बेदी नाश्ता कर रहा था। शुक्रा और जय नारायण ने भीतर प्रवेश किया तो बर्तनों में डाल रखा शुक्रा का नाश्ता उदयवीर ने उसे थमा दिया।
शुक्रा नाश्ता शुरू करते हुए ठोस लहजे में बोला।
“विजय, तुम शांता से शादी करोगे, आज ही...!"
"फिर वही....।" बेदी ने गुस्से से कहना चाहा।
"सुनते रहो, बीच में मत बोलो।" शुक्रा की निगाह बेदी के चेहरे पर जा टिकी--- "रात हममें बात हो चुकी है कि तुम शांता को बेवकूफ बनाने के लिये उससे शादी करने को तैयार हो। उसके बाद उससे आस्था को हासिल कर लोगे। लेकिन तुममें इतनी हिम्मत नहीं कि शांता को गोली मारकर उस जैसी खतरनाक गैंगस्टर युवती से अपना पीछा छुड़ा सको। यहीं पर आकर हर बार हमारी बात खत्म हो रही है, ठीक बोला मैंने।"
बेदी की निगाह शुक्रा के दृढ़ता भरे चेहरे पर टिकी रही।
"मुझे जवाब देता रह, ताकि मैं आगे भी कहता रहूं।"
"हां।" बेदी के होंठ हिले ।
"शांता को यह इंस्पेक्टर गोली मारेगा।"
"क्या?" बेदी चौंक कर हड़बड़ा उठा।
"हां, जो काम तुम्हारे बस का नहीं, जहां आकर सारा मामला बार-बार रुक रहा है। वो मामला ये पुलिस वाला निपट लेगा। यानी कि सब कुछ ठीक हो जायेगा।" शुक्रा सोच भरे स्वर में कह रहा था— “लेकिन इस काम में इंस्पेक्टर को तेरी सहायता की सख्त जरूरत है। वरना यह शांता को शूट नहीं कर सकेगा।"
"क... कैसी सहायता ?"
"शांता के पास आसानी से नहीं पहुंचा जा सकता। उसे शूट करना तो दूर की बात है।" कहने के साथ-साथ शुक्रा नाश्ता भी करता जा रहा था। सबकी निगाह उस पर थी— “तू इस पुलिस वाले को इस बात का मौका दिलवायेगा कि यह शांता को गोली मार सके। तेरे अलावा यह काम कोई नहीं कर सकता।"
"म... मैं कैसे मौका दिलवा सकता हूं?" बेदी का नाश्ता करना रुक चुका था।
"मेरी बात सुनते रहो, मैं सब कुछ बता रहा हूं। रात भर मैं ठीक से नींद नहीं ले पाया। सोचता रहा कि मेरे यार का काम कैसे संवर सकता है। अब जो कह रहा हूं यही एक रास्ता है। अगर यह रास्ता नहीं तो समझ ले फिर कोई और रास्ता नहीं ।" शुक्रा का स्वर गम्भीर था। नाश्ता आधा-अधूरा करके ही बर्तन एक तरफ सरका दिये थे।
“लेकिन...।" बेदी ने कहना चाहा।
"विजय।” उदयवीर ने टोका― "पहले शुक्रा की बात सुन ले। वो जो कहेगा तेरे भले के लिये ही कहेगा।"
बेदी गम्भीर निगाह से शुक्रा को देखने लगा।
सब-इंस्पेक्टर जय नारायण खामोशी से उन्हें देखता उनकी बातें सुन रहा था। जैसा कि शुक्रा ने उसे कहा था कि वह बीच में नहीं बोलेगा। नहीं बोल रहा था। इस बात को अच्छी तरह जानता था कि दोस्त, दोस्त को अच्छी तरह समझा सकता है। उनकी बातों पर कान लगाये जय नारायण ने सिगरेट सुलगा ली।
"तुम शांता बहन के पास जाओगे। जो भी शादी-वादी करनी है, जैसा वो कहेगी, वैसा ही तुमने करना है। पूरी तरह उसका विश्वास जीतना है। उसे यह न लगे कि तू कोई ड्रामा कर रहा है। वो बहुत चालाक है। तेरे ड्रामे को शांता फौरन पहचान लेगी। इसलिये उस वक्त जो करना यही सोचकर करना कि ये सब सच है। हकीकत है।" शुक्रा गम्भीर था।
बेदी होंठ भींचे उसकी बात सुन रहा था।
उदयवीर और जय नारायण की निगाहें भी शुक्रा पर थीं।
"इन सब बातों के बाद जब तू शांता के यहां से चले तो कुछ ऐसा होना चाहिये कि वह भीतर से दरवाजा लॉक न कर सके। दो-चार मिनट के लिये खुला ही रहे।" शुक्रा ने समझाने वाले स्वर में कहा।
"उससे क्या होगा ?"
“सीढ़ियों के नीचे पास ही यह इंस्पेक्टर खड़ा होगा।" शुक्रा ने जय नारायण की तरफ हाथ किया--- “ऊपर दरवाजा खुला होगा, तेरे नीचे आते ही, यह ऊपर जायेगा और शांता को शूट करके वापस आ जायेगा।"
बेदी एकटक शुक्रा को देखता रहा ।
"सुना।" शुक्रा ने तेज स्वर में कहा।
"हां।" बेदी का जिस्म हिला।
“सीढ़ियां उतरने के बाद तेरे को पीछे मुड़कर नहीं देखना। ये इंस्पेक्टर शांता से निपट लेगा। उसके बाद शांता नाम की मुसीबत तेरे को तंग नहीं करेगी, तेरे को पति बनाकर जबरदस्ती तेरे को अपने साथ नहीं रखेगी। आजाद होगा ।"
बेदी व्याकुल- बेचैन-सा सूखे होंठों पर जीभ फेरता रहा ।
"जवाब देता रह।”
“तु... तुम्हारा मतलब कि मैं-मैं शांता की मौत का इन्तजाम करूं कि-कि यह पुलिस वाला उसे मार...।"
"तू कोई इन्तजाम नहीं कर रहा। तू शादी करके या शादी करने का वायदा करके, प्यार-मोहब्बत की लम्बी-चौड़ी कसमें खाकर वहां से निकलेगा। यह सब तू सच्चे मन से करेगा। चलते वक्त ऐसा कुछ करना कि तेरे जाने के बाद दो-चार मिनट शांता अपने घर का दरवाजा न बंद कर सके।”
बेदी के चेहरे पर घबराहट-सी नाच उठी। माथे पर पसीने की बूंदे नजर आने लगी।
"अपने आप को ठीक कर।" शुक्रा की आवाज में हल्की-सी सख्ती आई--- "ये घबराहट तेरे को ले डूबेगी। सख्त बना खुद को। हिम्मत बढ़ा, थोड़ी सी हिम्मत तेरी जान बचा देगी। तेरी उम्र अड़तीस दिन नहीं, सौ साल की होगी। सोच, एक बार सोच, तू सौ साल जियेगा। खुशहाली से भरी तेरी जिन्दगी होगी। तेरी अच्छी-सी बीबी होगी। बच्चे होंगे। तू दादा बनेगा। नाना बनेगा, लेकिन यह सब तभी होगा, जब तू वही करेगा, जो मैंने कहा है।"
"मैं...।" बेदी की आवाज कांपी--- "मैं मरना नहीं चाहता। जीना जीना चाहता हूं।" आंखों में आंसू चमक उठे।
"तो फिर हिम्मत बढ़ा अपनी, अपनी उम्र को सौ साल की कर ले मेरे यार।" शुक्रा ने उत्साह भरे स्वर में कहा।
"एक ही बात मेरे को पेरशान कर रही है।" बेदी का स्वर धीमा था।
"क्या ?"
"शांता के साथ जो होगा, वो धोखा होगा। मेरे धोखे की वजह से ही उसकी जान जायेगी।" बेदी परेशान-सा हो उठा।
"बेवकूफी वाली बात मत कर।" शुक्रा कह उठा--- "तू जो करेगा, वो अपनी जान बचाने के लिये करेगा। अपनी उम्र को सौ साल करने के लिये करेगा और फिर शांता जो जिन्दगी जी रही है, उसका अंत कभी भी हो सकता है। कोई भी उसे मार सकता है।"
बेदी कई पलों तक खामोश रहा। सोचें उसका दिमाग खराब करती रहीं ।
"अगर मैंने आस्था को शांता के कब्जे से निकाल लिया तो तब भी क्या भरोसा कि वधावन मेरा ऑपरेशन न करे।"
शुक्रा ने सब-इंस्पेक्टर जय नारायण को देखा।
"इंस्पेक्टर अब इस बात का जवाब तुम दो।” शुक्रा ने कहा।
"मैं पूरी कोशिश करूंगा, जैसे भी हो डॉक्टर वधावन को इस बात के लिये तैयार करूंगा कि वह विजय के दिमाग का ऑपरेशन करके वहां फंसी गोली निकाल दे। लेकिन यह कोशिश तभी कर सकता हूँ जब उसकी बेटी उसे मिल जाये।"
बेदी के कुछ कहने से पहले ही उदयवीर गम्भीर स्वर में कह उठा।
"विजय, आगे क्या होता है। बाद में जो होगा, वो बाद की बात है। लेकिन उस बाद तक पहुंचने के लिये, पहले वैसा ही करो, जैसा शुक्रा ने कहा है। मुझे इसकी बात ठीक लगी। भगवान ने चाहा तो आगे भी ठीक होगा।"
बेदी ने कुछ नहीं कहा।
"शांता के घर का नक्शा क्या है, प्रवेश द्वार कैसा है?" जय नारायण ने पूछा।
"घर के दरवाजे के पहले लोहे की ग्रिल है। जिस पर जंजीर चढ़ी रहती है। वहां ताला लगा रहता है।" बेदी ने सोच भरे धीमे स्वर में कहा--- "उसके पास घर का मुख्य दरवाजा है, भीतर जाने के लिये, जो अक्सर खुला रहता है। मैंने उसे कभी बंद नहीं देखा। शायद ग्रिल बंद करने के बाद, दरवाजे को बंद करने की जरूरत महसूस न होती हो।"
"ठीक है, जब तुम वहां से निकलो तो ग्रिल पर तुमने ताला नहीं लगने देना है सिर्फ दो-तीन मिनट के लिये। यह कैसे होगा, हमसे बेहतर तुम समझ सकते हो क्योंकि तुम वहां शांता के पास होगे। वहाँ का माहौल कैसा होगा, उससे तुम वाकिफ होगे, लेकिन इस काम में तुम तभी सफल हो सकोगे, जब शांता का विश्वास पूरी तरह जीत लोगे। उसे अपना बना लोगे और खुद उसके बन जाओगे। हमारा काम तभी सफल होगा।"
"मैं...मैं पूरी कोशिश करूंगा।" बेदी ने धीमे, गम्भीर, परेशान स्वर में कहा।
"कब जाओगे शांता के पास?" जय नारायण एकाएक उतावला सा नजर आने लगा।
क्षणिक सोच के पश्चात् बेदी ने असंयत ढंग से पहलू बदला।
"शायद तीन-चार बज जायेंगे। इन सब बातों के लिये, मुझे खुद को तैयार करना पड़ेगा। अभी मैं खुद को ठीक महसूस नहीं कर रहा।" बेदी ने अपने माथे पर हाथ फेरते हुए कहा।
जय नारायण उठ खड़ा हुआ ।
"ठीक है, मैं अब चलता हूं। मुझे कहीं से दो नम्बर वाली रिवॉल्वर का इन्तजाम करना पड़ेगा। इस काम के लिये मैं अपनी सर्विस रिवॉल्वर इस्तेमाल नहीं कर सकता। शांता को शूट करके अपने ऑफिसरों को तो समझा दूंगा। लेकिन शांता के परिवार वाले जो बिखर अवश्य गये हैं परन्तु अभी जिन्दा हैं। वो मेरे दुश्मन बन जायेंगे। मेरी जान लेकर रहेंगे। इसलिये यह काम मैं चुप्पी खामोशी के साथ करके निकल जाना चाहता हूँ।"
कोई कुछ नहीं बोला।
"तुम...।" जय नारायण ने शुक्रा से कहा--- “तीन बजे शांता के घर के बाहर, सड़क पार वाले हिस्से में मिलना। विजय तो तब तक शांता पास जा चुका होगा, ताकि मुझे मालूम हो सके कि विजय शांता के पास पहुंच चुका है।"
"ठीक है।"
जय नारायण इजाजत लेकर, बाहर निकल गया।
कई पलों तक उनके बीच खामोशी रही। जिसे बेदी ने सोच भरे स्वर में तोड़ा।
"मैं कुछ कहना चाहता हूं।"
शुक्रा और उदयवीर की गम्भीर निगाह बेदी पर जा टिकी।
"मैं दावे के साथ यह बात कह सकता हूं कि इस इंस्पेक्टर के कहने पर डॉक्टर वधावन मेरा ऑपरेशन करने वाला नहीं। वो ऐसा इन्सान है जो अपनी मां के कहने पर भी मुफ्त में मेरा ऑपरेशन न करे। आस्था उसे वापस मिल भी गई तो वह बिना बारह लाख लिए ऑपरेशन नहीं करेगा। यह पुलिस वाला अपना मतलब हमसे निकाल रहा है कि बेटी ठीक-ठाक बाप के पास पहुंच जाये।"
"अगर वधावन ऑपरेशन करने को तैयार नहीं होता तो तुम्हारी बात बिल्कुल सही है।" शुक्रा ने गम्भीर स्वर में कहा।
"तू कहना क्या चाहता है?" उदयवीर की नजरें बेदी पर थी।
"हमारा खेल तब तक ही सही-सलामत है जब तक डॉक्टर वधावन की बेटी आस्था हमारे पास है। मैं यह कहना चाहता हूं कि अगर शांता से आस्था को हासिल कर लिया तो उसे इंस्पेक्टर को न सौंपकर अपने की कब्जे में रखें और वधावन पर जोर डालें कि बेटी की सलामती चाहता है तो मेरा ऑपरेशन कर, कई दिन हो गये हैं, उसकी बेटी का अपहरण किए। अब वह भी अपनी औलाद को पाने के लिये बेताब हो रहा होगा।"
"मेरे ख्याल में ऐसा करना ही ठीक रहेगा।" उदयवीर ने सोच भरे स्वर में कहा--- "आस्था को डॉक्टर के हवाले कर दिया तो फिर हाथ पर हाथ रखे बैठे उन लोगों का मुंह देखना पड़ेगा कि वह हां करते हैं या इन्कार करते हैं।"
"ठीक है।" शुक्रा ने फौरन सहमति दी--- "डॉक्टर वधावन से इंस्पेक्टर जय नारायण नहीं, हम बात करेंगे और मैं बात करूंगा, देखूंगा अब कैसे टालता है ऑपरेशन को ।" शुक्रा की आवाज में गुस्सा आ गया।
उन लोगों को इतनी तसल्ली थी कि वह किसी फैसले के अन्तिम छोर पर पहुंच गये। अब कुछ-न-कुछ तो होकर ही रहेगा और बेदी दृढ़ता के साथ मन-ही-मन खुद को तैयार कर रहा था, शांता के सामने जाने के लिये।
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शाम के पांच बज रहे थे। सुबह से बोतल खोले बैठी शांता धीरे-धीरे पी रही थी और इस वक्त बोतल में सिर्फ एक पैग ही बचा था। चेहरा नशे में तप रहा था। आंखें चढ़ी-चढ़ी थीं। कमीज सलवार पहन रखा था और आदत के मुताबिक सरकते दुपट्टे को भी ठीक कर लेती थी। दुपट्टे को वह नशे में भी ठीक कर लेती थी।
कालबैल बजी, क्षण भर के लिये शांता की हरकतें ठिठकी फिर हाथ में पकड़े गिलास को, जो कि खत्म होने जा रहा था। एक बार में खत्म किया और उसे तिपाई पर रखकर खड़ी हुई। खड़ी होते ही जोरों से लड़खड़ाई। फिर संभल गई। उसके बाद दरवाजे की तरफ बढ़ी। अपनी तरफ से वह ठीक तरह चल रही थी, परन्तु उसके कदम हौले-हौले इधर-उधर डगमगा रहे थे।
दरवाजा पार करके वह ग्रिल के पास पहुंची तो उस पर बेदी को खड़े पाया।
बेदी खुद को चट्टान तरह मजबूत करके आया था। था कि क्या और कौन-सी बात करनी है। शांता को कैसे शीशे में उतारना है। अपनी सेल्समैनी पर उसे विश्वास था। जिस तरह रॉयल सेफ कम्पनी में बतौर सेल्समैन, लोगों को फंसा कर सेफ बेचा करता था, ठीक वैसी ही सेल्समैनी दिखाकर आज खुद को शांता को बेचना था कि इस तरह शांता को यह न लगे कि सौदा नकली हो रहा है।
शांता से निगाहें मिलते ही बेदी ला-जवाब अन्दाज में मुस्कराया। शांता की नशे से भरी पलकें रह-रहकर नीचे गिर रही थीं, जिन्हें वह ऊपर उठा लेती थी।
शांता ने ताला खोलकर जंजीर हटाई तो बेदी ने ग्रिल खोलकर भीतर प्रवेश किया।
"लाओ। मैं बंद कर दूं।" कहते हुए बेदी ने ग्रिल बंद की और चेन लगाकर, ताला लगाया और चाबी शांता को थमा दी। चाबी वापस रखते शांता बेदी को देखे जा रही थी।
“तुमने आज फिर पी ?" बेदी के लहजे में शिकायती भाव थे।
"हां, पी।" शांता की आवाज नशे में थरथरा रही थी--- "अकेली हूं, पिऊंगी नहीं तो क्या करूंगी, तेरे को बोला तो है। आ-जा मेरे पास, बोतल को हाथ भी नहीं लगाऊंगी।"
"अन्दर चलो।" बेदी ने कहा--- "तेरे से बात करनी है।" कहने के साथ ही खुद खुले दरवाजे की तरफ बढ़ गया।
शांता भी लड़खड़ाते कदमों से भीतर पहुंची।
बेदी सोफा चेयर पर बैठ चुका था। कुछ आगे पहुंचकर शांता ठिठकी और बोली।
"तू इधर आ, मेरे पास ।"
बेदी ने उसे देखा। उठा, मुस्कराया, आगे बढ़ा, शांता के पास जा पहुंचा।
शांता ने दोनों हाथ उठाये उसका सिर थामा। पंजों के बल उठी और उसके होंठों पर होंठ रख दिए। बेदी शांत-सा खड़ा रहा। शांता अलग हुई। लड़खड़ाने लगी तो बेदी ने उसकी कमर में हाथ डालकर संभाल लिया।
शांता ने नशे से भरी आंखें पूरी खोलकर उसे देखा।
"मजा नहीं आया।" बेदी मुस्करा रहा था।
शांता की नशे में भरी आंखों में खोजपूर्ण भाव उभरे।
"झूठ मत बोल, शांता जानती है कि वो किस मामले में गर्म है और किस मामले में ठण्डी। कहीं और मुंह मारकर आया है क्या ?"
"नहीं।"
"तो फिर मजा क्यों नहीं आया तेरे को ?" शांता का स्वर नशे में थरथरा रहा था।
"मैं बताता हूं, मजा क्या होता है।" कहने के साथ ही बेदी ने शांता की कमर दोनों हाथों से पकड़ी और उसे अपने साथ सटा लिया। साथ ही अपने होंठ उसके होंठों पर रख दिए। उसके बाद दोनों जैसे एक-दूसरे के होंठों को खा जाने की होड़ में लग गये।
दो-तीन मिनट बाद दोनों अलग हुए तो लम्बी-लम्बी सांसें ले रहे थे।
शांता का नशा जरा-सा संभला था। वह प्यार भरी निगाहों से बेदी को देखने लगी।
"मैं जानती थी।" शांता ने शांत स्वर में कहा।
"क्या?"
"मेरी गर्मी, तेरी गर्मी को पिघला देगी। हम दोनों की जोड़ी खूब जमेगी, बोल करता है मेरे से शादी।"
बेदी शांता को छोड़कर अलग हटा और सोफे पर बैठ गया। चेहरे पर गम्भीरता ओढ़ ली ।
“क्या हुआ तेरे को, मन नहीं मानता, मेरे से शादी करने को, नहीं मानता तो मानेगा ।"
"यहां बैठो। मेरे सामने सोफे पर ।" बेदी ने गम्भीर निगाहों से उसे देखा ।
शांता ने बेदी को देखा फिर नशे से लड़खड़ाती चाल से बढ़कर सामने वाले सोफे पर बैठ गई।
"बोल।” शांता ने पास पड़ा पैकिट उठाया और सिगरेट सुलगा ली।
"एक सिगरेट मुझे दो।" बेदी ने कहा।
शांता ने पैकिट-माचिस उसकी तरफ उछाल दी।
बेदी ने सिगरेट सुलगाई।
"शांता ।" बेदी ने कहा--- "तेरे से बात करनी है।"
"तूने पहली बार मेरा नाम लिया है। बहुत अच्छा लगा, बोल, क्या बोलता है।"
"मैं तुम्हारे से शादी कर सकता हूँ। लेकिन मेरी शर्त माननी होगी।" बेदी ने गम्भीर स्वर में कहा--- “तुम मुझे शुरू से ही अच्छी लगती हो। लेकिन कुछ बातें हैं जिसकी वजह से मैं हां नहीं कर पा रहा हूं।"
शांता मुस्कराई, पहली बार मुस्कराई। इससे पहले बेदी ने कभी उसे मुस्कराते नहीं देखा था। शांता की कीमती मुस्कान शायद ही कभी पहले किसी को देखने को मिली हो।
"क्या हुआ ?" बेदी ने उसे गहरी निगाहों से देखा।
"तेरी हर शर्त मानी। जान भी देनी है तो बोल। अभी दे दूंगी।" शांता का चेहरा पुनः शांत हो गया।
"तुम्हारी जान की मुझे बहुत जरूरत है। उसे तो मैं संभाल कर रखूंगा। बात कुछ और है। सुनकर माननी होगी।"
"सुना।" शांता ने कश लिया।
"पहली शर्त तो यह है कि सारे बुरे काम छोड़कर इस शहर से बहुत दूर जाकर जिन्दगी बितायेंगे।"
"ये मैं पहले भी कह चुकी हूं। मंजूर, मानी तेरी बात ।”
"नई जगह पर तुम बीती जिन्दगी वाला कोई काम नहीं करोगी।"
"ऐसा कुछ नहीं होगा। मैं तेरे को बोत अच्छी बीवी बन दिखाऊंगी। भरोसा रख मेरे पे।"
"फिर कभी भी इस शहर में नहीं आयेगी।"
"नहीं आऊंगी।"
"आज के बाद कभी भी व्हिस्की नहीं पियेगी ।"
"नहीं पिऊंगी।"
"सिगरेट भी नहीं।"
"नहीं।"
“अब तक की जिन्दगी की छाया, आने वाले वक्त की जिन्दगी पर नहीं पड़ने देगी।" बेदी उसे देख जा रहा था।
शांता उसकी हर बात का जवाब गम्भीरता से दे रही थी। उस पर हावी नशा अब कंट्रोल में था।
“ऐसा कुछ नहीं होगा। जो तू सोचता है। शादी के बाद वो ही होगा। जो तू बोलेगा तेरी बांदी बनकर रहूंगी। तू नहीं जानता कि तू मेरे को कितना अच्छा लगता है। तेरे में कुछ है। जिसने शांता को पागल कर दिया है।" शांता ने सपाट स्वर में कहा--- "अपने दिमाग से यह बात निकाल दे कि अब मैं क्या हूं। दिमाग में यही रख कि शांता से अच्छी बीवी तेरे को कभी नहीं मिल सकती।”
"शादी के बाद तेरा नाम दूसरा होगा, समझ शांता मर जायेगी।"
"मार या जिन्दा रख, तेरे हवाले हो गई हूं।"
बेदी मुस्कराया, खुलकर मुस्कराया।
“जिस दिन तूने इन शर्तों में से कोई शर्त तोड़ी, तो हमारी शादी उसी वक्त खत्म।"
"वो दिन कभी नहीं आयेगा। हम कभी अलग नहीं होंगे। साथ जियेंगे, साथ मरेंगे। अब बता करता है शादी?"
“हां।" बेदी बराबर मुस्करा रहा था।
"कब ?"
“जब तुम कहो।"
"अभी।” शांता ने उसकी आंखों में झांका--- "आज हमारी सुहागरात होगी।"
"इस वक्त शाम हो चुकी है, शादी कैसे ?"
“अभी शादी हो जाती है, तू फिक्र मत कर।” कहने के साथ ही शांता उठी, नशे में जरा-सी हिली फिर संभल गई--- "तेरे मां-बाप ने आग को पवित्र मानकर शादी की थी?"
"हां।"
शांता किचन की तरफ गई, उलटे पांव जब वापस लौटी तो हाथ में मोमबत्ती थी।
“ले।" शांता पास पहुंचकर बेदी को मोमबत्ती थमाती हुई बोली--- “टेबल हटाकर नीचे इसे जलाकर रख दे।"
"इससे क्या होगा ?" बेदी की निगाह शांता के चेहरे पर जा अटकी ।
"मोमबत्ती जलेगी, वो पवित्र आग होगी, हिन्दू उसे ही पवित्र मानते हैं। हम दोनों आग गिर्द सात फेरे लेंगे।"
"ऐसे।" बेदी अजीब-से स्वर में बोला--- “हमारी शादी हो जायेगी।"
"हां, ये छोटी शादी है। वक्त कम है, रात सिर पर है। सुहागरात का वक्त मैं खोना नहीं चाहती। कल दिन में मन्दिर में शादी कर लेंगे, तब तू मुझे दुल्हन बना देखेगा, जला मोमबत्ती ।”
बेदी को यह सब अजीब लगा, फिर भी वह बोला ।
"कल मन्दिर में शादी जरूर होनी चाहिये।"
"होगी, पहले इस वक्त तो निपट लें।"
बेदी ने टेबल उठाकर एक तरफ रखा और मोमबत्ती जलाकर बीच में लगा दी।
"तू तो बौत एक्सपर्ट है।" शांता ने शांत स्वर में कहा--- "आ, मेरा हाथ पकड़।"
बेदी ने हाथ आगे बढ़ाया तो शांता ने उसका हाथ पकड़ लिया।
"चल, मोमबत्ती के गिर्द चक्कर लगाते हैं। जब सात हो जाये तो बोल देना।" शांता बोली।
“मैंने सुना है साढ़े तीन फेरे होते हैं।" बेदी ने कहा।
"वो कल मन्दिर का पण्डित देख लेगा कितने होते हैं। अभी तो सात फेरे ही लगा, चल ।" शांता आगे बढ़ने लगी।
बेदी आगे नहीं बढ़ा।
"चलता क्यों नहीं ?"
"फेरों के वक्त आदमी आगे होता है और औरत पीछे। तुम आगे चलने जा रही हो।" बेदी ने कहा।
"देख, फालतू मत बोल, इस वक्त जो मैं बोलती हूं, वो ही कर। ये आगे-पीछे का मामला पण्डित कल मन्दिर में देखेगा। अभी ऐसे ही चलने दे, टोकना मत, चल।"
बेदी का हाथ पकड़े शांता ने जलती मोमबत्ती के गिर्द फेरे लगाये। नशे में वह तेजी से कुछ इस तरह घूमे जा रही थी कि डर हो कहीं मोमबत्ती न बुझ जाये। सात चक्कर लगाने के बाद, वो आठवां भी लगाने जा रही थी कि बेदी के टोकने पर वो रुकी।
"सात फेरे पूरे हो गये ?"
"हां।"
शांता ने उसका हाथ छोड़ा और बोली।
"मोमबत्ती बुझाकर, एक तरफ रख दे और टेबल वापस अपनी जगह पर ।" कहने के साथ ही वो सोफे पर ढेर हो गई।
बेदी ने शराफत के साथ नीचे से मोमबत्ती उठाई और उसे बुझा कर एक तरफ रख दिया।
“पानी पियेगा, मैं पिलाऊंगी तेरे को अपने हाथों से।"
"आज हमारी शादी हुई। जिन्दगी भर हमने एक साथ रहना है। इस खुशी में जश्न होना चाहिये।”
“जश्न?" शांता की नशे में डूबी प्रश्न भरी निगाह, बेदी के चेहरे पर जा टिकी।
"हां, बोतल है?"
“तूने तो मना किया था, मुझे पीने को ?”
बेदी मुस्कराया।
"मैंने कहा था आज के बाद और आज खत्म होने में अभी कुछ घंटे बाकी है। बोतल खत्म हो सकती है।"
"उठ, उधर वाले कमरे में अलमारी में बोतलें पड़ी हैं। वहां से ले आ, किचन से गिलास उठा ले। इधर-उधर देख लेना। वहां कुछ खाने को भी पड़ा होगा, वो भी लेते आना।"
बेदी उठ खड़ा हुआ, मन-ही-मन सोच रहा था कि ये दुनिया की सबसे अच्छी बीवी बनेगी? पति को काम करने का हुक्म देगी और पानी अपने हाथों से पिलायेगी। कुछ लाना हो तो उसे बोलेगी। वैसे बढ़िया बीवी बनने का हुक्म मानने जैसी पत्नी का दम भरती है?
बेदी बोतल ले आया, गिलास ले आया। किचन में खाने का नमकीन पड़ा था। वो भी ले आया था। सब सामान टेबल पर रखा, शांता का गिलास तिपाई पर रखा फिर शांता को देखा।
"देखता क्या है, खोल बोतल । आज तेरे साथ पहली और आखिरी बार पी रही हूं। उसके बाद तो सारी ज़िन्दगी मैं तेरे को पिलाऊंगी। मैं गिलास भरूंगी और तू पियेगा, खोल बोतल ।”
बेदी ने मुस्करा कर बोतल खोली, व्हिस्की से आधा-आधा दोनों गिलास भरे। फिर उठकर किचन से पानी का जग लाया और गिलासों में बाकी का पानी डाल दिया।
"इधर आ मेरे पास, अब तू मेरा वो क्या कहते हैं, पति है। मेरे साथ चिपक कर बैठ ।"
बेदी मुस्कराया। उठा, शांता के पास पहुंचकर उसकी बगल में सटकर बैठा। टेबल को अपनी टांगों की तरफ पास सरकाया फिर शांता के कंधे पर हाथ रखा और उसके होंठों पर होंठ रख दिए। जब वह अलग हुए तो शांता बेहद प्यार भरी निगाहों से उसे देख रही थी
"क्या देख रही हो?" बेदी ने प्यार से पूछा।
"सोच रही हूं, तू पहले क्यों नहीं मिला मेरे को।"
“अब मिल गया, तू मेरे को मिल गई। मेरी जिन्दगी में जो खाली जगह थी, वह भर गई।"
"अभी तो देखता रह, शांता क्या रंग दिखायेगी। तेरे को राजा की तरह रखेगी। बोत किस्मत वाला है तू जो शांता तेरी बन गई। वरना शांता तो वह कीमती शह है, जिसकी कीमत कोई नहीं चुका सकता, ला पैग दे, तू भी पकड़, हमारी शादी के नाम पर जाम टकरा ।"
बेदी ने एक गिलास उसे थमाया, एक खुद थामा।
"चियर्स, हमारी शादी की खुशी में, आज शांता बहुत खुश है।" कहने के साथ ही उसने गिलास होंठों से लगाया और एक ही सांस में खाली कर दिया।
बेदी ने उसके खाली गिलास को देखा फिर धीरे-धीरे अपने गिलास से घूंट भरने लगा।
"विजय।" शांता उसकी टांग पर हाथ रखकर बोली--- “बोल कितने बच्चों का बाप बनेगा तू?"
"जितने बच्चे तेरे को चाहिये।"
"तेरी मर्जी चलेगी, जितने बच्चे तू कहेगा, उतने ही पैदा करूंगी। ले गिलास टेबल पर रख दे।"
बेदी ने गिलास, उसके हाथ से लेकर टेबल पर रख दिया।
"चार बच्चे करेंगे।" शांता की आवाज नशे में भारी हो रही थी— "चार ठीक रहेंगे और सुन। कल मन्दिर में पक्की शादी करके इस शहर से निकल जाना है। सोच ले कहां चलेगा। बहुत दूर जाना है यहां से।"
"कल नहीं जा सकते।" बेदी का स्वर गम्भीर हो गया।
"क्यों?"
"डॉक्टर वधावन से ऑपरेशन कराना है। उसके बिना मैं इस शहर से नहीं जा सकता ।"
“मैं भूल गई। जरूरी बात दिमाग से निकल गई। लोग ठीक कहते हैं शादी के बाद भूलने की बीमारी हो जाती है।" कहने के साथ ही शांता ने बेदी के गालों को चूमा--- "कल तेरा ऑपरेशन भी करा दूंगी उस डॉक्टर...।"
"नहीं ।" बेदी ने सख्त स्वर में इन्कार किया--- "मैं खुद उससे बात करूंगा। उसकी बेटी मेरे पास होगी, वो मेरा ऑपरेशन करेगा। मैं अपने इस मामले को खुद निपटाऊंगा। तूने वायदा किया था कि डॉक्टर की बेटी को मेरे हवाले कर देगी। शादी के बाद।"
"मेरा सब कुछ तेरा है। पहले तू बात कर ले डॉक्टर से। वो न माने तो फिर मेरे को बोलना, पैग बना।"
बेदी ने अपना गिलास एक तरफ रखा और शांता का दूसरा गिलास तैयार करके उसे हाथों में थमा दिया। जबकि बेदी का पहला गिलास भी खत्म नहीं हुआ था।
बेदी ने अपना गिलास उठाकर घूंट भरा।
“डॉक्टर की लड़की को कहां रखा है?" बेदी ने शांता के बालों में उंगलियां फिराते हुए पूछा।
शांता ने बिना किसी ऐतराज के उसे छोटे लाल का पता बता दिया।
बेदी का दिल जोरों से धड़क उठा कि आस्था का पता मालूम हो गया है।
"लेकिन वो छोटे लाल आस्था को मेरे हवाले नहीं करेगा।" बेदी का लहजा सामान्य था।
"परे हट।"
"क्या?" बेदी कुछ समझ नहीं सका।
"परे हट, सोफे पर देख, फोन पड़ा है, मुझे दे।"
बेदी ने फौरन फोन तलाश करके उसे थमाया।
"मेरा गिलास पकड़।"
बेदी ने गिलास पकड़ा।
शांता ने नम्बर दबाये और छोटे लाल से बात की।
"सुन, वो जानता है ना विजय को। जिससे वो छोकरी छीनी थी तूने ।"
"हां, शांता बहन ।”
"तेरे पास वो ही विजय आयेगा, वो छोकरी उसे दे देना।”
"ठीक है, शांता बहन ।"
शांता ने फोन बंद करके पास ही रख लिया और अपना गिलास बेदी के हाथों से लेकर दो तगड़े घूंट भरे फिर बेदी से बोली
"तेरे को छोकरी मिल जायेगी। छोटे लाल से ले लेना।"
बेदी उसके बालों में उंगलियां फेरने लगा।
दोनों में होने वाली प्यार-मोहब्बत की बातें परवान चढ़ती रहीं।
■■■
चूंकि शांता दिन से ही पी रही थी। बोतल खाली कर चुकी थी। दूसरी आधी में ही वह पूरी तरह नशे में आ चुकी थी। अब तक बेदी ने दो पैग ही लिए थे।
"बस ।” शांता नशे में थरथराते स्वर में कह उठी--- "बोतल बंद कर दे। अब सुहागरात होगी।"
"अभी ?" बेदी ने गिलास से घूंट भरकर शांता के नशे में तपते चेहरे को देखा।
"हां, अभी।" शांता बेहद नशे में आ चुकी थी।
बेदी आस्था का पता मालूम कर चुका था और अब वहां से निकलने की फिराक में था।
"नौ ही बजे हैं। मैं खाना पैक कराकर लाता हूं, उसके बाद।"
"नहीं।" नशे में शांता ने अपना हाथ लहराया--- "उठा मुझे।"
बेदी ने शांता का हाथ पकड़कर उसे सोफे से उठाया। नशे की तरंग में वह लहराकर उठने को हुई कि बेदी ने उसे संभाल लिया।
“तैयार है तू, सुहागरात के लिये। आज शांता की सुहागरात है ।"
"हां।" उसके होंठों से निकला।
"खाना बाद में खायेंगे।" शांता ने बेदी की बांह थाम रखी। थी— “पहले सुहागरात का एक दौर हो जाये। पकड़ मुझे। मेरे बेडरूम में ले चल। लगता है आखिरी वाला पैग फालतू हो गया। तू भी इतने ही नशे में है।"
"नहीं, मैं ठीक हूं।"
"और ले ले।"
"बस, बाकी खाना खाते वक्त ।"
"चल बेडरूम में, पकड़ के रख मेरे को।"
बेदी शांता को सहारा दिए, बैडरूम में ले गया।
शांता नशे में खुद को संभाल नहीं पा रही थी। किसी तरह उसने खुद को संभाला। सीधी खड़ी हुई। दुपट्टा उतारकर एक तरफ फेंका और लड़खड़ाते स्वर में बोली।
"चल उतार मेरे कपड़े। आज शांता की सुहाग रात है।"
बेदी किसी लोहे के मानव की तरह वैसे ही करने लगा, जैसे शांता कहती रही।
रात के ग्यारह बज रहे थे।
शांता बैड पर तकियों के बल अधलेटी सिगरेट के कश ले रही थी। वह नशे में अवश्य नजर आ रही थी। लेकिन सुहागरात के बीते दो घंटों ने बहुत हद तक उसका नशा उतार दिया था। अब अपने शरीर की हरकतों पर उसका कंट्रोल था। वह काबू में थी। चेहरे और आंखों में सन्तुष्टि के भाव स्पष्ट नजर आ रहे थे।
बेदी बाथरूम से निकला, वह कपड़े पहन चुका था। शांता को देखकर मुस्कराया।
“मैं खाना पैक कराकर लाता हूं।" बेदी का लहजा सामान्य था।
"जल्दी आ, अभी बोत रात बाकी है।" शांता ने कश लिया।
"आधे घंटे में वापस आया। चाबी कहां है ग्रिल की?" बेदी की आवाज में मुस्कराहट थी। दिल जोरों से धड़क रहा था।
शांता ने गद्दे के नीचे हाथ डाला तो चाबी के साथ-साथ रिवॉल्वर भी हाथ में आ गई। उसने रिवॉल्वर एक तरफ रखी और चाबी बैड पर, , बेदी की तरफ उछाल दी।
"ग्रिल को बाहर से ताला लगाते जाना। तब तक मैं नहा लूँ ।"
चाबी उठाते बेदी को लगा जैसे उसके हाथ कांप रहे हो। जबकि जरा भी नहीं कांप रहे थे।
"अपनी पसन्द का खाना लाना। कल जब पक्की शादी हो जायेगी तो तेरे को अपनी पसन्द का खाना खिलाऊंगी। बोत प्यार करूंगी तेरे को। जैसा तू कहेगा, वो ही करूंगी। अंजना की तरह धोखा देकर मैं भागने वाली नहीं।"
"शादी के बाद हमें इस शहर से निकल जाना है।" बेदी ने कहा--- “सिर्फ ऑपरेशन कराने का ही काम बाकी रहेगा। शायद कल-परसों में डॉक्टर वधावन मेरे दिमाग का ऑपरेशन करके वहाँ से गोली निकाल...।"
“चिन्ता मत कर। कल का दिन तू कोशिश कर। परसों मैं तेरा ऑपरेशन करा दूंगी।"
"मैं खाना लेकर आया ।" कहने के साथ ही बेदी धड़कते दिल के साथ पलटा और बेडरूम से बाहर निकलकर ड्राइंगरूम पार करते हुए दरवाजे की तरफ बढ़ा। उसको महसूस हो रहा था कि जैसे उसकी टांगें जोरों से कांप रही हो। वह डगमगा रहा हो, जबकि ऐसा कुछ नहीं था। वह सीधा-सीधा चल रहा था।
दरवाजा पार करके ग्रिल के पास पहुंचा। एक बार पीछे देखा। कांपते हाथों से उसने ताला खोला। जंजीर हटाई। ग्रिल खोली। बाहर निकला, अब वापस जंजीर लगाकर ताला लगाने की बारी थी, जो कि उसने नहीं लगाई। जंजीर यूं ही लटकती रहने दी। ताला जंजीर के साथ लटक रहा था। चाबी को मुट्ठी में दबाये सूखे होंठों पर जीभ फेरते बेदी पलटा और सीढ़ियां उतरता चला गया। दिल धाड़-धाड़ बज रहा था।
सीढ़ियां उतरकर जब सड़क पर पहुंचा तो सारा बाजार बंद हो चुका था। कोई भी दुकान इस वक्त खुली नहीं थी। स्ट्रीट लाइटें मध्यम-सी रोशनी फैला रही थीं। अभी वह वहां दो पल ही ठिठका होगा कि अंधेरे में से उदयवीर, शुक्रा और सब-इंस्पेक्टर जय नारायण निकलकर उसके पास आ पहुंचे।
बेदी की व्याकुल नजरें अंधेरे से भरे उनके चेहरों पर फिरी।
"ऊपर क्या पोजिशन है?" सब-इंस्पेक्टर जय नारायण ने फुसफुसाते स्वर में पूछा।
“शा... शांता बेडरूम में है।" बेदी को अपना गला सूखता-सा लग रहा था।
"डॉक्टर की बेटी के बारे में मालूम किया कि वह कहां है?" जय नारायण की आवाज में पुलसिया भाव चमक रहे थे।
"हां, वो बता दिया उसने।"
जय नारायण ने कपड़ों में छिपी रिवॉल्वर निकाली।
"तुम... तुम शांता को गोली मारने जा रहे हो?" बेदी के होंठों से निकला।
"हां, हममें यही तय हुआ था, ग्रिल खुली है।"
"हां, लेकिन...।"
"इस वक्त वो लापरवाह होगी। इससे बढ़िया मौका फिर कभी नहीं मिल सकता।" सब-इंस्पेक्टर जय नारायण ने होंठ भींचकर कहा।
बेदी ने जय नारायण की बांह पकड़ ली।
"उसे मत मारो, वो...।"
शुक्रा ने बेदी का हाथ पीछे किया।
"जाने दो इसे।"
"मैं अभी आया।" कहने के साथ ही रिवॉल्वर थामे सब-इंस्पेक्टर जय नारायण निशब्द सतर्कता से सीढ़ियां चढ़ने लगा। वो तीनों तब तक वहां खड़े रहे। जब तक जय नारायण सीढ़ियां चढ़ता नजर आता रहा।
"खिसको।” शुक्रा ने कहा।
अगले ही पल वो तीनों कुछ दूर खड़ी एम्बैसेडर कार की तरफ भागे।
उदयवीर ने ड्राइविंग सीट संभाली। दोनों के भीतर बैठते ही उदयवीर ने कार दौड़ा दी। बेदी आंखें बंद किए गहरी-गहरी सांसें ले रहा था। जैसे सालों भागने के बाद दो पल बैठने का मौका मिला हो।
"डॉक्टर की बेटी कहां है?" शुक्रा ने पूछा।
बेदी ने छोटे लाल का पता बताकर कहा।
"आस्था वहां से मिल जायेगी।" बेदी पहलू बदलता हुआ बोला--- "लेकिन जाना कहां है। हम आस्था को लेकर जहां भी जायेंगे। जय नारायण वहां पहुंच जायेगा।"
“एक जगह है, जहां वो नहीं पहुंच सकेगा।" शुक्रा ने दांत भींचकर कहा।
"कौन-सी जगह?" उदयवीर के होंठों से निकला।
“बाई पास पर बने वो ही फ्लैट, जहां हम पहले भी आस्था को लेकर छिपे थे।"
"हां।" बेदी ने फौरन कहा— “वो जगह इस वक्त सबसे सुरक्षित है।"
छोटे लाल से उन्हें आस्था सही-सलामत मिल गई।
■■■
रात के तीन बज रहे थे।
चंद्रमा की रोशनी, खुली खिड़की से सीधी भीतर आ रही थी। जिसकी वजह से फ्लैट के उस कमरे में इतनी रोशनी थी कि वे एक-दूसरे को हिलते-डुलते देख रहे थे। यहां आने का उनका प्रोग्राम अचानक बना था। इसलिये मोमबत्ती या अन्य प्रकार की रोशनी का इन्तजाम नहीं किया जा सका था।
आस्था परेशान थी। सप्ताह होने को आ रहा था। कभी इधर तो कभी उधर। इसी खींचा-तानी में उसका बुरा हाल हो गया था।
बेदी, शुक्रा और उदयवीर धूल से भरे मिट्टी वाले फर्श पर बैठे थे। बाई पास पर बने खाली फ्लैटों में से एक पर उन्होंने डेरा जमा लिया था। उन्हें पूरा विश्वास था कि सब-इंस्पेक्टर जय नारायण यहां तक नहीं पहुंच सकता था। इस बारे में वे निश्चिंत थे।
आते वक्त बेदी ने डॉक्टर वधावन से फोन बूथ से बात की। पहले तो उसका फोन ही नहीं मिला। फिर आस्था से पूछने पर उसने अपने पापा का मोबाइल फोन का नम्बर बताया। जिस पर बेदी ने सख्त ढंग से बात की कि वह अपनी बेटी को जिन्दा वापस चाहता है कि नहीं। जो उसके कब्जे में है। वधावन खुद बेहद तनाव में था कि उसकी बेटी नहीं मिल रही। उसे विश्वास दिलाने के लिये कि आस्था उसके पास है। बेदी ने आस्था की बात वधावन से कराकर उसे यकीन दिलाया। आखिरकार वधावन सुबह आठ बजे उसके दिमाग का ऑपरेशन करके वहां फंसी गोली निकालने को तैयार हो गया और उसे छः बजे अपने क्लीनिक में आने को कहा। बेदी ने स्पष्ट कहा कि पुलिस को खबर दी तो कल ही उसकी बेटी की लाश उस तक पहुंच जायेगी।
बहरहाल वधावन का अब पुलिस से बात करने का कोई इरादा नहीं था।
मोबाइल फोन पर बात करने का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि एक्सचेंज में उनकी बातचीत टेप नहीं हो सकी। कोई नया झंझट पैदा नहीं हुआ।
सबको चैन था कि कल सुबह उसका ऑपरेशन हो जायेगा।
"विजय।” उदयवीर बोला--- "सुबह तेरा ऑपरेशन है, कुछ देर नींद ले ले।"
अंधेरे में बेदी की निगाह, उदयवीर पर गई।
"ऑपरेशन तो हो जायेगा उदय।" बेदी की आवाज में दुख था--- "लेकिन मैंने शांता को धोखा दिया। जय नारायण ने उसे...।"
"कैसी बात करता है।" उदयवीर समझाने वाले स्वर में कह उठा--- "शांता बहन जैसी गैंगस्टर की मौत कभी तो आनी ही थी। ऐसे लोग ज्यादा देर जिन्दा नहीं रहा करते। खासतौर से तब जब गैंग भी सलामत न रहे। भूल जा शांता को। अपनी सोच अब तू ठीक हो जायेगा।"
"मैं तो सिर्फ यह कह रहा हूँ कि मेरे धोखे में आकर शांता ने अपनी जान गंवाई।" बेदी उदास स्वर में बोला।
"विजय।" शुक्रा ने गम्भीर स्वर में कहा--- "अगर ऐसा न होता तो शांता बहन तेरा जीना हराम कर देती। उसका मरना ही तेरे लिये अच्छा था, वरना तू जीते-जी मर जाता।"
बेदी ने गहरी सांस लेकर आंखें बंद कर ली।
"सो जा, नींद ले ले। कल ऑपरेशन से तेरे दिमाग में फंसी गोली निकल जायेगी। फिर सब ठीक हो जायेगा। कम-से-कम हमारी भागदौड़ रंग तो लाई।" उदयवीर के स्वर में चैन के भाव थे।
वहां खामोशी छा गई।
कई दिनों की लगातार भागदौड़ की खातिर उन सबको ही नींद आ रही थी। आस्था का हाल भी बेहाल था। जब से उसका अपहरण हुआ था, आधा घंटा भी चैन से नहीं बीता था। सब धीरे-धीरे नींद के हवाले हो रहे थे।
तभी आस्था का धीमा स्वर वहां गूंजा।
"कोई आ रहा है।"
बेदी, शुक्रा और उदयवीर चौंके। उनकी आंखें खुल गईं।
"कोई आ रहा है?" शुक्रा के होंठों से निकला।
"हां, मैंने बाहर धीमी आहट सुनी है। जैसे कोई रुक-रुक कर सीढ़ियां चढ़ रहा था।”
चंद्रमा की रोशनी बाले कमरे में उनकी निगाहें मिली ।
"यहां भला इतनी रात को कौन आ सकता है।" बेदी ने बेचैनी से कहा।
"इसे गलती लगी होगी।" उदयवीर बोला।
"नहीं।" आस्था बोली--- "मैंने साफ-साफ किसी के सीढ़ियां चढ़ने की आहट सुनी है। "
क्षणिक खामोशी रही।
उदयवीर जाने क्या सोच कर उठा और कमरे के प्रवेश दरवाजे के पल्ले के पीछे जा छिपा।
"आने वाला जय नारायण होगा।" शुक्रा गहरी सांस लेकर कह उठा--- "उसने हमारी जानकारी में आये बिना अपने किसी आदमी को हमारी निगरानी पर लगा रखा होगा। पहले वो हमारा ठिकाना देख गया होगा। उसके बाद जय नारायण को ले आया होगा। जिससे हम बच रहे थे, वही सिर पर आ गया, अब क्या होगा ?"
बेदी के चेहरे पर सख्ती आ गई।
"जो भी हो जय नारायण की नहीं चलने देनी।" बेदी ने सख्त स्वर में कहा--- "उस पर काबू पाकर बांध कर यहीं रखना है, जब तक मेरा ऑपरेशन नहीं हो जाता ।"
"ऐसा ही करना पड़ेगा।" शुक्रा कह उठा।
सबकी निगाह खुले दरवाजे पर थी।
उदयवीर दरवाजे के पीछे सांस रोके खड़ा था। अब उन्हें स्पष्ट तौर पर आहट आई कि बाहर कोई है।
"मैं देखता हूं।" कहने के साथ ही बेदी उठा।
तभी दरवाजे के बीचों-बीच कोई आ खड़ा हुआ।
अंधेरा होने की वजह से एकाएक उसे पहचाना न जा सका।
बेदी, शुक्रा और आस्था सांस रोके दरवाजे के बीच, अंधेरे में खड़े इन्सान को देखे जा रहे थे। जब उसने अपना दुपट्टा ठीक किया तो जोरों से चौंके।
"शांता ।" बरबस ही बेदी के होंठों से हैरानी के समन्दर में डूबा स्वर निकला।
शुक्रा को अपनी सांस रुकती-सी महसूस हुई।
"हां।" शांता का शांत स्वर वहां गूंजा--- "तुम्हारी शांता, तुम्हारी पत्नी । कल हमारी पक्की शादी होगी मन्दिर में।"
बेदी को ऐसा महसूस हो रहा था कि जैसे किसी ने दोनों हाथों से उसका गला दबा दिया हो। डर की वजह से टांगें कांपने लगी। रह-रहकर वह सूखे होंठों पर जीभ फेरने लगा।
आस्था भी कुछ सहम-सी गई थी।
अंधेरे में स्पष्ट नजर आ रहा था कि शांता के हाथ में रिवॉल्वर दबी है।
शांता के यहां होने का मतलब स्पष्ट था कि सब-इंस्पेक्टर जय नारायण मारा जा चुका है।
“अपनी पत्नी का स्वागत नहीं करोगे विजय ।" शांता का स्वर बेहद शांत था।
स्वागत तो क्या, बेदी को लग रहा था वक्त से पहले वह मरने वाला है। सिर से पांव तक वह मौत के खौफ से कांप रहा था। उसने तो ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि शांता जिन्दा बचेगी और यहां तक भी आ पहुंचेगी। उसका ही नहीं शुक्रा और उदयवीर का भी यही हाल था।
शांता ने कदम उठाया और भीतर आ गई।
दरवाजे के पल्ले के पीछे सहमे से छिपे उदयवीर को उसकी पीठ नजर आने लगी।
"डॉक्टर की लड़की को लेने और मुझे खत्म करने की बहुत ही खतरनाक और खूबसूरत चाल चली तुमने।" शांता की आवाज में किसी तरह का भाव नहीं था--- "लेकिन सिर्फ एक पुलिस वाले को भेजा। पांच-सात एकदम मेरे सिर पर आ चढ़ते तो शायद शांता का खेल खत्म हो जाता। एक ने मेरा क्या बिगाड़ना था। तूने बहुत बड़ी गलती की मुझे धोखा देकर। पहली बार मैंने किसी को तन-मन से चाहा था। तुझे चाहा था, तेरे को सब कुछ अपना मान लिया था। तेरी जुबान से निकले हर शब्द पर विश्वास किया शांता ने और तू शांता को मौत के हवाले करके आ गया । बोत गलत किया रे। शांता ने तेरे को प्यार से गोद में बिठाया और तू धक्का दे दिया शांता को कुएं में। देख ली, अपनी दुनिया तो बरसों से देख रही थी, तुम शरीफों की दुनिया भी देख ली। मैं तेरे साथ शराफत से, ईमानदारी से अच्छी जिन्दगी बिताने जा रही थी, लेकिन तूने मेरी इच्छा पूरी नहीं होने दी। तूने दगा किया तो अब कौन रहा, जिस पर विश्वास करूंगी, तेरा कसूर नहीं है रे, शांता की किस्मत ही ऐसी है। शांता सबकी बन सकती है, लेकिन शांता का कोई नहीं बन सकता। देख लिया। अच्छी तरह ठोक-पीट कर देख लिया ।"
बेदी को अपना दम निकलता महसूस हो रहा था।
"तुम...।" शुक्रा ने सूखे स्वर में कहा--- "य... यहां कैसे आ गई?"
“यहां।” शांता का स्वर सख्त हो गया--- "बहुत सोच-समझकर यहां आई हूं। मैं जानती थी कि यह सोचकर शांता मर गई। छिपने के लिये इन्हीं फ्लैटों में आओगे। जुर्म करने वालों के अगले कदम के बारे में जान लेना शांता ने बहुत पहले सीख लिया था। यहां पहुंचने के बाद बाहर खड़ी एम्बैसेडर ने बता दिया कि तुम लोग यहीं आस-पास ही किसी फ्लैट में हो।"
शांता के खामोश होते ही वहां मौत से भरी चुप्पी छा गई।
"बहुत रहम कर लिया शांता ने तुम लोगों पर। अब रहम नहीं मिलेगा।” शांता ने शांत स्वर में कहते हुए अपना रिवॉल्वर वाला हाथ ऊपर उठाया ।
किसी भी पल गोली चल सकती थी।
बेदी ने तो अपनी मौत को स्पष्ट देख लिया था।
तभी उदयवीर जो कि पीछे दरवाजे के पल्ले की आड़ में खड़ा था। यह सब देखकर उसमें जाने कहां से हिम्मत आ गई। पल की भी देरी किए बिना उसने बाज की तरह झपट्टा मारा। अपनी दोनों हथेलियां शांता के कंधों पर रखते हुए पूरी ताकत से उसे आगे को धक्का दे दिया। धक्का इतना जबरदस्त था कि शांता के पांव उखड़ गये। रिवॉल्वर हाथ से छूट गई। जोरों से वह लड़खड़ाती हुई सामने की दीवार से टकराई और खुली खिड़की की चौखट थाम कर खुद को संभाला।
शांता का खौफ बेदी पर इस कदर हावी हो चुका था कि मात्र दो पल के लिये जैसे उसके भीतर शैतान आ गया हो। वह पागलों की तरह शांता की तरफ बढ़ा। शांता अभी संभली ही थी कि पास पहुंचते दांत भींचे बेदी ने उसे घुटनों से पकड़ा और ऊपर करते हुए खुली खिड़की के पार उछाल देना चाहा।
अंधेरे में उस पल कोई समझ न पाया कि क्या हो रहा है। शांता का आधे से ज्यादा शरीर खिड़की के बाहर हो चुका था कि तभी उसके हाथ में खिड़की की चौखट आ गई। बेदी ने पुनः जोर लगाया। परन्तु चौखट पकड़ लेने की वजह से शांता नीचे नहीं गिरी। वहशियों की तरह बेदी ने दांतों से उस हाथ पर जोरों से काट लिया, जो चौखट पर टिका था।
शांता के होंठों से हल्की सी चीख निकली.! चौखट से हाथ हटते ही वह खिड़की के पार पहली मंजिल से नीचे गिरती चली गई। तब शांता की चीख सबके कानों में पड़ी थीं। फिर सब कुछ शांत हो गया। ऐसा लगा जैसे छोटा-सा तूफान उठा हो और फिर थम गया हो।
बेदी ने हांफते-हांफते खिड़की के बाहर नीचे देखा । चन्द्रमा की रोशनी में इसके अलावा वह ज्यादा स्पष्ट न देख सका कि नीचे शांता बिना हिले-डुले पड़ी हुई है।
"विजय ।" शुक्रा जल्दी से खिड़की की तरफ भागा।
उदयवीर भी ।
नीचे का नजारा देखा । फिर उदयवीर फ्लैट से निकलकर अंधेरे में ही सीढ़ियां तय करता नीचे पहुंचा। चौथे मिनट ही वापस आया और गहरी-गहरी सांसें लेता कह उठा।
"नीचे, शांता मरी पड़ी है। उसका सिर शायद जमीन से टकराया है। वो पूरा फटा पड़ा है।"
बेदी फफक-फफक कर रोते हुए नीचे बैठ गया।
“विजय।" शुक्रा जल्दी से बोला--- “होश में आ, रोता क्यों है ?"
"मैंने शांता को मार दिया। मैंने जान ले ली।" बेदी रोते हुए तड़प कर कह उठा।
"अगर तू उसे खिड़की से नीचे न फेंकता तो वह हम तीनों और इस लड़की की जान ले लेती। याद करो जय नारायण ने भी कहा था कि खुद को बचाने के लिये किसी की जान लेना गुनाह नहीं है।"
बेदी रोता रहा, सिसकता रहा।
■■■
सब-इंस्पेक्टर जय नारायण की बाजी उलटी पड़ी थी।
बेदी को चाबी देते समय बैड के गद्दे के नीचे से रिवॉल्वर भी हाथ में आ गई थी, जिसे कि शांता ने यूं ही बैड पर रहने दी थी। शांता ने नहाने के लिये बाथरूम जाना था, परन्तु उसे इन्तजार था, उंगलियों में फंसी सिगरेट खत्म होने का।
डेढ़-दो मिनट बाद सिगरेट समाप्त हुई तो उसे ऐश-ट्रे में डालकर उठने को हुई कि ज्यों की त्यों ठिठक गई। साथ लगते ड्राइंग रूम में किसी के चलने की आवाज आई थी। कम-से-कम वो विजय बेदी नहीं था। इस बात का उसे आहट से ही यकीन हो गया था।
खुद-ब-खुद ही उसका हाथ पास पड़े रिवॉल्वर पर जा टिका। निगाहें एकटक दरवाजे पर थीं। अपना शरीर उसने ठीक तरह से चादर से ढांप लिया था।
आने वाले पल को वह शांत ढंग से बिता रही थी।
तभी दूसरे कमरे की रोशनी में उसने किसी की परछाई दरवाजे के करीब ही देखी। मतलब कि वह जो भी था। उसके बेडरूम के दरवाजे के करीब आ पहुंचा था। शांता समझ नहीं पा रही थी कि कोई अजनबी इस तरह उसके घर के भीतर कैसे आ पहुंचा। विजय ने ग्रिल खोली होगी तो क्या आने वाला बाहर ही ग्रिल खुलने का इन्तजार कर रहा था और फिर विजय को किसी तरह का नुकसान पहुंचाकर भीतर आ गया।
उसी वक्त दरवाजे पर हाथ में रिवॉल्वर लिये सब-इंस्पेक्टर जय नारायण का चेहरा चमका।
सैकिण्ड के सौवें हिस्से में शांता समझ गई कि वो चेहरा किसी पुलिस वाले का है। जो कि उसका शिकार करने के इरादे से, रिवॉल्वर थामे वहां आ पहुंचा है।
इसके आगे शांता ने कुछ भी नहीं सोचा।
पहले एक बार ट्रेगर दबा, फिर दूसरी बार ।
पहली गोली जय नारायण के कंधे को पूरी तरह उधेड़ गई। दूसरी उसके पेट में जा धंसी। जय नारायण के शरीर को तीव्र झटका लगा। वह उछलकर दो कदम पीछे गिरा और पेट के बल, फर्श पर हाथ-पांव फैलाये ढेर हो गया। शांता होंठ भींचे वहीं बैठी, जय नारायण के नीचे पड़े शरीर को देखती रही। फिर चादर लपेटे उठी। ड्राइंगरूम को पार करके ग्रिल तक का चक्कर लगा आई
बेदी उसे कहीं नहीं मिला।
शांता के सामने फौरन स्पष्ट हो गया कि पुलिस वाले को भीतर आने का मौका विजय ने ही दिया। विजय ने उसके साथ शादी की बात करके जो किया वह महज एक ड्रामा था। उसने डॉक्टर की बेटी का पता जानना था। उसे वापस पाना था। यह बात मालूम करके चला गया और उसकी जान लेने के वास्ते बाहर मौजूद पुलिस वाले को भेज दिया। शांता के मन को धक्का भी लगा कि जिसे मन से चाहा, वही उसे चोट दे गया।
ग्रिल खुली ही रही।
शांता ने भीतर से दरवाजा बंद किया और चादर उतारकर एक तरफ फेंक दी। रिवॉल्वर सोफे पर उछाल दी और खुद बाथरूम की तरफ बढ़ गई। उसकी सुलगती आंखों में बेदी का चेहरा नाच रहा था।
जय नारायण छाती के बल फर्श पर लुढ़का पड़ा था। उसके आस-पास पड़ा खून ही खून नजर आ रहा था। शांता जानती थी कि दो गोलियां शरीर में लेने के बाद वो जिन्दा नहीं बचेगा।
दस मिनट बाद ही शांता सूट पहने तैयार थी। सोफे से रिवॉल्वर उठाकर उसने कपड़ों में फंसाया और दुपट्टा ठीक करते हुए दरवाजा खोलकर ग्रिल पार करके सीढ़ियां उतरने लगी। बेदी के पास जाने के लिये। उसके पास पहुंचने के लिये, जैसे वो जानती हो कि बेदी कहां मिलेगा।
शांता को गये कठिनता से पांच मिनट ही बीते होंगे कि बेहोश पड़े जय नारायण के होंठों से कराह निकली और उसके शरीर में हरकत हुई। पीड़ा से उसने दांत भींच लिए। पेट में गोली, कंधे में गोली। दर्द से बुरा हाल हो रहा था उसका। आंखों के सामने भी धुंधला सा नजर आ रहा था।
कठिनता से उसने सिर उठाया। इधर-उधर देखा। हर तरफ घर की रोशनियां जली नजर आ रही थीं। परन्तु शांता कहीं भी नजर नहीं आई। शायद उसे मरा जानकर छोड़कर चली गई। जय नारायण जानता था कि दो गोलियां उसके जिस्म में है। खून बहुत वह चुका है। अगर इसी तरह पड़ा रहा तो खून बहने की वजह से उसकी जान न निकल जाये। वह हिलने की हालत में भी नहीं था। परन्तु जिन्दगी और मौत का सवाल था।
फर्श पर सरक सरक कर जाने कैसे वह फोन तक पहुंचा और कठिनता से थाने फोन किया। इत्तफाक से इंस्पेक्टर महेन्द्र यादव ने रिसीवर उठाया। जय नारायण ने सिर्फ इतना बताया कि वह शांता बहन के यहां है। बुरी हालत में है। इससे ज्यादा वह बात नहीं कर सका और बेहोश हो गया।
उसके फोन करने के पच्चीस मिनट बाद ही इंस्पेक्टर यादव दो जीपों में भरकर पुलिस वालों के साथ वहां था। उस इलाके के थाने वाले भी वहां आ पहुंचे थे।
कुछ ही देर में सब-इंस्पेक्टर जय नारायण अस्पताल में काबिल डॉक्टरों की देख-रेख में था और सुबह जब उसे होश आया तो वह पूरी तरह खतरे से बाहर था।
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डॉक्टर वधावन ने बेदी का ऑपरेशन कर दिया था। सप्ताह बीत चुका था। बेदी वधावन के ही क्लीनिक में था। उदयवीर, बेदी की देखभाल कर रहा था। वह खुश थे कि दिमाग में फंसी गोली निकल गई। मौत का खतरा टल गया। सब ठीक हो गया। उधर शुक्रा, आस्था की पहरेदारी पर गैराज के केबिन में था। इस बीच सब-इंस्पेक्टर जय नारायण का फोन आया, डॉक्टर वधावन को।
"डॉक्टर।" जय नारायण ने कहा--- "आपकी बेटी को तलाश करते समय मुझे दो गोलियां लग गई थीं। इस वजह से मैं आपकी बेटी को तलाश नहीं कर पाया। कुछ ही दिन में चलने-फिरने लायक हो जाऊंगा तो...।"
"कुछ और कहना है आपको?" वधावन ने तीखे स्वर में कहा।
"विजय का फोन तो आया, आपके पास?"
"इंस्पेक्टर, इस वक्त मैं व्यस्त हूं।" वधावन ने बात समाप्त करने वाले अंदाज में कहा--- “फिर फोन करना।" कहने के साथ ही वधावन ने रिसीवर रखा और क्लीनिक के कमरे में पहुंचा, जहां बेदी मौजूद था। उदयवीर पास ही बैठा था।
"मिस्टर विजय।" वधावन ने गम्भीर स्वर में कहा--- "अभी इंस्पेक्टर जय नारायण का फोन आया था।"
बेदी और उदयवीर चौंके।
"जय नारायण का फोन?" बेदी के होंठों से निकला--- "वो तो मर गया था।"
"तुमने उसे गोलियां मारी ?" वधावन के माथे पर बल पड़े।
"मैं क्यों मारूंगा। शांता ने उसे शूट किया था। मैंने समझा वो मर गया।" बेदी ने जल्दी से कहा।
"जय नारायण को दो गोलियां लगी थीं। वो बच गया है। पहले से अब वो ठीक है और तुम्हारे बारे में पूछ रहा था कि तुमने मुझे फोन किया कि नहीं।" वधावन की आवाज में गम्भीरता थी--- "मैं नहीं चाहता कि वो यहां आ जाये और तुम्हें देख ले। ऐसे में तुम्हारे लिये दिक्कतें खड़ी हो सकती हैं। तुम्हें उसने पकड़ लिया तो उस हालत में तुम मेरी बेटी मुझे वापस नहीं दोगे।"
बेदी वधावन को देखे जा रहा था।
"ऑपरेशन को सप्ताह हो चुका है। दो सप्ताह बाद तुम्हारे सिर में लगे टांकों को चैक करना है। वैसे तुम ठीक हो। हम दोनों के लिये यही अच्छा है कि मेरी बेटी को मेरे हवाले करो और तुम यहां से चले जाओ। दो सप्ताह बाद आ जाना या मुझे फोन करके कहीं भी बुला लेना । तब मैं तुम्हारा चैकअप कर लूंगा।"
बेदी ने उदयवीर को देखा।
"उदय, बात तो ठीक है। आराम से लेटना ही है। वो तो कहीं भी हो सकता है।"
"हां, यहां से निकल चलना ही बेहतर है।"
“ऐसे नहीं।" वधावन ने पक्के शब्दों में कहा--- “मेरी बेटी मुझे मिलेगी तो तुम यहां से जाओगे।"
"ठीक है डॉक्टर ।" बेदी ने कहा--- "तुम यहीं बैठो, मेरी नजरों से दूर नहीं जाओगे। कहीं ऐसा न हो कि तुम पुलिस को फोन कर दो और जब तुम्हारी बेटी यहां आये तो पुलिस मुझे गिरफ्तार कर ले।"
"ऐसा कुछ नहीं है। मैं तुम्हारे पास रहूंगा। जब तक मेरी बेटी नहीं आ जाती।" वधावन बोला।
"उदय, जा शुक्रा को और आस्था को ले आ।"
उदयवीर वहां से चला गया।
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बेदी और आस्था की अदला-बदली हो गई।
उदयवीर और शुक्रा आस्था को लेकर वधावन के क्लीनिक पर आये। आस्था को डॉक्टर वधावन के हवाले करके, बेदी को कार में लेकर चले गये।
तीनों बेहद खुश थे। सारा काम ठीक-ठाक ढंग से निपट गया था।
"एक बात बहुत बुरी हुई और एक बहुत अच्छी ।" बेदी गहरी सांस लेकर कह उठा।
"क्या ?"
"शांता का मेरे हाथों मरना।" बेदी की आवाज में अफसोस था--- "मुझे अभी तक विश्वास नहीं आ रहा कि मैंने उसे मारा हैं।"
“तुमने उसे नहीं मारा, शांता अपनी मौत मरी है। तुमने तो अपने को बचाया है। छोड़ अब इन बातों को।"
"अच्छी बात कौन-सी हुई?" उदयवीर ने पूछा।
"सब-इंस्पेक्टर जय नारायण का बच जाना ।"
"मत भूल वो तेरे पीछे पड़ा है। बच गया है अब, तेरे लिये मुसीबतें इकट्ठी करेगा।"
"कोई परवाह नहीं।" बेदी मुस्कराया— “मेरे दिमाग में फँसी गोली निकल गई है। मौत के जिस डर से दिन-रात मैं तड़प रहा था। उससे छुटकारा मिल गया है। अब मुझे किसी बात का डर नहीं। पुलिस पकड़ेगी तो जेल में डाल देगी। तो क्या हो गया, जिन्दा तो रहूंगा। वहां, छूटकर कभी तो बाहर आऊंगा। वैसे वो पुलिस वाला जय नारायण अच्छा इन्सान है। अभी उसमें इन्सानियत बची हुई है। इसलिये उसका बचना मुझे अच्छा लगा।"
उदयवीर का ध्यान कार ड्राइव करने की तरफ भी था।।
"अंजना को भूल गया। राघव की याद नहीं आ रही क्या ।" शुक्रा जहर भरे स्वर में कह उठा--- "तेरे बच्चों की मां बनते-बनते हमारे ही यार राघव के साथ भाग गई। पिशोरी लाल की तिजोरी से मिली डेढ़-दो करोड़ की दौलत भी वे दोनों साथ ले गये, वो...।"
"छोड़।" बेदी ने आंखें बंद कर ली---- "उनकी बात मत कर।"
“विजय, जब भी वो मेरे को मिले, तो छोडूंगा नहीं कमीनों को । देखना क्या हाल...।"
"जब मिलेंगे, देख लेंगे।" बेदी गहरी सांस लेकर कह उठा--- "मेरे दिमाग का ऑपरेशन हो गया। वहां फंसी मौत रूपी गोली निकल गई। मेरा काम हो गया, मैं खुश हूं।"
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उदयवीर और शुक्रा के लाख मना करने पर भी बेदी ने गैराज में ही जाना पसन्द किया। यही कहता रहा बेशक अब पुलिस उसे पकड़ ले, कोई परवाह नहीं। शुक्रा भी उसके साथ गैराज में रहा। केबिन में वे डेरा जमाये रहे।
उदयवीर उनके लिये खाने-पीने का इन्तजाम करता रहा। गैराज के काम में भी व्यस्त रहा। सब खुश थे। गैराज में आने के तीसरे दिन, दोपहर को जब वे तीनों खाना खा रहे थे कि एकाएक बेदी के सिर में भयंकर दर्द उठा। बेदी के दोनों हाथ सिर पर जा पहुंचे। चेहरा पीड़ा से लाल सुर्ख हो गया। वह फर्श पर लुढ़कता चला गया।
"विजय ।"
"विजय ।"
शुक्रा और उदयवीर चिल्लाते हुए उसकी तरफ लपके। आधे मिनट में ही बेदी की तबीयत संभल गई। वह गहरी-गहरी सांसें लेने लगा। वहां पर मौत से भी पैना सन्नाटा छा चुका था। बेदी का चेहरा अभी भी दहक-सा रहा था। उसने शुक्रा और उदयवीर को देखा। उसकी आंखों में बहुत बड़ा प्रश्न था। सवाल था, आंखों में भय की लहर उछलने लगी थी।
शुक्रा और उदयवीर की निगाहें मिलीं। उनके चेहरों पर अजीब से भाव उमड़ आये थे ।
"शुक्रा ।" बेदी का स्वर कांपा--- "ये... ये दर्द--व...वही दर्द... ।” थरथराहट में बेदी अपने शब्द पूरे न कर सका।
"ये कैसे हो सकता है?" शुक्रा के होंठों से अजीब-सा स्वर निकला।
“मुझे।" उदयवीर ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी--- "मुझे कुछ गड़बड़ लग रही है।"
बेदी की हालत अब काबू में आ चुकी थी। वह जल्दी से उठा ।
"आओ।" बेदी की आवाज अजीब-सी हो रही थी।
"कहां?"
"सिर का एक्स-रे कराने।" बेदी का चेहरा फक्क था।
तीनों गैराज के बाहर खड़ी एम्बैसेडर की तरफ भागे।
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सड़ाक----!
वह "चाबुक" था, बेदी के लिये ।
सिर के एक्स-रे फिल्म में दिमाग वाले हिस्से में नजर आ रही वह गोली, गोली नहीं "चाबुक" था, बेदी के लिये। वह खुश था कि मौत रूपी गोली से उसने छुटकारा पा लिया है। लेकिन वह वहीं थी। अपनी मौजूदगी के साथ और सिर में हुए दर्द ने पहले ही एहसास दिला दिया था कि मैं अभी भी तुम्हारी हमसफर हूं। मौत बनकर तुम्हारे साथ हूं। इतनी आसानी से पीछा छोड़ने वाली नहीं। मैं बनी ही तुम्हारे लिये हूं।
बेदी फटी-फटी आंखों से एक्स-रे में नजर आ रही गोली को देखे जा रहा था।
“शुक्रा, उदय।" बेदी की आवाज में थरथराहट थी--- "यह क्या वो डॉक्टर तो कहता था, कहता था मैंने ऑपरेशन कर दिया है, गो... गोली निकाल...।" कहते हुए बंदी की आंखों से आंसू बह निकले।
"कुत्ता।” शुक्रा दांत भींचकर कह उठा--- "धोखा दे गया डॉक्टर वधावन। उल्लू के पट्टे ने सिर में चीरा लगाकर टांके लगा दिए और बोल दिया कि ऑपरेशन हो गया। अपनी बेटी को वापस पा लिया, चालाकी से ।"
“अब क्या होगा, मै... मैं मर जाऊंगा।"
“यार ।” शुक्रा दांत भींचकर बोला--- "मेरे होते कुछ नहीं होगा तेरे को, मैं डॉक्टर से बात करता हूं।"
तीनों कार में बैठकर वहां से आगे बढ़े।
शुक्रा के कहने पर उदयवीर ने कार रोकी तो सामने की दुकान पर शुक्रा, डॉक्टर वधावन को फोन करने चला गया। तीसरे मिनट ही शुक्रा लौटा तो थका-थका सा नजर आ रहा था।
"क्या हुआ ?" बेदी की आवाज में कम्पन था।
"वधावन कहता है, बारह लाख ले आओ। ऑपरेशन कर दूंगा।" शुक्रा कार में बैठता हुआ बोला--- "साथ में यह भी कहा कि उसके अपने उसूल हैं। हम लोगों की दादागिरी में दबकर वह ऑपरेशन से, तुम्हारे दिमाग में फंसी गोली नहीं निकालेगा। वो बोला अपनी बेटी को उसने दूर ऐसी जगह भेज दिया है कि अब हम उसका पता नहीं लगा सकते। उसका अपहरण नहीं कर सकते।"
बेदी की आंखों से आंसू बह निकले।
"मैं अब नहीं बचूंगा। मर जाऊंगा। बस, अब मुझे मौत का इन्तजार है। वो गोली नहीं, मेरा बुलावा है।"
“यारा दिल छोटा मत कर। कुछ नहीं होगा तेरे को, अपने शुक्रा पर भरोसा रख।" शुक्रा तसल्ली दे रहा था, लेकिन उसकी आवाज में भी कम्पन था--- "तेरा ऑपरेशन होगा, डॉक्टर वधावन ही करेगा, अभी हमारे पास बहुत वक्त है। कहीं-न-कहीं से बारह लाख का इन्तजाम करेंगे और.... ।”
“नहीं कर पायेंगे।" बेदी का चेहरा मौत के खौफ से पीला पड़ चुका था।
“कर लेंगे।” शुक्रा ने उसका कंधा दबाया--- “चल उदय, कार आगे बढ़ा। गैराज पर चलकर सोचते हैं कि जल्द से जल्द बारह लाख कहां से हासिल किए जा सकते हैं।"
उदयवीर की आंखें गीली थीं। होंठ भींचे, उसने कार आगे बढ़ा दी।
बेदी ने आंखें बंद करके सिर सीट की पुश्त से सटा लिया था। आंखों के कोनों से आंसू की पतली धार निकल रही थी। उसकी हालत पर शुक्रा तड़प रहा था। लेकिन बेबस था। इस वक्त कुछ नहीं कर सकता था। दांत भींचे शुक्रा खिड़की से बाहर देखने लगा। दिमाग कार से भी तेज रफ्तार से दौड़ रहा था कि अपने यार की जान कैसे बचाये? बारह लाख का इन्तजाम कहां से करे? जहां से भी करना है। फौरन करना है।
"विजय!" शुक्रा ने तड़प कर बेदी को हिलाया।
बेदी ने आंखें खोलीं।
“फिक्र नहीं करना। तू बच जायेगा। मैं तेरे को कुछ नहीं होने दूंगा। वधावन से ही तेरा ऑपरेशन कराऊंगा।
बेदी मुस्कराया।
फीकी। टूटी। थकान और हार से भरी मुस्कान। उसकी सोच के मुताबिक अब मात्र छत्तीस दिन बाकी बचे थे, उसकी जिन्दगी के। और इन छत्तीस दिनों में एक बार फिर कोशिश करनी थी बारह लाख इकट्ठा करने की कि शायद बाकी बची छत्तीस दिन की जिन्दगी को, सौ साल जितनी लम्बी जिन्दगी में बदल सके।
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