कुछ दिनों बाद कबीर ने एक अजीब सा सपना देखा। सपने वैसे अजीब ही होते हैं। हमारे बाहरी यूनिवर्स में स्पेस-टाइम कर्वचर स्मूद होता होगा, मगर सपनों के यूनिवर्स में स्पेस और टाइम नूडल्स की तरह उलझे होते हैं, या फिर किसी रोलर कोस्टर की तरह ऊपर-नीचे आएँ-बाएँ दौड़ रहे होते हैं। कबीर के सपनों में एक ख़ास बात ये होती थी कि हालाँकि उसके दिन के सपने पूरे ग्लोब का चक्कर लगाने के थे, मगर उसकी रातों के सपनों में वड़ोदरा ही जमा हुआ था। लंदन तब तक उसके सपनों में घुसपैठ नहीं कर पाया था; हाँ लंदन वालों की घुसपैठ ज़रूर शुरू हो गई थी।
सपने में कबीर, वड़ोदरा में डाँडिया खेल रहा था। उसके साथ डाँडिया खेल रही थी हिकमा। उसने हरे रंग का गुजराती स्टाइल का घाघरा-चोली पहना हुआ था। उसके बाल खुले हुए थे, जिनकी बिखरी हुई लटें बार-बार उसके लाल गालों से टकरा रही थीं। डाँडिया की धुन पर उसका छरहरा बदन खुलकर लहरा रहा था, और उसके बदन की लय पर कबीर का मन थिरक रहा था। दोनों में अच्छा तालमेल था। वह शायद कबीर की ज़िन्दगी का सबसे खूबसूरत सपना था, या फिर उसके सपने को अभी और खूबसूरत होना था। अचानक डाँडिया की टोली में उसे टीना दिखाई दी। टीना ने ठीक उस दिन की पार्टी की तरह ही काले रंग की मिनी स्कर्ट और उसके ऊपर क्रीम कलर का टॉप पहना हुआ था।
कबीर की ऩजरें बार-बार टीना की ओर जा रही थीं, और हिकमा को इसका अहसास हो रहा था। अचानक हिकमा ने कबीर से कहा, ‘‘कबीर, मुझे भूख लग रही है।’’
‘‘क्या खाओगी?’’ कबीर ने टीना से ऩजर हटाकर हिकमा से पूछा।
‘‘जो भी तुम खिला दो।’’
‘‘बटाटा वड़ा?’’
‘‘हाँ चलेगा।’’
कबीर और हिकमा वहाँ से हटकर बटाटा वड़ा की तलाश में निकल पड़े। रात का़फी हो चुकी थी, बहुत सी दुकानें बंद हो चुकी थीं। सड़क लगभग सुनसान थी। अचानक कबीर को अपने पीछे एक आवा़ज सुनाई दी, ‘‘हे बटाटा वड़ा!’’
उसने मुड़कर देखा। पीछे कूल और हैरी दिखाई दिए। कबीर ने मुँह फेरकर उन्हें ऩजरअंदा़ज किया और हिकमा का हाथ थामकर आगे बढ़ चला।
‘‘मुझे बटाटा वड़ा नहीं खाना।’’ कबीर ने हिकमा से कहा।
‘क्यों?’ हिकमा ने आश्चर्य से पूछा।
‘‘बस ऐसे ही।’’
‘‘तो क्या खाओगे?’’
‘‘कुछ भी, मगर बटाटा वड़ा नहीं।’’
वे थोड़ा और आगे बढ़े। आगे एक फिश एंड चिप्स की दुकान दिखाई दी।
‘‘फिश एंड चिप्स खाओगे?’’ हिकमा ने पूछा।
‘‘हाँ चलेगा।’’ कहते हुए कबीर हिकमा का हाथ थामे फिश एंड चिप्स की दुकान के भीतर दाखिल हुआ। भीतर जाते ही उसे एक सुखद आश्चर्य हुआ। भीतर लूसी बैठी थी; सेक्सी लूसी, अकेली; फिश एंड चिप्स खाते हुए। कबीर एकबारगी हिकमा को भूल गया। हिकमा का हाथ छोड़कर वह लूसी के बगल में बैठ गया।
‘‘कबीर बॉय... हैव सम चिप्स।’’ लूसी ने कबीर को अपनी प्लेट से चिप्स ऑ़फर किया।
‘‘थैंक यू।’’ कहकर कबीर ने प्लेट से एक चिप उठाया।
फटाक! इससे पहले कि वह चिप अपने मुँह में डाले, उसके बाएँ कंधे पर एक छड़ी पड़ी। कबीर ने घबराकर ऩजरें उठार्इं। उसे सामने एक लेदर सो़फे पर हिकमा बैठी दिखाई दी। डाँडिया की एक छड़ी उसने अपने दायें हाथ में पकड़ी हुई थी। इस बार हिकमा ने स्कूल यूनिफार्म पहनी हुई थी। ग्रे स्कर्ट, वाइट टॉप, ब्लू ब्ले़जर; सिर पर रंग-बिरंगा डि़जाइनर स्का़र्फ बाँधा हुआ था। कबीर उसके पैरों के पास घुटनों के बल बैठा हुआ था, हाथ पीछे बाँधे हुए, गर्दन झुकाए।
‘‘कबीर, क्या तुम्हें लूसी मुझसे ज़्यादा पसंद है?’’ हिकमा ने गुस्से से पूछा।
‘‘सॉरी मैडम।’’ कबीर ने घबराते हुए कहा।
‘‘सॉरी? मतलब वह तुम्हें मुझसे ज़्यादा पसंद है?’’ हिकमा ने उसकी बायीं बाँह पर छड़ी मारी।
‘‘नो मैडम।’’ कबीर की आवा़ज लड़खड़ाने लगी।
‘‘तो फिर तुमने लूसी के लिए मुझे इग्नोर करने की हिम्मत कैसे की?’’
‘‘सॉरी मैडम।’’ कबीर का चेहरा शर्म और अपराधबोध से लाल होने लगा।
‘‘कबीर बॉय डू यू फैंसी मी?’’ अब हिकमा की जगह लूसी ने ले ली।
‘‘यस मैडम।’’
‘‘डू यू वांट टू बी माइ स्लेव?’’
‘‘यस मैडम।’’
‘‘से इट।’’
‘‘आई वांट टू बी योर स्लेव मैडम।’’
‘‘कबीर यू आर माइ स्लेव।’’ अब वहाँ टीना आ गई।
‘‘नो कबीर, यू आर माइ स्लेव।’’ कबीर के कंधे पर हिकमा की छड़ी पड़ी।
‘‘नो कबीर, यू आर माइ स्लेव।’’ लूसी।
‘‘नो कबीर...।’’ टीना।
‘‘नो कबीर...।’’ हिकमा।
‘‘बी माइ स्लेव कबीर; गो अहेड एंड किस माइ फुट।’’ लूसी।
‘‘नो कबीर, यू आर माइ स्लेव, किस माइ फुट।’’ हिकमा की एक और छड़ी पड़ी।
कबीर ने आगे झुकते हुए हिकमा के पैर पर अपने होंठ रख दिए। उसके भीतर एक शॉकवेव सी उठी, और एक अद्भुत आनंद की अनुभूति हुई। ऐसे आनंद की अनुभूति उसे टीना के सीने पर होंठ रखकर भी नहीं हुई थी। अचानक उसे अपनी टाँगों के बीच गीलापन महसूस हुआ। उस गीलेपन में उसकी नींद खुल गई।
अगले दिन कबीर ने तय किया कि वह हिकमा को मनाएगा, उसके सामने अपना दिल खोलकर रख देगा; उसे बताएगा कि वह उसे कितना चाहता है। अगर वह न मानी तो उसके पैर पकड़ लेगा, मगर उसे मनाएगा ज़रूर।
उस दिन कबीर ने हिकमा को कंप्यूटर रूम में अकेले पाया।
‘हाय!’ कबीर ने हिकमा के पास जाकर कहा।
‘हाय!’ हिकमा ने दबी हुई मुस्कान से कहा।
कबीर कुछ देर चुप रहा, फिर अचानक उसने कहा, ‘‘आई लव यू।’’
‘कबीर!’ हिकमा चौंक उठी।
‘‘यस हिकमा, आई रियली लव यू।’’ कबीर ने पूरी हिम्मत बटोरकर कहा।
‘‘तो फिर तुमने मेरा म़जाक क्यों बनाया?’’
‘‘वह कूल ने किया था।’’
‘‘और वह नोट? वह भी कूल ने लिखा था।’’
कबीर ने कुछ नहीं कहा; नीची ऩजरों से हिकमा को देखता रहा।
‘‘कबीर, तुम हम दोनों की बात को किसी तीसरे तक क्यों ले जाते हो? कभी कूल तो कभी टीना।’’
‘‘अब इसमें टीना कहाँ से आ गई?’’ कबीर झँुझला उठा।
‘‘वही तो मैं पूछ रही हूँ; टीना कहाँ से आई?’’
‘‘टीना इ़ज माइ क़िजन्स गर्लफ्रेंड।’’
‘‘तुम्हारा क्या रिश्ता है टीना से?’’
‘‘छोड़ो न यार टीना को।’’
‘‘तुमने छोड़ा है?’’
‘‘मैंने उसे कभी नहीं पकड़ा था; उसी ने मुझे पकड़ा था, जकड़ा था, अपनी ओर खींचा था; मगर मैं उसे छोड़कर भाग आया था... और क्या सुनना चाहती हो तुम?’’ कबीर अपनी झुँझलाहट में चीख उठा।
हिकमा कुछ देर उसे यूँ ही देखती रही... एक निस्तब्ध मौन के साथ; और फिर वही मौन, साथ लपेटे वहाँ से उठकर जाने लगी। कबीर को जब तक यह अहसास होता कि झुँझलाहट में उसने क्या कह दिया, हिकमा उससे का़फी दूर चली गई थी।
कबीर दौड़ा, और हिकमा के पास पहुँचकर उसने घुटनों के बल बैठते हुए हिकमा की टाँगें पकड़ लीं। हिकमा की टाँगें थामते हुए कबीर को यह ख़याल ज़रा भी न आया, कि वे वही टाँगें थीं, जिन्हें उसने न जाने कितनी बार कितनी हसरत भरी निगाहों से देखा था; जिन्हें लेकर न जाने कितनी फैंटसियाँ उसके ख़यालों में मचल चुकी थीं। मगर उस वक्त वे टाँगें किसी फैंटसी का मस्तूल नहीं, बल्कि उसकी बेबसी का सहारा थीं।
‘‘हिकमा आई लव यू, प्ली़ज।’’
‘‘कबीर ये बचपना छोड़ो, मुझे जाने दो।’’ हिकमा ने अपनी टाँगें खींचनी चाहीं, मगर कबीर ने उन्हें और ज़ोरों से जकड़ लिया।
‘‘नो, आई रियली लव यू।’’
‘‘कबीर, यू रियली नीड टू ग्रो अप, नाउ प्ली़ज लीव मी।’’
यू नीड टू ग्रो अप। इतना बहुत था कबीर को उसके घुटनों से उठाने के लिए। वह चार्ली नहीं था, जो उपेक्षा और अपमान सहकर भी घुटनों पर बैठा रहे; जो तिरस्कार में आनंद ले। यदि हिकमा प्रेम से कहती, तो वह उसके पैरों में जीवन बिता देता, उसकी ठोकरें भी सह लेता; मगर यहाँ तो स्वाभिमान को ठोकर मारी गई थी। इस ठोकर को कबीर बर्दाश्त नहीं कर सकता था। उसने हिकमा की टाँगें छोड़ दी
0 Comments