2 दिसम्बर-सोमवार
अगले रोज के अख़बार में सुर्खी थी:
डिअर पार्क, हौजख़ास के गेट के करीब महिला की लाश मिली पुलिस ने कत्ल का केस बताया।
ख़बर के साथ लाश की क्लोजअप में फोटो भी थी जिससे विमल ने साफ पहचाना कि मरने वाली पिछली रात की ‘गोल्डन गेट’ की लाल गाउन वाली वो होस्टेस थी जिसने नीलम को सन्देशा लिखा कागज का पुर्जा थमाया था।
इस बात का स्पष्ट जिक्र था कि लाश के करीब से उसका कोई निजी सामान बरामद नहीं हुआ था, इसलिये उसकी अभी तक शिनाख़्त नहीं हो सकी थी। पुलिस ने पब्लिक से अपील की थी कि अगर कोई शख़्स उस लाश को पहचानता हो, उसकी बाबत कुछ जानता हो तो अविलम्ब अपनी जानकारी पुलिस के साथ साझा करे।
ख़बर के साथ मकतूल की तसवीर छापना मीडिया का दस्तूर नहीं होता था, किसी और साधन से मकतूल की कोई स्वाभाविक, उसकी जिन्दगी में खिंची, तसवीर उपलब्ध हो तो छापी जाती थी, लाश की तसवीर ख़बर के साथ छापने से हमेशा परहेज किया जाता था। उस ख़बर के साथ लाश की क्लोज-अप तसवीर का छपा होना यही जाहिर करता था कि वैसा पुलिस के किसी इसरार के तहत हुआ था। पुलिस की शिनाख़्त की जैसी अपील ख़बर के साथ छपी थी, वो अमूमन एक अलग विज्ञापन के तौर पर ‘अपील फॉर आइडेन्टिफिकेशन’ के तहत अख़बार में अन्यत्र कहीं छपती थी।
पुलिस के मुताबिक महिला को शूट किया गया था, उसकी छाती में दो गोलियाँ लगी थीं, जिनमें से एक दिल के आरपार गुजर गयी थी।
तभी कालबैल बजी।
विमल ने उठ कर दरवाजा खोला।
आगन्तुक अशरफ और अल्तमश थे।
अल्तमश तब मर्दाना लिबास में था।
“अरे!” — विमल हैरानी से बोला — “इतनी जल्दी घर से फिर निकल पड़े!”
“जनाब” — अशरफ थकी आवाज में बोला — “घर गया ही कौन!”
“क्या!”
“कहीं बैठने दीजिये वर्ना खड़े-खड़े ढेर हो जायेंगे।”
“बाप रे!”
तीनों ड्राईंगरूम में पहुँचे। वो दोनों एक सोफे पर ढेर हुए, विमल उनके सामने बैठा।
“अब” — अशरफ बोला — “अगर एक प्याली चाय की नवाजिश हो जाये तो समझिये सोने पर सुहागा।”
विमल ने मेड को बुला कर चाय की बाबत हिदायत दी।
फिर नीलम भी ड्राईंगरूम में आ बैठी।
तब सबसे पहले विमल ने उन तीनों का ध्यान अख़बार की ओर आकर्षित किया।
सबने जल्दी-जल्दी ख़बर पढ़ी।
“कमाल है!” — अशरफ बोला — “जरूर उसे लूटने की कोशिश में ये वारदात हुई!”
“रात के वक्त” — अल्तमश बोला — “ऐसी वारदात बहुत होने लगी हैं दिल्ली में। अकेली लड़कियाँ झपटमारों का, लुटेरों का निशाना अक्सर बनती हैं। मुख़ालफत करती हैं तो पेट में खंजर! छाती में गोली! कुछ भी!”
“मुझे नहीं लगता कि ये वारदात लूट के मकसद से हुई है।” — विमल बोला — “ऐसा हुआ होता तो पुलिस के हवाले से अख़बार में इस बात का जिक्र होता जो कि नहीं है। फिर अख़बार में छपी तसवीर से ही पता लग रहा है कि उसकी पर्सनल ज्वेलरी — कानों में टॉप्स, गले में चेन, वगैरह — सही सलामत है। बाकी बचा बैग, तो वो तो उसका पीछे ‘गोल्डन गेट’ में छूट गया था जहाँ हमारी वहाँ से रुख़सती तक तो वो लौटी नहीं थी! हमारे बाद लौटी भी या नहीं, इस बात की तब तसदीक हो जायेगी जब नुमायां होगा कि बैग अभी भी ‘गोल्डन गेट’ में ही था या नहीं!”
“वहीं निकलेगा।” — नीलम बोली।
विमल ने घूम कर उसकी तरफ देखा।
“बहुत विश्वास के साथ कह रही है?” — वो बोला।
“और” — नीलम और भी दृढ़ता से बोली — “कर्मांमारी के कत्ल का मकसद लूट नहीं, सजा था।”
“क्या!”
“हाँ। यकीनन!”
“किस बात की सजा?”
“उसने वो सन्देशा गलत जगह पहुँचाया न!”
विमल मुँह बाये नीलम की तरफ देखने लगा।
“वो वाहियात-सा सन्देशा” — विमल हैरानी से बोला — “जिसका न सिर था न पैर था, एक कत्ल की वजह बन गया!”
“हाँ।” — नीलम बोली — “सन्देशा वाहियात था लेकिन उसका मतलब — कोई खुफिया मतलब — जरूर कोई ख़ास था, जिसे असली पाने वाला ही समझ सकता था, जिसे हम न समझ सके इसलिये हमें वो वाहियात लगा। लेकिन सन्देशा जारी करने वालों को तो नहीं मालूम था कि जिन गलत हाथों में सन्देशा पहुँचा, उसके मालिकान उसे न समझ सके!”
“यानी उस औरत की उस बंगलिंग की सजा के तौर पर उसका कत्ल!”
“हाँ।”
“और ये बात नीलम बीबी को सूझी!”
नीलम शरमाई।
तभी फ्रान एक बड़ी ट्रे उठाये वहाँ पहुँची। उसने सब को चाय और सैंडविच सर्व कीं और वापिस किचन में चली गयी।
सबने उस सर्विस की तरफ तवज्जो दी।
“अब बोलो” — विमल बोला — “रात घर क्यों नहीं गये? नहीं गये तो अब तक कहाँ थे?”
“हौजखास में ही थे।” — अशरफ बोला — “और घर इसलिये नहीं गये कि ‘गोल्डन गेट’ की निगाहबीनी में रात खोटी की।”
“दाता! अरे, ये क्या दीवानगी तारी हुई तुम पर!”
“हमने चैलेंज महसूस किया, जनाब। दम परखा आपकी बात का।”
“किस बात का?”
“कि ‘गोल्डन गेट’ में जिन ख़ासुलख़ास साहिबान को हमने जाते देखा, उनके लौटने का इन्तजार करना मुफीद था या नहीं! जाने में कोई भेद था तो लौटने में कोई भेद था या नहीं!”
“इसलिये ‘गोल्डन गेट’ की निगाहबीनी करते सारी रात आँखों में गुजारी!”
“जी हाँ।”
“लेकिन सारी रात क्यों? वो रेस्टोरेंट तो रात बारह बजे बन्द हो जाता था! ऐन्ट्रेंस पर ऐसा नोटिस भी लगा था!”
“ठीक लगा था। जो टाइम नोटिस में दर्ज था, उसी टाइम बन्द हुआ था। बाजू की गारमेंट फैक्ट्री भी दूसरी शिफ्ट के बाद बारह बजे बन्द हो गयी थी।”
“तो?”
“जनाब, रेस्टोरेंट बन्द हो गया, मेहमान रुख़सत हो गये लेकिन वो लोग तो न रुख़सत हुए जो, बकौल आपके, किसी स्पेशल, प्राइवेट, एक्सक्लूसिव डायनिंग एरिया के मेहमान थे! रेस्टोरेंट की बत्तियाँ बुझ गयीं, ताले लग गये, स्टाफ छुट्टी करके चला गया, वो ख़ास मेहमान — वो सिन्धी बिजनेसमैन सुखनानी, वो विग जैसे झक सफेद बालों वाला शख़्स, वो सिख — उन जैसे और भी — तो हमें जाते न दिखाई दिये!”
“भई, क्लोजिंग टाइम की अफरातफरी में वो पहचानी हुई सूरतें तुम्हें नहीं दिखाई दी होंगी!”
“कोई अफरातफरी नहीं, जनाब, आधी रात को रेस्टोरेंट बन्द हुआ था, कोई सिनेमा का हाउसफुल शो तो नहीं छूटा था! सर्दियों का मौसम है। दिसम्बर की शुरुआत है जिसके बाद से दिल्ली में सर्दी बढ़ती ही जाती है। ऐसे मौसम में दस-साढ़े दस सब लोग-बाग ऐसी जगहों से रुख़सत होना शुरू कर देते हैं। याद कीजिये हम लोग भी ग्यारह से पहले वहाँ से चले आये थे। नहीं?”
“हाँ।”
“रेस्टोरेंट की हाजिरी तो तभी घटनी शुरू हो गयी थी और क्लोजिंग टाइम पर तो रेस्टोरेंट एक चौथाई भी फुल नहीं था, फिर अफरातफरी कैसी जिसमें वो ख़ास मेहमान हमें न दिखाई दिये?”
“तुम ठीक कह रहे हो। तो क्लोजिंग टाइम पर कोई ख़ास मेहमान वहाँ से रुख़सत होता न दिखाई दिया?”
“जी हाँ।”
“तब” — अल्तमश बोला — “पहला ख़याल मेरे जेहन में ये आया था कि जरूर वहाँ से निकासी का कोई खुफ़िया रास्ता था, लेकिन मेरा ख़याल अशरफ भाई ने फेल कर दिया।”
विमल ने अशरफ की तरफ देखा।
“मामूली बात है, जनाब।” — अशरफ बोला — “जब आमद खुफ़िया नहीं तो रवानगी के खुफ़िया होने का क्या मतलब? ऐसा कोई खुफ़िया रास्ता वजूद में था तो उसे आमद के लिये भी तो इस्तेमाल किया जा सकता था! क्या प्रॉब्लम थी?”
“ख़ास मेहमानों की स्क्रीनिंग का इन्तजाम रेस्टोरेंट वाले रास्ते पर था।”
“वैसा इन्तजाम खुफ़िया रास्ते पर भी तो कायम किया जा सकता था!”
“तेरी बात ठीक है। पर रात खोटी की तो कभी तो ख़ास मेहमान वहाँ से रुख़सत पाते आखि़र दिखाई दिये ही होंगे वर्ना तुम दोनों यहाँ न लौटे होते!”
“सुबह पाँच बजे दिखाई दिये। पौ फटने में अभी डेढ़ घण्टा बाकी था जबकि दो-दो, तीन-तीन कर के लोग बाहर निकलते दिखाई दिये लेकिन ‘गोल्डन गेट’ की इमारत से नहीं, आधी रात के बाद क्लोजिंग टाइम के बाद, उसके तो आयरन गेट को बाहर से ताला लग गया था!”
“तो . . . तो और कहाँ से?”
“बगल की इमारत से जिसमें कि गारमेंट फैक्ट्री है।”
“तेरा मतलब है दोनों इमारतें अन्दर कहीं से एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं?”
“और कैसे कोई ‘गोल्डन गेट’ में जाकर गारमेंट फैक्ट्री से बाहर निकल सकता है?”
“कोई खुफ़िया रास्ता!”
“यकीनन!”
“आगे बोल। अपनी बात मुकम्मल कर। लोग दो-दो, तीन-तीन करके बारास्ता फैक्ट्री बाहर निकलते दिखाई दिये, फिर?”
“‘इंडिका’ कारों में सवार होकर ख़ामोशी से वहाँ से रुख़सत होने लगे। यहाँ ये बात भी काबिलेजिक्र है, गौरतलब है, जनाब, कि रात को वहाँ से मैट्रो स्टेशन की आवाजाही के लिये दो ही शटल कारें थीं, सुबह पाँच थीं।”
“क्योंकि लोग आते एक-एक, दो-दो करके हैं, जाते इकट्ठे हैं!”
“मेरा भी यही ख़याल था।”
“तो वापिसी के लिये वहाँ शटल कारें पाँच थीं?”
“जी हाँ।”
“पाँचों ‘इंडिका’?”
“जी हाँ। और नम्बर भी सीरियल में।”
“यानी पाँचों इकट्ठी खरीदी गयीं? शटल सर्विस के तौर पर इस्तेमाल होने के लिये?”
“और क्या!”
“आगे?”
“जनाब, यूँ कोई तीस लोग हमने वहाँ से जाते देखे जिनमें हमारा सिन्धी सेठ सुखनानी भी शामिल था, वो सिख भी शामिल था, वो झक सफेद बालों वाला मेहमान भी शामिल था और सात-आठ लड़कियाँ शामिल थीं।”
“क्या!”
“निहायत हसीन! जवान! आवर-ग्लास फिगर।”
“उनका वहाँ क्या काम?”
“होस्टसें होंगी।” — नीलम बोली — “बढि़या रेस्टोरेंट्स में होती हैं।”
विमल ने हैरानी से नीलम की तरफ देखा।
नीलम शान से मुस्कुराई।
“तीस मेहमानों के लिये इतनी होस्टसें?”
“वेटर होंगे ही नहीं।”
“बहुत सयानी बातें कर रही है!”
“मैं हूँ ही सयानी।”
“बस कर।” — विमल वापिस अशरफ की तरफ घूमा — “सब की मंजिल ग्रीन पार्क मैट्रो स्टेशन?”
“बिलाशक।” — अशरफ बोला — “सिन्धी सेठ की मर्सिडीज की तरह सब की कीमती गाडि़याँ वहाँ खड़ी थीं जिन्हें वाे लोग खुद ड्राइव करते वहाँ से गये।”
“लड़कियाँ?”
“वो मेरे ख़याल से मैट्रो की पैसेंजर थीं।”
“सारी रात सारे खास मेहमान . . .”
“तीस।” — अल्तमश बोला — “मैंने बराबर गिने।”
“. . . और वो लड़कियाँ उस रेस्टोरेंट की इमारत में कहीं?”
“यकीनन।” — अशरफ बोला — “और कहाँ!”
“मतलब क्या हुआ इसका?”
“मैंने और अल्तमश ने बहुत सोचा इस बारे में। हमें तो एक ही मतलब सूझा, जनाब!”
“क्या?”
“अब भाभीजान के सामने बोलें?”
“बेहिचक बोलो। लेकिन यूँ बोलो कि किचन में मौजूद मेड न सुने, भाभीजान की ख़ैरियत है। वो देवरों के बीच है इसलिये।”
“हमें ये रुतबा पसन्द आया। शुक्रिया।”
“अब बोलो।”
अशरफ हिचकिचाया, अभयदान मिल चुका होने के बावजूद सशंक भाव से उसने नीलम की तरफ देखा।
“तू बोल।” — फिर अल्तमश से बोला।
“वहाँ।” — अल्तमश दबे लेकिन मजबूत लहजे से बोला — “खुफिया रंडीखाना है!”
विमल के नेत्र फैले।
“ब्रॉथल कहते हैं शायद अंग्रेजी में।” — अशरफ बोला।
“कैट हाउस।” — विमल बोला — “व्होर हाउस। बॉरडेलो। सेराग्लीयो। क्लिप जॉयन्ट। बहुत कुछ कहते हैं।”
नीलम सप्रयास परे देखने लगी।
“मेरे ख़याल से तो — ख़याल से क्या, यकीन से — ‘गोल्डन गेट’ में बिगड़े, बेअदब, बेगैरत रईसों के लिये एÕयाशी का अड्डा चलता है। इसीलिये आधी रात के बाद भी वहाँ कारों के जमघट्टे से परहेज किया जाता है — कोई देखे तो क्या कहेगा क्यों आधी रात के बाद एक बन्द रेस्टोरेंट की पार्किंग में और उसके सामने सड़क पर इतनी कारें दिखाई देती थीं! एकाध रात को नहीं, रोज दिखाई देती थीं! ये अपने आप में शक उपजाऊ बात है जिसका इलाके की पुलिस तक पहुँचना लाजमी है, महज वक्त की बात है।”
“इसलिये वो तमाम कारें मैट्रो स्टेशन की पार्किंग में और वहाँ से एय्याशी के अड्डे तक शटल सर्विस!”
“दुरुस्त।”
“और” — अल्तमश बोला — “कार भी मालिक का खुद चलाता होना लाजमी।”
विमल की भवें उठीं।
“जनाब” — जवाब अशरफ ने दिया — “मैट्रो की पार्किंग में शोफर समेत कार खड़ी होने का क्या मतलब! वो भी एक नहीं, कई। एक दिन नहीं, रोज रात!”
“गाड़ी ड्राइवर चला रहा हो” — अल्तमश बोला — “तो सवार ऐन अपने मुकाम पर जाकर उतरता है, मुकाम पर पार्किंग की प्रॉब्लम हो तो ये ड्राइवर की सिरदर्द है कि वो कहीं, कहीं भी, पार्किंग तलाश करे और मालिक के बुलावे पर वहाँ पहुँचे जहाँ उसने मालिक को छोड़ा था।”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया।
“यानी” — फिर बोला — “इस कैट हाउस की सर्विस हासिल करने के तमन्नाई के लिये ये भी एक अहम शर्त है — और तो होंगी ही — कि उसकी गाड़ी सैल्फड्रिवन हो, शोफरड्रिवन नहीं!”
“ऐसा ही जान पड़ता है।”
“लेकिन मियाँ, ये तुम्हारा अन्दाजा है — इंटैलीजेंट गेस है, लेकिन फिर भी गेस है — कि वहाँ खुफ़िया व्होर हाउस चलता है। अब इस अन्दाजे की तसदीक कैसे हो?”
“तसदीक का एक जरिया तो आपने खुद ही सुझाया था!”
“कौन सा?”
“सिन्धी सेठ। कीमत राय सुखनानी।”
“ठीक। लेकिन ये भी तो कहा था कि सीधे से वो कुछ नहीं करेगा, उसको इस सिलसिले में काबू में करने के लिये कोई सूरत निकालनी होगी जो कि” — विमल ठिठका, उसने अपलक अशरफ की तरफ देखा। — “तू निकाल सकता है।”
“मैं!” — अशरफ तनिक हड़बड़ाया।
“हाँ।”
“लेकिन मैं!”
“हाँ। क्योंकि तू सिन्धी सेठ से वाकिफ है, उसके घर-बार से, उसके रहन-सहन, रख-रखाव से वाकिफ है तू कोशिश करे तो ऐसा कुछ खोज निकाल सकता है जो कि सेठ पर हमारी तरफदारी के लिये दबाव बनाने का जरिया बन सकता हो।”
“मैं कोशिश करूँ?”
“अकेला न कर सके तो मदद के लिये कोई अपने जैसा मामू का कोई भांजा पकड़ . . . भांजे पकड़।”
“ठीक है।” — अशरफ निर्णायक भाव से बोला — “मैं करूँगा कुछ इस बारे में।”
“जल्दी।”
“जल्दी ही।”
“गुड। मुझे तुम दोनों की आँखें नींद से मुन्दी जाती दिखाई दे रही हैं . . .”
“नहीं, जनाब।” — अल्तमश ने तत्काल प्रतिरोध किया।
“ऐसी कोई बात नहीं।” — अशरफ बोला।
“ऐसी ही बात है। जिसने रतजगा किया हो, उसके साथ ऐसा होना स्वाभाविक है।”
“तो भी जो आप कहना चाहते हैं, बेहिचक कहिये।”
“एक काम है, जिसे तुम वार फुटिंग पर कर सको तो तोप की सलामी।”
“सलामी न भी मिली तो कोई मुजायका नहीं। आप काम बोलिये।”
विमल ने मकतूला के बैग की कथा की। फिर चाबियों की आउटलाइन वाला कागज उसको सौंपा और उनकी जितनी तसवीरें उसने मोबाइल पर खींची थीं, वो सब अशरफ के मोबाइल पर ट्रांसकर कीं।
“चाबियाँ बन गयीं” — विमल फारिग हुआ तो अशरफ बोला — “जल्दी बन गयीं तो उनका क्या इस्तेमाल आपके जेहन में है?”
“देखो, बैग में चाबियाँ देखकर ये सब फॉलो-अप जब मैंने किया था तब मेरे जेहन में कोई क्लियर अक्स नहीं था कि मैं उन्हें किस इस्तेमाल में लाना चाहता था, किस हासिल की उम्मीद में इस्तेमाल में लाना चाहता था। बैग में से मुझे उस औरत का पता भी मिला था और मेरा ख़याल था उनमें से एक चाबी जरूर उसके ईस्ट पटेल नगर के फ्लैट के मेन डोर की थी। ये दोनों बातें थीं तो हो सकता था कि आइन्दा कभी कोई चाबी मेरे किसी काम आती लेकिन अब उसके कत्ल की सूरत में मैं उसके फ्लैट को टटोलना चाहता हूँ।”
“बशर्ते कि कोई चाबी फ्लैट में मेन डोर की हुई।”
“अकेली रहती होगी तो जरूर होगी।”
“अकेली न रहती हुई तो?”
“किसी फ्लैटमेट के साथ रहती होगी तो . . . चलेगा — क्योंकि फ्लैटमेट को भी तो कभी फ्लैट से गैरहाजिर रहना होगा — फैमिली के साथ रहती थी तो . . . तो तमाम ड्रिल बेकार जायेगी।”
“ठीक। जनाब, चाबी तो बन जायेगी . . .”
“जल्दी।”
“वो भी। लेकिन इस बात की क्या गारन्टी है कि तसवीरों और आउट लाइन के आसरे बनाई गयी चाबी ताले में लगेगी?”
“नहीं लगेगी तो किस्सा खत्म। लग गयी तो . . . देखेंगे।”
“मर्डर का केस है। एक ताजा केस है। पुलिस तफ़्तीश कर रही है। उन्होंने मकतूला की शिनाख़्त के लिये अख़बार में अपील छपवायी है। अपील कारगर हुई, पुलिस आपसे पहले वहाँ पहुँची हुई — या आपकी मौजूदगी के दौरान वहाँ पहुँच गयी — तो?”
“अरे, मेरे बिरादर, इसीलिये तो चाबियों की दरकार फौरन है! हमारी पुलिस, अपनी सुस्त रफ़्तार से — जिसकी कि वो आदी है — काम करती है, केस स्कॉटलैण्ड यार्ड के पास नहीं है, एफबीआई के पास नहीं जो जो होगा, बुलेट की रफ़्तार से होगा। केस दिल्ली पुलिस के पास है और लाश की शिनाख़्त हो भी गयी तो फॉलो-अप के तौर पर जो होगा, होते-होते होगा। लिहाजा मुझे उम्मीद नहीं कि मेरी पुलिस से लाइन क्रॉस होगी।”
“आप की माया आप जानें।” — अशरफ एकाएक उठ खड़ा हुआ — “हम अपना काम करते हैं।”
“शुक्रिया।”
“इजाजत चाहते हैं। खुदा हाफिज।”
दोनों वहाँ से रुख़सत हो गये।
नौ बजे तक विमल को तीन चाबियाँ हासिल हो गयीं।
एक छोटी-सी — कोई तीन इंच लम्बी-रेती के साथ।
साथ में हिदायत मिली कि अगर कोई चाबी न लगे तो वो उसके ऐजिज और ग्रूव्ज रेती से घिसे, फिर न लगे तो फिर घिसे, फिर भी न लगे तो कोशिश छोड़ दे, चाबियाँ ठीक नहीं बनी थीं, वो उसके किसी काम नहीं आने वाली थीं।
लेकिन वो नौबत न आयी।
दस बजे से पहले वो ईस्ट पटेल नगर और आगे 14/1 नम्बर की चार मंजिला इमारत पर पहुँच गया जिसकी दूसरी मंजिल पर मकतूला मीनू ईरानी का आवास था।
इमारत में या उसके आसपास उसे कोई अतिरिक्त, संदिग्ध हलचल न दिखाई दी।
गुड!
इमारत में लिफ्ट थी, जिस पर सवार होकर वो दूसरी मंजिल पर पहुँचा।
वहाँ एक ही फ्लैट था, जिसके प्रवेशद्वारा में उसने बिल्ट-इन लॉक वाला हैंडल लगा पाया। अन्दाजे से उसने एक चाबी ट्राई की तो वो पहली चाबी ही पूरे आराम से की-होल में घूम गयी।
उसने चैन की साँस ली।
उसने हैंडल घुमा कर दरवाजे को भीतर को धक्का दिया तो वो न खुला, मजबूती से चौखट के साथ लगा वो हिला भी नहीं।
क्या वो ताला दो चाबियों से खुलता था?
होते तो थे ताले दो चाबियों से खुलने वाले!
उसने बाक़ी दो चाबियाँ ट्राई कीं तो वो की-होल में दाखि़ल तक न हुईं।
क्या माजरा था!
उसने पहली वाली चाबी फिर की-होल में डाली और उसे फिर घुमाने की कोशिश की तो वो पहली बार की तरह ही बड़े आराम से घूमी और ताला खुल भी गया।
लिहाजा खोलने के लिये उस ताले में दो चाबियाँ नहीं लगती थीं, एक ही चाबी को दो बार घुमाना पड़ता था।
उसने दरवाजा खोला और सावधानी से भीतर कदम डाला।
जैसा कि अपेक्षित था, भीतर सन्नाटा था।
उसने अपने पीछे दरवाजा भिड़काया तो उसका ऑटोमैटिक लॉक खुद ही सैट हो गया।
उसने फ्लैट का तुरत-फुरत जायजा लिया तो पाया कि वो दो बैडरूम्ज वाला फ्लैट था जिस में ड्राईंग-डायनिंग एरिया अपेक्षाकृत काफी बड़ा था। बैडरूम दस गुणा बारह फुट के थे और एक तरीके से, सलीके से बैडरूम की तरह फर्निश्ड था, दूसरा तो लगता था कि स्टोरेज के लिये ही इस्तेमाल किया जाता था। उसने उसकी वार्डरोब को खोला तो पाया कि वो एक तिहाई खाली थी और बाक़ी में दो खाली सूटकेस और एक ट्रैवल बैग मौजूद था। कमरे में एक स्टील की लॉक्ड अलमारी थी लेकिन लॉक बाकी दो चाबियों में से एक से खुल गया। अलमारी में तकरीबन जनाना लिबास और जूतों के डिब्बे मौजूद थे जिनमें जूतों की जगह और ही घरेलू सामान भरा हुआ था।
वहाँ उसकी दिलचस्पी के काबिल कुछ नहीं रखा था।
वो सुसज्जित बैडरूम में पहुँचा।
वहाँ विशाल विंडो पर दोहरे पर्दे थे और डबल बैड भी बड़े होटलों के अन्दाज से मेड अप था। खिड़की के करीब एक आराम कुर्सी और एक छोटी-सी टेबल थी। खिड़की के पहलू में एक बन्द दरवाजा था जो बाहर बाल्कनी में खुलता था। बैड से विपरीत दिशा की दीवार पर टेलीविजन था और बाजू में एक राइटिंग डैस्क था। प्रवेशद्वार के करीब एक बन्द दरवाजा था, जिसे उसने खोला तो पाया कि आगे बाथरूम था। कुछ देर उसकी निगाह पैन होती हुई सारे कमरे में भटकी, फिर उसे राइटिंग डैस्क ही किसी तवज्जो के काबिल लगा।
वो राइटिंग डैस्क पर पहुँचा और उसके सामने की कुर्सी पर बैठ गया। डैस्क पर एक टेबल लैम्प था, एक पैन स्टैण्ड था, एक पैड था जिसे उसने बिल्कुल कोरा पाया। उसकी तवज्जो दराजों की तरफ गयी तो पाया कि वो तीन थे और तीनों मजबूती से बन्द थे।
फिर टॉप के दराज के ऊपर पैनल के ऐन मिडल में उसे एक की-होल दिखाई दिया। बाकी बची तीसरी चाबी उसने उसमें डाल कर घुमाई तो वो आराम से घूम गयी।। उसने टॉप का दराज खींचा तो वो खुलता चला गया। वैसे उसने बाकी दो दराज खोले। तीनों दराज लेखन सामग्री से, राइटिंग पैड्स से, ए-फोर साइज की कोरी शीट्स से और ख़रीद-फरोख्त के पुराने बिलों से भरे हुए थे।
उसने एक-एक कागज का मुआयना किया।
कुछ हाथ न लगा।
कुछ भी गैरमामूली या उसकी दिलचस्पी के काबिल वहाँ नहीं था।
फिर उसे अहसास हुआ कि बीच का दराज पूरा नहीं खुल रहा था। रास्ते में वो कहीं अटक रहा था। उसने भीतर हाथ डालकर टटोला तो पाया कि दराज में एक डिक्शनरी यूँ पड़ी थी कि उसके गत्ते की जिल्द ऊँची उठकर फ्रेम के साथ अटक रही थी और दराज के खुलने में रुकावट पैदा कर रही थी। उसने भीतर उँगलियाँ डालकर जिल्द को नीचे किया और डिक्शनरी को थामकर बाहर निकाल लिया। डिक्शनरी को मेज पर रखकर उसने दराज फिर खींचा तो इस बार वो पूरा खुल गया।
साथ ही विमल को एक नयी चीज दिखाई दी।
दराज के भीतर की तरफ फ्रेम में बेस के करीब एक दायें-बायें स्लाइड होने वाला खटका था, जिसके फंक्शन से विमल पहले से वाकिफ था। वैसे खटके स्टील के फ्रेमवर्क में — जैसा कि उस टेबल का था — होते थे और वो भीतर को खिंचे हों तो दराज को उन पटडि़यों पर अटका कर रखते थे जिन पर वो आगे-पीछे सरकता था और यूँ दराज अगर जाने अनजाने जोर से खींचा जाये तो हाथ में ही नहीं आ जाता था।
वैसा ही खटका बाकी दो दराजों में भी था।
तब विमल के अंदर से कोई घन्टी बजी कि वो बड़े साइज की ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी, जिसे कि डैस्क के ऊपर मौजूद होना चाहिये था, बेवजह ही भीतर नहीं पड़ी हुई थी; जरूर जानबूझ कर उसे वहाँ यूँ रखा गया था कि दराज पूरा न खुले।
और वो खटका भी न दिखाई दे।
उसने दराज के सारे कागजात को डैस्क टॉप पर डालकर उसे खाली कर दिया। फिर उसने भीतर हाथ डाल कर खटका अपनी तरफ सरकाया और उसके फ्रंट में बने बिल्ट-इन हैंडल में उँगलियाँ डालकर दराज को अपनी तरफ खींचा।
दराज उसके हाथ में आ गया।
सहज स्वाभाविक भाव से उसने दराज को उलटा तो उसके होंठों पर खुद ही मुस्कान फूट पड़ी।
उसकी मेहनत जाया नहीं गयी थी।
दराज के तले में दो बार मोड़ के तह किये गये ए-फोर साइज के कुछ कागज सैलोटेप की सहायता से चस्पां थे।
सावधानी से उसने कागजात को टेप की पकड़ से आजाद किया और दराज को डैस्क की साइड में फर्श पर खड़ा कर के रखा। उसने कागजात को सीधा किया तो पाया कि वो कम्प्यूटर पुल-आउट की चुगली करती चार शीट थीं। टॉप की शीट पर बतौर हैडिंग दर्ज था ‘दिसम्बर’।
और हैडिंग के नीचे जो दर्ज था वो विमल को किसी तरह का कोई कोड जान पड़ा। वो कोड सीरियल में थे और उनकी क्रम संख्या बताती थी कि वे इकत्तीस थे। क्रम संख्या एक के आगे दर्ज था : 1 Z 0 1
फिर : 2 A 9 2
फिर : 3 Y 3 8
फिर : 4 B 7 4
यूँ ही वो कोड क्रमांक 31 तक था।
क्या मतलब था?
विमल के कुछ पल्ले न पड़ा।
उसने बाकी की तीन शीट्स पर निगाह डाली तो पाया कि वो नामों और मोबाइल नम्बरों की लम्बी लिस्ट थी, तीसरी शीट पर जिसका क्रमांक 90 पर जाकर खत्म होता था।
नामों और मोबाइल नम्बरों की लम्बी लिस्ट!
विमल को वो लिस्ट याद आयी जो पिछली बात गलत डिलीवर हुए मैसेज की पीठ पर दर्ज थी, जिसका बाद में डिलीवर करने वाली ने पुर्ज़ा-पुर्ज़ा उड़ा दिया था। कोई फर्क था तो ये था कि उसमें दर्ज व्यक्तियों के व्यवसाय भी दर्ज थे।
इसमें क्यों नहीं?
एक ही जवाब मुमकिन था।
क्योंकि मौजूदा लिस्ट में दर्ज व्यक्तियों के व्यवसाय की लिस्ट बनाने वालों को पहले से ख़बर थी, उनका स्क्रीनिंग के वक्त रोल था, अब कोई रोल नहीं था।
स्क्रीनिंग!
अब ध्वस्त लिस्ट का मतलब कदरन उसकी समझ में आने लगा। उसका क्यू ‘टु बी स्क्रींड’ में था। उसके हाथ में कोई मास्टर लिस्ट थी, जिसका अब विस्तार होने वाला था।
मास्टर लिस्ट!
किस बात की?
उसकी निगाह हाथ में थमी लिस्ट की पहली शीट पर घूमी तो एक जगह उसकी निगाह अटकी।
कीमत राय सुखनानी।
आगे मोबाइल नम्बर ऐसा था जो आसानी से भूल जाने वाला नहीं था: 999988XXXX
फिर भी उसे लगा कि उसे वो नम्बर नोट कर लेना चाहिये था।
बाद में तसदीक के लिये कि वो उसी सुखनानी का नम्बर था, जो कल बतौर प्रिविलेज्ड गैस्ट ‘गोल्डन गेट’ में मौजूद था।
नम्बर वो मोबाइल पर नोट कर सकता था।
उसने जेब की तरफ हाथ बढ़ाया कि . . .
पीछे से उसकी खोपड़ी पर एक प्रचंड प्रहार हुआ।
कागज उसके हाथ से छूट गये, उसकी आँखें मुंदने लगीं, अचेतावस्था की ओर अग्रसर उसका बदन कुर्सी पर से सरकने लगा।
चेतना लुप्त होने से पहले उसे एक क्षण को अपने पीछे एक भारी बदन वाली महिला दिखाई दी।
नीलम!
अरमान त्रिपाठी जसवीर सिंह से रूबरू था।
वो जनपथ के एक कैफे में कॉफी शेयर कर रहे थे। दोनों अपने घर से वहाँ पहुँचे थे, जहाँ कि जस्सा अरमान की दरख़्वास्त पर पहुँचा था।
“अब क्या हुआ?” — जस्सा बोला।
“कौन बोला कुछ हुआ?” — अरमान हैरानी से बोला।
“ओये, काका, अभी दिन नहीं चढ़ा तो बुला भेजा तो कुछ तो हुआ होगा न!”
“नहीं, कुछ नहीं हुआ। मेरा मतलब है नया कुछ नहीं हुआ।”
“तो?”
“तेरे से बात करनी थी। इतनी सुबह मॉडल टाउन आना तेरे लिये जहमत होता, इसलिये ये बीच की जगह छाँटी।”
“हूँ।”
“वैसे भी तेरे बार-बार जल्दी-जल्दी मॉडल टाउन आने से पापा को शक होता कि तेरे मेरे बीच कुछ पक रहा है।”
“ठीक है। अब कर बात जो करनी है।”
“वो क्या है, जस्से, कि मेरे को तेरी परसों वाली बात बहुत जँची थी कि वो औरत — वो जो हम चार दोस्तों का शिकार बनी थी — मॉडल टाउन में ही रहने वाली कोई औरत थी। मैंने इस बाबत बहुत विचार किया और मुझे तेरी इस बात में दम लगा कि वो मॉडल टाउन म्यूनीसिपल मार्केट के करीब ही कहीं रहती होगी और वारदात के बाद खड़े पैर मॉडल टाउन छोड़ नहीं गयी होगी।”
“ठीक! ठीक! मुझे खुशी हुई कि तेरे को मेरी बात में दम लगा। तो इन दो दिनों में तूने की कोई कोशिश उस को ट्रेस करने की?”
अरमान ने इंकार में सिर हिलाया।
“क्यों? तू तो कहता था कोशिश करूँगा!”
“मैंने कहा था ऐसा। लेकिन जब कहा था, तब ये नहीं सोचा था कि करूँगा तो कैसे करूँगा। सोचा तो महसूस किया कि ये मुझ अकेले से होने वाला काम नहीं था। मदद मुझे पापा के आदमियों की ही हासिल हो सकती थी। मैं वो मदद हासिल करता तो मेरा किया पापा से छुपा न रहता। फिर मेरे से सौ तरह के सवाल होते, मेरे से जिनके जवाब देते न बनता।”
“इसलिये ये काम जस्सा करे! यही कहना चाहता है न?”
“यार, कहना तो यही चाहता हूँ। तू कहता है तुझे बहुत काम हैं लेकिन तेरी सलाहियात भी तो बहुत वसीह है। फिर जो तू करेगा, उस बाबत मेरी तरह तू किसी को जवाबदेह भी नहीं होगा!”
“हूँ।”
“ये मॉडल टाउन म्यूनीसिपल मार्केट के आधा-पौना किलोमीटर के दायरे के बीच में आने वाली जगहों की पड़ताल का मसला है जो कि किसी एक आदमी का काम नहीं। मैं नहीं कहता कि कोई एक आदमी ये काम कर नहीं सकता लेकिन कोई एक आदमी करेगा तो टीम के मुकाबले में चार गुणा, छः गुणा, आठ गुणा, टाइम लगायेगा यकीनन। गलत कहा मैंने?”
“नहीं, ठीक कहा। और भी कह जो कहना है!”
“और वही है जो मैंने सोचा विचारा इस बाबत।”
“क्या!”
“अब ये तो जाहिर है कि हमारे चलती कार से बाहर फेंकने पर वो औरत मरी नहीं थी — मरी होती तो अख़बार में ख़बर आती — लेकिन ढेर जख़्मी तो यकीनी तौर पर हुई होगी! ऊपर से वो नौबत आने से पहले कार में उसके साथ इतनी नोच-खसोट हुई। ऐसी हालत में पहुँची औरत का अपनी रोजमर्रा की रूटीन से किनारा कर जाना लाजमी हुआ या न हुआ?”
“अच्छा जा रहा है। हुआ।”
“आगे मेरी अक्ल कहती है — उसके सूरज ढले शापिंग के लिये निकली होने की वजह से कहती है — कि वो कोई हाउसवाइफ है, बदले की भावना से प्रेरित होकर जिसका हसबैंड ही सब कहर ढा रहा है।”
“जवान बेटी का बाप क्यों नहीं?”
“जस्से, वो औरत बत्तीस-तैंतीस साल से कम उम्र की नहीं थी। ऐसी औरत का बाप साठ के पेटे में होगा। जो हो रहा है, ये किसी इतने उम्रदराज शख़्स के बस का काम नहीं।”
“भाई?”
“कोई बहन अपनी ऐसी दुरगत भाई के साथ शेयर नहीं करती।”
“बाप के साथ करती है?”
“नहीं। लेकिन बाप को बाजारिया माँ ख़बर लगती है।”
“माँ न हो तो?”
“तो नहीं लगती।”
“हूँ।”
“फिर सौ बातों की एक बात ये है कि इस सिलसिले में तूने महरौली के रेस्टोरेंट के उस काले चश्मे वाले का बाजरिया सीसीटीवी क्लिप पता निकाला है न! भले ही अभी वो शख़्स हमारी शिनाख़्त से दूर है लेकिन बिना शिनाख़्त इतना तो फिर भी दिखाई दिया न हमें कि वो कोई उम्रदराज शख़्स नहीं!”
“ठीक। तभी तो कहा अच्छा जा रहा है। और बोल। इसी बात को, कि वो औरत कोई हाउसवाइफ है, आगे बढ़ा।”
“घर-बार चलाने के लिए ऐसी औरत का कई लोगों से रोज वास्ता पड़ना लाजमी होता है। जैसे कि, दूधवाला, अख़बारवाला, कूड़ा कलैक्ट करने वाला, घर में कार हो तो उसकी झाड़-पोंछ करने वाला, सब्जीवाला, कोई और फेरीवाला — जैसे कि कबाड़ीवाला। नहीं?”
“हाँ।”
“कहने का मतलब है कि इलाके में एक औरत है जो इतने लोगों को कई दिन दिखाई नहीं दी। अब अगर ऐसे लोगों की मुस्तैद स्क्रीनिंग की जाये तो क्या मालूम नहीं किया जा सकता कि वो औरत कौन हो सकती है?”
“मालूम किया जा सकता है।”
“लेकिन दरकार हैं तजुर्बेकार लोग इतनी वसीह, इतनी मुस्तैद स्क्रीनिंग के लिये। और वो दरकार पूरी कर सकता है . . . कौन?”
“खाकसार। सरदार जसबीर सिंह जस्सा।”
“तो करेगा कोई इंतजाम?”
“करूँगा। ये सोच के करूँगा कि तेरा नहीं, गोयल साहब का काम कर रहा हूँ। एक्सटेंशन पर नहीं, मेन लाइन पर हूँ।”
“पर करेगा?”
“अब क्या लिख के दूँ?”
“शुक्रिया। शुक्रिया, जस्से।”
विमल को होश आया।
काँपता कराहता वो उठा और राइटिंग डैस्क का सहारा लेकर लम्बी साँसें लेने लगा।
उसका अन्दाजा था कि वो कोई पाँच मिनट बेहोश रहा था।
उसने अपनी खोपड़ी टटोली तो उसकी उँगलियाँ एक गूमड़ से टकराईं जहाँ साँय-साँय हो रही थी लेकिन चमड़ी नहीं फटी थी और इसी वजह से गूमड़ अभी और बड़ा हो सकता था।
उसने अपने आसपास निगाह डाली तो सब कुछ वैसा ही पाया जैसा अपने पर आक्रमण होने से पहले उसने छोड़ा था — ख़ाली दराज मेज के साथ टिका खड़ा था, दराज के कागजात डैस्क टॉप पर ढेर थे —सिवाय ए-फोर साइज की चार टाइपशुदा शीटों के।
जिन्हें यकीनन वो औरत ले गयी थी, जिसने दबे पाँव उसके पीछे पहुँच कर उस पर हमला किया था।
जो उसे मोटे तौर पर नीलम के उस बहुरूप से मिलती लगी थी जो पिछली रात उसने ‘गोल्डन गेट’ की हाजिरी के लिये धारण किया था।
उसका वो लिस्टें ले के वहाँ से चले जाना इस बात की तरफ साफ इशारा था कि उन लिस्टों की तलब ही उसे वहाँ लाई थी — यानी उसे ख़बर थी कि वो लिस्टें उस फ्लैट में कहाँ उपलब्ध थीं। लिहाजा ये देखकर उसे भारी शॉक पहुँचा होगा कि लिस्टें अपने खुफ़िया मुकाम पर होने की जगह एक ऐसे अजनबी के हाथ में थीं, जिसके वहाँ होने का कोई मतलब नहीं था। उसने अजनबी की पूरी ही ख़बर नहीं ली थी, उससे जाहिर होता था कि उसे फ्लैट की मालकिन की मौत की ख़बर थी और अन्देशा था कि पुलिस वहाँ किसी भी क्षण पहुँच सकती थी।
और इसी वजह के उसका भी फौरन वहाँ से निकल लेना जरूरी था।
उसने अपने-आप को काबू में किया और तनिक झूमता-सा बाहर की ओर बढ़ा।
जैसा स्प्रिंग लॉक मेनडोर पर था, उसकी बाबत वो जानता था कि वो बाहर से लॉक किया गया हो तो बाहर से तो चाबी से खुलता था लेकिन भीतर से सिर्फ हैंडल घुमाने से खुल जाता था।
उसने हैंडल घुमाकर अपनी तरफ खींचा, बाहर कदम डाला और . . .
एक बावर्दी सब-इन्स्पेक्टर की छाती से जा टकराने से बाल-बाल बचा।
“आंटी जी” — सब-इन्स्पेक्टर के मुँह खोल पाने से पहले वो पीछे मुँह फेर कर उच्च स्वर में बोला — “कोई आप से मिलने आये हैं। जरा बाहर आ जाइये। . . . आप भीतर आ जाइये।”
“तुम कौन हो?” — सब-इन्स्पेक्टर संदिग्ध भाव से बोला।
“मैं। मैं तो बिसलेरी डिलीवर करने आया।”
“आंटी जी कौन हैं?”
“मीनू जी की ममी हैं। आप जाइये भीतर। वो किचन में थीं, आती ही होंगी।”
सहमति में सिर हिलाते सब-इन्स्पेक्टर ने भीतर कदम डाला।
विमल वहाँ से हवा हो गया।
लिफ्ट उस फ्लोर पर नहीं थी, उसका इन्तजार करने का हाल नहीं था — पुलिसिये को कदरन जल्दी मालूम हो सकता था कि पीछे फ्लैट खाली था — इसलिये उसने सीढि़यों का रुख किया था।
वो बाल-बाल बचा था।
उसके हमलावर की तरह सब-इन्स्पेक्टर भी एकाएक उसके सिर पर आन खड़ा होता तो पराये फ्लैट में — जिसका ऑकूपेंट दुनिया छोड़ चुका था — अपनी मौजूदगी की कोई वजह बता पाना उसे बहुत भारी पड़ता।
शाम को अशरफ और मुबारक अली मॉडल टाउन पहुँचे।
अभिवादनों के आदान-प्रदान के बाद विमल और नीलम उनके साथ ड्राईंगरूम में बैठे।
फ्रान ने सबको चाय सर्व की।
“दिन भर सोये होगे!” — विमल अशरफ से बोला।
अशरफ ने सहमति में सिर हिलाया।
“यानी रतजगे की कसर निकल गयी?”
“जी हाँ।”
“अल्तमश?”
“उसकी ख़बर नहीं। कोई बड़ी बात नहीं कि अभी भी सोया पड़ा हो।”
“ठीक!”
“आप बताईये, चाबी लगीं?”
“हाँ, भई लगीं। और ऐसे लगीं जैसे डुप्लीकेट न हों, ओरीजिनल हों।”
“यानी इत्तफ़ाक से बढि़या कारीगर हाथ आया!”
“हाँ। यकीनन।”
“आगे क्या बीती?”
“बताता हूँ। पहले बोलो, बड़े मियाँ को पिछली रात के तमाम वाकयात की बाबत बताया?”
“तफसील से बताया।”
“लो!” — मुबारक अली बोला — “और क्या न बताता! आखि़र मेरा नुमायन्दा बन के गया था। जाना तो, तेरे को मालूम है, मैंने था लेकिन वो, तू बोला, मेरी किस्म की जगह नहीं थी इसलिये इसे भेजा।”
“बढि़या?”
“अब” — अशरफ व्यग्र भाव से बोला — “कहिये क्या बीती ईस्ट पटेल नगर में?”
विमल ने कहा।
“तो” — वो ख़ामोश हुआ तो अशरफ बोला — “आपके ख़याल से आपकी हमलावर वो औरत थी, कल मकतूला ने नीलम बीबी से जिसका धोखा खाया था?”
“हाँ।” — विमल बोला — “और कोई बड़ी बात नहीं कि धोखा खाया था। होश खोने से पहले मुझे बस एक झलक उसकी मिली थी और मुझे यही लगा था कि मैं नीलम को देख रहा था।”
“इस वक्त की नीलम बीबी को नहीं, गुजरी रात की नीलम बीबी को जो कि इरादतन दोहरे बदन की मोहतरमा बनी हुई थीं और सिर पर विग लगाये थीं।”
“हाँ! और उस एक क्षण में भी मैंने बराबर देखा कि मेरी हमलावर का हेयर स्टाइल तो हूबहू नीलम के विग जैसा था।”
“तभी तो मकतूला ने — नाम मीनू ईरानी — धोखा खाया। और उसकी बड़ी सजा पायी।”
“बहुत बड़ी। जान से गयी। इसी से जाहिर होता है कि वो लोग कितने जालिम हैं; कितने ख़तरनाक हैं!”
“बड़ा जुल्म वही करता है” — मुबारक अली बोला — “जिसको किसी बड़े गेम की पर्दादारी दरकार हो।”
“दुरुस्त फरमाया मामू ने।” — अशरफ बोला — “लेकिन बड़ा गेम क्या?”
मुबारक अली ने विमल की तरफ देखा।
“भई, कुछ सूझ तो रहा है मेरे को!” — विमल बोला।
“क्या?” — मुबारक अली बोला।
“व्होर हाउस?”
“कौन-सा हाउस?”
“व्होर हाउस। रण्डीखाना। चकला।”
“अल्लाह!”
“और वो लिस्ट जरूर रेगुलर कस्टमर्स की थी, जिनको दूसरी लिस्ट के कोड के जरिये आइडेन्टिफाई किया जाता था। इसी बात को मैं आगे सरकाऊँ तो ये सम्भावना साफ दिखाई देती है कि कल के गलत डिलीवर हुए मैसेज की पुश्त वाली लिस्ट नये कस्टमर्स की लिस्ट थी, जिसे कि स्क्रीन किया जाना था।”
“जनाब” — अशरफ बोला — “फिर सवाल है, उस लिस्ट के हवाले में ‘फेरा फेरा’ क्या!”
“उस बाबत अभी कुछ कहना मुहाल है।”
“तो फिर वो कहिये जिस बाबत कहना मुहाल नहीं। अपने हमलावर की बात कीजिये।”
“हाँ” — विमल बोला — “उसकी बाबत एक बात काबिलेग़्ाौर है। वो मकतूला के फ्लैट का लॉक्ड डोर खोलकर भीतर आयी थी और सीधे उस बैडरूम में पहुँची थी जिसमें मैं मौजूद था।”
“ऐसा कैसे कह सकते हैं आप?”
“भई, वो फ्लैट में पहले कहीं और भटकी होती तो उस ख़ामोश फ्लैट में उसकी कोई छोटी-मोटी आहट मुझे जरूर मिली होती।”
“ओह! लेकिन क्या पता इस बाबत उसने एहतियात बरती हो!”
“वो ताला खोलकर भीतर आयी तो जाहिर है कि फ्लैट को ख़ाली समझ रही थी। फिर एहतियात का क्या मतलब?”
“ठीक।”
“वहाँ की उसकी हर हरकत से साफ जाहिर होता था कि वो फ्लैट की ऑकूपेंट से पूरी तरह से वाकफ़ि थी — इस हद तक कि उसके पास उसके फ्लैट की चाबी थी — और वो ये भी बाख़ूबी जानती थी कि फ्लैट की मालकिन अब इस दुनिया में नहीं थी, वर्ना मेन डोर की चाबी पास होते हुए भी उसने पहले कालबैल बजाई होती।”
“दुरुस्त।”
“अब सवाल है कि क्या जल्दी थी उसे वहाँ आने की? क्यों फ्लैट की मालकिन की मौत की ख़बर लगते ही उसे उसके फ्लैट का फौरन, फौरन से पेश्तर फेरा लगाना जरूरी लगा?”
“जरूर उस लिस्ट की वजह से। और तो कोई वजह नजर नहीं आती!”
“यकीनन उस लिस्ट की वजह से। वो एक खुफिया लिस्ट थी, एक खुफिया जगह पर उसका मुकाम था और लिस्ट की हफ़िाजत मकतूला की अहम जिम्मेदारी थी। वो लिस्ट इतनी अहम थी कि उनके बॉस लोगों ने ऐसा इन्तजाम किया हुआ था कि खुदा-न-ख़ास्ता, मीनू ईरानी को कुछ हो जाये तो कोई दूसरा — नीलम के बहुरूप से मिलती-जुलती मेरी हमलावर — फौरन लिस्ट को टेक ओवर कर ले। इसी वजह से मेरे हमलावर के पास मकतूला के फ्लैट की चाबी थी और इसी वजह से उसे फ्लैट में लिस्ट को महफूज रखने की पोशीदा जगह भी मालूम थी। इतना देखते ही कि वहाँ राइटिंग डैस्क का मिडल ड्रॉअर बाहर था, मेरी हमलावर समझ गयी थी कि मेरे हाथ में खुफ़िया लिस्ट थी। लिहाजा उसने मेरे पर हमला करके वो लिस्ट अपने काबू में कर ली। मेरा कोई बुरा अंजाम करने के लिये वो वहाँ न रुकी, क्योंकि उसे भी अन्देशा था कि किसी भी घड़ी पुलिस का फेरा वहाँ लग सकता था।”
“जो हुआ, वो न हुआ होता तो लिस्ट की बाबत आपका क्या इरादा था?”
“भई, जो पहला ख़याल मेरे जेहन में आया था, वो तो यही था कि उस लिस्ट में मैं अपना नाम और मोबाइल नम्बर जोड़ देता।”
“ताकि आइन्दा जो कम्यूनीकेशन बाकी नब्बे नामों को हासिल होती वो आपको भी हासिल होती?”
“हाँ। लेकिन वो टाइप्ड लिस्ट थी, उसके सिरे पर हाथ से लिखा नाम जोड़ा गया शक उपजाऊ लगता।”
“सीरियल भी, जो नब्बे से इक्यानवे हो जाता!”
“वो भी। इसलिये मुझे ये भी सूझा कि मैं किसी एक पेज से कोई एक नाम हटा कर उसकी जगह अपना नाम जोड़ देता लेकिन उसके लिये कम्प्यूटर पर टाइप की गयी ओरीजिनल लिस्ट उपलब्ध होनी चाहिये थी। वहाँ कम्प्यूटर तो पड़ा था, प्रिंटर भी पड़ा था लेकिन वो लिस्ट कम्प्यूटर में महफूज नहीं हो सकती थी।”
“क्यों?”
“भई, वो खुफ़िया लिस्ट थी — तभी तो ऐसी जगह मौजूद थी जिसका किसी को ख़याल तक न आता। लिस्ट कम्प्यूटर में सेव्ड होती तो वो खुफ़िया क्यों कर कहलाती?”
“ओह! ठीक!”
“उस घड़ी जो बेहतरीन मैं कर सकता था, वो यही था कि मैं अपने मोबाइल से लिस्ट की तसवीरें खींच कर लिस्ट को यूँ वापिस उसके मुकाम पर पहुँचा देता जैसे कि उसके साथ कोई छेड़छाड़ न हुई हो।”
“ठीक!”
“लेकिन मैंने तो अभी लिस्ट पर एक सरसरी निगाह ही डाली थी कि मेरे पर हमला हो गया और लिस्ट मेरे हाथ से निकल गयी।”
“हमलावर के साथ चली गयी?”
“और क्या!”
“लेकिन वो लिस्ट थी क्या बला?” — मुबारक अली तनिक झुँझलाया सा बोला।
“उसकी बाबत मैंने अपना अन्दाजा बताया तो है! जमा, जिन चन्द लमहों के लिये मुझे लिस्ट पर निगाह डालने का मौका मिला था, उनमें मैंने लिस्ट का एक नाम पहचाना था। और वो नाम था” — विमल जानबूझकर एक क्षण ठिठका, फिर बोला — “कीमत राय सुखनानी”।
अशरफ ने तमक कर सिर उठाया।
मुबारक अली पर उसकी कोई प्रतिक्रिया न हुई।
और नीलम तो थी ही ख़ामोश श्रोता।
“और” — विमल आगे बढ़ा — “हमारे जाने पहचाने उस नाम के आगे जो मोबाइल नम्बर दर्ज था वो 999988XXXX था।”
“उसी का है।” — अशरफ बोला — “पहचानता हूँ मैं इस नम्बर को। कभी-कभी टैक्सी के लिये वो खुद फोन करता है तो यही नम्बर स्क्रीन पर आता है।”
“गुड! मुझे इस तसदीक की जरूरत थी। बहरहाल उस लिस्ट के बारे में जो मेरा अन्दाजा है वो यही है कि वो लिस्ट उनके खुफ़िया व्होर हाउस के पक्के ग्राहकों की है . . .”
“इतना बड़ा सेठ!” — मुबारक अली वितृष्णापूर्ण भाव से बोला — “और, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, रंडीबाज!”
“बड़े लोगों के ढोल में ऐसी ही पोल होती हैं, बड़े मियाँ!”
“आप आगे बढि़ये।” — अशरफ उतावले स्वर में बोला।
“हाँ।” — विमल बोला — “वो लिस्ट असल में दो लिस्ट थीं। एक में नब्बे नाम बमय मोबाइल नम्बर दर्ज थे और दूसरी में इकतीस कोड दर्ज थे।”
“नाम नब्बे तो कोड इकतीस क्यों?”
“क्योंकि नामों का कोड्स से कोई सीधा रिश्ता नहीं था। कोड्स वाली लिस्ट पर एक हैडिंग था जिस पर ‘दिसम्बर’ लिखा था। दिसम्बर, जो कि एक महीना है जिसमें इकतीस दिन होते हैं। क्या समझे, छोटे मियाँ?”
“एक दिन के लिये एक कोड!” — बेसाख़्ता अशरफ के मुँह से निकला।
“बिल्कुल! अब जो बात समझ में आती है वो ये है कि खुफिया व्होर हाउस के परमानेंट ग्राहकों को बाजरिया ‘एसएमएस’ रोज एक कोड फॉरवर्ड किया जाता था। यानी कोड रोज बदलता था, रोज पिछला कोड खारिज होता था और बाजरिया ‘एसएमएस’ नया कोड जारी किया जाता था। अशरफ मियाँ, उन लोगों को याद करो जो कल रात ‘गोल्डन गेट’ में हमारी आँखों के सामने थोड़े-थोड़े वक्फे के बाद आकर रिजर्व्ड टेबल पर बैठे थे। याद करो कि वैलकम ड्रिंक सर्व हो जाने के बाद जब स्टीवार्ड रिजर्व्ड टेबल पर पहुँचता था तो टेबल पर मौजूद हर ख़ासुलख़ास मेहमान जेब से अपना मोबाइल निकाल कर हाथ में ले लेता था। याद आया?”
“जी हाँ।”
“हर बार ऐसा जरूर हुआ था, ये भी याद आया?”
“जी हाँ, बराबर।”
“फिर ये भी याद करो कि मोबाइल निकाल कर किसी ने भी उस पर न कोई काल रिसीव की थी, न ओरीजिनेट की थी। उसने एक मुख़्तसर सी घड़ी यूँ मोबाइल को हाथ में थामा था जैसे स्टीवार्ड पर रौब गालिब करने की कोशिश रहा हो कि देखो, उसके पास कितना हाई एण्ड, कितना लग्जरी फोन था लेकिन असल में क्या किया था? असल में स्क्रीन पर दर्ज उस दिन के कोड की झलक स्टीवार्ड को दिखाई थी ताकि स्टीवार्ड को गारन्टी होती कि उसके सामने बैठा शख़्स जेनुइन कस्टमर था और वो उसको खुफ़िया व्होर हाउस की राह लग लेने देता।”
अशरफ ने अवाव्फ़ विमल की तरफ देखा।
“आपने तो कमाल कर दिया, जनाब!” — फिर मन्त्रमुग्ध स्वर में बोला — “इतने बड़े, इतने खुफिया सैट-अप को इतनी जल्दी भाँप लिया!”
“कमाल तुम्हारी बनवाई डुप्लीकेट चाबियों ने किया। मैंने तो बस दो जमा दो चार किया।”
“लेकिन” — अशरफ का लहजा संजीदा हुआ — “एक खुफिया रंडीखाना चलाने के लिहाज से ये कुछ ज्यादा ही हाईफाई सैट-अप नहीं?”
“ये सवाल मेरे जेहन में भी उबरा था लेकिन सोचा हाई टैक्नॉलोजी का जमाना है, आर्गेनाइजर हाई टैक्नॉलोजी इस्तेमाल कर रहे थे तो क्या हर्ज था!”
“लेकिन, जनाब, जो काम” — अशरफ ने उसके सामने दायें हाथ की उँगली और अंगूठा खोला — “इतने से हो सकता हो, उसके लिये” — उसने अपने दोनों हाथ अपनी छाती के आजू-बाजू पसारे — “इतना करने का क्या मतलब?”
“कोई मतलब नहीं। कोई मतलब है तो उसे समझने के लिये ही तो हमने सिन्धी सेठ सुखनानी तक अप्रोच बनानी है!” — वो एक क्षण ठिठका, फिर बोला — “कोई उम्मीद है उस सिलसिले में?”
“कोशिश तो भरपूर जारी है!”
“बहरहाल ये भी गुड न्यूज है।” — फिर वो मुबारक अली की ओर घूमा — “अब, जनाब, आप फरमाइये! बेवजह तो नहीं आये होंगे!”
“बेवजह होता है कुछ” — मुबारक अली बोला — “इस, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, फानी दुनिया में!”
“वही तो!”
“तेरा गन वाला काम हो गया, इसलिये आया।”
“ओह! बढि़या।”
मुबारक अली ने अपनी जैकेट में से निकाल कर एक गन उसके सामने रखी।
विमल ने देखा वो बत्तीस बोर की, स्मिथ एण्ड बैसन की शार्ट बैटल पिस्टल थी। उसने बारीकी से उसे परखा।
“राजी?” — मुबारक अली बोला।
“हाँ। कीमत?”
“पैंतालीस हजार। साथ में चार मैगजीन फ्री।”
“मुझे मंजूर है।”
“अब ये देख।”
मुबारक अली ने उसके सामने एक नन्हीं-सी गन रखी।
“खिलौना नहीं है।” — वो बोला — “असली हथियार है। बिचौलिये ने इसलिये इसकी सफ़िारिश की कि ये टाँग पर टखने से जरा ऊपर फिट हो जाती है।”
“गन?”
“इसका चमड़े का गिलाफ! जिसे, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में . . . अबे कम्बख्तमारे, बोलता क्यों नहीं क्या कहते हैं अंग्रेजी में?”
“ऐंकल होल्स्टर।” — अशरफ जल्दी से बोला।
“वही। वो भी है।”
मुबारक ने जैकेट से एेंकल होल्स्टर बरामद किया और विमल के सामने मेज पर रखा।
“आजमा के देख।” — फिर बोला।
सहमति में सिर हिलाते विमल ने दायीं टाँग पर से अपनी पतलून का पाहुँचा ऊपर घुटने तक सरकाया और होल्स्टर को उसके तसमों के जरिये टखने के करीब बांधा। फिर उसने गन होल्स्टर में रखी और पाउँचा वापिस नीचे सरकाया। वो उठ कर खड़ा हुआ, उसने सवालिया निगाह तीनों पर डाली।
तीनों ने तसदीक की कि गन की पाउँचे के नीचे मौजूदगी का आभास तक नहीं मिल रहा था।
“इसका एक ख़ास फायदा” — मुबारक अली बोला — “बिचौलिये ने ये बताया कि दुश्मन थाम ले तो हथियार के लिये तलाशी में हाथ टखनों तक शायद ही कभी पहुँचते हैं। समझा कुछ?”
“समझा?”
“‘जैसे मुहाम पर तू आजकल है, उसमें ये इन्तजाम कभी किसी आड़े वक्त तेरे काम आ सकता है।”
“बढि़या।”
“तेरे को नहीं माँगता तो ये छोटी गन वापिस हो सकती है।”
“माँगता है। कीमत क्या?”
“बाइस हजार। साथ में पच्चीस गोलियों का पैकेट।”
“ठीक है। तो मैं सड़सठ हजार रुपये अभी तुम्हें . . .’
“बाज नहीं आता? बोल तो दिया कि सब हिसाब कर लूँगा।”
“लेकिन . . .”
“चुप कर।”
“हुक्म दे रहे हो?”
“हाँ।”
“फिर तो चुप करना ही पड़ेगा!”
“फिर तो मेरे को भी बोलना पड़ेगा?”
“क्या?”
“ठैंक्यू।”
विमल की हँसी छूट गयी।
नीलम और अशरफ भी मुस्कुराये बिना न रह सके।
“एक बात और थी।” — फिर विमल संजीदा हुआ।
“कौन-सी बात? बोल!”
“अल्तमश को कुछ पैसा कबूलने को मजबूर करो। मेरा साथ देने में उसके काम का, उसकी कमाई का हर्जा हो रहा है आखि़र।”
“वो नहीं सुनता। हर्जा होने का हवाला दो तो कहता है हर्जे से कहीं ज्यादा जिन्दगी का ऐसा मजा आ रहा है जैसा उसे आइन्दा कभी नसीब नहीं होने वाला। कल की दावत का तो बहुत ही गुणगान कर रहा था। वो, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी दारू को . . . अबे, बोल न, क्या कहते हैं?”
“स्काच व्हिस्की, मामू।” — अशरफ बोला।
“हाँ। इस्काच कर के विस्की। किसकी? विसकी। बढि़या रोटी बोटी। बोला, जन्नत का नजारा हो रहा है, और क्या चाहिये!”
“फिर भी . . .”
“फिर भी के जवाब में बोला कि जरूरत होगी तो माँग के लेगा।”
“बड़े मियाँ, जिस काम में वो मददगार है, वो जान-जोखिम का है। उसमें मेरे साथ-साथ उसकी भी जान जा सकती है।”
“उसे मालूम है पर उसे, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, नो . . . नो . . . कोई परवाह नहीं। फिर बड़ी फैंसी बात बोला।”
“क्या?”
“बोला, जो मौत से डर कर जिन्दा रहते हैं, वो जीते जी मर जाते हैं।”
“क्या कहने!”
“जो जोखि़म नहीं उठाते, उनका सब कुछ जोखि़म में है।”
“बल्ले! अल्तमश ने कहा ये?”
“हाँ।”
“मौत तो जिन्दगी का आखि़री अंजाम है, मौत से डरना अहमकों का काम है।”
“वही। वही। बहरहाल तू उसकी फिक्र न कर। उसकी फ़िक्र मैं कर लूँगा।”
“ठीक है।”
मीटिंग बर्ख़ास्त हुई।
अपने एक ख़ास शागिर्द की मार्फत बड़ी मुश्किल से जस्सा ‘हाइड पार्क’ के मैनेजर कीे बाबत वो जानकारी हासिल कर पाया था, जो उसे दरकार थी और जो ख़ास शागिर्द ने ‘हाइड पार्क’ के एक चिट क्लर्क को सैट कर के निकलवाई थी।
ख़ास शागिर्द का नाम कुलदीप सिंह था और वो भी अपने उस्ताद की तरह मोना सिख था। ख़ास इसलिये था, क्योंकि जस्से के हर स्याह-सफेद में, हर कर्म-कुकर्म में शामिल था।
जस्से का ऐसा दूसरा ख़ास शागिर्द कुलदीप सिंह का ही चचेरा भाई गगनदीप सिंह था।
जो जानकारी बाजरिया ख़ास शागिर्द जस्से को हासिल हुई थी, वो थी:
मैनेजर का नाम नमित मेहरोत्र था।
द्वारका में रहता था जहाँ एक चारमंजिला इमारत के ग्राउन्ड फ्लोर पर
— जो कि किराये का था — उसका मौजूदा आवास था।
सोमवार को ‘हाइड पार्क’ से उसका वीकली ऑफ होता था।
शाम ढले जस्सा उस पते पर पहुँचा।
उसके कॉलबैल बजाते ही भीतर कुत्ता भौंकने लगा।
फिर शायद तत्काल उसे चुप कराया गया।
आवास का प्रवेश द्वार खुला और मैनेजर नमित मेहरोत्र खुद गेट पर पहुँचा।
नीमअन्धेरे में भी उसने जस्से को फौरन पहचाना।
“तुम!” — उसके मुँह से निकला।
जस्से ने सिर नवा कर उसका अभिवादन किया।
“यहाँ पहुँच गये!”
“अब” — जस्सा जबरन मुस्कुराया — “है तो ऐसा ही!”
“कल के वाकये से कोई सबक नहीं लिया!”
“लिया न! ‘हाइड पार्क’ के करीब भी न फटका। वसन्त कुंज का भी रुख न किया।”
“ये पता कैसे जाना?”
“आप जैसे मशहूर, बारसूख साहबान के बारे में कोई छोटी-मोटी बात जान लेना कोई बड़ी बात नहीं होती।”
“नाओ, डोंट टाक नॉनसेंस!”
“जनाब, यहाँ हूँ न! इसलिये किसी तरह से तो जाना! जमा, आपने ‘हाइड पार्क’ में मेरी आमद पर पाबन्दी लगाई थी, यहाँ के बारे में तो कोई हुक्म जारी नहीं किया था!”
“बहुत पहुँचे हुए आदमी हो!”
जस्सा निर्दोष भाव से मुस्कराया।
“क्या चाहते हो?”
“दो मिनट बात करना चाहता हूँ।” — जस्सा विनीत भाव से बोला।
“फिर?”
“फिर।”
“अगर ‘हाइड पार्क’ वाली ही बात करनी है, तो कोई फायदा नहीं होगा। अपना वक्त ही जाया करोगे।”
“कोई बात नहीं। वक्त है मेरे पास जाया करने के लिये।”
मेहरोत्र ने अपलक उसे देखा।
“प्लीज!” — जस्से ने याचना की।
भीतर से कुंडी सरका कर मेहरोत्र ने गेट खोला।
“आओ।” — फिर बोला।
“शुक्रिया।”
मेहरोत्र ने उसे भीतर बड़े सुरुचिपूर्ण ढंग से सुसज्जित ड्राईंगरूम में पहुँचाया।
सफेद रंग का किसी विलायती नस्ल का एक कुत्ता कूँ-कूँ करता भीतर कहीं से वहाँ पहुँचा और जस्से के सामने यूँ आ खड़ा हुआ जैसे उसे आगे कदम न उठाने देना चाहता हो।
“हयातो!” — मेहरोत्र कुत्ते से सम्बोधित हुआ — “ही इज ए गैस्ट।”
कुत्ता जैसे अंग्रेजी समझता था, वो जस्से के सामने से हटा और मालिक के करीब जाकर उसकी टाँगों से अपना बदन रगड़ने लगा।
“बैठो।” — मेहरोत्र जस्से से सम्बोधित हुआ।
सधन्यवाद जस्सा एक सोफाचेयर पर बैठ गया।
बाजू में एक और सोफाचेयर थी, बीच में एक छोटी-सी टेबल थी। मेहरोत्र उस चेयर पर बैठ गया तो कुत्ता उसके कदमों में लोट गया।
“बहुत प्यारा कुत्ता है।” — जस्सा लव-मी-लव-माई-डॉग वाले अन्दाज से बोला — “ऐसा झक सफेद कुत्ता मैंने पहले कभी नहीं देखा।”
“पैडिग्री डॉग है।” — मेहरोत्र गर्व से बोला — “जापानी। ब्रीड का नाम अकीता।”
“हयातो नाम से ऐसा कुछ लगा तो था मुझे। बहुत महँगा होगा!”
“बच्चा था तो चार लाख का लिया था। अब तो जवान है, कीमत बढ़ गयी होगी!”
“शौक की कोई कीमत नहीं।”
“मेरा नहीं, बच्चियों का। उनकी जिद पूरी की।”
“मोहब्बती माँ-बाप ऐसा करते ही हैं।”
“वो तो है!”
“आपकी तवज्जो कुत्ते की तरफ है। मेरी तरफ हो तो कुछ अर्ज करूँ!”
वो तनिक हड़बड़ाया फिर कुत्ते से सम्बोधित हुआ — “हयातो! गो इन।”
हयातो भुनभुनाया, वो और कस कर मेहरोत्र की टाँगों के साथ लग गया।
“हयातो! गो इन।”
जवाब में कुत्ते ने पुरजोर दुम हिलाते हुए उसकी गोद में चढ़ने की कोशिश की।
“इशा! निशा!” — मेहरोत्र उच्च स्वर में बोला — “हयातो को ले के जाओ।”
दो हमउम्र, हमशक्ल लड़कियाँ कुलांचें भरती वहाँ पहुँचीं, उन्होंने कुत्ते के करीब जाकर महज इशारा किया कि वो मेहरोत्र के कदमों से उठकर उन दोनों के बीच पहुँच गया।
“माई डॉटर्स!” — मेहरोत्र गर्व से बोला।
“जुड़वां जान पड़ती हैं!” — जस्सा बोला।
“हैं। ऐन माँ का नक्शा हैं। उम्र का फर्क न हो तो तिड़वाँ जान पड़ें।”
जस्सा शिष्ट भाव से हँसा।
“वुई आर वन हैप्पी फैमिली। इनक्लूडिंग हयातो।”
“हयातो भी फैमिली!”
“बट ऑफ कोर्स!”
“बढि़या। बधाई।”
“तुम कुछ पियोगे?”
“जी! जी नहीं। जी नहीं।”
“कोई ठण्डा? गर्म?”
“जी नहीं। जरूरत नहीं।”
“तुम मेहमान हो। मेहमान के लिये जान हाजिर है।”
“इज्जतअफजाई का शुक्रिया। लेकिन नहीं, मुझे कुछ नहीं चाहिये।”
“श्योर?”
“हाँ, जी।”
मेहरोत्र ने सहमति में सिर हिलाते हुए बच्चियों को इशारा किया।
बच्चियाँ कुत्ते के साथ वहाँ से चली गयीं।
“अब बोलो” — पीछे मेहरोत्र बोला — “क्या चाहते हो?”
“जनाब” — जस्सा विनयशील लहजे से बोला — “चाहता तो वही हूँ जो पहले चाहता था। इसीलिये आप के द्वारे हूँ।”
“वो नहीं हो सकता। जो नियम के खिलाफ है, वो मैं नहीं कर सकता।”
“आप मालिक हैं, नियम बनाने वाले हैं, क्यों नहीं कर सकते?”
“मैं मालिक नहीं, मैनेजर हूँ।”
“ताक़त तो बतौर मैनेजर आपके हाथ में है न!”
“तो भी। मैं नियम के खिलाफ काम नहीं कर सकता।”
“जनाब, सीसीटीवी फुटेज रीव्यू के लिये ही होती है वर्ना किस काम की!”
“मंजूर। लेकिन काले चोर की रीव्यू के लिये नहीं होती। पुलिस आके माँगे, देंगे। कोई और कम्पीटेंट अथॉरिटी आके माँगे, देंगे। काले चोर को क्यों देंगे?”
“क्योंकि ये किसी की जिन्दगी-मौत का मसला है।”
वो सकपकाया।
“क्या मतलब?”
“मैं दिल्ली के एक बड़े बिजनेसमैन का दायाँ हाथ हूँ। मेरे बॉस का एक ही बेटा है, हालिया दिनों में जिसकी जान पर आ बनी है। जो फुटेज मुझे दरकार है, उससे उस शख़्स की शिनाख़्त हो सकती है जो बेटे की जान के पीछे पड़ा है। यूँ इससे पहले कि वो बेटे पर वार करे, हम उस पर वार कर सकते हैं। ये है उस फुटेज की जरूरत की कथा।”
“ये ख़ून-ख़राबे की बुनियाद की कथा है। मैं इसमें शरीक नहीं हो सकता। कल जब ऐसा कोई पलटवार हो जायेगा तो क्या ये छुपा रहेगा कि वो शिनाख़्त कैसे वजूद में आयी थी? कैसे तब मैं पुलिस की जवाबदारी से बचूंगा?”
जस्सा अवाव्फ़ उसका मुँह देखने लगा।
“जवाब दो!”
“ऐसा कुछ नहीं होगा।”
“कमाल है! खुद कहते हो होगा, खुद कहते हो नहीं होगा। लड़के की जान पर बनी बता रहे हो, साफ हिन्ट दे रहे हो कि जान लेकर जान बचाना चाहते हो, फिर कहते हो ऐसा कुछ नहीं होगा।”
“इस बात का जिक्र नहीं आयेगा कि फुटेज हमें आपसे हासिल हुई।”
“तो कैसे हासिल हुई? किससे हासिल हुई?”
“किसी से भी हुई, आप से न हुई।”
“कहोगे, मेरे किसी मातहत से हुई?”
जस्सा ख़ामोश रहा।
“मेरे मातहत बतौर मैनेजर मेरी जिम्मेदारी हैं। लिहाजा उनके ऐसे किसी अनवान्टिड एक्ट के लिये भी मैं जिम्मेदार हूँ।”
“जनाब, मैं फिर कहता हूँ — जस्सा फरियाद-सी करता बोला — “इस बात का हरगिज भी जिक्र नहीं आयेगा कि फुटेज हमें आपसे हासिल हुई।”
“ये झूठी तसल्ली है। मैं एक बिजनेस एस्टैब्लिशमेंट का मैनेजर हूँ। मैनेजर प्रबन्धक को कहते हैं। प्रबन्धक का काम प्रबन्ध करना होता है। कैसा नालायक प्रबन्धक हूँ मैं जिसकी नाक के नीचे से एक शै निकल गयी और उसे ख़बर नहीं हुई!”
जस्से से जवाब देते न बना।
मन-ही-मन वो कुढ़ रहा था कि उसकी पेश नहीं चल रही थी।
“देखो, मैंने तुम्हें मेहमान तसलीम किया।” — मेहरोत्र नम्र स्वर में बोला — “तुम्हें इज्जत से अपने घर में बिराजने का मौका दिया। अतिथि देवो भवः पर अमल किया। पंजाबी हो?”
जस्सा उस अप्रत्याशित सवाल पर हड़बड़ाया, फिर स्वयंमेव उसका सिर सहमति में हिला।
“हम पंजाबियों में कहते हैं ‘परौना मां प्यो जौना’। मेहमान का ऐसा दर्जा जैसे अपनी माँ का जाया हो, जैसे अपने बाप का बेटा हो। कल ‘हाइड पार्क’ में पेश हुई इतनी तल्खी-तुर्शी के बावजूद मैंने अपने घर में तुम्हें जो आदर-मान दिया है, उसकी कद्र करो और इस मसले को छोड़ो। जो तुम चाहते हो, नहीं हो सकता।”
“आप एक छोटी बात को तूल देकर नाहक बड़ी बना रहे हैं वर्ना क्यों नहीं हो सकता?”
“नहीं हो सकता। मैं कहता हूँ नहीं हो सकता। मेरा कहना काफी नहीं तो साफ बोलो। मुँह पकड़ो मेरा।”
“वो तो, खैर, मैं नहीं कर सकता।”
“सो देयर।”
“जनाब, मेरा बॉस दिल्ली का एक बड़ा बिजनेसमैन है, जो मैं चाहता हूँ, वो मुझे हासिल हो तो ये उस पर अहसान होगा। अहसान तले दबा शख़्स बावक्तेजरूरत सौ काम आता है।”
“मेरे?”
“आपके भी। वैसे मेरा इशारा ‘हाइड पार्क’ के मालिक की तरफ था।”
“कितना बड़ा बिजनेसमैन है तुम्हारा बॉस? ‘हाइड पार्क’ ख़रीद सकता है?”
“हाँ।”
मेहरोत्र हड़बड़ाया।
“फिर क्या बात है!” — फिर सम्भल कर बोला — “उसको बोलो ख़रीदे ‘हाइड पार्क’। ‘हाइड पार्क’ का मालिक बनते ही वो उस सीसीटीवी फुटेज का ही मालिक बन जायेगा, जिसे तुम मसला बना रहे हो।”
“वो होते-होते होने वाला काम है। इतना इन्तजार . . .”
“बस करो, यार।”
“करता हूँ। एक आखि़री बात बोल के करता हूँ।”
“बोलो।”
“सीधी उँगलियों से घी न निकले तो उँगलियाँ टेढ़ी करनी पड़ती हैं।”
मेहरोत्र ने अपलक उसे देखा।
जस्से ने पूरी निडरता से उससे आँख मिलाई।
“तुम मुझे धमकी दे रहे हो?” — मेहरोत्र शुष्क स्वर में बोला — “मेरे घर में मेरे सामने बैठ के मुझे धमकी दे रहे हो?”
“धमकी देना गुण्डे बदमाशों का काम होता है।”
“जोकि तुम नहीं हो?”
“हाँ।”
“भलेमानस हो?”
“हाँ।”
“तो उँगलियाँ क्यों टेढ़ी करनी पड़ेंगी तुम्हें? जोर जबरदस्ती भलेमानसों का शगल तो नहीं होता!”
“जनाब” — जस्सा उठ खड़ा हुआ — “मैं दूसरी बार आप से हार मानता हूँ और . . . रुख़सत पाता हूँ।”
“ठीक करते हो।” — मेहरोत्र भी उठा — “मालिक के लड़वफ़े की जान पर बनी है तो तुम्हारे मालिक का, तुम्हारा, मुनासिब मुकाम पुलिस स्टेशन है, मेरा ग़्ारीबखाना नहीं।”
“सही फरमाया आपने। आप की सलाह सिर माथे।”
“शुक्र है।”
“लेकिन हमारी एक मुलाकात फिर भी अभी और होगी और आप ही कोशिश करेंगे कि वो आखि़री हो। इसलिये मेरा ये एक विजिटिंग कार्ड रख लीजिये जिस पर मेरा पता और कान्टैक्ट नम्बर दर्ज है।”
उसने कार्ड की तरफ हाथ न बढ़ाया तो जस्से ने उसे सेंटर टेबल पर डाल दिया।
“मैं आपकी आमद का इन्तजार करूँगा और आपको आपकी तरह ‘अतिथि देवो भवः’, ‘परौना मां प्यो जौना’ भी बोलूँगा।”
“मेरी आमद?”
“होगी। नमस्ते।”
भारी उलझन के हवाले पीछे मेहरोत्र को छोड़कर जस्सा वहाँ से रुख़सत हुआ।
सुबह मेहरोत्र हाउसहोल्ड में जब जाग हुई तो हयातो इशा, निशा के बैडरूम में मरा पड़ा पाया गया।
घर में हाहाकार मच गया।
तत्काल वैट को तलब किया गया।
वैट के पहुँचने से पहले दो बातें नमित मेहरोत्र के नोटिस में आयींः
बेटियों के बैडरूम की डबल विंडो का शीशा भी कटा हुआ था और जाली भी कटी हुई थी।
खिड़की के ऐन नीचे फर्श पर एक तह किया हुआ कागज पड़ा था। मेहरोत्र ने हिचकते हुए उसे उठा कर खोला तो उस पर लिखा पायाः
ऊपर वाला जोड़ी सलामत रखे
मेहरोत्र को उसका मतलब तब समझ में आया जबकि वैट ने आकर बताया कि कुत्ता स्वाभाविक मौत नहीं मरा था, उसे जहर दिया गया था। टूटी खिड़की के रास्ते जहर मिले मांस के लोथड़े भीतर फेंके गये थे जिनको खाने से कुत्ते की मौत हुई थी। ऐसा एक आधा खाया लोथड़ा तब भी उसके करीब पड़ा था।
आतंकित भाव से मेहरोत्र ने पिछली रात के मेहमान को याद किया।
सीधी उँगलियों में घी न निकले तो उँगलियाँ टेढ़ी करनी पड़ती हैं।
हमारी एक मुलाकात अभी और होगी।
मेहरोत्र बगूले की तरह ड्राईंगरूम की तरफ झपटा।
जहाँ कहीं उपेक्षित-सा पिछली रात के मेहमान का विजिटिंग कार्ड पड़ा था।
3 दिसम्बर-मंगलवार
दोपहर के करीब जस्से की अरमान से फिर मुलाकात हुई।
इस बार जस्से के मयूर विहार स्थित फ्लैट में।
जस्से ने एक सीडी पेश की।
“क्या है ये?” — अरमान बोला।
“वही” — जस्सा बोला — “जो पहली बार में न हासिल कर सका। इज्जत उतरवाई सो अलग।”
“ ‘हाइड पार्क’ की सीसीटीवी फुटेज?”
“वही।”
“पिछले शुक्रवार शाम की? 29 नवम्बर रात नौ बजे के बाद की?”
“हाँ।”
“हासिल कर ली आखि़र!”
“हाँ।”
“कैसे किया? तेरे को तो ‘हाइड पार्क’ के करीब भी फटकना मना था!”
“किया किसी तरह से।”
“अरे, बता न!”
जस्से ने मजे ले-ले कर बताया।
“तूने” — अरमान हैरानी से बोला — “उनका नसली कुत्ता मार डाला!”
“साला कुत्ते समेत ‘वुई आर वन हैप्पी फैमिली’ बोलता था। एक मेम्बर कम किया न!”
“आगे और कम करने की धमकी जारी की!’
“की न!”
“मैनेजर न टूटता तो करता?”
जवाब देने से पहले जस्सा कुछ क्षण ख़ामोश रहा।
“काके” — फिर बोला — “मैं जब किसी मुहिम पर होता हूँ तो अपनी मंजिल के अलावा मुझे कुछ दिखाई नहीं देता। तो मैं एक जुनून के हवाले होता हूँ कि मैंने मंजिल पर पहुँचना है, पहुँच के रहना है। मेरा जुनून, मेरा मिशन मुझे जज्बाती होने की इजाजत नहीं देता। हार मान कर ख़ामोश बैठ जाने की इजाजत नहीं देता। हार मुझे अहसास दिलाती है कि जरूर मेरी कोशिश में कोई कमी थी। लिहाजा कोशिश, कोशिश और फिर कोशिश का नाम जस्सा है। मेरे लिये नतीजा अहम है, वो राह अहम नहीं जिस पर चल कर मैं नतीजे तक पहुँच पाया। मैं उस राह का राही नहीं बन सकता जिसमें जज्बात आड़े आते हों। लेकिन राह कभी कोई एक तो नहीं होती! एक राह बन्द होती है तो चार नयी राहें खुल जाती हैं। इसलिये, काके, दो टूक कहना मुहाल है कि मैनेजर अभी भी न टूटता तो मैं क्या करता! बहरहाल कुछ भी करता, जब तक अपना मकसद हल न कर लेता पीछा हरगिज न छोड़ता। इसे कहते हैं जस्से की जिद।”
“क्या कहने!”
“बहरहाल रब ने मेहर की कि और कुछ करने की नौबत न आयी। कुत्ते के अंजाम ने ही मैनेजर के कस बल निकाल दिये।”
“अब दिखा तो सही सीडी में क्या है!”
“तू चुप करे तो दिखाऊँ न!”
“मैं चुप हूँ।”
जस्से ने लैटटॉप पर सीडी चलाई।
स्क्रीन पर ‘हाइड पार्क’ की शुक्रवार रात नौ बजे के बाद की दृष्यावली चली जो कि अमित गोयल के नीलम, विमल, अल्तमश के साथ वहाँ से रुख़सत होने के वक्त तक की थी।
दूसरी बार अमित की जगह बाकी तीन जनों पर फोकस बना कर देखी।
“साफ पता लग रहा है” — अरमान संजीदगी से बोला — “कि ग्रुप की ये सलवार सूट-कार्डीगन वाली लड़की खुद . . . खुद जाकर अमित से चिपकी।”
“अच्छा!”
“तू खुद देख। इसके बार पर अमित के करीब पहुँचने के बाद से देख। इतने लम्बे बार काउंटर पर अमित से परे कई और भी बार स्टूल खाली थे लेकिन वो आयी और आकर अमित के पहलू में बैठी।”
“ऐसा?”
“तू खुद देख।”
अरमान ने टेप को अल्तमश के बार पर पहुँचने तक रिवर्स किया और फिर चलाया।
कुछ क्षण ख़ामोशी रही।
“हाँ, काके” — फिर जस्सा बोला — “बात तो तेरी ठीक है! अपने साथियों के पास भी ये ही अमित को ले के गयी।”
“और मैं क्या कह रहा हूँ?”
“ठीक कह रहा है लेकिन वो नहीं कह रहा जिसकी वजह से इतने बखेड़ों के बाद ये फुटेज हासिल हुई है। ग्रुप में जो मर्द है, तू उसकी तरफ तवज्जो दे और बोल कि तूने इसे पहचाना या नहीं! ये ‘लोटस पौंड’ वाली पहली फुटेज का काले चश्मे वाला आदमी है या नहीं जो तू समझता है कि महरौली के खंडहरों में फैंटम का मास्क लगा कर तेरे गले पड़ा था!”
अरमान जवाब देने से पहले कई क्षण ख़ामोश रहा।
“वो क्लीनशेव्ड था” — फिर बोला — “इसके मूँछ है।”
“नकली लगाई जा सकती है। आजकल मेकअप ने बहुत तरक्की कर ली है।”
“निचले होंठ के नीचे बालों का तिकोन है जिसे ‘सोल पैच’ कहते हैं।”
“जब मूँछ नकली लगाई जा सकती है तो वो ढाई बाल क्या प्रॉब्लम हैं?”
“भवें बहुत घनी हैं।”
“की जा सकती हैं। आखि़र बाल ही तो जोड़ने होते हैं!”
“कलमें लम्बी हैं।”
“फिर नकली बाल। कोई बड़ी बात नहीं।”
“बाल भूरे हैं — लोटस पौंड वाले शख़्स के काले थे — हेयर स्टाइल जुदा है।”
“विग होगा।”
“बायीं आँख के नीचे मस्सा है।”
“मैं तेरी आँख के नीचे अभी बना के दिखा देता हूँ।”
“आँखों की पुतलियाँ नीली हैं।”
“कान्टैक्ट्स से भूरी, सलेटी भी बनाई जा सकती हैं।”
“तेरे पास हर बात का जवाब है, क्या कहना चाहता है?”
“काके, जिस लाइन पर हम-तुम माथा फोड़ रहे हैं, अगर वो दुरुस्त है तो इस शख़्स का ‘लोटस पौंड’ वाला शख़्स होना लाजमी है। इस शख़्स ने एक बड़ी वारदात को अंजाम देना था तो दूसरी बार अपनी शक्ल सूरत की बाबत उसका कई तरह की एहतियात बरतना लाजमी था, जोकि उसने बरतीं।
“मेकअप से हुलिया बदल कर आया!”
“हाँ। यही बात तर्क की कसौटी पर खरी उतरती है।”
“हूँ।”
“अब तू ये बता कि तू पहचानता है इस बन्दे को?”
“नहीं। जब तू मानता है कि उसकी शक्ल पर दस तरह का मेकअप चढ़ा है तो कैसे पहचानूँगा?”
“औरतों को?”
“वो सलवार सूट वाली, जो अमित से चिपकी, उसे नहीं पहचानता लेकिन वो जो स्कर्ट जैकेट वाली औरत मर्द की कम्पैनियन है, उसकी शक्ल कुछ-कुछ पहचानी-सी लगती है।”
“और गौर से देख, दिमाग पर जोर दे, और याद करने की कोशिश कर कि क्यों पहचानी-सी लगती है!”
“वही कर रहा हूँ, लेकिन कुछ याद नहीं आ रहा।”
“फिर क्या फायदा हुआ!” — जस्सा बड़बड़ाया — “मेरी मेहनत तो किसी काम न आयी न!”
“सॉरी!”
“बन्दे की तरफ तवज्जो दे। इसी की बाबत कोई फैसला कर कि ये ‘लोटस पौंड’ वाला काले चश्मे वाला हो सकता है या नहीं! ये महरौली के खंडहर वाला तेरा हमलावर हो सकता है या नहीं!”
“कद-काठ से तो लगता है! लेकिन कद-काठ से तो किसी की पक्की शिनाख़्त नहीं होती न!”
“अब मैं क्या कहूँ? कद-काठ से नहीं तो चाल-ढाल से होती है, मैनरिज्म से होती है, तू किसी का तो शिनाख़्त के बारे में आसरा ले!”
“सॉरी, लेकिन . . .”
“क्या लेकिन?”
“मेरे को एक बात सूझी है।”
“इसी सिलसिले में, जो इस वक्त हमारे बीच वाकया है?”
“हाँ।”
“क्या? क्या बात सूझी है?”
“अब ये तो जाहिर है न कि इसी ग्रुप ने उस रात ‘हाइड पार्क’ में अमित को फँसाया और उसकी वो गत बनाई?”
“हाँ। जब इस लम्बी फुटेज में उन लोगों के अलावा किसी और की सोहबत में अमित था ही नहीं तो यही होंगे। साढ़े नौ के बाद से डेढ़ घन्टा अमित मुतवातर इन लोगों के साथ इस क्लिप में दिखाई दे रहा है, दिखाई दे रहा है कि उस दौरान न अमित किसी और के पास फटका और न कोई और अमित के पास फटका। इससे तो साफ यही जाहिर होता है कि सब किया धरा इसी ग्रुप का था लेकिन . . .”
“क्या लेकिन?”
“आखि़र में वो इन लोगों का साथ छोड़ गया था, अकेला उठके वहाँ से रुख़सत हुआ था!”
“जब उसने ऐसा किया था तो उसने पीछे किसी से कोई टाटा बाई-बाई, किया था? गुडनाइट स्वीट ड्रीम्स किया था?”
“वो तो नहीं किया था! वो तो बस एकाएक उठा और उनका हाथ छोड़कर बाहर को चल दिया।”
“क्यों भला? नशे में तो लोग बाग बड़े इन्टीमेट हो-हो के, गले लग-लग के एक दूसरे का साथ छोड़ते हैं। अमित ने तो ऐसा कुछ उस सलवार सूट वाली लड़की के साथ भी न किया, जिसके साथ वो तमाम अरसा गोंद की तरह चिपका बैठा रहा था।”
“क्यों?”
“और फिर वो तीनों क्या उसके पीछे वहीं डटे रहे? नहीं, वो बस इतनी देर रुके कि बिल चुकता कर पाते। यानी मुश्किल से पाँच मिनट बाद वो तीनों भी वहाँ से रुख़सत हो गये थे। किसलिये?”
“तू बता।”
“क्योंकि बाहर अमित ने उन्हें फिर मिलना था। मिला था। तभी तो वो सब आगे ईस्ट-ऑफ-कैलाश की कोठी में पहुँचे!”
जस्से ने सहमति से सिर हिलाया।
“चल, ठीक है, मैंने तेरी मानी बात। किसी वजह से वो इकट्ठे वहाँ से रुख़सत न हुए लेकिन बाहर निकल कर फिर इकट्ठे हुए। अब आगे बोल, वो बोल जो तू असल में कहना चाहता था, जिस वजह से तूने ये कल्यणा शुरु किया। उस बात पर पहुँच जो तुझे सूझी है।”
“अमित बार में अकेला था। रात जवान थी, राग रंग की महफिल जवान थी और वो बार में अकेला था। और” — आगे अरमान बड़े अर्थपूर्ण स्वर में बोला — “ये बात, ये अहम बात, ये ग़ैरमामूली बात उस ग्रुप को मालूम थी।”
“कौन सी बात?” — जस्सा सकपकाया।
“ये बात कि पिछले शुक्रवार उनतीस तारीख को ‘हाइड पार्क’ में, पीक आवर्स में अमित अकेला होगा। वो शख़्स अकेला होगा जो रात की ऐसी घड़ी ऐसी किसी जगह पर कभी अकेला नहीं होता।”
जस्से ने अवाव्फ़ उसकी तरफ देखा।
“ये जानकारी एडवांस में हुए बिना कि अमित ‘हाइड पार्क’ में तब विदाउट कम्पनी होगा, वो उस तैयारी के साथ वहाँ पहुँच ही नहीं सकते थे। जस्से, उस सलवार-सूट वाली अकेली, अनअटैच्ड, अवेलेबल लड़की का मर्द औरत के उस जोड़े के साथ होना अपने आपमें सबूत था कि वो अमित पर जैसे-तैसे थोपने के लिये ही साथ लाई गयी थी। अब ये बता, ऐसी तैयारी के लिये वक्त चाहिये होता है या नहीं?”
“होता है।”
“यानी अमित पर बाकायदा वॉच रखी गयी, उसकी वहाँ की रूटीन को स्टडी किया गया!”
“ऐसा ही जान पड़ता है।”
“जान नहीं पड़ता, है।”
“है।”
“तो क्या इसका मतलब ये नहीं कि अमित की फिराक में वो लोग — या उनमें से कोई, वो मर्द — शुक्रवार से पहले की शाम को भी वहाँ थे, जबकि मुझे मालूम है कि अमित वहाँ था।”
“मैं समझ गया। तू पिछले शुक्रवार से दो-एक दिन पहले की शामों की भी ‘हाइड पार्क’ की फुटेज चाहता है। नहीं।”
“हाँ। मुझे तेरे से यही उम्मीद थी, जस्से। बहुत तीखा दिमाग पाया है तूने।”
“इज्जतअफजाई का शुक्रिया, काके।”
“वो मैनेजर अब तेरे से फिट है — जुड़वाँ औलाद की सलामती के अन्देशे में तेरे से फिट है — क्या प्रॉब्लम है?”
“कोई प्रॉब्लम नहीं। मैं आज ही उससे फिर मिलता हूँ और तेरा सुझाया काम करता हूँ।”
“शुक्रिया।”
“बचाओ!”
विमल और नीलम दोपहरबाद मॉडल टाउन में वहीं के ही एक बड़े डिपार्टमेंट स्टोर में थे जब कि वो फ़रियादी पुकार उन्हें सुनायी दी।
विमल ने आर्तनाद की दिशा में देखा।
राक्षसी शक्ल वाला एक लड़का एक नौजवान लड़की को बाँह पकड़ कर जबरदस्ती स्टोर के ग्लास एग्जिट डोर की तरफ घसीट रहा था। लड़की उसकी पकड़ से छूटने के लिये तड़प रही थी, हाथ पाँव पटक रही थी।
शापिंग करते कई ग्राहक ठिठक कर वो नजारा करने लगे थे।
विमल ने नीलम की तरफ देखा।
“अन्धेर है!” — नीलम होंठों में बुदबुदाई — “दिन दहाड़े!”
ग्लास डोर के पास एक वर्दीधारी सिक्योरिटी गार्ड बैठा था, जो उस वाकये से निर्लिप्त जान पड़ता था।
विमल लपक कर उसके करीब पहुँचा।
नीलम ने उसका अनुसरण किया।
“अरे, कैसे गार्ड को तुम!” — विमल गुस्से से बोला — “तुम्हारे सामने वो कम्बख़्त लड़का उस बेचारी लड़की से ऐसी बद्सलूकी कर रहा है और तुम तमाशा देख रहे हो!”
“बाबू जी” — गार्ड लापरवाही से बोला — “ये रोज के नजारे हैं। आजकल के छोकरा-छोकरी लोग लड़-झगड़ के ही प्यार जताते हैं।”
“ये प्यार जता रहे हैं?”
“हाँ।”
“अरे, ये लड़-झगड़ नहीं रहे, ये मारपीट हो रही है। फौजदारी हो रही है। वो लड़का . . .”
“उसका इस्टाइल है।”
“लड़की फरियाद कर रही है।”
“दिखावा कर रही है, भाव बढ़ा रही है।”
“नॉनसेंस। अरे, खुद कुछ नहीं करना तो पुलिस को ही फोन कर दो।”
“एक बार किया था। वो आके मुझे ही लताड़ गये थे कि साले, हुआ कुछ भी नहीं था, ‘100’ क्यों खड़का दिया था!”
“तो तुम कुछ नहीं करोगे?”
“अरे, क्यों नाहक परेशान हो रहे हो? अभी अपने-आप ही सब सान्त हो जायेगा।”
तभी लड़की किसी तरह से लड़के के चंगुल से छूट गयी। वो उससे बच कर भागी तो लड़के ने बाज की तरह उस पर झपट्टा मारा और लड़की को बालों से पकड़कर वापिस घसीटा। बाल छोड़े बिना उसने फिरकी की तरह लड़की को अपनी तरफ घुमाया और ख़ाली हाथ का एक झन्नाटेदार थप्पड़ उसके चेहरे पर रसीद किया।
लड़की के मुँह से घुटी हुई चीख निकली।
विमल के जबड़े भिंच गये। उसने नीलम की तरफ देखा।
नीलम ने धीरे से, लेकिन दृढ़ता से, एक बार ऊपर से नीचे सिर हिलाया।
लड़का फिर लड़की को ग्लास डोर की ओर घसीटने लगा।
तभी एक बड़े साइज की कार ब्रेकों की चरचराहट के साथ बाहर सड़क पर ग्लास डोर के सामने आकर रुकी, उसकी ड्राइविंग सीट पर से कूदकर ड्राइवर — जो कि उस आतताई लड़के की ही उम्र का था — बाहर निकला, लपक कर कार के स्टोर की ओर के रुख पर पहुँचा और बैक डोर खोल कर प्रत्याशा में खड़ा हो गया।
लड़की को घसीटता लड़का बदस्तूर आगे बढ़ रहा था, लड़की चीख रही थी, बचाव की दुहाई दे रही थी, देखने वाले बस, देख ही रहे थे।
“ख़बरदार!” — लड़का गर्ज कर बोला — “कोई पास भी फटका तो जान से जायेगा।”
ख़ामोशी।
विमल आगे बढ़ा और उसका रास्ता रोक के खड़ा हो गया।
“अबे, तूने सुना नहीं अभी मैंने क्या कहा?” — लड़का दाँत पीसता बोला।
विमल ने अग्नेय नेत्रें से उसकी तरफ देखा।
“दीदे क्या फाड़ता है! बाजू हट।”
“छोड़।”
“अबे, अपनी ख़ैर चाहता है तो रास्ता छोड़।”
“लड़की को छोड़।” — विमल सर्द लहजे से बोला।
“तेरे कहने से?”
“हाँ।”
“मैं तो नहीं छोड़ने लगा! तेरे में हिम्मत है तो छुड़ा ले।”
विमल आसमानी बिजली की तरह उस पर टूटा।
अगले ही क्षण लड़की उसकी गिरफ़्त से आजाद थी और वो फर्श की धूल चाट रहा था।
नीलम ने आगे बढ़ कर लड़की को अपनी एक बाँह के सुरक्षात्मक घेरे में ले लिया।
लड़की उसके कन्धे से लग कर सुबकने लगी।
लड़का फर्श पर से उठा और दाँत किटकिटाता विमल पर झपटा।
विमल ने फुर्ती से बाँह फैला कर उसे अपने से दूर गर्दन से थाम लिया।
“पीछे!”
वो नीलम की चेतावनीभरी आवाज थी।
विमल ने अपने पीछे देखा तो उस लड़के को, जो अभी बाहर कार का दरवाजा थामे खड़ा था, हाथ में खुला चाकू लिये अपनी तरफ लपकने पाया।
विमल ने उसे थोड़ा और करीब आने दिया फिर अपनी गिरफ़्त में मौजूद लड़के को पूरी शक्ति से चाकूवाले पर धकेला। वो वेग से चाकूवाले से टकराया और दोनों एक दूसरे को लिये दिये फर्श पर ढेर हो गये। चाकू दूसरे लड़के के हाथ से निकल कर परे जा गिरा।
विमल ने उन्हें ठोकरों पर धर लिया।
उसके पाँव तब तक उनके विभिन्न अंगों पर प्रहार करते रहे जब तक वो रहम की फरियाद न करने लगे।
“उठो!” — विमल ने आदेश दिया।
काँपते-कराहते दोनों उठे।
“मेरी तरफ देखो।”
उन्होंने विमल की तरफ सिर उठाया, पर निगाह न मिलाई।
“हौसला न हो तो हथियार कोई बड़ा आसरा साबित नहीं होता। देख लिया?”
चाकूवाले का सिर झुक गया।
“और तू कैसा मर्द है” — विमल दूसरे से बोला — “जो औरत पर अपनी मर्दानगी आजमाता है?”
उसने जोर से थूक निगली।
“और आप लोग” — विमल तमाशाइयों से उच्च स्वर में सम्बोधित हुआ तो उसके स्वर में कोड़े जैसी फटकार थी — “कौन-सी दुनिया के बाशिन्दे हैं, कौन से समाज में साँस लेते हैं, जो आँखों के सामने जुल्म होता देखते हैं और उँगली नहीं हिलाते! जो शख़्स जुल्म होता बस देखता है, वो जुल्म में शरीक होता है और जालिम की मदद करता है। कितने जने तमाशाई बने खड़े हो यहाँ? बीस! पच्चीस! तीस! या और ज्यादा! और ये आतताई अकेला। अकेला और तुम सब पर भारी। ये लाचार लड़की तुम्हारी अपनी बहन बेटी होती तो क्या तब भी ख़ामोश नजारा देखते! नालायको! नामाकूलो! नामर्दो! नाइंसाफी कहीं भी हो, इंसाफ के लिए ख़तरा है। लानत है तुम लोगों के मर्द होने पर! तुम नपुंसक जिन्दा हो और नपुंसक ही मरोगे। कुछ कर नहीं सकते, नामाकूलो, तो बेहया तो न बनो! बेगै़रत तो न बनो! तमाशाई तो न बनो!”
सब एक-एक, दो-दो करके खिसकने लगे।
तभी पुलिस वहाँ पहुँची।
गार्ड उछलकर खड़ा हुआ और शेखी बघारता विमल से बोला — “मैंने फोन किया।”
“शाबाश!” — विमल बोला — “मैडल मिलेगा।”
“हीं हीं हीं।”
वो तीन जने थे जिनमें एक तीन फीती वाला हवलदार था और दो सिपाही थे।
सिपाहियों ने दोनों लड़कों को हिरासत में ले लिया।
चाकू भी कब्जे में कर लिया।
फिर हवलदार ने विमल की तरफ तवज्जो दी। तत्काल उसकी शक्ल पर शिनाख़्त की चमक आयी। वो तत्काल विमल से रूबरू हुआ।
“आप तो” — वो बोला — “हमारे एएसएचओ साहब के दोस्त हैं! बीसेक दिन पहले थाने आये थे!”
“हाँ। तुम दानवीर सिंह हो।”
“नाम याद रहा आप को! अलबत्ता मैं आप का नाम भूल गया।”
“कौल। अरविन्द कौल!”
“हाँ, कौल साहब। इलाके में ही रहते हैं। डी ब्लॉक में।”
“हाउस नम्बर नाइन।”
“हाँ। क्या हुआ था?”
विमल ने बताया।
“हूँ।” — हवलदार बोला — “ये लड़का” — उसने उस पहले वाले की तरफ इशारा किया जो लड़की के साथ जोर-जबरदस्ती कर रहा था — “इलाके का ही है। थाने में इस पर केस दर्ज है। कोर्ट से जमानत पर छूटा हुआ है।”
“क्या किया था?”
“लड़की के पीछे पड़ा था। जहाँ जाती थी, पहुँच जाता था। लड़की हर घड़ी उसको खुद को ताड़ता पाती थी। एक बार तो राह चलती को पकड़ ही लिया। बड़ी मुश्किल से खुद को छुड़ा पायी। फिर थाने पहुँची। लड़के को पकड़ मँगवाया गया और उसे सख़्त वार्निंग देकर छोड़ा गया। बाज आने की जगह एक दोस्त के साथ मिलकर लड़की के अगवा की कोशिश की . . .”
“दोस्त ये?” — विमल ने दूसरे, चाकू वाले, की तरफ संकेत किया।
“हाँ, यही। अगवा की कोशिश किसी वजह से कामयाब न हो पायी। इस बार केस दर्ज हुआ, दोनों को अदालत में पेश किया गया जहाँ से जमानत पर छूटे। अब जो कांड किया, उससे लगता है कुत्ते की दुम हैं, सीधी नहीं हो सकती।”
“अब किस फिराक में थे?”
“मैंने पूछा है।” — नीलम बोली — “धमका रहा था कि केस वापिस ले वर्ना जान से मार देगा। पैट्रोल डाल के फूँक देगा। ये नहीं मानी तो उठा ले जाने की कोशिश कर रहा था।”
“ओह!”
“पता नहीं क्या हो गया है नौजवान नसल को!” — हवलदार दानवीर सिंह असहाय भाव से गर्दन हिलाता बोला —”डरते ही नहीं किसी बात से, किसी अंजाम से। इस बार नहीं बचेंगे। किडनैपिंग और पोजेशन ऑफ़ इललीगल वैपन जैसी सख़्त धारायें लागू होंगी। जमानत भी यकीनी तौर पर खारिज होगी।”
“हमारे लिये क्या हुक्म है?”
“आप जा सकते हैं। बयान की कवायद के लिये लूथरा साहब बाद में बुला लेंगे।”
“लड़की?”
“इसे अभी तो थाने चलना होगा लेकिन जल्दी ही घर पहुँचा देंगे।”
“गुड। थैंक्यू।”
हवलदार ने सिर नवाकर थैंक्यू स्वीकार किया।
विमल ने एक आश्वासनपूर्ण निगाह अभी भी त्रस्त लड़की पर डाली, नीलम ने स्नेहभाव से उसकी पीठ थपथपायी, फिर दोनों ने स्टोर से रुख़सत पायी।
“सरदार जी” — बाहर आकर नीलम बोली।
“हाँ।”
“आई एम प्राउड ऑफ यू।”
“ठहर जा, अंग्रेजन।”
“मुझे तुम पर फख़्र है। अब ठीक है? मुझे फख़्र है कि मेरा मर्द दीन के हेत लड़ने वाला सूरमा है। मेरी माता भगवती से प्रार्थना है कि हर जन्म में मेरा इस जन्म का साईं ही पति के तौर पर मुझे मिले।”
“लो। अगले जन्मों की फ़िक्र पड़ गयी! पहले इस जन्म की शिफ्ट तो पूरी कर ले!”
“वो तो तभी पूरी होगी जब मैं सूरजसिंह सोहल का पोता खिला रही होऊंगी।”
“आमीन!”
“कैसे जलील लोग थे, खसमांखाने! दीदे फाड़ के तमाशा देखते रहे, उँगली न हिलाई। लड़की की हिमायत में तुम्हारे आगे आने पर भी किसी की ग़ैरत न जागी, कोई आगे न आया। ‘मैंनूं की’, रुड़जाने! मेरे पास तोप होती तो सब को उड़ा देती।”
“काबू में रह। फिर सूरज का पोता, बेटा तो क्या, सूरज को ही न खिला पाती।”
“हाँ, वो तो है। पर माँ बाप भी कैसे होते हैं इन मुश्टंडों के! मेरा सूरज ऐसा निकला तो, अपने हाथों से गला घोंट दूँगी।”
“माँ की ममता ऐसा करने देगी?”
“माँ क्या जिन्दा होगी! वो तो साथ मर जायेगी।”
“इतना चाहती है सूरज को?”
“हाँ। लेकिन उसके बाप से ज्यादा नहीं।”
“रब से?”
“जिस कर्मांवाली के एक पहलू में तुम्हारे जैसा साईं हो और दूसरे पहलू में सूरज जैसा बेटा हो, वो रब को भूल जाये तो क्या बड़ी बात है!”
“बस कर अब।”
“क्या बड़ी बात है!” — उसका गला रूंध गया।
“और हिल।”
नीलम ख़ामोशी से उसके साथ हो ली।
उनतीस तारीख़ की अमित गोयल वाली वारदात के बाद से ही मुबारक अली के भतीजे शिफ्टों में अशोक जोगी और अकील सैफी के पीछे साये की तरह लगे हुए थे।
उस दौरान यही सामने आया कि दोनों ही रात-ब-रात अकेले कहीं नहीं जाते थे और कम्पनी के साथ भी तभी कहीं जाते थे जब कि जाये बिना गति न हो। अपनी पसन्दीदा नाइट लाइफ की रंगरेलियों से तो उन्होंने कतई किनारा कर लिया था।
आखि़र उस रोज — मंगलवार — दोपहरबाद विमल के पास ख़बर आयी कि एयरपोर्ट के करीब के ‘ब्लैक पर्ल’ नाम के एक लग्जरी होटल में बड़ी भव्य शादी थी जिसमें सारे जोगी परिवार की शिरकत लाजमी थी।
जोगी परिवार में अशोक जोगी खुद, उसके माता-पिता और उसका एक छोटा भाई आलोक जोगी बस चार ही जने थे। शादी जोगी परिवार के किसी अतिसमृद्ध करीबी की बेटी की थी, लड़के वाले लखनऊ से थे और सारी बारात उस होटल में ही रुकी हुई थी, जिसकी वजह से होटल के कई कमरे सिर्फ उनके लिए बुक थे।
विमल ने उस शादी में घुसपैठ का फैसला किया।
शाम तक उसने तमाम जरूरी तैयारियां कर लीं।
रात को काले सूटों में सजे-धजे विमल और अशरफ और शादी के लिये उपयुक्त लकदक गुलाबी घाघरा-चोली में कहर ढाता अल्तमश होटल पहुँचे। पोशाक से मैच करते अल्तमश के जिस्म पर भारी जेवर थे जो कि सब नकली थे, घाघरा-चोली की तरह ही किराये पर लिये गये थे।
विमल की निगाह में उस अभियान में अशरफ की कोई जरूरत नहीं थी, लेकिन मुबारक अली की जिद थी कि बतौर बैकअप अशरफ को साथ ले जाया जाये।
विमल के उस दिन के मेकअप के मद में उसके नथुनों में प्लास्टिक की दो गोलियाँ फँसी हुई थीं जिनकी वजह से उसकी नाक नार्मल के मुकाबले में बहुत चौड़ी और फैली हुई लग रही थी। उसी वजह से उसकी आवाज में भी फर्क आ गया था; वो खरखराती और भारी लगने लगी थी। नाक के नीचे खूब फैली पसरी हुई, लम्बी, तावदार, निहायत रौबीली, अधपकी मूँछें थीं और सिर पर अधगंजा विग था। लेटैक्स रबड़ की परतों की देन मोटी तोंद थी। मोटी तोंद, मूछों और गंजी टांट की वजह से वो बहुत उम्रदराज शख़्स लग रहा था। उसके अगले दो दाँत नकली थे — असली दाँतों पर चिकाये हुए प्लास्टिक के दाँत थे — जिनकी वजह से उसका ऊपरला होंठ थोड़ा आगे निकल आया था। आँखों पर प्रादा के फ्रेम वाला, हल्के से सुर्मई लैंसों वाला चश्मा था।
अशरफ को किसी मेकअप की जरूरत नहीं थी, क्योंकि उस अभियान में — अगर वो किसी सिरे चढ़ता — उसका कोई सक्रिय योगदान अपेक्षित नहीं था।
अल्तमश की लकदक पोशाक, विग ओर चेहरे पर सलीके का वार पेंट ही उसका मेकअप था। वो उसको तिलांजलि देता तो मीशा गायब हो जाती और अल्तमश को मीशा साबित कर दिखाना किसी के बस की बात न होता।
शादी से सम्बन्धित दोनों पक्षों की तमाम जरूरी जानकारी विमल के लिये इन्स्पेक्टर अजीत लूथरा ने हासिल की थी जो कि उसके लिये मामूली काम था क्योंकि शादी एक फाइव स्टार होटल में थी। पंडाल की बुकिंग के लिये लड़की वालों ने होटल में एक शादी का कार्ड भी जमा कराया था, लूथरा ने विमल के लिये जिसकी स्कैण्ड कापी होटल से हासिल कर ली थी। उस कॉर्ड के सदके विमल को वर-वधु के, उनके माता-पिता के और दोनों के लखनऊ और दिल्ली के आवासीय पतों की मुकम्मल जानकारी थी। यानी शादी की बाबत किसी छोटी-मोटी पूछताछ का सामना करने के लिये वो पूरी तरह से तैयार था।
वो बाखूबी जानता था कि बड़े और सम्पन्न लोगों की शादियों में कुछ ऐसे भी बाराती होते थे — जैसे कि उच्च सरकारी अमला, कोई सांसद, कोई विधायक, वगै़रह — जिन की हैसियत और रुतबे से ही वर पक्ष वाकिफ होता था, कभी रूबरू मिला नहीं होता था और अमूमन तो सूरत भी नहीं पहचानता होता था। ऐसे मुअज्जिज मेहमान बड़े लोगों की बारात की शोभा माने जाते थे और बाद में डींग हाँकने के काम आते थे कि ‘हमारी मिनी की शादी में तो सीएम आया था’, ‘हमारे पप्पू की शादी में गृहमन्त्री आया था’, वग़ैरह . . .
विमल और उसके जोड़ीदार वहाँ वैसे ही मुअज्जिज मेहमान थे।
गेट पर दो तीन सजे धजे व्यक्ति खड़े थे जिनकी वहाँ मौजूदगी का अन्दाज ही बता रहा था कि वो लड़की वाले थे और मेहमानों के स्वागत के लिये वहाँ मौजूद थे। उनमें एक बड़े सम्भ्रान्त, वयोवृद्ध सज्जन थे, जिनके सिर पर मौजूद तुर्रेदार पगड़ी ही इस बात की चुगली कर रही थी कि वे वधु के पिता — नाम केदारनाथ गुप्ता — थे।
विमल ने बड़ी गर्मजोशी से उनसे हाथ मिलाया और बोला — “बधाई हो, गुप्ताजी।”
“आपको भी।” — गुलाबी पगड़ी मशीनी अंदाज से मुस्कुराई — “आप . . .”
“मैं बाराती हूँ।” — विमल मुस्कराया — “बारात के साथ इसलिये नहीं हूँ क्योंकि लखनऊ से नहीं, दिल्ली से ही हूँ।”
“ओह! ओह! वैलकम! वैलकम!”
“ये मेरा बेटा है। ये मेरी बहू है।”
“वैलकम!”
“अग्रवाल जी नीचे आ गये?”
“अभी नहीं। अभी घुड़चढ़ी में टाइम है।”
“ओह! यानी हम जल्दी आ गये!”
“क्या हर्ज है?”
“कोई हर्ज नहीं। ठीक है, तब तक हम होटल के बार का चक्कर लगा के आते हैं।”
“काहे को?’ अन्दर बार है न!”
“ओह! फिर क्या बात है!”
तभी दो मेहमान और आ गये।
गुलाबी पगड़ी उनकी तरफ आकर्षित हुई।
वो भीतर दाखिल हुए।
भव्य पंडाल बहुत बड़ा था लेकिन क्योंकि अभी बारात नहीं आयी थी इसलिये कदरन ख़ाली-ख़ाली लग रहा था।
भीतर खान-पान के स्टाल्स की भरमार थी और वर्दीधारी वेटर उन मेहमानों को उनके बीच घूम-घूम कर सर्व कर रहे थे, जो किसी स्टाल पर जाने की ज़हमत नहीं करना चाहते थे।
विमल की तवज्जो एक उम्रदराज व्यक्ति की तरफ गई जो कोई नेता जान पड़ रहा था। उसका भारी भरकम जिस्म था, खूब फैली हुई तोंद थी, झक सफेद कुर्ता पाजामा, जैकेट पहने था और सिर पर वैसी ही सफेद गांधी टोपी थी। वो साँवले रंग के ठस्सेदार, बन्द गले का कोट पहने अपनी ही उम्र के एक व्यक्ति को बतिया रहा था।
“वो” — विमल बोला — “गांधी टोपी! कोई नेता जान पड़ता है!”
“नौबत राय नाम है इसका।” — अशरफ बोला — “विधान सभा में लीडर ऑफ अपोजिशन है।”
“ओह!”
“लेकिन तुम उस दूसरे शख़्स के बारे में, जिससे वो बतिया रहा है, सवाल करते तो बेहतर होता!”
“अच्छा! कौन है दूसरा?”
“उस लौंडे का बाप है” — अशरफ का स्वर धीमा पड़ा — “जिसका शुक्रवार जड़ तक खतना हुआ।”
“ये हैं रघुनाथ गोयल, टिम्बर मर्चेंट!”
“हाँ।”
“इस उम्र में और औलाद पैदा कर ले तो नस्ल आगे बढ़े।”
अशरफ हँसा, तत्काल संजीदा हुआ।
वे आगे बढ़े।
दाईं तरफ बहुत ही वैल स्टैक्ड बार था जिसके आगे काफी लोग जमा थे।
“छोकरा बार पर है।” — अल्तमश बोला।
“अशोक जोगी?”
“हाँ।”
“बाकी फैमिली?”
“मालूम करना पड़ेगा।”
“कर। जरूरी है।”
अशरफ ने सहमति से सिर हिलाया।
“तू भी जा।” — विमल अल्तमश से बोला — “तेरा मेरे साथ देखा जाना ठीक नहीं।”
विमल को पीछे छोड़कर दोनों वहाँ वे चले गये।
विमल एक करीबी खाली सोफे पर जा बैठा।
एक वेटर ड्रिंक्स की ट्रे के साथ उसके करीब पहुँचा।
विमल ने एक जाम थाम लिया, लेकिन उसको मुँह लगाने की कोशिश न की।
बड़े धीरज से वो प्रतीक्षा करता रहा।
थोड़ी देर बाद वो दोनों लौटे।
विमल ने जाम को तिलांजलि दी और उठ खड़ा हुआ।
“पंडाल के यहाँ से बिल्कुल दूसरे सिरे पर” — अशरफ बोला — “फैमिली लाउन्ज की तरह सजा एक एनक्लोजर है। वहाँ लड़की वालों की तरफ से काफी लोग मौजूद हैं, जिनकी वजह से वहाँ कुछ खास मेहमानों की अलग ही रौनक है। उन मेहमानों में छोकरे के माँ बाप और छोटा भाई भी है।”
“छोटा भाई भी?” — विमल की भवें उठीं।
“बहुत छोटा। तेरह या चौदह साल का।”
“ओह! तभी।”
“अब?”
“अब हमें इकट्ठे दिखाई नहीं देना चाहिये।”
“ठीक।”
“तुम दोनों भी अलग हो जाओ। मैं जाकर वाशरूम ढूँढता हूँ और फिर बार पर पहुँचता हूँ।”
“ठीक।”
“लेकिन तूने” — विमल अल्तमश से बोला — “गाहेबगाहे छोकरे के इर्द गिर्द जलवा-अफरोज होते रहना है — यूँ कि उसे भनक तक न लगे कि तेरी उसमें कोई दिलचस्पी है।”
“मैं समझ गया।” — अल्तमश बोला — “ऐसा ही होगा।”
“धीरे बोल। याद रख के बोल कि जनाना लिबास में है। मर्दाना आवाज न निकाल।”
“सॉरी!”
“मैं चला।”
पूछने पर मालूम पड़ा कि वाशरूम के लिये पंडाल से निकल कर होटल की लॉबी में जाना पड़ता था और पंडाल के भीतर से ही लॉबी में और आगे वाशरूम में पहुँचा जा सकता था।
वाशरूम उसे ख़ाली मिला, फिर भी अपना गंजा विग और मूँछें उसने एक लैवेटरी स्टाल में जाकर उतारीं और वहाँ अंदाजे से ऊपरी होंठ पर छोटी, नकली, काली मूँछ चिपकाई। गंजा विग और बड़ी मूँछें उसने जेब के हवाले कीं, फिर कोट और कमीज सरका कर लेटैक्स रबड़ की मोटी तोंद को जिस्म से अलग किया और उसे वहीं पडे़ डस्टबिन में ठूँस दिया। वो बाहर निकला तो वाशरूम तब भी खाली था। शीशे के आगे खड़े होकर उसने अपने बालों में कंघी फिराई और मूँछ को एडजस्ट किया।
अब वो उम्र में उस शख़्स से जरा ही बड़ा लग रहा था, बार पर जाकर उसने जिस के गले पड़ना था।
वो वापिस पंडाल में और आगे बार पर पहुँचा।
बार काउन्टर बहुत लम्बा था लेकिन जैसा कि शादियों के अस्थायी बार में होता था, उसके सामने कोई बार स्टूल नहीं थे। उससे छः सात फुट के फासले पर ऊँची, कमर से ऊपर तक आगे वाली गोल मेजें थीं, जिनमें से एक पर कोहनियाँ टिकाये अशोक जोगी — जिसे वो अमित गोयल के मोबाइल से हासिल तसवीर के जरिये पहचानता था — खड़ा ड्रिंक एनजॉय कर रहा था और उसके हाव-भाव से लग रहा था कि वो उस का पहला भी नहीं था।
विमल ने बार से एक ड्रिंक हासिल किया और लापरवाही से टहलता हुआ उसके करीब पहुँचा।
“हये!” — वो चहकता-सा बोला — “अशोक!”
अशोक ने सिर उठाया।
“हाउ आर यू?”
उसके चेहरे पर उलझन के भाव आये।
“क्या बात है? पहचाना नहीं?”
उसने तनिक हिचकिचाते हुए इंकार में सिर हिलाया।
“अरे, मैं गिरीश! गिरीश माथुर!”
उसके चेहरे के भाव न बदले।
“अमित का दोस्त। ‘हाइड पार्क’ में मिले थे! अमित ने मिलवाया था।”
“अच्छा!”
“हाँ।”
“भई, कुछ . . . याद नहीं आ रहा।”
“अमित तो याद आ रहा है न! अमित गोयल। पन्द्रह-ए सैक्टर, नोएडा का वासी?”
“वो . . . वो तो याद आ रहा है, मेरा बैस्ट फ्रैंड है लेकिन . . .”
“बेचारा इनडिस्पोज्ड है। बैड पर है। वर्ना यहाँ होता और तेरे याद न आने पर जरूर तेरी कोई ख़बर लेता। फिर फ्रेंडशिप में बैस्ट नहीं तो रनर अप तो तू मुझे मान ही लेता।”
“भई, आई एम सॉरी . . . मेरी याददाश्त कुछ . . .”
“शायद बाटली की वजह से!”
“नहीं, इतनी बाटली तो अभी नहीं मारी मैंने!”
“ठहर, तुझे एक चीज दिखाता हूँ। तेरी याददाश्त तरोताजा कर देगी।”
तभी कूल्हे मटकाता, कमर लचकाता अल्तमश उनके सामने से गुजरा।
अशोक ने उसे देखा और साफ-साफ उस पर लार टपकाई।
“भई, नजर से पी ली हो तो . . .”
विमल ने जानबूझ कर वाक्य अधूरा छोड़ दिया।
“ओह! सॉरी!” — अशोक खिसियाया-सा बोला — “मेरा ध्यान भटक गया था।”
“मुझे मालूम है क्यों भटक गया था! वो आइटम ही ध्यान भटकाने वाली थी। जिधर से गुजरती है ध्यान भटकाती है। साली की वजह से कोई गुल न खिले आज यहाँ!”
“शादी-ब्याहों में छोटा-मोटा कुछ होता है तो नजरअंदाज किया जाता है।”
“वो तो है! वैसे नजर से पीने वालों के लिये एक बद्दुआ मशहूर है!”
“कौन सी?”
“तेरा हाथ जिन्दगी भर कभी जाम तक न पहुँचे।”
“ये बात” — उसने अपना जाम वाला हाथ ऊँचा किया — “मेरे पर लागू नहीं।”
“मेरा इशारा किसी और जाम की तरफ था . . .”
“और कौन-सा जाम?”
“जो अभी यहाँ से गुजरा! छलकता हुआ! जिस पर साफ लार टपका रहे थे।”
वो हड़बड़ाया, फिर शुष्क स्वर में बोला — “तुम कुछ कह रहे थे!”
“क्या कह रहा था?”
“कोई चीज दिखाने जा रहे थे!”
“ओह, हाँ। अभी।”
विमल ने जेब से मोबाइल निकाला, ‘फोटोज’ पंच किया, एक तसवीर छांटी और उसको पूरी स्क्रीन पर लिया।
वो एक फोटोशॉप्ड पिक्चर थी जिस में विमल और अशोक जोगी जाम हाथ में लिये आजू-बाजू खड़े कैमरे में मुस्करा रहे थे।
वो तसवीर हाशमी का कारनामा था। उसने जाम हाथ में लिये उसकी और अशरफ की मिडशॉट में तसवीर खींची थी, फिर कम्प्यूटर के सदके अशरफ की जगह अशोक जोगी की सूरत उकेर दी थी और बैकग्राउन्ड तब्दील कर के बार की बना दी थी।
“ये देख” — विमल मोबाइल की स्क्रीन उसके सामने करता बोला — “सैल्फी। तेरी मेरी। ‘हाइड पार्क’ में हुई हमारी पहली मुलाकात की यादगार।”
अशोक ने तसवीर देखी, फिर उसके चेहरे के भाव बदले।
“यार, मैं शर्मिंदा हूँ।” — उसने खेदप्रकाश किया — “पता नहीं, ये कैसा मैंटल ब्लैक आउट हो जाता है, कभी-कभी!”
“होता है। सबके साथ होता है। ख़ासतौर से घूंट के रसिया लोगों के साथ” — वो एक क्षण ठिठका, फिर बोला — “जैसे कि हम हैं। हा हा!”
अशोक ने हँसी में उसका साथ दिया।
तभी एक ड्रिंक्स वाला वेटर उनके करीब से गुजरा।
दोनों ने उससे नये ड्रिंक हासिल किये।
“चियर्स!”
उन्होंने जाम टकराये।
अल्तमश पूर्ववत् लहराता इठलाता वापिस लौटा और उनके सामने से गुजरा।
इस बार उसके हाथ में शैम्पेन का फ्ल्यूट ग्लास था।
विमल ने हौले से सीटी बजाई।
अल्तमश ठिठका, घूमा, उसने आँखें तरेर कर उन दोनों की तरफ देखा।
जानता जो नहीं था किसने सीटी बजाई थी।
“नो ऑफेंस, माई डियर।” — विमल मीठे स्वर में बोला — “ओनली ए वॅफ़म्पलीमेंट टु युअर डिवाइन ब्यूटी।”
अल्तमश ने अब सिर्फ उसकी तरफ आँखें तरेरीं।
“नो ऑफेंस!” — विमल पूर्ववत् बोला — “कोई अन्धा ही होगा जो तुम्हारे बेमिसाल हुस्न के जलाल से अन्दर तक हिल न जाये।”
अल्तमश ने अपलक उसे देखा, फिर एकाएक मुस्कराया।
ख़ासतौर से अशोक के लिये रिहर्स की हुई चित्ताकर्षक मुस्कुराहट।
“थैंक्यू!” — फिर इठला कर बोला।
“वैलकम! चियर्स!”
“चियर्स!”
इठलाता, बल खाता वो आगे बढ़ गया।
“साली कटी पतंग है।” — विमल हसरतभरे लहजे से बोला — “लूट लेगा कोई।”
अशोक का सिर स्वयमेव सहमति में हिला, फिर उसने खुद पर काबू पाया।
“तुम्हें कैसे पता?” — वो बोला।
“क्या?” — विमल जानबूझ कर अनजान बनता बोला — “क्या मुझे कैसे पता?”
“कि वो कटी पतंग है?”
“अन्दाजा है।”
“ओह! अन्दाजा है।”
“कब से सारे पंडाल में अकेली फिरती देख रहा हूँ।”
“हम्म। बारात के साथ आयी होगी!”
“ऐसा ही जान पड़ता है। लड़की वालों की तरफ से होती तो कभी कोई तो उसके करीब फटकता!”
“लेकिन बारात तो अभी आयी नहीं?”
“कब की आयी हुई है लखनऊ से। इसी होटल में ठहरी हुई है। सबने ऊपर से नीचे ही तो आना है! उस . . . उस परीचेहरा हसीना की तरह कुछ लोग पहले यहाँ आ गये तो क्या प्रॉब्लम है?”
“तो वो इसी होटल में ठहरी हुई है?”
“जाहिर है। बारात के साथ है तो जाहिर है।”
“अकेली?”
“अब इस बाबत क्या कहा जा सकता है! लेकिन . . .”
“क्या लेकिन?”
“तू कहे तो मालूम करने की कोशिश करूँ।”
“कर सकता है?”
“कोशिश . . . कोशिश कर सकता हूँ।”
“कर। लेकिन पहले एक सैल्फी मेरे कैमरे से हो जाये।”
“क्यों भला?”
“ताकि पहले की तरह मैं फिर न तुझे भूल जाऊँ।”
“अरे, अब नहीं भूलेगा। ऐसे इत्तफाक रिपीट नहीं होते।”
“तेरे को सैल्फी से कोई ऐतराज है?”
“अरे, नहीं! ऐतराज कैसा!”
“तो फिर . . .”
“पहले मुझे वो स्पैशल काम तो ट्राई करने दे! सैल्फी को तो सारी रात पड़ी है! ऐसे कामों में देर नहीं करनी चाहिये।”
“क्यों?”
“अरे, कोई दूसरा चिपक गया तो? कटी पतंग है, डोर किसी और ने थाम ली तो?”
“सयाना है काफी। ठीक है, जा।”
“आता हूँ। यहीं मिलना।”
“ठीक है।”
विमल आगे बढ़ा।
पाँच-सात मिनट उसने अशोक की निगाह से परे गुजारे, फिर वापिस लौटा।
अशोक ने सवालिया निगाह उस पर डाली।
“मिशन अकम्पलिश्ड!” — विमल गर्व से बोला।
“ऑलरेडी!” — उसने हैरानी जताई।
“यस।”
“क्या जाना?”
“लखनऊ से है, बारात के साथ है, अकेली है, हसबैंड ने साथ आना था, न आ सका।”
“हसबैंड!”
“हाँ। चार महीने हुए शादी को।”
“बस सिर्फ चार महीने! फिर भी हसबैंड साथ नहीं!”
“पायलेट है। एकाएक इमरजेंसी काल आ गयी। जाना पड़ा। उन लोगों के कारोबार में होता है ऐसा। एक पायलेट ने फ्लाइट कमांड करनी होती है, उसके साथ कोई बखेड़ा — हैल्थ प्रॉब्लम, पर्सनल प्रॉब्लम, कम्पैटिबलिटी विद पैसेंजर्स एण्ड क्रियू प्रॉब्लम — खड़ा होता है तो आनन-फानन उसकी रिप्लेसमेंट का इन्तजाम किया जाता है। किसी ऑफ ड्यूटी पायलट को वार फुटिंग पर तलब किया जाता है।”
“तू तो ऐसी प्रोसीजरल बातों के बारे में बहुत कुछ जानता है!”
“मैं क्या जानता हूँ! उसी ने बताया।”
“कहाँ मिली?”
“बैंड स्टैण्ड पर। डिस्को जॉकी (DJ) से अपनी पसन्द का गाना बजाने के लिये रिक्वेस्ट करती।”
“ठीक से पेश आयी?”
“हाँ।”
“पहचान गयी?”
“फौरन। जिसने उसकी डिवाइन ब्यूटी पर इतना बड़ा कॉम्पलीमेंट पेश किया था, उसे क्या इतनी जल्दी भूल जाती! उससे क्या ठीक से पेश न आती!”
“वो बात तो है! अब कहती क्या है?”
“यार, बस यहीं मक्खी पड़ गयी। मैंने उसे इनवाइट किया ड्रिंक्स में हमारे साथ शामिल होने के लिये। बोली, शी वाज फाइन एनजाईंग हरसैल्फ।”
“ऐसा बोली!”
“हाँ। लेकिन हौसला रख, कर्टेंस के अन्दाज से न बोली। साफ जताती बोली कि पहली ही बार ऐसी पेशकश नहीं कुबूल की जाती थी।”
“ओह! नखरेबाज है?”
“सारी खूबसूरत औरतें होती हैं।”
“तो अब? फिर जायेगा इनवीटेशन रिपीट करने?”
“जाना नहीं पड़ेगा। वो ही इधर आयेगी।”
“कैसे मालूम?”
“अरे, जो शैम्पेन कॉकटेल पी रही है, वो ख़ास उसकी पसन्द की है। बार पर जाकर बारमैन से खुद अपने सामने बनवाती है।”
“यानी शौकीन औरत है!”
“हाँ। खुद बोली जो हाथ में ड्रिंक था, उसका तीसरा था।”
“जबकि अभी तो बारात भी नहीं आयी! महफिल अपने रंग पर अभी आयी भी नहीं!”
“ऐग्जैक्टली।”
“जाम का शौक करती है, मालूम करता और महकमों में क्या पोजीशन थी?”
“अरे, हालिया शादी हुई, सब कुछ करती होगी!”
“हसबैंड के साथ?”
“क्या पता लगता है!”
“ऐसा?”
“हाँ।”
“यार, ऐसा लिबरल मिजाज हो उसका तो मजा आ जाये!”
“कैसे आ जाये? इतनी बड़ी शादी है। यहाँ हम दो ही नौजवान थोड़े ही हैं!”
“ठीक! लेकिन सब तेरे जैसे फास्ट वर्कर तो नहीं! चुटकियों में कितना कुछ कर दिखाया तूने! वाकफियत बना ली, उससे पर्सनल जानकारी हासिल कर ली। इतना इंटीमेंट बन गया कि उसे ड्रिंक्स के लिये इनवाइट कर लिया।”
“इनवीटेशन कबूल तो न हुआ न!”
“लेकिन रीइनवीटेशन की गुंजायश तो बोलता है न कि है!”
“वो तो है!”
“तो कर कुछ।”
“लार टपक रही है?”
“जैसे तेरी नहीं टपक रही।”
विमल हँसा।
“फिर जा।” — अशोक ने मनुहार की।
“ऐसा करना ठीक न होगा।” — विमल संजीदगी से बोला — “जो चिपकू बनने की कोशिश करे, उसे ऐसी औरतें नापसन्द करती हैं।”
“ओह!”
“क्या बात है! यूँ ओह कहा जैसे आह भर रहा हो!”
अशोक ख़ामोश रहा।
“वो बार पर आती ही होगी।” — विमल ने उसे आश्वासन दिया — “मैं बार पर जाकर उससे बात करूँगा।”
“न आयी तो?”
“तो मैं जाके तलाश करूँगा।”
“हूँ।”
“लेकिन शर्त लगा ले मेरे से। वो ही आयेगी इधर।”
“देखते हैं।”
“मेरे पापा!” — एकाएक वो बोला, उसने गिलास मेज पर रख दिया और मुँह पोंछने लगा।
विमल ने भी उसका अनुसरण किया।
एक सूटबूटधारी उम्रदराज व्यक्ति उनके करीब पहुँचा। उसने संदिग्ध भाव से विमल की तरफ देखा।
“मेरे पापा।” — अशोक बोला — “गिरीश।”
विमल ने दोनों हाथ जोड़े, झुककर एक हाथ से उसका घुटना छुआ।
सीनियर जोगी को वो एक्शन पसन्द आया।
“जीते रहो।” — वो बोला — “अच्छा है अशोक किसी दोस्त के साथ है।”
“जी।” — विमल शिष्ट भाव से बोला।
“घूँट लगा रहा था। मुझे आता देख के गिलास परे रख दिया।”
अशोक ने शरमाने का अभिनय किया।
“मुझे ऐतराज नहीं। आजकल सब पीते हैं। ख़ासतौर से शादी-ब्याहों में। लेकिन गैरजिम्मेदारी से, ढेर पीने से, इतनी पीने से कि झेली न जाये, ऐतराज है।”
“होना ही चाहिये।”
“तुम दोस्त हो तो इसके साथ ही रहना। अकेला न छोड़ना इसे। और ध्यान रखना, बेतहाशा न पिये।”
“ऐसा नहीं होगा, अंकल।”
“गुप्ता जी ने मुझे फैमिली लाउन्ज की देखभाल की जिम्मेदारी सौंपी है इसलिये मैं फिर चक्कर नहीं लगा पाऊँगा।”
“जरूरत ही नहीं, अंकल। मैं हूँ न!”
“हाँ। मेरी फैमिली लाउन्ज की मेरी जिम्मेदारी बारात आने तक चलेगी। तब तक तो जरूर ही इसके साथ रहना।”
“जी हाँ। जरूर।”
“फिर ये हमारे साथ होगा।”
“ठीक।”
“गिरीश नाम बताया न?”
“जी हाँ। गिरीश माथुर।”
“मौज करो। जाता हूँ।”
वो चला गया।
“पापा को पता है मैं ड्रिंक करता हूँ।” — पीछे अशोक बोला — “लेकिन उनके सामने कभी नहीं। इसलिये उनके सामने गिलास थामे खड़े होना बेशर्मी होती!”
“बिल्कुल! तभी तो मैंने भी रख दिया।”
“अच्छा किया।”
“तेरे जिगरी नहीं दिखाई दिये अभी तक!”
अशोक की भवें उठीं।
“अरे, भई मैं अरमान त्रिपाठी की और अकील सैफी की पूछ रहा हूँ।”
“तू . . . तू उन्हें भी जानता है?”
“क्या बात करता है, यार, तू! सिर्फ तीन हफ्ते पहले की बात याद नहीं रख सकता। कैसी याददाश्त है तेरी?”
“सॉरी!”
“मैंने अभी बोला कि नहीं बोला कि ‘हाइड पार्क’ में अमित ने मुझे तेरे से मिलवाया था! तब अरमान और अकील भी तो वहीं थे!”
“ओह! यार, सच में ही याददाश्त दगा देने लग गयी है। सॉरी अगेन।”
“कम पिया कर।”
“बस, ये ही काम मैं नहीं कर सकता। मैं न पियूँ ये हो सकता है; छक के न पियूँ, ये नहीं हो सकता। याददाश्त दगा देती है तो दे।”
“तेरी माया तू ही जाने।”
“अरमान ने अपनी फैमिली के साथ आना है। उसका चाचा, तेरे को मालूम ही होगा, एमएलए है और सीएम का ख़ास है। उसने सीएम के साथ आना है। अरमान वग़ैरह भी उनके साथ ही आयेंगे। अब सीएम है, बारात से पहले तो आ नहीं जायेगा!”
“बड़े लोग लेट ही आते हैं। लेट हो नहीं जाते, जानबूझ कर लेट आते हैं।”
“हाँ। इसलिये अरमान भी लेट ही आयेगा।”
वो विमल के लिये अच्छी ख़बर थी। असल में वो मुद्दा उसने उठाया ही अरमान की आमद के बारे में जानने के लिये था। अकील का जिक्र बेमानी था, साथ इसलिये जोड़ा था क्योंकि अरमान का जिक्र उठाया था।
“और अकील?” — उसने नाहक सवाल किया।
“उसका यहाँ कोई काम नहीं। गुप्ता जी उससे या उसकी फैमिली से वाकिफ नहीं इसलिये उन्हें इनवीटेशन नहीं है।”
“ओह!”
“तुम यहाँ कैसे?”
“हम साउथ एक्स में गुप्ता जी के पड़ोसी हैं। पापा कोलकाता में हैं इसलिये मेरे को ये शादी अटेंड करने का हुक्म हुआ।”
“आई सी। तो तू साउथ एक्स में रहता है?”
“हाँ।”
“एक कार्ड दे अपना।”
“कार्ड तो . . .”
तभी अल्तमश उनके सामने से गुजरा।
“ले!” — विमल विजेता के से भाव से बोला — “देख ले। पहचान ले कौन जा रहा है!”
“देखा।”
“अच्छा किया न, शर्त न लगाई! वर्ना हार जाता।”
“अब तू भी तो जा न! और . . . कर कुछ। दिखा कोई कमाल।”
विमल ने सहमति से सिर हिलाया, उसने हाथ में थमा तकरीबन फुल जाम मेज पर वापिस रख दिया।
उसके सामने बड़ा प्रोजेक्ट था, टुन्न होने का उसका कोई इरादा नहीं था।
आगे कदम बढ़ाने को तत्पर एकाएक वो ठिठका।
“क्या हुआ?” — अशोक बोला।
“तू साथ चल।” — विमल बोला।
“कहाँ?”
“अरे, बार पर साथ चल। दोनों मिलते हैं जाकर उससे।”
“दोनों?”
“हाँ।”
“कुछ काम बनना होगा, तो वो भी नहीं बनेगा।”
“बनेगा। तू चल तो।”
“वो यहीं से तो गुजरेगी! बुला लेंगे।”
“हुज्जत बहुत करता है। अरे, बार की बात और होती है, वहाँ का माहौल और होता है।”
“अच्छा!”
“तेरी वहाँ मौजूदगी उलटी पड़ती दिखाई देगी तो मैं तुझे वहाँ से खिसक जाने का इशारा कर दूँगा।”
“ठीक है, चल।”
विमल की तरह उसने अपने जाम को तिलांजलि न दी, उसने उसे एक ही साँस में निपटाया और खाली गिलास मेज पर रखा।
दोनों बार पर पहुँचे।
अल्तमश वहाँ मौजूद था, वो उसके करीब जा खड़े हुए।
अल्तमश ने सिर उठा कर उनकी तरफ देखा।
“हल्लो!” — बारमैन को सुनाता विमल बोला — “वुई मीट अगेन।”
“यस।” — अल्तमश भी उसी अन्दाज से बोला — “वुई डू। आई एम ग्लैड।”
“सो आर वुई!”
“वुई!” — बडी अदा से अल्तमश की भवें उठीं।
“ये मेरा फ्रैंड है न मेरे साथ! अशोक।”
“ओ, यस। देखा था तुम्हारे साथ। हल्लो, अशोक।”
“हल्लो, मैम।” — अशोक बोला।
“मैं गिरीश।। बैंड स्टैण्ड पर मिले थे तो बताया ही था!”
“हाँ। इतनी जल्दी कैसे भूल सकती हूँ!”
“सो नाइस ऑफ यू। बार पर खड़ी हैं, अब एक ड्रिंक हमारे साथ हो जाये तो कैसा रहे?”
अल्तमश ने हिचकिचाने का अभिनय किया।
“ओ, कम ऑन!”
“प्लीज!” — अशोक ने भी तरह दी।
“भई, वो क्या है कि” — अल्तमश बोला — “मेरे को कोई ऐतराज तो नहीं लेकिन . . .”
“क्या लेकिन?”
“आई हैव अदर प्लांस।”
“वॉट अदर प्लांस।”
“मैं थक गयी हूँ। पता लगा है बारात लेट चढ़ेगी क्योंकि सीएम साहब की घुडचढ़ी पर हाजिरी है और ख़बर आयी है कि वो लेट आयेंगे। इस वजह से मैं अपने रूम में जाकर थोड़ा रैस्ट करना चाहती हूँ।”
“आपका रूम बुक्ड है होटल में?”
“सुईट। इस होटल में सिंगल रूम्स हैं ही नहीं। पौने तीन सौ सुइट्स हैं बस, और उनमें डेढ़ सौ बारात के लिये बुक हैं।”
“ओह! हमें आपकी प्रिविलेज पर रश्क आता है।”
“क्यों भला?”
“क्योंकि थकावट तो हमें भी महसूस हो रही है!” — वो अशोक की तरफ घूमा — “नहीं?”
“हाँ।” — अशोक ने तत्काल हिन्ट पकड़ा और बोला — “लेकिन हमें तो डिलेड घुड़चढ़ी के शिड्यूल के साथ शहीद होना पड़ेगा!”
“दैट्स टू बैड। लड़की वाले इतना ख़र्चा करते हैं शादी में लेकिन ये किसी को नहीं सूझता कि होटल में दो चार कमरे लोकल्स के लिये भी बुक होने चाहियें।”
“वही तो!”
“सूझता है।” — विमल बोला — “हमारे मेजबान को न सूझा।”
“या सूझा” — अशोक बोला — “तो हमें ऐसे किसी इन्तजाम की ख़बर नहीं।”
“हो सकता है।”
“ख़ैर, जो होगा, भुगतेंगे लेकिन” — अशोक अल्तमश की तरफ घूमा — “आप तो हमारी दरख़्वास्त — जो ख़्वाहिश ज्यादा है — कुबूल फरमा कर लखनवी नवाजिश की मिसाल कायम कीजिये!”
अल्तमश की धनुष जैसी भवें उठीं।
“एक ड्रिंक तो हमारे साथ शेयर कर ही लीजिये।”
“अच्छा!”
“खुशी का मौका है” — अशोक व्यग्र भाव से बोला — “उसे यादगार बना दीजिये।”
“यादगार बना दूँ?”
“यस, प्लीज।”
“एक ड्रिंक शेयर कर के?”
“हाँ।”
“बहुत छोटी ख़्वाहिश जागी मन में!”
“ऐसा तो नहीं है!”
“तो कैसा है?”
“बोलूँगा तो आप नाराज हो जायेंगी।”
“ऐसा नहीं होगा।”
“बेख़ौफ बोलूँ?”
“हाँ।”
“तो सुनिये। जब से आप को देखा है, ख़्वाहिशें तो हवाई घोड़े पर सवार हैं, कल्पनायें आपा छुड़ा के भाग रही हैं, दिल प्रत्याशाओं में डूबा जा रहा है और मेरा सारा अस्तित्व! . . . जैसे परमसुख के हिन्डोलों में झूल रहा है।”
“अरे! तुम तो कविता करने लगे!”
साला फन्देबाज! — विमल मन-ही-मन बोला — आ गया अपनी औकात पर!
“लेकिन मुझे बुरा नहीं लगा।” — अल्तमश बोला — “मैं ऐसे जज्बात की और जज्बाती लोगों की कद्र करती हूँ।”
“शुक्रिया।”
“अभी कोई एक ख़्वाहिश पूरी हो सकती हो तो क्या माँगोगे? ड्रिंक्स शेयर करने वाली ख़्वाहिश के अलावा बोलना। वो मामूली ख़्वाहिश है।”
“वो मैं इसके सामने नहीं बोल सकता।”
“ये दोस्त है तुम्हारा! हमप्याला!”
“फिर भी नहीं। ऐसी बातें तनहाई में ही कहने लायक होती हैं।”
“तनहाई में!”
“एक सुनने वाला हो, एक कहने वाला हो, बस।”
“क्या कहने! यहाँ तो पाँच सौ सुनने वाले हैं!”
“वही तो!”
“मुझे तुमसे हमदर्दी है।”
“थैंक्यू!”
“इसलिये एक ड्रिंक शेयर करना कुबूल है।”
“ब्रावो!”
विमल ने भी उसके हर्षनाद में उसका साथ दिया।
तीनों ने बार से ड्रिंक हासिल किये और वहाँ से थोड़ा परे सरक आये।
उन्होंने गिलास टकराये और सम्वेत् स्वर में ‘चियर्स’ बोला।
ड्रिंक्स के दौरान अल्तमश और अशोक में चुहलबाजी चली, ख़ास इशारेबाजी चली जिस पर अल्तमश ने कोई ऐतराज भी न किया और जिसके दौरान विमल ने सिर्फ फरमायशी हाँ हूँ की।
आखि़र अल्तमश ने अपना गिलास ख़ाली किया।
“मैं अपने सुईट में जा रही हूँ।” — वो व्यस्तता जताता बोला — “नम्बर ‘406’। किसी को रैस्ट की जरूरत हो तो वो वहाँ आ सकता है।”
बिना जवाब का इन्तजार किये अल्तमश घूमा और कूल्हे झुलाता वहाँ से रुख़सत हो गया।
लालसा से लाल होती आँखों से अशोक उसे जाता देखता रहा। अल्तमश निगाह से ओझल हो गया तो वो विमल की ओर घूमा।
“क्या ख़याल है?” — वो बोला।
“अरे, साफ तो न्योत गयी!” — विमल बोला।
“नशे में थी।”
“क्या बड़ी बात है! जो हमारे साथ शेयर किया, वो चौथा तो शर्तिया था।”
“क्या करें?”
“मेरे से पूछ रहा है!”
“हाँ।”
“अरे, अपना सुइट नम्बर तक बता गयी। औरत है, और क्या हिंट देती तुझे?”
“मुझे?”
“हमें।”
“यही तो फच्चर है।”
“मतलब?”
“दोनों वहाँ पहुँचे तो कुछ हो सकता भी होगा तो नहीं होगा।”
“बात तो तेरी ठीक है। ठीक है, तू जा।”
“मैं जाऊँ?”
“हाँ। ऐसा सुनहरा मौका गँवाना बेवकूफ़ी होगी। मेरे बारे में सवाल करे तो बोलना कोई मिल गया था, मैं उसके साथ बिजी था, बाद में आऊँगा।”
“आयेगा?”
“और क्या झोली में खुद आके गिरा वर्जित फल तुझ अकेले को हजम कर जाने दूँगा?”
वो कुत्सित भाव से हँसा, तत्काल संजीदा हुआ।
“कितनी देर में?” — उसने पूछा।
“तू बता।”
“आधा घन्टा। उसके सुइट तक पहुँचने में जो वक्त लगेगा, उसके अलावा। आधे घन्टे में कुछ न हुआ तो कुछ होगा भी नहीं। समझूँगा साली ने उल्लू बनाया।”
“ठीक। लेकिन एक बात की ताकीद है।”
“किस बात की?”
“काम न बने तो आपे से बाहर न होना।”
“क्या मतलब?”
“अरे, जोर-जबरदस्ती न करना। फौजदारी पर न उतर आना। भरा पूरा होटल है, ऐसा कुछ किया तो बेभाव की पड़ेंगी।”
“ताकीद का शुक्रिया। मैं आपा नहीं खोऊँगा।”
“शाबाश! जा!”
जाने से पहले उसने बार से एक जाम और हासिल किया और उसे दो मिनट में ख़ाली किया।
उसके निगाह से ओझल होते ही विमल अशरफ की तलाश में निकला।
स्काच और प्रत्याशा के मिले-जुले नशे के हवाले अशोक होटल की चौथी मंजिल पर और आगे सुइट ‘406’ पर पहुँचा।
उसने काल बैल का पुश बटन दबाया।
भीतर कहीं से घन्टी बजने की मद्धम-सी आवाज आयी।
“खुला है।” — फिर अवध की अप्सरा की महीन आवाज सुनायी दी।
दरवाजा ठेल कर वो भीतर दाखिल हुआ। उसके पीछे ऑटोमैटिक लॉक वाला दरवाजा निशब्द बन्द हुआ। वो आगे बढ़ा।
फ्रंट रूम ड्राईंगरूम की तरह सुसज्जित था और वहाँ वो नहीं थी।
गुड!
पीछे बैडरूम था और बीच का दरवाजा खुला था।
उसने उस दरवाजे की तरफ कदम बढ़ाया।
लालसा से उसका मुँह माथा तपने भी लगा था। उसकी फाश ख़्वाहिशों की न्यूजरील उसके जेहन पर चलने भी लगी थी।
वो बीच की चौखट पर पहुँचा। उसने अपने पीछे दरवाजा बन्द किया।
वो बहुत चित्ताकर्षक पोज बनाये पीठ के बल बैड पर लेटी हुई थी। उसकी दोनों बांहें यूँ उठी हुई थीं, दोनों हाथ यूँ गर्दन के पीछे बन्धे थे कि उसके उन्नत उरोज और उन्नत लग रहे थे।
अशोक के जिस्म में झुरझुरी दौड़ी, आँखों में लालसा के गुलाबी डोरे तैर गये।
उसे देख कर अल्तमश ने उठने की कोशिश की।
“अरे, नहीं।” — अशोक ने तत्काल विरोध किया — “उठने की जरूरत नहीं।”
“भई, मेहमान आया है।” — बैड पर से उठता अल्तमश खनकती आवाज से बोला — “इस्तकबाल तो उठ कर ही करना होगा न!”
तब तक अशोक बैड के करीब पहुँच गया था।
अल्तमश उसके सामने खड़ा हुआ।
“ख़ुशामदीद!” — वो बड़ी अदा से बोला।
“शुक्रिया।”
“वो आये हमारे घर में, खुदा की कुदरत हैं; कभी हम उनको, कभी अपने घर को देखते हैं।”
“भई, वाह! मेहमान को रिसीव करना तो बस लखनऊ वालों को ही आता है!”
“दोस्त नहीं आया?”
“नहीं आया।”
“वजह? उसे रैस्ट की जरूरत नहीं?”
“जरूरत तो थी लेकिन रैस्ट करने के, रिलैक्स करने के उसके अपने तरीके हैं।”
“अच्छा!”
“हाँ। अच्छा भला मेरे साथ आ रहा था, मेहमानों में एक वाकिफ लड़की दिखाई दे गयी। यार को छोड़ के उसके साथ चिपक गया!”
“सच में? सब के सामने!”
“क्या बोला?”
“तुमने बोला। बोला न, उसके साथ चिपक गया?”
“वो तो मैंने मुहावरे की जुबान में बोला न!”
“ओह! मैं समझी सच में चिपक गया।”
“बहुत भोली हो।”
अल्तमश हँसा फिर मादक स्वर में बोला — “तो अब तुम्हें रैस्ट चाहिये?”
“हाँ। अलबत्ता ये तफ्तीश का मुद्दा है कि रैस्ट हासिल होगा तो कैसे, किस सूरत में हासिल होगा।”
“मैं समझी नहीं।”
“अभी तुमने एक शेर कहा था। इजाजत हो तो मैं भी एक शेर कहूँ?”
“इजाजत है।”
“वो शेर नहीं। इस घड़ी भी दिल की आवाज है। वादा करो कि बुरा नहीं मानोगी।”
“किया।”
“आये हैं तेरे दर पर कुछ कर के उठेंगे। या वस्ल ही हो जायेगा या मर के उठेंगे।”
“हूँ!” — अल्तमश ने लम्बी हुंकार भरी — “तो ये इरादे हैं?”
“हैं तो सही!”
“ख़तरनाक इरादे?”
“वो भी।”
“अंजाम दे पाओगे?”
“उम्मीद तो है!”
“हमें तो शक है!”
“क्यों भला?”
“नशे में हो।”
“ऐसा नशे में मैं रोज होता हूँ।”
“किसलिये?”
“नौजवान ख़ून में उबाल लाने के लिये।”
“इस वक्त उबल रहा है ख़ून?”
“हाँ। बेतहाशा।”
“फिर भी हमें शक है।”
“मैं अभी शक दूर करता हूँ।”
पहले ही काबू से बाहर हुआ जाता अशोक बाज की तरह उस पर झपटा। उसने अपनी मजबूत बाँहों में उसे दबोच लिया।
“अरे, अरे! ये क्या करते हो! छोड़ो! छोड़ो!”
अशोक उसका चुम्बन लेने की कोशिश करने लगा।
“अरे, पागल हुए हो! तीन घन्टे लगे शादी में शिरकत के काबिल मेकअप कराने में। तुम तो पलक झपकते बिगाड़ने पर तुले हो! ड्रैस को भी।”
“सॉरी!”
“सॉरी भी होना। छोड़ो पहले।”
“हाथ आई जन्नत छोड़ने को कह रही हो!”
“अरे, छोड़ो तो! अभी जन्नत कहीं भागी नहीं जा रही।”
“ओह! भागी नहीं जा रही।”
अशोक ने उसे बन्धनमुक्त किया।
अल्तमश अपनी ड्रैस ठीक करने लगा, बाल सँवारने लगा।
“सॉरी!” — अशोक बोला।
“वॉट सॉरी!” — अल्तमश ने नकली नाराजगी जताई — “फल खाना हो तो पेड़ उखाड़ देते हैं? फूल सूँघना हो तो बगीचा उजाड़ देते हैं?”
“तो क्या करते हैं?”
“मेरे से सीखना चाहते हो?” — अल्तमश ने इठला कर दिखाया।
“इतने काबिल उस्ताद से कोई सबक मिले तो जहेनसीब।”
“फन्देबाज!”
अशोक हँसा। निरर्थक हँसी।
“बाज!” — अल्तमश निचला होंठ चुभलाता बोला — “और मैं क्या?”
“क्या?”
“कबूतरी।”
“कबूतरी को तो बाज काबू में करता है झट!”
“हमारे यहाँ उल्टा रिवाज है।”
“क्या!”
“कबूतरी बाज को काबू में करती है।”
“वाह!”
“तुम चाहते हो कबूतरी के काबू में आना?”
“हाँ। हाँ।”
“तो जो कहूँगी, करोगे?”
“हाँ।”
“याद करोगे कोई मिली थी। जन्नत का नजारा होगा।”
“अरे, करूँगा न! अब कुछ बोलो तो सही!”
“अनड्रैस।”
“क्या!”
“तुम्हें तो पता लग गया तुम्हें क्या हासिल होना है। मुझे भी तो पता लगना चाहिये!”
“कमाल है!”
“अब या तो कहना मानो या बाहर जाओ, सोफे पर पड़ जाओ और रैस्ट करो जो करने आये हो। और मुझे यहाँ रैस्ट करने दो।”
“जो करने आया था, वो तो कब का भूल गया। अब तो वो याद है जो करना है।”
“करना।”
“पक्की बात?”
“हाँ।”
“मुकर तो नहीं जाओगी?”
“नहीं। और जो होगा ऐसा होगा कि ताजिन्दगी कुछ नहीं कर पाओगे।”
“क्या मतलब?” — अशोक का लहजा सर्द हुआ।
“वैसा नहीं कर पाओगे जैसे का मौका यहाँ पाओगे।”
“ओह!” — उसने चैन की साँस ली, उसका मिजाज पहले वाले मुकाम पर पहुँचा — “वैसा नहीं कर पाऊँगा। मैं तो कुछ और ही समझा था।”
“जब कोई मेरे साथ होता है तो हमेशा कुछ और ही समझता है। ऐसा, जैसा पहले कभी न समझा हो। फिर समझता है कि क्या समझना था और क्या कभी न समझा।”
“बातें कमाल की करती हो।”
“नाओ, अनड्रैस। डोंट वेस्ट टाइम। बारात में शामिल होना है मेरे को। भूल गये?”
“नहीं। ओके। ओके। लेकिन एक शर्त मेरी भी है।”
“बोलो।”
“तमाम बत्तियाँ बन्द करो।”
“अरे! अन्धेरे में मुझे दिखाई कैसे देगा कि मुझे क्या हासिल होना है।”
उसने उस बात पर विचार किया।
“एक फुट लाइट जलती रहने दो।”
अल्तमश ने वो सब किया।
फुटलाइट की बहुत ही नाकाफी रौशनी में अशोक ने अपने जिस्म के तमाम कपड़ों को तिलांजलि दी। अब वो मादरजात नंगा खड़ा उम्मीद से थरथरा रहा था कि अभी उसे जन्नत का नजारा होने वाला था।
अल्तमश ने करीब आकर बड़ी नजाकत से उसके जिस्म पर हाथ फेरा।
अशोक निहाल हो गया। उसकी उम्मीदें दोबाला हो गयीं। जोश में चार गुणा इजाफा हो गया।
“हाथ पीठ पीछे करो।” — अल्तमश ने आदेश दिया — दोनों।”
अब प्रत्याशा में थर्राते अशोक ने वजह तक न पूछी। उसने अपने दोनों हाथ पीठ पीछे किये।
खटाक!
फौरन ही स्टेनलैस स्टील की एक खटके से बन्द होने वाली हथकड़ी पीठ पीछे फिरी उसकी कलाईयों से पिरोई गयी।
अशोक ने कलाईयों को उमेठा तो उसे पता लगा क्या हुआ था!
“अरे!” — वो भड़का — “ये क्या किया?”
“धीरे! धीरे!” — अल्तमश ने बड़े प्यार से पुचकारा — “शोर नहीं। वर्ना तुम्हारा मजा खराब होगा।”
“लेकिन . . . ये . . . ये क्या . . .”
“कुछ नहीं। हथकड़ी। प्यार की।”
“लेकिन क्यों?”
“ये लखनवी अन्दाज है।”
“क्या!”
“मैं कनीज! तुम मेरे आका। मालिक। सरताज। तुम्हारी हर खि़दमत करना मेरा फर्ज है। तुम्हें कुछ करना पड़ा तो लानत है मेरी तमीज पर। तहजीब पर। कनीज होने पर।”
“क-क्या कह रही हो?”
“मैं कोई मामूली औरत नहीं हूँ। इसलिये कोई भी काम मामूली तरीके से करना भला कैसे मंजूर होगा मुझे!”
“क-कौन हो तुम?”
“मैं! मैं . . . मैं हूँ।”
“मजाक न करो। बोलो, कौन हो तुम!”
“कोई मामूली औरत नहीं हूँ।”
“नहीं हो। नहीं हो। लेकिन हो कौन?”
“मैं शाही ख़ानदान से हूँ। नवाब वाजिद अली शाह की पाँचवीं पीढ़ी हूँ।”
“मुसलमान हो?”
“कोई ऐतराज?”
“नहीं। नहीं। नाम?”
“सुलताना बेगम!”
“बढि़या नाम है . . .”
“शुक्रिया।”
“लेकिन सुलताना डाकू तो बनकर न दिखाओ, सुलताना बेगम!”
अल्तमश होंठ दबा कर हँसा।
“तुम्हारी तमाम नवाजिशें सिर माथे लेकिन . . . लेकिन ये जो तुमने किया है, ये . . . ये मुझे मंजूर नहीं।”
“फिर तो जो मैं आगे करने जा रही हूँ, वो तो और भी नामंजूर होगा!”
“क्या! क्या करने जा रही हो?”
“ये।”
अगले ही क्षण अशोक के गुप्तांग बांस की खपच्ची की जकड़ में थे।
“ये” — अशोक तड़पा — “ये क्या?”
“एहतियात।” — अल्तमश उसे पुचकारता-सा बोला।
“एहतियात! कैसी एहतियात?”
“मैं बाइज्जत, बाशऊर, बाअख़लाक ख़ानदानी औरत हूँ, ग़ैर मर्द का तमाम जिस्म अपने जिस्म को छूने नहीं दे सकती। मैं . . .”
“तू बहन की . . . कुत्ती, छिनाल औरत है।” — एकाएक अशोक के तेवर बदले — “अब मेरी समझ में सब आ गया है . . .”
“शुकर है।” — अल्तमश व्यंग्यपूर्ण भाव से बोला।
“ओ, गॉड! ओ, माई गॉड! अमित के अंजाम से वाकिफ कैसे मैं सब जानते-बूझते इस जाल में फँस गया! वैसी ही साजिश का शिकार हो गया जैसी का अमित हुआ। वैसे ही औरत के हाथों बेवकूफ बना, जैसे अमित बना। गॉड! क्यों अक्ल मारी गयी थी मेरी . . .”
“चुप हो जा, बेटा!” — अल्तमश ने पुचकारा — “अच्छे बच्चे नहीं रोते।”
“तू वही औरत है जिसने अमित की दुरगत की। जान से मार दूंगा, मां की . . .”
अशोक सिर झुकाये, पगलाये भैंसे की तरह उस पर झपटा।
चार मजबूत हाथों ने उसे पीछे से थाम लिया।
विमल और अशरफ शुरू से ही ड्राईंगरूम में थे, कमरे का एक्स्ट्रा की-कार्ड उन के पास बुकिंग के वक्त से ही था — वो कमरा बारात की बुकिंग का हिस्सा नहीं था, एडवांस पेमेंट करके उन्होंने बुक कराया था — और वो सब देख सुन रहे थे।
अशोक ने गला फाड़ कर चिल्लाने की कोशिश की।
अशरफ की बाँह साँप की तरह उसके गले से लिपटी, गले की घन्टी जोर से दबी तो उसकी चीखने को तैयार आवाज उसके गले में ही घुट कर रह गयी।
“चिल्लाने की कोशिश की” — अशरफ उसके कान में फुँफकारा — “तो पहले जुबान कटी पायेगा। चाहता है ऐसा हो?”
अशोक ने सप्रयास इंकार में सिर हिलाया।
अशरफ ने बाँह वापिस खींच ली।
“ये क्या हो रहा है?” — अशोक विलाप-सा करता बोला — “मैंने क्या बिगाड़ा है तुम्हारा?”
“कौन किसी का कुछ बिगाड़ता है!” — विमल बोला — “सब बुरे वक्त का लेखा है। रास्ते में पड़ा होता है दिखाई नहीं देता। जो ठोकर खाता है, वो मुँह के बल गिरता है।”
“ये . . . ये तो . . . ये तो गिरीश की आवाज है! बत्ती जलाओ! बत्ती जलाओ।”
“नहीं देख पायेगा अपना अंजाम, कुत्ते! पहले ही दिल बैठ जायेगा।”
“ये जुल्म है! ये जुल्म है!”
“है तो क्या? जुल्म ढा सकता है, कमीने, जुल्म सह नहीं सकता?”
“मेरे से गलती हो गयी। माफ कर दो।”
“कब कबूला गलती हो गयी? जब जान पर आन बनी। वर्ना अभी भी हवस की गुलामी ही तुझे यहाँ लायी। किसलिये? जिस गलती की अब माफी माँग रहा है, उसे दोहराने के लिये?”
“मैं शर्मिंदा हूँ। मुझे अमित ने गुमराह किया। वही हमारा लीडर था जो . . .”
“अब किसने गुमराह किया? अब तो अमित यहाँ नहीं था।”
“वो . . . तो . . . मैं . . . मैं . . .”
“श्यानपत्ती से बाज नहीं आ सकता। अपनी हरामजदगी यार पर थोप रहा है क्योंकि तेरा मुँह पकड़ने के लिये वो यहाँ नहीं आ सकता।”
“मैं शर्मिंदा हूँ। मैं नालायक हूँ, नामाकूल हूँ, मोरी का कीड़ा हूँ, बस एक बार . . . एक बार जान बख़्श दो।”
“ठीक है। बख़्श देते हैं।”
“शु-शुक्रिया। शुक्रिया। मैं आप का अहसान जिन्दगी भर नहीं भूलूँगा।”
“और भी बहुत कुछ तू जिन्दगी भर नहीं भूलेगा।”
“क-क्या?”
“जान बख़्शी है, सब कुछ नहीं बख़्श दिया।”
“क-क्या मतलब?”
“काम खत्म कर, भई अपना। ताकि मतलब समझ में आये इसके।”
अल्तमश ने ख़ामोशी से सहमति में सिर हिलाया और उस्तरा निकाल लिया।
वो वारदात क्योंकि एक भरे-पूरे होटल में वाकया हुई, इसलिये उसे छुपाया न जा सका। ख़ामोशी से होटल में पुलिस पहुँची और ख़ामोशी से ही अशोक जोगी को हस्पताल पहुँचाया गया।
उसकी फैमिली और होटल के स्टाफ के दो, तीन जनों के अलावा — जिन्हें पुलिस ने ख़ामोश रहने की सख़्त हिदायत दी — किसी को कानोंकान ख़बर न हुई कि वहाँ क्या हुआ था। और यूँ शादी के रंग में विघ्न आने से बचा।
पुलिस ने रूम रजिस्ट्रेशन की पड़ताल की तो मालूम पड़ा कि ऑकूपेंट का रजिस्ट्रेशन के वक्त पेश किया प्रूफ ऑफ आइडेन्टिटी और प्रूफ ऑफ रेजीडेंस दोनों जाली थे और चैक आउट उसने किया ही नहीं था, क्योंकि रूम रैंट एडवांस में पेड था।
ऐसा क्यों हुआ? — पुलिस का सवाल था — बिना लगेज गैस्ट को कमरा क्यों दिया गया?
शादी-ब्याहों के अवसर पर वो बात आम थी। कोई मेहमान ज्यादा पी लेता था या ज्यादा फासले की वजह से देर रात घर नहीं जाना चाहता था तो ओवरनाइट स्टे के लिये कमरा उसे ऐसे ही मुहैया कराया जाता था।
हमलावर एक तो न होगा?
क्योंकि वो हट्टा-कट्टा कडि़यल नौजवान किसी एक के काबू में तो नहीं आने वाला था!
उस बाबत बार से पूछताछ हुई तो मालूम हुआ कि बारमैन ने उसे एक जगमग-जगमग नौजवान लड़की के और एक सूटबूटधारी युवक के साथ देखा था, तीनों ने उसके सामने ड्रिंक्स शेयर की थीं जिसके बाद दोबारा वो बार पर पंडाल के उस हिस्से में नहीं दिखाई दिये थे।
पंडाल क्योंकि टैम्परेरी था, शादी के लिये ही होटल के बाजू में खड़ा किया गया था, इसलिये उस में सीसीटीवी नैटवर्क संस्थापित नहीं था। लेकिन बड़ी शादी थी इसलिये फोटोग्राफरों की वहाँ कोई कमी नहीं थी। पड़ताल करने पर पता लगा कि दो वीडियो बनाने वाले शादी की कवरेज में लगे हुए थे और कोई आधा दर्जन स्टिल फोटोग्राफर वहाँ मौजूद थे लेकिन उन्हें शादी के दौरान डिस्टर्ब नहीं किया जा सकता था। लिहाजा उनके जरिये काले सूट वाले की और लहंगा चोली वाली जगमग युवती की शिनाख़्त के लिये अगले रोज से पहले कुछ नहीं किया जा सकता था।
कथानक की अगली और आखि़री कड़ी
जाके बैरी सन्मुख जीवै
जाके बैरी सन्मुख जीवै
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