बांकेलाल राठौर, रुस्तम राव और नगीना नीचे उतरे वहां जल रही मध्यम सी रोशनियों को देखकर वे हक्के-बक्के रह गए। कई पलों तक उनके होंठों से बोल ही नहीं फूटा ।

"ये... ये सब क्या है ?" नगीना के होंठों से निकला।

"म्हारे को तो भूतियो घरो लागे हो।" बांकेलाल का हाथ मूंछ पर पहुंच गया।

"धीरे बाप, धीरे! भूत सुनेला तो गला पकड़ेला।"

"अम का डरो हो भूतो से। अम वड दयो भूतो को ।"

"ये तो खतरनाक जगह होईला। "

"देवराज चौहान इधर आया है।" नगीना दांत भींचे कह उठी।

"हां।" रुस्तम राव ने सिर हिलाया।

"तुम्हें उनकी बात समझने में गलती तो नहीं हुई।" नगीना हर तरफ देखती बोली--- "कहीं वो...!"

"अपुन सोहनलाल की कही बात ठीक समझेला है दीदी।"

"छोरे! वो मोन्नो चौधरी न दिखो हो।"

"उस तरफ कोई दरवाजा नजर आ रहा है बड़ा सा ।" नगीना बोली--- "वो उधर गई होगी। आओ वहां चलते हैं।"

"छोरे!" बांकेलाल राठौर के माथे पर बल पड़े--- "उधरो गड़बड़ो हो जायो।"

नगीना दरवाजे वाली दिशा की तरफ बढ़ गई। रुस्तम राव साथ हो गया।

"म्हारे को पाछो को क्यों छोड़ो हो ?" बांकेलाल राठौर जल्दी से उनके बराबर पहुंच गया--- "म्हारी समझ में यो न आयो हो कि सबो को इधरो आणों की का जरूरत पड़ो हो ?"

"दिमाग फिरेला है!" रुस्तम राव की नजर भी हर तरफ जा रही थी--- "मोना चौधरी, देवराज चौहान को खत्म करने के लिए इधर आईला है। उनकी बातों से येई अपुन समझेला है बाप।"

"मोन्नो चौधरी बोत उछलो हो। इसो को ईब अम वड दयो।" बांकेलाल राठौर खतरनाक स्वर में कह उठा।

वे लोग मंदिर के प्रवेश द्वार पर जाकर ठिठके ।

"देवराज चौहान इधरो का करने आयो हो ?" बांकेलाल राठौर दरवाजे के भीतर देखता हुआ बोला।

हर तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। कोई आहट कहीं से न उभर रही थी।

ये खामोश वातावरण किसी का भी दिल जोरों से धड़काने के लिए काफी था ।

"इधर कोई नेई होईला बाप।"

"मोन्नो चौधरी, महाजनो, पारसनाथो, सोहनलाल, देवराज चौहान, जगमोहन कोणों की भी मुश्क न आवे हो यां तो!"

तभी नगीना ने दांत भींचे और भीतर प्रवेश कर गई।

"बहणों।" बांकेलाल राठौर उसके पीछे-पीछे भीतर गया--- "कल्लो-कल्लो भीतर न जायो। खतरों आ जायो।" फिर उसने पलटकर रुस्तम राव को देखा जो दरवाजे के बाहर खड़ा इधर-उधर देख रहा था--- "छोरे, म्हारे पासो आ जायो। भूतो गलो पकड़ लयो।"

रुस्तम राव सोच में डूबा भीतर आ गया।

"ये जगह कैसी है ?" नगीना कह उठी।

"भूतो का घरो हौवे बहणों। बिन पावों के भूतो का डेरो लागे हो।" बांकेलाल राठौर कहकर आगे बढ़ा और सामने के खुले हॉल में जा पहुंचा। वो ये समझने की चेष्टा कर रहा था कि ये जगह क्या है ?

"देवराज चौहान----!" रुस्तम राव गला फाड़कर चीखा।

उसकी आवाज वहां गूंजती चली गई।

"यां पे तो मरो की तरहों सन्नाटो हौवे।"

"मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा कि ये जगह क्या है?" नगीना कह उठी, फिर दाएं-बाएं के रास्तों को देखती हुई कह उठी--- "मैं देवराज चौहान को तलाश करने उधर जा...।" नगीना के शब्द अधूरे रह गए।

उसकी निगाह रुस्तम राव पर जा टिकी थी। रुस्तम राव का चेहरा जैसे लाल सुर्ख होकर धधक रहा था। वो बहुत गुस्से में था, भिंचे दांत। आंखों में सिमटी खूंखारता। वहां की मध्यम सी रोशनी में स्पष्ट नजर आया उसे।

"रुस्तम !" नगीना ने हाथ बढ़ाकर उसका कंधा थामकर जोरों से हिलाया।

बांकेलाल राठौर ने भी उसे देखा तो उसकी आंखें सिकुड़ीं।

"छोरे! थारे को म्हारे होते हुए डर काहे को ... !"

"देवराज चौहान--ऽ ऽ !" रुस्तम राव के गले से गुस्से से कांपती आवाज निकली--- "वायुलाल, अगर देवा को कुछ हुआ तो मैं तुझे नहीं छोड़ूंगा।"

"छोरे, तम किसो वायुलालो को...!"

"आ गया तू त्रिवेणी ?" वायुलाल की सख्त आवाज वहां गूंजी--- "तब तू बच गया था मेरी शक्ति से, वरना आज तू भी रानी के साथ बाहर गेट पर कीला होता। तू....!"

"मुझे हाथ लगाने की तेरे में हिम्मत ही कहां वायुलाल।" रुस्तम राव दहाड़ उठा--- "मिन्नो के इशारे पर तू ये सब कर रहा हैं लेकिन तू अपनी नहीं चला सकता। मैं तेरी जान ले लूंगा। तू जबरदस्ती रानी को अपने पास रखे हुए...।"

"गलत मत बोल त्रिवेणी।" वायुलाल की आवाज में गुस्सा भर आया--- "मंदिर में गलत बात नहीं।"

"गलत तू बोल रहा है।" रुस्तम राव दांत किटकिटा उठा--- "मंदिर को खराब कर रखा है तूने। पूजा और तपस्या की जगह तूने खुद को गलत कामों में व्यस्त कर लिया है। मेरे से तेरा कुछ नहीं छिपा वायु...!"

"खामोश बदतमीज । मैं...।"

"चिल्लाकर तू सच को नहीं छिपा सकता। याद कर वो वक्त जब...।"

"तू मेरी शक्तियों को भूल गया त्रिवेणी।" वायुलाल के गूंजने वाले स्वर में खतरनाक भाव थे--- "तू अच्छी तरह जानता है कि मेरा मुकाबला तू नहीं कर सकता।"

"तेरा मुकाबला करने ही आया हूं। अब तेरी नहीं चलेगी।" रुस्तम राव दहाड़ उठा--- "मैं दोबारा जन्म लेकर तेरे लिए ही यहां पहुंचा हूं। तू...।"

"देवा की मौत के बाद तू क्या कर पाएगा। तू तो...।"

"देवा को मार दिया तूने?" रुस्तम राव गुर्रा उठा ।

“थारे को वड के रख दवागां।"

"मैं क्यों मारूंगा उसे।" वायुलाल के हंसने की आवाज वहां गूंजी--- "उसे तो मेरी मामूली सी शक्ति भी खत्म कर सकती है। वो अब मौत के मुंह से बाहर नहीं आ सकता। वो कभी भी...।"

"जा वायुलाल!" रुस्तम राव गला फाड़कर बोला--- "जा।"

"मैं तो जा ही रहा हूं।" वायुलाल के हंसने की आवाज आई--- "तेरे से अब बात करने की मैं जरूरत नहीं समझता त्रिवेणी । तू बाहर नहीं जा सकता। यहां से कोई बाहर नहीं जा सकता। तू, भंवर सिंह और ये लड़की, यहीं पर तड़प-तड़पकर मर जाएंगे।"

इसके साथ ही वायुलाल की आवाज आनी बंद हो गई।

पैनी चुप्पी छा गई हर तरफ।

रुस्तम राव का चेहरा अभी भी सुलग सा रहा था।

"छोरे !" रुस्तम राव के कंधे पर बांकेलाल राठौर ने हाथ रखकर पूछा--- "का मामलो हौवे। यो वायुलाल कौणो हौवे ?"

"वायुलाल इस मंदिर का बड़ा पुजारी होईला बाप।"

"पुजारी ?" बांकेलाल राठौर की आंखें सिकुड़ीं।

"ये मंदिर है!" नगीना के होंठों से निकला।

"फुरसत में सब बात बताईला दीदी।" एकाएक रुस्तम राव के होंठ भिंच गए--- "अपुन को सब याद आईला पैले जन्म का। इधर अपुन सेफ नेई होईला। अपुन के साथ चलो।" कहने के साथ ही रुस्तम राव उस हॉल के कोने की तरफ बढ़ा।

तभी फर्श पर चल रहा एक चींटा उड़ा और रुस्तम राव की पैंट पर जा बैठा।

"आवो बहना।" बांकेलाल राठौर गंभीरता से कहता हुआ रुस्तम राव की तरफ बढ़ा--- "यो छोरा कुछो दिखावो हो। "

नगीना भी बांकेलाल राठौर के साथ चल पड़ी।

रुस्तम राव हॉल के कोने में जाकर रुका।

वहां चार फीट चौड़ी, चार फीट लंबी सीमेंट की चौकी बनी हुई थी। एक व्यक्ति के बैठने की ये पर्याप्त जगह थी। चौकी पर धूल ही धूल अटी पड़ी थी। रुस्तम राव झुका और चौकी की साइड में हाथ डाला तो उसकी उंगलियां एक खूंटी पर जा अटकी। उसने तर्जनी उंगली खूंटी में फंसाई और जोरों से बाहर की तरफ खींचा।

खूंटी बे-आवाज सी कुछ बाहर आ गई।

रुस्तम राव सीधा खड़ा हो गया।

"यो का करो हो छोरे ?" पास पहुंच चुका रुस्तम राव बोला।

रुस्तम राव कुछ नहीं बोला। चौकी को देखता रहा ।

तभी बेहद मध्यम सी आवाज के साथ चौकी एक तरफ सरकने लगी।

बांकेलाल राठौर चौंका।

नगीना की भी आंखें सिकुड़ गई।

देखते ही देखते चौकी एक तरफ सरक गई। नीचे जाने के लिए सीढ़ियां दिखाई देने लगीं। रुस्तम राव ने पीछे आने का इशारा किया और सीढ़ियां उतरने लगा। दोनों उसके पीछे थे। सोलह सीढ़ियां उतरने के बाद उन्होंने खुद को साधारण से खाली कमरे में पाया। उस कमरे की तीन दीवारों में तीन दरवाजे थे, जो कि खुले हुए थे। रुस्तम राव ने बारी-बारी तीनों दरवाजों को देखा, फिर चौथी वाली दीवार के पास पहुंचकर वहां नजर आ रही खूंटी को हथेली में दबा दिया तो वो खूंटी दीवार में प्रवेश कर गई। इसी के साथ ही ऊपर वो चौकी पुनः अपने स्थान पर आने लगी।

रुस्तम राव के चेहरे पर गंभीरता छाई हुई थी।

तभी रुस्तम राव की पैंट पर चढ़ा चींटा उड़ा और कमरे के कोने में जा पहुंचा। दो पल भी नहीं बीते होंगे कि उस में से धुएं की लकीर निकलने लगी।

"यो कोणो जगहो हौवो छोरे ?" रुस्तम राव से बांकेलाल राठौर ने पूछा।

बांकेलाल राठौर बारी-बारी तीनों दरवाजों को देख रहा था।

"ये बातें बाद में पूछेला बाप! अपने को सोचने दो।"

"का सोचो हो।"

उसी पल नगीना एक दरवाजे की तरफ बढ़ी।

"दीदी!" रुस्तम राव चीखा--- "स्टॉप होईला।"

नगीना ने ठिठककर रुस्तम राव को देखा।

"क्या हुआ ?"

"उधर नेई जाईला।" रुस्तम राव होंठ भींचे कह उठा--- "एक दरवाजे में मौत होईला। दूसरे में हमेशा के लिए कैद होईला। तीसरे में आजादी होईला।"

"यो बात हौवे।" बांकेलाल राठौर का हाथ मूंछ पर पहुंचा--- "तम तो सब जाणो हो कि...!"

"इस बारे में नेई जानेला।" रुस्तम राव का स्वर उलझन से भरा था--- "दिन-रात के हिसाब से तीनों दरवाजों का असर बार-बार चेंज होईला। अपुन इधर बोत देर बाद आईला । अपुन...!"

"ये-ये क्या ?" नगीना की आवाज उभरी।

दोनों ने उधर देखा ।

कोने में चींटे से निकलने वाला धुआं गहरा और ऊंचा हो गया था। फिर देखते ही देखते वो धुआं सोलह बरस के युवक का रूप लेता हुआ सामने था। उस युवक ने धोती और सफेद कमीज पहन रखी थी। चेहरे पर चमक थी। सिर पर गांठ लगी चुटिया पीछे की तरफ लटक रही थी। इस वक्त उसके होंठों पर मध्यम सी मुस्कान थी।

"सत्तू!" रुस्तम राव के होंठों से हैरानी भरा स्वर निकला।

"अब मैं तेरा दोस्त सत्तू ही नहीं, कुछ और भी हूं त्रिवेणी।"

"क... क्या ?"

"इच्छाधारी!"

"इच्छाधारी ?" रुस्तम राव के चेहरे अजीब से भाव उभरे।

नगीना और बांकेलाल राठौर उस कथित इच्छाधारी को, देखे जा रहे थे।

"हां त्रिवेणी!" इच्छाधारी उर्फ सत्तू मुस्कराकर कह उठा--- "जब यहां सब कुछ समाप्त हो रहा था तो मैं सेवा में चला गया। अपने को गुरुवर की सेवा में दे दिया। मेरी गंभीरता को देखते हुए गुरुवर ने मुझे इच्छाधारी की विद्या सिखाई। सवा सौ साल लगे मुझे पूरी तरह ये विद्या सीखने में।"

रुस्तम राव गंभीर हो उठा।

नगीना और बांकेलाल राठौर हैरानी और उलझन से दोनों को देख-सुन रहे थे।

"तू यहां कैसे सत्तू ?" धीमा स्वर था रुस्तम राव का।

"मुझे गुरुवर ने बता दिया था कि वायुलाल फिर कोई खेल खेलने वाला है।" इच्छाधारी ने शांत स्वर में कहा--- "मेरे मन में आया कि मुझे यहां रहकर देखना चाहिए कि क्या होता है। मैं रूप बदलकर यहां आ गया। सब कुछ देखा, सुना। अब मैं जाने की तैयारी कर रहा था कि तुम आ गए। अपने दोस्त को मैं भूल नहीं सका। यानी कि तुम्हें। इसलिए सामने आ गया। तुम भंवर सिंह और नगीना बहन इस वक्त खतरे में हो।"

"खतरे में?"

"हां, अगर मैं नहीं आता तो तुमने गलत दरवाजे में प्रवेश करके हमेशा के लिए कैद हो जाना था।"

"ओह!"

"उसके बाद भंवर सिंह और नगीना बहन ने भी नहीं बचना था।"

"तम अमको जाणो हो ?" बांकेलाल राठौर का हाथ मूंछ पर पहुंचा।

इच्छाधारी मुस्कराया।

"सत्तू को भूल गईला बाप।"

"म्हारे को यादो हौवो तो अम भूलो!"

रुस्तम राव कुछ कहने लगा कि इच्छाधारी ने टोका।

"हमें यहां से चल देना चाहिए। बातें किसी सुरक्षित जगह चलकर होगी।"

"चलो सत्तू।"

इच्छाधारी मुस्कराया और एक दरवाजे के पास पहुंचकर ठिठका ।

"हमें इस दरवाजे के भीतर जाना है।"

रुस्तम राव आगे बढ़ा और दरवाजे के पास पहुंचकर भीतर झांका। उसी पल तेजी से दो कदम पीछे हो गया। उसने गरदन घुमाकर इच्छाधारी को देखा। वो रुस्तम राव को देखता मुस्करा रहा था।

"ये क्या सत्तू ?"

"क्या ?" इच्छाधारी के चेहरे पर छाई मुस्कान गहरी हो गई।

"इस दरवाजे के पार तो कुएं जैसी जगह है। ये- ये..!"

"तुम ठीक कह रहे हो लेकिन अपने दोस्त पर विश्वास करो। यहां तुम तीनों को कुछ नहीं होगा। मैं तुम लोगों की जान बचा रहा हूं। इस वक्त यही रास्ता है बचने का।" इच्छाधारी ने शांत स्वर में कहा।

रुस्तम राव आंखें सिकोड़े इच्छाधारी को देखे जा रहा था।

"मैं तुम पर कैसे विश्वास करूं कि तुम सच कह रहे हो ?" रुस्तम राव शक भरे स्वर में बोला।

"छोरे, यो कोईयो बहरूपियो तो न होवे।"

"बांके भैया ठीक कह रहे हैं रुस्तम।" नगीना कह उठी--- "ये बहरूपिया भी हो सकता है।"

"मेरे बारे में गलत मत सोचो नगीना बहन।" इच्छाधारी बोला, फिर रुस्तम राव को देखा--- "सच बात तो ये है कि गुरुवर ने मुझे पहले ही बता दिया था कि तुम सब मुझे यहां मिलोगे। अस्पष्ट रूप से गुरुवर की भी इच्छा है कि तुम लोगों को यहां से बचाकर ले चलूं।"

"अम किधर ना ही जाणो चाहो। अम देवराज चौहान को बचाणो वास्ते...!"

"यहां से निकोलगे तो देवा को बचाओगे। यही बात गुरुवर ने मुझसे कही थी कि...।"

"अम थारो पर भरोसा न करो हो। तम चल्लो जावो।" बांकेलाल राठौर का स्वर सख्त हो गया।

“त्रिवेणी।" इच्छाधारी ने गंभीर स्वर में कहा--- "मुझ पर भरोसा रखो।"

"भरोसा रखकर हम कुएं जैसी जगह में कूद जाएं।"

रुस्तम राव की आवाज में तीखापन आ गया।

"इसका मतलब मेरी बात नहीं मानोगे ?"

"नहीं।" रुस्तम राव दांत भींचे कह उठा--- "तुम्हारी बात मानने लायक है ही नहीं।"

इच्छाधारी के होंठों पर गहरी मुस्कान उभरी। उसने रुस्तम राव की आंखों में देखा। तभी...।

उन तीनों के देखते ही देखते इच्छाधारी के करीब सफेद रंग का धुआं उभरा और एकाएक वो गायब हो गया।

“किधरो भाग गयो यो ?"

वहां उन तीनों के अलावा कोई नहीं था।

"उसका इस तरह आसानी से चले जाना, ये बात खड़ी करता है कि वो अवश्य हमारे लिए मुसीबत खड़ी करेगा।" नगीना होंठ भींचकर कह उठी।

"अपुन को भी ऐसा ही लगेईला बाप...!"

उसी क्षण वहां हवा चलने लगी।

तीनों चौंके। वहां हवा चलने की कोई वजह नहीं थी।

"यो का हौवो हो ?" बांकेलाल राठौर खुद को संभालता कह उठा।

"इच्छाधारी ही गड़बड़ करेला बाप । वो...!"

"वो हवा बन गया है।" नगीना चीखी--- "हवा बनकर वो हमें उस दरवाजे में धकेलेगा!"

तभी हवा में बला की तेजी आ गई।

वो तीनों खुद को संभालना चाहते थे। हवा की मरजी से बचना चाहते थे परंतु बच न सके। तेज हवा उन्हें धकेलते हुए उन्हें उसी दरवाजे में धकेलती चली गई, जिसमें इच्छाधारी कूदने को कह रहा था। एक-एक करके वे दरवाजे से भीतर गिरते गए। वो कहां गिर रहे हैं, ये जानने से पहले ही उनके होश गुम हो गए थे।

■■■

देवराज चौहान, जगमोहन उस जगह को देखते रह गए थे। जहां से वे भीतर प्रविष्ट हुए थे। अब वहां उन्हें कोई दरवाजा नजर नहीं आ रहा था। जैसे वहां दरवाजा हो ही नहीं।

"फंस गए!" जगमोहन बड़बड़ा उठा।

देवराज चौहान के होंठों पर अजीब-सी मुस्कान उभरी। उसने जगमोहन को देखा।

"फंस तो तब ही गए थे, जब खुदाई के पश्चात उस गेट की सलाखें काटकर भीतर प्रवेश कर आए थे।" देवराज चौहान बोला ।

"सोहनलाल !" जगमोहन ने देवराज चौहान को देखा--- "हमारा इंतजार कर रहा होगा।"

"हां।" देवराज चौहान ने होंठ सिकोड़कर कहा--- "लेकिन हम वापस नहीं जा सकते।"

दोनों की निगाह जंगल में दूर-दूर तक जाने लगी।

उस घने जंगल में चंद पेड़ों के पार देख पाना संभव नहीं था। घने पेड़। पत्तियों से भरी शाखाएं जैसे जमीन को छू रही थीं। पेड़ों की पत्तियां आपस में उलझकर परदा सा लग रही थी। कुछ दूरी के पश्चात जमीन भी स्पष्ट नजर नहीं आ रही थी। धूप जमीन पर नहीं पहुंच पा रही थीं, उन पेड़ों की पत्तियों के झुण्डों की वजह से।

"कहां-किस तरफ चलें ?" जगमोहन आंखें सिकोड़े जंगल में नजरें दौड़ा रहा था।

"कहीं भी चलो।" देवराज चौहान गंभीर था--- "इस वक्त हमारे लिए हर दिशा, हर रास्ता एक जैसा है।"

देवराज चौहान और जगमोहन आगे बढ़ने लगे। कभी रास्ता समतल होता तो कभी उबड़-खाबड़। कुछ आगे जाने पर उन्हें लगा, जैसे वो किसी सुरंग में प्रवेश कर गए हों। ऊपर पेड़ों के किनारे मिल रहे थे और पत्तों जैसी टहनियां नीचे झुकती हुए जमीन को छू रही थीं।

"कैसी मनहूस जगह है।" जगमोहन के होंठों से निकला--- "मुझे तो डर लग रहा है।"

"सतर्क रहो।" देवराज चौहान चलते हुए हर तरफ देख रहा था--- "कभी भी हम मुसीबत में घिर सकते हैं।"

"कैसी मुसीबत ?"

"मैं भी नहीं जानता। लेकिन ये खतरों से भरी जगह लग रही है। रानी ने ऐसा ही तो कहा था। वायुलाल ने भी कहा था कि हम यहां से बचकर बाहर नहीं जा सकते। यानी कि यहां कोई बड़ा खतरा...।"

"अब तो जो होना था हो गया। मैं अभी भी नहीं समझ पा रहा हूं कि तुम यहां पहुंचते ही रानी की बात क्यों मानने लगे।"

"मैं नहीं जानता।"

"क्या मतलब ?"

"मैं नहीं जानता कि मैं रानी की बात क्यों मानने लगा। क्यों वो मुझे ठीक लगी। हर समय ऐसा लगता रहा कि कोई मुझे इस बात का एहसास दिलाता रहा कि रानी ठीक कह रही है। उसकी बात मैं मानूं।"

"मतलब कि उसकी बात नहीं मानना चाहते थे। तुम...!"

"ऐसी बात तो नहीं।"

जगमोहन ने गहरी सांस लेकर देवराज चौहान को देखा।

दोनों सावधानी से आगे बढ़े जा रहे थे।

पांच मिनट बाद ही पेड़ों का सुरंग जैसा रास्ता समाप्त हो गया और उन्होंने खुद को खुले में पाया। सामने काफी बड़ा मैदान था और उसके बाद सूखे पेड़, झाड़ियां और वीरान सी जगह दिखाई दे रही थी।

दोनों ने ठिठककर आसपास देखा।

"अजीब जंगल है। पीछे घना जंगल और आगे सूखा जंगल-- हम...!"

"एक बात तुमने महसूस की ?"

"क्या ?"

"इतनी हरियाली होने के बावजूद भी कोई पक्षी नजर नहीं आया।" देवराज चौहान पलटकर हरे जंगल को देखने लगा। चेहरे पर उलझन के भाव थे--- "यहां तक कि मच्छर, कीट, पतंगा भी नहीं।"

"ओह! ये बात मैंने तुम्हारे कहने से पहले महसूस नहीं की थी, लेकिन तुम ठीक कह रहे हो।" जगमोहन के होंठों से निकला।

देवराज चौहान होंठ सिकोड़े हर तरफ देख रहा था।

"ऐसा क्यों ?"

"मालूम नहीं। मुझे यहां कई बातें अजीब-सी लग...!" देवराज चौहान कहते-कहते रुका।

दूर सूखे जंगल में उसे कोई चलता दिखा। वो जो भी था, वो इतना दूर था कि उसके रंग-रूप को स्पष्ट देख पाना संभव नहीं था।

"क्या हुआ?" देवराज चौहान को एकाएक चुप होते पाकर, जगमोहन कह उठा।

"वो, उधर--इस जगह के पार सूखे जंगल में कोई है।"

"कौन ?"

"यही तो देखना है।" कहने के साथ ही देवराज चौहान दौड़ा।

जगमोहन उसके पीछे भागा।

दोनों ने दौड़ते हुए तीन-चार मिनट में वो खाली जगह पार की और सूखे जंगल जाकर रुक गए। बिलकुल ही सूखा जंगल था। पेड़ गंजे से होकर पूरी तरह सूख चुके थे। यही हाल झाड़िया का था। एक हरा पत्ता भी उन पर नजर नहीं आ रहा था। कम से कम ऐसा सूखा जंगल देखने की उन्होंने कल्पना नहीं की थी। धूप इस तरह सीधी जमीन पर पड़ रही थी कि सबकुछ तपता सा लग रहा था।

"यहां तो कोई नहीं है।" जगमोहन कह उठा।

दोनों पसीने से भीग चुके थे।

"यहीं कहीं देखा था किसी को ?"

"किसको ?"

"मालूम नहीं। किसी के हिलने-डुलने का आभास हुआ था।" देवराज चौहान सिकुड़ चुकी आंखों से हर तरफ देख रहा था--- "ये नहीं समझ पाया कि वो कौन है---आदमी है, औरत है या कोई...!"

तभी उनके कानों में तेज खिलखिलाहट पड़ी।

दोनों फुर्ती से पलटे और देखते ही रह गए।

बेहद खूबसूरत युवती थी वो। सूखे पेड़ के ऊपर की मजबूत टहनी पर वो बैठी टांगें हिला रही थी। धूप में उसका चेहरा चमक रहा था। उसने तेज नीले रंग का चोली-घाघरा पहन रखा था। पांवों में चांदी की भारी पायल पड़ी थी। टांगें हिलने की वजह से कभी-कभार उसकी आवाज गूंज उठती थी।

उन दोनों को इस तरह अपनी तरफ देखते पाकर वो पुनः खिलखिलाई।

"क्यों देवा-जग्गू, मुझे देखकर हैरान हो रहे हो।" वो प्यार भरे मीठे स्वर में कह उठी।

"कौन हो तुम?"

"भूल गए मुझे, मैं जलेबी हूं। पुराना रिश्ता है हमारा। तूने भी नहीं पहचाना जग्गू ?"

"मैं?" जगमोहन हड़बड़ाया--- "मैं क्यों पहचानूंगा?" वो हंसी।

"कमाल है! पहले तो तू मुझे कहा करता था कि मैं वायुलाल को छोड़ दूं तो तू मुझसे ब्याह कर लेगा।" वो बोली।

"ब्याह!"

"हैरान क्यों होता है।"

"मैं तेरे को ऐसा कहता था।"

"जलेबी तेरे से झूठ क्यों बोलेगी जग्गू।"

"तब मैंने पी-पा तो नहीं रखी होती थी ?" जगमोहन ने आंखें सिकोड़कर उसे घूरा।

"तू कहां पीता था रे। मैं तो कई बार तेरे लिए लेकर आती थी। तू वो ही मेरे को पिला देता था, खुद नहीं पीता था।"

जगमोहन, पेड़ की मजबूत टहनी पर बैठी जलेबी को आंखें सिकोड़कर देखने लगा।

"ऐसे मत घूरा कर जग्गू। तेरे से कितनी बार कहा है कि प्यार से मुस्कराकर देखा कर।" जलेबी हौले से हंसकर बोली।

तभी देवराज चौहान जलेबी को देखता हुआ गंभीर स्वर में बोला।

"तुम कौन हो और यहां क्या कर रही हो ?"

"बोला तो, मैं तुम लोगों के पिछले जन्म की पहचान वाली हूं। वो जन्म तुम्हें याद आएगा तो मैं भी याद आ जाऊंगी। रही बात कि मैं यहां क्या कर रही हूं तो सब उस वायुलाल की मेहरबानी है।" जलेबी गहरी सांस लेकर कह उठी।

"स्पष्ट कहो।"

"वायुलाल ने मुझे यहां कैद कर रखा है। बहुत वक्त बीत गया--याद नहीं कितना वक्त बीत गया। उसने मुझे इस तरह सूखे जंगल में कैद कर रखा है कि मैं एक खास दायरे से बाहर नहीं जा सकती। लेकिन अब तुम्हारे पांव पड़ते ही उसके मंत्रों का असर खत्म हो गया। अब मैं इस जंगल में कहीं भी जा सकती हूं।" कहने के साथ ही जलेबी धीरे-धीरे पेड़ से नीचे उतरते हुए कह उठी--- "मैं ये तो जानती थी कि तुम लोगों ने आना है कभी यहां। सच बात तो ये है कि तुम लोगों को यहां आया पाकर मुझे खुशी हुई लेकिन आप क्यों--कैसे? वायुलाल ने क्या किया जो...?"

"मैं रानी की वजह से यहां आया हूं।"

"ओह!" जलेबी कह उठी--- "रानी को आजाद कराने के लिए।" जलेबी नीचे आ पहुंची थी।

"हां।" देवराज चौहान ने उसकी आंखों में देखा।

"मैं जानती हूं रानी वायुलाल के मंत्रों से आजाद कैसे होगी।" जलेबी कह उठी--- "आओ मेरे साथ।"

"कहां ?" जगमोहन के होंठों से निकला।

"पास ही। आधे घंटे में हम वहां पहुंच जाएंगे।" जलेबी ने एक तरफ इशारा किया--- "अभी चल पड़ो तो ठीक रहेगा। वायुलाल ने अभी तुम लोगों को यहां भेजा है। वो असावधान होगा। सोच भी नहीं सकेगा कि तुम लोग वहां पहुंच सकते हो। हमें इस मौके का फायदा उठाना होगा। उसके बाद तुम लोग इस जगह से बाहर निकलो तो मुझे भी साथ ले चलना।"

देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ीं।

"तुम कोई खेल खेल रही हो हमारे साथ।" देवराज चौहान शब्दों को चबाकर कह उठा--- "रानी को वायुलाल के मंत्रों से मैं इस तरह आजाद नहीं करा सकता। रानी ने मुझे स्पष्ट तौर पर कहा था कि यह किसी भयानक खतरे से मुकाबला...।"

"रानी ने ठीक ही तो कहा था।" जलेबी उसकी बात काटकर गंभीर स्वर में कह उठी--- "लेकिन वो ये नहीं जानती होगी कि यहां जलेबी कैद है। तुम लोगों के यहां पांव रखते ही मैं वायुलाल के मंत्रों से आजाद हो जाऊंगी और जंगल में कहीं भी जा सकूंगी और तुम लोगों को फौरन ही ठीक जगह पर पहुंचा दूंगी।"

जलेबी ठीक कहती भी हो सकती थी।

गलत कहती भी हो सकती थी।

उसकी बात माने बिना सच-झूठ को नहीं परखा जा सकता था।

देवराज चौहान की नजरें जगमोहन से मिलीं।

"शक कर रहे हो। मुझ पर विश्वास नहीं।" कहकर जलेबी ने गहरी सांस ली--- "तुम लोगों की गलती नहीं है। इन हालातों में तुम लोग किसी पर विश्वास नहीं कर सकते। पहला जन्म याद होता तो तुम दोनों ने मेरी बात को फौरन मान लेना था। जलेबी-जलेबी कहकर खुश होते। तुम तो बहुत खुश होते जग्गू ।"

"मैं!" जगमोहन जल्दी से एक कदम पीछे हटा।

"तुम्हारी आदत नहीं गई पीछे होने की।" जलेबी हौले हंस पड़ी--- "मैं बिल्ली की तरह झपटती नहीं तुम पर।"

"क्या भरोसा...!" जगमोहन के होंठों से निकला और देवराज चौहान को देखा।

देवराज चौहान के चेहरे पर उलझन थी वो जगमोहन से कह उठा।

"इसकी बात मान लेने के अलावा कोई रास्ता नहीं है।"

जगमोहन के कुछ कहने से पहले ही जलेबी देवराज चौहान से कह उठी।

"देवा! जलेबी कभी भी धोखा नहीं देती। तुम्हें याद होगा कि... नहीं तुम्हें याद नहीं। अब क्या कहूं?"

जगमोहन ने देवराज चौहान को देखते हुए हौले से सिर हिला दिया।

"चलो।" देवराज चौहान बोला--- "हम तुम्हारे साथ चलने को तैयार हैं।"

"आओ।"

वे तीनों उस सूखे जंगल में आगे बढ़ने लगे।

"तुम यहां बरसों से कैद थीं ?"

"हां।"

"खाना कहां से खाती हो ?"

"भूख नहीं लगती।" जलेबी मुस्कराई।

"ये कैसे हो सकता है।"

"वायुलाल के मंत्रों से ऐसा हो सकता है। मैं तब से ही यहां कैद हूं, जब से रानी को उसने मंदिर के गेट पर कील रखा है। उसने मुझ पर ऐसे मंत्र छोड़ रखे हैं कि जिससे भूख नहीं लगती।"

धीरे-धीरे वे उस सूखे जंगल से बाहर निकलते जा रहे थे।

कहीं भी जीवन का कोई चिन्ह नजर नहीं आ रहा था।

"यहां कोई जानवर-कीट-पतंगे जैसा कि जंगल में होता है, नहीं है।"

"हो भी कैसे सकते हैं ?" जलेबी ने गहरी सांस ली--- "ये प्राकृतिक जंगल तो है नहीं। इस जंगल का निर्माण वायुलाल ने अपने मंत्रों से कर रखा है। यहां किसी भी चीज की पैदा नहीं हो सकती। यूं समझो ये वो तस्वीर है जिसके भीतर नजर आने वाले चित्र हिलते नहीं है। असलियत में ये सब चीज नकली है, जो तुम लोग देख रहे हो।"

वे तीनों सूखे जंगल से बाहर निकल आए थे। आगे सूखा-हरा, पत्थरों से भरा सामान्य जंगल का नजारा था। कुछ खाली जगह को पार करने के बाद वे उस जंगल में प्रवेश करते चले गए।

"हम जा कहां रहे हैं?" देवराज चौहान ने पूछा।

"जंगल के इसी हिस्से में जाना है। दस मिनट की बात है वो तालाब आ जाएगा।"

"तालाब !"

"चलते रहो। वहां पहुंचकर बताऊंगी।" जलेबी उत्साह में थी--- "जग्गू ।"

"हां।"

"इस बार हम शादी कर लेंगे।"

"शादी ?" चलते-चलते जगमोहन ने जलेबी को घूरा।

"हां, तुम...।"

"पहले काम, बातें बाद में।" जगमोहन ने आंखें सिकोड़कर उसे देखा--- "मुझे तो तुम्हारा नाम अजीब सा लग रहा है। जलेबी तो चक्करदार, बहुत टेढ़ी होती है। तुम्हारा नाम जलेबी किसने रख दिया।"

"बापू ने रखा था। फुरसत में बैठकर सारी बातें बताऊंगी जग्गू।" जलेबी हंसकर कह उठी।

वे कुछ देर बाद एक तालाब के किनारे पर रुके।

हरे-सूखे पेड़ों के बीच वो छोटा सा तालाब था। पानी उसका शीशे की तरह चमक रहा था।

वहां पानी की मौजूदगी देखकर उन्हें अच्छा लगा।

देवराज चौहान और जगमोहन ने जलेबी को देखा।

जलेबी शांत निगाहों से तालाब के पानी को देख रही थी। फिर बारी-बारी उन दोनों को देखा।

"इस तालाब के भीतर है वो चीज--जिसे बाहर लाकर मंत्र पढ़ने से रानी वायुलाल के मंत्रों से आजाद हो जाएगी।"

"तुम्हें कैसे मालूम?" देवराज चौहान के होंठों से निकला।

"वायुलाल ने ही बताया था, जब उसने मुझे कैद किया।" जलेबी ने गहरी सांस ली--- "उसने ये सोचकर मुझे बता दिया था कि यहां कोई भी कभी नहीं आएगा।  मैं भला किसे बताऊंगी ?"

"क्यों--तुम भी तो उस चीज को बाहर निकालकर, मंत्र पढ़कर रानी को आजाद...।"

"मैं रानी को क्यों आजाद कराऊंगी ?" जलेबी गंभीर स्वर में कह उठी--- "वैसे भी जो चीज तालाब से निकालकर बाहर निकालनी है, उसे अकेला बंदा नहीं निकाल सकता। दो लोगों की जरूरत पड़ती है।"

देवराज चौहान, जगमोहन की नजरें मिलीं।

"वो मंत्र क्या है ?" जगमोहन ने पूछा।

"बता दूंगी, पहले वो चीज बाहर निकालो। ज्यादा गहरा नहीं है तालाब । छः-सात फीट ही गहराई है।" जलेबी ने दोनों को देखते हुए कहा--- "चार फीट लंबा और तीन फीट चौड़ा दूध की तरह सफेद पत्थर तालाब के तल पर पड़ा है, उसे बाहर लाओ। बाहर लाकर उस पत्थर को नीचे नहीं रखना है। वो भारी है। उठाए रखना है। तब मैं तुम लोगों को मंत्र बता दूंगी। वो मंत्र बोलोगे तो ये पत्थर टुकड़े-टुकड़े होकर नीचे गिर जाएगा। इसके साथ ही रानी वायुलाल के मंत्रों से आजाद हो जाएगी।"

वे दोनों जलेबी को देखते रहे।

"मुझे तुम पर विश्वास नहीं।" देवराज चौहान ने कहा ।

"कमाल है देवा! जलेबी के बारे में तुम ऐसा कह रहे हो ? जग्गू तुम ही समझाओ देवा को कि...।"

"मुझे कौन समझाएगा ?" जगमोहन ने होंठ सिकोड़े।

"क्या मतलब ?" जलेबी ने मुंह बनाया--- "मेरी बातों को तुम झूठी समझ रहे हो। ठीक है समझो...मुझे क्या मेरे को तो कोई जरूरत नहीं है रानी को आजाद कराने की। तुम दोनों ही भाग-दौड़ कर रहे हो।" कहने के साथ ही जलेबी पास ही पत्थर पर जा बैठी।

देवराज चौहान और जगमोहन की नजरें मिलीं।

"क्या कहते हो ?" जगमोहन का स्वर गंभीर था ।

"इस वक्त तो हम फंसे हुए हैं।" देवराज चौहान ने तालाब पर नजर मारकर कहा--- "यहां अपनी मरजी करने के लिए हम आजाद नहीं हैं। यहां की चीजों से, बातों से हम अनजान हैं। ऐसे में न चाहते हुए भी हमें इसकी बात माननी पड़े...।"

"मत मानो।" जलेबी हंस पड़ी--- "मेरा कोई फायदा-नुकसान नहीं है। तुम लोग ही रानी को आजाद कराने को कह रहे थे तो मैंने रास्ता बता दिया। मुझ पर विश्वास नहीं तो मजे लो। यहां घूमो-फिरो और भूखे मर जाओ। मुझे तो जग्गू के मरने का अफसोस होगा कि इससे ब्याह नहीं कर सकी।"

जगमोहन ने उसे घूरा फिर देवराज चौहान को देखा।

"हम जलेबी की बात मानेंगे।" देवराज चौहान ने होंठ भींचकर कहा।

जगमोहन के कुछ कहने से पहले ही जलेबी कह उठी।

"मैं जानती थी, मेरी बात मानोगे ही। यहां फंसे पड़े हो, अब नहीं तो कुछ देर बाद मेरी बात मानते, नहीं तो जाओगे कहां ? तुम लोगों का मुझ पर संदेह अपनी जगह ठीक है लेकिन विश्वास करो... मैं तुम दोनों का भला ही कर रही हूं।"

"तालाब में उतरना है?" देवराज चौहान ने पूछा।

"हां, तुम दोनों तालाब में जाओ और नीचे पड़ा सफेद रंग का वो पत्थर उठा लाओ।"

देवराज चौहान ने जगमोहन को आने का इशारा किया और तालाब के पानी की तरफ बढ़ गया।

जगमोहन ने जलेबी को देखा। वो सोच भरी उलझन में था।

"जल्दी से सफेद पत्थर लाओ जग्गू।" जलेबी कह उठी--- "ये काम खत्म करके, यहां से निकलने का कोई रास्ता ढूंढें। थक गई हूं यहां पर कैद रहकर। असली दुनिया में वापस जाना चाहती हूं।"

जगमोहन ने कुछ नहीं कहा। गंभीर निगाहों से देवराज चौहान को देखा जो पानी में उतर चुका था।

"तुम भी मेरे साथ चलो।"

"मैं---पानी में... मुझे तो तैरना भी नहीं आता। डूब गई तो ?" जलेबी हंसी--- "मेरा काम ही क्या है वहां ? तुम दोनों जाओ, जल्दी करो- देवा तो पानी में जा चुका है।"

जगमोहन ने देखा--देवराज चौहान गले तक पानी में उतर चुका है। उसने जगमोहन को देखा।

"आ जाओ।"

जगमोहन तालाब की तरफ बढ़ा। अभी वो किनारे पर पहुंचा ही था कि देवराज चौहान गला फाड़कर चीखा। जगमोहन चौंककर ठिठका ।

"क्या हुआ ?"

"नीचे...!" देवराज चौहान ने खतरनाक नजरों से पत्थर पर बैठी जलेबी को देखा--- "किसी ने अपने मुंह में मेरी टांगें दबा ली हैं। शायद मगरमच्छ है।"

जगमोहन ने दांत भींचकर जलेबी को देखा।

जलेबी के अधरों के बीच जहरीली मुस्कान नाच रही थी।

"तुम-कमीनी...!" जगमोहन ने गुस्से से कहना चाहा। 

तभी देवराज चौहान के होंठों से गला फाड़ने वाली चीख निकली। जगमोहन ने गरदन घुमाकर तालाब की तरफ देखा तो देवराज चौहान को उसने तालाब में जाते देखा। सिर्फ सिर ही सिर नजर आया उसे। ऐसा लगा, जैसे देवराज चौहान को कोई नीचे खींच रहा हो। फिर वो पानी में गुम होता चला गया।

जगमोहन के होंठों से गुर्राहट निकली और वो पलटकर जलेबी की तरफ गुर्राता हुआ बढ़ा।

"मैं तेरे को जिन्दा नहीं छोड़ेगा। तूने...।"

तभी जलेबी पत्थर छोड़कर खड़ी हो गई। वहशी मुस्कान उसके होंठों पर आ ठहरी थी। आंखों में ऐसी चमक थी कि सामने वाला कांप कर रह जाए। जगमोहन पास पहुंच कर जलेबी पर झपटा कि उसने दोनों बांहें आगे करके जगमोहन को कंधों से पकड़कर थाम लिया।

जगमोहन को ऐसा लगा, जैसे किसी लोहे के शिकंजे ने उसके कंधों को जकड़ लिया हो। उसने छटपटाकर खुद को आजाद करवाना चाहा, पर सफल न हो सका। कंधों को तो जलेबी ने थाम रखा था। वो उछला और दोनों टांगें जलेबी के पेट में दे मारी। जलेबी को पेट में चोट का जरा भी असर नहीं हुआ। वो अपनी जगह पर खड़ी, हंस पड़ी।

जगमोहन ने दांत किटकिटाकर खतरनाक चमक से भरे उसके चेहरे को देखा।

"मेरा प्यारा जग्गू।" वो प्यार से बोली और कंधों से पकड़े ही उसे उछाल दिया।

जगमोहन को लगा कि वो हवा में उड़ रहा हो। दूसरे ही पल वो छपाक तालाब के पानी से जा टकराया। पानी में गिरते ही जगमोहन ने खुद को संभाला कि जलेबी का ठहाका गूंज उठा।

"जग्गू, जलेबी हूं मैं--जलेबी! जलेबी कभी भी सीधी नहीं होती मेरे प्यारे।"

"कौन हो तुम ?"

"जलेबी-हा-हा-हा ! यहां की मालकिन हूँ मैं। वायुलाल ने मुझे ढेरों शक्तियां देकर इस जंगल की रखवाली पर लगा दिया और कहा कि अगर यहां कोई आए तो वो जिन्दा न बचे।" उसने दरिन्दगी से कहा।

"ओह!" जगमेहन ने मौत की सी नजरों से उसे देखा--- "तुम हमारी जान ले रही हो।"

"देवा अकेला होता तो जान भी ले लेती उसकी लेकिन साथ में तू है। हाय, तेरे को मैं ज्यादा तकलीफ नहीं दूंगी। तेरे से तो ब्याह करना है मैंने। करेगा न?" जलेबी तालाब के किनारे पर आ बैठी थी--- "तू हमेशा मना कर देता है। मेरी इच्छा की कद्र कर। मैं तेरे को कभी भी कोई तकलीफ न होने दूंगी।"

जगमोहन खुन्दक भरी नजरों से उसे देखता रहा।

"देवा को देख। रानी का प्यार उछाले मार रहा है। दोबारा जन्म लेकर वो आ पहुंचा रानी को कैद से आजाद कराने। वायुलाल से भी टकराएगा। देवा रानी के लिए इतना कर सकता है तो तू मेरे से ब्याह भी नहीं... !"

"नहीं, तेरे जैसी खतरनाक औरत से तो मुझे बात करना भी पसंद...।"

"नकचढ़ा का नकचढ़ा ही रहा तू।" जलेबी हाथ हिलाकर बोली--- "मैं खतरनाक नहीं हूं। मैं तो भोली-भाली जलेबी हूं। ये वायुलाल मुझे इस जंगल का पहरेदार बनाए हुए है। नहीं तो मैं वही...।"

"देवराज चौहान कहां है ?"

"देवा--फिक्र मत कर।" जलेबी हंस पड़ी--- "ठीक है वो। अच्छा ये बता, शादी करता है मेरे से।"

जगमोहन देर तक जलेबी के खूबसूरत चेहरे को घूरता रहा, फिर बोला।

"तेरे से शादी करके मेरे को क्या फायदा... ?"

"बहुत फायदा है। इन सारी मुसीबतों से तू निकल जाएगा जग्गू! वायुलाल को मैं समझा दूंगी। देवा पर भी कोई दिक्कत नहीं आएगी। मेरे साथ बहुत मजे से तू...।"

"रानी भी कैद से आजाद हो जाएगी ?" जगमोहन ने पूछा।

"तेरे को रानी से क्या लेना-देना? तू अपनी सोच, मेरी सोच, हम...।"

"मुझे तेरे से शादी नहीं करनी।"

जलेबी ने जगमोहन को घूरा, फिर मुस्करा पड़ी।

"ठीक है, मरजी तेरी जग्गू! मैंने तो पहले भी जबरदस्ती नहीं की थी और अब भी नहीं करूंगी। हाथ-पांव बांध के तो प्यार होता नहीं। जब तेरे को मेरे से ब्याह करना हो तो बता देना। मैं तेरे पास ही रहूंगी।"

"पास ही...।"

"हां, जरूरत पड़ने पर तू मुझे आवाज दे के भी बुला सकता है।" कहने के साथ ही जलेबी ने अपनी हथेली जगमोहन की तरफ की तो जगमोहन को लगा जैसे कोई उसे सिर से दबाकर पानी में धकेल रहा हो।

देखते ही देखते जगमोहन पानी में डूबता चला गया।

"हा-हा-हा !" जलेबी तालाब को देखते हुए खिलखिलाकर हंस पड़ी--- "जलेबी हूं मैं सीधी-सादी और नरम। जग्गू तेरे को मेरे से ब्याह करना ही पड़ेगा।" फिर वो आगे बढ़ी और तालाब में छलांग लगा दी। देखते ही देखते पानी में गुम होती चली गई।

■■■

तालाब में पानी के भीतर पहुंचते ही जगमोहन के होशो-हवास बिलकुल कायम रहे। उसे ऐसा लग रहा था, जैसे पानी में उसे कोई खींचे जा रहा हो। वो तालाब के नीचे धंसता चला गया। वो जाने कितना गहरा था। कुछ मिनट के बाद उसका शरीर थमा और पास ही पानी की सुरंग जैसी जगह में प्रवेश कर गया। उसके शरीर को जैसे कोई चला रहा था। अपने पर उसका बस नहीं था। उस तंग सुरंग में उसका शरीर किसी रॉकेट की भांति मध्यम सी रफ़्तार में आगे बढ़ा जा रहा था। बीच में मोड़ आने पर उसका शरीर मोटर कार की तरह मुड़ जाता। एक बार भी वो किसी दीवार से नहीं टकराया था। देर तक वो इसी तरह पानी की सुरंग में आगे सरकता रहा।

जगमोहन को थकान होने लगी।

एक वक्त ऐसा भी आया कि थकान से वो बेहोश होता चला गया।

जब उसकी आंख खुली तो देवराज चौहान को अपने पास बैठे पाया।

जगमोहन फौरन उठ बैठा और आस-पास नजरें घुमाने लगा। चेहरे पर उलझन हैरानी थी। खुद को उसने किसी समंदर के किनारे के रेत पर पाया था। दूर किनारे पर बच्चे खेल रहे थे और दूसरी तरफ शहर जैसी बस्ती दिखाई दे रही थी। उसने देवराज चौहान को देखा जो उसे ही देख रहा था।

दोनों की नजरें मिलीं। वो मुस्करा पड़े।

"ये कौन सी जगह है?" जगमोहन के होंठों से निकला।

"मैं कुछ नहीं जानता। आओ देखते हैं।" देवराज चौहान ने समंदर के किनारे बसे छोटे से शहर को देखते हुए कहा।

दोनों उठे और सामने नजर आ रहे शहर की तरफ चल पड़े।

जगमोहन ने जलेबी के बारे में बताया कि वो उससे शादी करने को कह रही थी।

"वो खतरनाक शै है।" देवराज चौहान ने कहा--- "तुम्हें बातों में लगाकर...।"

तभी उनके पीछे, करीब ही मधुर हंसी की आवाज गूंजी।

दोनों ठिठककर पलटे । चार कदमों की दूरी पर खड़ी जलेबी मुस्करा रही थी।

"आ गई।" जगमोहन ने उसे घूरा।

"मैं तो हर वक्त तुम लोगों के पास ही हूं।" जलेबी कह उठी--- "मैंने कहां जाना है, जो आ गई। तुम दोनों को हर जगह घुमाऊंगी। हर वो जगह, जो तुम लोगों के पहले जन्म की है। घूमते ही रहोगे। तुम दोनों की जिम्मेवारी अब मेरी है कि तुम्हें भटकाती रहूं। तुम दोनों को कभी भी अपनी मंजिल पर नहीं...।"

यही वो वक्त था कि देवराज चौहान ने दांत भींचकर जलेबी पर छलांग लगा दी। असावधान थी जलेबी कि दोनों की तरफ से ऐसी कोई हरकत नहीं होगी। देवराज चौहान उससे टकराया और दोनों साथ नीचे गिरते चले गए। नीचे गिरते ही देवराज चौहान ने उसकी गरदन दबाने के लिए हाथ तेजी से आगे बढ़ाया।

उतने में ही जलेबी संभल चुकी थी। वो फुरती से लुढ़कनी खाती चली गई और किसी रबड़ के खिलौने की भांति उछलकर खड़ी हुई और हंस पड़ी।

नीचे पड़े-पड़े देवराज चौहान ने दांत भींचकर जलेबी को देखा।

"वाह रे देवा! बहुत हिम्मत दिखा दी। मैंने सोचा भी नहीं था कि तू इस तरह मुझ पर हाथ डालेगा।"

देवराज चौहान चेहरे पर क्रोध समेटे उठा और मिट्टी वाले हाथ झाड़ने लगा।

"मैं चाहूं तो तेरे को अपनी शक्ति से...!"

यही वो पल था कि देवराज चौहान ने पुनः जलेबी पर छलांग लगा दी।

लेकिन जलेबी असावधान नहीं थी। वो जानती थी कि सामने देवा है, जो कि किसी से डरता नहीं। मौत के सामने भी तनकर खड़ा हो जाता है। जलेबी ने दांत भींचकर, देवराज चौहान को करीब आते रोका। देवराज चौहान को मन ही मन आश्चर्य का झटका लगा। जलेबी में उसने असीम ताकत महसूस की थी।

उसके चेहरे पर हैरानी के भावों को पहचानकर जलेबी मुस्कराई।

"मेरी ताकत देखकर हैरान हो रहा है। ये मेरी ताकत नहीं, वायुलाल की दी शक्तियों की ताकत है। जब तक मैं आजाद हूं, तेरे जैसे हजार देवा भी आ जाएं तो मेरा मुकाबला नहीं कर सकते।" जलेबी हौले से हंसी--- "अगर मुझे हराना चाहता है तो मेरे शरीर का कोई भी हिस्सा जकड़ ले देवा। जब तक मैं किसी की पकड़ में रहूंगी, वायुलाल की दी शक्तियां बेअसर हो जाएंगी। मेरे आजाद होने पर ही ये शक्तियां काम करती हैं।" कहने के साथ ही जलेबी ने देवराज चौहान की छाती से हाथ हटाया और घूंसे के रूप में उसके गाल पर जा पड़ा।

देवराज चौहान को लगा जैसे लोहे का घूंसा जड़ दिया गया हो ।

वो चार कदम दूर जा गिरा ।

ये देखकर जगमोहन के होंठों से गुर्राहट निकली। उसने जलेबी पर झपटना चाहा कि देवराज चौहान ने उसे इशारे से रोका और अपना गाल मसलते हुए उठ खड़ा हुआ। उसकी खतरनाक निगाह जलेबी पर टिक चुकी थी। जलेबी व्यंग भरी मुस्कान के साथ, कमर पर हाथ रखे उसे देख रही थी।

"आ-देखता क्या है ?" जलेबी ने हंसी उड़ाने वाले स्वर में कहा।

"साली के हाथ-पांव तोड़ दे।" गुस्से से भड़क उठा जगमोहन ।

इसी पल देवराज चौहान जलेबी की तरफ दौड़ा। जलेबी को पूरी आशा थी कि वो अवश्य ऐसी कोई हरकत करेगा। वो फुरती से एक तरफ हुई। तभी देवराज चौहान ने किसी तरह खुद को रोका और जिधर जलेबी हुई थी, उसी तरफ छलांग लगा दी।

सीधा जलेबी से जा टकराया।

दोनों नीचे गिरे।

जलेबी ने फुरती से उठना चाहा। देवराज चौहान से दूर होना चाहा कि देवराज चौहान ने बाज की तरह झपट्टा मारा और पंजे में उसकी गरदन जकड़ ली। देवराज चौहान अब उसे कोई मौका नहीं देना चाहता था। जलेबी की कही बात उसे याद थी कि जब तक वो पकड़ में रहेगी, वायुलाल की दी शक्ति का इस्तेमाल नहीं कर पाएगी और साधारण युवती बनकर रह जाएगी।

जलेबी छटपटाई परंतु खुद को छुड़ा नहीं सकी।

"तुम्हारे पास वायुलाल की दी बहुत ताकत है।" जगमोहन गुर्राया--- "इस्तेमाल कर उस ताकत को। "

जलेबी का चेहरा गला दबने से सुर्ख सा हो रहा था।

"मैं आजाद रहकर ही वायुलाल की दी ताकत का इस्तेमाल कर सकती हूं।" जलेबी फंसे स्वर में कह उठी--- "जग्गू तू तो मेरा ध्यान कर। देवा से मुझे बचा। देख, मैंने तेरी भी जान नहीं ली। देवा की भी नहीं ली, चाहती तो दोनों को खत्म कर सकती थी। मेरे साथ ऐसा सख्त सलूक मत...!"

"रानी को मैंने वायुलाल के मंत्रों से आजाद कराना है।" देवराज चौहान उसका गला दबाते हुए बेहद कठोर स्वर में कह उठा--- "बता मेरा काम कैसे होगा ?"

"नहीं हो सकता देवा।" वो फंसे स्वर में बोली।

"क्यों ?'

"उस जंगल की ताकत मैं हूं। जब तक मैं जिंदा हूं, रानी आजाद नहीं हो सकती।"

"मतलब कि तेरे मरते ही रानी आजाद हो जाएगी।"

"हां, लेकिन मुझे मत मारना। मैं तो सीधी-सादी जलेबी...!"

"तू जिन्दा रहे या मरे। मुझे इस बात से कोई मतलब नहीं।" देवराज चौहान गुर्राया--- "मैं रानी को आजाद कराना चाहता हूं। अगर वो तेरी मौत से आजाद होगी तो...!"

"रहम करो मुझ पर देवा---मैं...!"

"कोई दूसरा रास्ता है रानी को वायुलाल के मंत्रों से आजाद...!"

"नहीं, कोई रास्ता नहीं है।" जलेबी अपना गला छुड़ाने की चेष्टा करते कह उठी--- "मेरी मौत ही, रानी की आजादी है। मैं मरना नहीं चाहती। वायुलाल ने मुझे जबरदस्ती जंगल की ताकत बना...!"

देवराज चौहान जलेबी का गला दबाने लगा।

जलेबी छटपटा उठी। जोर-जोर से हाथ-पांव पटकने लगी। चेहरा सुर्ख हो उठा था सांस दबने से ।

तभी सामने की तरफ से चार-पांच लोग दौड़ते हुए इसी तरफ आ रहे थे।

उन्हें आते पाकर जगमोहन की आंखें सिकुड़ीं ।

"कुछ लोग इधर आ रहे हैं।" जगमोहन जल्दी से कह उठा।

देवराज चौहान का पूरा ध्यान जलेबी पर था। पूरी ताकत से वो गला दबाने लगा। जलेबी पर से उसने जरा भी ध्यान नहीं हटाया था। वो जानता था कि जलेबी को मौका मिल गया तो वो वायुलाल की दी शक्तियों का इस्तेमाल करके उन्हें खत्म करने में देर नहीं लगाएगी।

"ऐ-ये क्या कर रहे हो। क्यों औरत की जान ले रहे हो ?" भागकर इधर आते आदमियों में से एक चीखा।

जलेबी की आंखें फटकर फैल गई थीं।

"छोड़ दो इसे।" दूसरा आदमी चीखा।

वे लोग सिर पर पहुंचते जा रहे थे।

जगमोहन ने दोनों हाथ कमर पर रखे और आगे बढ़कर वो इस तरह खड़ा हो गया कि भागकर आते लोग एकाएक देवराज चौहान के सिर पर न पहुंच सकें।

तभी जलेबी जोरों से तड़पी, खुद को छुड़ाने की पूरी कोशिश की फिर शांत पड़ती चली गई। उसकी फटी हुई आंखें फटी रह गई थी।

"मार दिया औरत को।"

दांत भींचे देवराज चौहान ने गरदन घुमाकर पीछे देखा तो वे लोग चंद कदमों की दूरी पर ही थे।

तभी देवराज चौहान और जगमोहन के मस्तिष्कों को तीव्र झटका लगा। कुछ पलों के लिए उन्हें ऐसा लगा जैसे वे बेहोशी की गर्त में डूबे जा रहे हो ।

चंद पल ही बीते होंगे कि उन्होंने खुद को सामान्य स्थिती में पाया। परंतु पूरी तरह होश आते ही देवराज चौहान जगमोहन हक्के-बक्के रह गए। उन्होंने खुद को मंदिर के उसी हॉल में पाया जहां से वे चले थे।

"ये क्या ?" जगमोहन हर तरफ नज़रें दौड़ाता हुआ हैरानी से कह उठा--- "हम मंदिर में कैसे आ गए ?"

"शायद जलेबी के मरने की वजह से।" देवराज चौहान शब्दों को चबाकर कह उठा--- "जलेबी के द्वारा मायावी शक्तियों ने हमें घेर लिया था। उसके मरते ही हम आजाद हो...।"

"देवा !" तभी रानी की फुसफुसाहट, देवराज चौहान को अपने कानों में महसूस हुई।

"रा-नी!" देवराज चौहान के होंठों से निकला।

"मैं जानती थी कि देवा मुझे आजाद कराएगा।" रानी की आवाज में दुनिया भर की प्रसन्नता थी--- "मैं आजाद हो गई देवा ! देवा मैं  सैकड़ों बरसों के बाद आजाद हो गई। मेरी आजादी की चाबी वायुलाल ने जलेबी की जान के साथ बांधकर जलेबी को शक्तियां दे दी थी कि वो सबका मुकाबला कर सके। लेकिन तुमने अचानक उसका गला पकड़ लिया। वो बेवकूफ भी नादानी में तुम्हारे पास आ गई थी।"

"मुझे जलेबी की मौत का दुख है।" देवराज चौहान ने गहरी सांस ली--- "मैं...।"

"दुख कैसा देवा! तुमने उसकी जान नहीं ली।"

"मैंने उसका गला दबाया...।"

रानी के हंसने की आवाज देवराज चौहान के कानों में पड़ी।

जगमोहन आंखें सिकोड़े देवराज चौहान को बातें करते देख रहा था।

"तुमने जलेबी की नहीं, बल्कि वायुलाल की शक्तियों की हत्या की है, जो उसने जलेबी के शरीर में डालकर उसे जंगल की पहरेदारी पर बिठा दिया था। वो जिन्दा है बहुत जल्दी तुम जलेबी से मिलोगे।"

"ओह!"

"अब बहुत खतरे सामने आ रहे हैं देवा। तुम्हारे पीछे-पीछे मिन्नो, परसू और नीलसिंह भी आ गए।"

"क्या ?" देवराज चौहान चौंका— “मोना चौधरी यहां...।"

"हां देवा! उसे तो आना ही था।" रानी का गम्भीर स्वर कानों में पड़ा--- 'वायुलाल ने मिन्नो, परसू और नीलसिंह का स्वागत किया। उन्हें अपने पास बुला लिया। अब फिर साजिशों का जन्म होगा। लेकिन फिक्र की कोई बात नहीं अब मेरे पास भी शक्तियां है। मैं आजाद हूं। वो हमसे जीत नहीं सकेंगे। उनके साथ गुलचंद भी है। "

"सोहनलाल ! ओह...! उसे हम बाहर छोड़ आए थे।" देवराज चौहान के होंठों से निकला--- "उन लोगों ने यहां पहुंच कर, सोहनलाल को अपने कब्जे में ले लिया...लेकिन मोना चौधरी यहां पहुंची कैसे ?"

“ये मैं नहीं जानती।" रानी की फुसफुसाहट पुनः कानों में पड़ी--- "तुम्हारे काम की खबर ये भी है देवा कि त्रिवेणी और भंवर सिंह के साथ नगीना भी मंदिर में आ चुके हैं।"

"नगीना ?" देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ीं।

"हां! तुम्हारी इस जन्म की पत्नी ।"

देवराज चौहान के होंठों से कुछ न निकला।

"त्रिवेणी, भंवर सिंह, नगीना के साथ मंदिर में आए थे, वे कहां गए। मैं नहीं जानती। तब मैं व्यस्त थी। लेकिन इतना जानती हूं कि त्रिवेणी को अपने पूर्वजन्म की याद आ...।"

"तुम वायुलाल के मंत्रों से आजाद हो चुकी हो।"

"तो ?"

"फिर नजर क्यों नहीं आ रही।"

"मुझे कवच से मुक्त कराओगे तो देख सकोगे।" रानी का मुस्कराता स्वर देवराज चौहान के कानों में पड़ा--- "वो देखो, इस मंदिर के हॉल के सामने वाले कोने में एक दरवाजा नजर आ रहा है।"

देवराज चौहान ने उधर देखा ।

उसे देखते पाकर जगमोहन ने भी देखा।

मध्यम रोशनी में उन्हें दरवाजा बंद दिखा।

"हां।"

"उधर बढ़ो। दरवाजा खोलो। मैं उसके भीतर हूं...।"

"भीतर...।"

"आगे चलो देवा ।"

देवराज चौहान ने जगमोहन को देखकर गम्भीर स्वर में कहा।

"उस दरवाजे वाले कमरे में रानी है। वहां चलो। वहां वो हमें नजर आएगी।" गंभीर स्वर में कहते हुए वो आगे बढ़ गया।

जगमोहन होंठ सिकोड़े, बेमन वाले ढंग में पीछे चल पड़ा।

“मुझे।" देवराज चौहान बोला--- "ये सब बातें पूरी तरह समझ में नहीं आ रही कि...।"

"देवा!" उसकी बात पूरी होने से पहले ही रानी की फुसफुसाहट कानों में पड़ी--- "अब तुम्हें अपने पूर्वजन्म की बातें याद आने वाली हैं। जब तुम मुझे सामने देखोगे तो सब कुछ उसी पल याद आ जाएगा।"

"ओह!"

वे दोनों दरवाजे पर पहुंचे।

"तुम!" जगमोहन ने गम्भीर स्वर में कहा--- “बेवकूफों की तरह उस आवाज की बात मानते जा रहे हो, जिसे देखा भी नहीं। ये भी जानते हो कि यहां पर किसी पर विश्वास करना अपनी जान गंवाने के बराबर है।"

"जगमोहन!" देवराज चौहान ने मुस्कराकर उसे देखा--- "रानी हमें नज़र आने वाली है।"

जगमोहन गम्भीर नज़रों से उसे देखता रहा।

"वो सामने होगी। उसकी बातें सुनेंगे। समझेंगे। तब तुम जो भी ठीक बात कहोगे मैं तुम्हारी मानूंगा। उसके सामने आते ही मुझे पूर्वजन्म का सब कुछ याद आ जाएगा। ऐसा रानी ने कहा।"

जगमोहन के चेहरे पर गंभीरता नजर आती रही। कहा कुछ नहीं। वो बेचैन सा हो उठता था रह-रहकर।

"देवराज चौहान ने हाथ आगे बढ़ाया और दरवाजे के पल्लों को धकेला। वो लकड़ी के भारी पल्ले थे। एक हाथ से जरा सा धक्का देने पर वो जरा से हिले और थम गए। देवराज चौहान ने दोनों हाथ पल्लों पर रखे और जोर से धक्का दिया। पल्लों को हल्का सा झटका लगा फिर वे खुलते चले गए।

कमरा दिखा। फर्श धूल से अटा पड़ा था। भीतर मध्यम सी रोशनी हो रही थी। वो भीतर प्रवेश कर गए। पूरा कमरा खाली था। कमरे की एक दीवार के पास लोहे का बुत खड़ा था। जो कि वक्त के साथ-साथ धूल में अटा नज़र आ रहा था।

"यहां तो इस बुत के अलावा कुछ नहीं है।" जगमोहन के होंठों से निकला।

देवराज चौहान उसी बुत को देखे जा रहा था। फिर उसकी तरफ बढ़ा।

"देवा।" वायुलाल का गुस्से से भरा स्वर कमरे में गूंज उठा--- "तुझे मेरा डर नहीं रहा।"

देवराज चौहान ठिठका।

जगमोहन ने कमरे में नजरें दौड़ाईं।

"वायुलाल।"

"तू मेरे दुश्मन को आजाद कर रहा है, वो भी मेरी जगह पर आकर...।"

"तुझे डर लग रहा है वायुलाल ?" देवराज चौहान ने तीखे स्वर में कहा।

"हां! मुझे इस बात का डर लग रहा है कि मेरे हाथों तू लाशें गिरवाएगा। खून-खराबा होगा देवा और उसका सिर्फ तू ही जिम्मेवार होगा। तू... ।"

"तूने तो मुझे मौत के मुंह में भेज दिया था वायुलाल।" देवराज चौहान एकाएक दांत भींचकर बोला।

"क्योंकि तुमने मेरी बात नहीं मानी थी देवा ! वरना तेरी-मेरी क्या दुश्मनी।"

"मुझे जंगल में भेजकर तूने दुश्मनी तो पैदा कर ली वायुलाल । मैं...।"

"देवराज चौहान...!" तभी मोना चौधरी की दरिन्दगी से भरी आवाज गूंजी--- "इस बार तू बच नहीं सकेगा।"

"मोना चौधरी!" देवराज चौहान के होंठों से निकला।

"ये यहां कैसे ?" जगमोहन के दांत भिंचते चले गए--- "वो भी वायुलाल के साथ।"

दोनों की नज़रें हर तरफ घूमी ।

"मेरे रास्ते में मत आओ मोना चौधरी !" एकाएक देवराज चौहान के होंठों से खतरनाक आवाज निकली--- "वरना...।"

"हमारे रास्ते अभी भी जुदा हो सकते हैं देवराज चौहान।" मोना चौधरी का दरिन्दगी भरा स्वर दोनों के कानों में पड़ा--- "इसके लिए तुम्हें अभी इसी वक्त इस कमरे से बाहर निकलना होगा और दोबारा कभी इस कमरे में नहीं आओगे। रानी का खयाल अपने मन से निकाल लो।"

"नहीं।" देवराज चौहान के दांत भिंच गए--- "मेरे कदम जिस काम के लिए बढ़ चुके हैं, उसे किए बिना वापस नहीं...।"

"मिन्नो!" तभी वायुलाल का मौत से भरा स्वर गूंजा--- "देवा नहीं मानेगा। यह हमसे झगड़ा करके ही रहेगा। अब जो भी खून खराबा होगा, देवा की वजह से होगा---ये ही जिम्मेदार होगा।"

"ठीक है वायुलाल।" मोना चौधरी के दांत किटकिटाने का स्वर देवराज चौहान और जगमोहन ने स्पष्ट सुना--- "ऐसा है तो ऐसा ही सही । देवराज चौहान का अंतिम वक्त आ चुका है। तुम देखना मैं इसे तड़पा-तड़पा कर...।"

"खामोश!" जगमोहन के होंठों से गुर्राहट निकली। वो चीख उठा--- "जुबान को लगाम दे और रास्ता बदल ले। हमारे रास्ते में आई तो दोबारा पैदा होने के नाम से भी थर-थर कांपेगी।"

"इस बात का फैसला तो आने वाला वक्त करेगा।" मोना चौधरी के वहशी स्वर के साथ ही उसकी आवाज पुनः नहीं आई।

देवराज चौहान के दांत भिंचे हुए थे।

जगमोहन का चेहरा भी गुस्से से धधक रहा था।

"देवा!" रानी की फुसफुसाहट उसके कानों में पड़ी--- "तुम फिक्र मत करो। मुझे मेरा शरीर मिल जाने दो। तब मेरी शक्तियां पूर्ण हो जाएंगी। फिर...।"

"रानी! मैं वायुलाल या मोना चौधरी से डरता नहीं जो...।"

"मैं जानती हूं मेरा देवा किसी से नहीं डरता।" रानी की फुसफुसाहट में छोटी सी हंसी भर आई।

"तुम्हारा शरीर यहां, कहां...।" देवराज चौहान ने कहना चाहा।

"आगे बढ़ो देवा ! जिसे तुम लोहे का बुत समझ रहे हो, उसके भीतर मैं ही हूं। मेरे शरीर पर लोहे का कवच डाल रखा है। कवच पर वायुलाल ने ऐसे मंत्र छोड़ रखे हैं कि मेरा शरीर खराब न हो सके। उस कवच को मेरे शरीर से अलग करो।" रानी की आवाज में उत्तेजना भर आई थी।

देवराज चौहान बुत की तरफ बढ़ते हुए बोला।

"जगमोहन ! ये बुत नहीं, रानी ही है। रानी के शरीर पर लोहे का कवच डाल रखा है। इस कवच को हमने हटाना हैं। इस तरह कि इसके भीतर मौजूद रानी के शरीर को कोई तकलीफ न हो।"

पाठकों, जैसा कि आप देख रहे हैं कि अजीबों-गरीब हादसों की दास्तान शुरू होने जा रही है और पृष्ठ संख्या पूरी होने को है। यानी कि अनसुलझे, उलझन से भरे सवालों का जवाब आपको मेरे आगामी उपन्यास 'इच्छाधारी' में मिलेगा। जैसे कि रानी कौन थी ? हकीकत में उसके साथ क्या हुआ था ? देवराज चौहान और रानी का आपस में क्या रिश्ता था? वायुलाल जो कि उस मंदिर का बड़ा पुजारी था, उसका रानी से क्या वास्ता था ? क्या चाहता था वो रानी से ? क्यों उसने रानी को मंदिर के गेट पर अपने मंत्रों के दम पर कील दिया था? क्या हुआ था, तब ? ऐसा कौन सा तूफान उभरा था कि सब कुछ वहीं का वहीं थम सा गया था। रुस्तम राव, नगीना और बांकेलाल राठौर के साथ क्या हुआ? इच्छाधारी ने उन्हें ऐसे दरवाजे में गिरने को मजबूर कर दिया था जो कि कुएं जैसा था। क्या वो सच में रुस्तम राव का दोस्त था या वो वायुलाल की कोई चाल थी ? सोहनलाल और गंगूदास में क्या हुआ? वो दोनों दोस्त थे, पुराने थे तो क्या गंगूदास ने वायुलाल की कोई राज़ की बात बताई ? जलेबी-जिसे कि अपनी तरफ से देवराज चौहान ने मार दिया था। क्या वो सच में मर गई थी या फिर उसे भी आजादी मिल गई थी ? मंदिर के रास्ते वे सब पूर्वजन्म की दुनिया में जा पहुंचे थे। क्या वो कभी वहां से बाहर निकल सकेंगे ? जिन्दा बच सकेंगे? वायुलाल मोना चौधरी का पढ़ाया बंदा था। मोना चौधरी तो पहले से ही देवराज चौहान को मारने के लिए भागी-दौड़ी फिर रही थी। वायुलाल का साथ मिलने पर वो और भी खतरनाक हो गई थी, लेकिन उधर रानी वायुलाल के मंत्रों से मुक्त होकर, अपना शरीर पा चुकी थी और रानी के पास भी शक्तियां थीं। वो वायुलाल और मोना चौधरी के मुकाबले पर खड़ी हो सकती थी। यानी कि मौत भरी हवा चलनी तो अब शुरू होगी। ऐसे और भी ढेरों सवालों का जवाब पाने के लिए पढ़ें आगामी सैट में प्रकाशित अनिल मोहन का नया उपन्यास 'इच्छाधारी' अब आगे।

दोनों पास पहुंचे और उस लोहे के कवच को हटाने लगे। कहीं पर कवच छोटे-छोटे टुकड़ों से बना हुआ था तो कहीं पर बड़े टुकड़ों से। वे छोटे-बड़े लोहे के टुकड़े हटाते चले गए। नीचे से रानी का शरीर नज़र आने लगा।

बेहद खूबसूरत! अति सुंदर था उसका चेहरा। लंबे कूल्हों तक जाते बाल। चुटिया कर रखी थी। गोरा रंग, कानों में लटकते झुमके, नाक में चमकता कोका। कपड़ों के नाम पर उसने कूल्हों पर सफेद रंग का सूती कपड़ा लपेट रखा था । वक्षों पर वैसा ही सफेद कपड़ा लपेटकर उन्हें बांधा हुआ था। पैर के अंगूठे से लेकर माथे तक वो इतनी गोरी और खूबसूरत थी कि उसे हाथ लगाकर मैला करने का मन नहीं करेगा। जैसे वो किसी कलाकार की खास कृति हो। समंदर का सबसे अनमोल मोती हो। ऐसी थी वो।

लोहे के कवच के टुकड़े हट चुके थे। वो सामने खड़ी थी। आंखें बंद थीं। ऐसा लग रहा था, जैसे गहरी नींद में हो वो। देवराज चौहान और जगमोहन उस चेहरे को देखते रह गए थे।

"देवा!" देवराज चौहान के कानों में रानी की कंपकंपाती फुसफुसाहट गूंजी--- "पीछे हट जाओ। मैं आजाद हो चुकी हूं। मेरा शरीर सामने है। मुझे अपने शरीर में प्रवेश कर लेने दो।"

देवराज चौहान ने पास खड़े जगमोहन का हाथ पकड़ा और धीरे-धीरे पीछे हटने लगा।

"क्या हुआ?" जगमोहन ने देवराज चौहान के गम्भीर हो चुके चेहरे पर निगाह मारी।

"रानी अपने शरीर में प्रवेश करने जा रही है। हमें पीछे हटना होगा। उसने ऐसा कहा ।"

"ओह!"

दोनों पीछे होते हुए दस कदम पीछे हो गए। ठिठके ।

उनकी निगाह रानी के शरीर पर थी।

चुप्पी रही कमरे में। मिनट भर बीता कि एकाएक रानी का शरीर हिला। बेहद तीव्र कम्पन हुआ, फिर धीरे-धीरे शरीर के बाकी हिस्से हिलने लगे। पलकें हिलीं। फिर पलकें खुलने लगीं।

देवराज चौहान और जगमोहन की निगाह एकटक, उन थरथराती पलकों पर थीं।

पलकें खुलीं।

चमक रही थीं आंखें। उन आंखों के खुलते ही जैसे चेहरे की खूबसूरती सैकड़ों गुणा बढ़ गई हो। पलकें कई बार झपकीं, फिर खुली और देवराज चौहान की आंखों में झांका। इसके साथ ही रानी के होंठों पर प्यार भरी मधुर मुस्कान आ ठहरी ।

जगमोहन हक्का-बक्का सा रानी को देख रहा था।

रानी की नजरों से नजरें मिलते ही देवराज चौहान के मस्तिष्क को तीव्र झटका लगा। एकाएक उसे लगा जैसे नींद से उठा हो । सपने से जागा हो। खुद को बहुत हल्का-सा महसूस किया उसने। देवराज चौहान ने कई बार पलकें झपकाईं। होंठ हिले। वो कुछ कहने लगा कि जगमोहन बोला।

"ये है रानी ?" कहने के साथ ही जगमोहन ने देवराज चौहान पर नजर मारी।

देवराज चौहान ने उसी पल गरदन हिलाकर जगमोहन को देखा ।

"क्या बात करता है जग्गू! तू रानी को नहीं जानता जो ये बात पूछ रहा है ?"

"जग्गू ?" जगमोहन चौंककर चिहुंक उठा।

देवराज चौहान ने रानी को देखा।

रानी मुस्कराई। उसके होंठ हिले फिर कोमल होंठों से निकला।

"देवा!"

"रानी !"

"देवा!"

"रा...नी...!" देवराज चौहान भागता हुआ रानी के पास पहुंचा और उसे अपनी आगोश में लेकर, भींचकर पागलों की तरह चूमने लगा।

यही हाल रानी का था। वो भी देवराज चौहान को भींचे उसमें समा जाने की कोशिश कर रही थी।

जगमोहन हक्का-बक्का सा ये सब देखने लगा।

"देवराज चौहान!" जगमोहन हड़बड़ाकर बोला--- "ये क्या कर रहा है। नगीना भाभी को पता चल गया तो...!"

देवराज चौहान और रानी को होश ही कहां था ।

वे दोनों तो किसी दूसरी ही दुनिया में खो चुके थे।

तभी देवराज चौहान ने रानी को अपने से जुदा किया। उसकी आंखों में पानी चमक रहा था।

"रानी!" देवराज चौहान भीगे स्वर में कह उठा।

"रानी नहीं मेरे सरताज।" रानी के होंठों से कंपकंपाता स्वर निकला --- "देव-दासी! मैं...।"

"नहीं रानी नहीं। तू-तू मेरी रानी है । मेरी...!"

“ऐ रानी-तू क्यों देवा को बिगाड़ती है, चल पीछे हट । तेरे को कितनी बार कहा है कि देवा को हाथ मत लगाया कर।"

रानी ने देवराज चौहान से नजरें हटाकर, जगमोहन को देखा तो खिलखिला उठी। मोतियों जैसे दांत चमक उठे। वो देवराज चौहान की बांह हिलाकर बोली।

"देवा! देख तो जग्गू को भी पहले जन्म का सब कुछ याद आ गया। कैसे घूर रहा है मुझे ?"

देवराज चौहान ने भी गरदन घुमाकर पीछे देखा तो ठठाकर हंस पड़ा।

जगमोहन गरदन टेढ़ी किए, आंखें सिकोड़े रानी को घूर रहा था।

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