म में कर चुका है स्पष्ट है कि वो मिन्नो के साथ है । यह सोच कर मैंने शुभसिंह का पीछा करना शुरू कर दिया तो आखिरकार मैंने उसे मिन्नो के खंडरह हुए महल में जाते देखा । कुछ इंतजार करने पर मैंने वहां हलचल देखी। कई और लोगों को वहां मौजूद पाया। मुझे विश्वास है कि मिन्नो भी वहीं है ।"
केसरसिंह मुस्कुराया ।
"क्या हुआ ?"
"तुम्हारी कितनी औलादें हैं रोशनलाल ?"
"दो ?" रोशनलाल के चेहरे पर इस सवाल से उलझन बढ़ी ।
"क्या उम्र होगी उनकी ?"
"बेटा बारह का और बेटी चौदह की ।"
"बहन ?"
"दो हैं । क्यों ?"
"तुम्हारी बहने इसी कारण सलामत है कि हाकिम को उनकी खबर नहीं । अगर मैं दालू का सगा बनकर हाकिम तक ये खबर पहुंचा दूं तो हाकिम की आदेश पर तुम्हें खुद अपनी बहनों को हाकिम के नीचे पेश करना पड़ेगा ।" केसरसिंह की आवाज में दरिंदगी आ गई--- "क्या ऐसा करना तुम्हें अच्छा लगेगा ?"
"नहीं ।" रोशनलाल के दांत भिंच गये।
"तो भूल जाओ इस बात को कि तुमने शुभसिंह को कहां देखा है और मिन्नो कहां हो सकती है ।"
दोनों कई पलों तक एक दूसरे की आंखों में देखते रहे ।
"समझा, सब कुछ समझ गया, मैं खुद हैरान था कि केसरसिंह जैसा व्यक्ति इतना अपमान होने के बाद भी दालू की सेवा में कैसे पहुंच गया । अब समझा कि क्यों पहुंचा ?"
"पेड़ की ऊंचाई तक हाथ न पहुंचे रोशनलाल तो पेड़ की जड़ को धीरे-धीरे काटना शुरु कर देना चाहिये । कभी तो पेड़ की पकड़ कमजोर होगी । कभी तो वह गिरेगा ।" केसरसिंह गुर्रा उठा ।
"ठीक कहते हो । लेकिन ऐसे में मिन्नो का क्या होगा ?"
"मिन्नो और उसके साथ के लोग यूं ही उस महल में मौजूद नहीं है ।" केसरसिंह ने भिंचे दांतों से कहा--- "मुझे पूरा विश्वास है कि मिन्नो ने वो किताब पा ली है, जिसमें हाकिम की मौत तक देने का ढंग दर्ज है । और इस वक्त वो सिर्फ यही सोच रहे होंगे कि हाकिम पर कैसे हाथ डाला जाये। जल्द ही कुछ होगा ।"
रोशनलाल कुछ न बोला।
"अब तुम अपनी जुबान बंद रखोगे ?"
"पक्का केसरसिंह, तुम्हारी बेटी को नहीं बख्शा गया तो मेरी बहनों की सलामती कहां रहेगी । दालू को ऐसा नहीं होने देना चाहिये था । तुमने दिन-रात दालू की सेवा की है । बहुत बुरा हुआ। लेकिन किसी और को मिन्नो के बारे में खबर मिल गई तो वो दालू को बता देगा कि...।"
दालू आमतौर पर सीधे किसी से नहीं मिलता । फिर मैं इस बात का ध्यान रखूंगा। हर पल मैं यहीं रहूंगा । वैसे भी अब जाना कहां है मेरा परिवार तो अग्नि को भेंट हो चुका है ।" केसरसिंह का चेहरा दहक उठा--- "दालू का नया हुक्म है कि महल में मौजूद सब लड़ाकों को मिन्नो की तलाश में भेज दो। तुम सब लड़ाकों को इकट्ठे करो और यहां से कहीं दूर ले जाओ । समझे ।"
"समझ गया ।"
"यहां मैं देखूंगा । हाकिम अगर दालू को बचा सकता है तो दालू नहीं जानता मैं उसे बर्बाद कर सकता हूं ।" केसरसिंह के जिस्म का जर्रा-जर्रा दहक रहा था।
■■■
महल के किताबों वाले कमरे में ही सब मौजूद थे । जिन्हें कुर्सियों पर जगह मिली वो नीचे फर्श पर बैठ गये। शाम हो चुकी थी। सूर्य छिप चुका था । वहां अंधेरा सा महसूस हो रहा था । परंतु रोशनी इसलिए नहीं की गई थी कि बाहर से वहां किसी की मौजूदगी का एहसास न हो ।
कीरतलाल और प्रतापसिंह बाहर पहरे पर थे ।
दिन भर की मेहनत के पश्चात देवराज चौहान ने दालू के महल में प्रवेश करने की योजना बना ली थी, जिस पर अब बातचीत होने जा रही थी ।
देवराज चौहान ने कम रोशनी में सब पर निगाह मारी फिर कह उठा ।
"इन हालातों में इससे बढ़िया योजना और नहीं बन सकती । मेरी बात सुनने के बाद, अगर किसी के पास योजना के सुधार के लिए कोई सुझाव हो तो वह बता सकता है ।"
"म्हारे को तो योजना की भी जरूरतों न होवे । यो ही अंम हाकिम और दल्लो को 'वड' दया ।" बांकेलाल राठौर का हाथ मूंछ पर पहुंच गया--- "पण यो तिलस्मी चक्करों ने म्हारे को घुमा रखो हो।"
"चुप रहएला बाप । बात पूरी होने दएला।"
"ओ छोरे ।। ठीको। मन्ने का जुबान पकड़े हो। कै-लौ । कै-लौ ।"
देवराज चौहान ने एक बार पुनः सब पर निगाह मारी फिर बोला ।
"देखा जाये तो एक अंधी योजना है । परंतु इसके अलावा हमारे पास कोई भी रास्ता नहीं। हम सब उस रास्ते से भीतर प्रवेश करेंगे, जहां से मकान का भीतरी हिस्सा नजदीक है । वो रास्ता जिसे शुभसिंह ने पांच नंबर रास्ता कहकर पुकारा था, उस रास्ते से हम शयनकक्षों के समीप जल्दी पहुंच सकेंगे, जहां दालू और हाकिम मौजूद होंगे । हम सब के पास हथियार होंगे। तलवारें, खंजर, कटारें । पांच नंबर रास्ते से भीतर प्रवेश करने के पश्चात, हमें जल्द से जल्द हाकिम और दालू के सिर पर पहुंचना होगा कि उससे पहले उन्हें हम लोगों की आवाज का पता ही न चल सके । इस तरह उन्हें संभलने का मौका भी नहीं मिलेगा । सख्त वार करने की मोहलत नहीं मिलेगी । और हमें अपना वार करने में आसानी होगी ।"
सब ध्यानपूर्वक देवराज चौहान की बातों को सुन रहे थे।
"पांच नंबर दरवाजे से भीतर प्रवेश करने के पश्चात यकीनन हमारा सामना, महल में मौजूद सेवकों और दालू के आदमियों से होगा । वो सब हमारे दुश्मन है । जो कि हमारी जान लेना चाहेंगे। ऐसे में उन पर रहम करना, दया करना ठीक नहीं होगा । हमें फुर्ती से आगे बढ़ना है । जो सामने आये उसे खत्म करते जाओ । आगे जाकर हमारे रास्ते अवश्य अलग-अलग हो जाएंगे । ऐसे में सामने आने वाले को छोड़ना नहीं है। वहां कुछ इस तरह दहशत फैला देनी है, जैसे कोई सेना महल में प्रवेश कर गई हो, मारकाट बराबर जारी रहनी चाहिए क्योंकि वहां मौजूद सब दालू के आदमी हैं और किसी के साथी हमारी जान लेंगे ।"
तभी शुभसिंह ने टोका।
"वहां केसरसिंह हो सकता है । जो शायद दालू की तरफ से हम पर वार न करें । क्योंकि हाकिम की वजह से उसका अपना परिवार तबाह हो गया है। वह अवश्य गुस्से में होगा ।"
"ऐसा है तो केसरसिंह जैसा व्यवहार करे, उसके साथ वैसा ही व्यवहार करो ।" देवराज चौहान ने कहा ।
मोना चौधरी शुभसिंह से बोली ।
"महल के सेवकों के पास हथियार होते हैं ?"
"हां देवी ! दालू के आदमी और सेवक हर समय हथियार साथ रखते हैं ।" शुभसिंह ने जवाब दिया ।
"फिर तो खून-खराबा होगा ही ।" जगमोहन कह उठा ।
देवराज चौहान के दांत भिंच गए ।
"बिना खून-खराबा किए, ये मसला हल नहीं हो सकता ।" देवराज चौहान का स्वर कठोर था--- "हमें यह पूरी कोशिश करनी है कि बहने वाला खून हमारा न हो । जिस तरह पहले यहां की धरती हमारे खून से लाल हुई थी। इस बार हमें दूसरों का खून बहाना है ।"
"मैं कुत्ते दालू को नहीं छोडूंगा।" महाजन गुर्रा उठा ।
पल भर की चुप्पी के बाद देवराज चौहान कह उठा ।
"मैं हाकिम का मुकाबला करूंगा और मोना चौधरी दालू का मुकाबला करते हुए, उस तिलस्मी ताज को पाने की कोशिश करेगी कि दालू, ताज के दम पर खतरनाक वार हम पर न कर सके ।"
"लेकिन तुम हाकिम का मुकाबला कैसे कर सकते हो।" सोहनलाल अजीब से स्वर में कह उठा--- "हाकिम तो मंत्रों द्वारा ही तुम्हें जला कर रख देगा ।"
देवराज चौहान ने मोना चौधरी को देखा फिर बोला ।
"बचाव के लिए मोना चौधरी कुछ मंत्र मुझे बतायेगी । ताकि खुद को बचाते हुए मैं हाकिम के अमरत्व को अशुद्ध करके, उसे खत्म कर सकूं ।"
"मैं नहीं समझता कि चंद याद किए मंत्रों से तुम हाकिम का मुकाबला कर लोगे। महाजन ने तीखे स्वर में कहा--- "मोना चौधरी ही शायद हाकिम का मुकाबला कर सके ।"
"अगर मैं हाकिम के साथ लड़ाई में व्यस्त हो गई और हाकिम हारने लगा तो दालू फौरन वो तिलस्मी ताज ले आयेगा, जिसमें ढेरों सिद्धियां मौजूद हैं । उसी ताज की वजह से, दालू ने डेढ़ सौ बरस से नगरी का समय चक्र रोक रखा था । तब वो हाकिम को भी बचा लेगा और हम सब को भी खत्म कर देगा। उस दौरान मैं दालू को इतना मौका नहीं देना चाहती कि वो उस शक्तिशाली ताज का इस्तेमाल कर सके। जिसके लिए जरूरी है देवराज चौहान, हाकिम से टकरा जाये और मैं दालू से।" मोना चौधरी ने कहा--- "दालू ने वो ताज तिलस्मी पहरे में रखा है, उस तिलस्म को काटकर देवराज चौहान तक नहीं पहुंच सकता, लेकिन मैं उस तिलस्म को तोड़कर ताज तक पहुंच सकती हूं । इसलिए देवराज चौहान को...।"
"ये तो देवराज चौहान की मौत का सामान तैयार होएला है बाप ! शेर को फांसने ने के लिए जैसे बकरी को खूंटे में बांधेला, उसी तरह देवराज चौहान का इस्तेमाल हो गया है ।"
देवराज चौहान के होठों पर मुस्कान उभरी ।
"छोरे ठिको ही तो बोलयो हो ।"
जगमोहन ने बेचैनी से पहलू बदला ।
महाजन ने हाथ में दबी बोतल से तगड़ा घूंट भरा।
मोना चौधरी ने शांत निगाहों से रूस्तम राव को देखा।
"इस वक्त किसी को बकरा बनाया जाना जरूरी है ।" मोना चौधरी बोली ।
"तो उस वास्ते देवराज चौहान ही मिलेएला बाप क्या ?"
"हां ।" मोना चौधरी गंभीर थी-- "बकरे का सेहतमंद और ताकतवर होना जरूरी है । ताकि कुछ देर शेर उसमें व्यस्त हो जाये और इसके लिए इस वक्त देवराज चौहान से बढ़िया कोई नहीं।"
जगमोहन ने देवराज चौहान से कहा ।
"तुम्हें इस काम से पीछे हट जाना चाहिये, क्योंकि तुम हाकिम से नहीं जीत सकते ।"
"मैं जानता हूं कि हाकिम से नहीं जीत सकता ।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा--- "लेकिन यह भी जानता हूं कि इस काम से पीछे भी नहीं हट सकता ।"
"पीछे क्यों नहीं हट सकते ?" जगमोहन की आंखें सिकुड़ी ।
"नगरी में दालू का जो जाल बिछा है उसे तोड़ने के लिए दालू से तिलस्मी ताज लेना जरूरी है । उसके हाथ में आने पर नगरी का समय चक्र पुनः चालू किया जा सकता है । समय चक्र रुक जाने की सजा पूरी नगरी भुगत रही है और मेरी बस्ती वाले, मेरे पहले जन्म के परिवार वाले। हम सबके परिवार वाले जैसे कैद में फंसे पड़े हैं । दालू को उनके जाल से मुक्त कराना है । इसके लिए दालू के साथी, अमरत्व प्राप्त हाकिम को भी खत्म करना जरूरी है । मैं चाहता हूं ये नगरी पहले की तरह, सामान्य हालातों में आ जाये । ये काम करते हुए अगर मुझे कुछ हो भी जाता है तो मुझे उसका अफसोस नहीं होगा ।"
जगमोहन जवाब में फौरन कुछ न कह सका ।
लेकिन महाजन बोला ।
"देवराज चौहान ठीक कहता है और हाकिम के साथ लड़ाई में देवराज चौहान के साथ मैं रहूंगा ।" महाजन के स्वर में जहान भर की कठोरता भी--- "देवराज चौहान की जान जायेगी तो मेरी भी जायेगी।"
"मुझे समझ में नहीं आ रहा कि पहले से। सही पता हो कि इस काम में जान जाती है तो फिर उस काम को क्यों किया जा रहा है । जगमोहन दांत भींचकर कह उठा ।
"तू ये बात इसलिए कह रहा है कि तेरे को पहले जन्म की बातें याद नहीं ।" महाजन ने बड़ा सा घूंट भरकर कहा--- "अगर सब कुछ याद आया होता तो, सबसे आगे तू ही खड़ा होता ।"
जगमोहन दांत भींचकर रह गया ।
"जगमोहन ।" बांकेलाल राठौर गंभीर स्वर में कह उठा--- "यो सबो पागल तो हौवे ना । जबो म्हारे को कुछ और भी मालूम न हौवे तो, चुप्पी से हां में हां मिलाते रहो ।"
जबकि रूस्तम राव के चेहरे पर व्याकुलता नाच रही थी।
"हम जो भी कर रहे हैं, ठीक कर रहे हैं ।" मोना चौधरी ने गंभीर स्वर में कहा--- "यूं ही जान गंवाने का मन किसी का नहीं करता । जो हम करेंगे । वो करना बहुत जरूरी है ।"
किसी ने कुछ नहीं कहा ।
देवराज चौहान पुनः योजना के मुद्दे पर बात करने लगा । भीतर तो क्या, अब बाहर भी अंधेरा फैल चुका था और इनका इरादा आज रात ही दालू के महल पर धावा बोलने का था ।
■■■
उस वक्त रात का एक बज रहा था ।
दालू के महल में शांति छाई हुई थी । चंद पहरेदारों को छोड़कर, वहां मौजूद अधिकतर लोग नींद के आगोश में थे । हाकिम नगरी से लाई युवती के साथ शयनकक्ष में बंद था । दालू दो युवतियों के साथ शयनकक्ष में था । जो कि उसका रोजमर्रा का ही काम था।
परंतु केसरसिंह बेचैन सा बैठक में मौजूद दीवान पर लेटा, करवटें ले रहा था । नींद आंखों से बहुत दूर थी। आंखों के सामने बेटी और मृत पत्नी के चेहरे बार-बार आ रहे थे । हाकिम की दरिंदगी और दालू के लालच की वजह से उसका पूरा परिवार खत्म हो गया था । जाने क्यों अब उसे जीना बेईमानी सा लग रहा था । मन में दालू और हाकिम के प्रति आग सुलग रही थी । जब करवटें ले-लेकर थक जाता तो उठकर टहलने लगा । जैसे वो समझ न पा रहा हो कि बे-मन की इस अवस्था में क्या करे?
दालू और उसके साथ की युवतियां अस्त-व्यस्त हालत में बेड पर नींद में थे कि एकाएक कमरे में तरह-तरह के रंगों की रोशनियों के धमाके होने लगे ।
नींद में डूबे दालू की बंद आंखों से जब वो तेज-तेज रोशनी टकराई तो उसकी आंख खुल गई । उन रोशनियों को देखते ही वो चौंककर उठ बैठा । साथ सोई युवतियों की भी आंख खुल गई थी । दालू एकाएक हद से ज्यादा परेशान हो उठा था ।
"तुम दोनों जाओ यहां से ।" दालू ने दांत भींचकर कहा ।
युवतियां फौरन वहां से बाहर निकल गई ।
दालू जल्दी से उठा और आगे बढ़कर जंजीर खींची । कहीं घंटा बजने की आवाज आई। दालू के दांत भिंचे गए थे । कभी-कभी वो बेहद क्रोध में नजर आने लगता।
रंगबिरंगी तेज रोशनियां अभी भी शयनकक्ष में चमक रही थी ।
तभी केसरसिंह ने भीतर प्रवेश किया ।
"क्या हुआ ?" केसरसिंह ने पूछा । निगाहें कमरे में बार-बार चमक रही रोशनियो को देखने लगी ।
"इन रोशनियों का मतलब समझते हो ?" दालू गुर्राया ।
"नहीं।"
"ये खतरे की निशानी है । किसी ने पहाड़ी पर फैले तिलस्म को तोड़ा है। कोई महल में प्रवेश करने वाला है ।"
"असंभव, यह कैसे हो सकता है ।"
"यह हो चुका है केसरे ! मेरी इजाजत के बिना पहाड़ी के तिलस्म को तोड़ा जाये तो तभी ये रोशनियां, रोशन होकर खतरे का संकेत देगी । जो कि अब ये हरकत में है । कोई महल में प्रवेश करने की चेष्टा कर रहा है ।"
"चिंता मत करो दालू । वो जो भी है, मैं अभी उसकी गर्दन अलग करता हूं ।" केसरसिंह ने कहा--- "लेकिन मेरे ख्याल में तो इतनी हिम्मत किसी में भी नहीं हो सकती।"
"हो सकता है आने वाली मिन्नो हो और...।" दालू ने कहना चाहा ।
"मिन्नो इधर का रुख करे, ये संभव नहीं ।" केसरसिंह ने जहरीली मुस्कान के साथ कहा--- "वो खुद ही कहीं छिपी बैठी होगी हाकिम की वजह से । यहां आकर वो कभी भी मरना नहीं चाहेगी ।"
"जा केसरे । जो भी हो । उसकी गर्दन काट दे ।"
"अभी उसकी गर्दन काट कर लाता हूं ।" कहने के साथ ही केसरसिंह पलट कर बाहर निकल गया
शयनकक्ष में रोशनियां अभी भी जगमगा रही थी ।
दालू कई पलों तक भिंचे दातों से वहीं खड़ा रहा । फिर बाहर निकला और उस शयनकक्ष की तरफ बढ़ गया, जिसमें हाकिम मौजूद था । परंतु दरवाजा बंद देखकर वापस अपने शयनकक्ष में लौट आया ।
■■■
नीले पहाड़ पर बिछे तिलस्म को तोड़ा था मोना-चौधरी ने । उस जगह से, जहां महल में प्रवेश करने के लिए रास्ता था । तिलस्म टूटते ही दालू को शयनकक्ष में खतरे का संकेत मिल गया था ।
उस रास्ते से महल में प्रवेश करने वालों में थे---देवराज चौहान, मोना चौधरी, जगमोहन, महाजन, पारसनाथ, पाली, सोहनलाल, रूस्तम राव, बांकेलाल राठौर, कर्मपाल सिंह, शुभसिंह, प्रताप सिंह और कीरतलाल।
और सबके हाथों में फंसे थे, खंजर, कटार, तलवारें ।
उनके चेहरों पर दरिंदगी थी। वे जानते थे कि अब मौत और जिंदगी का फैसला होने वाला है । दालू के महल से वे तभी निकल सकते थे, जब इस लड़ाई में जीत सकें । महाजन ने देवराज चौहान के साथ रहना पसंद किया था, क्योंकि हाकिम से टकराने में खतरा ज्यादा था । मोना चौधरी ने रूस्तम राव को अपने साथ रखा था। तिलस्मी ताज पाने के लिए, क्योंकि रूस्तम राव पूर्वजन्म की बातों से परिचित हो चुका था । मौके-बे-मौके पर उसकी सहायता कर सकता था । बाकी सबके हवाले ये काम था कि महल के भीतर सामने जो भी आये, उसे खत्म करते जाओ ।
भीतर प्रवेश करने के बाद उन्होंने कोई बात नहीं की थी । केवल कदमों की आहटें ही वहां गूंज रही थी । वे सब ठिठके । चेहरों पर मौत और खूंखारता के अलावा कोई और भाव नहीं था ।
"मैं, रूस्तम राव के साथ दालू और तिलस्मी ताज की तलाश में जा रही हूं ।" कहने के साथ ही मोना चौधरी ने देवराज चौहान को देखा--- "तुम महाजन को लेकर हाकिम से टक्कर लो । मुझे नहीं मालूम कि हाकिम से मुकाबला करने का क्या हश्र होगा । शायद हाकिम की ही जीत हो।"
देवराज चौहान के चेहरे पर दरिंदगी चमकी ।
महाजन के दांत भिंच गए ।
"जो तिलस्मी मंत्र मैंने तुम्हें बताये हैं, वो याद हैं ?" मोना चौधरी की निगाह देवराज चौहान पर ही थी ।
"सब याद है ।"
"तो अब हमें फौरन काम शुरू कर देना चाहिये । दो दो, तीन के ग्रुप में अलग-अलग रास्तों पर बिखर जाओ और जो भी मिले, उसे खत्म करते जाओ। सामने वाला पहले वार न कर सके ।"
उसके बाद सब हथियार पकड़े महल के अलग-अलग रास्तों पर बिखरते चले गये।
उनके कदमों की आहट बहुत कम थी । कुछ ही पलों बाद उनका सामना सेवकों और पहरेदारों से होने लगा । महल में खून ही खून बिखरने लगा। लड़ाके न के बराबर वहां मौजूद थे । क्योंकि उन्हें तो दालू ने मोना चौधरी की तलाश में महल से बाहर भेज दिया था ।
देवराज चौहान और महाजन, हाथों में तलवार और कटार थामे तेजी से आगे बढ़ते जा रहे थे । महल के कई रास्तों को वे पार कर चुके थे। जो भी सामने आता, वे दोनों तुरंत उसे मौत के घाट उतार देते । आगे बढ़ने वाले, उनके कदमों में बला की तेजी थी।
"हाकिम कहां होगा ?" महाजन के होठों से गुर्राहट निकली ।
"लगता है उसे शोर-शराबे का एहसास नहीं हुआ, वरना वो सामने आ गया होता ।" देवराज चौहान की आवाज में दरिंदगी के भाव थे--- "अब जो भी सामने आयेगा, उससे हाकिम के बारे में पूछेगा । वरना इसी तरह महल में भटकने से वक्त बर्बाद होगा ।"
"ठीक कहते हो ।"
सामने नजर आ रहे मोड़ पर मुड़ते ही वे दोनों ठिठके ।
सामने से केसरसिंह आ रहा था । उन्हें देखकर वो भी रुका ।
देवराज चौहान ने फौरन कटार संभाल ली ।
"ठहरो ।" महाजन बोला--- "मैं इसे जानता हूं । ये केसर सिंह है ।"
केसरसिंह की कमर में तलवार मौजूद थी । परंतु तलवार को हाथ में लेने की उसने कोशिश नहीं की । वो बारी बारी दोनों को देखता रहा ।
"कैसे हो नीलसिंह ?" केसरसिंह के होंठ हिले ।
"अच्छा हूं ।" नीलसिंह का स्वर सपाट था ।
"तुम्हारी बेटी और पत्नी के बारे में खबर सुनी । बड़ा दुख हुआ ।" महाजन सतर्क था ।
केसरसिंह ने शांत स्वर में कहा ।
"इसी रास्ते पर आगे बढ़ जाओ । जिस काम के लिए आये हो, वो हो जायेगा ।" केसरसिंह उन्हें रास्ता देता कह उठा ।
महाजन मुस्कुराया ।
"शुक्रिया केसरसिंह ।"
"मिन्नो कहां है ?" केसरसिंह ने पूछा ।
"वो भी महल में कहीं है ।" महाजन बोला ।
"पेशीराम नहीं आया ?"
"नहीं ।"
"तुम दोनों जल्दी से आगे बढ़ जाओ ।"
"आओ ।" महाजन ने देवराज चौहान से कहा और फिर केसरसिंह की बगल से गुजर कर वे आगे बढ़ गये।
केसरसिंह उन्हें जाते देखता रहा । फिर तेजी से उस तरफ बढ़ गया, जिधर से वे दोनों आये थे ।
देवराज चौहान और महाजन ने वो रास्ता जल्दी से खत्म किया तो सामने ही बहुत बड़ा कुछ ऊंचा दरवाजा नजर आया तो दोनों की निगाहें मिली ।
"ये बेडरूम का दरवाजा हो सकता है । भीतर हाकिम होगा ।" महाजन ने धीमे स्वर में कहा ।
"आओ ।" कहते हुए देवराज चौहान आगे बढ़ा और खुले दरवाजे से भीतर प्रवेश कर गया ।
महाजन उसके पीछे था ।
भीतर पहुंचते ही दोनों ठिठके ।
वो शयनकक्ष था । जिसमें रोशनियां तीव्रता से जगमगा रही थी और वहां मौजूद दालू हैरानी की शक्ल में खड़ा मुंह खोले उन दोनों को देख रहा था ।
देवराज चौहान और महाजन भी पल भर के लिए अचकचाए। उन्हें हाकिम की तलाश थी और पहुंच गये थे वे दालू के पास।
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केसर सिंह पर निगाह पड़ते ही मोना चौधरी ठिठकी। रुस्तम राव भी रुक गया ।
"ये कौन होएला ?" रूस्तम राव के हाथ में खून से सनी तलवार थी।
"केसरसिंह ।" मोना चौधरी की निगाह केसरसिंह पर थी ।
"तो ये वो ही होएला, जिसकी बेटी को बुरे हाल में, हाकिम खत्म करेला ।"
केसरसिंह के दांत भिंच गये ।
"केसरसिंह, क्या तुम अभी भी दालू के साथ हो ?" मोना चौधरी ने पूछा ।
"नहीं ।" केसरसिंह के होंठ हिले--- "मैं तुम्हारी सेवा में हाजिर हूं ।"
"तो मुझे दालू के पास ले चलो ।"
"दालू के नहीं तुम्हें हाकिम के पास जाना है ।" केसरसिंह ने दांत भींचकर कहा ।
"क्या मतलब ?" मोना चौधरी की आंखें सिकुड़ी ।
"दालू के पास देवा और नीलसिंह पहुंच चुके हैं । केसरसिंह के होठों से गुर्राहट निकली ।
मोना चौधरी और रुस्तम राव की नजरें मिली ।
"ये तो गड़बड़ होएला ।" रुस्तम राव के होठों से निकला ।
लेकिन ये वक्त सोचने का नहीं था ।
"हाकिम कहां है ?" मोना चौधरी के जर्रे-जर्रे में दरिंदगी थी ।
"आओ मेरे साथ ।"
केसरसिंह आगे और मोना चौधरी, रुस्तम राव उसके पीछे चल पड़े । तीनों के कदमों में तेजी थी । वे कई रास्तों को पार करते जा रहे थे । रास्ते में दालू के सेवकों और पहरेदारों की कई लाशें मिली । मोना चौधरी ने केसरसिंह से पूछा ।
"महल में लड़ाके क्यों नहीं है ?"
"वे सब तुम्हारी तलाश में महल से बाहर गए हुए हैं ।" केसर सिंह ने जवाब दिया ।
डेढ़ मिनट बाद केसरसिंह एक बड़े से बंद दरवाजे के सामने ठिठका ।
"ये शयनकक्ष का दरवाजा है । भीतर हाकिम मौजूद है ।" केसरसिंह ने कहा ।
मोना चौधरी ने दांत भींचकर दरवाजे को देखा ।
"ये खुलेगा कैसे ?"
"भीतर से बंद है ।" केसरसिंह के चेहरे पर कठोरता आती चली गई ।
"तुम खुलवा सकते हो ?"
"हां ।" केसरसिंह का कठोर चेहरा हिला ।
"खुलवा बाप । सोचेला क्या है ?" रुस्तम राव कह उठा ।
केसरसिंह आगे बढ़ा और जोरों से दरवाजा भिड़भिड़ाया ।
मोना चौधरी और रूस्तम राव की निगाहें मिली ।
"तुम जानते हो कि हाकिम की मृत्यु कैसे होगी ?" मोना चौधरी ने पूछा ।
"जानेला है बाप !" रूस्तम राव ने सहमति से सिर हिलाया ।
कोई जवाब न मिलने पर केसर सिंह ने पुनः दरवाजा भिड़भिड़ाया चेहरे पर सख्ती छाई हुई थी।
"पण हाकिम से तकरायेला कैसे ?" रुस्तम राव ने पूछा।
मोना चौधरी की आंखों में दरिंदगी के भाव उभरे ।
"मैं नहीं जानती । लेकिन इन हालातों के मुताबिक ही हाकिम से टक्कर लेनी है । जिसमें चालाकी और समझदारी की जरूरत पड़ेगी । सीधे-सीधे हाकिम का मुकाबला नहीं किया जा सकता ।" मोना चौधरी ने कहा ।
रुस्तम राव गंभीर चेहरा हिलाकर रह गया ।
तभी कमरे के भीतर से हाकिम की दहाड़ की आवाज आई ।
"कौन है ?"
"मैं हूं हाकिम ! केसरसिंह ।" केसरसिंह ने ऊंचे स्वर में कहा ।
"मेरे आराम में खलल क्यों डाला ?" हाकिम की आवाज में गुस्सा था ।
"दालू के आदेश पर । दालू का कहना है, मिन्नो का पता चल गया है ।" केसरसिंह ने कहते हुए, मोना चौधरी पर निगाह मारी ।
उसी पल कदमों की आवाज, दरवाजे की तरफ आती महसूस हुई ।
मोना चौधरी और रुस्तम राव सतर्क हो गये ।
केसरसिंह एक तरफ सरक गया ।
दरवाजा खुला । हाकिम की निगाह मोना चौधरी और रुस्तम राव पर पड़ी । पहले उसकी आंखें सिकुड़ी । दूसरे ही क्षण वो चौंका । उसके होठों से हैरानी भरा स्वर निकला।
"मिन्नो ।"
"हां हाकिम ।" मोना चौधरी ने सपाट स्वर में कहा---- "तू मेरी जान लेने का इरादा रखता है । ये जानकर मैं खुद ही तेरे पास चली आई । सोचा तेरे से सीधी बात कर लूं ।"
हाकिम ने रूस्तम राव को देखा ।
"तू त्रिवेणी है ना ?"
"हां बाप । अपुन त्रिवेणी होएला।" रूस्तम राव मुस्कुराया ।
हाकिम की आंखों में गुस्से की लाली दौड़ने लगी।
"मिन्नो ! तू अपनी मौत के पास चली आई है । अब तू नहीं बच सकती ।" हाकिम गुर्राया ।
"मैं तेरे से बात करना चाहती हूं हाकिम ।"
"क्या, बोल ?"
"भीतर आने दे ।"
खूनी आंखों से उसे घूरता हकीम पीछे हट गया ।
मोना चौधरी और रूस्तम राव भीतर प्रवेश कर गये ।
भीतर का दृश्य देखते ही मोना चौधरी का खून खौल उठा । रुस्तम राव के भी दांत भिंच गये।
बेड पर युवती का विक्षिप्त सा शरीर पड़ा था । जिस्म पर एक भी वस्त्र नहीं था । शरीर पर जगह-जगह खून नजर आ रहा था । दालू के वहशीपन का नमूना उसके सामने था । एक दूसरे से नजर मिली। परंतु वे खामोश रहे । जैसे उन पर कोई असर ही न हुआ हो ।
केसरसिंह के एक तरफ हो जाने से हाकिम उसे देख नहीं पाया था और मोना चौधरी रुस्तम राव में व्यस्त हो गया था । केसरसिंह बाहर ही रहा ।
"क्या कहना चाहती है ?" हाकिम गुर्राया ।
"मैं ये पूछना चाहती हूं कि मैंने तेरा कुछ नहीं बिगड़ा । तेरी-मेरी कोई दुश्मनी नहीं ।" मोना चौधरी के स्वर में किसी तरह का भाव नहीं था--- "फिर तू मेरी जान के पीछे क्यों पड़ा है ?"
"तेरे पास पिताश्री की लिखी किताब है, जिसमें ये बात दर्ज है कि अमरत्व लेने के पश्चात भी मेरी जान कैसे ली जा सकती है । इसलिए तू मेरे लिए सबसे बड़ा खतरा है ।" हाकिम ने क्रोध भरे स्वर में कहा ।
एकाएक मोना चौधरी मुस्कुरा पड़ी ।
"अगर सिर्फ यही बात है तो फिर हमारी दुश्मनी खत्म हो जानी चाहिए ।"
हाकिम की आंखें सिकुड़ी ।
"क्या मतलब ?"
"पहले जन्म में मृत्यु से पूर्व, उस किताब को मैं जहां रखकर गई थी, अब वो किताब मुझे वहां नहीं मिली । स्पष्ट है कि डेढ़ सौ बरसों में वो किताब किसी ने तलाश करके, अपने पास रख ली है ।"
"झूठ बोलती हो तुम ! तुमने वो किताब ऐसी आसान जगह पर नहीं रखी होगी कि उसे आसानी से ढूंढा जा सके । वो इस तरह किसी को नहीं मिल सकती ।" हाकिम दांत भींचकर कह उठा ।
"ठीक कहते हो हाकिम ।" मोना चौधरी मुस्कुराई--- "लेकिन मुझे मालूम है कि तुम्हारे कहने पर दालू सवा सौ बरस से उसके किताब की तलाश कर रहा है । वो किताब उसे भी तो मिल सकती है ।"
"तुम्हारा मतलब कि वो किताब दालू ने ढूंढ निकाली है और अपने पास रख ली है ।"
"हां, मेरी सोच के मुताबिक, यही सच बात है ।"
हाकिम के चेहरे पर कहर से भरी मुस्कान उभरी ।
"खूब इस जन्म में तो तुम, पहले से ज्यादा चालाक हो ।" हाकिम ने तीखे स्वर में कहा ।
"क्या मतलब ?"
हाकिम ठहाका लगा उठा ।
"तुमने कैसे सोच लिया कि अपनी झूठी बातों में मुझे फंसा लोगी । दालू ने अगर वो किताब पा ली होती तो अवश्य मुझे सौंप देता । वो मेरे से झूठ नहीं बोल सकता । उसमें इतनी हिम्मत नहीं कि मेरे से किसी भी तरह की दुश्मनी ले सके। तुम मुझे दालू के खिलाफ भड़काकर, मेरे हाथों से दालू को खत्म कराना चाहती हो और बाद में मुझे खत्म करने की चेष्टा करोगी। सच बात तो यह है कि वो किताब तुम्हें मिल चुकी है और तुम जान चुकी हो कि मेरे भीतर मौजूद अमरत्व को कैसे समाप्त किया जा सकता है ।"
मोना चौधरी ने गहरी सांस लेकर रुस्तम राव को देखा ।
"इसके सिर पर दालू का भूत कुछ इस तरह सवार है कि सच बात को भी झूठ मान रहा है ।"
"इसकी खोपड़ी घूमेला है । अपुन तो पैले ही बोएला था कि हाकिम से बात करना बेकार होएला । ये सीधे-सीधे नई मानेला सच को ।" रुस्तम राव ने गहरी सांस लेकर कहा ।
मोना चौधरी ने हाकिम को देखा ।
हाकिम के चेहरे पर जहरीले भाव थे और आंखों में बेहद तीव्र चमक ।
"मिन्नो ! तेरी मान लेता हूं कि तू सच कहती है ।" हाकिम ने मुस्कुरा कर कहा--- "वो किताब अगर दालू के पास है तो, दालू से किताब ले लूंगा। ये तो तेरा कहना है । ये भी तो हो सकता है कि तू झूठ बोल रही हो। सच कह रही हो तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा । तेरा जिंदा रहना मेरे लिए ठीक नहीं । तुझे हर हाल में मरना ही पड़ेगा । तैयार हो जा ।"
मोना चौधरी के दांत भिंच गए ।
"तो तू मेरी जान लेकर ही रहेगा ।" मोना चौधरी गुर्रा उठी ।
"हां, तुझे खत्म करना बहुत जरूरी है ।" हाकिम मौत भरे स्वर में कह उठा--- "रात अभी बाकी है और मेरी बाकी रात को तू रंगीन बनायेगी । इसी तरह तेरे को मौत दूंगा ।"
मोना चौधरी, हाकिम को घूरती रही ।
"उतार कपड़े ।" हाकिम के चेहरे पर अब शैतान बसने लगा था ।
"बाप ।" रुस्तम राव सकपका कर बोला--- "बच्चे के सामने छी-छी बात क्यों करेला है ?"
हाकिम की निगाह रुस्तम राव पर जा टिकी ।
"तू बाहर जा ।" हाकिम का स्वर कठोर हो गया ।
"क्यों बाप ?"
"बाहर जा, वरना अभी तेरे को जलाकर राख कर दूंगा।" हाकिम का गुस्सा बढ़ने लगा ।
"नई बाप मोना चौधरी को तेरे जैसे शैतान के सामने छोड़कर अपुन नेई जाने का ।" रूस्तम राव की आंखें सुलग उठी ।
"तो मरने के लिए तैयार हो जा ।"
कहने के साथ ही हकीम ने मुट्ठी बंद की और होठों ही होठों में बड़बड़ाकर मुट्ठी, रुस्तम राव की तरफ करके खोल दी । अगले ही पल आग का तेज भभक उठा और रुस्तम राव सिर से पांव तक आग में घिर गया । दूसरे ही क्षण गायब हो गई।
हाकिम की आंखें सिकुड़ी । उसकी निगाह फौरन मोना चौधरी की तरफ गई । जो कि होठों ही होठों में कुछ बड़बड़ा रही थी। तभी मोना चौधरी के होंठ रुके । उसने हाकिम को देखा ।
ये देख हाकिम दरिंदा बन गया।
"तेरी ये हिम्मत कि तू मेरे वार को काटे ?" हाकिम दहाड़ा ।
"तो तेरी हिम्मत कैसे हो गई कि तू मेरी मौजूदगी में त्रिवेणी की जान ले ।" मोना चौधरी गुर्राई ।
"तू मेरा मुकाबला करेगी ?"
"हां ।"
"यह जानते हुए कि मेरी जान नहीं ली जा सकती ।"
"तो क्या हुआ ।" मोना चौधरी ने पूर्ववत लहजे में कहा--- "तेरे वारों को काट-काटकर, मैं तेरे को इतना थका दूंगी हाकिम कि तू ये लड़ाई छोड़ना ही बेहतर समझेगा ।"
"मेरी शक्तियों का ज्ञान नहीं है तेरे को । मैं...।"
"हाकिम, तेरी शक्तियों का मुझे पूरी तरह ज्ञान है ।" कहने के साथ ही मोना चौधरी ने कमर से कटार निकाली और हाकिम की तरफ बढ़ी ।
यह देकर हकीम विषैला ठहाका लगा उठा ।
"मैं जानती हूं हाकिम मेरे वार से तेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा ।"
हाकिम अपनी जगह खड़ा हंसता रहा ।
मोना चौधरी ने कटार का वार, हाकिम की गर्दन पर किया । देखते ही देखते हाकिम की आधी गर्दन कटी और उसमें से कम समय में गर्दन वापस अपनी जगह पर थी । खून की एक बूंद भी कटी गर्दन से न गिर पाई थी ।
हाकिम अपनी जगह खड़ा हंसता रहा ।
मोना चौधरी कटार को एक तरफ फेंकते हुए बोली ।
"मैं जानती हूं, हाकिम कि मैं तेरी जान नहीं ले सकती । अगर वो किताब दालू के हाथ न लगती तो शायद मैं तेरी मौत का तरीका जान लेती । मैं तो तेरे को दालू की करतूत बताने आई थी कि वो तेरे साथ दगाबाजी कर रहा है ।" स्वर भावहीन था--- " अगर मुझे मालूम होता कि तेरे पास आने पर तू मेरी जान ले लेगा । तो मैं कभी भी यहां नहीं आती ।"
हाकिम ने हंसी रोकी।
"मुझे छोड़ दे हाकिम ! मेरी जान मत ले ।" मोना चौधरी के स्वर में याचना के भाव आ गये थे ।
रूस्तम राव ने मोना चौधरी को देखा । कहा कुछ नहीं ।
"मिन्नो ।" हाकिम के होठों से नाग सी फुंफकार निकली--- "हाकिम का इतिहास गवाह है कि वो कदम आगे बढ़ा कर कभी पीछे नहीं लेता । तेरी जान लेने का फैसला हो चुका है तो तेरी जान अवश्य ली जायेगी ।"
उसी क्षण मोना चौधरी उछली और उसका शरीर तीर की तरह हाकिम की तरफ लपका । अगले ही क्षण उसका शरीर हाकिम से टकराया तो हाकिम लुढ़क कर नीचे गिरता चला गया ।
मोना चौधरी फौरन उछल कर खड़ी हुई और हाकिम पर झपटी ।
हाकिम तब खड़ा ही हुआ था कि मोना चौधरी उसे साथ लिए नीचे जा गिरी । परंतु तभी हाकिम ने उसे पांवों पर उछाल दिया । मोना चौधरी दूर जा गिरी और तुरंत ही खड़ी हुई ।
हाकिम भी तब तक संभाल कर खड़ा हो चुका था ।
रुस्तम समझ नहीं पाया कि क्या करें, क्योंकि मोना चौधरी ने अचानक ही हाकिम पर हमला कर डाला था ।
हाकिम का चेहरा गुस्से से तप रहा था । आंखें क्रोध से लाल सुर्ख हो उठी थी। एकाएक वह बेहद ज्यादा भयंकर लगने लगा था । उसका ये रूप देखकर कोई भी सामान्य आदमी सहम सकता था ।
मोना चौधरी के दांत भिंचे हुए थे। उसने अचानक हमला करके, हाकिम पर कब्जा जमाने की अपेक्षा की थी कि उसकी आंख में मौजूद अमृत को अशुद्ध कर सके । परंतु हाकिम उसकी आशा से कहीं ज्यादा फुर्तीला निकला था । साथ ही अब हाकिम के संभल जाने की वजह से वो समझ गई कि हाकिम किसी भी पल अपनी शक्ति के दम पर, उसे खत्म कर देगा ।
रुस्तम राव को भी खतरे का अहसास हो गया था।
"बहुत गर्मी है तेरे जिस्म में ।" हाकिम ने मौत भरे स्वर में कहा--- "अब तो तेरे बदन की गर्मी का मजा लेने का मन बहुत करने लगा है । बोल तैयार होती है क्या ?"
मोना चौधरी के चेहरे पर हार के भाव स्पष्ट नजर आने लगे ।
"मैं जानती थी कि हाकिम का मुकाबला नहीं कर सकती । फिर भी जाने क्यों मेरा दिमाग खराब हो गया था जो तेरे से टकराने का फैसला कर बैठी ।" मोना चौधरी की आवाज में डर के भाव थे--- "आदत तो वही है मेरी जैसे पहले जन्म में गुस्सा आता था, वैसे ही अब आता है । यहीं पर मैं मात खा गई ।"
"उतार कपड़े ।" हाकिम गुर्राया ।
मोना चौधरी ने रूस्तम राव को देखा फिर थकान भरे स्वर में बोली ।
"तुम कमरे से बाहर निकल जाओ। भगवान ने चाहा तो अब अगले जन्म में मुलाकात होगी ।"
"अपुन तुम्हें अकेला छोड़कर नेई जाएला ।" रूस्तम राव के चेहरे पर उलझन थी।
"खत्म कर दूं क्या तुझे ?" हाकिम दहाड़ा ।
"मैं अपनी हार मान चुकी हूं हाकिम । इस पर गुस्सा मत करो । बच्चा है।" मोना चौधरी धीमे स्वर में बोली, फिर रूस्तम राव को देखकर बोली--- "जाओ त्रिवेणी, मेरा ये जन्म तो खत्म होने जा रहा है । तुम्हें हाकिम छोड़ रहा है, यही बहुत है । जाओ यहां से बाहर निकल जाओ । अगर हाकिम ने सोच लिया कि तुम्हारी जान लेनी है तो फिर मैं तुम्हें नहीं बचा सकूंगी । अपनी जान बचाने का वक्त मिल रहा है तुम्हें ।"
रुस्तम राव का दिमाग तेजी से चल रहा था । वह जानता था कि मोना चौधरी वो शै है जो हार कर भी हार न माने । मौत को गले लगा लेगी, परंतु हार जैसा शब्द मुंह पर नहीं आने देगी । जबकि इस वक्त वो हाकिम के सामने स्पष्ट तौर पर हार ही नहीं मान रही बल्कि हाकिम का आदेश मानते हुए कपड़े तक उतारने का बिना किसी एतराज के तैयार हो गई है ?
रुस्तम राव फौरन ही समझ गया कि मोना चौधरी, हाकिम के साथ कोई चालबाजी कर रही है । लेकिन वो नहीं चाहता था कि मोना चौधरी को अकेला छोड़कर, वहां से जाये । परंतु यहां के हालात स्पष्ट इशारा कर रहे थे कि उसे कमरे से बाहर जाना ही होगा ।
"अब मैं तुम्हें दोबारा जाने के लिए नहीं कहूंगी । तुम हाकिम के हाथों अपनी जान...।"
"अपुन खिसकेला बाप । तुम को अपुन को जबरदस्ती इधर लाएला मारने को ।" कहने के साथ ही रूस्तम राव पलटा और बाहर निकलता चला गया ।
हाकिम जोरो से वहशी हंसी हंस पड़ा ।
मोना चौधरी ने भय भरी निगाहों से हाकिम को देखा ।
हाकिम आगे बढ़ा और खुला दरवाजा बंद करके पलटा ।
"तो तू मेरा मुकाबला करने आई थी मिन्नो । किसी में इतनी हिम्मत नहीं कि मेरे से टक्कर लेने की सोच भी सके और तूने मेरे पर हाथ उठा दिया । उतार कपड़े देखूं तो सही तेरे खून की गर्मी ।" हाकिम के स्वर में कहर और व्यंग के भाव थे।
मोना चौधरी के चेहरे पर ऐसे भाव छाये हुए थे जैसे मौत के कुएं में आ फंसी हो । उसने हाकिम को देखा फिर उसके हाथ हिले और अपने बदन पर पड़े कपड़ों को खोलने लगी ।
"ठहरो ।"
मोना चौधरी की हरकत करते हाथ रुके ।
"मैं नहीं चाहता कि अब तू कोई चालाकी करे। इसलिए तेरे मस्तिष्क से सब कुछ निकाल देना ठीक रहेगा । यानी कि तेरे मस्तिष्क को मृत करना पड़ेगा कि तेरे मन में मेरे खिलाफ कोई बात आ ही न सके ।" कहने के साथ ही हाकिम होठों ही होठों में किसी मंत्र को बुदबुदाने लगा ।
यह कार्य तिलस्मी विद्या में नहीं था । मोना चौधरी को लगा कि वो वास्तव में हाकिम से हार गई । इस मंत्र की काट उसके पास नहीं थी । अगर उसके मस्तिष्क से हाकिम के लिए बैर निकल गया तो, हाकिम अपनी मनमानी करके, उसकी जान ले लेगा । जिस बाजी को वह जीतने की तमन्ना रखती थी, वो खेल शुरू होने से पहले ही हार गई ।
मोना चौधरी को समझ में नहीं आया कि वह क्या करे ?
एकाएक मोना चौधरी को लगा, उसके गले पड़े सफेद मोतियों की माला, अचानक गर्म होने लगी है । ये वही माला की जो उसके पिता मुद्रानाथ ने यह कहकर गले में डाली थी कि गुरुवर ने अपने आशीर्वाद के तौर पर उसे दी है । वो माला हर पल के साथ गर्म होती जा रही थी ।
मोना चौधरी नहीं समझी की माला में गर्माहट क्यों आ गई है ?
तभी हाकिम के बुदबुदाते होंठ हिले और हंसा।
"हा...हा...हा । अब तुम्हारे मस्तिष्क में मेरे लिए मैल-दुश्मनी निकल गई है ?
तुम ऐसी सामान्य बन गई हो, जिसे अपने अच्छे-बुरे की कोई परवाह नहीं । अब तुम मेरे इशारों पर नाचोगी।"
परंतु मोना चौधरी ने अपने मस्तिष्क में कोई बदलाव महसूस नहीं किया । वो वही थी और हाकिम के अमरत्व को हर हाल में अशुद्ध करना चाहती थी । तो क्या हाकिम की उच्च विद्या का मंत्र खाली गया। दूसरे ही क्षण वो समझ गई कि गुरुवर की दी गई आशीर्वाद रूपी माला गर्म क्यों हुई ?" दालू के मंत्र का असर, माला ने अपने ऊपर ले लिया था और वो बिल्कुल ठीक रही थी ।
"उतार कपड़े।" हाकिम की आंखों में तीव्र चमक लहरा रही थी ।
मोना चौधरी पुनः हरकत करते अपने कपड़े उतारने लगी । हाव-भाव से ऐसा दर्शा रही थी वो जैसे सुध-बुध खो बैठी हो और हकीम की गुलाम हो । ताकि हाकिम को विश्वास रहे कि उसके मंत्र ने उसे अपने वश में कर लिया है । वही करेगी, जो हाकिम कहेगा ।
वो कपड़े उतारती रही ।
हाकिम की आंखों में मादकता से भरी चमक बढ़ती रही ।
आधे मिनट में ही वो बिना कपड़ों के हाकिम के ठीक सामने खड़ी थी । उसे सिर से पांव तक निहारते हाकिम की आंखें किसी बल्ब की भांति चमक रही थी ।
"वाह तेरा जिस्म तो बहुत गर्म लग रहा है । मैंने तो सोचा भी नहीं था । पहले मालूम होता तो, तेरे पहले जन्म में ही तेरा स्वाद चख लिया होता ।" कहने के साथ ही हाकिम अपने जिस्म पर लिपटी धोती उतारने लगा।
मोना चौधरी बुत की भांति खड़ी उसे देखती रही ।
हाकिम धोती उतारते ही बिना कपड़ों के उसके सामने था । चेहरे पर शैतानी भाव नाच रहे थे । वो आगे बढ़ा और मोना चौधरी को बांहों में उठा लिया ।
मोना चौधरी मुस्कुराई।
"लगता है तेरे में सख्त जान है । मजा आयेगा ।" हकीम हंसा ।
मोना चौधरी मुस्कुराई ।
"बहुत मजा आयेगा ।" मोना चौधरी की आवाज में दोस्ती के भाव थे ।
बेड पास ही था। हाकिम ने बांहों में उठाये मोना छोटी को बेड पर लुढ़का दिया । मोना चौधरी ऐसे खिलखिलाई जैसे उसका पसंदीदा काम हो रहा है । वह टांगे फैलाये बेड पर लेटी थी और पास खड़ा हाकिम उसे आंखें फाड़े उसके शरीर के एक-एक हिस्से को देख रहा था ।
बेड काफी बड़ा था । उसके दूसरे हिस्से में युवती की विक्षिप्त सी लाश पहले से ही मौजूद थी। कपड़े उतारते समय मोना चौधरी ने अपनी पैंट बेड पर ही उछाल दी थी । जो कि अब उसके करीब ही पड़ी थी ।
तभी हकीम बेड पर चढ़ गया फिर उसके शरीर को सहलाते उसके साथ लेट गया । मोना चौधरी ने उसे बाहों में भींच लिया। ऐसा करते ही हाकिम पर जैसे प्यार का जुनून सवार हो गया । वह उसके जिस्म को जगह-जगह से चूमने लगा, मोना चौधरी, हाकिम को पूरा सहयोग दे रही थी।
और जब मोना चौधरी ने देखा कि उसके शरीर में पूरी तरह व्यस्त हो चुका था तो दांया हाथ पास ही मौजूद पैंट की तरफ सरकाया और उंगलियां पैंट की जेबों को टटोलने लगी । थोड़ी सी कोशिश के बाद उसकी उंगली जेब में मौजूद, खंजर से टकराई तो उसे कवर से बाहर निकाला और नोक पर अपनी उंगली रख कर जोरों से दबाई तो खंजर की नोक में जा धंसी ।
मोना चौधरी ने जब उंगली खंजर से हटाई तो उंगली के ऊपर कोने से खून बहने लगा ।
"मिन्नो ! बहुत गर्म है तू ।" हाकिम उसके हुस्न के नशे में मदहोश और व्यस्त था--- "अब और नहीं रुका जाता । तैयार हो जा ।" कहने के साथ ही उसने मोना चौधरी की टांगों को अजीब से ढंग से मोड़ दिया ।
मोना चौधरी हौले से खिलखिलाई ।
"तू हंस रही है । जबकि दूसरी तो टांगों के ऐसे मुड़ते ही दर्द से चीखने लगती है ।"
"मुझे मजा आ रहा है ।" मोना चौधरी ने लंबी सांस ली--- "मेरे होठों पर प्यार कर।"
हाकिम ने अपना चेहरा आगे किया । उसके होठों को चूमने-चूसने के लिये।
उसी पल मोना चौधरी ने खून से सनी उंगली भाले की तरह अकड़ा कर बला की फुर्ती के साथ हाकिम की दाई आंख में घुसेड़ दी । जो कि सीधी हाकिम की आंख में प्रवेश करती चली गई ।
हाकिम के गले में कानों को फाड़ देने वाली चीख निकली । वो जल बिन मछली की तरह तड़पा और उछलकर बेड के नीचे जा गिरा । दोनों हाथ उसने आंखों पर रख लिए । चेहरे पर दरिंदगी समेटे मोना चौधरी उठी और बेड पर से खंजर उठाकर बेड से नीचे आ गई ।
हाकिम तड़पे जा रहा था ।
"हाकिम ।" मोना चौधरी के मुंह से शब्द नहीं, जैसे अंगारे निकल रहे थे- - "तूने अमरत्व इसी दाईं आंख में छिपा रखा था---और मैंने अमरत्व अशुद्ध करके तेरी न मरने की ताकत को खत्म कर...।"
"तूने धोखा किया ।" पीड़ा से चीखते हाकिम ने उठने की चेष्टा की ।
तभी मोना चौधरी की ठोकर पर वह नीचे लुढ़क गया ।
"अब तेरे पास तिलस्मी विद्या और अन्य शक्तियां बाकी बची है । परंतु उन्हें तू तभी इस्तेमाल कर पायेगा ,जब मैं तुझे मौका दूंगी । अब तू मरने जा रहा है हाकिम ।"
इन शब्दों के साथ ही हाकिम अपनी पीड़ा भूल गया । वो उछलकर खड़ा हो गया । वह बहुत भयानक लग रहा था । दाईं आंख की जगह गड्ढा सा नजर आ रहा था, जहां से अब भी खून बह रहा था। सारा चेहरा और छाती-हाथ-बांह भी खून से सन चुके थे । चेहरे पर बची मांस एक आंख, वहशी चमक लिए नजर आ रही थी ।
"मुझे हैरानी है कि तुझ पर मेरे मंत्र का असर क्यों नहीं हुआ । तेरे मस्तिष्क में मौजूद मेरे प्रति दुश्मनी की लहर समाप्त हो जानी चाहिए थी ।" हाकिम गुर्रा उठा।
मोना चौधरी जहरीली अंदाज में मुस्कुराई ।
"इन बातों का जवाब जान कर क्या करेगा । मैं तेरी मौत बनकर सामने खड़ी हूं ।"
"भूल में है तू।" हाकिम का चेहरा और भी भयानक हो उठा--- "मेरी अमरत्व की शक्ति अवश्य धोखे से तूने समाप्त कर दी । परंतु मेरी शक्तियों का तू अभी भी मुकाबला नहीं कर सकती । मैं तुझे इस कमरे से जिंदा बाहर नहीं जाने दूंगा। हाकिम को कोई नहीं मार सकता । मैं...।"
"मेरी जान तू तभी ले सकता है हाकिम, जब मैं तुम्हें अपनी विद्या का इस्तेमाल करने का मौका दूंगी।" मोना चौधरी के चेहरे पर दरिंदगी के भाव आने लगे-- "नहीं हाकिम ! तू अपनी किसी भी विद्या का वार मुझ पर नहीं कर सकेगा । तुझे अमरत्व हासिल था । इसी वजह से सब तुमसे डरते थे ।" कहने के साथ ही मोना चौधरी होठों की होठों में बुदबुदाई--- "ऐ खंजर, बड़ा हो जा ।"
"अगले ही पल मोना चौधरी के हाथ में दबा खंजर करीब दो फीट लंबा हो गया ।
"ओह ! तिलस्मी खंजर।" हाकिम मौत भरे स्वर में बोला--- "ये मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता । मैं तुझे दो पल में ही जलाकर राख कर दूंगा ।" कहने के साथ ही हाकिम के होंठ हिले ।
मोना चौधरी उसी पल बिजली की तरह झपटी और हाथ में दबा दोधारी खंजर हाकिम के पेट में प्रवेश करके पीठ की तरफ से चमकने लगा ।
"ओह...।" हाकिम के होठों से पीड़ा भरी अजीब सी आवाज निकली ।
मोना चौधरी ने दांत भींचे तीव्र झटके से खंजर बाहर खींच लिया ।
हाकिम तड़पा। गिरने को हुआ कि संभल गया ।
"मुझे जलाने के लिए मंत्र बोल हाकिम ।" मोना चौधरी गुर्राई ।
हाकिम का चेहरा पीड़ा क्रोध और लहू से अजीब सा हो रहा था । उसने अपनी एक आंख मोना चौधरी पर टकराई और पुनः उसके दांत हिलने लगे ।
तभी मोना चौधरी ने हाथ में दबा खून से सना खंजर किसी चाकू की तरह उसके गले में घोप दिया । हाकिम को बचने का मौका ही नहीं मिला। खंजर का फल गला पार करके पीठ की तरफ नजर आने लगा । इसके साथ ही मोना चौधरी खंजर को धीरे-धीरे फिरकनी की भांति घुमाने लगी ।
हाकिम के दोनों हाथ खंजर पर जा टिके। उसने खंजर ही ऐसे पकड़ा कि उसे हिलने नहीं दिया । इतने जबरदस्त वारों के पश्चात भी उस में विरोध करने की हिम्मत बची हुई थी ।
मोना चौधरी ने खंजर की मुठ कसकर पकड़ ली । हाकिम ने गर्दन में फंसा खंजर खींचकर बाहर निकालने का प्रयास किया, परंतु मोना चौधरी ने ऐसा नहीं होने दिया ।
"हाकिम ! देख ले अपनी मौत का नजारा ।" मोना चौधरी भिंचे स्वर में कह उठी--- "तूने बहुतों को मौत दी । लेकिन मौत का स्वाद क्या होता है, ये तूने अब चखा ।"
हाकिम के दोनों हाथ अभी तक खंजर पर टिके थे ।
मोना चौधरी ने धक्का देते हुए खंजर की मुठ छोड़ी तो हाकिम नीचे जा गिरा।
चेहरे पर दरिंदगी समेटे मोना चौधरी पलटी और बेड की चादर से अपना खून से सना हाथ अच्छी तरह साफ किया फिर इधर-उधर बिखरे पड़े अपने कपड़े पहनने लगी । चेहरे पर अभी भी जहान भर का गुस्सा सिमटा पड़ा था ।
कपड़े पहनने के पश्चात वो पलटने ही वाली थी कि ठीक अपने पीछे आहट हुई और पलट न सकी । हाकिम की बांह उसकी गर्दन से आ लिपटी । मोना चौधरी ने तड़प कर अपनी गर्दन से बांह हटाने का प्रयत्न किया, परंतु सफल नहीं हो सकी । जबरदस्त वारों के पश्चात भी उसमें बहुत ताकत बची थी । तभी मोना चौधरी का उसके दूसरे हाथ में दबे अपने वाले खंजर पर निगाह पड़ी, जो उसकी गर्दन में धंसा छोड़ा था।
साथ ही कानों में धौं-धौं की आवाज पड़ी। यकीनन हाकिम कुछ करना चाहता होगा । परंतु गर्दन के घाव की वजह से बोल नहीं पा रहा था ।
मोना चौधरी को अपनी गलती का अहसास हुआ । हाकिम को बहुत ज्यादा आंककर भी, कम आंका था । वह शक्तियों का मालिक ही नहीं, खुद ही बहुत शक्तिशाली था और वह ये सोच कर पीछे हट गई कि अब इसकी मौत निश्चित है ।
मोना चौधरी ने पुनः हाकिम की पकड़ से आजाद होने की चेष्टा की । परंतु सफल नहीं हो सकी । हाकिम की बांह उसकी गर्दन के गिर्द कसकर जकड़ी हुई थी। उसी पल आंखों के सामने हाकिम के हाथ में तब खून से सना खंजर चमका ।
हाकिम उस पर वार करने जा रहा था ।
मोना चौधरी जानती थी कि उस दोधारी खंजर का वार कितना खतरनाक है । खंजर को अपने जिस्म में प्रवेश करने से, रोकना जरूरी था। इससे पहले खंजर उसके शरीर में प्रवेश करता, मोना चौधरी ने हाथ बढ़ाकर खंजर के दोधारी फल को पकड़कर उसे रोक दिया ।
हाकिम ने जोर लगाया।
परंतु मोना चौधरी ने खंजर को अपनी तरफ नहीं बढ़ने दिया, जबकि खंजर के उसके शरीर में प्रवेश करने में सिर्फ चार-पांच इंच का फासला शेष था ।
"हाकिम !" मोना चौधरी दांत पीसकर गुर्राई--- "मैंने तेरी सारी विधाएं छीन ली । अब तू बोल नहीं सकता । मंत्र नहीं बुदबुदा सकता । किसी विद्या का इस्तेमाल नहीं कर सकता । शरीर तेरा ऐसा घायल है कि मुझसे टक्कर लेने का भी तेरे में दम नहीं बचा । तू मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता।"
हाकिम का गला अब जुबान देने के काबिल नहीं था ।
तभी मोना चौधरी को महसूस हुआ जैसे, हासिल की खंजर की पकड़ कुछ ढीली हो गई है । धीरे-धीरे उसकी गर्दन से लिपटी बांह की पकड़ भी ढीली होने लगी । मोना चौधरी समझ गई कि हाकिम की बची-खुची शक्ति भी खत्म होती जा रही है ।
और ऐसा ही हुआ।
फल के साथ थाम रखा खंजर, मोना चौधरी के हाथ में दबा रह गया । हाकिम ने मुठ छोड़ दी थी, या छूट गई थी। गर्दन पर लिपटी बांह पूरी ढीली हो गई थी । बिना घूमे मोना चौधरी ने पीठ की तरफ खड़े हाकिम को पीछे धक्का दिया तो वह नीचे जा लुढ़का।
चेहरे पर मौत के भाव समेटे मोना चौधरी पलटी ।
नीचे पड़ा हाकिम गहरी-गहरी सांसें ले रहा था ।
मोना चौधरी ने खंजर को मुठ वाले हिस्से से थामा । दो कदम उठाकर नीचे पड़े हाकिम के पास पहुंची । उसकी इकलौती आंख भी इस वक्त बंद थी । परंतु सांसें चल रही थी । मोना चौधरी ने दूसरा हाथ भी खंजर की मुठ पर टिकाया और खंजर की नोक नीचे की ।
खंजर तीव्रता के साथ हाकिम के दिल में प्रवेश करता चला गया ।
हाकिम का शरीर जोरों से तडपा और तुरंत ही शांत पड़ गया । अब अंत हुआ था उस दरिंदे का। मोना चौधरी दांत भींचे कई पलों तक, हाकिम के मृत शरीर को घूरती रही। उसके बाद पूरी शक्ति से हाकिम के शरीर पर ठोकर मारी।
लेकिन हाकिम के शरीर में अब जान कहां बची थी ।
मोना चौधरी पलटी और दरवाजे की तरफ बढ़ गई ।
दरवाजा खोलते ही सामने परेशान हाल रुस्तम राव का चेहरा नजर आया । मोना चौधरी को दरवाजे पर देखते ही वो सिर से पांव तक खुशी से कांप उठा ।
"तुम्हारे तो सारे पुर्जे फिट होएला बाप ।"
मोना चौधरी ने मुस्कुराने की कोशिश की । परंतु चेहरे पर सिमटे गुस्से की वजह से मुस्कान ना आ सकी। वो खुद को सामान्य करने की चेष्टा करने लगी।
"अपुन अभ्भी वापस आएला ।" कहने के साथ ही रूस्तम राव कमरे में प्रवेश कर गया ।
मोना चौधरी की निगाह केसरसिंह पर पड़ी जो चंद कदमों के फासले पर मौजूद था ।
"जाओ । देख लो, जिसने तुम्हारी बेटी की जान ली। वो किस हाल में है ।" मोना चौधरी ने कहा।
केसरसिंह की आंखों में आंसू चमक उठे ।
"हाकिम किसी भी हालत में पड़ा हो । लेकिन मेरी बेटी, पत्नी तो अब वापस नहीं आ सकती ।" केसरसिंह उदासी भरे स्वर में कहकर आगे बढ़ा और कमरे में प्रवेश कर गया
रुस्तम राव बाहर निकला । चेहरे पर आश्चर्य के भाव नजर आ रहे थे ।
"बाप !" रुस्तम राव बड़बड़ाया सा था--- "तूने हाकिम को पक्का खत्म किएला क्या ?"
उसके सवाल पर मध्यम सी मुस्कान मोना चौधरी के चेहरे पर उभरी ।
"अपुन को तो विश्वास ही नेई आएला। कैसे किएला ये सब ?"
मोना चौधरी ने गहरी सांस ली और बोली।
"मैं खुद नहीं जानती । काम पूरा हो गया । ये ही बहुत है । इन बातों को बाद के लिए छोड़कर, हमें देवराज चौहान को देखना है कि वो किसी मुसीबत में न हो ।"
"वो तो दालू के पास पौंचेला था ।"
तभी केसरसिंह बाहर निकला । उसकी आंखें गीली थी । परंतु चेहरे पर चैन के भाव थे ।
"केसरसिंह !" मोना चौधरी ने कहा--- "हमें फौरन वहां ले चलो, जहां देवराज चौहान, मेरा मतलब कि देवा है ।"
"आओ।" कहकर केसरसिंह आगे चल पड़ा और मोना चौधरी, रूस्तम राव पीछे ।
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